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जैन-सघ-परिचय
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बाद को उत्पन्न हुआ है। इससे यह तो निश्चित है कि यह संन, संघ भेद के पश्चात् स्थापित हुआ था । यह संघ दक्षिण भारत की देन है, क्योंकि जो साधु भगवान महावीर के कठोर शासन का पालन करते थे, दिगम्बर साधुओं के समान नग्न रहते थे, मयूर पिच्छी रखते थे, पाणिपात्र (हाथ) में भोजन करते थे, और भग्न मूर्तियों के पूजक थे। किन्तु श्वेताम्बरों के समान स्त्रियों को उसी भव से मुक्ति मानते थे। सवस्र मुक्ति और केवलिभक्ति (कवलाहार) भी स्वीकार करते थे। श्वेताम्बर मान्य प्रागमों को मानते थे, और वन्दना करने वालों को 'धर्मलाभ' देते थे। यद्यपि इनके द्वारा मान्य आगमों में कुछ पाठ भेद थे। यह सम्प्रदाय दिगम्बर-श्वेताम्बरों के बीच को एक कड़ी था। इस संघ में अनेक प्रभावशाली विद्वान आचार्य हुए हैं। उन विद्वानों में शिवार्य, अपराजित, पाल्यकीर्ति (शाकटायन) महाबीर और स्वयंभू आदि प्रमुख हैं। संभवतः पउमचरिय के कर्ता विमलसूरि भी यापनीय थे।
___ यह सम्प्रदाय राज्य मान्य था । कदम्ब', चालुक्य, गंग, राष्ट्रकूट' और रट्ट वंश के राजाओं ने इस संघ के साधुओं को अनेकों भूमिदान दिये थे। कदम्ब बंश के लेख नं. ६६, १०० और १०५ से ज्ञात होता है कि उस वंश के प्रारम्भिक राजाओं के काल में यह संघ बड़ा ही प्रभावक था। कदम्ब नरेश मगेश वर्मा (सन ४७०४६०) ने पलासिका स्थान में इस संघ को और अन्य दूसरे संघों-निर्ग्रन्थ और कुर्चकों के साथ भूमिदान द्वारा सत्कृत किया था। इस राजा के पुत्र रविवर्मा ने इस संघ के प्रमुख आचार्य कुमारदत्त को 'पुरुखेटक' गांव दान में दिया था।(१००)। इसी वंश की दूसरी शाखा के युवराज देवशर्मा ने भी यापनीय संघ को कुछ क्षेत्रों का दान देकर सम्मानित किया था।
र नरेशों के लेखों से इस सम्प्रदाय के दो नये गणों का पता चलता है। कारेयगण और कन्डरगण का । लेखन० १३० से विदित होता है कि रट्ट वंश के प्रथम नरेश पृथ्वीराय के गुरु इन्द्रकीति (गुणकोति) के शिष्य मैलापतीर्थ कारेय गण के थे ! कारेयगण निश्चित रूप से यापनाम था। यह जन एण्टोक्वेरो से ज्ञात होता है। १५२ न० के लेख में भी कारेयगण का उल्लेख है। इस सम्प्रदाय के कण्डरगण का उल्लेख रट्ट राजाओं के लेख न०१६. और २०५ से जाना जाता है। लेख नं० १६० में यापनीय संघ के कन्डरगण की गुरुपरम्परा निम्न प्रकार प्राप्त होती है:--देवचन्द्र, देवसिंह, रविचन्द्र, अहणन्दि, शुभचन्द्र, मोनिदेव और प्रभाचन्द्र । लंख नं० २०५ में कण्डरगण के रविचन्द्र और अर्हणन्दि का उल्लेख है।
यापनीय संघ ने दक्षिण भारत के जैनधर्म के इतिहास में महत्वपूर्ण भाग लिया था। इस संघ का प्रभुत्व कर्नाटक के उत्तरीय प्रदेश में होने का अनुमान किया गया है। कारण कि कर्नाटक प्रदेश के शिलालेखों में यापनियों के सम्बन्ध में अनेक उल्लेख पाए जाते हैं। जबकि अन्य प्रदेशों के लेखों में उनका अभाव है। इस संघ ने कर्नाटक प्रदेश में जन्म लेकर धीरे-धीरे अपनी शक्ति को बढ़ाया। और कर्नाटक के अनेक प्रदेशों में राजकीय तथा जनता का संरक्षण प्राप्त किया। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि कर्नाटक के दक्षिणी भाग में, जिसमें मैसूर भी शामिल है, शिलालेखों में भी यापनियों का उल्लेख विरस है। श्रवण बेल्गोल के लेखों में यापनियों का एक भी उल्लेख नहीं मिलता। अन्वेषणों के परिणाम स्वरूप जान परता है कि हम्तिकेरी, फलभावी, सौवन्ति, बेलगांव, बीजापुर, धारवार और कोल्हापुर पादि प्रदेशों के कुछ स्थानों में मापनियों का जोर रहा है।
कर्नाटक के समान तमिल प्रान्त में भी यापनीय सम्प्रदाय का प्रचार रहा है ऐसा लेनमे०१४३-१४ से ज्ञात होता है। लेखन. १४३ में यापनीय सम्प्रदाय के नन्धि गच्छ (संष) के कोटि मजयगण का उल्लेख है पौर उसके प्राचार्यो-जिननन्दि, दिवाकर, श्रीमन्दिरदेव का नाम दिया गया है। श्रीमन्दिरदेव करकाभरणजिनालय के अधिष्ठाता थे। उस जिनालय के लिये पूर्वीय पालुक्य वंश के मम्मराज द्वितीय ने सेनापति (फटकराण) दुर्गराज की
१. करवंशी राजाभों के दान पत्र, जनहितंथी भाग १४मक ७-८।। २. ए.१२ पृ. १३-१६ में राष्ट्र कटराजा प्रभूत वर्ष का दान पत्र ३. जैन एण्टीक्वेरी भाग १, मक २९.६८,६९ में अंकित को लेण-(५१-५५) ।