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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ भ० वादिचन्द्र यह मूलसंघ सरस्वती गच्छ के भद्रारक-भट्रारक ज्ञानभूषण द्वितीय के प्रशिष्य और भ० प्रभाचन्द्र के शिष्य थे। यह अपने समय के अच्छे विद्वान कवि और प्रतिष्ठाचार्य थे। इनको पट्ट परम्परा निम्न प्रकार है :-विद्यानन्दि के पट्टधर मल्लिभूषण, उनके पट्टधर लक्ष्मीचन्द्र, वोरचन्द्र, ज्ञानभूषण, प्रभाचन्द्र और इनके पट्टधर वादिचन्द्र । इनको गद्दी गुजरात में कहीं पर थी। इनकी निम्न रचनाएं उपलब्ध हैं-पावपुराण, ज्ञानसूर्योदय नाटक, पवनदूत, सुभग सुलोचना चरित, श्रीपाल प्राख्यान, पाण्डवपुराण, और यशोधर चरित । होलिका चरित और अम्बिका कथा । पाश्वंपुराण-इस ग्रन्थ में १५०० पद्य हैं जिनमें भगवान पार्श्वनाथ का चरित मंकित है। इस ग्रन्य को कवि ने वि० सं० १६४० एमगादी ५ के दिन गारमीकि जय मास.ई।वादिचन्द्र ने अपने गुरु प्रभाचन्द्र को बौद्ध, काणाद, भाट्ट, मीमांसक, सांख्य, वैशेषिक प्रादि को जीतने वाला और अपने को उनका पट्ट सुशोभित करने वाला प्रकट किया है-- बौद्धो मूढति बौद्ध भितिमतिः काणावको कति, भट्रो भूत्यति भावनाप्रतिभटो मीमांसको मन्दति । सांख्यः शिष्यति सर्वयंवकयमं वैशेषिको कति, यस्य ज्ञानपाणतो विजयता सोऽयं प्रभाचन्द्रमा ।। ज्ञानसर्योदय नाटक-यह एक संस्कृत नाटक है, जो 'प्रबोधचन्द्रोदय' नामक नाटक के उत्तर रूप में लिखा गया है। कृष्णामधयति परिव्राजक ने बुन्देलखण्ड के चन्देल वंशी राजा कीर्तिवर्मा के समय में उक्त नाटक रचा है। कहा जाता है कि वि० सं० ११२२ में उक्त राजा के सामने यह नाटक खेला भी गया था। इसके तीसरे अंक में क्षपणक (जैन मुनि) को निन्दित एवं पूणित पात्र रूप में चित्रित किया है। वह देखने में राक्षस जैसा है और श्रावकों को उपदेश देता है कि तुम दूर से चरण वन्दना करो, और यदि हम तुम्हारी स्त्रियों के साथ अति प्रसंग करें तो तुम्हें वर्षा नहीं करनी चाहिये । आदि । उसी का उत्तर वादिचन्द्र ने दिया है। दोनों नाटकों की तुलना करने से पात्रों की समानता है, दोनों के पद्य मोर गद्य वाक्य कुछ हेर फेर के साथ मिलते हैं। अस्तु, कवि ने इस ग्रन्थ की रचना वि० सं० १७४८ में मधूक नगर (महुमा) में समाप्त की थी वसु-देव-रसाब्जके वर्षे माघे सिसाक्टमी विषसे । श्रीमन्मधूकनगरे सिद्धोऽयं बोधसंरभः ।। पवन वृत—यह एक खण्ड काव्य है, जिसकी पद्य सख्या १०१ है। जिस तरह कालिदास के विरही यक्ष ने मेध के द्वारा अपनी पत्नी के पास सन्देश भेजा है, उसी तरह इसमें उज्जयिनी के राजा विजय ने अपनी प्राणप्रिया तारा के पास, जिसे प्रशनिवेग नाम का विद्याधर हर ले गया था, पवन को दूत बनाकर विरह सन्देश भेजा है। यह रचना सुन्दर और सरस है। अपने पक्ष में कवि ने अपने नाम के सिवाय अन्य कोई परिचय नहीं दिया है । पद्य से स्पष्ट है कि यह रचना विगतवसन वादिचन्द्र की है। यह वादिचन्द्र वही है जो ज्ञान सूर्योदय नाटक के कत्ता है। सुभग सुलोचना चरित्र-इस ग्रन्थ की एक प्रति ईडर के शास्त्र भंडार में है। प्रशस्ति से जान पड़ता है कि १. तसट्टमण्डनं सूरिर्वादिचन्द्रो व्यरीरचत् । पुराणमेतत्वाश्वस्य वाविवृन्द शिरोमणिः ॥२ न्यवेदरासाजांके वर्षे पक्षे समुज्जले। कार्तिक मासि पंचम्या बाल्मीके नगरे मुदा ॥३ पा.पु.प्र. २. पावो नत्वा जगदुयकस्वर्थ सामध्यवन्तौ विघ्नध्यान्तप्रसर तरणेः शान्तिनाथस्य अवस्था । श्रोतुं तत्सदसि गुरिणतावायुदताभिधान, काव्यं चके विगतवसनः स्वल्पयोर्वादिचन्द्रः।
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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