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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ कवि ने प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना रायद्दिय नगर में निवास करते हुए की थी। वहां उस समय चौहान वंश के राजा पाहवमल्ल राज्य करते थे। उनकी पट्टरानी का नाम ईसरिदे या, आहवमल्ल ने तात्कालिक मुसलमान शासकों से लोहा लिया था और उसमें विजय प्राप्त की थी। किसी हम्मीरवीर ने उनकी सहायता भी की थी। कवि के आश्रय दाता कण्हका वंश लम्बकंचुक या लमेचू था। इसवंश में 'हल्लण' नामक श्रावक नगर घेष्ठी हुए, जो लोक प्रिय और राजप्रिय थे। उनके पुत्र अमृत या ममयपाल थे, जो राजा प्रभयपाल के प्रधानमन्त्री थे। उन्होंने एक विशाल जिनमंदिर बनवाया था और उसको शिखरपर सुवर्ण कलश चढ़ाया था। उनके पुत्र साहू सोडू थे,जो जाहड नरेन्द्र और उनके पश्चात् श्रीवल्लाल के मंत्री बने । इनके दो पुत्र थे रत्नपाल मौर कण्हः । इन की माता का नाम 'मल्हादे' था। रत्नपाल स्वतंत्र पौर निरर्गल प्रकृित के थे। किन्तु उनका पुत्र शिवदेव कला पौर विद्या में कशल था, जो अपने पिता की मत्य के बाद नगर सेठ के पद पर मारूतु हमा था। और राजा माहवमल्लने अपने हाथ से उसका तिलक किया था। कण्ड (कृष्णादित्य) जपत राजा पाहवमल्ल के प्रधानमंत्री थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम 'सुलक्षणा' था। वह बड़ी उदार, धर्मात्मा, पतिभक्ता भोर रूपवती थी। इनके दो पुत्र हुए। हरिदेव पौर द्विजराज । इन्हीं कण्हकी प्रार्थना से कवि ने इस ग्रन्थ को वि० सं०१३१३ कार्ति कृष्णा ७ सप्तमी गुरुवार के दिन पुष्प नक्षत्र और साहिज्ज योग में समाप्त किया था जैसा कि उनके निम्न वाक्य से प्रकट है : तेरहसम तेरह उत्तराल परिगलिय विषकमाइस्थकाल । संवेय रहा सम्वहं समक्स, कत्तिय मासम्मि प्रसेप-पक्ष । समिविण गुरुवारे समोए, प्रमि रिक्खे साहिज्ज-जोए। नवमास रमते पायरत्यु, सम्मसउ कम कम एल सस्य । -जिन प्रम्य प्रशस्ति सं० भा०२ पृ. ३२) कविदामोदर कविदामोदर का जन्म मेडेत्तम वंश में हुमा था। उनके पिता का नाम कवि माल्हण था जिसने दाह का चरित बनाया था । कवि के ज्येष्ठ भ्राता का नाम जिनवेव था । कवि गुर्जर देश से चलकर मालवदेश में पाया था। और वहां के सलखणपुर को देखकर सन्तुष्ट हुमा। उसने वीर जिनके चरणों को नमस्कार किया और स्तुति की। सलखणपुर उस समय एक जन-धन सम्पन्न नगर था, पौर परमारवंशी नरेश देवपाल वहां का शासक था। इसी सलखणपुर में पं० प्राशाधरजी संवत् १२८२ में मौजूद थे, वे उस समय गृहस्थाचार्य के पद पर प्रतिष्ठित थे। इसी से उन्होंने अपने को 'गृहस्थाचार्य कुंजर, लिखा है। वे उस समय श्रावक के व्रतों का अनुष्ठान करते थे। सलखण पुर में उन्होंने परमारवंशी देवपाल के राज्य समय में मल्ह के पुत्र नागदेव को धर्मपत्नी के लिये जो उस राज्य में चंगी व टैक्स विभाग में काम करता था उक्त संवत् १२८२ में संस्कृतगद्य में 'रत्नत्रयविधि' नाम की कथा लिखी थी । यह रचना उनकी रचनामों में सबसे पहली जान पड़ती है । उसके बाद वे नलकच्छपुर में चले गये हैं। १. राजा आहवमालकी वंश की परम्परा चन्दवास नगर से बतलाई गई है। चौहान वंशी राजा भरतपाल, उनके पुत्र अभयपाल, के पुत्र जाहर, उनके श्रीवल्साल और घीवल्लाल के बाहवमल्ल हुए। इनके समय में राजधानी राय वद्दिय या चयमा हो गई थी। चन्द्रवाह और रामहिम दोनों ही नगर यमुनातट पर बसे हुए थे। २. साघो मंहितवाग्वंशसुमणेः सज्जनतामणेः । मालास्पस्य सुतः प्रतीतमहिमा श्रीनागदेवोऽभवत् ११ यः शुल्कादिपदेषुमालबपतेः नावाति युक्तशिव । धोसल्लकण्यास्वमाश्रितवसः का प्रापयतः श्रियं २॥ श्री मत्केशवसेनार्यवर्यवाक्यादुपेयुषा । पाक्षिक श्रावको भाव तेन मालवमंडले ३ सल्लक्षणपुरे तिष्ठन् गृहस्पाचार्य कुजरः । पण्डिताशापरो भक्रया विशाप्तः सम्यगेकदा ।।४ प्रायेण राजकार्येवरुद्ध धर्माधितस्य मे। माद किंचिदनुष्ठ्यं व्रतमादिश्यतामिति ॥५ ततस्तेन समीक्षोन परमागमविस्तरं। उपविष सतामिष्ट तस्याय विभिसत्तमः ॥६
SR No.090193
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size19 MB
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