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________________ १७ समवसरण की महत्ता और प्रभुता को देखकर ऐसा कौन व्यक्ति होगा, जो प्रभावित हुए बिना न रहता । उनका छत्रत्रय तीन लोक की प्रभुता को व्यक्त कर रहा था। सोधर्म और ईशान इन्द्र चमर होल रहे थे, और शेष इन्द्र जय-जय शब्दों का उच्चारण कर रहे थे। फिर भी भगवान वर्द्धमान उस विभूति से चार अंगुल र अन्त रिक्ष में विराजमान थे । वे उस विभूति से यन्नविष्ट दिखाई दे रहे थे। उनकी यह निम्तायात्म-बोध और वैराग्य की जनक थी । वीर शासन इन्द्रभूति ने भाइयों और शिष्यों के साथ समवसरण की महत्ता का अवलोकन किया। उसे अपनी विद्या का बड़ा अभिमान था । वह अपने सामने किसी दूसरे को विद्वान् मानने के लिए तैयार न था । किन्तु जब वह समयसरण में प्रविष्ट हुआ, तब मानस्तम्भ देखते ही उसका सव अभिमान गल गया और मन मात्र भावना से प्रांत हो गया । मन में भगवान के प्रति आदर भाव जागृत हुआ। और थान्तरिक विशुद्धि के साथ वह समवसरण के भीतर प्रविष्ट हुआ। उसने दिव्यात्मा महावीर को देखते ही भक्ति से नमस्कार किया, तीन प्रदक्षिणाएं दीं, उस समय उसका अन्तःकरण विशुद्धि से भर रहा था । प्रान्तरिक वैराग्य भावना ने उसे प्रेरित किया और उसने पांचों से अपने केशों का लोंच किया और वस्त्राभूषण के त्यागपूर्वक अपने भाइयों और पांच-पांच सौ शिष्यों के साथ संयम धारण किया' - यथा जात दिगम्बर मुद्रा धारण की और वह गौतम गोत्री इन्द्रभूति भगवान महावीर का प्रथम अवधि गणधर बना, और अग्निभूति वायुभूति भी गणधर पद से अलंकृत हुए। दीक्षा लेते ही इन्द्रभूति मति, श्रुत, और मन:पर्ययरूप ज्ञानचतुष्टय से भूषित हुए । उनका जीव-विषयक सन्देह भी दूर हो गया और तपोबल से उन्हें अनेक ऋद्धियां (विशेष शक्तियां ) प्राप्त हुई। वे अणिमादि सप्त ऋद्धिसम्पन्न सप्त भय रहित, पंचेन्द्रियविजयी, परीपह सहिष्णु, और पद् जीव निकाय के संरक्षक थे। वे प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग श्रीर द्रव्यानुयोग रूप चार वेदों में अथवा साम, ऋक, यजु और अथर्व वेदादि में पारंगत तथा विशुद्ध झील से सम्पन्न थे । भावश्रुतरूप पर्याय से बुद्धि की परिपक्वता को प्राप्त इन्द्रभूति गणधर ने एक मुहूर्त में बारह अंग और चौदह पूर्वी की रचना की। जैसा कि तिलोय पण्णत्ती की निम्न गाथाओं से प्रकट है : 'विमले गोदमगोते जावेणं इंदभूदि णामेण । चउवेदपारगेणं सिस्सेण विसुद्धसीलेण ॥ भावसुदपज्जयेहिं परिणदमविणा वारसंगाणं | चोदस पुत्राण तहा एक्कमृहुत्तेन विरचिणा विहिदो । तिलो० प० १४७६-७ इन्द्रभूति को भगवान महावीर के सान्निध्य से तथा विशुद्धि और तपोवल से ऐसी अपूर्व सामर्थ्य प्राप्त हुई, जिससे उन्हें सर्वार्थसिद्धि के देवों से भी श्रनन्तगुणा वल प्राप्त था, जो एक मुहूर्त में बारह अंगों के अर्थ और द्वादशांगरूप ग्रन्थों के स्मरण तथा पाठ करने में समर्थ थे, और अमृतासव यादि ऋद्धियों के बल से हस्तपुट में गिरे हुए सब आहारों को वे अमृत रूप से परिणामाने में समर्थ थे तथा महातप गुण से कल्प वृक्ष के समान, एवं प्रक्षीण महानस लब्धि के वल से अपने हाथों में गिरे हुए आहारों की अक्षयता के उत्पादक थे घोरतपऋद्धि के माहात्म्य से जीवों के मन, वचन और कायगत समस्त कष्टों को दूर करने वाले, सम्पूर्ण विद्याओं के द्वारा जिनके चरण सेवित थे । आकाश चारण गुण से सब जोव समूहों की रक्षा करने वाले, बचन एवं मन मे समस्त पदार्थों के सम्पादन करने में समर्थथे, अणिमादि प्राठ गुणों के द्वारा सब देव समूहों को जीतने वाले और परोपदेश के बिना अक्षर अक्षर रूप सव भाषाओं में कुशल गणधर देव ग्रन्थकर्ता हैं ऐसी दिव्य शक्तियों के धारक गणधर इन्द्रभूति भगवान महावीर के प्रथम गणधर बने । और उनके दोनों भाई भी गणधर पद से अलंकृत हुए। श्वेताम्बरीय आवश्यक नियुक्ति में भी सभी गणधरों को द्वादश अंग और चौदह पुत्रों का धारक बतलाया है, भगवान महावीर के ग्यारह गणधर थे, जिनका परिचय आगे दिया गया है। । १. प्रत्येक सहिताः सर्वे शिष्याणां पञ्चभिः शतैः । त्यवताम्बर/दिसम्बन्धाः संयमं प्रतिपेदिरे । (हरिवंश ० २२६६ ) २. घवला पृ० १२६
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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