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________________ तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के विद्वान आचार्य और कवि श्चित-सा है कि वे घारावासी प्रभाचन्द्राचार्य जो माणिक्यनन्दि के शिष्य थे उक्त टीकामा का नहीं हो सकते। समय-विचार प्रभाचन्द्र का पट्टावलियों में जो समय दिया गया है, वह अवश्य विनारणोय है । उममें रत्नकोनि के पट्ट पर बैठने का समय सं० १३१० तो चिन्तनीय है ही। सं० १४८१ के देवगढ़वाले शुभचन्द्रवाले शिलालेख नभो रत्न. कीर्ति के पट्ट पर बैठने का उल्लेख है, पर उसके सही समय का उल्लेख नहीं है । प्रभाचन्द्र के गुर रत्नकीत्ति का पट्टकाल पट्टावली में १२६६-१३१० बतलाया है। यह भी ठीक नहीं जंचता, संभव है व १४ वर्ष पटटकाल में रहे हों। किन्तु बे अजमेर पट्ट पर स्थित हुए और वहीं उनका स्वर्गवास हमा। ऐसी स्थिति में समय सीमा को कुछ बढ़ा कर विचार करना चाहिए, यदि वह प्रमाणों आदि के आधार से मान्य किया जाय तो उसमें १०-२१ वर्ष की वृद्धि अवश्य होनी चाहिये, जिससे समय की संगति ठीक बैठ सके । आगे पीछे का सभी समय यदि पूरकल प्रमा. णोंकी रोशनी में चचित होगा, तो वह प्रायः प्रामाणिक होगा। आशा है विद्वान् लोग भट्टारकीय पट्टावलियों में दिये हुए समय पर विचार करेंगे । भट्टारक इन्द्रनन्दी (योगशास्त्र के टीकाकार) यह काष्ठासंघान्तर्गत माथरसंघ के विद्वान अमरकीति के शिष्य थे। जिन्हें इन्द्रनन्दिन चतुर्थागमोदी मुमुक्षनाथ ईशिन्, अनेक वादिब्रज सेवितचरण और लोक में परिलब्धपूजन जैसे विशेषणों के साथ उल्लेखित किया है। यथा-लसच्चतुर्भागम बेदिन पर ममक्षनाथा ऽमरकोतिमोशिनम । अनेकवानिवजसे वितक्रम, विनम्यलोके परिलब्धपूजनम् ।।२।। जिना (निजा) त्मनो ज्ञान विवे प्रशिष्टा वितद्विशिष्टस्य सुयोगिनां । योगप्रकाशस्य करोमि टीका सूरीन्द्रनन्दीहितनन्विनवे ॥३ यह अपने समय के अच्छे विद्वान थे। इन इन्द्रनन्दि की एक मात्र कृति श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्र कृत योगशास्त्र को टीका है। जिसका नामकर्ता ने योगीरमा, सूचित किया है। जैसा कि टीका के योगिरमेन्द्र मनियः वाक्य से जाना जाता है। इस टीका को एक प्रति स्व. पं. जुगलकिशोर मुख्तार को करंजाभंडार से माणिक चन्द्र जी चवरे द्वारा प्राप्त हई थी। और जिसे भद्रारक इन्द्रनन्दि ने जैनागम, शब्दशास्त्र भरत (नाटय) और छन्द शास्त्रादि की विज्ञा चन्द्रमता नाम की चारु विनया (विनयशील) शिष्य के बोध के लिये बनाई थी। जैसा कि प्रशस्ति के निम्न पय वाक्यों से स्पष्ट है "श्री जैनागमशब्दशास्त्र-भरत-छन्दोभिमत्यादिक वेत्री चन्द्रमतीति चारविनया तस्या विबोध्य शुभा ।।" टोका रन्दर और विषय को प्रतिपादक है। इस टीका का विशेष परिचय अनेकान्त वर्ष २० किरण ३ पृ०१०७ में देखना चाहिये । इस टीका का तुलनात्मक अध्ययन करने से योगशास्त्र की मूल स्थिति पर अच्छा प्रकारा पड़ेगा । टीका में रचना समय दिया है। जिससे इन्द्रनन्दी का समय वि० सं० १३१५ निश्चित है। हमचन्द्र के ८६ वर्ष बाद टीका बनी है। हेमचन्द्र का स्वर्गवास सं० १२२६ में हुआ है। प्रस्तुत टीका ११व ईश्वर सम्बत्सर १९८२ (वि० सं०१३१५) में चैत्र शुक्ल द्वितीया के दिन बनाकर समाप्त की गई है। खाष्टेशे शरदीतिमासिच शुचौ शुक्ल द्वितीया तिथी, टीका योगिरमेन्द्रनन्दिमुनियः श्रीयोगसारीकृता - - -. ... ........ १. इति योगशास्त्रे म्या पंचमप्रकाशाय श्रीमदमरकीति भट्टारकारणां शिष्य थीभट्टारक इन्द्रन्दि विचिनाया गोगवान्य टोकायां द्वितीयोपकारः ।" कारंजा भण्डार प्रति, अनेकान्त वर्ग २० किरण ३००७ - - -- -- -- ....... .--
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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