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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
नपगण से वन्दितचरण, समस्त शास्त्रों के ज्ञाता, और जिनम गं पर चलने वाल प्रकट किया है।' रचनाकाल
__ श्रुतमुनि की तीन रचनाएँ है-भावत्रिभंगी (भावसंग्रह) प्रास्रवत्रिभंगी और परमागमसार। इनमें प्रथम की दो रचनाओं में रचना समय नहीं दिया । अन्तिम रचना परगमसार में उसका रचना काल शक संवत् १२६२ (वि० स० १३६७) वृषसंवत्सर मगशिर सुदी सप्तमी गुरुवार दिया है। जैसा कि उसकी निम्न गाथा से प्रकट है:
सगकाले ह सहसरसे बिसय-तिसठी १२६३ गदेद विसबरिसे।
मग्गसिरसुद्धसत्तमि गुरुवारे ग्रन्थसंपुषणो ।।२२४।। इससे शुनमुनि का समय सन् १३४१ (वि० सं० १३६२) है । अर्थात् यह १४वीं शताब्दी के विद्वान् हैं। रचना-परिचय
भावविभंगी- इसका नाम भावसंग्रह भी है, जो अनेक ताडपत्रीय प्रतियों में पाया जाता है जैसा कि 'मुलु त्तरभावसरूवं पदक्वामि' वाक्यों से प्रकट है। ग्रन्थ की गाथा संख्या प्रशस्ति सहित १२ है। इस ग्रन्थ में भावों के तीन भंग करके कथन करने से इसका नाम 'भावत्रिभंगी' रूढ़ हो गया है। इसमें जीवा के प्रोपरामिक प्रादिक क्षायोपशमिक औदयिक और पारिणामिक ऐसे पांच मूलभावों और इनके क्रमशः २,६,१८,२१ प्रौर ३ग ५३ उत्तरभावों का कथन दिया गया है। जो चौदह गुणस्थानों, १४ मार्गणास्थानों की दृष्टि को लिये हा है। ग्रन्थ अपने विषय का महत्वपूर्ण है। ग्रन्थ में रचना काल दिया हुआ नहीं है।
प्रास्त्रवत्रिभंगी- इस ग्रन्थ को गाथा संख्या ६२ है। इस में मिथ्यात्व, अविरत, पाय, योग इन मल प्रामवों के क्रमशः ५.१२,२५,१५ ऐरो ५७ भेदों का गुणस्थान और मागास्थान की दृष्टि से कथन किया है। इसमें गोम्मटसार की अनेक गाथानों को मूल का अंग बनाया गया है। अन्तिम गाथा में 'बालेन्दु' बालचन्द्र का जय गान किया है, जो श्रुतमुनि के अणुव्रत मुरु थे । इस ग्रन्थ में भा रचना काल नहीं दिया।
परमागमसार-इसको गाथा संख्या २३० है, और पाठ अधिकारों में विभका है। पंचास्तिकाय, पदव्य
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१. अगुवद-गुरु-बालेन्दु महत्वद अभयचन्द्र सिद्धति ।
सत्ये भयमूरि-हाचंदा खलु सुय मुरिणस्स गुरू ॥११७ सिरि मूलसंघ देसिय (गण) पुत्थप गच्छ कोंडकुन्द मुरिंगणाहं । (कुंदाग) परमपण इंगलेस बलिम्मि जाद [स्स मुणि पहाणम्स ||११८ सिद्धताऽदय चंदस्रा य सिस्सो बालचदमुखि पबरो । सो भविय कुवलयाण आवंद करो सया जबऊ ॥११६ सद्दायम परमागम-तकका गम-निरवसेस वेदी हु । विजिद-सथलण्यावादी जय उ चिर अभयमूरि सिद्धति ॥१२० पप-रंगक्खेव-पमा जारिएला दिजिद-सथल-परसमयी। वर-णिव इ-णि बह-ईदिय-पय- मो वाकित्ति भुसी ॥१२१ पादि-पखिलस्य सत्यो सपलपरि देहि पूजिमो विमलो। जिण-मग-गयए-मूरो जयउ पिर चारुकिति मुणो ॥१२२ वर सारत्तय-रिगाउलो सुपर जो विरहिय-परभाओ। भविषारण पटियोहगा परी पहाचदणाण मुरगी ॥१२३
---भावसग्रह प्रशस्ति