Book Title: Acharang Sutram Part 04
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Catalog link: https://jainqq.org/explore/004438/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आचारोग सूत्रम् श्री राजेन्द्र सुबोधनी "आहोरी' हिन्दी टीका PATAN 0-ALA LASH RICJoshiot “आहोरी" टीका लेखक ज्योतिषाचार्य मालवरत्न मुनिराज श्री जयप्रभ विजयजी श्रमण' सम्पादक :- पं. रमेशचन्द्र लीलाधर हरिया व्याकरण - काव्य * न्याय * साहित्यतीर्थ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PEPPERSEPERFERENPRESAR ADDA R89585858595855252585258585858525252525252525252525258525255255288528 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन पुष्प-४ ...श्री आचाराङ्गसूत्रम्... श्री शीलाङ्काचार्य विरचित वृत्ति की श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिन्दी टीका श्रुतस्कंध-२ अध्ययन-१ से 16 . चूलिका : 1,2,3,4 संपूर्ण .. भाग-४ आहोरी टीका लेखक - परम पूज्य व्याख्यान वाचस्पति जैनाचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के शिष्यरत्न ज्योतिषाचार्य, मालवरत्न शासनदीपक, ज्योतिषसम्राशिरोमणी मुनिराज श्री जयप्रभविजयजी महाराज "श्रमण" : सम्पादक: पण्डितवर्य श्री लीलाधरात्मजः रमेशचन्द्रः हरिया व्याकरण, काव्य, न्याय, साहित्याचार्य अहमदाबाद. PELLILLSPRESSPASSSSSS Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -: ग्रंथ : श्री आचाराङ्गसूत्र राजेन्द्र सुबोधनी 'आहोरी' हिन्दी टीका --: आहोरी टीका लेखक :.. ज्योतिषाचार्य मालवरत्न मुनिराज श्री जयप्रभविजयजी "श्रमण" - - - - - - - - - - - - .. -: सम्पादक :पण्डितवर्य श्री रमेशचन्द्र लीलाधर हरिया -: सहयोगी सम्पादक : मालवकेशरी मुनिराज श्री हितेशचन्द्रविजयजी "श्रेयस" मुनिराज श्री दिव्यचन्द्रविजयजी "सुमन" -: प्रकाशक एवं प्राप्तिस्थान : श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन (1) श्री भूपेन्द्रसूरि साहित्य समिति मंत्री शान्तिलाल वक्तावरमलजी मुथा, देरासर सेरी, पो. आहोर, जि. जालोर (राज.) फोन : 02978-222866 (2) राजेन्द्र प्रवचन कार्यालय पो.ओ. मोहनखेडा तीर्थ, वाया राजगढ, जि. धार, (मध्यप्रदेश) फोन : 07296-232225 .. (3) पं. रमेशचंद्र लीलाधर हरिया 3/11, वीतराग सोसायटी, पी. टी. कोलेज रोड, पालडी, अमदावाद-3000०७. फोन : 093771 53448 | मूल्य : अमूल्य पंचाचार उपासना -: मुद्रक : -: कम्प्यु टर :दीप ओफसेट मून कम्प्यु टर पाटण (उ.गु.) पाटण (उ.गु.). / फोन : 02766 - 224766 फोन : 98259 23008 - - - - - - - - - - - - - - - Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (SH नमो अरिहंताणं नमो सिद्धाणं नमो आयरियाणं नमो उवज्झायाणं नमो लोए सव्वसाहूणं 'एसो पंचनमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं' Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20000000 - તોલારામ 5 चरम तीर्थङ्कर श्री महावीर Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गोडी पार्श्वनाथ भगवान A00000 "आहोर" बावन जिनालय मन्दिरजी के मूलनायकजी Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वपूज्य प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बजी, आहार मोडी पाश्वनाथ श्री गोली श्री भूपेन्द्र सूरिजी में नविजयजाम उपा. श्री मोरे की राजेन्द्र सूरीश्वरजी। गरजी म. सा. दादा गुरु श्री राजे काबविजयजी म. श्री यतीन्द्र सूरिजीम उपा. आ गुलाब विद्याचन्द सूरिजीम श्री हर्ष विजय श्री हेमेन्द्र सूरिजी म Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिषाचार्य मालवरत्न श्री मोहनखेडातीर्थ विकास के आधार स्तम्भ मुनिराजश्री जयप्रभ विजयजी म.सा. ज्योतिषाचार्य मालव रत्न मुनिराजश्री जयप्रभविजयजी श्रमण ज्योतिषाचार्य मालव रत्न मुनिराजश्री जयप्रभविजयजी श्रमण के RSHAN SAXI RBIGFESSIGEREKAS शिष्य रत्न शिष्य रत्न मालव केशरी मुनिश्री हितेशचन्द्रविजयजी “श्रेयस' मुनिश्री दिव्यचन्द्रविजयजी "सुमन Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सौधर्म बृहत्तपा गच्छीय श्रमणी मण्डल 8030303030 एमपनि C9090909090909090908050309 000000000 हाहाहाहा झाझा झाडा EE NEELER FELETE Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आचारांग-सूत्र की श्री राजेन्द्र सुबोधनी “आहोरी" हिन्दी टीका के आलेखक व व्यवस्थापक जन्म : पोष वदि 10 दि.सं. 1993 जावरा (म.प्र) दीक्षा : 2010 माघ शुक्ला 4 सियाणाराज. देवलोक : सं. 2059 पोषवदि 14 मोहनखेडा तीर्थ राजगढ(धार) (म.प्र.) दि. 1 जन. 2003 ज्योतिषाचार्य मुनिराजश्री जयप्रभविजयजी म.सा. Folods andesh आपका आपकोही अर्पण स्व.श्री शांतिलालजी वक्तावरमलजी मुथा जन्म स्वर्गवास : 1990 कार्तिक वदि 8 दिनांक 12-10-1933 : 2062 फागणवदि दिनांक 16-2-2006 आहोर (राज.) Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना अनन्त उपकारी चरम तीर्थंकर श्रमण भगवान महावीरस्वामीजीने जब घातीकर्मो का क्षय करके केवलज्ञान की दिव्य ज्योती को प्राप्त की तब देवविरचित समवसरण में गणधरों के प्रश्नोत्तर में परमात्मा ने त्रिपदी का दान दिया... उत्पाद, व्यय एवं ध्रुव... श्री हितेशचंद्रविजयजी म. आचारांगसूत्र की रचना गणधरो ने की एवं शीलांकाचार्यजी ने संस्कृत टीका (व्याख्या) लिखी। किन्तु वर्तमानकालीन मुमुक्षु साधु-साध्वी भगवंतो को यह गहनग्रंथ दुर्गम होने से पठन पाठनादि में हुइ अल्पता को देखते हुए पूज्य गुरुदेव श्री जयप्रभविजयजी म.सा. "श्रमण" के अंतःकरण में चिंतन चला कि- यदि जिनागमों को मातृभाषा में अनुवादित किया जाए तो मुमुक्षु आत्माओ को शास्त्राज्ञा समझने में एवं पंचाचार की परिपालना में सुगमता रहेगी। अंतःकरण की भावना को साकार रूप में परिवर्तित करने के लिए वर्तमानाचार्य गच्छाधिपति श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. से बात-विचारणा वार्तालाप के द्वारा अनुमति प्राप्त करके विक्रम संवत 2058 आसो सुदी-१० (विजयादशमी) के शुभ दिन शत्रुजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थ की पावनकारी पूण्य भूमि में देवगुरु की असीम कृपा से राष्ट्रभाषा हिन्दी में सटीक आचारांगसूत्र के भावानुवाद का लेखनकार्य प्रारंभ किया। भावानुवाद का लेखनकार्य निर्विघ्नता से चलता रहा। यद्यपि पूज्य गुरुदेवश्री का स्वास्थ्य प्रतिकूल रहता था तो भी भावानुवाद का लेखनकार्य अविरत क्रमशः चलता रहा। पूज्य दादा गुरुदेव प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. कि पावन कृपासे सत्ताईश (27) महिनो में सटीक आचारांगसूत्र का भावानुवाद स्वरूप लेखनकार्य परिपूर्ण हुआ। -- पूज्य गुरुदेव श्री जयप्रभविजयजी म.सा. दृढ संकल्पी थे। जो समुचित कार्य एकबार सोच लेते वह कार्य परिपूर्ण करके हि विश्राम लेते थे। उस कार्य में चाहे कैसी भी कठिनाइयां आ जाए प्रत्येक कठिनाइयों का सहर्ष स्वागत करते थे एवं देवगुरु की कृपा से विघ्नों का उन्मूलन करके उस कार्य को पूर्ण करके हि रहते थे। सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद का लेखनकार्य जब पूर्ण हुआ तब प्रकाशन के लिए विचार विमर्ष प्रारंभ हुआ। पूज्यश्री ने गंभीरता से विचारकर अपने निकटवर्ती परम गुरु उपासक आहोर (राज.) निवासी श्री शांतिलालजी वक्तावरमलजी मुथा को पत्रव्यवहार द्वारा अपनी आंतरिक भावना अवगत कराई श्री शांतिलालजी ने भी इस आगमशास्त्र संबंधित श्रेष्ठ कार्य की अनुमोदना करते हुए Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशन हेतु आहोर नगर के श्रमणोंपासको से बातचीत कर ग्रंथ प्रकाशन के कार्य की अनुमति प्रदान करने की विनंती की। आहोर नगर के निवासीओं के आर्थिक सहयोग से यह कार्य परिपूर्ण हो सका है अतः सर्व संमति से इस भावानुवाद टीकाग्रंथ का “आहोरी" हिन्दी टीका नाम निर्धारित किया गया। ग्रंथमुद्रण का कार्य तत्काल प्रारंभ हुआ। करिबन अठारहसौ (9,800) पृष्ठ के विशालकाय आहोरी टीकायुक्त आचारांग सूत्र को तीन भाग में विभक्त करके प्रकाशित करने का निर्णय लिया गया। प्रथम श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन स्वरूप प्रथम भाग का संपादन कार्य परिपूर्ण होने पर ग्रंथ का विमोचन आहोर नगर में वि.सं. 2059 में पूज्य गुरुदेव श्री जयप्रभविजयजी म.सा. की निश्रा में कु. निर्मला के दिक्षा महोत्सव के पावन प्रसंग में किया / गया। प्रथम श्रुतस्कंध के शेष भाग को द्वितीय विभाग में संपादित करने की विचारणा चल रही थी किन्तु अचानक दिनांक 31 दिसम्बर, 2002 के दिन पूज्य गुरुदेव श्री के शरीर में अस्वस्थताने भीषण रूप ले लिया। पूज्य गुरुदेव श्री अपने आयुष्य की अंतिम क्षण तक समाधि भावमें रहते हुए नश्वर देह का परित्याग करके स्वर्गलोक पधार गए। . इस विषम परिस्थिति में ग्रंथ प्रकाशन के कार्य में थोडा विलंब हुआ किन्तु शेष कार्य को पूर्ण करने के लिए परम पूज्य उपाध्याय श्री सौभाग्य विजयजी म.सा, की पावनकारी प्रेरणा ने हमारे उत्साह की अभिवृध्धि की। ग्रंथ प्रकाशन कार्य को गतिप्रदान करने के लिए श्री शांतिलालजी मुथा का सहयोग व मार्गदर्शन प्रशंसनीय है तथा श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वेतांबर पेढी (ट्रस्ट) श्री मोहनखेडा तीर्थ का सहयोग भी अनुमोदनीय रहा एवं इस महाग्रंथ को मूर्त रूप प्रदान करने में विद्वद्वर्य आगमज्ञ पंडितवर्य श्री रमेशचंद्र लीलाधर हरिया का सहयोग अनुमोदनीय रहा। उन्ही के अथक प्रयास से यह कार्य परिपूर्ण हो पाया है। इस चतुर्थ विभाग में द्वितीय श्रुतस्कंध का संपूर्ण भाग भावानुवाद के साथ मुद्रित किया गया है..... अर्थात् आचारांग सूत्र सटीक ग्रंथकी आहोरी हिंदी टीका भागः 1-2-3-4 में संपूर्ण प्रकाशित होने जा रहा है..... कि- जो यह ग्रंथरत्न आपको पंचाचार समझने एवं आचरणमें लागे के प्रयोगमें अवश्य उपयोगी बनेगा ऐसा हमारा मानना है... इस ग्रंथ संपादन कार्य में सावधानी रखी गई है तो भी यदि कोइ क्षति रह गइ हो तब सुज्ञ वाचकवर्ग से हमारी विनम विज्ञप्ति है कि-सुधार ले एवं हमें निवेदित करें... सुज्ञेषु किं बहुना ? भीनमाल (राजस्थान) दिनांक : 20-7-2007 निवेदक मुनि हितेशचंद्रविजय Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी और से... आगमो के प्राण तीर्थंकर है। ओर शब्दों में वर्णन कर्ता गणधर भगवान होते है। श्रमण भगवान महावीर ने देशना में जो कुछ उद्घोषित किया उसे गणधर भगवन्तोंने स्मरण रखा। गणधर भगवन्तों से श्रवण कर के स्थविर भगवन्त उन आगमों की परिपाटी चलाने में योगदान देते हैं... ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. "श्रमण" गणधर कृत आगम अंग प्रविष्ट एवं स्थविर कृत आगम अनंग प्रविष्ट अर्थात् अंग बाह्य... भगवान के मुख्य शिष्य गणधर होते है एवं चतुर्दश पूर्वी या दश पूर्वधर स्थविर होते है। किन्तु गणधर कृत भाषित और स्थविर घोषित आगमों का मल आधार तो तीर्थंकर परमात्मा ही है। आगमों की वाचना पांच बार हुई है। प्रथम वाचना : श्रमण भगवान महावीर स्वामीजी के 160 वर्ष पश्चात हुई। द्वितीय वाचना : श्रमण भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण के 300 वर्ष बाद उड़ीसा प्रान्तः याने अंगदेश में तत्कालीन देश के कुमारी पर्वत पर समाट खरवेल के समय हुई। तृतीय वाचना: श्री वीर निर्वाण के 827 वर्ष पश्चात् अर्थात् ईशा की तीसरी शताब्दी में मथुरा में हुई। इसका नेतृत्व आचार्य स्कन्दिल ने किया। चतुर्थ वाचना : तृतीय वाचना के समकालिन आचार्य नागार्जुन की अध्यक्षता में हुइ है। पंचम वाचना: श्री वीर निर्वाण के 980 वर्ष बाद याने आचार्य स्कन्दिल की माथुरी वाचना और आचार्य नागार्जुन की वाचना के 150 वर्ष बाद में देवर्धिगणि क्षमा श्रमण की अध्यक्षता में पुनः वाचना हुई। इस प्रकार आगम शास्त्र के इतिहास का अध्ययन करने पर पांच बार आगम Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचनाओं का आधार मिलता है। 45 आगमों का वर्गीकरण इस प्रकार है। आगम अंग . उपांग 1- औपपातिक आचार आचार सूत्रकृत स्थान राजप्रश्नीय 3- जीवाभिगम समवाय भगवती प्रज्ञापना सूर्य प्रज्ञप्ति चंद्र प्रज्ञाप्ति ज्ञातधर्मकथा उपासक दशा जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति कल्पिका अन्तकृत दशा अनुत्तरोपपातिक दशा 10- प्रश्न व्याकरण कल्पावतंसिका 10- पुष्पिका पुष्प चुलिका 12- वृष्णि दशा विपाक दृष्टिवाद : विलुप्त : मूल . छेद दशवैकालिक निशिथ ? 2 उत्तराध्ययन महानिशिथ q बृहत्कल्प q आवश्यक पिण्ड नियुक्ति अथवा ओघ नियुक्ति व्यवहार दशाश्रुतस्कंध पंचकल्प प्रकीर्णक 1- चतुःशरण 6 चन्द्र वैध्य आतुर प्रत्याख्यान देवेन्द्र स्तव . Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्त परिज्ञा गणि विद्या संस्तारक महा प्रत्याख्यान तन्दुल वैचारिक 10- वीर स्तव चूलिका 1- नन्दीसूत्र / 2- अनुयोगद्वार सूत्र इस प्रकार जावरा में भगवती,सूत्र का स्वाध्याय करते हुए मन में विचार आया किःक्यों न इनका : ऐसे ज्ञान गर्भित सूत्रों का : राष्ट्र भाषा हिन्दी में अनुवाद किया जावे। - विचारों को पूर्ण साकार रूप देने के पूर्व गंभीर चिन्तन किया। क्योंकि- आगमों का अध्ययन सुलभ नहीं है। और योग क्रिया पूर्व वाचने का अधिकार भी नहीं है। किन्तु चिन्तन इस निर्णय पर रहा है कि अभी तपागच्छीय मुनिराज द्वारा गुजराती में 45 आगम निकाले गये है। स्थानक वासी के 32 आगम हिन्दी अंग्रेजी और सचित्र छप गये है तेरापंथी समाज के भी 32 आगम हिन्दी में छप गये है और अंग्रेजी में छप जाने से पाश्चात्य विद्वान भी उदाहरण दे रहे है तो क्यों न हिन्दी में भी अनुवाद हो ? कुछ आगम के ज्ञाता आचार्य वर्यो से विचार किया, विचारों का सार यही रहा कि- विवादित गुढ़ रहस्य ग्रन्थ को न छूकर अन्य उपयोगी ग्रन्थों का ही विचार करें। विचार भावना को कार्य रूप में परिणत करने के विचार से मुंबई में अध्यापन कार्यरत पंडितवर्य श्री रमेशभाइ हरिया से संपर्क किया, पंडितजी मेरे विचारों की अनुमोदना करते हुए सभी प्रकार से पूर्ण सहयोग देने का विश्वास दिलाया एवं संपादन कार्य करने की स्वीकृति प्रदान की। आगम की द्वादशांगी के प्रथम अंगसूत्र आचारांग सूत्र है एतदर्थ सर्व प्रथम आचारांग सूत्र की श्री शीलांकाचार्य विरचित वृत्ति का कार्य प्रारंभ किया जावे। इस आचारांग सूत्र का सर्व प्रथम महत्त्व यह है कि-दशवैकालिकसूत्र की रचना होने के पूर्वकाल में नवदीक्षित साधु एवं साध्वीजी म. को आचारांग सूत्र का प्रथम अध्ययन, सूत्रअर्थ एवं तदुभय (आचरणा) से देकर हि उपस्थापना याने बडी दीक्षा दी जाती थी... किंतु श्री शय्यंभवसूरिजी ने मनक मुनी का अल्पायु जानकर, अल्पकाल में आत्महित कैसे हो ? इस प्रश्न की विचारणा में दशवैकालिक सूत्रकी संकलना की अर्थात् रचना की, तब से नवदीक्षित मुनि एवं साध्वीजी म. को दशवै. सूत्र के चार अध्ययन सूत्र-अर्थ एवं तदुभय से देने के बाद बडी दीक्षा होती है.... Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखन कार्य श्रम पूर्ण होने पर प्रकाशन कार्य भी कम श्रम पूर्ण नहीं है। इसके लिये सर्व प्रथम गुणानुरागी श्रुतोपासक श्रेष्ठिवर्य श्री शांतिलालजी मुथाजी, कि- जो भूपेन्द्रसूरि साहित्य समिति के मंत्री है। उन्हों से पत्राचार प्रारंभ हुआ पत्राचारों से विचार उद्भव हुए कि- हिन्दी टीका में आहोर का नाम जुड जावे तो यह प्रकाशन कार्य सुलभ हो जावे। अतः श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन और राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिन्दी टीका नामकरण किया गया। आचारांग सूत्र चार भाग में प्रकाशित हो रहा है। चारों भागों का प्रकाशन व्यय आहोर के निवासी गुरू भक्त श्री शांतिलालजी मुथा के प्रयत्न से आहोर निवासी श्रुतोपासक श्रेष्ठीवर्य गुरू भक्त वहन कर रहे है। अतः आहोर के श्रुत दाता गुरुभक्त साधुवाद के पात्र है। भविष्य में इसी प्रकार ज्ञानोपासना के कार्य में अपनी लक्ष्मी का सदुपयोग करके श्रुत भक्ति का परिचय देते रहे यही मंगल कामना। बंबई निवासी डा. रमणभाई सी. शाह ने अपना अमूल्य समय निकालकर अनुवाद को आद्यंत पढकर श्रुत आराधना का लाभ लिया, एतदर्थ धन्यवाद एवं आशा करते है कि- भविष्य में भी इसी प्रकार सहयोग कर हमारी ज्ञान उपासना में अभिवृद्धि करते रहेंगे। यही मंगल कामना। शिष्यद्वय मुनि श्री हितेशचन्द्रविजय एवं मुनि श्री दिव्यचन्द्रविजयजी ने भी श्रुत भक्ति का सहयोग पूर्ण परिचय दिया यह श्रुत भक्ति शिष्यद्वय के जीवन में सदा बनी रहे यही आर्शीवाद सह शुभकामना सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय वयोवृद्ध शुद्ध साध्वाचार पालक गच्छ शिरोमणी शासन दीपिका प्रवर्तिनी मुक्तिश्रीजी की समय - समय पर श्रुतोपासना की प्रेरणा मिलती रहती है एवं प्रत्येक गच्छीय उन्नति के कार्यों में पूर्ण सहयोग रहता है यह मेरे लिये गौरव पूर्ण बात है इन्हीं प्ररेणाओं से प्रेरित होकर के श्रुतोपासना की भावना बनी रहती है एवं भविष्य में भी मेरे श्रेष्ठकायों में इनकी प्रेरणा प्राप्त होती रहे इसी विश्वास के साथ। अंत में संपादन कार्य करते हुए पंडितवर्य श्री रमेशभाइ एल.. हरिया ने प्रेस मेटर व प्रुफ संशोधन में पूर्णतः श्रम किया है एवं पाटण निवासी 'दीप' आफसेट के मालिक श्री हितेशभाई, व मुन कम्प्युटर के स्वामी श्री मनोजभाई का श्रम भी नहीं भुलाया जा सकता है। इस प्रकार आचारांगसूत्र की 'आहोरी' हिंदी टीका स्वरूप इस ग्रंथ-प्रकाशन में प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से सहयोग कर्ता सभी धन्यवाद के पात्र है। ज्योतिषाचार्य जयप्रभविजय 'श्रमण' श्रीमोहनखेडातीर्थ वि.सं. 2058 माघ शुक्ल 4 शनिवार दीक्षा के 49 वें वर्ष प्रवेश स्मृति Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादनवेलायाम्... पं. श्री लीलाधरात्मजः रमेशचन्द्रः हरिया अयि / शृण्वन्तु हंहो ! तत्रभवन्तः भवन्तः प्रेक्षावन्तः भोः भोः सज्जना ! अनादिनिधनस्थितिकेऽस्मिन् संसारसागरे नैके असुमन्तः प्राणिनः स्वस्वकृतकर्म-परवशीभूय निमज्जनोन्मज्जनं कुर्वन्तः विद्यमानाः सन्ति। सदैव सर्वेषां जीवानां एकैव आकाङ्क्षा अस्ति, यत्-सकल दुःखानां परिहारेण सर्वथा सुखीभवामः, किन्तु संसारस्थजीवानां यादृशी आकाङ्क्षा अस्ति, तदनुरूपः पुरुषार्थस्तु नास्ति... यतः साध्यानुरूपो हि पुरुषार्थः साध्यसिद्धिं प्रति समर्थीभवति। जीवानां साध्यं अस्ति निराबाधं अक्षयं अनन्तं आत्मसुखम्, किन्तु तैः तदनुरूपः पुरुषार्थस्तु न अङ्गीकृतः... निराबाधसुखस्य साधनं अस्ति सम्यक्चारित्रम्... तत् च सर्वसावधनिवृत्तिस्वरूपं पञ्चचारात्मकं चरणं, सावद्यं नाम पापाचरणम्... पापाचरणं नाम जगज्जन्तूनां त्रिविधत्रिविधपीडोद्भावनम्... अतः पापाचरणस्य परिहारः हि निराबाधसुखस्य असाधारण-हेतुः अस्ति इति अवगन्तव्यम्। परहितकरणेनैव स्वहितं स्यात्, नाऽन्यथा। परपीडा-विधानेन तु आत्मपीडैव सम्भवेत् इति वार्ता निश्चितं विज्ञेया। यः कोऽपि परेभ्यः यत् यत् कामयते, तत् तत् परेभ्यः प्रथमं दातव्यं भवति... यथा आमबीजवपनेन एव आमफलं लभ्यते, नाऽन्यथा इति तु जानीते आबालगोपालः / वर्तमानसमये ये ये जीवाः दुःखिनः सन्ति, तैः पूर्वस्मिन् काले परेभ्यः दुःखं दत्तं स्यात्, अन्यथा ते कदापि दुःखिनः न स्युः इति मन्ये / ये केऽपि प्रेक्षावन्तः सज्जनाः चेद् गम्भीरीभूय ते चिन्तयेयुः तदा जगज्जीवानां दुःखनिदानं किं अस्ति, तत् सम्यग् जानीयुः / __ यद्यपि कोऽपि जीवः कस्मैचिदपि दुःखं दातुं नेच्छति, तथापि आहारसंज्ञादिहेतुतः मिथ्यामोहान्धचित्तत्वेन कर्मपरवशीभूय जीवः तथा तथा प्रवृत्तिं करोति यथा नैके पृथ्वीकायादि जीवाः दुस्सहं कष्टं प्राप्नुवन्ति, इति एवं प्रकारेण अविरतः जीवः संसारस्थैः अनन्तैः जीवैः सह वैरानुबन्धभावं वर्धयति / फलतः सः अविरतः जीवः अपारसंसारसागरे पुनः पुनः जन्ममरणात्मकं निमज्जनोमज्जनं कुर्वन् संसारे वर्तते, इतीयं वार्ता मिथ्या न, किन्तु सत्या एव / यदि केषाञ्चित् चेतसि अत्र सन्देहः स्यात् तर्हि पृच्छन्तु ते प्रेक्षावद्भ्यः सज्जनेभ्यः, श्रूयतां च तैः दत्तं Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग् उत्तरम्। केवलज्ञानालोके विश्वविश्वं करामलकवद् अधिगच्छन्ति जिनेश्वराः / चातुर्गतिकजीवानां भवभ्रमणकारणं सनिदानं ज्ञातमस्ति परोपकारिभिः तैः सर्वज्ञैः जिनेश्वरैः तैः दृष्टं यत्विषयकषायाभिभूताः हि कर्मबहुलाः चातुर्गतिकाः जीवाः उदयागतकर्मविपाकानुसारेणैव भवभ्रमणं कुर्वन्ति / यथा कण्डरीकादयः सागरश्रेष्ठ्यादयश्च, ते हि विषयकषायानुभावतः एव भवे भ्रान्ताः भ्रमन्ति भ्रमिष्यन्ति च / तथा च ये गजसुकुमालादयः पुण्डरीकादयश्च लघुकर्माणः जीवाः, ये विषयकषायेभ्यः विरम्य आत्मगुणाभिमुखाः सजाताः, सावद्यारम्भ-परिग्रहतश्च विरताः सन्ति, ते एव निराबाधं आत्मसुखं सम्प्राप्ताः सन्ति, प्राप्नुवन्ति प्राप्स्यन्ति च, नाऽत्र सन्देहः / अतः एव अतीतकालीनाः वर्तमानकालीनाः अनागतकालीनाथ विश्वविश्वोपकारिणः विगत राग-द्वेषमोहाः जितेन्द्रियाः पश्चाचारमयाः पञ्चसमितिभिः समिताः त्रिगुप्तिभिः गुप्ताः विनष्टकर्मक्लेषाः केवलिनः सर्वज्ञाः जिनेश्वराः देवविरचित-समवसरणे द्वादशविधपर्षदि एवं भाषितवन्तः भाषन्ते भाषिष्यन्ते च, यत्-विश्वविश्वेऽस्मिन् संसारे ये केऽपि जीवाः सन्ति, ते कैश्चिदपि ममक्षभिः न हन्तव्याः न पीडनीयाः न परितापनीयाः न उपद्रवितव्याः इति. एतदभावप्रकाशकं सूत्रं (सूत्राङ्क-१3९) सकलद्वादशाङ्ग्याः सारभूतेऽस्मिन् प्रथमे आचाराङ्गाभिधे ग्रन्थे प्रथमश्रुतस्कन्धस्य चतुर्थाध्ययने गणधरैः उल्लिखितं अस्ति.... चतुर्दशपूर्वगर्भितेयं द्वादशाङ्गी अर्थतः उपदिष्टाऽस्ति जिनेश्वरैः, सूत्रतश्च व्यथिताऽस्ति गणधरैः / सर्वेऽपि जिनेश्वराः क्षायिकभावात्मक-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रमयाः सन्ति, गणधराश्च निर्मल क्षायोपशमिकभावात्मकसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रसम्पन्नाः सन्ति / तेषां समेषां दृष्टिः लक्ष्यबिन्दुः वा एकस्मिन्नेव शुद्धात्मनि अस्ति... आत्मविशुद्ध्यर्थमेव तेषां समेषां सर्वथा पुरुषार्थः अस्ति, तथा च आत्मना मनसा वचसा वपुषा वा ते सर्वेऽपि तथाविधं उद्यमं स्वयं कुर्वन्ति, अन्यैः कारयन्ति तथा च तथाविधं उद्यम कुवाणान् अन्यान् प्रशंसन्ते च, यथा आत्मविशुद्धिः भवेत् / विश्वविश्वेऽस्मिन् ये केऽपि जन्तवः सन्ति, ते सर्वेऽपि जीवात्मानः असङ्ख्य-प्रदेशिनः सन्ति, तथा चाऽत्र प्रतिप्रदेशे अनन्तज्ञानादिगुणाः सहजाः एव... सर्वेऽपि जीवाः अक्षयाः अजराः अमराः निराबाधसुखमयाश्च सन्ति, किन्तु चातुर्गतिकेऽस्मिन् संसारे ये केऽपि जीवाः परिभ्रम्यमाणाः नैकविधसातासातादिजन्यसुखदुःखाभितप्ताश्च दरीदश्यन्ते तत्र एकमेव पापाचरणं कारणमस्ति... मिथ्यात्वादिबन्धहेतुभिः सेविताष्टादशपापस्थानकाः समेऽपि संसारिणः जीवाः यद्यपि जन्म नेच्छन्ति तथाऽपि बद्धाष्टविधकर्मविपाकोदयेन जन्म लभन्ते, पीडां नेच्छन्ति तथाऽपि पीडां प्राप्नुवन्ति, वार्धक्यं नेच्छन्ति तथाऽपि वृद्धभावमनुभवन्ति... मरणं नेच्छन्ति तथाऽपि मियन्ते च / Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अतः एव परमकरुणालुभिः जगज्जन्तुजननीकल्पैः जिनेश्वरैः परमवात्सल्यभावेन सकलजीवेभ्यः निराबाधात्मसुखानुभवं प्रकटयितुं पञ्चाचारमयः मोक्षमागः