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________________ ३४० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ कोल्हापुर की रूपनारायण वसति (मन्दिर) के प्रधानाचार्य थे। ३३४ नं. के शिलालेख में इन माघनन्दि सिद्धांत देव को कुन्दकुन्दान्वय का सूर्य बतलाया है । इनके अनेक शिष्य थे। अपने समय के बड़े ही प्रभावशाली विद्वान थे । रूपनारायण वसदि के अतिरिक्त अन्य अनेक जिनालयों के भी प्रबंधक थे । रूपनारायण वसदि का निर्माण सामन्त निम्बदेव ने कराया था। निम्यदेव जैन धर्म का पक्का अनुयायो था। उसने रूपनारायण बसदि का निर्माण कराकर अपना धर्म प्रेम प्रकट किया था। माघनन्दि सैद्धान्तिक इनके चारित्र गुरु थे। सन् ११३५ ई० में भगवान पार्श्वनाथ का मंदिर भी बनवाया था। इनके सामन्त केदारनाकरस, सामन्त कामदेव और चमूपति भरत भी शिष्य थे इनकी शिष्य परम्परा में अनेक विद्वान हए हैं। माधनन्दि सैद्धान्तिक के पद शिष्य गण्डविमुक्त देव सिद्धान्त देव थे । अन्य शिष्य कनकनन्दि, चन्द्रकीति, प्रभाचन्द्र पहनन्दि और माणिक्यनंदि थे। ये सभी शिष्य अच्छे विद्वान थे। माण्डलिक गोंक-जैन धर्म का पक्का श्रद्धानी और अनुयायी था। तेरदाल के जैन मंदिर में प्राप्त शिला लेख से गोंककी जैन धर्म को दृढ़ प्रतीति का स्पष्ट प्रमाण मिलता है। लेख में बतलाया है कि पंचपरमेष्ठी के स्मरण मात्र से गोंक का विषदूर होगया था। गोंक ने तेरदाल में नेमिनाथ का मंदिर बनवाया था और उसके प्रबन्ध के लिये तथा जैन साधुओं को आहारदान देने के लिये भूमिदान दिया था यह दान रट्ट नरेश कार्तिवीर्य (द्वितीय) के शासन काल में अपनी रानी वाचलदेवी, जो इन्हीं माधनन्दि की शिष्या थी, द्वारा निर्मापित गोंक जिनालय के नेमिनाथ के लिये शक सं० १०४५(सन् ११२३ ई०)को माघनन्दि संद्धान्तिक को दिया था। __गण्ड विमुक्त देव के एक छात्र सेनापति भरत और दूसरे शिष्य भानुकीर्ति और देवकीति थे। गण्डविमुक्त देव के सघर्मा श्रुतकीति विद्य मुनि थे, जिन्होंने विद्वानों को भी चकित करने वाले अनुलोम-प्रतिलोमकाव्य राघव-पाण्डवीय काव्य की रचनाकर निर्मलकीति प्राप्त की थी और देवेन्द्र जैसे विपक्ष वादियों को परास्त किया था। इनका समय शक सं०१०४५ (सन् ११२३ ई०) से १०६५ (सन् ११४३ ई०) है यह बारहवीं शताब्दी के विद्वान् हैं। वेवकोति देवकीति मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वय देशीय गण और पुस्तक गच्छ के विद्वान माघनन्दि सैद्धान्तिक के प्रशिष्य पौर गण्ड विमुक्तदेव के शिष्य थे। अद्वितीय कवि 'ताकिक,वक्ता और मण्डलाचार्य थे। इनके सन्मुख सांख्य, चार्वाक, नैयायिक, वेदान्ती और बौद्ध आदि जैनेतर दार्शनिक विद्वान अपनी हार मानते थे। इनके अनेक शिष्य थे। किन्तु पट्टधर शिष्य देवचन्द पण्डित देव थे। इनके सघर्मा माघनन्दि विद्य, शुभचन्द्र विद्य, गण्डविमुक्त चतुर्मुख पौर रामचन्द्र विद्य थे । देव कीति के पट्टधर शिष्य देवचन्द्र पंडित देव को, जो कोल्लापुरीय वसदि के थे, शक स० ११०६ सन् ११८४ ई० को भरतियय्य दण्डनाथ और बाहुबली दण्डनाथ ने दान दिया था। ३. श्री मुससंघ देशीयगण पुस्तक गच्छ अधिपतेः शुल्लकपुर श्री रूपनारायण जिनालयाचार्यस्य श्रीमान् माधन्दि सिद्धान्त देवस्य.........." --एपि भाफिका इंडिका भा० ३ १० २०८ ४. श्री मूलसंप देशीगण-पुस्तकगच्छ शुल्लकपुर श्री रूपनारायण-त्यालयस्याचार्यः । श्री मापनन्दि सिद्धांत देवो विश्व मही स्सुतः । कुलचन्द्र मुनेः शिष्यः कुन्दकुन्दान्वयांशुमान् ॥ -जैन लेख सं० मा ३०० ३३४ पृ०६५ ५. देखो, न मेख सं० मा०१० ४.१० २७ १. देखो, बन लेख सं०भा० २ सेखन० २८० ७. जैन लेस सं. मा० ३ लेख नं. ४१४ ६.बन लेख सं०भा० ११० २६ १.जैन लेख सं० मा ३ ले० नं. ४११
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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