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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ पंडित रामचम्ब इनका जन्म लम्ब कंचुक वंश में हुआ था । इनके पिता का नाम 'सुभग' और माता का नाम 'देवकी' था । इनकी धर्मपत्नी का नाम 'मल्हूणा' देवी था, जिससे 'अभिमन्यु' नाम का एक पुत्र उत्पन्न हुआ था, जो शीलादि सद् गुणों से अलंकृत था। कवि ने उक्त अभिमन्यु की प्रार्थना से प्राचार्य पुन्नाट संघीय जनसेन के हरिवंश पुराणानुसार संक्षिप्त हरिवंश पुराण की रचना की है । ग्रन्थ की रचना कब और कहां पर हुई इसका प्रचारित में कोई उल्लेख नहीं है । कारंजा के बलात्कारगण के शास्त्रभंडार की यह प्रति सं०१५६० की लिखो हुई है। इसमें इतना तो सुनिश्चित है कि अन्य संवत् १५६० से पूर्ववर्ती है। संभवतः यह रचना १५ वीं शताब्दी में रची गई हो । ४१४ नागदेव IAM नागदेव मल्लूगित का पुत्र था उसने अपने कुटुम्ब का परिचय इस प्रकार दिया है: चंगदेव का पुत्र हरदेव हरदेव का नागदेव, नागदेव के दो पुत्र हुए हेम और राम ये दोनों ही वैद्य कला में अच्छे निष्यात थे। राम के प्रियंकर और प्रियंकर के मल्लुगित, और मल्लुमित के नागदेव नाम का पुत्र हुआ । २ नागदेव ने अपनी लघता व्यक्त करते हुए अपने को अल्पश तथा छन्द अलंकार, काव्य, व्याकरणादि से अनभिज्ञ प्रकट किया है। इसकी एक मात्र कृति 'मदन पराजय' है । कवि ने लिखा है कि सबसे पहले हरदेव ने 'मयणपराजय' नाम का एक ग्रन्थ अपभ्रंश भाषा के पद्धडिया र रंगा छन्द में बनाया था। नागदेव ने उसी का अनुवाद एवं अनुसरण करते हुए उसने यथावश्यक संशोधन परिवर्तनादि के साथ विविध खादों याद किया है। । यह ग्रन्थ एक रूपक खण्ड काव्य है, जो बड़ा ही सरस और मनमोहक है, इसमें कामदेव राजा मोह, मंत्री अहंकार और अज्ञान बादि सेनानियों के साथ जो भावनगर में राज्य करते हैं। वारित्र पुर के राजा जिनराज उनक शत्रु है; क्योंकि पी कन्या से पाणिग्रहण करना चाहते हैं कामदेव ने राग-द्वेय नाम के दूत द्वारा महाराज जिनराज के पास यह सन्देश भेजा कि आप या तो मुक्ति कन्या से अपने विवाह के विचार का परित्याग कर अपने प्रधान सुभट दर्शन, ज्ञान, चारित्र को मुझे सौंप दें, अन्यथा युद्ध के लिये तैयार हो जाय। जिनराज ने उत्तर में काम देव से युद्ध करना ही श्रेयस्कर समझा और अन्त में कामदेव को पराजित कर अपना विचार पूर्ण किया । अब रही समय को बात, ग्रन्थ कर्ता ने रचना समय नहीं दिया, जिससे यह निश्चित करना कठिन है कि नागदेव कब हुए हैं । ग्रन्थ की प्रति सं० १५७३ की प्रतिलिपि की हुई उपलब्ध है उससे स्पष्ट है कि ग्रन्थ उसके बाद का नहीं हो सकता, उससे पूर्ववर्ती है। संभवतः ग्रन्थ विक्रम की १५ वीं शताब्दी में रचा गया है। १. लम्बकंचुकी जाली जन-मनोहरः । सोनदेवको यस्य वल्लभा ॥४ तदात्मनः कलानेदी विभूषितः। रामनन्दामि श्रेष्ठी मला निता प्रिया २५ नवयातील नायकृतः । भिमन्यु महादानी तत्त्रार्थना वशादसरे ॥६ २. पः शुद्ध मोमकुल-पद्म-विका नार्को जातोऽर्थिनां सुरतषभु विचंगदेवः । तन्नंदनो हरि रसत्कवि नागसिंहः तस्माद्भिषग् जनपति भुंविनागदेवः ॥२ भियना विरामी रामात्प्रियंकर इति योऽचिनयः । विवरित महाराणी जनपदमभूः ॥13 - जैन ग्रन्थ प्रशस्ति० भा० १ पृ० ३६ जैन प्रन्थ प्रश० भा० १ ० ७६
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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