प्रदर्शितः अस्ति... गुणधरैश्च अयं पथाचारः आचारागाभिधे आगमग्रन्थे उल्लिखितः अस्ति. ___3. कालादिभेदभिन्नाष्टविधज्ञानाचार : निःशङ्कितादिभेदभिन्नाष्टविधदर्शनाचारः ईर्यासमित्यादिभेदभिन्नाष्टविधचारित्राचारः अनशनादिभेदभिन्नद्वादशविधतपआचारः यथाविधित्रियोगपराक्रमभेदभिन्नवीर्याचारः ; ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तपो-वीर्याचारात्मकः अयं पञ्चाचारः सर्वेषां जीवानां आत्मविशुद्ध्यर्थं असाधारणं हेतुः अस्ति... यतः तदेव साधनं साधनं स्यात्, यत् साध्यं अवश्यमेव साधयति... अद्ययावत् ये केऽपि जीवाः मोक्षं प्राप्ताः सन्ति, ते सर्वेऽपि पञ्चाचारेणैव, नाऽन्यथा... यैः यैः पञ्चाचारः आराधितः ते सर्वेऽपि मोक्षगतिं प्राप्ताः सन्ति, तथा यैः जीवैः अयं पञ्चाचारः न आवृतः, आदृतो वा न आराधितः, ते सर्वे जीवाः चातुर्गतिकेऽस्मिन् संसारे परिभ्रमन्ति... यत्र यत्र साधनं तत्र तत्र साध्यम् इति अन्वयः / _ यत्र यत्र साध्याभावः तत्र तत्र साधनाभावः इति व्यतिरेकः / अर्थात् यत्र यत्र पञ्चाचारः तत्र तत्र मोक्षः / इति अन्वयः तथा यत्र यत्र मोक्षाभावः तत्र तत्र पञ्चाचाराभावः / इति व्यतिरेकः अतः एव सज्जनशिरोमणिभिः सुधर्मस्वाम्यादि-सूरिपुरन्दरैः पुनः पुनः निवेद्यते, यत् - 'हे भव्याः / सावधानीभूय सेव्यतामयं पञ्चाचारः, अनुभूयतां च निराबाधात्मसुखम् / आचाराङ्गाभिधमिदं आगमशास्त्रं गणधरैः अर्धमागधीप्राकृतभाषायां निबछमस्ति... चतुर्दशपूर्वधरश्रीभद्रबाहुस्वामिभिः प्राकृतभाषायां नियुक्तिः निबद्धा अस्ति... तथा वृत्तिकारश्रीमत् शीलाङ्काचार्यैः संस्कृतभाषायां वृत्ति-व्याख्या विहिता अस्ति... किन्तु वर्तमानकालीनमन्दमतिमुमुक्षुभिः इदं आचाराङ्गसूत्रम्, इयं नियुक्तिः, वृत्ति-व्याख्या च दुरधिगम्या, अतः एतादृशी परिस्थितिः सञ्जाताः यत् प्रभूततराः साधवः साध्व्यश्च विहितयोगविधयः अपि, आचाराङ्गसूत्रार्थस्य जिज्ञासवः अपि न श्रवणं लभन्ते, न च पठितुं शक्नुवन्ति, ततः यत् तत् किमपि पठनं श्रवणं च कुर्वन्तः सन्तः आर्तध्यानात्मात-चेतसध्य ते दुर्लभं नरजन्मक्षणं मुधा गमयन्ति, अतः एवम्भूतानां मन्दमतीनां मुमुक्षूणां हितकाम्यया इयं राजेन्द्र सुबोधनी “आहोरी" हिन्दी टीका-व्याख्या विहिता, अभिधान-राजेन्द्र-कोषकार-श्रीमद्-विजय राजेन्द्रसूरीश्वराणामन्तेवासि शिष्यरत्न व्याख्यानवाचस्पति विद्वद्वरेण्य श्रीमद् यतीन्द्रसूरीश्वराणां Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनेय शिष्यरत्नज्योतिषाचार्य-श्रीमद् जयप्रभविजयैः गुरुबन्धुश्री सौभाग्यविजयादीनां सत्प्रेरणया तथा च विनेय शिष्यरत्न हितेशचन्द्रविजयदिव्यचन्द्रविजयादीनां नमनिवेदनेन... ग्रन्थसम्पादनकर्म तु प्रचुरश्रमसाध्यं अस्ति, अतः आचाराङ्गाभिधस्याऽस्य ग्रन्थस्य सम्पादनकर्मणि मालवकेशरी व्याख्यानकार मुनिपुंगव श्री हितेशचन्द्रविजयजित् “श्रेयस' तथा मुनिराज श्री दिव्यचन्द्रविजयजित् "सुमन" इत्यादिभिः एभिः मुनिवर्यैः आत्मीयभावेन प्रचुरमात्रायां सहयोगः प्रदत्तः अस्ति, अतः तेषां श्रुतज्ञानभक्तिः अनुमोदनीया अस्ति... राजेन्द्र सुबोधनी “आहोरी' हिन्दी टीकाऽन्वितस्य अस्य आचाराङ्गग्रन्थस्य प्रभूततराणि पत्राणि सजातानि, अतः प्रथमश्रुतस्कन्धस्य प्रथमाध्ययनस्वरूपः प्रथम-भागः तथा द्वितीय-तृतीय-चतुर्थ-पचमाध्ययनात्मकः द्वितीय-भागः, तथैव षष्ठ-सप्तम-अष्टम - नवमाध्ययनात्मकः तृतीयः भागः प्रकाशितः अस्ति.... एवं प्रकारेण प्रथम-श्रुतस्कन्धस्य नव अध्ययनानि प्रथम-द्वितीय-तृतीयभागे मुद्रापितानि सन्ति / तथा च द्वितीयश्रुतस्कन्धात्मकः चतुर्थभागः तत्रभवतां भवतां पावनकरकमले प्रस्तुतोऽस्ति / एवं आहोरी-भाषा टीका समेतः सम्पूर्णः आचाराङ्ग-व्यन्थः अस्माभिः पुस्तकचतुष्टये सम्पादितोऽस्ति / ग्रन्थमुद्रणविधौ तु अणहिलपुर-पाटण-नगरस्थ दीप ओफ्सेट स्वामी श्री हितेशभाइ परीख एवं मून कम्प्युटर स्वामी श्री मनोजभाइ ठक्कर इत्यादि सज्जनानां सहयोगः अविस्मरणीयः अस्ति। ग्रन्थसम्पादनकमणि प्रेसमेटर एवं प्रुफ आदि संशोधनकमणि विदुषी साधनादेवी, निमेष-ऋषभ-अभयम् इत्यादि सर्वेषां असाधारणसहयोगः प्रशंसनीयः अस्ति / अन्येऽपि ये केऽपि सज्जनाः अस्मिन् ग्रन्थसम्पादनकर्मणि उपकृतवन्तः, तेभ्यः समेभ्यः समुपलब्धं सहकारं कृतज्ञभावेन स्मरामि इति... __ -: निवेदयति :लीलाधरात्मजः रमेशचन्द्रः हरिया... संस्कृत-प्राकृत व्याकरण काव्य न्याय साहित्याचार्य. मो. 099771 75074, 094273 82438 वि.सं.२०६४ आषाढ-शुक्ला (6) षष्ठी -: अध्यापक :दिनांक : 20-7-2007 गुरू राजेन्द्र विद्या शोध संस्थान मोहनखेडा तीर्थ (म.प्र.) मोहनखेड़ा तीर्थ (राजगढ़) जि. धार, मध्यप्रदेश फोन : 07296-232225 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासंगिकम् पं. श्री लीलाधरात्मजः रमेशचन्द्रः हरिया सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद लेखनकला के शिल्पी है अभिधान राजेन्द्र कोश महाग्रंथ के निर्माता भट्टारक परम पूज्य आचार्य देव श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यानवाचस्पति पू. आ. देव श्रीमद् विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. के शिष्यरत्न आगममर्मज्ञ मालवरत्न ज्योतिषाचार्य श्रीमद् जयप्रभविजयजी म. सा. "श्रमण"। इस महान ग्रंथ के निर्माण एवं संपादन कार्य में सहयोग प्राप्त हुआ है वयः संयमस्थविर श्री सौभाग्यविजयजी म. सा. प्रवचनकार श्री हितेशचंद्र विजयजी म. सा. श्री दिव्यचंद्र विजयजी म. सा. तथा प्रवर्तिनी पू. गुरुणीजी श्री मुक्तिश्रीजी म. सा. पू.साध्वीजी जयंतश्रीजी म. पू. साध्वीश्री संघवणश्रीजी म. पू. साध्वीश्री मणिप्रभाश्रीजी म. पू. साध्वीश्री तत्त्वलोचनाश्रीजी म. तथा हमारे बेन मा'राज साध्वीश्री सूर्योदयाश्रीजी म. सा. के शिष्या पू. साध्वीश्री रत्नज्योतिश्रीजी म. श्री मोक्षज्योतिश्रीजी म. श्री अक्षयज्योतिश्री म. श्री धर्मज्योतिश्रीजी म. आदि... इस ग्रंथ में (1) अर्ध मागधी-प्राकृत भाषामें मूलसूत्र... (2) मूलसूत्र की संस्कृत छाया... (3) मूलसूत्र के भावार्थ... (4) श्री शीलांकाचार्यजीकी टीका का भावानुवाद... तथा (5) सूत्रसार का संकलन कीया गया है... - इस ग्रंथ के प्रत्येक पेइज के उपर की और 1-1-1-1 ऐसा जो क्रमांक लिखा गया है, उसका तात्पर्य - 1 याने प्रथम श्रुतस्कंध... 1 याने प्रथम अध्ययन... 1 याने प्रथम उद्देशक... 1 याने पहला सूत्र... इस व्यंथ के भावानुवाद के लिये मुख्य आधार ग्रंथ मुनिराज श्री दीपरत्नसागरजी म. सा. के द्वारा प्रकाशित सटीक 45 आगम ग्रंथ का प्रथम भाग श्री आचारांग सूत्र... सटीक... इस प्रकाशनमें दीये गये सूत्र क्रमांक 1 से 552 पर्यंत संपूर्ण... यह हि क्रमांक इस प्रस्तुत प्रकाशन में लिये गये है... अतः प्रथम श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययनके द्वितीय उद्देशक आदिके सूत्र क्रमांक में हमने उद्देशकके सूत्र क्रमांक के साथ साथ सलंग सूत्र क्रमांक भी दीये है... जैसे कि- जहां 1-1-2-3 (16) लिखा गया है वहां प्रथम का 1 अंक प्रथम श्रुतस्कंध का सूचक है... द्वितीय स्थानमें 1 अंक प्रथम अध्ययन का सूचक है... Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय स्थानमें 2 अंक द्वितीय उद्देशकका सूचक है, एवं चतुर्थ स्थानमें 3 अंक द्वितीय उद्देशक के तृतीय सूत्र का सूचक है..., __ तथा (16) अंक सूत्र का अविभक्त सलंग क्रमांक है... इस प्रकार प्रथम श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन में सात उद्देशक है... सातवे उद्देशक का अंतिम सूत्र क्रमांक 62 है... किंतु सातवे उद्देशकमें वह सातवां सूत्र है अतः हमने 1-17-7 (62) लिखा है... प्रत्येक पेइज के उपर लिखे गये 1-1-2-3 (16) इत्यादि क्रमांक को देखने से यह ज्ञात होगा कि- यह टीकानुवाद या सूत्रसार कौन से श्रुतस्कंध के कौन से अध्ययन के किस उद्देशक का कौन सा सूत्र प्रस्तुत है... यह पद्धति आहोरी हिन्दी टीका ग्रंथके भाग :-1-2-3-4 सर्वत्र रखी गई है। इस आहोरी हिंदी टीका ग्रंथ का सही सही उपयोग इस प्रकार देखा गया है, किजो साधु या साध्वीजी म. सटीक आचारांग ग्रंथ पढना चाहते हैं... और उन्हें अध्ययन में कठीनाइयां आती है इस परिस्थिति में यह अनुवाद ग्रंथ उन्हें उपयुक्त सहायक बनेगा ऐसा हमारा मानना है... अतः हमारा नम्र निवेदन है कि- आप इस ग्रंथ का सहयोग लेकर सटीक आचारांग ग्रंथ का हि अध्ययन करें...' गणधर विरचित मूलसूत्र में एवं शीलांकाचार्य विरचित संस्कृत टीका में जो भाव-रहस्य है वह भावरहस्य अनुवाद में कहां ? जैसे कि- गोरस दुध में. जो रस है वह छास में कहां ? तो भी असक्त मनुष्य को मंद पाचन शक्ति की परिस्थिति में दूध की जगह छास हि उपकारक होती है क्योंकि- दोनों गोरस तो है हि... ठीक इसी प्रकार मंद मेधावाले मुमुक्षु साधुसाध्वीजीओं को यह भावानुवाद-ग्रंथ अवश्य उपकारक होगा हि... गणधर विरचित श्री आचारांग सूत्र का अध्ययन आत्म विशुद्धि के लिये हि होना चाहिये... आत्म प्रदेशों में क्षीरनीरवत् मीले हुए कर्मदल का पृथक्करण करके आत्म प्रदेशों को सुविशुद्ध करना, यह हि इस महान् ग्रंथ के अध्ययन का.सारभूत रहस्य है, अतः इस महान् ग्रंथ के प्रत्येक पद-पदार्थ को आत्मसात् करना अनिवार्य है... कथाग्रंथ की तरह एक साथ पांच दश पेइज पढने के बजाय प्रत्येक पेइज के प्रत्येक पेरायाफ (फकरे) को चबाते चबाते चर्वण पद्धति से पढना चाहिये... अर्थात् चिन्तन-मनन अनुप्रेक्षा के द्वारा आत्मप्रदेशों से संबंध बनाना चाहिये... - आत्म प्रदेशों में निहित ज्ञानादि गुण-धन का भंडार अख़ुट अनंत अमेय एवं अविनाशी है... कि- जो गुणधन कभी भी क्षीण नहि होता... और न कोइ चोर लुट शकता... और न . कभी शोक-संताप का हेतु बनता, किंतु सदैव सर्वथा आत्महितकर हि होता है... अतः ज्ञान Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन हि आत्मा का सच्चा धन-ऐश्वर्य है... श्री आचारांग सूत्र के अध्ययन से उपलब्ध हुआ पंचाचार स्वरूप गुण-धन निश्चित हि प्रज्वलित दीपक की तरह अनेक बुझे हुए दीपकों को प्रज्वलित करता है... अर्थात् अनेक भव्य जीवों में पंचाचार-गुण-धन के प्रदान के द्वारा अनंतानंत जीवों को अव्याबाध अविचल आत्मिक सुख का हेतु बनता है... इस ग्रंथ के निर्माण एवं संपादन में अतीव सावधानी रखी गई है, तो भी जहां कहिं अपूर्णता प्रतीत हो वहां क्षमाशील सज्जन साधु-संत परिपूर्णता करे यह हि हमारी नम्र प्रार्थना है.. .क्योंकि- सज्जन लोग सदा गुणग्राही होतें है एवं शुभ पुरुषार्थ के प्रशंसक होते हैं... इस ग्रंथ का मुद्रण कार्य उत्तरं गुजरात के पाटण नगरमें दीप ओफसेट के मालिक परीख हितेशभाइ ने पूर्ण सावधानी से कीया है... एवं कम्प्युटर लिपि मून कम्प्युटर के मालिक मनोजभाइ ठक्कर ने बहोत हि परिश्रम के साथ प्रस्तुत की है... अतः हम उन दोनों महानुभावों के श्रम को नहि भूल पाएंगे... इस ग्रंथ के निर्माण एवं संपादन कार्य में पाटण खेतरवसी श्री भुवनचंद्रसूरि ज्ञानमंदिर के व्यवस्थापक ट्रस्टी श्री विनोदभाइ झवेरी एवं पं. श्री रमणीकभाइ ने उपयुक्त पुस्तक प्रत इत्यादि सहर्ष प्रदान कर अपूर्व सहयोग दीया है... __ इस महान् व्यंथ के संपादन-प्रकाशन कार्य में आहोर निवासी शांतिलालजी मूथा एवं उनके सुपुत्र धरणेन्द्रभाई मुथा इत्यादि अनेक सज्जनों का सहयोग प्राप्त हुआ है, तथा प्रेस मेटर एवं प्रुफ संशोधनादि कार्यों में विदुषी साधनादेवी आर. हरिया तथा चि. पुत्र निमेष, ऋषभ एवं अभयम् का सहयोग सराहनीय है... अंत मे श्री श्रमण संघ से करबद्ध नम निवेदन है कि- इस महान व्यंथरत्न का आत्म विशुद्धि के लिये उपयोग करें एवं संपूर्ण विश्व के सकल जीव पंचाचार की सुवास को प्राप्त करें ऐसा मंगलमय आशीर्वाद प्रदान करें.... यही शुभकामना के साथ... -: निवेदक :लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया... संस्कृत-प्राकृत व्याकरण काव्य न्याय साहित्याचार्य. 3/11, वीतराग सोसायटी, पी. टी. कोलेज रोड, पालडी, अमदावाद-3८०००७ मो. : 093761 54684 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 688 39 | श्री सौधर्म बृहत्तापगच्छीय पट्टावली / शासनपति - त्रिशलानंदन श्री महावीरस्वामीजी (1) श्री सुधर्मस्वामीजी (27) श्री मानदेवसूरिजी (53) श्री लक्ष्मीसागरसूरिजी (2) श्री जम्बू स्वामीजी (28) श्री विबुधप्रभसूरिजी (54) श्री सुमतिसाधुसूरिजी (3) श्री प्रभवस्वामीजी (29) श्री जयानन्दसृरिजी (55) श्री हेमविमलसूरिजी (4) श्री शय्यंभवसूरिजी (30) श्री रविप्रभसूरिजी (56) श्री आनंदविमलसूरिजी श्री यशोभद्रसूरिजी (31) श्री यशोदेवसूरिजी (57) श्री विजयदानसूरिजी श्री संभृतिविजयजी (32) श्री प्रद्युम्नसरिजी (58) श्री विजयहीरसूरिजी श्री भद्रबाहुस्वामीजी (33) श्री मानदेवसरिजी (59) श्री विजयसेनसूरिजी श्री स्थूलभद्रसूरिजी (34) श्री विमलचन्द्रसूरिजी (60) विजयदेवसूरिजी श्री आर्य महागिरिजी (35) श्री उद्योतनसूरिजी श्री विजयसिंहसूरिजी श्री आर्यसुहस्तिसूरिजी (36) श्री सर्वदेवसूरिजी (61) श्री विजयप्रभसूरिजी ) श्री सुस्थितसूरिजी (39) श्री देवसूरिजी (62) श्री विजयरत्नसूरिजी श्री सुप्रतिबद्धसूरिजी (38) श्री सर्वदेवसरिजी (3) श्री वृद्धक्षमासूरिजी (10) श्री इन्द्रदिन्नसूरिजी (39) श्री यशोभद्रसूरिजी (64) श्री विजयदेवेन्द्रसूरिजी (11) श्री दिन्नसूरिजी श्री नेमिचन्द्रसूरिजी (65) श्री विजयकल्याणसूरिजी (12) श्री सिंहगिरिसूरिजी (40) श्री मनिचन्द्रसरिजी (66) श्री विजयप्रमोदसरिजी (13) श्री वज्रस्वामीजी (41) श्री अजितदेवसरिजी (67) श्री विजयरानेन्द्रसूरिजी म. (14) श्री वज्रसेनसूरिजी (42) श्री विजयसिंह सूरिजी (68) श्री धनचन्द्रसूरिजी (15) श्री चन्द्रसूरिजी (43) श्री सोमप्रभसूरिजी (69) श्री भूपेन्द्रसूरिजी (16) श्री समन्तभद्रसूरिजी श्री मणिरत्नसूरिजी (70) श्री यतीन्द्रसूरिजी (17) श्री वृद्धदेवसूरिजी (44) श्री जगच्चन्द्रसरिजी (71) श्री विद्याचन्द्रसरिजी (18) श्री प्रद्योतनसूरिजी (45) श्री देवेन्द्रसूरिजी (72) श्री हेमेन्द्रसूरिजी (19) श्री मानदेवसूरिजी श्री विद्यानन्द्रसूरिजी इत्यादि अनेक स्थविर आचार्यो के द्वारा जिनागम-प्रवचन की पवित्र (20) श्री मानतुंगसूरिजी (46) श्री धर्मघोषसूरिजी . परिपाटी आज हमें उपलब्ध हो रही (21) श्री वीरसूरिजी (47) श्री सोमप्रभसूरिजी है... गुरुपर्वक्र म से उपलब्ध यह (22) श्री जयदेवसूरिजी (48) श्री सोमतिलकसूरिजी सूत्र-अर्थ-तदुभयात्मक जिनागम शास्त्र श्री पावनकारी परिपाटी हि (23) श्री देवानन्दसूरिजी (49) श्री देवसुन्दरसुरिजी लवणसमुद्र तुल्य इस विषम (24) श्री विक्रमसूरिजी (50) श्री सोमसुंदरसूरिजी दुःषमकाल (पांचवे आरे) में भी. वनकाल मधुरजल की सरणी के समान होने (25) श्री नरसिंहसूरिजी (51) श्री मुनिसुन्दरसूरिजी से भव्य जीवों के आत्महित के लिये (26) श्री समुद्रसूरिजी (52) श्री रत्नशेखरसरिजी पर्याप्त है... -मुनि दिव्यचंद्रविजय... Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन (श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिन्दी टीका) श्री जिन वाणी आगम हिन्दी टीका प्रकाशन में सर्वोच्च द्रव्य सहयोगी महानुभावो की स्वर्णिम नामावली -: महास्तम्भ :1 ठाकुर श्री महिपालसिंहजी पृथ्वीसिंहजी चौपावत . ह : श्रीमती प्रफूलाकुंवर धर्मपत्नी पृथ्वीसिंहजी, आहोर . सरपंच महोदया ग्राम पंचायत, आहोर 2 स्व. श्रीमती ओटीबाई फूलचन्दजी हणवन्त गौत्रीय, आहोर - ह : सुपुत्री प्यारीबाई लालचन्दजी वागरेचा, आहोर : स्तम्भ : मुथा अमीचन्दजी की स्मृति में पुखराज जावन्तराज भंवरलाल किरणराज नेनचन्द फूटरमल रमेशकुमार गौतमचन्द बाबुलाल जयन्तीलाल कैलाशकुमार महावीरचन्द्र बेटा पोता जुहारमल भूराजी बागरेचा परिवार, आहोर... मुथा भीमराजजी बाबुलाल प्रकाशचन्द्र महेन्द्रकुमार राजेशकुमार अंकीतकुमार आशान्तकुमार बेटा पोता केसरीमलजी बागरेचा, हः श्रीमती पानीबाई बागरेचा, आहोर... स्व. श्रीमति भागवतीबाई की स्मृति में शाह पारसमल भंवरलाल जयन्तीलाल विनोदकुमार राजेन्द्रकुमार उत्तमकुमार प्रवीणकुमार महावीरकुमार बेटा पोता रिखबचन्दजी नथमलजी, आहोर... श्रीमति सुमटीबाई धर्मपत्नी घेवरचन्दजी बाफना. पुत्र विमलकुमार कीर्तिकुमार रोहितकुमार बेटा पोता मुथा घेवरचन्दजी जेठमलजी, आहोर... बाफना मुथा रमेशकुमार दीपककुमार हरेशकुमार अमनकुमार कृषांगकुमार बेटा पोता सुमेरमलजी सुखराजजी, हः श्रीमती भागवन्ती बाई, आहोर... बाफना मुथा हस्तिमल मदनराज रमेशकुमार राजेन्द्रकुमार जितेन्द्रकुमार भरतकुमार अभिषेककुमार ऋषभकुमार सुशीलकुमार बेटा पोता भबुतमल कुसलराजजी, हः श्रीमती मोहनबाई, आहोर... बाफना मुथा जयन्तीलाल गौतमकुमार हरिशकुमार राजेन्द्रकुमार आकाशकुमार अक्षयकुमार अमरकुमार जींकिकुमार बेटा पोता पुष्पराजजी वनराजजी, श्रीमती फेन्सी बाई स्मृति में, आहोर... Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाह रिखबचन्दजी ताराचन्दजी वाणिगोता, श्रीमती शान्तिदेवी वाणीगोता, आहोर... बाफना मुथा डा. चम्पालाल मदनलाल संजयकुमार आनन्दकुमार सुशीलकुमार विजयकुमार विशालकुमार गौतमकुमार बेटा पोता मिश्रीमलजी सूरजमलजी, हः / श्रीमती लीलादेवी शान्तिदेवी, आहोर... फोलामुथा हिराचन्द नथमल प्रकाशचन्द नरेशकुमार बेटा पोता भगवानजी गुलाबचन्दजी, हः मोहनीदेवी, आहोर... वजावत स्व. मुकनचन्दजी एवं घेवरचन्दजी के स्मृति में पारसमल कानराज रमेशकुमार अशोककुमार मनोजकुमार राजेन्द्रकुमार रविकुमार विजयकुमार धर्णेन्द्रकुमार यतीन्द्रकुमार, हः श्रीमती गटुबाई वजावत, आहोर... कटारिया संघवी जयन्तीलाल किशोरकुमार प्रवीणकुमार बेटा पोता भगवानजी थानमलजी, हः मोहनीबाई, आहोर... नागोरी मूलचन्दजी की स्मृति में शान्तिलाल बाबुलाल मोहनलाल अशोककुमार संजयकुमार विजयकुमार अजयकुमार मितेशकुमार मनीशकुमार जयकुमार कीर्तिकुमार अंकितकुमार अक्षयकुमार बेटा पोता सुमेरमलजी चुनिलालजी, हः हंजाबाई, आहोर... नागोरी भेरुलाल मयंककुमार भुवनकुमार बेटा पोता भंवरलालजी मिश्रीलालजी, हः पानीबाई, आहोर... दांतेवाडीया मुथा कानराज सूरजमल जयन्तीलाल भंवरलाल शान्तिलाल नेमिचन्द नरपतराज विनोदकुमार विक्रमकुमार मनोजकुमार चेतनकुमार सन्दीपकुमार श्रीपालकमार भावेशकुमार निलेशकुमार जवेरचन्द विरलकमार विजयकुमार राजेन्द्रकुमार बेटा पोता तेजराजजी हिराचन्दजी, हः श्रीमती बदामीबाई, आहोर... मातुश्री बदामबाई की स्मृति में पुत्र नेणावत भवरलाल कीर्तिकुमार किशोरकुमार विनोदकुमार बेटा पोता प्रतापचन्दजी गुलाबचन्दजी, आहोर... , कंकु चोपडा मुन्निलाल चम्पालाल जुगराज बाबुलाल भीकमचन्द जयन्तीलाल कान्तिलाल अमृतकुमार विनोदकुमार महेन्द्रकुमार नेमिचन्द रमणकुमार अशोककुमार फूटरमल बेटा पोता पुखराजजी केसरीमलजी चौपडा, आहोर... शाह शान्तिलाल मांगीलाल अशोककुमार ललितकुमार राजेन्द्रकुमार दिनेशकुमार विक्रमकुमार निखिलकुमार अंकितकुमार राहूलकुमार आशीषकुमार अक्षयकुमार यक्षकुमार आयुषकुमार बेटा पोता लक्ष्मणराजजी श्रीश्रीमाल विजलगोता, आहोर... स्व. नेणमलजी की स्मृति में सुमेरमल शेषमल रमेशकुमार किशोरकुमार मनीशकुमार संजयकुमार राजकुमार अमनकुमार बेटा पोता फूलचन्दजी कपुरचन्दजी नेणावत पोरवाल, हः सोहनीबाई, आहोर... कोठारी वस्तिमलजी की स्मृति में गुलाबचन्द शान्तिलाल अशोककुमार रमेशकुमार 16. Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुथा शान्तिलालजी वक्तावरमलजी आहोर (राजस्थान) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन (श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिन्दी टीका) मुथा जसरुपजी जितमलजी के वंशज ऐसे आप अपने जीवन में ज्ञानभक्ति साधर्मिक भक्ति एवं मुनि मण्डल व साध्वी मण्डल के सभी प्रकार की सेवा भक्ति में अग्रगण्य रहते हुए लाभ प्राप्त करते रहते थे श्री मोहनखेडातीर्थ जीर्णोद्धारकी संपूर्ण देखरेख करते हुए जिन मन्दिरके खातमुहूर्तका लाभ प्राप्त किया एवं जालोर जिल्ला जैन संमेलन 1916 में हुआ था उसमें व कलिकुंड तीर्थ से छरिपालक संघ में एवं परमपूज्य आचार्य श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म. के आचार्यपद प्रदान महोत्सव समारोह में नवकारशी का लाभ लेकर गुरुभक्तिकापरिचय दिया। KISTORIEOSHNIC TECTODARA आपके द्वारा किये गये शासन प्रभावना के कार्यसदा-सदा के लिये यादबनकर रहेंगे। :जन्म: सं. 1990 कार्तिक वदि 8 दिनांक 12-10-1933 : फर्म: सेठ शान्तिलाल एण्ड कम्पनी तनकू(आन्ध्र प्रदेश) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MES बारह व्रतधारी तपस्वी रत्ना श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन (श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिन्दी टीका) ଉତ୍ତରର आपने अपने जीवन का मुख्य लक्ष्य देव गुरु धर्मकी उपासना आराधना अर्चना का रखते हुवे जीवन को व्रत-नियम में रखने के निर्णयसे बारहव्रतधारण करके उत्कष्ट तपस्या में लगाने के उद्देश्य से 12 वर्षीतप, मासक्षमण, श्रेणीतप, सिद्धि तप तीनो उपधान महातप, 100 आयम्बिल, अट्ठाई, अहम, छड उपवास आदि विविध तपोसे आत्मभाव निर्मल करती हुई जीवन चर्या धर्माराधनामे ही व्यतीत करना लक्ष रहा है आपके तीनो पुत्र महावीर, धरणेन्द्र व यतीन्द्र पुत्री अ. सौ. विद्यादेवी व पुत्रवधुए मधुबाला, मैना,सुशीला, एवं पौर श्रेयांस, अजित, श्रेणिक, पक्षाल, अनंत, एवं पौत्री हेमलता, हीना, अनीला, प्रीती आदि धर्मराधना मे सहभागी बनी रहती है। आपका जीवन दीर्घजीवी होकर देवगुरुकीसेवाभक्तिसह तपस्या निर्विघ्नतासे होतीरहेयहीशुभाकांक्षा। श्रीमतीसुखीबाई शांतिलाल मुथा'. आहोर (राजस्थान) Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RE RSSLROCEASTHANTEERISTOTROCEASE श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन : महास्तम्भ: (श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिन्दी टीका) आपके पूर्वज श्री यशवन्तसिंहजी हुए जिन्होने सं. १९२३वैशाख सुदि - 1 के रोज परम पूज्य कलिकाल सर्वज्ञ कल्प भद्वारक श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी का श्रीपूज्य पदवीका महोत्सव करके छडी चामर भेट कर आहोर ठिकाने से श्रीपज्यपद का महत्त्व दिया, जिन्हो के आत्मज श्री लालसिंहजी हुए इनके आत्मज श्री भवानीसिंहजी हुए जिनके शासनकाल में वि. सं. 1915 फागण वद 1 गुरुवार को राजस्थान में सर्व प्रथम भव्य अंजनशलाका महोत्सव के आयोजक बाफना गोत्रीय जसरुपजी जितमलजी मुथाकीऔर से19 जिनबिंबोकी अंजनशलाका हई, एवं श्री गोडीपार्श्वनाथ केपरिसरमें बावन (52) जिनालय में जिनबिंबोकी प्रतिष्ठासानंदसंपन्न हई. आपके सुपुत्र श्री ठाकुर रावतसिंहजी हुए, जिन्होने परम पूज्य व्याख्यान आगमज्ञाता आचार्यदेव श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. को सं. 9eeg वैशाख सुदि 90 को आचार्यपद प्रदान किया गया उस मे सभी प्रकार से पूर्ण सहयोग श्री संघ आहोर को दिया / इन्हो के पुत्र श्री नरपतसिंहजी व श्री मानसिंहजी हवे श्री नरपतसिंहजी के दत्तकपत्र श्री पथ्वीसिंहजी हवे जिन का अल्प आयु में स्वर्गवास हो गया, इनके सुपुत्र श्री महिपालसिंहजी एवं श्री मानसिंहजी ने परम पूज्य आचार्य श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म. के सं. 2080 माघ सु. 