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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भांग २
५.१६
राम रखता था । पुंजराज नाम का एक वणिक उसका मन्त्री था। ईश्वर दास नाम के सज्जन उस समय प्रसिद्ध थे । जिनके पास विदेशों से वस्त्राभूषण आते थे, जयसिह, संघवी शंकर और संघपति नेमिदास उक्त अर्थ के ज्ञायक थे । अन्य साधर्मी भाइयों ने भी इसकी अनुमोदना की थी और हरिवंशपुराणादि ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ कराई थी । प्रस्तुत ग्रन्थ विक्रम सं० १५५३ के श्रावण महीने की पंचमी गुरुवार के दिन समाप्त हुआ था ।
जोगसार
प्रस्तुत ग्रन्थ दो संधियों या परिच्छेदों में विभक्त है जिनमें गृहस्थोपयोगी आाचार सम्बन्धी संद्धान्तिक बातों पर प्रकाश डाला गया है। साथ में कुछ मुनि चर्या आदि के सम्बन्ध में भी लिखा गया है ।
ग्रन्थ के अन्तिम भाग में भगवान महावीर के बाद के कुछ आचार्यों की गुरु परम्परा के उल्लेख के साथ कुछ ग्रन्थकारों की रचनाओं का भी उल्लेख किया गया है, और उससे यह स्पष्ट जान पड़ता है कि भट्टारक त कीति इतिहास से प्रायः अनभिज्ञ थे और उसे जानने का उन्हें कोई साधन भी उपलब्ध न था, जितना कि भाज उपलब्ध है । दिगम्बर श्वेताम्बर संघभेद के साथ आपुलीय ( यापनीय) संघ मिल्ल और निःपिच्छक संघ का नामोल्लेल किया गया है । और उज्जैनी में भद्रबाहु से सम्राट चन्द्रगुप्त की दीक्षा लेने का भी उल्लेख है । ग्रन्थकार संकीर्ण मनोवृत्ति को लिए था, वह जैनधर्म की उस उदार परिणति से भी अनभिज्ञ था, इसीसे उन्होंने लिखा है कि- 'जो आचार्य शूद्रपुत्र और नोकर वगैरह को व्रत देता है वह निगोद में जाता है और अनन्त काल तक दुःख भोगता है' । प्रस्तुत ग्रन्थ सं० १५५२ में मार्गशिर महीने के शुक्ल पक्ष में रखा गया है। इसकी अन्तिम प्रशस्ति में 'धर्म परीक्षा' ग्रन्थ का उल्लेख किया है, जिरासे वह इससे पूर्व रची गई हैं ।
कवि की चौथी कृति 'धम्म परिषखा' धर्मपरीक्षा है। जिसकी एक अपूर्ण प्रति डा० हीरालाल जी एम० ए० डी० लिट्को प्राप्त हुई थी। उसमें १७६ कडबक है, उसे सम्वत् १५५२ में बना कर समाप्त किया था। जिस का परिचय उन्होंने 'अनेकान्त' वर्ष १२ किरण दो में दिया था। इन चारों ग्रंथों के अतिरिक्त कवि की अन्य भी कृतियां होगी, जिनका अन्वेषण करना श्रावश्यक है ।
कवि माणिक्य राज
यह जैसवाल कुलरूपी कमलों को प्रफुल्लित करने के लिये तरणि (सूर्य) थे । इनके पिता का नाम 'बुधसूरा' था और माता का नाम 'दीवा' था । कवि ने अमरसेन चरित में अपनी गुरु परम्परा निम्न प्रकार दी है-क्षेमकीति, मकीर्ति कुमारसेन, हेमचन्द्र और पद्मनन्दी । ये सब भट्टारक मूलसंघ के अनुयायी थे। कवि के गुरु पद्मनन्दी थे, जो बड़े तपस्वी शील को खानि निर्ग्रन्थ, दयालु और अमृतवाणी थे। अमरसेन चरित की अन्तिम प्रशस्ति में कवि ने पद्मनन्दी के एक शिष्य का और उल्लेख किया है, जिनका नाम देवनन्दी था और जो श्रावक की एकादश प्रतिमाओं के संपालक, राग द्वेष के विनाशक, शुभप्यान में अनुरक्त और उपशमभावी था। कवि ने अपने गुरु का अभिनन्दन किया है।
कवि की दो रचनाएं उपलब्ध हैं । कवि ने रोहतासपुर के जिनमंदिर में निवास करते हुए ग्रन्थों की रचना की है और दोनों ग्रन्थ ही अपूर्ण है । उनमें प्रथम भ्रमरसेन चरित का रचनाकाल वि० सं० १५७३ चैत्रशुक्ल पंचमी
१. अह जो सूरि देइ उणिस्वहं नीच सूद-सुय दासभिच्चहं । जयजियोग असुहअणु हुन्जई, अभिय कालतहं घोर द्रुह भुजद्द | २. विक्कम राय बनगइ कालई, पण्णरह सयते बावण अहिई । रयज गंधु तं जाउ स उण्णज, पंच
दासस जायज
३. सिरि जयसवाल-कुल-कमल-तर्रारण, इक्ष्वाकु वंस महिलि वरिठ, बुहसरा गंदणु सुख परिदृ । पण दीवा उररवण्णु, बहुमाणिकुरणा में दुहाहि मण्णु ।"
- योगसार पत्र ६५
-- जोग-सार प्रशस्ति
- नागकुमार चरित प्र०