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________________ पारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य जीवी पेाडि भुवनकवीर उदयादित्य शासन कर रहे थे। तब भुयनकमल्ल ने 'शान्तिनाथ मन्दिर' के लिये उक्त कुलचन्द्र मुनि को नागर खण्ड में भूमि दान दिया। चूकि यह शिलालेख शक सं० १६६ (वि० सं० ११३१ सन् १०७५ है । अत: उक्त मुनि विक्रम की १२वीं शताब्दी के पूर्वाध के विद्वान थे। जैनलेख सं० भा०२ पृ०, २६४-६५ प्राचाग इनके पिता का नाम केशबराज और माता का नाम मल्लाम्बिका था। कवि का गोत्र भारद्वाज था। यह जंन ब्राह्मण थे। गुरु का नाम नन्दियोगीश्वर' और ग्राम का नाम पुरीकर नगर (पुलगिर) या। इनके पिता केशवराज और रेचण नाम के सेनापति ने, जो वसुधैक बान्धव के नाम से प्रसिद्ध था। वर्धमान नामक एक पुराण ग्रंथ के निर्माण का कार्य प्रारम्भ किया था, किन्तु दुर्देव से उनका बीच में ही शरीरान्त हो गया, तब उस अन्य को आचाण्ण ने समाप्त किया। इस कवि की पार्श्वनाथ पुराण में, जो कविपार्श्व द्वारा सन् १२०५ में रचा गया हैप्रशंसा की है। इससे स्पष्ट है कि कवि पाचण्ण सन् १२०५ से पहले हुआ है। कवि ने अपने से पूर्ववतों कवियों को स्तुति करते हुए अगल कवि की (११८६) की भी प्रशंसा को है। इससे कवि ११८६ के बाद हुमा है । रेवण चमुपति कलचुरि राजा का मंत्री था। शिलालेखों से ज्ञात होता है कि माहवमल्ल (११८१-११८३) के और नवीन हयशालवंश के वीर बल्लाल (११७२-१२१६) के समय में भी वह जीवित था। इससे कवि का समय ११७५ के लगभग जान पड़ता है । प्रस्तुत वर्षमान पुराण में महावीर तीर्थंकर का चरित वर्णित है । ग्रन्थ में १६ पाश्वास हैं। इसकी रचना अनुप्रास यमक आदि शब्दालंकारों से युक्त और प्रौढ़ है। कवि की अन्य किसी कृति का उल्लेख नहीं मिलता। ब्रह्मशिव यह वत्सगोत्री ब्राह्मण था। इसके पिता का नाम अग्गल देव था। यह कीर्तिवर्मा और आहव. मल्ल नरेषा का समकालीन था। पहले यह वैदिक मतानुयायी था। पश्चात उसे निःसार समझकर लिंगायत मतक! उपासक हो गया था। उस समय तक वह वेद, स्मृति और पुराण प्रादि ग्रन्थों का अध्ययन कर चुका था । परन्तु उसे इन ग्रन्थों से सन्तोष नहीं हुमा । लिंगायत मत को भी उसने यथार्थ नहीं समझा और पश्चात् उसने स्याद्वादमय जैनधर्म को ग्रहण कर सन्तुष्ट हो गया। इसका बनाया हुआ एक 'समय परीक्षा' नामक ग्रंथ है जिसमें शैव, वैष्णवादि मतों के पूराण ग्रन्थों तथा प्राचारों में दोष बतला कर जैनधर्म की प्रशंसा की है। इस ग्रंथ की कविता बहुत ही सरल पौर ललित है। यह कनड़ी भाषा का कवि है। समय परीक्षा से ज्ञात होता है कि यह संस्कृत का भी अच्छा विद्वान था । ग्रन्थ के पुष्पिका वाक्य से इसके गुरु का नाम वीरनन्दी मुनि जान पड़ता है--ति भगववर्हत परमेश्वर धरण स्मरण परिणतात:करण वीरनन्दि मुनिन्द्र चरण सरसीरुह-षट् परण-मिथ्या समय तीच तिमिर घण्डकिरणसकलागम निपुण-महाकवि ब्रह्म शिव विरचित समय परीक्षायां-" ये वीरनन्दी मेद्यचन्द्र विद्य के शिष्य जान पड़ते हैं। जो सन १९१५ में दिवंगत हए थे। यदि ये वीरनन्दि यही हैं । तो कवि का समय सन् ११२०-११२५ होना चाहिये । बालचन्द प्रध्यास्मी यह मूलसंघ, देशीयगण पुस्तकगच्छ और कुन्दकुन्द अन्वय के विद्वान थे। इनके गुरु नयकीति ये जो गुणचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के शिष्य थे और जिनका स्वर्गवास शक सं० १०६६ सन् १९७७ में वैशाख शुक्ला चतुर्दशी को हुआ था। इनके भाई का नाम दामनन्दी था। अनेक शिलालेखों में इनको स्तुति के १. मदास के प्राच्य कोशालय के एक शिलालेख से मासूम होता है कि नन्दियोगीश्वर सन् १९८९ में मौजूद थे । २. शाके रचनवद्युपन्द्रमसि दुम्मख्या व (ख्य) संवत्सरे । वैशाखे घबले चतुदंपारिने बारे च सूरिमजे। पूर्वाहप्रहरे गतेल सहिते स्वर्ग जगामात्मवान् । विख्यातो नयकीति-देव मुनिपो राधान्त-चक्राधिपः ।।२३ -जैन शिलालेख संग्रह भाग १ पृ. ३७
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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