9 को आचार्यपद प्रदान महोत्सव में आपके पूर्वजों के अनुरूप सम्पूर्ण सहयोग श्रीसंघ को दिया, श्रीपृथ्वीसिंहजी की धर्मपत्नी श्री श्री ठाकरपथ्वीसिंहजी नरपतसिंहजी चौपावत प्रफुल्लकुंवरजी साहिब जो वर्तमान में आहोरनगर में ग्राम पंचायत की "सरपंच"है / जिन्होको धर्म तत्त्व जानने की बहूत ही जिज्ञासा रहती है। आहोर (राजस्थान) आपके पुत्र श्री महिपालसिंहजी दीर्घ आयु होकर समाज व नगर की सेवा करते जन्म इ.सं.१९४९ हुवेआत्मोन्नतिकरयशस्वीबने यही मंगल कामना। स्वर्गवास :इ.सं.५-५-१९८१ प्रस्तुति शान्तिलाल वक्तावरमलजी मुथा श्री भूपेन्द्रसूरि साहित्य समिति आहोर (राजस्थान) Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महास्तम्भ श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन (राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिन्दी टीका) परम पूज्य कलिकाल सर्वज्ञ सौधर्म बृहत्तपागच्छ नायक अभिधान राजेन्द्रकोष लेखक भट्रारक प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज की परमोपासिका आप आहोर: राज. निवासी श्री फुलचन्दजी की धर्मपत्नी है। आपके ऊपर वैधव्य योग आने पर आपने धर्माराधना में अधिक समय व द्रव्य खर्च करने. में बिताया, आपने अपने गुरुणीजी श्रीमानश्रीजी की शिष्या सरल स्वभावी त्यागी तपस्वी श्री हेतश्रीजी महाराज व परम विदुषी गुरुणीजी प्रवर्तिनीजी श्री मुक्तिश्रीजी आदि की प्रेरणा से संघ यात्राएं एवं धर्माराधना में समय-समय पर लक्ष्मी का सद्उपयोग करती रहती है। आपने अपने पति के नाम से श्री फुलचन्द्र मेमोरियल ट्रस्ट बनाकर आहोरमें एक विशाल भूखण्ड पर श्री विद्या विहार के नाम से श्री (सहसफणा) पार्श्वनाथ भगवान का भव्य जिन मन्दिरएवंजैनाचार्य सौधर्मबहत्तपागच्छ नायक कलिकाल सर्वज्ञ अभियान राजेन्द्रकोष केलेखकस्वणगिरि, कोरटा, तालनपुर, तीर्थोदारक एवं श्री मोहनखेडातीर्थ संस्थापक भददारक प्रभश्रीमद विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजीमहाराज aarDOSTORICEKHEROTKाय की मूर्ति विराजित की। अपने धर्माराधना की प्रेरणा दात्री गुरुणीजी श्री हेतश्रीजी महाराज की दर्शनीय श्रीमती ओटीबाई फुलचंदजी मूर्ति विराजित की / आहोर से जेसलमेर संघ बसो आहोर द्वारा यात्रा करवाई, आहोर से स्वीगरि संघ निकालकर स्वर्णगिरितीर्थ: (जालोर): परपरम पूज्य आगम ज्ञाता प्रसिद्ध वक्ता मुनिराज श्री देवेन्द्रविजयजी महाराज से संघमाला विधि सहधारण की। समय-समय परसंघभक्ति करने का भी लाभ लिया। श्री मोहनखेडा तीर्थाधिराज का दितीय जिर्णोद्धार परम पूज्य शासन प्रभावक कविरत्न श्रीमविजय विद्याचन्द्रसूरिश्वरजी महाराजने सं० 2035 माघ सुदि 13 को भव्य प्रतिष्ठोत्सव किया था। उस समय श्रीसंघ की स्वामिभक्ति रूप नौकारसी की थी एवं सं0 2010 में परम पूज्य राष्ट्रसंत-शिरोमणिगच्छाधिपतिश्री हेमेन्द्रसूरीश्वरजीमहाराजने परम पूज्य आचार्य भगवन्त श्रीमदविजय विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के समाधि मन्दिरव 250 जिनेन्द्र भगवान की प्राण प्रतिष्ठोत्सव परसंघभक्ति में नौकारसी का लाभ लिया। तपस्या विशस्थानक तप की ओलीजी की आराधना श्री सिद्धितप, वर्षितप, श्रेणितप, वर्दमानतप की ओली, अढाई, विविध तपस्या करके इनके उद्यापन भी करवाये / यात्राएं- श्री सम्मैतशिखरजी, पालीतणा, गिरनार, आबू, जिरावला पार्श्वनाथ, शंखेश्वर पार्श्वनाथ, नागेश्वर, नाकोडा लक्ष्मणी तालनपुरमाण्डवगढ, मोहनखेडा, गोड़वाड़पंचतीर्थी, करेड़ापार्श्वनाथ, केसरियाजीआदितीर्थो की तीर्थयात्रा करकर्मनिर्जरा की। इस प्रकार अनेक धर्मकार्यो में अपनी लक्ष्मीकासद्उपयोग किया। महतराज ज्योतिष की पुस्तक के दितीय संस्करण में अपनी लक्ष्मी का दानकर पुण्योपार्जन किया।आपकीधर्मपत्री अ.सौ. प्यारीबाई भी उन्हीं के मार्ग पर चलकर तपस्या एवं दानवत्तिअच्छी तरहसेकरतीरहती है। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DISEXINDORE आहोर (राज.)निवासी शा.घेवरचन्दजीनगराजजीवजावत धर्मपत्नि गटुबाई सुपुत्र पारसमल, कानराज, रमेशकुमार, अशोककुमार वजावत परिवार विशेष: आपके परिवारने आ.हेमेन्द्रसूरीश्वरजीमा.सा.के पाटमहोत्सव में बडी नवकारसी का लाभ लियाथा। श्री घेवरचन्दजी नगराजजी वजावत आहोर ENTERVISIOD DATIOVEREDATE आहोर(राज.) निवासी शा. पुखराजजी केशरीमलजी कंकुचोपडा परिवार विशेष: आपकेपरिवारद्वारा श्री गोडीपार्श्वनाथ बावनजीनालय शताब्दी महोत्सव में बडी नवकारसी पालीताणा में नवाणुयात्राकाआयोजन आ.हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा.के पाटमहोत्सवमें दो नवकारसी का लाभ लिया था। श्री पुखराजजी केशरीमलजी कंकुचोपडा आहोर SANILevshopCTEVEDOORNA ATRE RELAMRAEOSRANSLDRESSISTTARACETAILY Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DOHOROARDOES SHARE आहोर निवासी मुथासुमेरमल सुखराजजी बाफना धर्मपत्नी भाग्यवंतीबेन सुपुत्र रमेश, दीपक, हरिशसुपुत्री निर्मलादेवी CUSSICOLDHREES विशेष : आपने आहोर में यात्रीभवनमें हाल गोडीजीमें दो जिनप्रतिमाके गोखलेका लाभ लिया मुथा सुमेरमल सुखराजजी बाफना आहोर निवासी शा हीराचन्दजी भगवानजी विशेष : आहोर गोडीजी के बगीचेमें प्रमोदसूरिसभाग्रह व शान्तिनाथजी के पास में धर्मशाला का निर्माण करवाया / SORODNOM ODEO शा हीराचन्दजी भगवानजी आहोर Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / आहोर (राज.) निवासी मुथा भीमराजजी केशरीमलजी वागरेचा (देबावासवाले) CLARESSASSAMEESAANEE RINDERARM विशेष : आपके परिवार की और से आहोर पाट महोत्सव में नवकारसी व जीवीत महोत्सव आदि के श्रेष्ठ कार्य का लाभ लिया / मुथा भीमराजजी केशरीमलजी वागरेचा (देबावासवाले) आहोर (राज.) निवासी शा. छगनराजजी ताराचन्दजी छाजेड पुत्र निहालचन्द, शीवराज, घेवरचन्द. सुमरलाल, मोतीलाल PashAshArAENTEYY फर्म : मे. सि. टी. ट्रेडिंग कं. शनिवार पेठ कराड- महाराष्ट्र COMADEne शा. छगनराजजी ताराचन्दजी छाजेड Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RMENDRAGNENTERVICHETAS आहोर (राज.) निवासी स्व. फतेचन्दजी छोगालालजी धर्मपत्नी हीरीबाई पुत्र पौत्र भरूलाल, नरपतराज, राकेशकुमार, मनीषकुमार, जितेन्द्रकुमार, शुभम, बेटा पौता श्री श्रीमाल परिवार फर्म : अम्बिकापेपर एजेन्सीज विजयवाडा विशेष : आपकी औरसे शान्तिनाथजी प्रतिष्ठा महोत्सव में फुलेचुन्दडी का लाभ लिया था। स्व. फतेचन्दजी छोगालालजी आहोर आहोर निवासी स्व. नागोरी भंवरलालजी मिश्रीमलजी धर्मपत्नी पानीदेवी पुत्र पौत्र भरूलाल, मयंक, भुवन नागोरी परिवार फर्म : शा मिश्रीमलजी भबुतमलजी बेंगलोर विशेष : आपके परिवार की और से। पाटोत्सवमें जय जिनेन्द्रका लाभ लिया था। श्री भंवरलालजी नागोरी आहोर Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23 . महावीरकुमार विनोदकुमार राजेन्द्रकुमार बेटा पोता छगनराजजी हः मोहनीदेवी, आहोर... बागरेचा कुन्दनमल सुरेशकुमार जगदीशकुमार बेटा पोता मिश्रीमलजी जुहारमलजी, हः फेन्सीदेवी बागरेचा, आहोर.... 22 शाह भेरुलाल नरपतराज राकेशकुमार मनीशकुमार जीतेन्द्रकुमार सुमयकुमार बेटा पोता फतेहचन्दजी छोगाजी श्रीश्रीमाल, हः हिराबाई, आहोर... . मातुश्री जडावीबाई के विविध तपाराधना के उपलक्षमें उद्यापन की स्मृति में पुत्र डा. रणजीतमल कान्तिलाल किरणराज अशोककुमार किशोरकुमार महावीरकुमार बेटा पोता छगनराजजी नगराजजी वजावत, आहोर..... शाह निहालचन्द शीवलाल घेवरचन्द झुमरलाल मोतीचन्द बेटा पोता छगनराजजी ताराचन्दजी छाजेड परिवार, आहोर... स्व. गौतमचन्द बागरेचा की स्मृति में पिता पुखराज मातुश्री शान्तिदेवी, बहिन शोभा, सुमित्रा, पत्नि त्रिशला, सुपुत्र चेन्की, सुमित, पुत्री स्वेता, बडे भाता फुटरमलजी, भाभी वसन्तीदेवी, भतिज मनीष, मितेष... भतिजी रंजना, प्रियंका, लघुभाता महावीरचन्द, धर्मपत्नी विद्यादेवी, पुत्र राहुल, पुत्री रिंजल, आहोर... : संरक्षक महोदय : 1 श्री त्रिस्तुतिक ज्ञान खाते से ह : महिला मण्डल, आहोर... 2 स्व. भबुतमलजी जावन्तराजजी की धर्मपत्नी जडावीबाई व पुत्र पौत्र सुमेरमल महेन्द्रकुमार जितेन्द्रकुमार सम्यककुमार एवं अशोककुमार जीतपाल, रौनककुमार पुत्र पौत्र हिराचन्दजी पोरवाल, आहोर... 3. मातुश्री श्रीमती धापुबाई की स्मृति में, शाह कुशलराज सन्दीपकुमार शीवलाल बेटा पोता मियाचन्दजी कातरगोता-बोहरा, आहोर... वजावत फतेचंद, रूपराज भंवरलाल विमलचंद शान्तिलाल कान्तिलाल जयंतिलाल कमलचंद्र कीर्तिकुमार, आहोर. गुरु द्रव्यसे 1 2 3 -: सुकृत सहयोगी :नागोरी प्रभुलाल भरतकुमार नरेशकुमार सुभाषकुमार बेटा पोता जेठमलजी, आहोर... मूथा शेषमल अशोककुमार कुशलराज राठौड बेटा पोता मगनाजी, आहोर... शाह पारसमल विनोदकुमार कमलेशकुमार भरतकुमार वाणिगोता बेटा पोता अचलराजजी, आहोर... मुथा पारसमल सरदारमल रमणलाल बेटा पोता मुथा चन्दनमलजी वनराजजी, आहोर... श्रीमति गुलाबीदेवी धर्मपत्नी शाह चम्पालालजी वाणिगोता, आहोर... स्व. रेखा बहिन सांकलचन्दजी डट्टा, आहोर... 4 5 6 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका सूत्र क्रमांक पत्रांक आचाराङ्गसूत्रे द्वितीय-श्रुतस्कन्धः प्रथम चूलिका प्रारंभ पिण्डैषणा श्रुत.-चूलिका-अध्य.-उद्दे. - सूत्र - सूत्रांक 2 - 1 - 1 - 1 - (1-9)-334-383 - 1 - 1 - 2 - (1-4) - 344-347 2 - 1 - 1 - 3 - (1-8) - 348-355 4 - (1-3) - 356-358 5 - (1-6) - 359-364 6 - (1-6) - 365-370 - 7 - (1-1) - 371-376 2 - 1 - 1 - 8 - (1-6) - 377-382 1 - 1 - 9 - (1-7) - 343-389 2 - 1 - 1 - 10- (1-4) -390-393 2 - 1 - 1 - 11- (1-4) -394-397 124 141 153 167 प्रथम-चूलिकायां अध्ययन-२ प्रारंभ शय्यैषणा श्रुत.-चूलिका-अध्य.-उद्दे. - सूत्र - सूत्रांक 2 - 1 - 2 - 1- (1-8) -398-405 2 - 1 - 2 - 2- (1-15)-406-420 2 - 1 - 2 - 3- (1-24)-421-444 167 188 . 212 248 प्रथम-चूलिकायां अध्ययन-3 प्रारंभ इर्या श्रुत.-चूलिका-अध्य.-उद्दे. - सूत्र - सूत्रांक 2 - 1 - 3 - 1- (1-9)-445-453 2 - 1 - 3 - 2- (1-7)-454-460 2 - 1 -3 - 3- (1-5)-461-465 248 272 289 304 प्रथम-चूलिकायां अध्ययन-४ प्रारंभ भाषा-जातम् श्रुत.-चूलिका-अध्य.-उद्दे. - सूत्र - सूत्रांक 2 - 1 - 4 - 1- (1-4)-466-469 2 - 1 - 4 - 2- (1-5)-470-474 304 322 330 प्रथम-चूलिकायां अध्ययन-५ प्रारंभ वखैषणा श्रुत.-चूलिका-अध्य.-उद्दे. - सूत्र - सूत्रांक 2 - 1 - 5 - 1- (1-8)-475-482 2 - 1 - 5 - 2- (1-3)-483-485 337 359 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 368 प्रथम-चूलिकायां अध्ययन-६ प्रारंभ पाऔषणा श्रुत.-चूलिका-अध्य.-उद्दे. - सूत्र - सूत्रांक 2 - 1 -6 - 1- (1) -486 2 - 1 - 6 - 2- (1-2)-487-488 368 376 382 प्रथम-चूलिकायां अध्ययन-७ प्रारंभ अवग्रह-प्रतिमा श्रुत.-चूलिका-अध्य.-उद्दे. - सूत्र - सूत्रांक 2 - 1 - 7 - 1- (1-4)-489-492 2 - 1 - 7 - 2- (1-4)-493-496 382 394 द्वितीय-चूलिका प्रारंभ सप्त सप्तकका श्रुत.-चूलिका-अध्य. -सूत्र - सूत्रांक 2 - 2 - 1 - (1) - 497 स्थानम् 407 2 - 2 - 2 - (1) - 498 निषीधिका 413 2 - 2 - 3 - (1-3)- 499-501 उच्चारप्रस्रवण 418 2 - 2. - 4 - (1-3)- 502-504 शब्द .432 5 - (1) - 505 443. 2 - 2 -6 - (1-2)- 506-507 परक्रिया 447 2 - 2 - 7 - (9) - 508 अन्योऽन्यक्रिया 458 भावना .. तृतीय-चूलिका प्रारंभ श्रुत.-चूलिका--सूत्र - सूत्रांक 2 - 3 - (1-32)- 509-540 भावना 461 चतुर्थ-चूलिका प्रारंभ विमुक्ति श्रुत.-चूलिका--सूत्र - सूत्रांक 2 - 4 - (1-12) - 541-552 विमुक्ति 536 उपसंहार 553 प्रशस्ति 555 नियुक्ति 558 45 आगम के सूत्र एवं टीका ग्रंथों के श्लोक प्रमाण . 566 मुना णमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स नया नमः श्री जिनप्रवचनाय मा सरस्वत्यै नमः स्वाहा Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त विषयानुक्रम आचारांगसूत्रे द्वितीयः श्रुतस्कन्धः चूलिका-१ विषयः पत्रांक: प्रथम अध्ययन उद्देशक-१-११ / / पिण्डैषणा 1-166 द्वितीय अध्ययन उद्देशक-१-3 शय्यैषणा 167-247 तृतीय अध्ययन उद्देशक-१-3.. ईर्या 248-303 चतुर्थ अध्ययन उद्देशक-१-२ भाषाजातम् 304-338 पंचम अध्ययन उद्देशक-१-२ वौषणा 337-367 षष्ठ अध्ययन उद्देशक-१-२ पात्रैषणा 368-381 सप्तम अध्ययन उद्देशक-१-२ अवग्रह-प्रतिमा 382-406 विषय स्थानम् निषीधिका चूलिका-२ .प्रथम अध्ययन द्वितीय अध्ययन तृतीय अध्ययन चतुर्थ अध्ययन पंचम अध्ययन उच्चार-प्रस्रवण पत्रांक . 407-412 413-417 418-431 432-442 443-446 447-457 458-460 शब्द षष्ठ अध्ययन सप्तम अध्ययन परक्रिया अन्योऽन्यक्रिया चूलिका-3 भावना 461-535 चूलिका-४ विमुक्ति / 436-552 उपसंहार-प्रशस्ति 553-557 नियुक्ति 558-565 45 आगम सूत्र-टीका-नियुक्ति-भाष्य-चूर्णि ग्रंथाग्र 566-568 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // भारत-वर्ष के हृदयस्थल स्वरूप मालवभूमि - मध्यप्रदेश में शत्रुञ्जयावतार मोहनखेडा तीर्थाधिपति श्री आदिनाथस्वामिने नमो नमः // // परमपूज्य, विश्ववन्द्य, अभिधानराजेन्द्रकोष-निर्माता, भट्टारक, सरस्वतीपुत्र, कलिकालसर्वज्ञकल्प, स्वर्णगिरी-कोरटा-तालनपुरादितीर्थोद्धारक, क्रियोद्धारक, प्रभुश्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वर पट्टप्रभावक आचार्यश्रीमद् विजयधनचन्द्रसूरीश्वर पट्टभूषण आचार्य श्रीमद् विजयभूपेन्द्रसूरीश्वर पट्टदिवाकर आचार्य श्रीमद् विजययतीन्द्रसूरीश्वर पट्टालङ्कार आचार्य श्रीमद् विजयविद्याचन्द्रसूरीश्वरादि सद्गुरु चरणेभ्यो नमो नमः // है नमः श्री जिन प्रवचनाय // न श्री आचाराङ्ग-सूत्रम् द्वितीय श्रुतस्कन्धात्मकः चतुर्थ विभाग: तत्र विभाग: श्री शीलाङ्काचार्यविरचितवृत्ति की चतुर्थ: राष्ट्रभाषा "हिंदी" में राजेन्द्र सुबोधनी “आहोरी' हिंदी टीका... “मूल-सूत्र // संस्कृत-छाया // सूत्रार्थ // टीका-अनुवाद // सूत्रसार..." तत्र द्वितीय-श्रुतस्कन्धे प्रथम चूलिका “उपोद्घात" मङ्गलाचरणम् श्रीमद् ऋषभदेवादि - वर्धमानान्तिमान् जिनान् / नमस्कृत्य नमस्कुर्वे सुधर्मादि - गणधरान् // 1 // Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन // 2 // // 3 // श्रीमद् विजय राजेन्द्र-सूरीश्वरान् नमाम्यहम् ये अभिधानराजेन्द्र - कोषः व्यरचि हर्षतः भवाब्धितारकान् वन्दे श्रीयतीन्द्रसूरीश्वरान् तथा च कविगुणाढ्यान् विद्याचन्द्रसूरीश्वरान् गच्छाधिनायकान् नौमि श्रीहेमेन्द्रसूरीश्वरान् येषां शुभाशिषा कार्य सुगमं सुन्दरं भवेत् गुरुबन्धु श्री सौभाग्य-विजयादि-सुयोगतः हितेश-दिव्यचन्द्राणां शिष्याणां सहयोगतः जयप्रभाऽभिधः सोऽहं श्रीराजेन्द्रसुबोधनीम् आहोरीत्यभिधां कुर्वे टीकां बालावबोधिनीम् टीका-मंगलाचरणम् // 6 // युग्मम् जयत्यनादिपर्यन्तमनेकगुणरत्नभृत् . न्यक्कृताशेषतीर्थेशं तीर्थं तीर्थाधिपैर्नुतम् / / 9 / / अनादि-अनंत स्थितिवाला, अनेक गुण-रत्नों से भरा हुआ, सकल कुमतवादीओं का निराकरण करनेवाला एवं तीर्थंकरों ने भी जिस को प्रणाम कीयां है ऐसा यह तीर्थ याने जिनमत चिरकाल जयवंत रहो !!! नमः श्री वर्धमानाय सदाचारविधायिने / . प्रणताशेषगीर्वाण चूडारत्नार्चितांहये // 2 // नमस्कार कर रहे सकल देव-देवेंद्रों के चूडामणि से पूजित चरणवाले एवं सदाचार का आचरण करनेवाले श्री वर्धमान स्वामीजी को मेरा नमस्कार हो ! आचारमेरोगदितस्य लेशतः, प्रवच्मि तच्छेषिकचूलिकागतम् / आरिप्सितेऽर्थे गुणवान् कृती सदा, जायेत निःशेषमशेषितक्रियः // 3 // चौदपूर्वधर नियुक्तिकार श्री भद्रबाहुस्वामीजी कहतें हैं कि- श्री महावीर स्वामीजी ने मेरू समान पंचाचार-सम्यक् चारित्र का उपदेश दिया है किंतु मैं तो अभी अपनी अल्पसन्मति के द्वारा उस मेरू की चूलिका के समान प्रमाण से अतिशय अल्प ही आचार को कहता हूं... क्योंकि- थोडा भी गुणवाला मुमुक्षु साधु क्रमशः संपूर्ण गुणवान् होता है कृतकृत्य होता है, क्योंकि- यह संयमानुष्ठान का अल्प आचरण भी द्वितीया के चंद्रवत् क्रमशः पूर्णता को प्राप्त करता है... Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका टीका-अनुवाद : नव अध्ययन स्वरूप ब्रह्मचर्य नाम का पहला श्रुतस्कंध कहा, अब दूसरे श्रुकस्कंध का प्रारंभ करतें हैं... इसका परस्पर संबंध इस प्रकार है कि- प्रथम श्रुतस्कंध में आचार का परिमाण कहते समय कहा था कि- अट्ठारह हजार पद परिमाण नव ब्रह्मचर्य अध्ययन : यह आचारांग सूत्र है... तथा इस आचारांग सूत्र की पांच चूलिका भी है, जो पद संख्या-परिमाण की दृष्टि से बहु बहुतर है... पहले श्रुतस्कंध में नव ब्रह्मचर्याध्ययन कहे है, किंतु उनमें कहने योग्य समस्त अर्थ हम नही कह पायें है, और जो कहा है वह भी संक्षेप से कहा है, अतः जो अर्थ नही कहा है उसको कहने के लिये, एवं जो संक्षेप से कहा है, उसको विस्तार से कहने के लिये प्रथम श्रुतस्कंध से आगे जो चार चूलिकाएं हैं वे उक्त और अनुक्त अर्थ को कहने के लिये यहां अब चूलिकाएं कहतें हैं... चार चूलिका स्वरूप ही यह द्वितीय श्रुतस्कंध है... इस प्रकार के संबंध से आये हुए इस दुसरे श्रुतस्कंध की व्याख्या का प्रारंभ मैं (शीलांकाचार्यजी) करता हूं... यहां अव्य-पद के नाम एवं स्थापना निक्षेप सुगम होने से अग्रपद का द्रव्य निक्षेप कहतें हैं... द्रव्य अय के दो प्रकार हैं आगम से एवं नोआगम से __ तद्व्यतिरिक्त के तीन प्रकार हैं 1. सचित्त, 2. अचित्त एवं 3. मिश्रद्रव्य का वृक्षकंत (भाला) आदि का जो अग्र भाग है वह द्रव्य निक्षेप है... तथा अवग्राहना-अग्र-जिस द्रव्य का नीचे की ओर जो अवगाहन वह अवगाहनाय... जैसे कि- मनुष्य क्षेत्र (अढी द्वीप) में मेरू पर्वत के सिवा जो अन्य पर्वत हैं वे सभी अपनी ऊंचाई के चौथा भाग भूमि में अवगाहन करके रहे हुए है... जब कि- मंदर मेरू पर्वत तो एक हजार योजन अवगाहन करके रहा हुआ है... तथा आदेश-अय-आदेश याने व्यापार-कार्य में जोडना... यहां अन्य शब्द परिमाण वाचक है... इसलिये जहां परिमाण का आदेश दिया जाय वह आदेशाय... जैसे कि तीन पुरुषों के द्वारा कर्म-कार्य करवानेवाला, अथवा तीन पुरुषों को भोजन करवानेवाला... तथा काल-अय- अधिक मास... अथवा अय-शब्द परिमाण-वाचक है... वहां . जरा काल... अतीतकाल... अनादि काल अनागतकाल... अनन्त अद्धा-काल... अथवा सभी अद्धा-काल... क्रम-अग्र.... क्रम से = परिपाटी से जो आगे है वह क्रमाय... यह क्रमाय द्रव्यादि चार प्रकार से है, उनमें द्रव्याय- एक परमाणु से द्वयणुक... द्वयणुक से त्रिपरमाणु इत्यादि... गणनाय- संख्या-धर्मस्थान से अन्य संख्या धर्मस्थान दश Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन गुण है... वह इस प्रकार- एक, दश, शत (सौ) हजार (सहस्र) इत्यादि... संचयाय-संचित (एकत्रित) द्रव्य के उपर जो है वह संचयाय... जैसे कि- संचित तामोपस्कर से उपर शंख... भावाय... तीन प्रकार से हैं...१. प्रधानाय 2. प्रभूताय... 3. उपकाराय... इन तीनों में जो प्रधानाय है वह सचित्तादि भेद से तीन प्रकार से है... सचित्त प्रधानाय भी द्विपदादि भेद से तीन प्रकार के हैं, उनमें द्विपद-तीर्थंकर चतुष्पद-सिंह अपद-कल्पवृक्ष अचित प्रधानाय-वैडूर्य रत्न आदि. मिश्र प्रधानाय- अलंकृत तीर्थंकर प्रभूताय- अपेक्षा से संभवित है... जैसे कि जीव सभी से थोडे पुद्गल जीव से अनंतगुण अधिकसमय पुद्गल से अनंत गुण द्रव्य / विशेषाधिक प्रदेश अनंतगुण पर्याय अनंतगुण यहां उत्तरोत्तर अव्य है किंतु पर्यायान सभी से अग्र है... उपकाराय - पूर्व जो संक्षेपसे कहा था उसको विस्तार से कहना और जो नही कहा गया था उसको कहना वह उपकारान... जैसे कि- दशवैकालिकसूत्र की चूलिका-द्वय... अथवा तो आचारांगसूत्र का यह दुसरा श्रुतस्कंध उपकाराव्य है... यहां उपकाराय का अधिकार है... यह बात नियुक्तिकार स्वयं ही कहतें हैं किउपकाराय यहां प्रस्तुत है, क्योंकि- यह अग्र नाम का द्वितीय श्रुतस्कंध आचारांगसूत्र के उपर ही विराजमान है... और आचारांगसूत्र में कहे गये आचार को ही विशेष प्रकार से कहने स्वरूप, यह अय-श्रुतस्कंध आचारांग सूत्र से ही संबद्ध है... जैसे कि-वृक्ष एवं पर्वत का अव्य भाग... उपकाराय के सिवा शेष अग्र का स्वरूप तो यहां "शिष्य की मति विकसित हो" इस दृष्टि से और उपकाराय को सुगमता से समझने के लिये कहे गये हैं... कहा भी है किकथनीय पदार्थ के समान जो कुछ होता है वह विधि से यदि कहा जाय तब ही अधिकृत पदार्थ का ज्ञान सुगम होता है... Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका अब यहां जो कथनीय है वह उपकाराय स्वरूप अग्र नाम के द्वितीय श्रुतस्कंध के रचनाकार कौन है ? रचना क्यों की ? और इस रचना का मूल-आधार क्या है ? नि. 290 स्थविर याने श्रुतवृद्ध चौदह पूर्वधरों ने रचना की है, तथा शिष्य के हित के लिये उपकार दृष्टि से रचना की गई है, और अस्पष्ट (अप्रगट) अर्थ को स्पष्ट करने के लिये इस अय नामक श्रुतस्कंध की रचना की गई है, और आचारांग सूत्र से ही समस्त अर्थ लेकर आचारांग के अय-श्रुतस्कंध में विस्तार से कहा है... अब जो अर्थ जिससे कहा है वह बात विस्तार से नियुक्ति की गाथाओं से ही नियुक्तिकार स्वयं कहतें हैं। नि.२९१, 292, 293, 294 प्रथम ब्रह्मचर्य श्रुतस्कंध के लोकविजय नामके दुसरे अध्ययन के पांचवे उद्देशक से एवं आठवे विमोक्षाध्ययन के दुसरे उद्देशक से ग्यारह (11) पिडैषणा) कही है, तथा इसी दुसरे अध्ययन के पांचवे उद्देशक से वस्त्रैषणा(२), पात्रेषणा(3), अवग्रहप्रतिमा 4) शय्या(५) तथा पांचवे अध्ययन के चौथे उद्देशकसे ईयEि), तथा छटे अध्ययन के पांचवे उद्देशक से भाषा७), तथा महापरिज्ञा नाम के नवें अध्ययन के सात उद्देशको में से एक एक ऐसी सात सप्तैकक की रचना की गई है, तथा शस्त्रपरिज्ञा नाम के पहले अध्ययन से भावना नाम की चूलिका और धूत नाम के छठे अध्ययन के दुसरे एवं चौथे उद्देशक में से विमुक्ति नाम के अध्ययन की रचना की गइ है, तथा आचार-प्रकल्प स्वरूप “निशीथ" अध्ययन की रचना प्रत्याख्यान पूर्व की तीसरी वस्तु के “आचार'' नाम के बींसवे प्राभृत से की गई है... इस प्रकार ब्रह्मचर्य नाम के प्रथम श्रुतस्कंध में से ही अन्य नाम के द्वितीय श्रुतस्कंध की रचना हुई है, और नियूहन अधिकार से ही उन अध्ययनों का भी शस्त्रपरिज्ञा नाम के प्रथम अध्ययन से ही नियूँढ हुआ है, यह बात 'अब कहतें हैं... नि. 295 शस्त्र-परिज्ञा अध्ययन में “प्राणियों को पीडा देना" स्वरूप दंड का निक्षेप याने त्याग अर्थात् संयम की बात अस्पष्ट ही कही थी, अतः उस संयम की बात विभाग करके शेष आठ अध्ययन में कही है, अर्थात् संक्षेप से कही गई संयम की बात अब विस्तार से कहतें हैं। नि.२९६, 297 अविरति से विरमण स्वरूप संयम एक प्रकार से ही है, और वह संयम आध्यात्मिक Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन एवं बाह्य भेद से दो प्रकार का है, तथा मन, वचन एवं काया के योग के भेद से वह संयम तीन प्रकार से है, तथा चार याम (महाव्रत) के भेद से वह संयम चार प्रकार से है, तथा पांच महाव्रत के भेद से संयम पांच प्रकार से कहा है, एवं रात्रिभोजन विरमण के साथ पूर्वोक्त पांच महाव्रत स्वरूप वह संयम छह (6) प्रकार से है, इत्यादि प्रक्रिया के द्वारा भेद-प्रभेद करते-करते अट्ठारह हजार शीलांग स्वरूप वह संयम अट्ठारह हजार भेद से कहा गया है। तो फिर आगम ग्रंथो में जहां कहीं पांच महाव्रत स्वरूप ही संयम क्यों कहा गया है ? इस प्रश्न का उत्तर नियुक्तिकार नियुक्तिकी गाथा से कहतें हैं... नि. 