SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ प्रार्थना पर उक्त संघ के लिये सलिमपुण्डि नाम का एक गांव दान में दिया था। श्री मन्दिरदेव यापनीय संघ, कोटि मडुव या मवगण और नन्दिगच्छ के जिननन्दि के प्रशिष्य और दिवाकरनन्दि के शिष्य थे। उसी राजा के दूसरे लेख नं० १४४ में अड़क लिगच्छ बलहारिगण के आचार्यों की पंक्ति सकलचन्द्र श्रव्यपोटि, अर्हन्दि । श्रर्हनन्दि मुनि को अम्मराज द्वितीय ने सर्वलोकाश्रय जिनालय की भोजनशाला की मरम्मत कराने के लिये प्रत्तलिपाण्ड प्रान्त के कलुचुम्बरू नाम का गांव दान में दिया था । यद्यपि इस लेख में स्पष्ट रूप से यापनीय संघ का उल्लेख नहीं है । किन्तु अडकलि गच्छ पीर बलिहारिगण का उल्लेख अन्यत्र न मिलने से वे यापनीय सम्प्रदाय के थे । यापनीय संघ के अन्तर्गत नन्दिसंघ एक महत्वपूर्ण शाखा थी, जो मूलसंघ के नन्दिसंघ से भिन्न थी । यह नन्दि संघ कई गांवों में विभाजित था। जान पड़ता है संघ व्यवस्था की दृष्टि से उसे कई भेदों में बांट दिया गया था। उनमें कनकोपल सम्भूत वृक्षमूलगण (१०६) श्री मूलमूलगा ( १२१ ) और पुन्नागवृक्ष मूलगण ( ११४) इनमें पुन्नागवृक्ष मूलगण प्रधान था और वह उसको प्रसिद्ध शाखा रूप में ख्यात था। गणों के नाम कतिपय वृक्षों के नाम से सम्बन्धित हैं। सन् ११०८ के २५० वें लेख से ज्ञात होता है कि उक्त पुन्नागवृक्ष मुलगण को मूलसघ के अन्तर्गत पाते हैं। ऐसा जान पड़ता है कि वह बाद में मूलसंघ में अन्तर्भुक्त हो गया है। शिलालेखों में निर्दिष्ट बहुत से साधु इसी गण से सम्बद्ध थे। इसके अतिरिक्त यापनियों के भी अनेक गण थे। दो लेखों (७० और १३१) में कुमुदिगण का उल्लेख मिलता है। इनमें से पहला लेख नवीं शती का है और दूसरा १०४५ ई० का है । दोनों में जिनालय के निर्माण का उल्लेख है। इस सब विवरण से यापनीयसंघ की ख्याति और महत्ता का स्पष्ट बोध होता है । यह संघ ध्वीं १०वीं शताब्दी तक सक्रिय रहा जान पड़ता है । पर बाद में उसका प्रभाव क्षीण होने लगा। इस संघ के मुनियों में कीर्ति नामान्त और नन्दि नामान्त नाम अधिक पाये जाते हैं, विजयकोति, अर्ककीर्ति, कुमारकीति, पाल्यकीति श्रादि, चन्द्रनन्दि कुमारनन्दि, कीर्तिनन्दि, सिद्धमन्दि, अर्हनन्दि आदि । किन्तु यह संघ जिस 'उद्देश्य को लेकर बना वह अपने उस मिशन में सफल नहीं हो सका। और अन्त में अपनी हीन स्थिति में दिगम्बर संघ के अन्दर अन्तभु नत हो गया जान पड़ता है । बेलगांव 'दोड्डवस्ति' नाम के जैन मन्दिर की श्री नेमिनाथ की मूर्ति के नीचे एक खडित लेख है, जिसस ज्ञात होता है कि उक्त मंदिर यापनीय संघ के किसी पारिसय्या नामक व्यक्ति ने शक ९३५ सन् २०१३ (वि. सं. १०७०) में बनवाया था और उक्त मंदिर की यापनीयों द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमा इस समय दिगम्वरियों द्वारा पूजी जाती है' । यापनियों का साहित्य भी दिगम्बर सम्प्रदाय में अन्तर्भुक्त हो गया । 1 मावि संघ -- द्राविड देश में रहने वाले जैन समुदाय का नाम द्राविड संघ है। लेखों में इसे द्रविड़, द्रविड, द्रविण द्रमिल, द्रविल, द्राविड मादि नामों से उल्लेखित किया गया है । द्रविड़ देश वर्तमान में आन्ध्र श्रौरमद्रास प्रान्त का कुछ हिस्सा है। इसे तमिल देश में भी होना कहा जाता है। इस देश में जैन धर्म के पहुंचने का काल बहुत प्राचीन है । इस देश में साधुओं का जरूर कोई प्राचीन संघ रहा होगा। प्राचार्य देवसेन ने दर्शनसार में द्राविड संघ की स्थापना पूज्यपाद के शिष्य वज्रनन्दि के द्वारा दक्षिण मथुरा में वि० सं० ५२६ में हुई लिखा है। वचनन्दि के सम्बन्ध में लिखा है कि उस दुष्ट ने कछार खेत वसदि ओर वाणिज्य से जीविका करते हुए शीतल जल से स्नान कर प्रचुर पाप का संचय किया । किन्तु शिलालेखों में इस संघ के अनेक प्रतिष्ठित आचार्यों के नाम मिलते हैं। श्रतः देवसेन के उक्त कथन में सन्देह उत्पन्न होना स्वाभाविक है। मन्दिर बनवाने और खेती बाड़ी करने के कारण इस संघ को दर्शन सार में जैनाभास कहा गया है। वादिराज भी द्राविड संघ के थे । उनको गुरु परम्परा मठाधीशों की परम्परा १. देखो, जैनदर्शन वर्ष ४ क ७ २. सिरिपुज्ञपादसीसो दाविडसंस् कारगो दुहो । नामेरा वज्जपदी पाडवेदी महात्यो । २५ पचये बीसे विक्कमरामा नरपतस्स । दक्षिण महराजादो दाविवसंघ महामोहो ||२६ कच्छ खेतं वसहि वाणिज्जं कारिकरण जीवन्तो । व्हती सीयस हीरे पावं परं च संवेदि ॥ २७ (दर्शनसार)
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy