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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ पूत्र पुण्य शाली श्री घोषर, जो सघन पापरूपी गिरीन्द्र के लिए वज के समान था और चौथा गंगा जल के समान निर्मल मन वाला गङ्ग। इन चार पुत्रों के बाद इनकी एक बहिन भी उत्पन्न हुई थी, जिसका नाम पुतली था जो ऐसी जान पड़ती थी कि जिनवर के मुख से निकली हुई सरस्वती हो, अथवा दृढ़ सम्यक्त्व वाली रेवती हो, शील बती सीता हो और गुणरत्नराशि राजुल हो। श्रुतसागर ने स्वयं भोजराज की इस पुत्री पुतली के साथ संघ सहित गजपन्य और तुङ्गीगिरि आदि की यात्रा की थी। और वहां उसने नित्य पूजन की, तप किया और संघ को दान दिया था। जैसा कि उक्त प्रशस्ति के निम्न पद्यों से स्पष्ट है:
"श्री भानुभूपति भुजासिजलप्रवाह निर्मग्नशकुलजातततप्रभावः । सद्बुद्वय हुंह कुले बृहतील दुर्गे श्री भोजराज इति मंत्रिवरो बभूव ।।४४ भार्यास्य सा विनयवेव्यभिषासुघोपसोद्गारवाक कमलकान्तमुखी सखीय । लक्ष्म्याः प्रभोजिनवरस्य पदान्जभूगी साध्यो पतिव्रतगुणामणियन्महाया ।।४५ सासूत भरिगणरत्नविभूषितांग श्री कर्मसिहमिति पुत्रमनकरत्नं । कालं च शत्रफलकालमननपुण्यं श्री घोषरं घनतराधगिरीन्द्र बन॥४६ गंगाजलप्रबिलोच्यमनोनिकेतं यं च वयंतरमंगजमत्र गंगं । माता पुरस्सदनु पुत्तलिका स्वसेषां वक्त्रेषु सज्जिनवरस्य सरस्वतीव ॥४७ सम्पनदातार्या हिला किस देवतोत्र यीने शीलसलिलोक्षितभरिभमिः । राजीमतीव सुभगा गुणरस्नराशिः वेला सरस्वति इवांचति पुत्तलोह ॥४॥ पात्रां चकार गजपंथ गिरौ ससंघा होतसपो विवधती सबढ़वतासा। सच्छान्तिकं गणसमर्चनमहंदीश निस्यार्चन सकलसंघ सपत्त दानम् ॥४६ तुगीगिरोच बलभद्रमुनेः पवाजगी तथैव सकृतं यतिभिश्चकार । श्री मल्लिभूषणगुरुप्रवरोपवेशाच्छास्त्रं ध्यधाय यविदं कतिनां हृदिष्ट ॥५०
–पल्य विधान कया प्रशस्ति इन प्रशस्ति पद्यों में उल्लिखित भानुभूपति ईडर के राठौर वंशी राजा थे। यह राव के जोजी प्रथम के पत्र मौर रावनारायण दास जो के भाई थे और उनके बाद राज्य पद पर आसीन हुए थे । इनके समय वि० सं०१५०२ में गुजरात के बादशाह मुहम्मद शाह द्वितीय ने ईडर पर चढ़ाई की थी, तब उन्होंने पहाड़ों में भागकर अपनी रक्षा की, बाद में उन्होंने सुलह कर ली थी। फारसी तबारीखों में इनका वीरराय नाम से उल्लेख किया गया है। इनके दो पुत्र थे सूरजमल्ल और भीमसिंह । रावभाण जी ने स० १५०२ से १५२२ तक राज्य किया है । इनके बाद राव सूरजमल्ल जी सं० १५५२ में राज्यासीन हए थे । उक्त पल्ल विधान कथा की रचना रावभाण जी के राज्यकाल में हुई है। इससे भी श्रुतसागर का समय विक्रम को सोलहवीं शताब्दी का द्वितीय चरण निश्चित होता है।
श्रुतसागर का स्वर्गवास कब और कहाँ हमा, उसका कोई निश्चित आधार अब तक नहीं मिला, इसी से उनके उत्तर समय की सीमा निर्धारित करना कठिन है, फिर भी सं०. १५८२ से पूर्व तक उसको सीमा जरूर है और जिसका माधार निम्न प्रकार है :--.
श्रुतसागर ने पं. आशाधर जी के महाभिषेक पाठ पर एक टीका लिखी है. जिसको सं० १५७० की लिखी हुई टीका की प्रति भ० सोनागिर के भंडार में मौजूद है। इससे यह टीका सं० १५७० से पूर्व बनी है यह टोका अभिपंक पाठ संग्रह में प्रकाशित हो चुकी है। उसकी लिपि प्रशस्ति सं० १५५२ की है। जिससे भ० लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य ब्रह्मज्ञानसागर के पठनार्थ आर्या विमलधी की चेली और भ० लक्ष्मीचन्द्र द्वारा दीक्षित विनयश्री ने स्वयं लिखकर
१. देखो, भारत के प्राचीन राजवंश भा०३ पृ० ४२६ । २. सं० १५८५ की लिखी हुई श्रुतसागर को षट् पाहुड टीका की एक प्रति आमेर के शास्त्र भंडार में उपलब्ध है। उसकी लिपिप्रशस्ति मेरी नोटबुक में उद्धृत है।