298 पांच महाव्रत स्वरूप कहा गया संयम का स्वरूप कथन करने में, विभाग करने में एवं समझने में सुगम होता है अतः पांच महाव्रत स्वरूप संयम शास्त्र में दिखाया गया है। यह पांच महाव्रत स्वरूप संयम अखंडित होने पर ही सफल होता है अतः पांच महाव्रत स्वरूप संयम की रक्षा करने के लिये नियुक्तिकार नियुक्ति-गाथा कहतें हैं। नि. 299 पांच महाव्रतों की रक्षा के लिये एक एक महाव्रत की पांच पांच भावनाएं होती है, और वे पच्चीस भावनाएं इस अन्य नाम के दुसरे श्रुतस्कंध में कही जाएगी, इसलिये यह द्वितीय श्रुतस्कंध शस्त्रपरिज्ञा नाम के पहले अध्ययन के अंतर्गत ही जानना चाहिए! अब चूडा याने चूलिकाओं का अपना अपना परिमाण कहतें हैं / नि.300 पिंडैषणा अध्ययन से लेकर अवग्रहप्रतिमा पर्यंत के सात अध्ययनों की यह पहली चूलिका है, तथा सात सप्लैक का नाम की दुसरी चूलिका है तथा भावना नाम की तीसरी चूलिका है और विमुक्ति नाम की चौथी चूलिका है, तथा आचारप्रकल्प स्वरूप निशीथ अध्ययन पांचवी चूलिका है। अब “चूडा' के नामादि छह (E) निक्षेप कहते हैं उन में नाम एवं स्थापना निक्षेप सुगम हैं... द्रव्य चूडा तद्व्यतिरिक्ता के तीन प्रकार हैं 1. सचित्त द्रव्य चूडा - कुकडे (मुर्गे) को होती है... 2. अचित्त द्रव्य चूडा - मुकुट के चूडामणि है, 3. मिश्र द्रव्य चूडा - मोर को होती है... क्षेत्र चूडा - लोक के निष्कुट स्वरूप है Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका - - काल चूडा - अधिक मास... भाव चूडा - क्षायोपशमिक भाव स्वरूप यह चूलिका ही भावचूडा है... इस सात अध्ययन स्वरूप प्रथम चूलिका के प्रथम अध्ययन में पिंडैषणा कही जाएगी, उसके चार अनुयोग द्वार होतें हैं वह पूर्ववत् किंतु नाम-निष्पन्न निक्षेप में पिंडैषणा अध्ययन नाम है, उसके निक्षेप-द्वार से संपूर्ण पिंडनियुक्ति का यहां कथन किया जाएगा... Pance Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2-1-1-1-1 (334) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 1 अध्ययन - 1 उद्देशक - 1 म पिण्डैषणा // अब सूत्रानुगम में अस्खलितादि गुणो से युक्त सूत्र का उच्चार करना चाहिये... अतः प्रथम चूलिका के प्रथम अध्ययन के प्रथम उद्देशक का यह प्रथम सूत्र है... I सूत्र // 1 // // 335 / / से भिक्खु वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविढे समाणे से जं पुण जाणिज्जा- असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पाणेहिं वा पणगेहिं वा बीएहिं. वा हरिएहिं वा संसत्तं उम्मिस्सं सीओदएण वा गोसित्तं रयसा वा परिघासियं वा तहप्पगारं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परहत्थंसि वा परपायंसि वा अफासुअं अणेसणिजं ति मन्नमाणे लाभेऽवि संते नो पडिगाहिज्जा / से य आहच्च पडिग्गहे सिया से तं आयाय एगंतमवक्कमिज्जा, एगंतमवक्कमित्ता अहे आरामंसि वा अहे उवस्सयंसि वा अप्पंडे अप्पमाणे अप्पबीए अप्पहरिए अप्पोसे अप्पुदाए अप्पुत्तिंग-पणग-दृग-मट्टिय-मक्कडा-संताणए विगिंचिय विगिंचिय उम्मीसं विसोहिय विसोहिय तओ संजयामेव भुंजिज्जा वा पीइज्ज वा जं च नो संचाज्जा भुत्तए वा पायए वा से तमायाय एगंतमवक्कमिज्जा अहे झामथंडिलंसि वा अहिरासिंसि वा कट्ठरासिंसि वा तुसरासिंसि वा गोमयरासिंसि वा अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि पडिलेहिय पडिलेहिय पमजिय पमजिय तओ संजयामेव परिहविजा // 335 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा भिक्षुणी वा गृहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया अनुप्रविष्टः सन् स:यत् पुन: जानीयात् अशनं वा पानं वा खादिमं वा स्वादिम वा प्राणिभिः वा पनकै: वा, बीजै:वा हरितैः वा संसक्तं उन्मिश्रं शीतोदकेन वा अवसिक्तं रजसा वा परिगुण्डितं वा तथाप्रकार अशनं वा पानं वा खादिम वा स्वादिम वा परहस्ते वा परपात्रे वा अप्रासुकं अनेषणीयं इति मन्यमानः लाभे अपि सति न प्रतिगृह्णीयात् / तत् च सहसा प्रतिगृह्णीयात्, सः तत् आदाय एकान्तं अपक्रामेत्, एकान्तमपक्रम्य अथ आरामे वा अथ उपाश्रये वा अल्पाण्डे अल्पप्राणे अल्पबीजे अल्पहरिते अल्पावश्याये अल्पोदके अल्पोत्तिङ्ग-पनक-दक-मृत्तिका- मर्कटसन्तानके विविच्य विविच्य उन्मिश्रं विशोघ्य विशोघ्य तत: संयतः एव भुञ्जीत वा पीबेद् वा, यत् च न शक्नुयात् भोक्तुं वा Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-1-1 (335) 9 पातुं वा सः तमादाय एकान्तमपक्रम्य दग्धस्थण्डिले वा अस्थिराशौ वा काष्ठराशौ वा तुषराशौ वा गोमयराशौ वा, अन्यतरे वा तथा प्रकारे स्थण्डिले प्रत्युपेक्ष्य प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्य प्रमृज्य ततः संयतः एव परिष्ठापयेत् // 335 // III सूत्रार्थ : . आहार के लिए गृहस्थ के घर में प्रविष्ट हुआ साधु या साध्वी इन पदार्थों का अवलोकन करके यह जाने कि- यह अन्न, पानी, खादिम और स्वादिम पदार्थ, द्वीन्द्रियादि प्राणियों से, शाली चावल आदि के बीजों से और अंकुरादि हरी सब्जी से संयुक्त है या मिश्रित है या सचित्त जल से गीला है तथा सचित मिट्टी से अवगुंठित है या नहीं ? यदि इस प्रकार का आहारपानी, खादिम, स्वादिम आदि पदार्थ गृहस्थ के घर में या गृहस्थ के पात्र में हों तो साधु उसे अप्रासुक-सचित्त तथा अनेषणीय-सदोष मानकर ग्रहण न करे, यदि भूल से उस आहार को ग्रहण कर लिया है तो वह भिक्षु उस आहार को लेकर एकान्त स्थान में चला जाए और एकान्त स्थान में या आराम-उद्यान या उपाश्रय में जहां पर गीन्द्रिय आदि जीव नहीं हैं, गोधूमादि बीज नहीं हैं और अंकुरादि हरियाली नहीं है,, एवं ओस और जल नहीं है अर्थात् तृणों के अग्रभाग पर जल नहीं है ओस बिन्दु नहीं हैं, द्वीन्द्रियादि जीव जन्तु एवं उनके अण्डे आदि नहीं हैं. तथा मकडी के जाले एवं दीमकों (जंत-विशेष) के घर आदि नहीं हैं. ऐसे स्थान पर पहंच कर, सदा यतना करने वाला साधु उस आहार में से सचित्त पदार्थों को अलग करके उस आहार एवं पानी का उपभोग कर ले, यदि वह उसे खाने या पीने में असमर्थ है तो साधु उस आहार को लेकर एकांत स्थान पर चला जाए और वहां जाकर दग्धस्थंडिल भूमि पर, अस्थियों के देर पर, लोह के कूड़े पर, तुष के ढेर पर और गोबर के ढेर पर या इसी प्रकार के अन्य 'प्रासुक एवं निर्दोष स्थान पर जाकर उस स्थान को आंखों से अवलोकन करके और रजोहरण से प्रमार्जित करके उस आहार को उस स्थान पर परठ त्याग दे। IV टीका-अनुवाद : मूल एवं उत्तर गुणवाले तथा विविध प्रकार के अभिग्रहों को धारण करनेवाले भिक्षा के द्वारा देह का निर्वाह करनेवाले भिक्षु याने साधु या साध्वी क्षुधा वेदनादि छह कारणों से आहार ग्रहण करतें हैं। 1. वेदना (पीडा-भूख का दुःख) के कारण से. . वैयावृत्त्य ग्लान-बाल-वृद्धादि की सेवा के लिये. ईर्यासमिति ईर्यासमिति के पालन के लिये. संयम संयमाचरण के परिपालन के लिये Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 2-1-1-1-1 (334) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन 5. प्राणवृत्ति = दश द्रव्य प्राणों की सुरक्षा के लिये 6. धर्मचिंता - - धर्मध्यान-शुक्ल ध्यान के लिये इन छह में से कोई भी कारण से आहार की इच्छावाला साधु गुहस्थों के घर में भिक्षा के लिये प्रवेश करता है, तब वहां आहार, पानी, खादिम और स्वादिम यदि रसज-जंतुओं से युक्त हो, पनक याने लील-फुल्ल से युक्त हो, बीज (गेहुं-जवार) आदि से युक्त हो तथा हरित याने दुर्वा अंकुर आदि से युक्त (मिश्रित) हो अथवा शीत जल से आर्द्र हो, अथवा सचित्त रजःकरण से युक्त हो, तब ऐसे अशुद्ध अशन आदि दाता के हाथ में हो या उनके पात्र याने बरतन में हो, उनको अप्रासक याने सचित्त और आधाकर्मादि दोष के कारण से अनेषणीय माननेवाला वह साधु या साध्वीजी आहारादि की प्राप्ति होने पर भी उन आहारादि को ग्रहण न करें, यह बात उत्सर्ग-विधि से कही, अब अपवाद-विधि से कहतें हैं कि- द्रव्य-क्षेत्र, काल, एवं भावादि को जानकर उन आहारादि को ग्रहण भी करें, वहां द्रव्य याने-वह आहारादि वस्तु दुर्लभ हो... क्षेत्र याने- साधारण द्रव्य की प्राप्ति भी न हो, एवं काल-भावादि को जानकर उन आहारादि को ग्रहण भी करें... वहां द्रव्य याने-वह आहारादि वस्तु दुर्लभ हो, क्षेत्र यानेसाधारण द्रव्य की प्राप्ति भी न हो, ऐसा अथवा रजःकण आदि युक्त क्षेत्र हो, काल-दुष्काल याने दुर्भिक्ष का समय हो और भाव याने ग्लानि-रोग-पीडा आदि हो, अथवा बाल, शैक्ष, वृद्ध, असहिष्णुतादि हो, इत्यादि कारणों के होने पर गीतार्थ साधु अल्प-बहुत्व याने लाभ-हानि का विचार करके उन आहारादि को ग्रहण भी करें... अब कभी अनुपयोग से या एका एक जल्दी में अस-बीज आदि से ससक्त आहारादि प्राप्त हो तब उन आहारादि के परठ ने की विधि कहतें हैं, यहां अनुपयोग की चतुर्भंगी होती है... अनुपयोगी दाता अनुपयोगी साधु अनुपयोगी दाता उपयोगी साधु उपयोगी दाता अनुपयोगी साधु उपयोगी दाता उपयोगी साधु अब उन अशुद्ध आहारादि को ग्रहण करके साधु एकान्त-निर्जन भूमि में जाता है, उस निर्जन याने स्थंडिल भूमि के अनापात-असंलोक की चतुर्भगी होती है.. 1. अनापात असंलोक अनापात संलोक Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-1-1 (335) 11 असंलोक 3. 4. आपात आपात " संलोक अब इन चतुर्भगी में से अनापात-असंलोक एकांत-निर्जन भूमि जैसे कि- उद्यान में या उपाश्रय में अथवा शून्य गृहादि में कि- जहां चींटी आदि के अंडे न हो, गेहुं आदि बीज न हो, दुर्वा आदि हरित-वनस्पति न हो, ओस याने सूक्ष्म जलबिंदु न हो, तथा जहां जल न हो, चींटियों के घर न हो, लीलफूल, पानी, मिट्टी, मकडी के जाले न हो ऐसे बगीचे आदि स्थंडिल भूमि में जाकर ग्रहण किये हुए अशुद्ध आहार को अलग करके एवं सक्तु आदि में उस जंतु को दूर करके शेष शुद्ध आहार-पानी का रागादि दोष रहित वह साधु भोजन एवं पान करें, कहा भी है कि- हे जीव ! बयालीस (42) प्रकार की एषणा स्वरूप गहन संकट से तू बच गया है, किंतु अब इन आहारादि का भोजन करने में राग-द्वेष के चुंगल (छल) में मत फंसना, अर्थात् सावध न रहना... क्योंकि- आहार के प्रति राग हो तो अंगार-दोष... और आहारादि के प्रति द्वेष हो तो धम-दोष लगता है अतः एक मात्र निर्जरा की कामनावाला साधु रागद्वेष से रहित होकर आहारादि वापरें, तथा जो आहारादि अतिशय अशुद्ध होने के कारण से भोजन-पान नहीं करते किंतु उन आहारादि को एकांत-निर्जन भूमि में जाकर परठ (त्यागकर) दें... किंतु कहतें हैं किवह स्थंडिलभमि या तो अग्नि से दग्ध या जली हुई हो, या लोहादि के मलवाली हो, या तुष (फोतरे) वाली हो, या गोमयवाली हो... या अन्य भी कोई ऐसी प्रासुकभूमि हो... वहां जाकर चक्षु से बराबर देखें और रजोहरण से प्रमार्जन करके उन अशुद्ध आहारादि का त्याग करें... यहां प्रत्युपेक्षण और प्रमार्जन के सात भंग = विकल्प होतें हैं... -- 1. अप्रत्युपेक्षित अप्रमार्जित 2. अप्रत्युपेक्षित प्रमार्जित 3. प्रत्युपेक्षित अप्रमार्जित यहां देखे बिना प्रमार्जन करने से त्रस जीवों का एकस्थान से स्थानांतर संक्रमण होने से त्रसजीवों की विराधना होती है... तथा देखने के बाद प्रमार्जन न करने से पृथ्वीकायादि जीवों की विराधना होती है... तथा चौथे प्रत्युपेक्षित-प्रमार्जित भंग में यह और चार विकल्पभंग होतें हैं... . 4. दुष्प्रत्युपेक्षित दुष्प्रमार्जित दुष्प्रत्युपेक्षित सुप्रमार्जित Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 2-1-1-1-1 (335) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन 6. सुप्रत्युपेक्षित दुष्प्रमार्जित 7. सुप्रत्युपेक्षित सुप्रमार्जित... इस प्रकार सातवे भंगवाली स्थंडिलभूमि में साधु सावधानी से शुद्ध एवं अशुद्ध आहार आदि के भाग की विचारणा करके अशुद्ध आहारादि को परठ दें... अब औषधि-(अनाज-दाने) बाबत की विधि सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र में कहेंगे... v सूत्रसार : साधु हिंसा का सर्वथा त्यागी है और आहार के बनाने में हिंसा का होना अनिवार्य है। इसलिए साधु के लिए भोजन बनाने का निषेध किया गया है। परन्तु, संयम निर्वाह के लिए उसे आहार करना पड़ता है। अतः उसके लिए बताया गया है कि- वह गृहस्थ के धर में जाकर निर्दोष एवं एषणीय आहार ग्रहण करे। यदि कोई गृहस्थ सचित्त एवं आधाकर्मी आदि दोषों से युक्त आहार दे या सचित्त पानी से हाथ धोकर आहार दे या आहार यदि सचित्त रज से युक्त है, तो साधु उसे स्वीकार न करे। वह स्पष्ट शब्दों में कहे कि- ऐसा दोष युक्त आहार मुझे नहीं कल्पता। यदि कभी सचित्त पदार्थों से युक्त आहार आ गया हो-जैसे गुठली सहित खजूर या ऐसे ही बीज युक्त अन्य आहारादि का ग्रहण हो गया हो तब साधु उन्हें अलग करके उस अचित्त आहार को ग्रहण कर ले। यदि कोई पदार्थ ऐसा है कि- उसमें से उन सचित्त पदार्थों को अलग नहीं किया जा सकता है, तो मुनि उस आहार को खाए नहीं, परन्तु एकान्त स्थान में बीज-अंकुर एवं जीवजन्तु से रहित अचित्त भूमि पर यतना-पूर्वक परठ-त्याग दे। इसी तरह आधाकर्मी आहार भी भूल से आ गया हो तो उसे भी एकान्त स्थान में परठ दे। इससे स्पष्ट है कि साधु सचित्त एवं आधाकर्म दोष आदि युक्त आहार का सेवन न करे। भगवान महावीर ने सोमिल ब्राह्मण को स्पष्ट शब्दों में बताया कि- साधु के लिए सचित्त आहार अभक्ष्य है। ये ही शब्द भगवान एवं थावच्चा पुत्र ने शुकदेव संन्यासी को कहे है। श्रावक के व्रतों का उल्लेख करते समय इस बात को स्पष्ट किया गया है कि- श्रावक साधु को प्रासुक एवं निर्दोष आहार देंवे। यह उत्सर्ग मार्ग है और साधु को यथाशक्ति इसी भाग पर चलना चाहिए। परन्तु, जीवन सदा एकसा एक जैसा नहीं रहता। कभी-कभी सामने कठिनाइयां भी आती हैं, उस समय संयम की रक्षा के लिए साधु क्या करे ? इसके लिए वृत्तिकार ने बताया है कि- 'उत्सर्ग मार्ग में साधु आधाकर्मी आदि दोषों से युक्त आहार को स्वीकार न करे।' परन्तु अपवाद मार्ग में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का ज्ञाता गीतार्थ मुनि दोषों की न्यूनता या अधिकता का विचार करके उसे ग्रहण कर सकता है। द्रव्य का अर्थ है- द्रव्य (पदार्थ) का मिलना दुर्लभं हो। क्षेत्र Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-1-2 (338) 13 ऐसा जिसमें शुद्ध पदार्थ नहीं मिलते हों या सचित्त रज की बहुलता हो। इन कारणों के उपस्थित होने पर साधु आधाकर्म आदि दोष युक्त आहार भी ले सकता है। यह वृत्तिकार का अभिमत है। सूत्रकृताङ्ग सूत्र में भी कहा है कि- आधाकर्म आहार करनेवाला साधु एकान्त रूप से सात या आठ कर्म का बन्ध करता है। ऐसा नहीं कहना चाहिए कि वह सात-आठ कर्म का बन्ध नहीं करता है। भगवती सूत्र में गौतम स्वामी द्वारा पूछे गए-तथारूप के श्रमणमाहण को अप्रासुक एवं अनेषणीय आहार देनेसे दाता को क्या होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान महावीर फरमाते है कि- उसे अल्प पाप एवं बहुत निर्जरा होती है। प्रस्तुत आगम के प्रथम श्रुतस्कन्ध में वृत्तिकार ने स्वयं आधाकर्मी आहार ग्रहण करने का प्रबल शब्दों में निषेध किया है। इससे इतना तो स्पष्ट है कि- ध्रुव मार्ग निर्दोष आहार को स्वीकार करने को कहता है जब कि-अपवाद मार्ग साधक की स्थिति पर आधारित है। उसकी स्थापना नहीं की जा सकती। कौन साधक किस परिस्थिति में, किस भावना से, कौनसा कार्य कर रहा है ? यह छद्मस्थ व्यक्तियों के लिए जानना कठिन है। सर्वज्ञ पुरुष ही इसका निर्णय दे सकते हैं। इसलिए साधक को किसी विषय में पूरा निर्णय किए बिना एकान्त रूप से उसे पाप बन्ध का कारण नहीं कहना चाहिए और संभव है कि- यही कारण वृत्तिकार के सामने रहा हो जिससे उसने अपवाद स्थिति में सदोष आहार को स्वीकार करने योग्य बताया। वृत्तिकार का यह अभिमत विचारणीय है। आहार ग्रहण करने की विधि का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि अब औषध ग्रहण करने के सम्बन्ध में कुछ बातें आगे के सूत्र में कहते हैं... 1 सूत्र // 2 // // 336 || से भिक्खू वा भिक्खूणी वा गाहावइ जाव पविढे समाणे से जाओ पुण ओसहीओ जाणिजा कसिणाओ सासियाओ अविदलकडाओ अतिरिच्छच्छिन्नाओ अवुच्छिन्नाओ तरूणियं वा छिवाडिं अणभिक्कंतभजियं पेहाए अफासुयं अणेसणिजंति मण्णमाणे लाभे संते नो पडिग्गाहिज्जा। से भिक्खू वा जाव पविढे समाणे से जाओ पुण ओसहीओ जाणिज्जा अकसिणाओ असासियाओ विदलकडाओ तिरिच्छच्छिन्नाओ वुच्छिन्नाओ तरुणियं वा छिवाडिं अभिक्कंतं भज्जियं पेहाए फासुयं एसणिज्जंति मन्नमाणे लाभे संते पडिग्गाहिज्जा // 336 || II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा भिक्षुणी वा गाथापति (गृहपति) यावत् प्रविष्टः सन् सः याः पुनः - शालिबीजादिकाः औषधी: जानीयात् - कृत्स्नाः स्वाश्रयाः अद्विदलकृताः Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 2-1-1-1-2 (338) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अतिरश्चीनच्छिन्ना: अव्यवच्छिन्नाः तरुणी वा मुद्गादेः फलिं अनभिकान्त-भग्नां प्रेक्ष्य अप्रासुकां अनेषणीयां इति मन्यमान: लाभे सति न प्रतिगृह्णीयात् / स: भिक्षुः वा यावत् प्रविष्टः सन् सः याः पुनः औषधी: जानीयात् - अकृत्स्ना: अस्वाश्रयाः द्विदलकृताः तिरश्चीनच्छिन्ना: व्यवच्छिंन्ना: तरूणीं वा मुद्गादे: फलिं अभिक्रान्तां भग्नां प्रेक्ष्य प्रासुकां एषणीयां इति मन्यमानः लाभे सति प्रतिगृह्णीयात् // 336 || III सूत्रार्थ : __ गृहस्थ के घर में गया हुआ साधु व साध्वी औषधि के विषय में यह जाने कि इन औषधियों में जो सचित्त है, अविनष्ट योनि हैं, जिनके दो या दो से अधिक भाग नहीं हुए हैं, जो जीव रहित नहीं हुआ हैं ऐसी अपक्व फली आदि देखकर उसे अप्रासुक एवं अनेषणीय मानता हुआ साधु उसके मिलने पर भी उसे ग्रहण न करे। ___ परंतु औषधि निमित्त गृहस्थ के घर में प्रविष्ट हुआ साधु या साध्वी औषधि के संबंध में यह जाने कि- यह सर्वथा.अचित्त है, विनष्ट योनि वाली है। द्विदल अर्थात् इसके दो भाग हो गये हैं, इसके सूक्ष्म खंड किये गए हैं, यह जीवजन्तु से रहित है, तथा मर्दित एवं अग्नि द्वारा परिपक्व की गई है, इस प्रकार की प्रासुक-अचित्त एवं एषणीय निर्दोष औषध गृहस्थ के घर से प्राप्त होने पर साधु उसे ग्रहण करले। IV टीका-अनुवाद : वह भाव-साधु गृहस्थों के घर में प्रवेश करके शालिबीज आदि औषधियां को जाने... जैसे कि- वह अखंड हैं... इत्यादि यहां द्रव्य-भाव से चतुर्भगी होती है... . 1. द्रव्य से कृत्स्ना अशस्रोपहत भाव से कृत्स्ना सचित्त.... यहां कृत्स्ना इस पद के चतुर्भगी में पहला तीन भंग ग्रहण करें क्योंकि- चौथे भंग में तो द्रव्य से शस्त्रोपहत है और भाव से अचित्त है... तथा स्वाश्रय याने अविनष्ट योनिवाले... आगम सूत्र में भी कितनेक औषधिओं का अविनष्ट योनिकाल दिखाया है... तथा दो भाग नही किये हुए, तथा तिरछा नहि छेदा हुआ... यहां भी द्रव्य एवं भाव से चतुर्भगी होती है... तथा अव्यवच्छिन्न याने सजीव... तथा मुग आदि की अपक्व फलि, कि- जो सचित्त है, अमर्दित है... ऐसे इन औषधिओं को देखकर के इस प्रकार के आहारादि को सचित्त एवं अनेषणीय माननेवाला साधु उन आहारादिकी प्राप्ति होने पर भी ग्रहण न करें... Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-1-2 (336) 15 % 3A अब इस सूत्र को अन्य (विपरीत) प्रकार से कहते हैं- वह भाव-साधु या साध्वीजी म. जो यह औषधियां शालिबीज आदि द्रव्य एवं भाव से अकृत्स्न याने अचित्त हो तथा विनष्ट योनिवाले हो, तथा द्विदल किये हुए हो, तथा तिरछा छेदा हुआ हो, तथा अपक्व मूंग आदि की फलि अचित्त हो या मर्दित हो... इस प्रकार के आहारादि को प्रासुक एवं एषणीय मानता हुआ साधु ऐसे आहारादि की प्राप्ति होने पर तथा क्षुधा वेदनादि कारण होने पर उन्हे ग्रहण करें। अब आहार के विषय में ग्राह्य एवं अग्राह्य का अधिकार सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र में कहेंगे... . V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में औषध के सम्बन्ध में विधि-निषेध का वर्णन किया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि- विधि एवं निषेध दोनों सापेक्ष हैं। विधि से निषेध एवं निषेध से विधि का परिचय मिलता है, जैसे साधु को सचित्त एवं अनेषणीय पदार्थ नहीं लेना, यह निषेध सूत्र है, परन्तु इससे स्पष्ट ध्वनित होता है कि- साधु अचित्त एवं निर्दोष आहार व्यहण कर सकता है। इस तरह विधि एवं निषेध एक दूसरे के परिचायक हैं। यह हम देख चुके हैं कि- साधु पूर्ण अहिंसक है। अतः वह ऐसा पदार्थ ग्रहण नहीं करता कि- जिससे किसी प्राणी की हिंसा होती हो। इसलिए यह बताया गया है कि- गृहस्थ के घर में औषधि आदि के लिए प्रविष्ट हुए साधु को यह जान लेना चाहिए कि- वह औषध सचित्त-सजीव तो नहीं है ? जैसे कोई फल या बहेड़ा आदि है, जब तक उस पर शस्त्र का प्रयोग न हुआ हो तब तक वह सचित्त रहता है। उसके दो टुकडे होने पर वह सचित्त नहीं रहता। परन्तु कुछ ऐसे पदार्थ भी हैं जो दो दल होने के बाद भी सचित्त रह सकते हैं। कुछ पदार्थ अग्नि पर पकने या उसमें दूसरे पदार्थ का स्पर्श होने पर अचित्त होते हैं। इस तरह साधु साध्वी को सब से पहले सचित्त एवं अचित्त पदार्थों का परिज्ञान होना चाहिए, और यदि उन्हें दी जाने वाली औषध सचित्त प्रतीत होती हो तो वे उसे ग्रहण न करे और वह सजीव .. न हो या पूर्णतया निर्दोष हो तो साधु साध्वी उसे ग्रहण कर सकते हैं। . प्रस्तुत सूत्र में ‘कृत्स्न' आदि जो पांच पद दिये गये हैं, उनसे वनस्पति की सजीवता सिद्ध की है। उन (योनियों) में भी जीव रहते हैं एवं उनके प्रदेशों में भी जीव रहते हैं, जैसे चना आदि जो अन्न है उनके जब तक बराबर दो विभाग न हों तब तक उसमें जीवोंके प्रदेश रहने की संभावना है। प्रश्न हो सकता है कि- जब प्रथम सूत्र में सचित्त पदार्थ ग्रहण करने का निषेध कर दिया तो फिर प्रस्तुत सूत्र में सचित्त औषध एवं फलों के निषेध का क्यों वर्णन किया ? इसका कारण यह कि- जैनेतर साधु वनस्पति में जीव नहीं मानते और वे सचित्त Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 2-1-1-1-3 (337) . श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन औषध एवं फलों का प्रयोग करते रहे हैं और आज भी करते हैं। इसलिये पूर्ण अहिंसक साधु के लिये यह स्पष्ट कर दिया गया है कि- वह सचित्त औषध एवं फलों को ग्रहण नहीं करे। अब सूत्रकार आहार की ग्राह्यता एवं अग्राह्यता का उल्लेख आगे के सूत्र में करेंगे... I . सूत्र || 3 || // 337 // से भिक्खू वा, जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा पिहुयं बहुरयं वा भुंजियं वा मंथु वा चाउलं वा चाउलपलंबं वा सई संभज्जियं अफासुयं जाव नो पडिगाहिज्जा / से भिक्खू वा, जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा पिहुयं वा जाव चाउलपलंबं वा असई भजियं दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा भजियं फासुयं एसणिजं जाव पडिगाहिज्जा / / 337 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा, यावत् प्रविष्टः सन् सः यत् पुन: जानीयात् पृथुकं वा बहुरजः वा अर्धपक्वं वा चूर्णं वा तन्दुलं वा तन्दुलप्रलम्बं वा सकृत् आमर्दितं अप्रासुकं यावत् न प्रतिग्रहीयात् / सः भिक्षुः वा, यावत् प्रविष्टः सन् सः यत् पुन: जानीयात् पृथुकं वा यावत् तन्दुलप्रलम्ब वा असकृत् पक्वं वा द्वि: त्रिः वा पक्वं प्रासुकं एषणीयं यावत् प्रतिग्रहीयात् // 337 // III सूत्रार्थ : साधु अथवा साध्वी भिक्षा के लिये गृहस्थ के घर में प्रविष्ट होने पर शाली आदि धान्यों, तुषबहुल धान्यों और अग्नि द्वारा अर्धपक्व धान्यों, तथा मंथु चूर्ण एवं कण सहित एकबार भुने हुए अप्रासुक यावत् अनेषणीय पदार्थों को ग्रहण न करे, तथा वह साधु या साध्वी गृहस्थ के घर में भिक्षार्थ उपस्थित होने पर शाली आदि धान्य या उसका चूर्ण, जो कि- दो तीन बार या अनेक बार अग्नि से पका लिया गया है, ऐसा और एषणीय निर्दोष पदार्थ उपलब्ध होने पर साधु उसे स्वीकार कर ले। IV टीका-अनुवाद : वह भाव-भिक्षु= साधु गृहस्थों के घर में आहारादि के लिये प्रवेश करने पर यह जाने कि- पृथुक याने नये शालि-ब्रीहि आदि को अग्नि के द्वारा जो लाज (धानी) बनाया हो, तुषादिवाला हो, तथा अग्नि से आधे पकाये हुए गेहूं-तिल आदि हो, तथा गेहूं आदि का चूर्ण हो तथा शालि व्रीहि आदि की कणिक हो या उनके पृथकादि आहार हो, यदि वे एक बार अग्नि से थोडे पकाने से अप्रासक और अनेषणीय हो तब ऐसे आहारादि प्राप्त होने पर भी साधु उन्हें ग्रहण न करें... किंतु इस से विपरीत हो तो उन्हे ग्रहण करें... जैसे कि- अनेक बार अग्नि Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-1-4 (338) 17 3 से पकाया हो, दुष्पक्वादि दोष से रहित हो ऐसे प्रासुक एवं एषणीय आहारादि की प्राप्ति होने पर साधु उन आहारादि को ग्रहण करें... अब गृहस्थों के घर में प्रवेश की विधि सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र में कहेंगे... