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________________ भगवान महावीर का निर्वारण उसी समय गौतम इन्द्रभूति को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई । भगवान महावीर के निर्वाण महोत्सव के समय चारों निकायों के देवों ने विधिवत उनके शरीर की पूजा की। उसी समय सुर और असुरों के द्वारा जलाई हुई दीपकों को पंक्ति से पावानगरी का आकाश सब ओर से जगमगर उठा । लिच्छिवि गण, मल्लगणों आदि के अनेक राजाश्रों ने और राजा बिम्बसार (श्रेणिक) ने भगवान के निर्वाण कल्याणक की पूजा की। उसी समय से भगवान के निर्वाण कल्याणक की भक्ति से युक्त, संसार के प्राणि भारतवर्ष में प्रतिवर्ष प्रादरपूर्वक दीपमालिका द्वारा भगवान की पूजा करते हैं। उसी दिन से भारतवर्ष में दीपावल पर्व सोत्साह मनाया जाता है । यह महोत्सव अढ़ाई हजार वर्ष से सारे भारतवर्ष में मनाया जाता है । वार निर्वाण सम्वत् भगवान महावीर का निर्वाण ईसवी सन् के ५२७ वर्ष पूर्व हुआ है और महात्मा बुद्ध का परिनिर्वाण महाबीर के निर्वाण से लगभग १७ वर्ष पूर्व अर्थात् ईसवी सन् के ५४४ वर्ष पूर्व में हुआ है। सिंहल आदि देशों में बुद्ध के निर्वाण का यही काल माना जाता है । वीर निर्वाण संवत् के विवाद पर प्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान स्व० पं० जुगलकिशोर मुख्तार ने अनेक ग्रन्थों के प्रमाण देकर यह प्रमाणित किया कि प्रचलित विक्रम संवत् राजा विक्रम को मृत्यु का संवत् है, जो वीर निर्वाण संवत् से ४७० वर्ष बाद प्रारम्भ होता है। मुनि कल्याण विजय ने अपने वीर निर्वाण संवत् और जैन काल गणना' नाम के निबन्ध में भी सप्रमाण यही विवेचन किया है। कार्तिक कृष्णस्यान्ते स्वता निहत्य कर्मरज: 1 प्रवशेषं सम्प्रायजरामर मक्षयं सौख्यम् ॥ ( निर्वाण भ० १६, १७ ) (च) कृत्वा योगनिरोधमुज्झित्समः षष्ठेन तस्मिन्वने । व्युत्सर्गेण निरस्य निर्मलरुचिः कर्माप्यशेषाणि सः ॥ स्थित्वेन्द्रावपि कार्तिकासितचतुर्दश्यां निशान्ते स्थिती स्वाती सन्मतिराससाद भगवासिद्धिप्रसिद्ध श्रियम् ।। ( वर्धमान चरित, असगकृत ५० ४८४ २१ १. जिनेन्द्रवीरोऽपि विवोत्य सन्ततं समन्ततो भव्य समूहसन्ततिम् । प्रपद्य पाया नगरी गरीयसीं मनोहरोद्यानवने तदीयके ॥ चतुर्थकाले चतुर्थ मासवहीनताविदचतुरब्द शेव । कार्तिके स्वातिषु कृष्णभूतसुप्रभातसन्ध्यासमये स्वभावतः ॥ अधातिकरण निरुद्धयोगको विधूय घातीन्धनवद्विबन्धनः । विबन्धनस्थानमवाप शङ्करो निरन्तरामसुखानुबन्धनम् ॥ स पञ्चकल्याणमहामहेश्वरः प्रसिद्धनिर्वाणमहे चतुविधः । शरीरपूजाविधिना विधानतः सुरैः सनभ्यच्यंत सिद्धासनः ॥ प्रदीपालिका प्रवृद्धया सुरासुरैः दीपितथा प्रदीप्तया । तदा स्म पावानगरी समन्ततः प्रदीपिताकाशतला प्रकाशते ॥ तथैव च श्रेणिकपूर्वभुर्भुजः प्रकृत्य कल्याणमहं सहप्रजाः । प्रजग्मुरिन्द्राश्य सुरबायथं प्रयाचमाना जिनबोधिमचिनः ।। ततस्तु लोकः प्रतिवर्ष मादरात्प्रसिद्ध दीपालिकमात्र भारते । समुद्यतः पूजयितुं जिनेश्वरं जिनेन्द्रनिर्वाणविभूतिभक्तिभाक् ।। - हरिवंशपुराण ७६-१५ से २१
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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