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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग २
इन्द्रभति गाथा को सुनते तथा पढ़ते ही असमंजस में पड़ गया। उसको समझ में नहीं पाया कि पांच अस्तिकाय, पट जीवनिकाय और प्रष्ट प्रवचन मात्राएं कौन-सी हैं ? 'छज्जीवणिकाया' पद से वह और भी विस्मित हना, जीवों के छह निकाय कौन से हैं? क्योंकि जीव के अस्तित्व के सम्बन्ध में उसका मन पहले से ही शंकाशील बना हया था। इन्द्रभूति ने अपने विचार प्रवाह को रोकते हुए उस आगन्तुक से कहा-'तुम मुझे अपने गुरु के पास ले चलो, उनके सामने ही मैं इस गाथा का वार्य रमझाऊँगा। इन्ट मापने अभीष्ट अर्थ को सिद्ध होता देख बड़ा प्रसन्न हुआ और वह इन्द्रभूनि को उसके भाइयो और उनके पांच-पाँच सौ शिष्यों को साथ लेकर महावीर के समम्मरण में पहुंचा।
वीर-शासन
छयासठ दिन तक मौन से विहार करते हुए बर्द्धमान जिनेन्द्र राजगह के प्रसिद्ध भूधर विपुलगिरि पर पधारे। जिस तरह सूर्य उदयाचल पर आरूढ़ होता है, उसी प्रकार बर्द्धमान जिनेन्द्र भव्य लोगों को प्रबुद्ध करने के लिए विपुल लक्ष्मी के धारक विपुलाचल पर ग्रारूढ़ हुए' । वर्द्धमान जिनेन्द्र के आगमन का वृत्तान्त अवगत कर सुर-असुरादि सपरिकर पधारे और उन्होंने एक योजन विस्तार वाले समवसरण की रचना की, जो कोटों, द्वारों, गोपूरों, अष्टमंगल द्रव्यों, ध्वजायों, मानस्तम्भों, स्तूपों, महावनों, वापिकाओं, कमल समूहों और लता गहों से अलंकृत था और जिसमें बारह प्रकोष्ठ या विभाग बने हुए थे। समवसरण की देवोपुनीत रचना अत्यन्त सम्मोहक और प्रभावक थी। उसकी महिमा अद्भुत थी। समवसरण की यह खास विशेषता थी कि उस समवसरण सभा में देव विद्याधर, मनुष्य और तिर्यचादि पशु सभी जीव अपने-अपने विभाग में शान्तभाव से बैठे हए थे और भगवान महावीर उसमें पाठ प्रातिहायों और चौंतीस अतिशयों में संयुक्त विराजमान थे । उनकी निर्विकार प्रशान्त मुद्रा प्राकतिक आदर्शरूप को जनक थी । वे अहिंसा की पूर्ण प्रतिष्ठा को पाकर परमब्रह्म परमात्मा बन गए थे । अतः उनकी अहिंसा को पूर्ण प्रतिष्ठा के प्रभाव से जानि-विरोधी जीवों का परस्पर में ऋषायरूप विष धुल गया था। उनकी मोह-क्षोभ रहित वीतराग मुद्रा अत्यन्त प्रभावक थी। इसो से विरोधी जीवों पर उसका अमित प्रभाव अंकित था। जनता ने जाति विरोधी जीवों का विपुल गिरि पर एकत्र मिलाप देखा, उसमें देव और मनुष्यों के अतिरिक्त सिंह-हिरण, सर्प-नकूल, और चहा-बिल्ली यादि विरोधी जीव भी शान्तभाव से बैठे थे। उन्हें देखकर उनके ग्राश्चर्य का ठिकाना न रहा । वे बार-बार कहने लगे कि यह सब उस क्षीणमोही विगतकल्मष, योगीन्द्र महावीर का ही प्रभाव है। जैसा कि संस्कृत के निम्न प्राचीन पद्य से स्पष्ट है :
सारंगी सिंहशावं स्पशति सुतधिया नन्दिनी व्याघ्रपोतं । मार्जारी हंसबालं प्रणयपरधशाके किकान्ता भुजंगीम् । वैराण्याजन्मजातान्यपि गलितमवा जन्तवोऽन्ये त्यजन्ति,
श्रित्वा साम्येकरूढ़ प्रशमितकलूषं योगिनं क्षीणमोहम् ॥ १. षट्षष्टि दिवसान भूपो मौनेन विहान विभुः ।
माजगाम जगत्स्यात जिनो राज गहं पुरम् ॥ ६१ प्रारोह गिरि तत्र विपुलं विपुल श्रियम् ।
प्रबोधार्थं स लोकाना भानुमानुदयं यथा ॥ १२ ॥ हरिवंश पु०२। ६१, ६२ २. प्रातिहाय नोऽष्टाभिश्चम्सिन्महातः ।
दत्र देवतोऽभासीज्जिनश्चन्द्र इव ग्रहै: ।। हरिवंश पुराण २ । १६५