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में भी यह बताया गया है कि- साधु-साध्वी चावल (शाली-धान) आदि अनाज एवं उनका चूर्ण जो अपक्व या अर्धपक्व हो, नहीं लेना चाहिए। क्योंकि- शाली-धान (चावल), गेहूं, बाजरा आदि सजीव होते हैं, अतः उन्हें अपक्व एवं अर्धपक्व अवस्था में साधु को नहीं लेना चाहिए। जैसे कि-लोग मकई के भुटे एवं चने के होले आग में भूनकर खाते हैं, उनमें कुछ पक जाता है और कुछ भाग नहीं पकता। इस तरह जो दाने अच्छी तरह से पके हुए नहीं हो वे पूर्णतया अचित्त नहीं हो पाते। उनमें सचित्तता की संभावना रहती है, इसलिए साधु को ऐसी अपक्व एवं अर्धपक्व वस्तुए नहीं लेनी चाहिए। तात्पर्य यह है कि- साधु को सचित्त एवं अनेषणीय पदार्थ ग्रहण नहीं करना चाहिए, और जो पदार्थ अच्छी तरह पक गए हैं, अचित्त हो गए हैं, उन्हें साधु ग्रहण कर सकता है। शाली-चावल की तरह अन्य सभी तरह के अन्न एवं अन्य फलों के सम्बन्ध में भी समझना चाहिए कि- साध उन सब वस्तओं क ग्रहण नही कर सकता है कि- जो सचित्त एवं अनेषणीय हैं किंतु अचित्त एवं एषणीय पदार्थ को यथावश्यक ग्रहण कर सकता है। यह तो स्पष्ट है कि- साधु को आहार आदि ग्रहण करने के लिए गृहस्थ के घर में जाना पड़ता है। क्योंकि- जिस स्थान पर साधु ठहरा हुआ है, उस स्थान पर यदि कोई व्यक्ति आहार आदि लाकर दे तो साधु उसे ग्रहण नहीं करता। क्योंकि- वहां पर वह पदार्थ के निर्दोषता की जांच नहीं कर सकता। इस लिए साधु स्वयं गृहस्थ के घर जाकर एषणीय एवं प्रासुक आहार आदि पदार्थ ग्रहण करता है। अतः यह प्रश्न होना जरूरी है कि- साधु को गृहस्थ के घर में किस तरह प्रवेश करना चाहिए। इसका समाधान सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से करते हैI सूत्र // 4 // // 338 // से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावडकुलं जाव पविसिउकामे नो अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा परिहारिओ वा अप्परिहरिएण सद्धिं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसिज वा निक्खमिज्ज वा। से भिक्खू वा, बहिया वियारभूमि वा विहारभूमिं वा निक्खम्ममाणे वा पविसमाणे वा नो अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा परिहारिओ वा, अपरिहारिएण सद्धिं बहिया वियारभूमिं वा विहारभूमिं वा निक्खमिज्ज वा पविसिज्ज वा। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 2-1-1-1-4 (338) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन से भिक्खू वा, गामाणुगाम दुइजमाणे नो अण्णउत्थिएण वा जाव गामाणुगाम दूइजिजा || 338 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा भिक्षुणी वा गुहपतिकुलं यावत् प्रवेष्टुकामः न अन्यतीर्थिकण वा अगारस्थितेन (गृहस्थेन) वा परिहारिकः अपरिहारिके ण सार्द्ध गृहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया प्रविशेत् वा निष्क्रमेत् वा। सः भिक्षुः वा, बहिः विचारभूमिं वा विहारभमि वा निष्क्रामन वा प्रविशन वा न अन्यतीथिकन वा गृहस्थेन वा परिहारिको वा अपरिहारिकेण सार्द्ध बहिः विचारभूमिं वा विहारभूमिं वा निष्क्रामेत् वा प्रविशेत् वा / स: भिक्षुः वा; ग्रामानुग्रामं गच्छन् न अन्यतीर्थिकेन वा यावत् ग्रामानुग्रामं गच्छेत् // 338 // III सूत्रार्थ : गृहस्थी के घर में भिक्षा के निमित्त प्रवेश करने की इच्छा रखने वाला साधु या साध्वी अन्यतीर्थी या गृहस्थ के साथ भिक्षा के लिये प्रवेश न करे, तथा दोष को दूर करने वाला उत्तम साधु पार्श्वस्थादि साधु के साथ भी प्रवेश न करे, और यदि कोई पहले प्रवेश किया हुआ हो तो उसके साथ न निकले। वह साधु या साध्वी बाहर स्थंडिल भूमि (मलोत्सर्ग के स्थान) में या स्वाध्याय भूमि में जाता हुआ या प्रवेश करता हुआ किसी अन्यतीर्थी या गृहस्थी अथवा पावस्थादि साधु के साथ न जावे, न प्रवेश करे। वह साधु या साध्वी एक व्याम से दूसरे ग्राम में जाते हुए अन्यतीर्थी यावत् गृहस्थ और पार्श्वस्थादि के साथ न जावे, गमन न करे। IV टीका-अनुवाद : वह भिक्षु याने साधु जब गृहस्थों के घरों में आहारादि के लिये जाना चाहे तब अन्य मतवाले सरजस्कादि एवं पिंडोपजीवी ऐसे गृहस्थ ब्राह्मणों के साथ न तो प्रवेश करे, और न - बाहार निकले... क्योंकि- यदि वे लोग साधु के आगे आगे जाए तब उनके पीछे-पीछे गमन करने में ईर्या-विषयक कर्मबंध और प्रवचन की लघुता हो और उनको अपनी जाति का उत्कर्ष = गौरव हो... तथा यदि उनके पीछे पीछे साधु चले तब उनको द्वेष हो और यदि दाता भद्क हो तब आहारादि का विभाग करके दे, अतः आहार अल्प हो या दुर्भिक्षादि में प्राणवृत्ति न हो... इत्यादि दोष लगतें हैं, तथा पिंडदोष को त्याग करने से उद्युक्तविहारी साधु पासत्था, अवसन्न, Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका / 2-1-1-1-4 (338) 19 कुशील, संसक्त एवं यथाच्छंद रूप अपरिहारिक के साथ प्रवेश न करे, क्योंकि- यदि अनेषणीय आहार ग्रहण करे तब उन पासत्यादि की प्रवृत्ति की अनुमोदना हो, और यदि उन सदोष आहार को ग्रहण न करे तब उन पासत्था आदि के साथ कलह हो, अतः इन दोषों को जानकर साधु गृहस्थों के घरों में आहारादि के लिये उनके साथ प्रवेश न करे और निकले भी नही... अब कहतें हैं कि- उन अन्यतीर्थिकादि के साथ दोष लगने के कारण से वडीनीति के लिये स्थंडिल भूमि में भी प्रवेश न करें, क्योंकि- स्थंडिल भूमि के लिये जो अचित्त जल है वह स्वच्छ भी हो और मलीन भी हो, बहोत हो या थोडा भी हो अतः उन से उपघात की संभावना हैं, तथा विहार भूमि में आगमसूत्र के आलावे (आलापक) की वे निंदा करे तब नवदीक्षित साधु असहिष्णु हो तो कलह हो अतः अन्य तीर्थकादि के साथ न तो प्रवेश करे और न निकलें। ___तथा वह साधु एक गांव से व्यामांतर एवं एक नगर से अन्य नगर में जाए तब भी दोष लगने के कारण अन्य तीर्थकादि के साथ न जाएं... क्योंकि- वे साथ में होने से कायिकी (वडीनीति-लघुनीति) का निरोध करने से आत्म विराधना होती है, तथा यदि मल विसर्जन करे तब भी प्रासुक जल लेने से उपघात और अप्रासुक जल लेने से संयम-विराधना हो, इसी प्रकार भोजन में भी दोष लगतें हैं और नवदीक्षित आदि की विप्रतारणादि याने ठगाइ-लालच आदि दोषों की संभावना हैं। . अब उन कुतीथिकादि को दान देने के निषेध के लिये सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र में कहते हैं... V. सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में साधु के लिए बताया गया है कि- वह गृहस्थ, अन्य मत के साधु संन्यासियों एवं पार्श्वस्थ साधुओं के साथ गृहस्थ के घर में या स्वाध्याय भूमि में प्रवेश न करे और इनके साथ शौच के लिए भी न जाए और न इनके साथ विहार करे। क्योंकि- ऐसा करने से साधु के संयम में अनेक दोष लग सकते हैं। साधु के लिए धनवान एवं सामान्य स्थिति के सभी घर बराबर हैं। वह बिना किसी भेद के अमीर गरीब सबके घरों में भिक्षा के लिए जाता है और एषणीय एवं शुद्ध आहार ग्रहण करता है, ऐसी स्थिति में कभी वह सामान्य घर में गृहस्थ के साथ प्रवेश करे और उस गृहपलि की साधु को आहार देने की स्थिति न हो या इच्छा न हो, परन्तु संगाथ आये हुए गृहस्थ की लज्जा या दबाव के कारण वह साधु को आहार देवे तो इससे साधु के संयम में दोष लगता है अतः साधु को गृहस्थ के साथ किसी के घर में प्रवेश नहीं करना चाहिए। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 2-1-1-1-4 (338) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन % 3D __ इसी तरह अन्य मत के या पार्श्वस्थ साधुओं के साथ किसी के घर में भिक्षा को जाने से भी संयम में अनेक दोष लग सकते हैं, क्योंकि- लोग अन्य भिक्षु एषणीय-अनेषणीय की गवेषणा किए बिना ही जैसा मिल जाएं वैसा ही आहार ग्रहण कर लेते हैं, और जैन साधु सचित्त एवं अनेषणीय आहार ग्रहण नहीं करतें... ऐसी स्थिति में जैन साधुकी निन्दा कर सकते हैं, यह कह सकते हैं कि- यह तो ढोंगी एवं पाखण्डी हैं, हमारे साथ होने के कारण अपनी उत्कृष्टता बताता है, जहां अकेला होता है वहां सब कुछ ले लेता है और कभी इस समस्या को लेकर गृहस्थ के घर में भी वाद-विवाद हो सकता है। इससे गृहस्थ के मन में कुछ सन्देह पैदा हो सकता है। इस तरह वह अप्रासुक एवं अनेषणीय आहार नहीं करता है तो उक्त स्थिति पेदा हो सकती है और उसे ग्रहण करता है तो उसके संयम में दोष लगता है। इसके अतिरिक्त सबको एक साथ भिक्षा के लिए आया हुआ देख कर गृहस्थ पर भी बोझ पड़ सकता है और कभी किसी को न देने की इच्छा रखते हुए भी लज्जावश उसे देना पड़ता है, परन्तु अन्दर में बोझ सा अनुभव कर सकता है। इन सब दोषों से बचने के लिए मुनि को गृहस्थ, पार्श्वस्थ साधु एवं अन्य मत के संन्यासियों के साथ किसी भी गृहस्थ के घर में प्रवेश नहीं करना चाहिए। शौच के लिए जाते समय उपरोक्त व्यक्तियों का साथ करने में भी संयम में अनेक दोष लगते हैं। प्रथम तो उनके पास अप्रासुक (सचित्त) पानी होगा। अतः उनसे बात-चीत करने में उन पानी के जीवों की विराधना होगी। दूसरा साधु को रास्ते चलते हुए बोलना नहीं चाहिए। यदि वह बातें करता चलता है तो वह मार्ग को भली-भांति नहीं देख सकता, और यदि उन से बातें नहीं करता है तो वे नाराज भी हो सकते हैं और अनुचित शब्द भी बोल सकते हैं। तीसरा यदि उनके आगे-आगे चले तो उन्हें अपना अपमान महसूस हो सकता है और उनके पीछे चलने से जैन धर्म की लघुता होती है और बराबर चलने पर सचित्त पानी का स्पर्श होने की संभावना है। चौथा वह शौच के लिए निर्दोष भमि नहीं देख सकता। उनके सामने भी नहीं बैठ सकता। इसलिए कभी उसे बहुत दूर जाने पर भी योग्य स्थान न मिलने पर जैसेतैसे स्थान पर शौच बैठना पड़ता है। अतः गृहस्थ आदि के साथ शौच जाने से अनेक दोष लगते हैं। इस कारण साधु को उनके साथ शौच नहीं जाना चाहिए। स्वाध्याय भूमि में भी उनके साथ प्रवेश करने में सचित्त जल के अतिरिक्त अन्य सभी दोष लगते हैं। इसके अतिरिक्त उनसे बातें करते रहने के कारण स्वाध्याय में विघ्न पड़ता है। इसलिए साधु को स्वाध्याय के लिए भी गृहस्थ आदि के साथ नहीं जाना चाहिए। विहार के समय उनके साथ जाने से वह बातों में उलझा रहने के कारण अच्छी तरह से मार्ग नहीं देख सकेगा। तथा बातों में समय बहुत लग जाने के कारण समय पर पहुंच नहीं सकेगा। तथा यथासमय आवश्यक क्रियाएं भी नहीं कर सकेगा। कभी पेशाब आदि की बाधा होने पर वह संकोच वश लघनीति कर नहीं सकेगा और उसे रोकने से अनेक बीमारियों Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-1-5 (339) 21 का घर हो जाएगा। और पेशाब करना चाहे तो उनके सामने तो कर नहीं सकता, इसलिए उसे एकान्त एवं निर्दोष स्थान ढूंढने के लिए बहुत दूर जाना पड़ेगा या फिर सदोष स्थान में ही मल त्याग करना होगा। इस तरह आहार, शौच, स्वाध्याय एवं विहार में गृहस्थ आदि के साथ जाने से संयम में अनेक दोष लगते हैं और अन्य मत के भिक्षुओं के अधिक परिचय से साधु की श्रद्धा एवं संयम में शिथिलता एवं विपरीतता भी आ सकती है तथा उनके घनिष्ठ परिचय के कारण श्रावकों के मन में संन्देह भी पैदा हो सकता है। इन्हीं सब कारणों से साधु को उनके साथ घनिष्ट परिचय करने एवं भिक्षा आदि के लिए उनके साथ जाने का निषेध किया गया है, न कि किसी द्वेष भाव से। अतः साधु को अपने संयम का निर्दोष पालन करने के लिए स्वतन्त्र रूप से गृहस्थ आदि के घर में प्रवेश करना चाहिए। इनके साथ आहार आदि का लेन-देन करने से भी संयम में अनेक दोष लग सकते हैं, अतः उनके साथ आहार-पानी के लेन-देन का निषेध करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहते हैं..... I: सूत्र // 5 // // 19 // से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव पविढे समाणे नो अण्णउत्थियरस वा गारत्थियस्स वा परिहारिओ वा अपरिहारियस्स असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दिज्जा वा अणुपइजा वा || 339 / / II संस्कृत-छाया : - सः भिक्षुः वा भिक्षुणी वा यावत् प्रविष्टः सन् अन्यतीर्थिकस्य वा गृहस्थस्य वा परिहारिक: वा अपरिहारिकस्य अशनं वा पानं वा खादिमं वा स्वादिमं वा दद्यात् वा अनुप्रदापये वा || 339 // III. सूत्रार्थ : - गृहस्थ के घर में प्रविष्ट हुआ साधु या साध्वी, अन्यतीर्थी परपिंडोपजीवी गृहस्थ-याचक और पार्श्वस्थ-शिथिलाचारी साधु को, निर्दोष भिक्षा ग्रहण करने वाला श्रेष्ठ साधु अन्न, जल, खादिम और स्वादिम रूप पदार्थों को न तो स्वयं देवे और न किसी से दिलावे। IV टीका-अनुवाद : ___ वह साधु या साध्वीजी म. आहारादि के लिये गृहस्थों के घरों में प्रवेश करने पर और Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 2-1-1-1-6 (340) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन उपलक्षण से उपाश्रय में होने पर, उन अन्य तीर्थकादि को दोष लगने के कारण से आहारादि स्वयं न दें, और अन्य गृहस्थादि से न दिलवाये... क्योंकि- यदि साधु उन अन्य तीर्थकादि को आहारादि दे तब उनको देखकर लोग ऐसा जाने कि- ये भी दान-दक्षिणा के योग्य है, ऐसी स्थिति में असंयम के प्रवर्तनादि के दोष लगते हैं... अब पिंडाधिकार में ही अनेषणीणीय का विशेष प्रकार से प्रतिषेध की बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहतें हैं... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु को पार्श्वस्थ-शिथिलाचारी एवं अन्य मत के साधुओं को आहार-पानी नहीं देना चाहिए। इससे संयम में अनेक दोष लगने की संभावना है। उनके घनिष्ठ सम्बन्ध रहने के कारण श्रद्धा में शिथिलता एवं विपरीतता आ सकती है। लोगों के मन में यह भी बात घर कर सकती है कि- ये अन्य मत के साधु अधिक प्रतिष्ठित एवं श्रेष्ठ हैं, तभी तो ये मुनि भी इनका आहार पानी से सम्मान करते हैं। इससे वे श्रावक (गृहस्थ) उनका सम्मान करने लगेंगे और फलस्वरूप मिथ्यात्व की अभिवृद्धि होगी। इसके अतिरिक्त अन्य मत के साधुओं को आहार देने से सबसे बड़ा दोष गृहस्थ की चोरी का लगेगा। क्योंकि- गृहस्थ के घर से वह साधु अपने एवं अपने साथियों (सहधर्मी एवं संभोगी मुनियों) के लिए आहार लाया है। ऐसी स्थिति में वह अन्य मत के भिक्षुओं को आहार देता है, तो उसे गृहस्थ की चोरी लगती है। गृहस्थ को मालूम होने पर साधु पर अविश्वास भी हो सकता है कि- यह तो हमारे यहां से भिक्षा ले जाकर बांटता फिरता है। इस तरह के और भी अनेक दोष लगने की संभावना है। इस लिए मुनि को अपने संभोगी साधु के अतिरिक्त अन्यमत के साधुओं को आहार आदि नहीं देना चाहिए। यह प्रतिबन्ध संयम सुरक्षा की दृष्टि से है, न कि- दया एवं स्नेहभाव को रोकने के लिए। साधु को सदा एषणीय आहार ग्रहण करना चाहिए। अनेषणीय आहार की अग्राह्यता के सम्बन्ध में उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैंI सूत्र ||6 | 340 // से भिक्खू वा जाव समाणे असणं वा . अस्संपडियाए एणं साहम्मियं समुद्दिस्स पाणाइं भूयाइं जीवाइं सत्ताइं समारब्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छिजं अणिसटुं अभिहडं आहट्ट चेएइ, तं तहप्पगारं असणं वा . पुरिसंतरकडं वा बहिया नीहडं वा अनीहडं वा अत्तट्टियं वा अणत्तट्टियं वा परिभुत्तं वा अपरिभुत्तं वा आसेवियं वा अणासेवियं वा अफासुयं जाव नो पडिग्गाहिज्जा, एवं बहवे साहम्मिया एणं साहम्मिणिं बहवे साहम्मिणीओ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-1-6 (340) 23 समुद्दिस्स चत्तारि आलावगा भाणियव्वा || 340 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा. यावत् प्रविष्टः सन् अशनं वा . अस्वप्रतिज्ञया एकं साधर्मिकं उद्दिश्य प्राणानि (प्राणिनः) भूतानि जीवानि सत्त्वानि समारभ्य समुद्दिश्य क्रीतं उच्छिन्नकं अच्छेद्यं अनिसृष्टं अभ्याहृतं आहृत्य ददाति, तं तथाप्रकारं अशनं वा . पुरुषान्तरकृतं वा अपुरुषान्तरकृतं वा बहिः निर्गतं वा अनिर्गतं वा आत्मस्थितं वा अनात्मस्थितं वा परिभुक्तं वा अपरिभुक्तं वा आसेवितं वा अनासेवितं वा अप्रासुकं यावत् न प्रतिगृह्णीयात्, एवं बहवः साधर्मिका: एकां साधर्मिकी, बहू: साधर्मिकी: उद्दिश्य चत्वारः आलापका: भणितव्याः || 340 // III सूत्रार्थ : गृहस्थ के घर में प्रविष्ट साधु-साध्वी इस बात की गवेषणां करे कि- किसी भद्र गृहस्थ ने एक साधु का उद्देश्य रखकर प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों का आरम्भ करके आहार बनाया हो, तथा साधुके निमित्त मोल लिया हो, उधार लिया हो, किसी निर्बल से छीनकर लिया हो, एवं साधारण वस्तु दूसरे की आज्ञा के बिना दे रहा हो, और साधु के स्थान पर घर से लाकर दे रहा हो, इस प्रकार का आहार लाकर देता है तो इस प्रकार का अन्न जल, खादिम और स्वादिम आदि पदार्थ, पुरुषान्तर-दाता से भिन्न पुरुषकृत, अथवा दाता कृत हो, घर से बाहर निकाला गया हो या न निकाला गया हो, दूसरे ने स्वीकार किया हो अथवा स्वीकार न किया हो, आत्मार्थ किया गया हो, या दूसरे के निमित्त किया गया हो, उसमें से खाया गया हो अथवा न खाया गया हो, थोड़ा सा आस्वादन किया हो या न किया हो, इस प्रकार का अप्रासुक अनेषणीय आहार मिलने पर भी साधु ग्रहण न करें। इसी प्रकार बहुत से साधुओं के लिए बनाया गया हो, या एक साध्वी के निमित्त बनाया गया हो अथवा बहुत सी साध्वियों के निमित्त बनाया गया हो वह भी ग्राह्य अर्थात् स्वीकार करने योग्य नहीं है। इसी भांति चारों आलापक जानने चाहिए। IV टीका-अनुवाद : वह भिक्षु-साधु यावत् आहारादि के लिये गृहस्थों के घर में प्रवेश करने पर देखे कियह आहरादि निर्गथ-साधु के लिये बनाया गया है... जैसे कि- कोई प्रकृति भद्रक गृहस्थ यह निर्मथ है ऐसा मानकर एक साधर्मिक-साधु के लिये प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों का अर्थात् सभी एकेंद्रियादि जीवों का संरंभ, समारंभ एवं आरंभ करके आधाकर्म दोषवाला आहारादि बनावे... आधाकर्म कहने से सभी अविशोधि कोटि के दोष जानने चाहिए। यहां प्रारंगिक आरंभ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 2-1-1-1-6 (340) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन का स्वरूप कहतें हैं... संरंभ याने मानसिक संकल्प समारंभ याने वाचिक परितापकर समारंभ (पूर्वतयारी) और आरंभ याने काया से पापाचरण प्रवृत्ति... तथा क्रीत याने मूल्य से खरीदना, पामिच्च याने बदले में लेना, आच्छेद्य याने दुसरों से बलपूर्वक से लेना, अनिसृष्ट याने उन आहारादि के स्वामीने अनुमति नही दीये हुए आहारादि... अभ्याहृत याने गृहस्थ ने सामने लाया हुआ, इस प्रकार क्रीत आदि से आहारादि लाकर गहस्थ देता है... इस क्रीत आदि से सभी विशुद्धि कोटि को जानीयेगा... अतः यह आधाकर्मादि दोषवाला आहारादि जो दाता (गृहस्थ) देता है वह उसने स्वयं ने ही कीया हो या अन्य पुरुषों से करवाया हो... तथा घर से निकला हो या नही निकला हो, उस दाता ने स्वीकृत किया हो या स्वीकृत न किया हो, तथा उस दाता ने भोजन किया हो या न किया हो, थोडा खाया हो या न खाया हो, इस प्रकार अप्रासुक एवं अनेषणीय आहारादि प्राप्त होने पर साधु ग्रहण न करें.. यह आहारादि प्रथम एवं अंतिम तीर्थकर के शासन में अकल्पनीय है... तथा मध्यम बाईस (22) तीर्थंकरों के शासन में अन्य साधु के लिये बनाया गया आहारादि अन्य साधु को कल्पता है... इस प्रकार अनेक साधर्मिकों के लिये बनाया हुआ आहारादि के बाबत में भी जानीगा... तथा साध्वीजीओं के लिये भी एक या अनेक बाबत भी इसी प्रकार जानीयेगा... अब फिर से अन्य प्रकार से अविशुद्ध कोटि के विषय में सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहतें हैं... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में सदोष आहार के भी दो विभाग किए गए हैं- विशुद्ध कोटि और अविशुद्ध कोटि / साधु के निमित्त जीवों की हिंसा करके बनाया गया आहार आदि अविशुद्ध कोटि कहलाता है और प्रत्यक्ष में किसी जीव की हिंसा न करके साधु के लिए खरीद कर लाया हुआ आहार आदि विशुद्ध कोटि कहलाता है। किसी व्यक्ति से उधार लेकर, छीनकर या जिस व्यक्ति की वस्तु है उनकी बिना आज्ञा से या किसी के घर से लाकर दिया गया हो वह भी विशुद्ध कोटि कहलाता है। इसे विशुद्ध कहने का तात्पर्य यह है कि- इस आहार आदि को तैयार करने में साधुके निमित्त हिंसा नहीं करनी पड़ती। क्योंकि- यह बेचने एवं अपने खाने के लिए ही बनाया गया था। फिर भी दोनों तरह का आहार साधु के लिए अग्राह्य है। पहले प्रकार के आहार की अग्राह्यता स्पष्ट है कि- उसमें साधु को उद्देश्य करके हिंसा की जाती है। दूसरे प्रकार के आहार में प्रत्यक्ष हिंसा तो नहीं होती है, परन्तु साधु के लिए पैसे का खर्च होता है और पैसा आरम्भ से पैदा होता है, और जो पदार्थ उधार लिए जाते हैं उन्हें पुनः लौटाना होता है और पुनः लौटाने के लिये आरम्भ करके ही उन्हें बनाया जाता है। किसी कमजोर व्यक्ति से छीनकर देने से उस व्यक्ति पर साध के लिये बल प्रयोग किया Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-1-6 (340) 25 जाता है और इससे उसका मन अवश्य ही दुःखित होता है और किसी व्यक्ति को कष्ट देना भी हिंसा का ही एक रूप है। किसी व्यक्ति के अधिकार की वस्तु को उसे बिना पूछे देने से उसे मालूम पड़ने पर दोनों में संघर्ष हो सकता है। इन सब दृष्टियों से इस तरह दिए जाने वाले पदार्थों में प्रत्यक्ष हिंसा परिलक्षित नहीं होने पर भी वे हिंसा के कारण बन सकते हैं, इसलिए साधु को दोनों तरह का आहार सदोष समझकर त्याग देना चाहिए। विशुद्ध एवं अविशुद्ध कोटि में इतना अन्तर अवश्य है कि- विशुद्ध कोटि पदार्थ पुरुषान्तर कृत होने पर साधु के लिए व्याह्य माने गए हैं, जैसे साधु के उद्देश्य से खरीद कर लाया गया वस्त्र किसी व्यक्ति ने अपने उपयोग में ले लिया है और इसी प्रकार साधु के निमित्त खरीदा गया मकान गृहस्थों के अपने काम में ले लिया गया है तो फिर वह साधु के लिए अग्राह्य नहीं रहता। परन्तु, अविशुद्ध कोटि-आधाकर्मी, औद्देशिक आदि दोष युक्त पदार्थ पुरुषान्तरकृत हो या अपुरुषान्तरकृत हो किसी भी तरह से साधु के लिए ग्राह्य नहीं है। एक या बहुत से साधु-साध्वियों के लिए बनाया गया आहार आदि एक या बहुत से साधु-साध्वियों के लिए व्याह्य नहीं है। प्रस्तुत सूत्र में 'पुरिसंतरकडं वा अपुरिसंतरकडं' पाठ आया है। इसका तात्पर्य है किदाता के अतिरिक्त व्यक्ति द्वारा उपभोग किया हुआ पदार्थ पुरुषान्तरकृत कहलाता है और दाता द्वारा उपभोग में लिया गया पदार्थ अपुरूषान्तरकृत कहा जाता है। सदोष आहार के निषेध का वर्णन पहले अहिंसा महाव्रत की सुरक्षा की दृष्टि से किया गया है, और इससे यह भी स्पष्ट होता है कि- शुद्ध आहार जीवन को शुद्ध, सात्त्विक एवं उज्जवल बनाता है। इसके पहले के सूत्रों में हम देख चुके हैं कि- साधक की साधना चिन्तनमनन के द्वारा आत्मा का प्रत्यक्षीकरण करके उसे निष्कर्म बनाने के लिए है। इसके लिए स्वाध्याय एवं ध्यान आवश्यक है और इनकी साधना के लिए मन का एकाग्र होना जरूरी है और वह शुद्ध आहार के द्वारा ही हो सकता है। क्योंकि- मन पर आहार का असर होता है। यह लोक कहावत भी प्रसिद्ध है कि 'जैसा खावें अन्न वै रहे मन / ' इससे स्पष्ट होता है कि- आहार का मन के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध रहा हुआ है। अशुद्ध, तामसिक एवं सदोष आहार मन को विकृत बनाए बिना नहीं रहता। इसलिए आगमों में साधु के लिए स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि- वह सदोष एवं अनेषणीय आहार को ग्रहण न करे। उपनिषद् में भी बताया गया है कि- आहार की शुद्धि से सात्त्विकता शुद्ध रहता है और उसकी शुद्धि से स्मृति स्थिर रहती है अर्थात् मन एकाग्र बना रहता है। अशुद्ध आहार स्वीकार न करने के विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहेंगे... Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 2-1-1-1-7 (341) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन I सूत्र // 7 // // 341 // से भिक्खू वा. जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा असणं वा, बहवे समणा माहणा अतिहि किविण वणीमए पगणिय पगणिय समुद्दिस्स पाणाई वा, समारब्भ जाव नो पडिग्गाहिजा || 341 // II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः यावत् प्रविष्टः सन् सः यत् पुन: जानीयात् अशनं वा . बहून श्रमणान् ब्राह्मणान् अतिथि-कृपण-वनीपकान् प्रगणय्य प्रगणय्य समुद्दिश्य प्राणिनः वा समारभ्य यावत् न प्रतिगृह्णीयात् // 341 // III सूत्रार्थ : गृहस्थ के घर में प्रविष्ट हुआ साधु या साध्वी इस बात का अन्वेषण करे कि- जो आहारादि बहुत से शाक्यादि भिक्षु, ब्राह्मण, भिखारी आदि को गिन-गिन कर या उनके उद्देश्य से जीवों का आरम्भ-समारम्भ करके बनाया हो, उसे साधु ग्रहण न करे। IV टीका-अनुवाद : वह भाव-साधु या साध्वी आहारादि के लिये गृहस्थों के घर में प्रवेश करे तब यह देखे कि- यह आहारादि श्रमण याने निर्गथ, शाक्य, तापस, गैरिक और आजीविक आदि के लिये या ब्राह्मणों के लिये या अतिथि, दरिद्र (कृपण), वनीपक (बंदीजन) आदि के लिये बनाया गया है या नही... जैसे कि- 2-3 श्रमण, 5-6 ब्राह्मण, इत्यादि प्रकार की संख्या की गिनती से त्रस एवं स्थावर जीवों का समारंभ करके जो आहारादि बनाया गया है वह बार-बार हो या एक बार हो फिर भी अनेषणीय आधाकर्म है ऐसा मानता हुआ वह साधु आहारादि प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करें। V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- किसी गृहस्थ ने शाक्यादि श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, भिखारी आदि की गणना करके उनके लिए आहार तैयार किया है। जबकि- यह आहार साधु के उद्देश्य से नहीं बनाया गया फिर भी साधु के लिए अग्राह्य है। क्योंकि- बौद्ध भिक्षु एवं जैन साधु दोनों के लिए 'श्रमण' शब्द का प्रयोग होता है, अतः संभव है कि- गृहस्थ ने उस आहार के बनाने में उन्हें भी साथ गिन लिया हो। इसके अतिरिक्त ऐसा आहार ग्रहण करने से लोगों के मन में यह शंका भी उत्पन्न हो सकती है कि अन्य भिक्षुओं की तरह जैन साधु भी अपने लिए बनाए गए आहार को लेते हैं और उक्त आहार में से ग्रहण करने से-जिन व्यक्तियों के Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-1-8 (342) 27 लिए वह आहार बनाया गया है, उनको होनेवाले अंतराय का दोष लगता है तथा उनके लिए बनाए गए आहार को लेने के लिए जैन साधु को जाते हुए देखकर उनके मन में द्वेष भी जग सकता है। इसलिए जैन साधु को ऐसा आहार भी स्वीकार नहीं करना चाहिए। I सूत्र // 8 // // 42 // से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव पविढे समाणे से जं पुण जाणिज्जा असणं वा, बहवे समणा माहणा अतिहिं किविण-वणीमए समुद्दिस्स जाव चेएइ, तं तहप्पगारं असणं वा, अपुरिसंतरकडं वा अबहिया-नीहडं अणत्तढियं अपरिभुत्तं अणासेवियं अफासुयं अणेसणिजं जाव नो पडिग्गाहिजा / अह पुण एवं जाणिजा पुरिसंतरकडं बहिया नीहडं अत्तट्टियं परिभुत्तं आसेवियं फासुयं एसणिज्जं जाव पडिग्गाहिज्जा || 342 // II संस्कृत-छाया : . सः भिक्षुः वा भिक्षुणी वा यावत् प्रविष्टः सन् सः यत् पुनः जानीयात् अशनं वा, बहून् श्रमणान् ब्राह्मणान् अतिथि कृपण-वणीपकान् समुद्दिश्य यावत् ददाति, तं तथा प्रकारं अशनं वा, अपुरुषान्तरकृतं वा अबहिःनिर्गतं वा अनात्मस्थितं वा अपरिभुक्तं वा अनासेवितं वा अप्रासुकं अनेषणीयं यावत् न प्रतिगृह्णीयात् / अथ पुनः एवं जानीयात् पुरुषान्तरकृतं बहिः निर्गतं आत्मस्थितं परिभुक्तं आसेवितं प्रासुकं एषणीयं यावत् प्रतिगृह्णीयात् || 342 // III सूत्रार्थ : * गृहस्थ कुल में प्रवेश करने पर साधु-साध्वी इस प्रकार जाने कि- अशनादिक चतुर्विध आहार जो कि शाक्यादिभिक्षु, ब्राह्मण अतिथि दीन और भिखारियों के निमित्त तैयार किया गया हो और दाता उसे देवे तो इस प्रकार के अशनादि आहार को जो कि- अन्य पुरुष कृत न हो, घर से बाहर न निकाला गया हो, अपना अधिकृत न हो, उस में से खाया या आसेवन न किया गया हो तथा अप्रासुक और अनेषणीय हो, तो साधु ऐसा आहार भी ग्रहण न करे। यदि साधु इस प्रकार जाने कि- यह आहार आदि पदार्थ अन्य कृत है, घर से बाहर ले जाया गया है, अपना अधिकृत है तथा खाया और भोगा हुआ है एवं प्रासुक और एषणीय है तो ऐसे आहार को साधु ग्रहण करले / IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. आहारादिके लिये गृहस्थोंके घरमें प्रवेश करके यह देखे : कि- यह आहारादि, बहुत सारे श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण या वनीपकों के लिये अस एवं Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 2-1-1-1-9 (383) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन स्थावर जीवों का आरंभ-समारंभ करके यह गृहस्थ देता है... यदि ऐसा हो तो तथा प्रकार के वे अशनादि स्वयंने बनाया हो, बाहर नहीं निकाला हो, अपने खुद का न हो, भोजन नही किया हो, आसेवित नही किया हो, ऐसे अप्रासुक एवं अनेषणीय आहारादि प्राप्त हो तो भी ग्रहण न करें... तथा वह साधु ऐसा जाने कि- यह आहारादि अन्य पुरुषों के लिये बनाया है। बाहर निकाला हो, स्वयं का किया हो, भोजन कर लिया हो, आसेवित किया हो तब उन्हें प्रासुक एवं एषणीय जानकर प्राप्त होने पर ग्रहण करें... यहां सारांश यह है किअविशोधिकोटि दोषवाले आहारादि जैसा-कैसा भी हो तो भी नही कल्पता किंतु विशोधिकोटि दोषवाले आहारादि अन्य पुरुष के लिये बनाया हो, अपने आपका किया हो इत्यादि प्रकार का कल्पता है... अब विशोधिकोटि विषयक सूत्र सत्रकार महर्षि कहेंगे..... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- किसी गृहस्थ ने शाक्यादि भिक्षुओं के लिए आहार बनाया है और वह आहार अन्यपुरुषकृत नहीं हुआ है, बाहर नहीं ले जाया गया है, किसी व्यक्ति ने उसे खाया नहीं है और वह अप्रासुक एवं अनेषणीय है, साधु के लिए अग्राह्य है। यदि वह आहार पुरुषान्तर हो गया है, लोग घर से बाहर ले जा चुके हैं दूसरे व्यक्तियों द्वारा खा लिया गया है और वह प्रासुक एवं एषणीय है, तो साधु उसे ग्रहण कर सकता है। I सूत्र // 9 // // 343 | से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावडकुलं पिंडवायपडियाए पविसिउकामे से जाई पुण कुलाई जाणिजा इमेसु खलु कुलेसु निइए पिंडे दिज्जड अग्गपिंडे दिजड़ नियए भाए दिज्जड़ नियए अवड्ढभाए दिज्जइ तहप्पगाराई कुलाई निइयाइं निउमाणाइं नो भत्ताए वा पाणाए वा पविसिज्ज वा निक्खमिज्ज वा। एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा समग्गियं जं सव्वढेहिं समिए सया जए त्तिबेमि || 343 | II संस्कृत-छाया : ___ स: भिक्षुः वा भिक्षुणी वा गृहपति कुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया प्रवेष्टुकामः सः यानि पुनः कुलानि जानीयात् इमेषु (एषु) खलु कुलेषु नित्यं पिण्ड: दीयते, अग्रपिण्डः दीयते नित्यं भागः दीयते, नित्यं अपार्धभागः दीयते, तथा प्रकाराणि कुलानि नित्यानि नित्यप्रवेशानि तत्र न भक्ताय वा न पानाय वा प्रविशेद् वा निष्क्रामेद् वा। एवं खलु तस्य भिक्षोः वा भिक्षुण्याः वा सामग्रयं यत् सवर्थिः समितः सदा यतेत // 343 // Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-1-9 (383) 29 III सूत्रार्थ : गृहस्थ के कुल में आहार प्राप्ति के निमित्त प्रवेश करने की इच्छा रखने वाले साधु या साध्वी इन क्ष्यमाण कुलों को जाने, जिन कुलों में नित्य आहार दिया जाता है, अग्रपिंड आहार में से निकाला हुआ पिंड दिया जाता है, नित्य अर्द्ध भाग आहार दिया जाता है, नित्य चतुर्थ भाग आहार दिया जाता है, इस प्रकार के कुलों में जो कि- नित्यदान देने वाले हैं तथा जिन कुलों में भिक्षुओं का भिक्षार्थ निरन्तर प्रवेश हो रहा है ऐसे कुलों में अन्न पानादि के निमित्त साधु और साध्वी की समयता अर्थात् निर्दोष वृत्ति है वह सर्व शब्दादि अर्थो में यत्नवाला, संयत अथवा ज्ञान दर्शन और चारित्र से युक्त है। अतः वह इस वृत्ति का परिपालन करने में सदा यत्नशील हो। इस प्रकार मैं कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : वह भिक्षु याने साधु या साध्वीजी म. आहारादि के लिये गृहस्थों के घरों में प्रवेश करे तब यह देखे कि- इन कुलो में नित्य याने प्रतिदिन पिंड, अय याने शालिओदन आदि को पहले ही निकालकर भिक्षा में देने के लिये अलग रखें वह अयपिंड... तथा नित्य अर्ध पोष दे, तथा प्रतिदिन चतुर्थाश पोष दे, ऐसे प्रकार के कुल (घर) नित्य याने प्रतिदिन दानवाले होतें हैं... वे गृहस्थ लोग स्वपक्ष याने संयत-साधु और परपक्ष याने अन्य भिक्षाचर लोग भिक्षा के लिये जब घर आयें तब सभी को आहारादि देने के लिये बहुत सारी रसोई बनावे, ऐसा होने में छह जीवनिकाय की विराधना हो, तथा यदि रसोड अल्प (थोडी) हो तब अंतराय होता है, अतः उन घरों में साधु आहारादि के लिये प्रवेश न करे और न निकलें..... - अब इस उद्देशक का उपसंहार करतें हैं... इस उद्देशक में आरंभ से लेकर जो कहा वह उस भिक्षु-साधु की समयता है, जैसे कि- साधु उद्गम, उत्पादन, ग्रहणैषणा, संयोजन, * प्रमाण, इंगाल, धूम और कारणों से सुविशुद्ध पिंड का ग्रहण करें और वह ज्ञानाचार-समयता - है इसी प्रकार दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार, और वीर्याचार की भी समयता है... अथवा यह सामग्री सूत्र से ही कहते हैं- सर्वार्थ याने सरस एवं विरस आहारादि से अथवा रूप, रस, गंध एवं स्पर्श से समित याने (संयत) साधु, अथवा पांच समितियां से समित अर्थात् संयत / अथवा शुभ एवं अशुभ पदार्थों में राग-द्वेष से रहित तथा हितवाला अथवा ज्ञान-दर्शन एवं चारित्र से सहित ऐसा साधु सदा संयमवाला है... ऐसा हे जंबू ! मैं सुधर्मस्वामी श्री वर्धमान स्वामीजी के मुख से सुनकर तुम्हें कहता हूं... Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 2-1-1-1-9 (383) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में इस बात का आदेश दिया गया है कि- साधु को निम्न कुलों में भिक्षा के लिए नहीं जाना चाहिए। जिन कुलों में नित्य-प्रति दान दिया जाता है, जिन कुलों में अयपिंडजो आहार पक रहा हो उसमें से कुछ भाग पहले निकाल कर रखा हुआ आहार दिया जाता है, जिन कुलों में आहार का आधा या चतुर्थ हिस्सा दान में दिया जाता है और जिन कुलों में शाक्यादि भिक्षु निरन्तर आहार के लिए जाते हों, ऐसे कुलों में जैन साधु-साध्वी को प्रवेश नहीं करना चाहिए। क्योंकि- ऐसे घरों में भिक्षा को जाने से या तो उन भिक्षुओं की, जो वहां से सदा-सर्वदा भिक्षा पाते हैं, अंतराय लगेगी या उन भिक्षुओं के लिए फिर से आरम्भ करके आहार बनाना पड़ेगा। इसलिए साधु को ऐसे घरों से आहर नहीं लेना चाहिए। जैन साधु सर्वथा निर्दोष आहार ही ग्रहण करता है। इस बात को सूत्रकार ने 'सव्वठेहिं समिए.....' इत्यादि पदों से अभिव्यक्त किया है। इनका स्पष्टीकरण करते हुए वृत्तिकार ने लिखा है कि- मुनि को सरस एवं नीरस जैसा भी निर्दोष आहार उपलब्ध होता है, उसे समभाव से ग्रहण करता है। वह रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि विषयों में अनासक्त रहता है। वह पांच समिति से युक्त है, राग-द्वेष से दूर रहने का प्रयत्न करता है वह रत्नत्रयज्ञान, दर्शन और चारित्र से युक्त होने से संयत है। और वह निर्दोष मुनिवृत्ति का परिपालन करता है, यही उसकी समग्रता है। _ 'त्तिबेमि' पद से सूत्रकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि- ये विचार मेरी कल्पनामात्र नहीं है। आर्य सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बू से कहते हैं कि हे जम्बू ! मैंने जैसा भगवान महावीर के मुख से सुना है वैसा ही तुम्हें कह रहा हूं। // प्रथम चूलिकायां प्रथमे पिण्डैषणाध्ययने प्रथमः उद्देशकः समाप्तः // 卐卐卐 : प्रशस्ति :. मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शश्रृंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छा छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न-विद्वद्वरेण्य Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-1-9 (343) 31 व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. "श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528.. राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058. ___ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 2-1-1-2-1 (344) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 1 अध्ययन - 1 उद्देशक - 2 * "पिण्डैषणा" // पहला उद्देशक कहा, अब दुसरे उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं, यहां पहले उद्देशक में पिंड का स्वरूप कहा, अब इस दुसरे उद्देशक में भी पिंड विषयक हि विशोधिकोटि कहतें हैं... I सूत्र // 1 // // 344 // से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावडकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविढे समाणे से जं पुण जाणिज्जा असणं वा, अट्ठमी-पोसहिएसु वा अद्धमासिएसु वा मासिएसुवा दोमासिएसु वा तिमासिएसु वा चाउम्मासिएसु वा पंचमासिएसु वा छम्मासिएसु वा उऊसु वा उ.उ.संधीसु वा उउपरियट्टेसु वा बहवे समणमाहण अतिहिकिविणवणीमगे एगाओ उक्खाओ परिएसिज्जमाणे पेहाए दोहिं उक्खाहिं परिएसिज्जमाणे पेहाए, तिहिं उक्खाहिं परिएसिज्जमाणे पेहाए कुं भीमुहाओ वा कलोवाइओ वा संनिहिसंनियचयाओ वा परिएसिज्जमाणे पेहाए तहप्पगारं असणं वा . अपुरिसंतरकडं जाव अणासेवियं अफासुयं जाव नो पडिग्गाहिज्जा। अह पुण एवं जाणिज्जा पुरिसंतरकडं जाव आसेवियं फासुयं पडिग्गाहिज्जा || 344 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुःवा भिक्षुणी वा गृहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया अनुप्रविष्टः सन् स: यत् पुन: जानीयात् अशनं वा अष्टमीपौषधिकेषु वा अर्धमासिकेषु वा मासिकेषु वा द्विमासिकेषु वा, त्रिमासिकेषु वा, चातुर्मासिकेषु वा पचमासिकेषु वा षण्मासिकेषु वा ऋतुषु वा ऋतुसन्धिषु वा ऋतुपविर्तेषु वा बहून् श्रमण-ब्राह्मण-अतिथि-कृपणवानीपकान् एकस्मात् पिठरकात् भोज्यमानान् प्रेक्ष्य द्वाभ्यां पिठराभ्यां भोज्यमानान् प्रेक्ष्य त्रिभिः पिठरकेभ्य: भोज्यमानान् प्रेक्ष्य कुम्भीमुखात् वा पिच्छी-पिटकं वा पात्र-विशेषात् वा संनिधि-संनिचयात् वा भोज्यमानान् प्रेक्ष्य तथाप्रकारं अशनं वा अपुरुषान्तरकृतं यावत् अनासेवितं अप्रासुकं यावत् न प्रतिगृह्णीयात् / अथ पुनः एवं जानीयात् पुरुषान्तरकृतं यावत् आसेवितं प्रासुकं प्रतिगृह्णीयात् // 344 // III सूत्रार्थ : वह साधु व साध्वी गृहस्थों के घर में आहार प्राप्ति के निमित्त प्रविष्ट होने पर अशनादि Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-2-1 (344) 33 चतुर्विध आहार आदि के विषय में इस प्रकार जाने कि- यह अशनादि आहार अष्टमी पौषधव्रत विशेष के महोत्सव में एवं अर्द्धमासिक, मासिक, द्विमासिक, त्रिमासिक, चतुर्मासिक, पंचमासिक और पाण्मासिक महोत्सव में, तथा ऋतु, ऋतुसन्धि और ऋतु परिवर्तन महोत्सव में बहुत से श्रमण शाक्यादिभिक्षु, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण और भिखारियों को एक बर्तन से दो बर्तनों से एवं तीन और चार बर्तनों से परोसते हुए देखकर तथा छोटे मुख की कुम्भी और बांस की टोकरो से परोसते हुए देखकर एवं संचित किये हुए घी आदि पदार्थों को परोसते हुए देखकर इस प्रकार के ये अशनादि चतुर्विध आहार जो पुरुषान्तर कृत नहीं है यावत् अनासेवित एवं अप्रासुक है ऐसे आहार को मिलने पर भी साधु ग्रहण न करे। और यदि इस प्रकार जाने कि- यह आहार पुरुषान्तर कृत यावत् आसेवित प्रासुक और एषणीय है तो मिलने पर ग्रहण करें। IV टीका-अनुवाद : - वह साधु या साध्वीजी म. आहारादि के लिये गृहस्थों के घर में प्रवेश करने पर ऐसा देखे कि- अष्टमी पर्व के उपवासादिक पौषध-उत्सव है, तथा अर्धमासिक, मासिक आदि तथा ऋतु, ऋतु का अंतभाग और ऋतु का बदलना इत्यादि पर्व दिनो में बहुत सारे श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण एवं वनीपकों को एक पिठरक याने छोटे मुखवाला बर्तन (बटलोइ-तासला) में से कूर-चावल आदि लेकर दिये जा रहे आहारादि को भोजन करते हुए देखकर के... इसी प्रकार दो बर्तन, तीन बर्तन में से दिये जा रहे आहारादि को भोजन करते हुए देखकर तथा कुंभीमुख से या कलोवइ नाम के बर्तन से अथवा गोरस दूध आदि के संनिधि-संनिचय से दिये जा रहे आहारादि को भोजन करते हुए देखकर तथाप्रकार के आहारादि साधुओं के लिये बनाया गया अप्रासुक और अनेषणीय है ऐसा जानता हुआ साधु ऐसे आहारादि प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करें... अब जब ऐसा जाने कि- अन्य पुरुष के लिये बनाया हुआ है यावत् आसेवित हो प्रासुक एवं एषणीय हो तब उन आहारादि को ग्रहण करें। अब कौन से घरों (कुल) में आहारादि के लिये प्रवेश करें... वह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंते है... .v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु को उस समय गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रवेश नहीं करना चाहिए या प्रविष्ट हो गया है तो उसे आहार नहीं ग्रहण करना चाहिए क्योंकि जिसके यहां अष्टमी के पौषधोपवास का महोत्सव हो या इसी तरह अर्धमास, एकमास, दो, तीन, चार, पांच या छः मास के पौषधोपवास (तपश्चर्या) का उत्सव हो या ऋतु, ऋतु सन्धि (दो ऋतुओं का सन्धि काल) और ऋतु परिवर्तन (ऋतु का परिवर्तन-एक ऋतु के अनन्तर Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 2-1-1-2-2 (345) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन दूसरी ऋतु का आरम्भ होना) का महोत्सव हो और उसमें शाक्यादि भिक्षु, श्रमण-ब्राह्मण, अतिथि, रंक, भिखारी आदि को भोजन कराया जा रहा हो। यद्यपि यह भोजन आधाकर्मदोष से युक्त नहीं है, फिर भी सूत्रकार ने इसके लिए जो ‘अफासुयं' शब्द का प्रयोग किया है, इसका तात्पर्य यह है कि- ऐसा आहार तब तक साधु के लिए अकल्पनीय है कि- जब तक वह आहारादि पुरुषान्तर कृत नहीं हो जाता है। यदि यह आहार एकान्त रूप से शाक्यादि भिक्षुओं को देने के लिए ही बनाया गया है और उसमें से परिवार के सदस्य एवं परिजन आदि अपने उपभोग में नहीं लेते हैं, तब तो साधु को वह आहार नहीं लेना चाहिए। क्योंकि- इससे इन भिक्षुओं को अन्तराय लगती है। यदि परिवार के सदस्य एवं स्नेही-सम्बन्धी उसका उपभोग करते हैं, तो उनके उपभोग करने के बाद (पुरुषान्तर होने पर) साधु उसे ग्रहण कर सकते है। इसका तात्पर्य यह है कि- किसी भी उत्सव के प्रसंग पर अन्य मत के भिक्षु भोजन कर रहे हों तो उस समय वहां साधु का जाना उचित नहीं है। उस समय वहां नहीं जाने से मुनि संतोष एवं त्याग वृत्ति प्रकट होती है, उन भिक्षुओं के मन में किसी तरह की विपरीत भावना जागृत नहीं होती। अतः साधु को ऐसे समय विवेकपूर्वक कार्य करना चाहिए। साधु को किस कुल में आहार के लिए जाना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहेंगे... सूत्र // 2 // // 345 / / से भिक्खू वा 2 जाव समाणे से जाइं पुण कुलाइं जाणिज्जा तं जहाउग्गकुलाणि वा भोगकुलाणि वा राइण्णकुलाणि वा खत्तियकुलाणि वा इक्खागकुलाणि वा हरिवंशकुलाणि वा एसियकुलाणि वा वेसियकु लाणि वा गंडागकुलाणि वा कोट्टागकुलाणि वा गामरक्खगकुलाणि वा वुक्कासकुलाणि वा अण्णयरेसु वा तहप्पगारेसु कुलेसु अदुगुंछिएसु अगरहिएसु असणं वा 4 फासुयं जाव पडिग्गाहिज्जा || 345 // II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा 2 यावत् प्रवेष्टुकाम: सन् यानि पुनः कुलानि जानीयात्, तं जहाउग्र-कुलानि वा भोगकुलानि वा राजन्यकुलानि वा क्षत्रियकुलानि वा इक्ष्वाकुकुलानि वा हरिवंशकु लानि वा गोष्ठ कु लानि वा वणिग्-कु लानि वा नापितकु लानि वा काष्ठतक्षककुलानि वा ग्रामरक्षककुलानि वा तन्तुवायकुलानि वा अन्यतरेषु वा तथा प्रकारेषु कुलेषु अजुगुप्सितेषु अगषेषु अशनं वा 4 प्रासुकं यावत् प्रतिगृहणीयात् / / 345 // Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-2-2 (345) 35 III सूत्रार्थ : - साधु अथवा साध्वी गृहस्थ के घर में प्रवेश करते हुए इन कुलों को जाने, यथा उग्रकुल, भोगकुल, राजन्य कुल, क्षत्रियकुल, इक्ष्वाकुकुल, हरिवंशकुल, गोपालादिकुल, वैश्यकुल, नापितकुल, वर्धकी (बढई) कुल, व्यामरक्षक कुल और तन्तुवाय कुल तथा इसी प्रकार के और भी अनिन्दित, अगर्हित कुलों में से प्रासुक अन्नादि चतुर्विध आहार यदि प्राप्त हो तो साधु उसे स्वीकार कर ले। ' IV टीका-अनुवाद : सः भिक्षु वा 2 भिक्षा याने आहारादि के लिये गृहस्थों के घर में प्रवेश करने की इच्छा हो तब उच्च कुलों के घर को देखकर प्रवेश करे... वे इस प्रकार- उयकुल याने आरक्षकादि, भोगकुल याने राजा को आदरणीय, राजन्यकुल याने राजा के मित्र स्वरूप, क्षत्रियकुल राष्ट्रकूटादि, इक्ष्वाकुकुल ऋषभदेव के वंशवाले, हरिवंशकुल नेमिनाथ भगवान् के वंशवाले, गोष्ठ, वणिग्, गंडक याने गांव में उद्घोषणा करनेवाले नापित, कोट्टाग याने काष्ठतक्षक वार्द्धकी (सुथार) तथा बुक्कस याने तंतुवाय (वणकर) ऐसे अन्य भी कुल है जो कि- निंदनीय न हो और गर्हणीय न हो, विभिन्न देश के विनेय याने श्रमणों को सुगमता से समझ में आये अतः पर्याय शब्द से कहतें हैं कि- अंगहणीय कुलों में से आहारादि प्रासुक एवं एषणीय होने पर ग्रहण करें.. v सूत्रसार : / प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु को भिक्षा के लिए कौनसे कुलों में जाना चाहिए। वर्तमान काल चक्र में भगवान ऋषभदेव के राज्यकाल पहले भरत क्षेत्र में भोगभूमि " (अकर्मभूमी) थीं। वर्तमान काल चक्र के तीसरे आरे के तृतीय भाग में भगवान ऋषभदेव का जन्म हुआ था और उसके बाद भोग भूमिका स्थान कर्म भूमि ने ले लिया। भगवान ऋषभदेव ही प्रथम राजा, प्रथम मुनि एवं प्रथम तीर्थंकर थे, इनके युग से वर्ण व्यवस्था एवं कुल आदि परम्परा का प्रचलन हुआ। उसी के आधार पर बने हुए कुलों का सूत्रकार ने उल्लेख किया है। जैसे- १-उपकुल-रक्षककुल, जो जनता की रक्षा के लिए सदा सन्नद्व तैयार रहता है, २-भोगकुल-राजाओं के लिए सम्माननीय है। 