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________________ २३४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ का प्रारम्भ करते हुए लिखा है कि जो नयदृष्टि से विहीन हैं उन्हें वस्तु स्वरूप की उपलब्धि नहीं होती । और जि हैं। वस्तु स्वरूप की उपलब्धि नहीं है- जो वस्तु स्वरूप को नहीं पहचानते वे सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकते । यथा जो यदिट्टि विहीणा ताप ण वत्युरारबउवलद्धि । पत्थुसहावविह्नणा सम्माचिट्ठी कहं हुंति ॥ ग्रन्थकार ने यह बड़े मर्म की बात कही है। इसपर से ग्रन्थ के महत्व का स्पष्ट श्राभास मिल जाता है। ग्रन्थ के अन्त में कर्त्ता ने नयचक्र के विज्ञान को सकल शास्त्रों की शुद्धि करने वाला और दुर्णय रूप अन्धकार के लिये मार्तण्ड बतलाते हुए लिखा है कि यदि अज्ञान महोदधि को लीलामात्र में तिरना चाहते हो तो नयचक्र को जानने के लिए अपनी बुद्धि लगाओ-नयों का ज्ञान प्राप्त किए बिना श्रज्ञान महासागर से पार न हो सकोगे । यहां यह बात विचारणीय है कि प्रस्तुत नयचक्र वह नयचक्र नहीं जिसका उल्लेख अकलंक देव ने न्यायविनिश्चय में और विद्यानन्द ने अपने तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिक के नय विवरण प्रकरण में निम्न पद्य द्वारा किया है: न्याय विनिश्चय के अन्त में लिखा है- इष्टं तत्वमपेक्षा तो नयानां नयचऋतः ॥३-६१ संक्षपेण नयास्तायद् व्याख्याताः सूत्र सूचिताः । तद्विशेषाः प्रपञ्चेन संविन्त्या नयनतः || इस पद्य में जिस नयचक्र के विशेष कथन को देखने की प्रेरणा की गई है वह यह नयचक्र नहीं है। एक बड़ा नयचक्र श्वेताम्बराचार्य मल्लवादि का प्रसिद्ध है जिसे द्वादशार नयचक्र कहा जाता है। और जिसका समय वि० सं० ४१४ माना जाता है। पर मल्लवादि ने सिद्धसेन के सम्मति पर टीका लिखी है जिसका निर्देश हरिभद्र ने किया है। और सिद्धसेन का समय पाँचवी शताब्दी माना जाता है । ये गुप्त काल के विद्वान हैं । ग्रतः मल्लवादी का समय भी सिद्धसेन के बाद होना चाहिए। क्योंकि जिनभद्र गणी क्षमा श्रमण ने अपने विशेषावश्यक भाष्य में सिद्धसेन और मल्लवादि के उपयोग के प्रभेद की चर्चा विस्तार से की है। उक्त विशेषावश्यक बल्लभी में वि० सं० ६६६ में समाप्त हुआ था। इससे मल्लवादी का समय छठी शताब्दी जान पड़ता है । प्रस्तुत नयच दर्शन सार के कर्त्ता की कृति मालूम नहीं होता, वह किसी ग्रन्थ देवसेन द्वारा रचा गया होगा, उसके निम्न कारण हैं:-- देवसेन ने अपने ग्रन्थों (दर्शनसार, आराधनासार और तत्वसार) में किया है, किन्तु प्रस्तुत नयचक में कर्ता का नाम नहीं दिया है। २. नयचक्र की गाथा नं० ४७ के प्रागे 'तदुच्यते वाक्य के साथ दो पद्य धन्य ग्रन्थों से उद्धृत किये हैं । उनमें एक गाया 'प्रणुगुरु देह पमाणी' नेमिचन्द्र के द्रव्य संग्रह की है । द्रव्य संग्रह का निर्माण दर्शनसार के बाद हुआ है, वह ११वीं शताब्दी की रचना है। ऐसी स्थिति में वह दर्शनसार के कर्त्ता देवसेन की कृति कैसे हो सकती है ? ३. दर्शनसार के कर्ता के ग्रन्थों के नाम सारान्त पाये जाते हैं जैसे दर्शनसार थाराधनासार औौर तत्त्वसार गोम्भटसार के कर्त्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने भी अपने ग्रन्थों के नाम सारान्त रक्खे हैं । जैसे लब्धिसार, क्षपणासार, त्रिलोकसार श्रादि । अपना नाम कर्त्तारूप से उल्लेखित नयचक्र नाम के अनेक ग्रन्थ हैं। द्रव्य स्वभाव प्रकाशक नयचक्र, थुतभवन दीपक नयच पोर आलाप पद्धति । इनमें द्रव्य स्वभाव प्रकाशका नयचक्र के कर्ता देवसेन के शिष्य माइल्ल धवल हैं। इनका परिचय अलग से दिया गया है। देवसेन श्रुतभवन दीपक यन्त्रक के कर्ता देवसेन है। इस नय चक्र में दो नयों का संग्रह है। प्रथम नयचक्र के मंगल पद्य में घातिया कर्मों के जीतने वाले श्री वर्द्धमान को नमस्कार करके श्रागम ज्ञान की सिद्धि के लिये नय के विस्तार को कहता हूँ । यथा
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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