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विवेकी है !
परको
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
बेह - विभिष्णउ णाणमउ जो परमप्पु शिएड 1 परम समाधि--परियड पंडिउ सो जि हवेइ ॥१-१४॥
पता है, वही समाधि में स्थित हुआ पंडित है-अन्तरात्मा
जित्
इंदिय- सुह-दुहाँ जित्यु ण मनवायारु ।
सो पप्पा मुणि जीव तुहं पण परि श्रवहारु ॥ १- २८ ॥
जिस 'शुद्ध आत्म-स्वभाव में इन्द्रिय जनित सुख-दुख नहीं हैं, और जिसमें संकल्प-विकल्प रूप मन का व्यापार नहीं है, हे जीव ! उसे तू ग्रात्मा मान, और ग्रन्य विभावों का परित्याग कर ।
इस तरह परमात्म प्रकाश के सभी दोहा श्रात्म स्वरूप के सम्बोधक तथा परमात्मा स्वरूप के निर्देशक हैं । इनके मनन और चिन्तन से मात्मा मानन्द को प्राप्त होता है ।
योगसार - में १०८ दोहा हैं जिनमें अध्यात्म दृष्टि से आत्मस्वरूप का सुन्दर विवेचन किया गया है। दोहा सरस और सरल हैं। और वस्तु स्वरूप के निर्देशक है । यथा
प्राउ गलङ्क णषि मण, गलइ णवि श्रासाहु गलेछ । मोहू कुरणविप्रहिउ इम संसार भमेई ||४
श्रायुगल जाती है, पर
मन नहीं गलता और न माशा ही गलती, मोह स्फुरित होता है, पर श्रात्महित का स्फुरण नहीं होता--इस तरह जीव संसार में भ्रमण किया करता है ।
धं
पश्यि समलु जगि गवि श्रध्या हु सुणंति ।
तहि कारण ए जीव फुड गहू निव्वाण लहंति राष्ट्र
संसार के सभी जीव धंधे में फंसे हुए हैं, इस कारण वे अपनी आत्मा को नहीं पहिचानते । अतएव वे निर्वाण को नहीं पा सकते । इस तरह योगसार ग्रन्थ भी आत्म सम्बोधक है। इसका अध्ययन करने से आत्मा अपने स्वरूप की ओर सन्मुख हो जाता है ।
अमृताशीति – यह एक उपदेश प्रद रचना है। इसमें विभिन्न छन्दों के ८२ पद्य हैं। उनमें जैन धर्म के अनेक विषयों की चर्चा की गई है। यथापि पद्मप्रभमलधारि देव ने नियमसार की टीका में योगीन्द्रदेव के नाम से जो पद्य उद्धृत किया है, वह भ्रमृताशीति में नहीं मिलता। श्रतएव पं० नाथूराम जी प्रेमी का अनुमान है कि वह पद्य उनके अध्यात्मसन्दोह ग्रन्थ का होगा ।
निजात्माष्टक - यह भाठ पद्यात्मक एक स्तोत्र है। इसकी भाषा प्राकृत है जिनमें सिद्ध परमेष्ठी का स्वरूप बतलाया गया है । पर किसी भी पथ में रचयिता का नाम नहीं है । ऐसो स्थिति में इसे योगीन्द्र देव की रचना कैसे माना जा सकता है। इस सम्बन्ध में अन्य प्रमाणों की प्रावश्यकता है। इसका कहीं अन्यत्र उल्लेख भी मेरे अवलोकन में नहीं आया । सम्भव है वह इन्हीं की रचना हो, अथवा अन्य किसी की ।
योगेन्द्र का समय
योगेन्दु के परमात्म प्रकाश पर ब्रह्मदेव और बालचन्द की टीकायें उपलब्ध | बालचन्द्र की टीका पर ब्रह्मदेव का प्रभाव है, इस कारण बालचन्द्र ब्रह्मदेव के बाद के विद्वान हैं। ब्रह्मदेव का समय विक्रम की ११वीं शताब्दी का उपान्त्य है । जयसेन भी उनसे बाद के विद्वान हैं, क्योंकि जयसेन ने उनकी वह द्रव्य संग्रह की टीका का उल्लेख किया है। पं० कैलाशचन्द जी सिद्धान्तशास्त्री राजा भोज के समय द्रव्यसंग्रह की टीका का वर्तमान होना मानते हैं, जो १२ शताब्दी का प्रारम्भ है।
योगेन्दु ने परमात्म प्रकाश में आचार्य कुन्दकुन्द और पूज्यपाद ( ईसा की ५वीं सदी) के विचारों को निबद्ध किया है। अतएव उनका समय ईसा की छठी शताब्दी हो सकता है। डा० ए० एन० उपाध्ये ने अपनी परमात्म प्रकाश की प्रस्तावना में जोइन्दु का समय ईसा की छठी शताब्दी माना है; क्योंकि गुणे ने चण्ड के