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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ के साथ मानस्तम्भको देखा। उसके देखते ही उसका मान गलित हो गया। उसने बर्द्धमान विशुद्धि से संयुक्त भगवान महावीर का-प्रसंख्यात भवों में अजित महान कर्मों को नष्ट करने वाले जिनदेव का-दर्शन कर तीन प्रदक्षिणायें दी, और पाँच अंगों द्वारा भूमिस्पर्शपूर्वक वन्दना करके हृदय में जिन भगवान का ध्यान किया । इन्द्रभूति का विद्या सम्बन्धी सब अभिमान चला गया, और अन्त:मानस अत्यन्त निर्मल हो गया। हृदय में विनय और विशद्धि का उद्रेक बढ़ा, और वैराग्य की तरङ्गों ने उन्हें झकझोर डाला। इन्द्रभूति ने तत्काल वस्त्रादि ग्रंथों का परित्याग किया और पंच मष्टि से केशों का लोच किया पोर दिगम्बर दीक्षा धारण की। उस समय उन की अवस्था पचास वर्ष के लगभग थी उन्होंने पच महाव्रतों का अनुष्ठान किया, पांच समितियों का प्राचरण किया, और रागडेप रहित हो तीन गुप्तियों से सम्पन्न, निःशल्य, चार कषायों से रहित, पंचेन्द्रियों के विषयों से विरक्त. तथा मन-वचन-काय रूप त्रिदण्डों को भग्न करने वाले, पट निकाय जीवों के संरक्षक, सप्तभय रहित, अष्टमद वजित, दीप्त, तप्त और अणिमादि वैफियिक लब्धियों से सम्पन्न, पाणिपात्र में दी गई खीर को प्रमतरूप से परिवर्तित करने और उसे अक्षय बनाने में समर्थ, क्षुधादि बाईस परिषहों के विजेता, जिन्हें आहार और स्थान के विषय में अक्षीण ऋद्धि प्राप्त घी तपोबल से विपुलमति गन पर्ययज्ञान के धारक और सर्वावधि अवधिज्ञान से अशेष पुदगल द्रव्य का साक्षात् करने वाले ऋद्धि सम्पन्न प्रमुख गणधर पद से अलंकृत हुए। यह घटना ग्राषाढी पूर्णिमा के दिन घटित हुई, इसी से उसे गुरु पूर्णिमा' कहते हैं। उसके पश्चात श्रावण कृष्ण प्रतिपदा के दिन ब्राह्म मुहुर्त में भगवान महावीर को दिव्य ध्वनि खिरी और गौतम गणधर ने उसे द्वादशांग रूप से निबद्ध किया। केबलज्ञान से विभूषित भगवान महावीर द्वारा कहे गये अर्थ को, उसी काल में और उसी क्षेत्र में भगो. पशमविशेष से उत्पन्न हए चार प्रकार के निर्मल जान से युक्त, वर्ण से जाह्मण, गौतम गोत्री, सम्पूर्ण दधतियों में पारंगत, जीव-जीव विषयक सन्देह को दूर करने के लिये श्री वर्द्धमान के पाद मुल में उपस्थित इन्द्रमति ने पर धारण किया । अनन्तर भावश्रुतरूप पर्याय से परिणत उस इन्द्रभूति ने वर्द्धमान जिन के तीर्थ में श्रावणमा कृष्ण पक्ष में, युग के आदि में, प्रतिपदा के पूर्व दिन में द्वादशाम श्रुत की रचना एक मुहूर्त में की। अतः भावधत १. मानम्तभं तमालोक्य मानं तत्याज गौतमः । निज प्रशोभया येन विस्मितं भुवनत्रयम् ।। -गौतम चरित्र ४-६६ २. ततो जैनेश्वरी दोक्षा भ्रातृभ्यां जग्रेह सह । शिष्यः पंचशतः साई ब्राह्मणकुलसंभवः ।। -गौतम च०४-१०१ ३. महावीर भासियत्यो तस्सिं सेताम्म तत्थ काले य । खामोवममविवचिद्धरमलमईहिं पुणेणं ।। लोपालोयाण तहा जीवाजीवाण विविहविसएसु । सन्देहणासणत्यं उबगदसिरिवीरचलणमूलेण विमले गोदमगोत्ते जादेणं इन्दभूदिणामेण । चउवेदपारगेण सिस्सेण बिसुद्धसीलेग ॥ भावमुदाजयहि परिणदमइणा अवारसंगाणं । चोद्दसपुरवाण तहा एक्कमुहत्तण विरचणा विहिदो ।। -तिलो०प० १७६-७६ 'पुरषो तेरिणदभूदिणा भावसुद-पज्जय-परिणदेण दारहंगाण चोदस-ब्वाणं च ग्रन्थारण मेक्केण चैव मुहतेण कमेणरयणा कदा । तदो भावमुदस्स मत्थपदाणं च तिस्थयरो कत्ता । तित्थय रादो सुद-पज्जाएग गोदमो परियादो नि दच-सुदास गोदमो कत्ता। -पवला. पु०१पृ०६४-६५
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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