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________________ तेरहवा और पौदहवी शताब्दी के बवानाचार्य और कवि प्रति मेरा अनुग्रह रहता है, समानों के प्रति सौजन्य, और श्रेष्ठों के प्रति सन्मान का व्यवहार किया जाता है किन्तु जो अपनी बुद्धि के गर्व से उद्धत होकर स्पर्धा करते हैं। उनके गवरूपी पर्वत के लिए मेरे वचन वन के समान होते हैं।' क्षीणेऽनुग्रहकारिता समजने सौजन्यमात्माधिके, संमानऽनुतभाषसेन मुनिपे विद्यवेधे मयि । सिद्धान्तोऽथ पयापि यः स्वधिषणा गर्योद्धतः केवलं, संस्पर्धेत तदीयगर्वकुधरे वापते गद्वचः ।। इनकी कृतियों की पुष्पिकाओं और अन्तिम पद्यों में, परवादिगिरि सुरेश्वर, बादिपर्वत वज्रभूत् वाक्यों का उल्लेख मिलता है जिनसे उनके तर्कशास्त्र में निष्णात विद्वान होने की सूचना मिलती है यथा भावसेन त्रिविचार्यो वाविपर्वतवनभत् सिद्धान्तसार शास्त्रऽस्मिन प्रमाण प्रत्ययीपदत् ॥१०२ इति परवादिगिरि सुरेयबर श्रीमद् भावसेन विद्य देव विरचिते सिद्धान्तसारे मोक्षशास्त्र प्रमाणनिरूपण नाम प्रथमः परिच्छेदः ॥ कातंत्र रूपमाला के अन्त में भी उन्होंने विद्य और वादिपर्वत वज्रिणा उपाधि का उल्लेख किया है: भावसेन विद्येन वाविपर्वत वविणा । कृतायां रूपमालायां कृवम्तः पर्यपूर्यतः ।। समय भावसेन विद्य का अमरापुर गांव के निकट, जो पान्ध्र प्रदेश के अनन्तपुर जिले में निम्न समाधिलेख अंकित है। "श्री मुलसंघ सेमगणा वादिगिरि यखडमप्प। भावसेन विद्यचक्रवतिय निषिधिः ॥" इस लेख की लिपि तेरहवीं सदी के अधिक अनुकूल बतलाई जाती है। यदि यह लिपि काल ठीक है तो भावसेन का समय ईसा की १३वीं शताब्दी का अन्तिम भाग होना चाहिए। डॉ० विद्याधर जोहरापुरकर ने लिखा है कि वेद प्रामाण्य को चर्चा में भावसेन ने 'तुरुष्क शास्त्र' को (पृ०५० और १८ में) बहुजन सम्मत कहा है। दक्षिण भारत में मुस्लिम सत्ता का विस्तार अलाउद्दीन खिलजी के समय हुआ है। अलाउद्दीन ने सन् १२९६ (वि० १३५३) से १३१५ (वि० सं० १३७२) तक १६ वर्ष राज्य किया है । इससे भी भावसेन ईसा की १३वों के उपान्त्य में और विक्रम की १४वीं शताब्दी के विद्वान थे। ऐसा जान पड़ता है। रचनाएं डॉ० विद्याधर जोहरापुरकर ने 'विश्वतत्त्व प्रकाश' की प्रस्तावना में भावसेन को दश रचनाएं बतलाई हैं-विश्वतत्त्व प्रकाश, प्रमाप्रमेय, कथा विचार, शाकटायन व्याकरण टीका, कातन्त्ररूपमाला, न्याय सूर्यावली, भुक्ति मुक्तिविचार, सिद्धान्तसार, न्यायदीपिका और सप्त पदार्थी टीका । ये रचनाएं सामने नहीं हैं। इसलिए इन सब के सम्बन्ध में लिखना शक्य नहीं हैं। यहां उनकी तीन रचनामों का संक्षिप्त परिचय दिया जाता है। विश्वतत्व प्रकाश-मालूम होता है यह गद्धपिच्छाचार्य के तत्वार्थविषयक मंगल पद्य के 'झातारं विश्व तत्त्वानां' वाक्य पर विस्तृत विचार किया है, इसीसे पुष्पिका में 'मोक्षशास्त्र विश्वतत्त्व प्रकाशे रूप में उल्लेख किया है, और यह ग्रन्थ उसका प्रथम परिच्छेद है । इससे स्पष्ट जाना जाता है कि लेखक ने तत्त्वार्थ सूत्र के मंगलाचरण पर विशाल ग्रन्थ लिखने का प्रयास किया था। इसके अन्य पच्छेिद लिखे गये या नहीं कुछ मालूम नहीं होता। प्रमा प्रमेय-यह ग्रन्थ भी दार्शनिक चर्चा से ओत-प्रोत है। इसके मंगल पद्य में तो 'प्रमा प्रमेयं प्रकट
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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