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________________ tre जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ के उपास्य समय में अर्थात् सन् ११७२ में हुआ है। इससे जयसेन का समय विक्रम की १३ वीं सदी का प्रारम्भ ठीक ही है । जयसेन ने प्रशस्ति में त्रिभुवनचन्द्र नाम के गुरु कों नमस्कार किया है जो कामदेव रूपी महा पर्वत के शतखण्ड करने वाले थे । संभव है, सोमसेन इनके दीक्षा गुरु हों और त्रिभुवनचन्द्र उनके विद्यागुरु रहे हों। इनका समय भी विक्रम की १३ वीं शताब्दी का प्रारंभ है । जयसेन ने समयसार की तात्पर्य वृत्ति के अन्त में, ब्रह्मदेव की परमात्म प्रकाश टीका की अन्तिम भावना कोखा है की टीकाकार भव्य जनों को क्या करना चाहिए वाक्यों के साथ उल्लिखित है उसे, ज्यों के त्यों रूप में उद्धृत किया है । श्रमरकीर्ति प्रस्तुत मरकीति काष्ठासंघान्तर्गत उत्तर माथुर संघ के विद्वान मुनि चन्द्रकीर्ति के शिष्य एवं धनुज थे । भ्रमर कीर्ति की माता का नाम 'चत्रिणी' और पिता का नाम 'गुणपाल' था। इन्होंने अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख निम्न प्रकार किया है' - प्रमितगति द्वितीय (१०५० से १०७३) के उत्तरवर्ती शान्तिषेण, भ्रमरसेन, श्रीषेण, श्रीचन्द्र और अमरकीर्ति । इन विद्वानों का और प्रमितगति द्वितीय से पूर्ववर्ती चार विद्वानों का देवसेन 'अमितगति प्रथम, नेमिषेण और माधवसेन इन सब दश प्राचार्यों का समय दसवीं शताब्दी से सं० १२४७ तक ढाई सौ वर्ष के लगभग इस अविच्छिन्न परम्परा का बोध होता । इन भ्रमरकीति की परम्परा के शिष्यों का कोई उल्लेख नहीं मिलता । सिर्फ एक शिष्य का उल्लेख उपलब्ध हुआ है, जिनका नाम इन्द्रनन्दी है, जिन्होंने शक संवत् १९८० (वि० सं० १३१५) में हेमचन्द्राचार्य के योगशास्त्र पर संस्कृत टीका लिखी है। इसी परम्परा में उदय चन्द्र, बालचन्द्र और बिनयचन्द्र मुनि हुए हैं। समय कवि अमरकीर्ति का समय विक्रमको १३ वीं शताब्दी है । क्योंकि कवि ने अपने मणाहचरिउ को सं० १२४४ में भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी को समाप्त किया है और छक्कम्मोवएस' ( षट्कर्मोपदेश ) वि० सं० १२४७ बीतने पर भाद्रपद शुक्ला १४ गुरुवार के दिन आलस को दूर कर एक महीने में बनाकर समाप्त किया है । षट्कर्मोपदेश की रचना गुजरात देश के महीयडु प्रदेश के मोधा नगर के प्रादिनाथ मन्दिर में बैठकर की है। उस समय गुजरात में चालुक्य अथवा सोलंकी वंश के कण्ह या कृष्णनरेन्द्र का राज्य था, जिसकी राजधानी अनहिलवाड़ा थी । जो बंदिग्गदेव का पुत्र था। परन्तु इतिहास में दिग्गदेव और उनके पुत्र कृष्णनरेन्द्र का कोई उल्लेख देखने में नहीं आया । उस समय मनहिलवाड़े के सिंहासन पर भीम द्वितीय का राज्य शासन था। इनके बाद बघेलवंश की शाखा ने अपना राज्य प्रतिष्ठित किया है। इनका राज्य सं० १२२६ से १२३६ तक बतलाया जाता है। संवत् १२२० से १२३६ तक कुमारपाल, अजयपाल और मूलराज द्वितीय वहां के शासक रहे हैं। भीम द्वितीय के शासन समय से पूर्व ही चालुक्य वंश की एक शाखा महोकांठा प्रदेश में प्रतिष्ठित हो गई, जिसकी राजधानी गोधा थी। इस सम्बन्ध १. अनेकान्त वर्ष २० कि० ३ १० १०७ २. जैन ग्रन्थ प्रवास्ति संग्रह भा० २ १० ५६ ३. ताहं रज्जि बट्ट तर विक्कमकालिगए, बारहसयच आलए सुक्ख, जैन ग्रन्थ प्रशस्ति सं० भा० २ १० ५६ ४. चार सयहं ससत चयालिहि, विक्कम संबंच्छर ह विद्यालहिं । गहिंम भट् वय पनवंतरि गुरुवारम्मि चसि वासरि । इसके पास हू सम्मतिउ सई लियिउ आलसु अहत्यिक | — जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह भा० २ पृ० १३ ।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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