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________________ ३४२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ पाठ करते चाप दिगम्बर पद्यानुवाद कल्याण मन्दिर स्तोत्र पार्श्वनाथ का स्तवन है। इस का आदिवाक्य 'कल्याण मन्दिर' से शुरु होने के कारण यह स्तोत्र कल्याणमन्दिर के नाम से प्रसिद्ध हो गया है। प्रस्तुत स्तवन में ४४ पद्य हैं। उन में ४३ पद्य वसन्ततिलका छन्द में और अन्तिम पद्य पार्यावृत्त में हैं। इसमें तेवीसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ का स्तवन किया गया है। यह स्तवन दिगम्बर श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में माना जाता है। यद्यपि दिगम्बरों में इस स्तोत्र की बड़ी भारी मान्यता है। सभी स्त्री पुरुष बालक वालिकाएं इसका नित्य पाठ करते देखे जाते हैं। अनेकों को यह स्तवन कण्ठस्थ है। और अनेकों को पं०वनारसीदास कृत हिन्दी पद्यानुवाद कण्ठस्थ है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में कल्याणमन्दिर स्तोत्र का कर्ता सिद्धसेन दिवाकर को बतलाया गया है और उनका अपर नाम कुमुदचन्द्र माना गया है । सिद्धसेन दिवाकर का दूसरा नाम कुमुदचन्द्र प्राचीन इतिहास से सिद्ध नहीं होता और न उन्होंने कहीं अपने इस द्वितीयनाम का कोई उल्लेख ही किया है। परन्तु अर्वाचीन कुछ ग्रन्थकारों ने उनका अपर नाम कुमुद चन्द्र गढ़ लिया है । जिसका इतिहास से कोई समर्थन नहीं होता किन्तु कल्याण मन्दिर स्तोत्र के विषयवर्णन से कई बातें श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्रतिकूल पाई जाती हैं। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में तीर्थंकर के अशोक वृक्ष, सिंहासन, चमर और छत्र त्रय ये चारप्रातिहार्य माने गए हैं। उनके भक्तामर स्तोत्र पाठ में भी चार ही प्रतिहार्य स्वीकार किये गये हैं। शेष दुन्दुभि, पुष्पवृष्टि, भामंडल और दिव्य-ध्वनि छोड़ दिये गये हैं। इन पाठ प्रतिहार्यों का पाया जाना उक्त सम्प्रदाय को विपरीत है। दूसरे स्तोत्र में भगवान पार्श्वनाथ के वैरी कमठ के जीव शम्बर यक्षेन्द्र द्वारा किये गये भयंकर उपसर्गों का 'प्राग्भारंस भूत्' नभांसि रजांसि रोषात् नामक ३१वें पद्य से ३३ वें पद्य तक वर्णन है, जो दिगम्बर परम्परा के अनुकूल और श्वेताम्बर परम्परा की मान्यता के प्रतिकूल है। क्योंकि दिगम्बराचार्य यतिवृषभ की तिलोय पण्पत्ति' की १६२० नं० की गाथा में- 'सत्तम तेवीसंतिम सिस्थयराणं च उबसग्गो' वाक्य से सातव, तेवीसवें और अन्तिम तीर्थकर के सोपसर्ग होने का उल्लेख है। किन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय में अन्तिम तीर्थंकर महावीर को छोड़कर शेष तेईस तीर्थकरों को निरुपसर्ग माना गया है जैसा कि आचांराग नियुक्ति की निम्न गाथा से स्पष्ट है: ससि तवो कम्म निरुवसांत वणियं जिणाणं । नवरं तु बलमाणस्स सोवसगं मुणेयव्यं ।।२७६ इससे स्पष्ट है कि पार्श्वनाथ का सोपसर्गी होना श्वेताम्बर मान्यता के विरुद्ध है। ऐसी स्थिति में सिद्धसेन दिवाकर को इस स्तोत्र का रचयिता मानना किसी तरह भी संगत नहीं है। चित्तौड़ के दि० जैन कीतिस्तंभ को श्वेताम्बर बनाने के अनेक प्रयत्न किये गये। संभवत: श्वेताम्बर परम्परा के साधुओं द्वारा इस तरह की इतिहास विरुद्ध अनेक घटनाएं गढ़ी गई हैं। जो अप्रमाणिक हैं। प्रस्तुत कुमुदचन्द्र के हैं जिनका गुजरात के जयसिंह सिद्धराज की सभा में वि० सं० ११८१ में श्वेताम्बरीय विद्वान वादिसूरि देव के साथ वाद हुआ था । उस समय से ही संभवतः श्वेताम्बर सम्प्रदाय में उसका प्रचार हया जान पड़ता है। संभवतः इस स्तोत्र की रचना १२वीं शताब्दी में हुई हो, क्योंकि वादिदेव मूरि से कुमुदचन्द्र का वाद इसी शताब्दी में हुआ था। यह तो प्राय: निश्चित है कि कल्याणमन्दिर भक्तामर स्तोत्र के बाद की रचना है। १. सिद्धसेनस्य दीक्षा काले 'कुमुदचन्द्र' इति नामासीत् । सूरिषदे पुनः 'सिद्धसेन दिवाकर इति नाम प्रपद्ये। तदा दिवाकर इति सूरिः संज्ञा। - प्रबन्ध कोश-सिंधी जैन ज्ञानपीठ दान्ति निकेतन सन् १९३५ १०, वृद्धवादि सिद्धसेन दिवाकर प्रबन्ध पृ०१६ देखो. अनेकान्त वर्ष ६ किरण ११ पृ. ४१५ २. जन्मान्तरेऽपि तद पाद युग न देव ! मन्ये मया महित मीहितदानदक्षम् । तेनेह जन्मनि मुनीश ! पराभवानां, जातो निकेतनमहं मथिताश यानाम् ॥३६ -कल्याण मन्दिर स्तोत्र
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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