3-राजन्यकुल-मित्र के समान व्यवहार करनेवाला कुल, ४-क्षत्रिय कुल-जो प्रजा की रक्षा के लिए शत्रों को धारण करता था। ५इक्ष्वाकु कुल-भगवान ऋषभदेव का कुल, ६-हरिवंश कुल-भगवान अरिष्ट नेमिनाथ का कुल, ७-एष्य कुल-गोपाल आदि का कुल, वैश्यकुल-वणिक्लोग... ८-यामरक्षक कुल-कोतवाल आदि का कुल, ९-गण्डक कुल-नाई आदि का कुल, १०-कुट्टाक, ११-वर्द्व की और १२बुक्कस-तन्तुवाय आदि के कुल एवं इसी तरह के अन्य कुलों से भी साधु आहार ग्रहण कर सकता है, जो निन्दित एवं घृणित कर्म करनेवाले न हो। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 2-1-1-2-3 (346) -3 (346) श्रीर श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन प्रस्तुत प्रकरण में क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र इन तीनों कुलों का स्पष्ट उल्लेख हुआ है, परन्तु ब्राह्मण कुल का कहीं नाम नहीं आया। इसके दो कारण हो सकते हैं- १-ब्राह्मण वर्ण की स्थापना भगवान ऋषभदेव ने नहीं की थी, बल्कि उनके दीक्षित होने के बाद भरत ने की थी। उनका वर्ण पीछे से आरम्भ हुआ इस कारण उसका उल्लेख नहीं किया है। २-प्रस्तुत सूत्र में भोग कुल का उल्लेख किया गया है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ राजाओं का पूजनीय कुल कहा है। ब्राह्मण प्रायः पठन-पाठन के कार्य में ही संलग्न रहते थे एवं निस्पृह भी होते थे। इस कारण राजा लोग उनका सम्मान करते थे। अतः हो सकता है कि- भोग कुल से ब्राह्मण कुल का उल्लेख किया गया हो। ___एष्य कुल से गौरक्षा एवं पशु पालन करनेवाले कुलों तथा वैश्य कुल से कृषि कर्म एवं व्यापार के द्वारा अल्पारम्भी जीवन बितानेवाले कुलों का निर्देश किया गया है। 3-गण्डाकनाई आदि के कुल से केशालंकार एवं गांव में किसी तरह की उद्घोषणा आदि कराने की प्रवृत्ति का तथा कुट्टाक, वर्द्वकी आदि कुलों से भवन निर्माण एवं काष्ठ कला की और तन्तुवाय कुल से वस्त्र कला की परम्परा का संकेत मिलता है। इस तरह उक्त कुलों के निर्देश से उस युग की राष्ट्रीय एवं सामाजिक व्यवस्था का पूरा परिचय मिलता है। अन्य अनिन्दनीय कुलों से शिल्प एवं विज्ञान आदि के कुशल कलाकारों का निर्देश किया गया है। अतः प्रस्तुत सूत्र ऐतिहासिक विद्वानों, एवं रिसर्च (खोज) करनेवाले विद्यार्थियों के लिए बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहेंगे... I सूत्र || 3 || || 346 / / से भिक्खू वा 2 जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा असणं वा 4 समवाएसु वा पिंडनियरेसु वा इंदमहेसु वा खंदमहेसु वा एवं रुद्दमहेसु वा मुगुंदमहेसु वा भूयमहेसु वा जखमहेसु वा नागमहेसु वा थूभमहेसु वा चेइयमहेसु वा रुक्खमहेसु वा गिरिमहेसु वा दरिमहेसु वा अगडमहेसु वा तलागमहेसु वा दहमहेसु वा दइमहेसु वा सरमहेसु वा सागरमहेसु वा आगरमहेसु वा अण्णयरेसु वा तहप्पगारेसु विरूवरूवेसु महामहेसु वट्टमाणेसु बहवे समणमाहण अतिहि किविण वप्पीमगे एगाओ उक्खाओ परिएसिज्जमाणे पेहाए दोहिं जाव संनिहिसंनिचयाओ वा परिएसिज्जमाणे पेहाए तहप्पगारं असणं वा 4 अपुरिसंतरकडं जाव नो पडिग्गाहिज्जा। अह पुण एवं जाणिज्जा दिण्णं जं तेसिं दायट्वं, अह तत्थ भुंजमाणे पेहाए गाहावइभारियं वा गाहावइभगिणिं वा गाहावइपुत्तं वा धुयं वा सुण्हं वा धाई वा दासं वा दासिं वा कम्मकरं वा कम्मकरिं वा से पुव्वामेव आलोइज्जा आउसित्ति वा भगिणित्ति वा दाहिसि मे इत्तो अण्णयरं भोयणजायं, से सेवं वयंतस्स परो असणं वा आहट्ट Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-2-3 (346) 37 दलइज्जा तहप्पंगारं असणं वा 4 सयं वा पुण जाइज्जा, परो वा से दिज्जा, फासुयं जाव पडिग्गाहिज्जा // 346 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा 2 यावत् प्रविष्टः सन् सः यत् पुन: जानीयात् अशनं वा 4 समवायेषु वा पिण्डनिकरेषु वा इन्द्रमहेषु वा स्कन्दमहेषु वा एवं रुद्रमहेषु वा मुकुन्दमहेषु वा भूतमहेषु वा यक्षमहेषु वा नागमहेषु वा स्तूपमहेषु वा चैत्यमहेषु वा वृक्षमहेषु वा गिरिमहेषु वा दरिमहेषु वा अवटमहेषु वा तडागमहेषु वा द्रहमहेषु वा नदीमहेषु वा सरोवरमहेषु वा सागरमहेषु वा आकरमहेषु वा अन्यतरेषु वा तथा प्रकारेषु विरूपसपेथु महामहेषु वर्तमानेषु बहून् श्रमण-ब्राह्मण-अतिथि-कृपण-वनीपकान् एकरमात् पिठरकात् (सङ्कटमुखपात्र विशेषात्) दीयमानाहारेण भोज्यमाननान् प्रेक्ष्य द्वाभ्यां वा यावत् संनिधि-संनिचयात् वा भोज्यमानान् प्रेक्ष्य तथाप्रकारं अशनं वा 4 अपुरुषान्तरकृतं यावत् न प्रतिगृहणीयात् / अथ पुनः एवं जानीयात् दत्तं यत् तेषां दातव्यम्, अथ तत्र भुज्यमानान् प्रेक्ष्य गृहपतिभार्यां वा गृहपतिभगिनीं वा गृहपतिपुत्रं वा दुहितारं वा स्नुषां-पुत्रवधू वा धात्री वा दासं वा दासी वा कर्मकरं वा कर्मकरी वा सः पूर्वमेव आलोचयेत् हे आयुष्यमति ! इति वा हे भगिनि ! इति वा दास्यसि मह्यं इत: अन्यतरं भोजनजातं, तस्य (तस्मै) सा (स:) एवं वदतः (वदते) पर: अशनं वा 4 आहृत्य दद्यात् तथा प्रकारं अशनं वा 4 स्वयं वा पुनः याचेत, परः वा तस्मै दद्यात्, प्रासुकं यावत् प्रतिगृहणीयात् // 346 / / IIH: सूत्रार्थ : साधु व साध्वी गृहस्थ के घर में प्रविष्ट होने पर यदि यह जाने कि- यहां पर महोत्सव के लिए जन एकत्रित हो रहे है, तथा पितृपिण्ड याने मृतक के निमित्त भोजन हो रहा है या इन्द्रमहोत्स्व, स्कन्दमहोत्सव, रुद्रमहोत्स्व, मुकुन्दबलदेव महोत्सव, भूत महोत्सव, यक्ष महोत्सव, इसी प्रकार नाग, स्तूप, चैत्य, वृक्ष, गिरि, गुफा, कूप, तालाब, हृद (झील) उदधि, सरोवर सागर और आकर संबंधित महोत्सव हो रहा हो तथा इसी प्रकार के अन्य महोत्सवों पर बहुत से श्रमण-ब्राह्मण, अतिथि, कृपण और भिखारी लोगों को एक बर्तन से पुरोसता हुआ देख कर दो थालियों से यावत् संचित किये हुए घृतादि स्निग्ध पदार्थों को पुरोसते हुए देखकर तथाविध आहार-पानी जब तक अपुरुषान्तरकृत है यावत् मिलने पर भी साधु ग्रहण न करे। और यदि इस प्रकार जाने कि- जिनको देना था उन्हें दिया जा चुका है तथा वहां पर यदि उन गृहस्थों को भोजन करते हुए देखे तो उस गृहपति की भार्या से, गृहपति की भगिनी से; गृहपति के पुत्र से, गृहपति की पुत्री से, पुत्रवधु से, धाव माता से, दास-दासी Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 2-1-1-2-3 (346) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन नौकर-नौकरानी से पूछे कि- हे आयुष्मति ! भगिनि ! मुझे इन खाद्य पदार्थों में से अन्यतर भोजन दोगी ? इस प्रकार बोलते हुए साधु के प्रति यदि गृहस्थ चार प्रकार का आहार लाकर र की साधु स्वयमेव याचना करे या गृहस्थ स्वयं दे और वह आहार पानी प्रासुक और एषणीय हो तो साधु उसे व्यहण कर ले। IV टीका-अनुवाद : सः भिक्षुः = वह साधु आहारादि को ऐसा जाने कि- यह आहारादि अपुरुषांतरकृत आदि विशेषणवाला अप्रासुक एवं अनेषणीय है, तब उस आहारादि को ग्रहण न करे... जैसे कि- समवाय याने शंख छेद श्रेणी आदि का मेला... पिंडनिकर याने पितृपिंड... इंद्र-उत्सव... स्वामी कार्तिकेय की पूजा-महिमा... रूद्र (शंकर-महादेव) मुकुंद याने बलदेव... इत्यादि विभिन्न प्रकार के महोत्सवो में यदि जो कोई श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण, वनीपकादि आये हो तब उन्हें यह आहारादि दिया जाता है ऐसा जानने पर साधु उन आहारादि को ग्रहण न करें... यद्यपि सभी को न भी दें तो भी लोगों की भीडवाले उस महोत्सव में बनाये हुए आहारादि को "संखडी" दोष के कारण से ग्रहण न करें... किंतु जब ऐसा जाने कि- यह आहारादि उन श्रमण आदि को देने योग्य दे दीया है, और बाद में वे गृहस्थ स्वयं ही उस आहारादि का भोजन करतें हैं, ऐसा देखकर आहारादि के लिये साधु वहां जाय... और उन गृहस्थों को मान देकर कहे... जैसे कि- गृहस्थ की भार्यादि को भोजन करते हुए देखे और स्वामी को या स्वामी के आदेशकर को कहे कि- हे आयष्यमती! हे भगिनी (बहन ) आप मझे यह आहारादि दोगे क्या ? इस प्रकार बोलने वाले साधु को वह गृहस्थ आहारादि लाकर दे... वहां लोगों की भीड होने से या अन्य कोई कारण होने पर साधु स्वयं ही याचना करे अथवा बिना याचना किये ही गृहस्थ वह आहारादि साधु को दे, तब प्रासुक एवं एषणीय देखकर साधु उस आहारादि को ग्रहण करे.. अब दुसरे गांव विषयक बात सूत्रकार महर्षि. आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- यदि गृह प्रवेश, नामकरण आदि उत्सव तथा मृतक कर्म या इन्द्र, स्कन्द एवं रुद्र आदि से सम्बन्धित उत्सवों के अवसर पर शाक्यादि भिक्षु, श्रमण-ब्राह्मण, गरीब-भिखारी आदि गृहस्थ के घर पर भोजन कर रहे हो और वह भोजन पुरुषान्तर कृत नहीं हुआ हो तो साधु उसे अनेषणीय समझकर ग्रहण न करे। यदि अन्य भिक्ष आदि भोजन करके चले गए हैं, अब केवल उसके परिवार के सदस्य, परिजन एवं दासदासी ही भोजन कर रहे हों, तो उस समय साधु प्रासुक एवं एषणीय आहार की याचना कर सकता है या उस घर का कोई सदस्य साधु को आहार ग्रहण करने के लिये प्रार्थना करे Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-2-4 (347) 39 तो वह उसे ग्रहण कर सकता है। ___प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त ‘पिण्ड नियरेसु' का अर्थ है-मृतक के निमित्त तैयार किया गया भोजन / प्रस्तुत सूत्र से यह स्पष्ट होता है कि- उस समय इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, बलदेव, भूत, यक्ष, नाग आदि के उत्सव मनाए जाते थे, और इन अवसरों पर गृहस्थ लोग अपने ज्ञातिजनों के साथ प्रीति भोज करते थे। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'स्तूप एवं चैत्य' शब्द एकार्थक नहीं, किन्तु, भिन्नार्थक है। मृतक की चिता पर उसकी स्मृति में बनाया गया स्मारक स्तूप' कहलाता है और यक्ष आदि का आयतन 'चैत्य' कहलाता है। यहां प्रयुक्त महोत्सव भौतिक कामनाओं के लिए किए जाते रहे हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि- चैत्य शब्द का प्रयोग जिनेश्वर तीर्थकर भगवान् की प्रतिमा या मन्दिर के लिए प्रयुक्त नहीं हुआ है। उक्त शब्द यक्षायतन या व्यन्तरायतन का परिबोधक है। अब सूत्रकार व्यामान्तरीय आचार का वर्णन करते हुए आगे का सूत्र कहेंगे... I सूत्र // 4 // // 347 // से भिक्खू वा 2 परं अद्धजोयणमेराए संखडिं नच्चा संखडिपडियाए नो अभिसंधारिज्जा गमणाए। से 'भिक्खू वा 2 पाईणं संखडिं नच्चा पडीणं गच्छे अणाढायमाणे, पडीणं संखडिं नच्चा पाईणं गच्छे अणाढायमाणे, दाहिणं संखडिं नच्चा उदीणं गच्छे अणाढायमाणे, उदीणं संखडिं नच्चा दाहिणं गच्छे अणाढायमाणे, जत्थेव सा संखडी सिया, तं जहा-गामंसि वा नगरंसि वा खेडंसि वा कब्बडंसि वा मडंबंसि वा पट्टणंसि वा आगरंसि वा दोणमुहंसि वा नेगमंसि वा आसमंसि वा संनिवेसंसि वा जाव रायहाणिंसि वा संखडिं संखडिपडियाए नो अभिसंधारिज्जा गमणाए केवली बूया - आयाणमेयं संखडि संखडिपडियाए अभिधारेमाणे आहाकम्मियं वा उद्देसियं वा .मीसजायं वा कीयगडं वा पामिच्चं वा अच्छिज्जं वा अणिसिटुं वा अभिहडं वा आहट्ट दिज्जमाणं भुंजिज्जा। .. असंजए भिक्खुपडियाए खुड्डियदुवारियाओ महल्लियदुवारियाओ कुज्जा, महल्लियदुवारियाओ खुड्डियदुवारियाओ कुज्जा, समाओ सिज्जाओ विसमाओ कुज्जा, विसमाओ सिज्जाओ समाओ कुज्जा, पवायाओ सिज्जाओ निवायाओ कुज्जा, निवायाओ सिज्जाओ पवायाओ कुज्जा, अंतो वा बहिं वा उवस्सयस्स हरियाणि छिंदिय छिंदिय दालिय दालिय संथारगं संथारिज्जा, एस विलुंगयामो सिज्जाए, तम्हा से संजए नियंठे तहप्पगारं पुरे संखडिं वा पच्छा संखडिं वा संखडिं संखडिपडियाए नो अभिसंधारिज्जा गमणाए, एवं खलु तस्स भिक्खुस्स जाव सया जए | 347 // Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 . 2-1-1-2-4 (347) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा 2 परं अर्धयोजनमर्यादायां सङ्खडिं ज्ञात्वा सङ्खडिप्रतिज्ञया न अभिसन्धारयेत् गमनाय / सः भिक्षुः वा प्राचीनां सङ्खडिं ज्ञात्वा प्रतीचीनां गच्छेत् अनाद्रियमाणः, प्रतीचीनां सङ्खडिं ज्ञात्वा प्राचीनां गच्छेत् अनाद्रियमाणः, दक्षिणां सलडिं ज्ञात्वा उदीचीनां गच्छेत् अनाद्रियमाणः, उदीचीनां सङ्खडिं ज्ञात्वा दक्षिणां गच्छेद् अनाद्रियमाणः, यत्रैव सा सवडि: स्यात् तद्-यथा-ग्रामे वा नगरे वा खेटके वा कर्बटके वा मडम्बे वा पत्तने वा आकरे वा द्रोणमुखे वा नैगमे वा आश्रमे वा सन्निवेशे वा यावत् राजधान्यां वा सङ्खडिं सङ्खडिप्रतिज्ञया न अभिसन्धारयेत् गमनाय, केवली ब्रूयात्-आदानमेतत् सङ्खडिं सखडिप्रतिज्ञया अभिधारयन् आधाकर्मिकं वा औदेशिकं वा मिश्रजातं वा क्रीतकृतं वा प्रामित्यं वा आच्छेद्यं वा अनिसृष्टं वा अभिहृतं वा आहृत्य दीयमानं भुञ्जीत। असंयत: भिक्षुप्रतिज्ञया क्षुद्रद्वारा: महाद्वाराः कुर्यात्, महाद्वाराः क्षुद्रद्वाराः कुर्यात् समाः शय्याः विषमाः कुर्यात्, विषमाः शय्याः समाः कुर्यात्, प्रवाताः शय्याः निवाता: कुर्यात्, निवाता: शय्या: प्रवाताः कुर्यात्, अन्तः वा बहिः वा उपाश्रयस्य हरितानि छित्त्वा छित्त्वा विदार्य विदार्य संस्तारकं संस्तारयेत्, एषः निर्ग्रन्थः शय्यायाः / तस्मात् सः संयत: निर्ग्रन्थः तथाप्रकारां पुरःसङ्खडिं वा पश्चात्सलडिं वा सङ्खडिं सङ्खडिप्रतिज्ञया न अभिसन्धारयेत् गमनाय, एवं खलु तस्य भिक्षोः यावत् सदा यतः // 347 // III सूत्रार्थ : साधु व साध्वी अर्द्ध योजन प्रमाण संखडि-जीमनवार को जानकर आहार लाभ के निमित्त जाने का संकल्प न करे। यदि पूर्व दिशामें प्रीतिभोज हो रहा है तो साधु उसका अनादर करता हुआ पश्चिम दिशा में जावे और पश्चिम दिशा में हो रहा है तो उसका अनादर करता हुआ पूर्व दिशा को जाए। इसी प्रकार दक्षिण दिशा में हो रहा है तो उसका निरादर करता हुआ उत्तर दिशा को, और उत्तर दिशा में हो रहा है तो उसका आदर न करता हुआ दक्षिण दिशा को जाए। तथा जहां पर संखडी हो, जैसे कि- याम में, नगर में, खेट में, कर्बट में एवं मडंब, पत्तन, आकर, द्रोणमुख, नैगम, आश्रम और सनिवेश, यावत् राजधानी में होनेवाली संखडी में स्वादिष्ट भोजन लाने की प्रतिज्ञा से जाने के लिये मन में इच्छा न करे। केवली भगवान कहते हैं- कि यह कर्म बन्ध का मार्ग है। संखडी में संखडी की प्रतिज्ञा से जाता हुआ साधु यदि वहां जाकर दिए हुए को खाता है तो वह आधाकर्मिक, औद्देशिक, मिश्रजात, क्रीतकृत, उधार लिया हुआ, छीना हुआ, दूसरे की बिना आज्ञा लिया हुआ और सन्मुख लाया हुआ खाता है। तात्पर्य यह है कि- यदि साधु वहां जाएगा तो संभव है कि- उसे सदोष आहार खाना पड़ेगा। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-2-4 (347) 41 IV टीका-अनुवाद : ' वह साधु उत्कृष्ट से अर्ध योजन प्रमाण क्षेत्र में जहां, अनेक अस एवं स्थावर जीवों की विराधना होती हो ऐसी संखडि को जानकर संखडि में जाने की इच्छा से वहां जाने का चिंतन न करे, अर्थात् वहां न जायें... किंतु जब ग्रामानुयाम विहार की परिपाटि से वहां जाने का पहले से ही प्रयाण हो गया हो, और वहां संखडि है ऐसी जानकारी प्राप्त हो तब यदि पूर्व दिशा में संखडि हो तो संखडि का अनादर करता हुआ पश्चिम दिशा में जाएं और पश्चिम दिशा में संखडि हो तो पूर्व दिशा में जाएं... इसी प्रकार यदि दक्षिण दिशा में संखडि हो तो उत्तर दिशा में जायें और उत्तर दिशा में संखडि हो तो दक्षिण दिशा में जाएं... यहां सारांश यह है कि- जहां संखडि हो वहां न जाएं... ___ यह संखडि गांव में हो या (नगर) शहर में हो जहां व्याम्य धर्मो की बहुलता हो वह व्याम एवं जहां कर न हो वह नकर याने नगर... तथा धूलि के प्राकार याने कोटवाले खेट, कर्बट याने तुच्छ नगर... तथा जहां चारों ओर आधा योजन दूर गांव हो वह मडंब, तथा जहां जल मार्ग और स्थलमार्ग में से कोई भी एक मार्ग प्रवेश एवं निर्गमन के लिये हो वह पत्तन, तथा तामादि धातुओं की उत्पत्तिस्थान को आकर कहते हैं, तथा जहां जलमार्ग एवं स्थलमार्ग दोनों हो वह द्रोणमुख तथा वणिग लोगों का जो स्थान वह नैगम... तथा जो तीर्थस्थान हो .वह आश्रम... तथा जहां राजा का निवास हो वह राजधानी, तथा जहां बहुत ही करियाणे का प्रवेश हो वह संनिवेश... अतः ऐसे स्थानो में संखडि को जानकर संखडि की प्रतिज्ञा से वहां न जाएं... जाने का विचार भी न करें... क्योंकि- केवलज्ञानी कहतें हैं कि- यह आदान याने कर्मबंध का कारण है. अथवा संखडि में जाना यह दोषों का घर है... क्योंकि- जहां जहां संखडि हो वहां वहां जाने की इच्छा से जो साधु जाता है, उस साधु को कोई भी एक दोष लगता है... वे दोष यह हैं... 1. आधाकर्म, 2. औद्देशिक 3. मिश्रजात 4. खरीदा हुआ (क्रीत), उद्यतक याने उच्छीना लिया हुआ, आच्छेद्य याने बलात्कार से ले लिया गया हो, तथा अनिसृष्ट याने आहारादि के स्वामी ने दान देने की अनुमति न दी हो, तथा अभ्याहृत इत्यादि दोषों में से कोई भी दोषवाले आहारादि को साधु न वापरें... अर्थात् उन आहारादि का भोजन न करें... क्योंकिवह संखडि को करनेवाला गृहस्थ "साधु को दान देना चाहिए" ऐसा सोचकर आधाकर्मादि दोष उत्पन्न करे, अथवा जो साधु आहारादि की लोलुपता से संखडि में जाने की इच्छा से वहां जाता है तब वह साधु आधाकर्मादि दोषवाले आहारादि का भोजन करे... तथा संखडि को देखकर वहां आनेवाले साधुओं को देखकर असंयत गृहस्थ या प्रकृतिभद्रक मनुष्य साधुओं को आते हुए देखकर छोटे द्वार को बडा द्वार करे, अथवा कार्य की अपेक्षा से व्यत्यय याने इससे विपरीत भी करें... तथा सम वसति को श्रावकों के आने के भय से विषम करें... अथवा साधुओं को समाधि हो ऐसा सोचकर इससे विपरीत भी करें... तथा पवन आनेवाली वसति Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 2-1-1-2-4 (347) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन (शय्या) को ढंडी के भय से निवात करें, अथवा ग्रीष्मकाल में इस से विपरीत याने पवन नहि आनेवाली वसति को प्रवात याने "पवन आवे" ऐसा करें... तथा उपाश्रय के अंदर या बाहर वनस्पति-घास का छेद करके अथवा भेदन करके उपाश्रय का संस्कार करें... अथवा संथारे का संस्तारण करें... गृहस्थ यह सोचकर संस्कार करें कि- यह साधु शय्या (वसति) को संस्कार करने में सोचे कि- हम तो निग्रंथ, अकिंचन हैं अतः वह गृहस्थ स्वयं ही वसति (उपाश्रय) का संस्कार करे... तथा विशेष कारण होने पर साधु भी वसति का संस्कार करें... इस प्रकार अनेक दोषवाली संखडि को जानकर साधु वहां जाने का विचार भी न करें... पुरः संखडि याने जन्म, नामकरण, और विवाह आदि तथा मरण आदि के कारण से होने वाली संखडि को पश्चात् संखडि कहतें हैं... अथवा पुरः याने आगे के थोडे हि दिनों में संखडि होगी ऐसा जानकर उन दिनों के आने के पहले हि साधु वहां से विहार करें... अथवा वसति को गृहस्थ हि संस्कृत = संस्कारवाली करें क्योंकि- संखडि पूर्ण हो चुकी है अतः उसकी शेष ग्रहण करने के लिये साधु आयेंगे... अतः सूत्रकार महर्षि कहतें हैं कि- सर्व प्रकार से सभी संखडि में जाने की इच्छा से साधु वहां गमन न करें... ऐसा होने से हि उस भिक्षु याने साधु को संपूर्ण भिक्षुभाव याने सच्ची साधुता प्राप्त होती हैं... अर्थात् भावसाधु सर्व प्रकार से संखडि में जाने का त्याग करें... V सूत्रसार : . ___ प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु को सरस एवं स्वादिष्ट पदार्थ प्राप्त करने की अभिलाषा से संखडी-बडे जीमनवार या प्रीतिभोज में भिक्षा को नहीं जाना चाहिए। उस स्थान में ही नहीं अपितु जहां पर प्रीतिभोज आदि हो रहा हो उस दिशा में भी आहार को नहीं जाना चाहिए। इससे साधु की आहार वृत्ति की कठोरता एवं स्वाद पर विजय की बात सहज ही समझ में आ जाती है। ऐसे आहार को भगवान ने आधाकर्म आदि दोषों से युक्त बताया है। इससे स्पष्ट है कि- साधु यदि ऐसे प्रसंग पर वहां आहार के लिए जाएं तो अप्रासुक एवं अनेषणीय आहार लेना होगा। क्योंकि- अत्यधिक आरम्भ-समारम्भ होने से वह सचित्त आदि पदार्थों के स्पर्श का ध्यान नहीं रख सकता, देने में भी अविधि हो सकती है और साधु को उस दिशा में आता हुआ देखकर कुछ विशिष्ट पदार्थ भी तैयार किए जा सकते हैं या उन्हें साधु के लिए इधर-उधर रखा जा सकता है। अतः साधु को ऐसे प्रसंग पर आहार को नहीं जाना चाहिए। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-2-4 (347) 43 'संखडि' शब्द का अर्थ होता है-'संखण्ड्यन्ते-विराध्यन्ते प्राणिनो यत्र सा संखडिः' अर्थात् जहां पर अनेक जीवों के प्राणों का नाश करके भोजन तैयार किया जाता है, उसे 'संखडि' कहते हैं। वर्तमान में इसे भोजनशाला कहते हैं। इसका गूढ अर्थ महोत्सव एवं विवाह आदि के समय किया जानेवाला सामूहिक जिमनवार से लिया जाता है। ऐसे स्थानों पर शुद्ध, निर्दोष, एषणीय एवं सात्त्विक आहार उपलब्ध होना कठिन है, इसलिए साधु के लिए वहां आहार को जाने का निषेध किया गया है। उस समय गांव एवं नगरों में तो संखडी होती ही थी। इसके अतिरिक्त खेट-धूल के कोटवाले स्थान, कुत्सित नगर, मडंब-जिस गांव के बाद 5 मील पर गांव बसे हुए हों, पतन-जहां पर सब दिशाओं से आकर माल बेचा जाता हो (व्यापारिक मण्डी) आकर-जहां ताम्बे, लोहे आदि की खान हों, द्रोणमुख-जहां जल और स्थल प्रदेश का मेल होता हो, नैगमव्यापारिक बस्ती, आश्रम, सनिवेश-सराय (धर्मशाला) छावनी आदि। ये स्थान ऐतिहासिक गवेषण की दृष्टि से बडा महत्त्व रखते हैं। