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________________ | 1 : 1 १५ १६ १७६ १८ शताब्दी के प्राचार्य, मट्टारक और कवि अभिनव वारुकीति पंडितदेव चारुकीर्ति पंडिदिव - यह नन्दिसंघ देशीय गण पुस्तक गच्छ इंगनेश्वर बलिशाखा के भट्टारक श्रुतकोति के शिष्य थे। इनका जन्म नाम कुछ और ही रहा होगा । चारुकीर्ति नाम तो श्रवणबेलगोल के पट्ट पर बैठने कारण प्रसिद्ध हुआ है। इनका जन्मस्थान द्रविण देशान्तर्गत सिंहपुर था। यह चारुकीति पंडिताचार्य के नाम से ख्यात थे और श्रवण बेलगोल के चारुकीर्ति भट्टारक के पद पर प्रतिष्ठित थे। यह विद्वान और तपस्वी यं । वादी तथा चिकित्सा शास्त्र में निपुण थे । तप में निष्ठुर, चित्त में उपशान्त, गुणों में गुरुता और शरीर में कृशता थो एक बार राजा बल्लाल युद्ध क्षेत्र के समीप मरणासन्न हो गए। भट्टारक चारुकीति ने उन्हें तत्काल नीरोग कर दिया था । ४१५ इन्होंने गंगवंश के राजकुमार देवराज के अनुरोध से 'गीत वीतराग' का प्रणयन किया था। इसमें ऋषभदेव का चरित वर्णित है। जयदेव ( सन् १९८०) के गीत गोविन्द के ढंग पर इसकी रचना हुई है। इसका अपर नाम अष्टपदी है। इस ग्रन्थ का नि का वाक्य इस प्रकार है : "इति श्रीमहाराज गुरु सूमण्डताचार्यवर्ग महावाद वादीश्वराय वादि पितामह सफल विद्वज्जन चक्रवर्ती बल्लालराय जोन रक्षपाल (१) कृत्याद्यनेक विपदावलिविराजलगोल संद्ध सिहासनाधीश्वर श्रीमदभि नवचारुकीति पण्डिताचायं वयं प्रणीत गोत बीत रागाभिधावाष्ट पदी समाप्ता ।" इनकी दूसरी कृति 'प्रमेयरत्नगाचालंकार है जो परीक्षामुखसूत्र को व्याख्या प्रमेयरत्न माला की व्याख्या है । उसी के विषय का विशद विवेचन किया है। अन्य दार्शनिक है और छह परिच्छेदों में विभक्त है । ग्रन्थ अभी अप्रकाशित है इसका समाप्ति पुष्पिका वाक्य इस प्रकार है : इति श्रीमद्द शिगणाग्रगणण्यस्य श्रीमद्व ेल मुलपुर निबास रतिकस्य चारुकोति पण्डिता चार्यस्य कृती परीक्षा मुख सूत्र व्याख्यायां प्रमेय रत्नवाला लङ्कार समाख्यायां षष्ठः परिच्छेदः समाप्तः ॥ समय- भट्टारक श्रुतकीर्ति का स्वर्गवास शक सं० १३५५ (सन् १४३३) में हुआ है। प्रतएव अभिनव चारुकीति का समय शक सं० १३५० (सन् १४२८) है। यह विक्रम की १५वीं शताब्दी के विद्वान हैं। लक्ष्मीचन्द्र इनका कोई परिचय प्राप्त नहीं है । लक्ष्मीचन्द्र की दो कृतियां उपलब्ध हैं। एक सावय धम्म दोहा (श्रावक धर्म दोहा) दूसरी कृति 'श्रनुप्रेक्षा दोहा ' है । धावक धर्म दोहा--में श्रावक धर्म का वर्णन २२४ दोहों में किया गया है। दोहा सरस मौर सरल हैं । किन्तु कवि कुशल, अनुभवी, व्यवहार चतुर और नोतिज्ञ जान पड़ता है। कथन शैला प्रादेशात्मक है । ग्रन्थ की भाषा अयभ्रंश होते हुए भी लोक भाषा के अत्यधिक निकट है। दोहों में दृष्टान्तं वाक्य जुड़े होने के कारण ग्रन्थ प्रिय र संग्राह्य हो गया है। वादीभसिंह की क्षत्र चूड़ामणि सुभाषित नीतियों के कारण बहुत ही प्रिय और उपादेय बना हुआ है । डा० ए० एन० उपाध्याय के अनुसार ब्रह्मश्रुतसागर ने नी दोहे इस ग्रन्थ के उक्तं च रूप से दिये हैं। इससे इतना तो स्पष्ट है कि प्रस्तुत दोहों की रचना विक्रम की सोलहवीं शताब्दी के मध्य काल से पूर्व हुई है ग्रन्थ में प्रष्ट प्रकारी पूजा का फल दिया है और निम्न प्रमक्ष वस्तुओं के खाने से सम्यग्दर्शन का भंग होना बतलाया है । सूलउ णाली- भिसु - ल्हसुगु-त व करड- कलिगु । सूरण- फुल्ल स्थापयहं भववणि दंसण भंगु । - गीत बीतराग प्रश० १. द्रविड देश विशिष्टे सिंहपुरे लब्धस्त जन्मासी । २. जैन लेखसंग्रह मा० १ ० २१३ लेख नं० १०८ । ३. देखो, गीत वीतराग प्रशस्ति ।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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