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ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य स्तधन कितना भावपूर्ण एवं सरस है इसे बतलाने की आवश्यकता नहीं है पाठकगण उसकी महत्ता से स्वयं परिचित
जिनेन्द्र के गुणों में अनुरोग होना भक्ति है—'गुणेषु अनुरागो भक्ति' । हां भक्ति के अनेक प्रकार हैं। वे सब प्रकार सकामा निष्कामा भक्ति में समाविष्ट हो जाते हैं। भक्त जब वीतराग के गुणों का अनुरागी होता है । तब उसका हृदय भगवत गुणानुराग से सराबोर रहता है, उस समय उसे किसी भी वस्तु की चाह नहीं होती, वह तो केवल बीतराग भाव में संलग्न रहता है। यह उसकी निष्कामा भक्ति है, जो कर्म क्षय में साधक होती है। भक्त जब किसी वांछा से भगवान के गुण गान करता है तब उसकी अभिलाषा इच्छित पदार्थ की प्राप्ति की और होती है, वह बाह्य में स्तवन करता है, हाथ जोड़ता है, विनय करता है किन्तु प्रान्तरिक भावना ऐहिक इच्छा की पूति को मोर रहती है। इसी का नाम सकामा भक्ति है, आजकल इसके रूप में भी परिवर्तन हो गया है । इस भक्ति से जितने अंश में विशुद्धि होती है उतने अंश में कर्म निर्जरा और पुण्णका बंध होता है।
कवि कहता है कि हे देव ! मुझे ऐसा लग रहा है कि जन्मान्तर में मैंने मनवांछित फल देने वाले आप के चरण कमलों की पूजा नहीं की, इसी से हे मुनोश ! मैं इस भव में हृदय भेदी तिरस्कारों का निकेतन हुआ हूं। यदि मैंने जन्मान्तर में आपके चरणों की पूजा की होती तो मुझे विश्वास है कि मेरी आपदा अवश्य टल जाती।
प्राकरिणतोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि, ननं न चेतसि मया विषप्तोसि भक्त्या।
जातोऽस्मि तेन जन बान्धव दःखपात्रं यस्मारिक्रया प्रतिफलन्ति न भाव शून्याः ॥३८ हे नाथ ! मैंने आपका चरित्र सुना, आपके चरणों की पूजा भी की, आपके दर्शन भी किये, किन्तु निश्चय से मैंने भक्ति से आपको हृदय में धारण नहीं किया है, उससे मैं दुःख का पात्र हुमा हूं; क्योंकि भाव शून्य क्रियाएं फलवती नहीं होती। कवि भगवान की भक्ति को समस्त दुःखों का नाशक मानता है:
स्वं नाथ ! दःख जन-वत्सल हे शरण्य, काहण्य-पुण्य-वशते शिनां वरेण्य ।
भक्त्या नते मयि महेश! दयां विधाय, दुःखाकुरोइलनतत्परतां विधेहि। हे नाथ! पाप दीन दयाल, शरणागत प्रतिपाल, करुणानिधान योगीन्द्र और महेश्वर हैं। प्रतः भक्ति से मम्रीभूत मुझ पर दया करके मेरे दुःखांकुरों को नाश करने में तत्परता कीजिए।
कवि अपने आराध्य के शील पर मुग्ध है. उसका विश्वास है कि भगवान की भक्ति विपत्तियों को दूर करने वाली है।
हतिनि त्वयि विभो ! शिथिलीभवन्ति जन्तोः क्षणेन निबिडा अपि कर्म-धन्धाः । सथो भुजंगममया इव मध्य-भाग---
मम्मागते चन-शिखण्डिमि चन्दनस्य ॥ हे प्रभो! आपके हृदय वर्ती होने पर कमों के बन्धन उसी तरह शिथिल पड़ जाते हैं जिस तरह चन्दन के वृक्ष पर मयूर के आने पर सपो के बन्धन ढीले पड़कर नीचे खिसकने लगते हैं । इस पद्य में कवि ने उपमालंकार द्वारा . पाराध्य के प्रभाव को व्यक्त किया है। पं० बनासीदास कृत इसका पद्यानुवाद भी दृष्टव्य है :
तुम मावस भविजन मन मांहि, कर्मनिबंध शिथिल हो जांहि ।
ज्यों चन्दनसरुवोहिमोर, रहिभजंगलखें बहमोर ।। इस तरह यह स्तवन अतिशय सुन्दर भावपूर्ण और सरस है । कुमुदचन्द्र की यह कृति महत्वपूर्ण है।
श्रीचन्द्र यह कुन्दकुन्दान्वय देशीगण के प्राचार्य सहस्त्र कीर्ति के प्रशिष्य और वीरचन्द्र के शिष्य थे। सहस्रकीर्ति के गुरु श्रुतकीर्ति और प्रगुरु श्रीकीति थे। सहस्रकीति के (देवचन्द, वासवमुनि, उदयकीति, शुभचन्द्र,