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________________ २६८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-माग २ कवि ने लिखा है कि यह मेरी प्रथम रचना है जैसाकि 'आत्म प्रबोधमधुना प्रथमं करोमि' वाक्यों से स्पष्ट है। श्री कुमार नाम के दो विद्वानों का उल्लेख मिलता है । एक श्रीकुमार वे हैं जिनका उल्लेख नयनन्दि १११०७) ने सकल विधि विधान काव्य के निम्न वाक्यों में किया है-"श्रीकुमार शरसइ कुमरु, कित्ति विलासिणि गेहरु ।" प्रोर जिन्हें सरस्वती कुमार भी कहते थे । दूसरे श्री कुमार कवि थे हैं, जो कवि हरिन मल्ल (१४ वीं सदी) के चार ज्येष्ठ भ्रातानों में से एक थे । इनमें नयनन्दि के समकालान श्री कुमार प्रान्माबांध कर्ता जान पड़ने हैं। इस ग्रंथकी दो हस्तलिखित प्रतियां १६ वीं शताब्दी को उपलब्ध हैं। सं० १५.७२ की लिग्यो हुई एक प्रति १४ पुजा जैन सन्द्रित रखकर लसावर के महार में मार दूसरो कामा में दीवान जो यो मन्दिर के भंडार में सं १५.४७ को लिखी हुई उपलब्ध है।' पन्य परिचय प्रस्तुत ग्रंथ में संस्कृत के १४६ लोक हैं। ग्रंथ का विषय उसके नाम से मगाट है । कवि ने आत्मा का स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि मसार के प्राय: सभी जीव प्रात्मविमुख हैं, आ-मज्ञ पुरुष तो विरले होते हैं। जिन्हें प्रात्मा का बोध नहीं है उन्हें दूसरों को प्रात्मबोध कराने का अधिकार नहीं है, जिनमें तैरकर नदी को पार करने की क्षमता नहीं है, वह दूसरों को तरो का उपदेश कैसे दे सकता है ? उसका उपदेश तो वंचक ही समझा जावेगा। प्रात्मप्रबोध विरहावविशुद्धबुद्धरन्यप्रयोधविधि प्रतिकोऽधिकारः । सामथ्यमस्ति तरितं सरितो न यस्य तस्य प्रतारणपरा परतारणाक्तिः॥४ यदि दूसरों को प्रतिबोधन करने की इच्छा है, तो पहले स्वयं प्रपनी आत्मा को प्रबुद्ध कर । क्योंकि चाक्षुप मनुष्य ही अन्धे को सुरक्षित मार्ग में ले जा सकता है, अन्धे को अन्धा नहीं। कवि यह भी कहता है कि जिनका मानस मिथ्यात्व से मल है, जो मोह निद्रा में सदा सुप्त हैं, उनके लिये भी मेरा यह श्रम नहीं है। किन्तु जिनको मोह निद्रा शीघ्र नष्ट होने वाली है वहीं प्रात्मप्रबोध के अधिकारी हैं। उन्हीं के लिये यह ग्रन्थ रचा जाता है । यथा - मिथ्यात्व मूढ मनसः सततं सुषप्ता, ये जंतषो जगति तान्प्रति न थ मो नः । येषां पियामु रचिराविध मोहनिद्रा, ते योग्यतां वति निश्चितमात्मबोधे ।।६।। जिसके रहते हुए शरीर पदार्थों के ग्रहण करने दान देने, पाने-जाने सुनने-सुनाने, स्मरण करने तथा सुखदुःखादि के अनुभव करने में प्रवृत्त होता है, वही मात्मा है, आत्मा चेतन है, ज्ञाता दृष्टा है, और स्पर्शनादि इन्द्रियों के अगोचर है क्योंकि वह अतीन्द्रिय है अतएव उनसे प्रात्मा का नाम नहीं होता। प्रारमा नित्य है, अविनाशी गुणों का पिण्ड है, परिणमनशील है विद्वान लोगों द्वारा जाना मोर अनुभव किया जाता है, ज्ञान दर्शन स्वरूप उपयोगमय है, शरीर प्रमाण है, स्वपर का ज्ञाता है, वा, कर्म फल का भोक्ता और प्रनत सुखों का भंडार है1 उस आत्मा को सिद्ध करने वाले तीन प्रमाण हैं ' प्रत्यक्ष प्रागम और मनुमान । यात्मा इन्द्रिय प्रत्यक्ष का विषय नहीं है । क्योंकि वह अतीन्द्रिय है हां सकल प्रत्यक्ष द्वारा प्रात्मा जाना जा सकता है। या प्राप्त वचन रूप पागम से, और अनुमान से जाना जाता है। शरीर में जब तक मात्मा रहती है शरीर उस समय तक काम करता है हेयोपादेय कार्यों में प्रवृत्त होता है, सुख दुःखादि की अनुभूति करता है, किन्तु जब शरीर से प्रात्मा निकल जाता है तब वह निश्चेष्ट पड़ा रह जाता है । अत: यह अनुमान ज्ञान भी उसके जानने में साधक है। भगवान जिनेन्द्र ने आत्मा को ज्ञाता दृष्टा बतलाया है। प्रात्मा के चैतन्य स्वरूप को छोड़कर अन्य चेतन प्रचेतन पदार्थ प्रात्मा के नहीं है ये सब प्रात्मा से भिन्न हैं। १ देवो, राजस्थान जैन प्रथ भंडार सूनी भाग ५ पृ० १८३ २ निल्यो निरत्ययगुणः परिणामघाम, बुद्धो अधदं गवयोषमयोपयोगः । आत्मा वपुः मितिरात्म परप्रमाता कर्ता स्वतोनभविताय मनसौख्य: ITE ३ जेषा प्रमाण मिह राधिकमस्ति यस्मात् प्रस्वा मानवचनं च तथानुमानं ।।१३
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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