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तेरहवीं और बौदहवीं शताब्दी के विद्वान्, आचार्य और कवि
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सप्ततत्त्व, सवपदार्थ, बन्ध, और बन्ध के कारण, मोक्ष और मोक्ष के कारणों का क्रमशः वर्णन दिया है । ग्रन्थ हुग्रा के अन्त में उसका रचना काल शक सं० १९६३ (सन् १३४१ (वि० सं० १३६) वृपसंवत्सर मसर शुद्धि मनमो गुरुवार दिया है। इससे श्रुतमुनि १४वीं शताब्दी के विद्वान हैं ।
रत्नयोगोन्द्र
इन्होंने अपनी गुरु परम्परा का कोई उल्लेख नहीं किया और न समय ही दिया। उनकी एक मात्र कृति 'नागकुमार चरित' है, जो पंचसर्गात्मक है। और पांच सौ श्लोक प्रमाण संख्या को लिये हुए है। जिसमें पंचमी व्रत के उपवास का माहात्म्य वर्णित है।
श्री पंचम्युपवासस्य फलोदाहरणात्मकम् । एवं नाग कुमारस्य समाप्तिं चरितं ययौ । इति श्री रत्नयोगीन्द्रंणोपसंहत्य कीर्तितम् | सहस्त्रार्द्धमिति ग्रन्थये तच्चरितमुच्चकैः ॥ वरिते श्री पंचमी महोपवास फलोदाहरणं पंचमः सर्गः ।
इति श्री नागकुमार
ग्रन्थ की यह प्रति खंभात के श्वेताम्वरीय शास्त्र भंडार में अवस्थित है । ग्रन्थ की यह प्रति १४वीं शताब्दी की लिखी हुई है अतएव रत्नयोगीन्द्र का समय विक्रम की १३वीं या १४वीं शताब्दी अनुमानित किया जा सकता है ।
कुलभद्र
कुलभद्र ने अपनी रचना में अपने नामोल्लेख के सिवाय अन्य कोई परिचय देने की कृपा नहीं की । श्रर न अपनी गुरु परम्परा तथा गणगच्छादि का ही उल्लेख किया। इससे इनका परिचय और समय निश्चित करने में बड़ी कठिनाई उपस्थित हो रही है । इस ग्रन्थ की लिपिवद्ध प्रतियां जयपुर और उदयपुर के शास्त्रभंडार में पाई जाती है। इस पर पण्डित दौलतराम जी कासलीवाल ने हिन्दी टिप्पण भी लिखा है। जयपुर के बीचन्द्र मन्दिर के शास्त्रभंडार में संवत् १५४५ कार्तिक सुदी चतुर्थी को लिखी हुई प्रतिलिपि पाई जाती है । इससे इतना तो सुनिश्चित है कि यह ग्रन्थ सं० १५४५ के बाद की रचना नहीं है, किन्तु उससे पूर्ववर्ती है ।
इनकी एकमात्र कृति 'सार समुच्चय' है, जो एक उपदेशिक ग्रन्थ है रचना साधारण होते भी उसमें सरल शब्दों में धर्म के सार को रखने का प्रयत्न किया है। ३३० संस्कृत के अनुष्टुप पद्यों द्वारा ग्रात्मा के स्वहित का उपदेश दिया गया है। उसमें बतलाया है कि जो जीव कपायों से मलिन है, जिनका मन राग में अनुरंजित है, वह चारों गतियों में दुख उठाता है, और जो विषय-कपायों से संतप्त नहीं है किन्तु उन्हें जीतने का यत्न करता है वहीं सुख का पात्र बनता है। जो परीषहों के जीतने में वीर है, और इन्द्रियों के निग्रह में सुभट है, और कषायों के जीतने में सक्षम है, वही लोक में शूर-वीर कहा जाता है । श्रथवा जो इन्द्रियों को जीतने में वीर है, कर्म बंधन में कायर है, तत्त्वार्थ में जिसका मन लगा है। और जो शरीर से भी निस्पृह है। वही परीषद् रूपी शत्रुम्रों को जीतने में समर्थ है। और वही कषायों के जीतने में भी धीर है, वही शूर वीर कहा जाता है" । रचना को देखते हुए यह अनुमान होता कि प्रस्तुत
१. पंत्थि कायदा छक्क तच्चाणि सस्य पदस्था ।
वबन्ध तक्कारणं मोक्खो तक्कारण चेदि ॥६
बहिप अविहो जिरावयर खिरुविदो सवित्र दो ।
वोच्छामि समासेण म सुरय जगा दत्त चित्ता हु ||१० ( परमागमसार)
२. ग्रन्थ श्वेताम्बरो Santinatha Sain bhan dar cambay में उपलब्ध है। देखो, संभात भंडार को सूची मा० २
३. अयं तु कुलभरेण भवविच्छति कारणम् । दब्धो बालस्वभावेन ग्रंथः सार समुच्चयः || ३२५
परीष जयेशूराः सुराश्चेन्द्रियनिग्रहे । कषायविजये शूरास्ते शूरागदिता वृधः ॥ २१०
४. देखो, पच नं० २१४, २१५ ।