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१५ १६ १७ और १ न शाब्दी के आचार्य, भट्टारक और दि
रचनाएं
कवि र ने अपभ्रंश भाषा में अनेक ग्रन्थों को रचना की है। उनमें से उपलब्ध रचनाओं का संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है :
१. अप्प राम्बो हकथ्य - यह कवि को सबसे पहली कृति ज्ञन्त होती है। क्योंकि इसकी २६ पत्रात्मक एक हस्तलिखित प्रति सं० १४४० की मार भंडार में उपलब्ध है। इस प्राथमिक रचना को श्रात्मसम्बोधार्थ लिखी है इसमें संधियां और ५० कवक है। जिनमें हिसा अणुपतादि पंच व्रतों का कथन किया गया है और बतलाया है कि जो दोष रहित जिन देव, निर्ग्रन्थगुरु और दशलक्षण रूप अहिंसा धर्म का श्रद्धान (विश्वास) करता है वह सम्यक्स्त्वरत्न को प्राप्त करता है :
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जिनदेव परमभिवगुरु बलवणधम्मु अहिंसय ।
सोच्छिउभायें सहसह सम्मत रयण फड सोलह ।।
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इसके पश्चात पंच उदम्बर फर और मय-मांस-मधु के त्याग को अष्टमूल गुण बतलाया है और इस प्रथम संधि में अहिंसा, सत्य और अचौर्य रूप तीन अणुव्रतों के स्वरूप का कथन दिया है। दूसरी संधि में चतुर्थ अणुप्रतब्रह्मचर्य का वर्णन किया है। तृतीय संधि में भगवान महावीर को नमस्कार कर कर्मक्षय के हेतु परिग्रह परिमाण नाम के पांचवे के है
सम्मत्त गुण रिहाण - यह ग्रन्थ ग्वालियर निवासी साहु सेमसिंह के ज्येष्ठ पुत्र कमल सिंह के अनुरोध से बनाया गया है। इस ग्रन्थ में ४ संधि और १०८ कड़वक दिये हुए हैं, उनकी अनुमानिक श्लोक संख्या तेरह सौ पचहत्तर के लगभग है । ग्रन्थ का अत्यन्त प्रशस्ति में साह कमल सिंह के परिवार का परिचय दिया हुआ है। इसमें सम्य त्व के आठ अंगों में प्रसिद्ध होने वाले प्रमुख पुरुषों की रोचक कथाएं बहुत ही सुन्दरता से दी गई हैं ये कथाएं पाठकों
का वर्णन दिया है । यह स्थान ही अग्रवाल जाति का मूल निवास स्थान था। यहां के निवासी देशभक्त वीरवाल ने यूनानी, शक, कुषाण, हुए और मुसलमान बादि विदेशी आक्रमणकारियों से अनेक शताब्दियों तक जमकर लोहा लिया था। मुहम्मद गौरी के आक्रमण के समय (संवत् १२५१ ) में वही प्राचीन राज्य पूर्णतया विष्ट हो गया था । और यहां के निवासी अग्रवाल आदि राजस्थान और उत्तर प्रदेश श्रादि में वस गए थे ।
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कहा जाता है कि अग्रोहा में अग्रसेन नाम के एक क्षत्रिय राजा थे। उन्हीं की सन्तान परम्परा अग्रवाल कहलाते के अनेक अर्थ है किन्तु यहां उनकी विवक्षा नहीं है, यहाँ देश के रहने वाले ही विवक्षित है। अग्रवालों के १८ गोत्र बतलाये जाते हैं। जिनमें गर्ग, गोयल, मित्तल जिन्दल, मिहल आदि नाम है । वालों में दो धर्मो के मानने वाले पाये जाते हैं। जन अग्रवाल और बैष्णव अग्रवाल । श्री लोहाचार्य के उपदेश से उस समय जो जैनधर्म में दीक्षित हो गये थे, वे जैन अग्रवाल कहलाये और शेष वैष्णव; परन्तु दोनों में रोटी बेटी व्यवहार होता है, रीति-रिवाजों में कुछ समानता होते हुए भी उनमें अपने-अपने धर्मपरक प्रवृत्ति पाई जाती है हाँ कभी अग्रवाल अहिसा धर्म के माननेव ले हैं। उपजातियों का इतिवृत्त १०वीं शताब्दी से पूर्व का नहीं मिलता, हो सकता है कि कुछ उपजातियाँ पूर्ववर्ती रही हों। अग्रवालों की जन परम्परा के उल्लेख १२वीं शताब्दी तक के मेरे देखने में आए हैं। म जाति खूब सम्पन्न रही है। लोग धर्मज, आचारनिष्ठ, दयालु और जन-धन से सपन्न तथा राज्यमान्य रहे हैं। तोमर वंशी राजा अनंगपाल तृतीय के राजश्रेष्ठी और आमात्य अग्रवाल कुलावतंश साहू नट्टल ने दिल्ली में श्रादिनाथ का एक विशालतम मंदिर बना था जिसका वीरवाल द्वारा श्ये पार में दिया गया है। यह पारव पुराण संवत् १९८६ में दिल्ली में उक्त नद्दल साहू के द्वारा बनवाया गया था उसकी संवत् १५७७ की लिखित प्रति आमेर मंडार में सुरक्षित है। अग्रवालों द्वारा अनेक मन्दिरों का निर्माण तथा ग्रन्थों की रचना और भट्टारकों आदि को प्रदान करने के अनेक उल्लेख मिलते हैं। इससे इस जाति की का परिचय मिलता है हाँ इनमें शासति अधिक पाई जाती है।
उनकी प्रतिलिपि करवाकर साधुओं, सम्पन्नता धर्मनिष्ठा और परोपकार १. लिपि संवत् १४४ वर्ष फाल्गुण वदि लिखित | आमेर भंडार
१ गुरौ दिने स्राम
( श्रावक ) लयमा लक्ष्मण कभ्मक्षय विनावा (शा) थं