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'आयाणमेयं' का अर्थ है-कर्म बन्ध का हेतु / कुछ प्रतियों में 'आयाणमेयं' के स्थान पर 'आययणमेयं' ऐसा पाठ भी मिलता है। इसका अर्थ है-यह कार्य दोषों का स्थान है, जहां इतना स्मरण रखना चाहिए कि- यह वर्णन उत्कृष्ट उत्सर्ग पक्ष को लेकर किया गया है, जघन्य-सामान्य अपवाद पक्ष को लेकर नहीं। संखडी में जाने से कौन से दोष लग सकते है, इसका उल्लेख सूत्रकार महर्षि तृतीय उद्देशक में कहेंगे... // प्रथम चूलिकायां प्रथमे पिण्डैषणाध्ययने द्वितीय: उद्देशकः समाप्तः // : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य थधुंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट -परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 2-1-1-2-4 (347) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. "श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपद की पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. // राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058. KAaw ALE V Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी- हिन्दी-टीका 2-1-1-3-1 (348) 45 %3 . आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 1 अध्ययन - 1 उद्देशक - 3 म पिण्डैषणा द्वितीय उद्देशक कहा, अब तृतीय उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं, यहां परस्पर यह संबंध है कि- दुसरे उद्देशक में दोष के कारण से संखडि में जाने का निषेध किया... अब यहां अन्य प्रकार से संखडि के दोष कहतें हैं... I सूत्र // 1 // // 348 // से एगइओ अण्णयरं संखडिं आसित्ता पिबित्ता छट्ठिज वा वमिज वा भुत्ते वा से नो सम्मं परिणमिज्जा, अण्णयरे वा से दुक्खे रोगायंके समुप्पजिज्जा, केवली बूया आयाणमेयं // 348 // II संस्कृत-छाया : .. . सः एकदा अन्यतरां सलडिं आस्वाद्य पीत्वा छर्दि विदध्यात् वा, वमेत् वा, भुक्ते सति वा तस्य न सम्यक् परिणमेत्, अन्यतरः वा तस्य दुःखः, रोगातङ्कः समुत्पद्येत, केवली ब्रूयात्- आदानं एतत् // 348 // III सूत्रार्थ : संखडी में गए हुए साधु को वहां अधिक सरस आहार करने एवं अधिक दूधादि पीने * के कारण उसे वमन हो सकता है या उस आहार का सम्यक्तया पाचन नहीं होने से विसूचि का, ज्वर या शूलादि रोग उत्पन्न हो सकते हैं। इसलिए भगवान ने संखडी में जाने के कार्य को कर्म आने का कारण कहा है। . IV टीका-अनुवाद : वह साधु कभी कोई समय एकाकी हो, और कोई भी पुरःसंखडि या पश्चात् संखडि (संखडि याने संखडि में बनाये गये आहारादि) का अतिशय लोलुपता एवं रसगृद्धि के कारण से भोजन, पान करके छर्दि याने वमन करें, अथवा पाचन ठीक न होने से पेट में चूंक आवे, विशूचिका हो अथवा अन्य कुष्ठादि रोग हो, अथवा तत्काल जीवित विनाशक आतंक-पीडा शूल आदि उत्पन्न हो, अतः सर्वज्ञ केवलज्ञानी महाराज कहतें हैं कि- यह संखडि का भोजन आदान याने कर्मबंध का कारण है... Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 2-1-1-3-2 (349) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन %3 अब यह संखडि का भोजन जिस प्रकार आदान होता है वह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : यह हम देख चुके हैं कि- साधु को संखडी में आहार के लिए जाने का निषेध किया गया है। पूर्व उद्देशक में बताया गया है कि- वहां जाने से साधु को अनेक दोष लगने की सम्भावना है। प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि- संखडि में आहार के लिये जाने से साधु को शारीरिक एवं मानसिक दोष होता है क्योंकि- संखडि में सरस एवं प्रकाम भोजन बनता है और दूध आदि पेय पदार्थ भी होते हैं अतः सरस एवं स्वादिष्ट पदार्थों के कारण वे अधिक खाए जा सकते हैं। इससे साधु को वमन हो सकती है, या पाचन क्रिया ठीक न होने से विसूचिका, शूल आदि भयंकर रोग हो सकते हैं और उसके कारण उसकी तुरन्त मृत्यु भी हो सकती है। इस तरह आर्त एवं रौद्र ध्यान में प्राण त्याग करके वह दुर्गति में जा सकता है। इसलिए साधु को ऐसे स्थानों में आहार आदि को नहीं जाना चाहिए। I सूत्र // 2 // // 349 // इह खलु भिक्खू गाहावईहिं वा गाहावईणीहिं वा, परिवायएहिं वा परिवाईयाहिं वा एगजं सद्धिं सुंडं पाउं जो वइमिस्सं हुरत्था वा उवस्सयं पडिलेहेमाणो नो लभिजा तमेव उवस्सयं संमिस्सीभावमावजिजा, अण्णमणे वा से मत्ते ,विप्परियासियभूए इत्थिविग्गहे वा किलिबे वा तं भिक्खं उवसंकमित्तु बूया-आउसंतो समणा ! अहे आरामंसि वा अहे उवस्सयंसि वा राओ वा वियाले वा गामधम्मनियंतियं कट्ट रहस्सियं मेहुणधम्मपरियारणाए आउट्ठामो, तं चेवेगइओ सातिजिज्जा अकरणिज्जं चेयं संखाए एए आयाणा आयतणाणि संति संविजमाणा पच्चवाया भवंति, तम्हा से संजए नियंठे तहप्पगारं पुरेसंखडिं वा पच्छासंखडिं वा संखडिं संखडिपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए // 349 // II संस्कृत-छाया : इह खलु भिक्षुः गृहपतिभिः वा गृहपतिभाभिः वा, परिव्राजकै : वा परिवाजिकाभिः वा, एका सार्द्ध सीधुं पातुं यः व्यतिमिश्रं बहिः वा उपाश्रयं प्रत्युपेक्षमाण: न लभेत, तमेवोपाश्रयं संमिश्रीभावमापद्येत, अन्यमनाः वा सः मत्तः विपर्यासीभूतः स्त्रीविग्रहः वा क्लिबः वा तं भिv उपसङ्क्रम्य ब्रूयात् हे आयुष्यमन्तः श्रमणाः ! . आरामे वा उपाश्रये वा रात्रौ वा विकाले वा ग्रामधर्मनियन्त्रितं कृत्वा रहसि मैथुबधर्मासेवनया प्रवर्तामहे, तां चैव एकाकी अभ्युपगच्छेत्, अकरणीयं चैतत् सच्याय Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-3-2 (349) 47 एते आदानाः, (आयतनानि) सन्ति, सञ्चियमानानि प्रत्यपायाः भवन्ति, तस्मात् स: संयत: निर्गन्थ: तथाप्रकारां पुरःसलडिं वा पश्चात्सलडिं वा सलडिं सङ्खडिप्रतिज्ञया न अभिसन्धारयेत् गमनाय || 349 // III सूत्रार्थ : ___ इसके अतिरिक्त संखडि में गया हुआ साधु गृहपति एवं उस की पत्नी, परिव्राजकपरिवाजिकाओं के सहवास से मदिरा पान करके निश्चय ही अपनी आत्मा का भान भूल जाएगा, और उस स्थान से बाहर आकर उपाश्रय की याचना करेगा, परन्तु अनुकूल स्थान नहीं मिलने पर वह गृहस्थ या परिव्राजकों के साथ ही ठहर जाएगा, और मदिरा के प्रभाव से वह अपने स्वरूप को भूल कर अपने आप को गृहस्थी समझने लगेगा। उस समय स्त्री या नपुंसक पर आसक्त होने लगेगा उसे मदोन्मत्त देखकर रात्री में या विकाल मे स्त्री या नपुंसक उसके पास आकर कहेंगे कि- हे आयुष्मान ! श्रमण ! बगीचे या उपाश्रय के एकान्त स्थान में चलकर ग्रामधर्म-मैथुन का आसेवन करें। इस प्रार्थना को सुनकर कोई अनभिज्ञ साधु उसे स्वीकार भी कर सकता है। अतः इस तरह आत्म पतन होने की सम्भावना होने के कारण भगवान ने संखडि में जाने का निषेध किया है और इसे कर्मबन्ध का स्थान कहा है। इसमें प्रति क्षण कर्म आते रहते हैं। इसलिए साधु को पूर्व संखडि या पश्चात् संखडि में जाने का मन में भी संकल्प नहीं करना चाहिए। IV टीका-अनुवाद : * संखडि में जाने से इस जन्म में अपाय (उपद्रव) होतें हैं और जन्मांतर में दुर्गात होती है.... जैसे कि- भिक्षा के द्वारा देह का निर्वाह करनेवाला भिक्षु याने साधु गृहस्थों के साथ या गृहस्थों की भार्या के साथ, परिव्राजिकाओं के साथ वचनबद्ध होकर सोंड याने सीधु या अन्य प्रसन्नादि (मदिरा) का पान करके बाहर जाकर उपाश्रय की याचना करे, किंतु जब देखने पर भी मन चाहा उपाश्रय न मिले तब जहां संखडि है वहां या अन्य जगह गृहस्थ एवं परिवाजिकाओं के साथ मिश्र भाव को प्राप्त करता है, वहां पर वह साधु अन्यमनवाला उन्मत्त गृहस्थादि के साथ विपर्यास को पाया हुआ अपने आपके साधु जीवन को भूल-चूक जाता है तथा वे गृहस्थादि भी अपने आपको भूल जाते हैं... इस भ्रांत स्थिति में वह ऐसा चिंतन करे कि- मैं गृहस्थ हि हुं, अथवा स्त्री के शरीर में विपर्यासभाव को पाया हुआ अथवा नपुंसक के उपर, और वह स्त्री या नपुंसक भी उस भिक्षु याने साधु को पास में आकर कहे कि- हे आयुष्मान् श्रमण ! मैं आपके साथ एकांत की प्रार्थना करता हूं... जैसे कि- बगीचे में या कोई मकान (उपाश्रय) में रात्रि में या विकालवेला में... इस प्रकार उस साधु को इंद्रियो के विषयोपभोग के कार्य में बांधकर कहे कि- आप मेरा विप्रिय न करें... मैं प्रतिदिन आपके . Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 2-1-1-3-3 (350) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन पास आउंगी इत्यादि बातों से उस साधु को बांधकर कहे कि- गांव के पास कोई एकांत (गुप्त) जगह पर मैथुन-क्रीडा करेंगे... यहां सारांश यह है कि- कोई स्त्री एकांत में साधु के पास मैथुनक्रीडा की प्रार्थना करे तब वह एकाकी (अकेला) साधु उस स्त्री को अनुसरे... किंतु यह अकरणीय है ऐसा जानकर साधु संखडि में न जाए, क्योंकि- यह कर्मबंध के स्थान हैं प्रतिक्षण कर्मो का अधिक-अधिक संचय होता है... अतः इस प्रकार के होनेवाले प्रत्यपाय याने उपद्रवों को देखकर के श्रमण नियन्थ साधु तथाप्रकार के पुरःसंखडि या पश्चात् संखडि स्वरूप संखडि में, संखडि में जाने के विचार भी न करें, और गमन भी न करें... V सूत्रसार : दूसरा दोष यह है कि संखडि में जाने पर वहां आए हुए अन्य मत के भिक्षुओं से उसका घनिष्ट परिचय होगा और उससे उसकी श्रद्धा में विपरीतता आ सकती है, और उनके संसर्ग से वह मध आदि पदार्थों का सेवन कर सकता है और उनके कारण अपने आत्म भान को भूलकर संयम के विपरीत आचरण का सेवन भी कर सकता है। शराब के नशे में उन्मत्त होकर वह नृत्य भी कर सकता है और किसी उन्मत्त स्त्री के द्वारा भोग का निमन्त्रण पाकर उस में फिसल भी सकता है। इस तरह संखडि में जाकर वह अपने संयम का सर्वथा नाश करके जन्म-मरण के अनन्त प्रवाह में प्रवहमान हो सकता है। इस तरह संखडि शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक चिन्तन एवं आध्यात्मिक साधना आदि सबका नाश करने वाली है। इस लिए साधु को संखडि के स्थान की ओर कभी भी नहीं जाना चाहिए। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं। सूत्र // 3 // | 350 // से भिक्खू वा अण्णयरिं संखडिं सुच्चा निसम्म संपहावइ उस्सुयभूएण अप्पाणेणं धुवा संखडी नो संचाएइ, तत्थ इयरेयरेहिं कुलेहिं सामुदाणियं एसियं वेसियं पिंडवायं पडिग्गाहित्ता आहारं आहारित्तए, माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करिजा / से तत्थ कालेण अणुपविसित्ता तत्थियरेयरेहिं कुलेहिं सामुदाणियं एसियं वेसियं पिंडवायं पडिग्गाहित्ता आहारं आहारिज्जा || 350 / / II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा अन्यतरां सलडिं श्रुत्वा निशम्य सम्प्रधावति उत्सुकभूतेन आत्मना ध्रुवा सङ्खडि: न शक्नोति, तत्र इतरेतरैः कुलैः सामुदानिकं एषणीयं वैषिकं पिण्डपातं परिगृह्य आहारं आहारयेत्, मातृस्थानं संस्पृशेत्, न एवं कुर्यात् / सः तत्र कालेन अनुप्रविश्य तत्र इतरेतरैः कुलैः सामुदानिकं एषणीयं वैषिकं पिण्डपातं प्रतिगृह्य आहारं Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-3-3 (350) 49 आहारयेत् // 350 // III सूत्रार्थ : जो साधु व साध्वी किसी अन्य स्थान पर संखडि को सुन कर तथा मन में निश्चय कर उत्सुक आत्मा से वहां जाता है, तब संखडि का निश्चय कर संखडि वाले ग्राम में या संखडि से भिन्न, जिन घरों में संखडि नहीं है वहीं आधाकर्मादि दोषों से रहित भिक्षा प्राप्त होती है। किंतु वहां भी इस भावना से आहार को जाता है कि- मुझे वहां भिक्षा करते देख कर संखडि वाला व्यक्ति मुझे आहार की विनती करेगा ऐसा करने से मातृस्थान-कपट का स्पर्श होता है। अतः साधु इस प्रकार का कार्य न करे। वह भिक्षु संखडियुक्त ग्राम में प्रवेश करके भी संखडि वाले घर में आहार को न जाए, परन्तु अन्य घरों में साधुदानिक भिक्षा जो किआधाकर्मादि दोषों से रहित हो, उसे ग्रहण करके अपने संयम का परिपालन करे। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. पुरःसंखडी या पश्चात्संखडी कोई भी संखडी की बात अन्य से सुनकर या स्वयं हि निश्चय करके कोई भी कारण से उत्सुक होकर वहां जाते हैं जैसे कियहां मुझे अतिशय अद्भुत भोजन प्राप्त होगा, क्योंकि- वहां निश्चित हि संखडी है ऐसा देखकर वह साधु उस संखडिवाले गांव में संखडि रहित अन्य अन्य घरों में आधाकर्मादि रहित एषणीय आहारादि की भिक्षा तथा रजोहरणादि वेषमात्र से प्राप्य उत्पादनादि दोष रहित आहारादि ग्रहण करके भोजन कर (वापर) नहि सकतें... क्योंकि- उस साधु को संखडी के आहार की चाहना होने से माया-कपट का दोष लगता है... तथा जो कि- अन्य अन्य घरों में से आहारादि के लिये जावे, किंतु वह उन आहारादि को माया-कपट से ग्रहण नहि करता और बाद में वह संखडि में हि जावे... इस प्रकार माया का आसेवन होता है... अतः ऐसा न करें क्योंकि- ऐसा करने से तो इस भव में और भवांतर में अपाय (दुःखों) का भय रहा हआ है, इसलिये संखडिवाले गांव में साधु न जावे... किंतु ऐसी परिस्थिति प्राप्त हो तो वह साधु संखडिवाले गांव में भिक्षा के समय प्रवेश करके वहां अन्य अन्य उयकुलादि के घरों में से प्रासुक एवं एषणीय तथा वेषमात्र से प्राप्त होनेवाले धात्रीपिंडादि दोष रहित आहारादि ग्रहण करके आहार वापरे... और भी संखडि विषयक विशेष बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे. V सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में कहा गया है कि- साधु को संखडि में जाने के लिए छल-कपट का सहारा भी नहीं लेना चाहिए। जैसे-किसी मुनि को यह मालूम हुआ कि- अमुक स्थान पर Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2-1-1-3-4 (351) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन संखडि है, उस समय वह भिक्षु संखडि में जाने की अभिलाषा से उस ओर आहार लेने जाता है। वह अपने मन में सोचता है कि- जब मैं उस ओर के घरों में गोचरी करूंगा तो संखडि वाले मुझे देखकर आहार की विनती करेंगे और इस तरह मुझे सरस आहार प्राप्त होगा। इस भावना से भी साधु को संखडि में नहीं जाना चाहिए। इस तरह छल-कपट करने से उसका दूसरा एवं तीसरा महाव्रत भंग हो जाता है और मन में सरस आहार की अभिलाषा बनी रहने के कारण वह अन्य घरों से निर्दोष एवं एषणीय आहार भी ग्रहण नहीं कर सकेगा। अतः भिक्षु को आहार के बहाने संखडि की ओर नहीं जाना चाहिए। परन्तु, संखडि को छोड़कर अन्य घरों से निर्दोष एवं एषणीय आहार ग्रहण करते हुए संयम साधना में संलग्न रहना चाहिए। प्रस्तुत सूत्र में 'सामुदाणियं, एसियं, वेसियं' इन तीन पदों का प्रयोग किया है। सामुदानिक गोचरी का अर्थ है- छोटे-बड़े या गरीब-अमीर के भेद को छोड़कर अनिन्दनीय कुलों से निर्दोष आहार को ग्रहण करना। एषणीय का अर्थ है- आधाकर्म आदि 16 दोषों से रहित आहार ग्रहण करना और वैषक का अर्थ-धात्री आदि 16 दोषों से रहित स्वीकार करे। वैषिक शब्द 'वेसिय', ब्येषित और वेष का भी बोधक है। CI संखडि के विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं। I सूत्र // 4 // // 351 // से भिक्खू वा से जं पुण जाणिज्जा गामं वा जाव रायहाणिं वा इमंसि खलु गामंसि वा जाव रायहाणिंसि वा संखडी सिया, तंपि य गाम वा जाव रायंहाणिं वा संखडिं संखडिपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए। केवली बूया आयाणमेयं आइण्णाऽवमा णं संखडिं अणुपविस्समाणस्स पाएण वा पाए अक्कंतपुटवे भवइ, हत्थेण वा हत्थे संचालियपुव्वे भवेड, पाएण वा पाए आवडियपुव्वे भवई, सीसेण वा सीसे संघट्टिपुटवे भवइ, काएण वा काए संखोभियपुव्वे भवइ / दंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेलुणा वा कवालेण वा अभिहयपुव्वेण वा भवइ, सीओदएण वा उस्सित्तपुव्वे भवइ, रयसा वा परिघासियपुटवे भवेइ, अणेसणिजे वा परिभुत्तपुव्वे भवइ, अण्णेसिं वा दिज्जमाणे पडिग्गाहियपुव्वे भवड़, तम्हा से संजए नियंठे तहप्पगारं आइण्णावमा णं संखडिं संखडिपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए / / 351 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा सः यत् पुन: जानीयात् ग्रामं वा यावत् राजधानी वा, अस्मिन् खलु ग्रामे वा यावत् राजधान्यां वा सङ्खडिः स्यात् तमपि च ग्रामं वा यावत् राजधानी वा सलडिं सङ्खडिप्रतिज्ञया न अभिसन्धारये गमनाय / केवली ब्रूयात् आदानमेतत् Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-3-4 (351) 51 आकीर्णाऽवमा सङ्खडिं अनुप्रविश्यमानस्य (अनुप्रविशत:) पादेन वा पाद, आक्रान्तपूर्वः भवेत्, हस्तेन वा हस्तः सथालितपूर्व भवेत्, पात्रेण वा पात्रं आपतितपूर्वं भवेत्, शिरसा वा शिरः सङ्घट्टितपूर्वं भवेत्, कायेन वा कायं संक्षोभितपूर्वं भवेत् / दण्डेन वा अस्थना वा मुष्टिना वा लोष्ठेन वा कपालेन वा अभिहतपूर्वो वा भवेत् / तथा शीतोदकेन वा सिक्तपूर्वो भवेत्, रजसा वा परिद्यर्षितपूर्वो भवेत्, अनेषणीयः वा परिभुक्तपूर्वः भवेत्, अन्येभ्यः वा दीयमानं प्रतिग्राहितपूर्वः भवति, तस्मात् स: संयत: निर्ग्रन्थ: तथा प्रकारां "आकीर्णाऽवमा-" सङ्खडिं सङ्खडिप्रतिज्ञया न अभिसन्धारयेत् गमनाय / / 351 // III सूत्रार्थ : साधु और साध्वी ऐसा जाने कि- यह ग्राम यावत् राजधानी में जिमण (संखडी) होगा तो उस व्याम यावत् नगर में जिमण के विचार से भी जाने की इच्छा न करे। केवली भगवान ने ऐसा फरमाया है कि- ऐसा करने से कर्मबंधन होता है। यदि उस जिमण में बहत भीड होगी अथवा कम लोगों के लिये बनाये गए उस भोजन पर बहूत लोग जायेंगे तो साधु के पैर से दूसरोंका पैर या दूसरों के पैर से साधु का पैर कुचला जायेगा। अथवा हाथ से हाथ की ठोकर लगेगी, पात्रकी ठोकर से पात्र गीर जायेंगे। शिर से शिर टकरायेंगे, काया से काया को विक्षोम उत्पन्न होगा। और दूसरे लोग कुपित होकर उस साधु को दंडसे, हड्डी से, मुट्ठी से, ढेले से, ठीकरे से प्रहार भी करे अथवा सचित्त जल भी उसपर डाले, धूल से उनको भर दे और उनको अनेषणीय आहार लेना पड़े। अतः वह संयमी निर्गथ उस प्रकार के आकीर्ण और अवम ऐसे संखडी जिमण में जाने का विचार ही न करे। // 351 // IV. टीका-अनुवाद : ... वह साधु जब गांव आदि को देखने पर जाने कि- गांव में नगर में या राजधानी में संखडि होगी... और वहां चरक आदि अन्य भिक्षाचर भी होंगे... अतः गांव आदि में संखडी की इच्छा से साधु वहां गमन करने का विचार भी न करें... क्योंकि- केवलज्ञानी भगवान् कहते हैं कि- यह संखडि कर्मबंध का कारण है, अब कहतें हैं कि- वह संखडि-जिमण चरक आदि साधुओं से व्याप्त (आकीर्ण) है अथवा अवम याने हीन (अल्प) जैसे कि- एक सौ (100) मनुष्यों के लिये भोजन बनाया हो और पांच सौ (500) आदमी इकट्ठे हुए हो... उस आकीर्ण और अवम संखडि में प्रवेश करने पर यह दोष होतें हैं... जैसे कि- पांव से पांव आक्रांत (दबाया गया) हो, हाथ से हाथ संचालित हुआ हो, पात्रसे पात्र आपतित हो, मस्तक से मस्तक संघट्टित हो, तथा शरीर से अन्य चरकादि के शरीर संक्षोभित हो, इस स्थिति में वे क्रोधित हुए चरकादि साधु कलह (झगडा) करे, और कोपायमान हुए वे दंडसे, हड्डी से, मुट्ठी से, लोष्ठ से कपाल से साधु को मारे, तथा शीतजल से सिंचे, अथवा धूली में घसीटे... इत्यादि संकीर्णता से होनेवाले Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 2-1-1-3-5 (352) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन / दोष हैं... और अवम (अल्पताके कारण) से होने वाले दोष यह है कि- अनेषणीय का उपभोग हो, तथा रसोइ थोडी बनाई हो और भिक्षुक लोग बहुत हो तब यह भोजन समारोह करनेवाले गृहस्थ को यह विचार आवे कि- हमारे इस समारोह में यह साधु लोग आये हुए हैं अतः इन्हें भोजन देना चाहिये इत्यादि सोचकर आधाकर्मादि आहार बनावे... इस स्थिति में अनेषणीय का परिभोग हो... अथवा दाता अन्य को देना चाहता हो तब बीच में हि यदि साधु वह आहारादि ले तब भी कलह होने की संभावना है... अतः इन दोषों का विचार करके संयत निर्यथ साधु तथाप्रकार की आकीर्ण या अवम संखडि को जानकर के संखडि की चाहना से वहां गमन (जाने) के लिये विचार भी न करें अब सामान्य से पिंड विषयक शंका आदि दोषों की बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : संखडि के प्रकरण को समाप्त करते हुए प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- संखडि में जाने से पारस्परिक संघर्ष भी हो सकता है। क्योंकि- संखडि में विभिन्न मत एवं पन्थों के भिक्षु एकत्रित होते है। अतः अधिक भीड़ में जाने से परस्पर एक-दूसरे के पैर से पैर कुचला जाएगा इसी तरह परस्पर हाथों, शरीर एवं मस्तक का स्पर्श भी होगा और एक-दुसरे से पहले भिक्षा प्राप्त करने के लिए धक्का-मुक्की भी हो सकती है। और भिक्षु या मांगने वाले अधिक हो जाएं और आहार कम हो जाए तो उसे पाने के लिए परस्पर वाक् युद्ध एवं मुष्टि तथा दण्ड आदि का प्रहार भी हो सकता है। इस तरह संखडि संयम सा घातक है। क्योंकि- वहां आहार शुद्ध नहीं मिलता, श्रद्धा में विपरीतता आने की संभावना है, सरस आहार अधिक खाने से संक्रामक रोग भी हो सकता है और संघर्ष एवं कलह उत्पन्न होने की संभावना है। इसलिए साधु को यह ज्ञात हो जाए कि अमुक गांव या नगर आदि में संखडि है तो उसे उस ओर आहार आदि के लिये नहीं जाना चाहिए। संखडि दो तरह की होती है- १-आकीर्ण और २-अवम / परिव्राजक, चरक आदि भिक्षुओं से व्याप्त संखडि को आकीर्ण और जिसमें भोजन थोड़ा बना हो और भिक्षु अधिक आ गए हों तो अवम संखडि कहलाती है। I सूत्र // 5 // // 352 / / * से भिक्खू वा जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा असणं वा. एसणिजे सिया अणेसणिज्जे सिया, वितिगिंछसमावण्णेण अप्पाणेण असमाहडाए लेसाए तहप्पगारं असणं वा , लाभे संते नो पडिगाहिजा || 352 // Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-3-5 (352) 53 II संस्कृतं-छाया : 'स: भिक्षु, वा यावत् प्रविष्टः सन् सः यत् पुन: जानीयात् अशनं वा एषणीयः स्यात् अनेषणीय: स्यात् विचिकित्सा-समापन्नेन आत्मना अशुद्धया लेश्यया तथाप्रकारं अशनं वा, लाभे सति न प्रतिगृह्णीयात् // 352 // III सूत्रार्थ : गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रवेश करने के बाद साधु अथवा साध्वी को शंका होवे कि- यह अशनादिक निर्दोष है कि सदोष ? इस शंका से चित्त अस्थिर हो जाता है और समाधान न हो तो उस प्रकार के शंकित अशनादि मिलने पर भी ग्रहण नहीं करे / IV टीका-अनुवाद : वह साधु गृहस्थों के घर में प्रवेश करके चिंतन करे कि- एषणीय अहारादि में भी ऐसी शंका करे कि- यह आहारादि अनेषणीय तो नही है न ? इत्यादि शंकावाला साधु यह विचारे कि- यह आहारादि उद्गमादि दोषों से दुषित है इत्यादि चित्त की कलुषता से अशुद्ध लेश्यावाला मन होता है... इस स्थिति में तथा प्रकार के अनेषणीय दोष की शंकावाले आहारादि प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करें... अब गच्छ से निकले हुए जिनकल्पी साधुओं की बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V. सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया है कि- साधु गृहस्थ के घर में आहार आदि के लिए प्रवेश करते ही यह देखे कि- मुझे दिया जाने वाला आहार एषणीय है या नहीं ? यदि उसे उस आहार की निर्दोषता में सन्देह हो तो उसे वह आहार नहीं लेना चाहिए। क्योंकि- उस आहार के प्रति मन में सदोषता का संशय उत्पन्न होने पर उस संशय के दूर हुए बिना वह उस आहार को ग्रहण कर लेता है तो वह संकल्प-विकल्प में उलझ जाता है। और उसके उस मानसिक चिन्तन का प्रभाव संयम साधना पर पड़ता है। इस तरह उसकी आध्यात्मिक साधना का प्रवाह कुछ देर के लिए रुक जाता है या दूषित सा हो जाता है। अतः साधु को आहार के सदोष होने की शंका हो जाने पर उसे उस आहार को ग्रहण ही नहीं करना चाहिए। अब गच्छ से बाहर रहे हुए जिनकल्पी आदि मुनियों को आहार आदि के लिए कैसे जाना चाहिए इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 2-1-1-3-6 (343) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन I सूत्र // 6 // // 343 || से भिक्खू गाहावइकु लं पविसिउकामे सव्वं भंडगमायाए गाहावइकु लं पिंडवायपडियाए पविसिज वा निक्खमिज्जा वा। से भिक्खू वा , बहिया वियारभूमिं वा विहारभूमि वा निक्खम्ममाणे वा पविसमाणे वा सव्वं भंडगमायाए बहिया विहारभूमिं वा वियारभूमिं वा निक्खमिज वा पविसिज्ज वा। से भिक्खू वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे सव्वं भंडगमायाए गामाणुगामं दूइजिज्जा || 353 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः गृहपतिकुलं प्रवेष्टुकाम: सर्वं भण्डकं आदाय गृहपतिकुलं पिण्डपात प्रतिज्ञया प्रविशेत् वा निष्क्रामेत् वा / सः भिक्षुः वा बहिः विहारभूमिं वा विचारभूमिं वा निष्क्रामन् वा प्रविशन् वा सर्वं भण्डकं आदाय बहिः विहारभूमि वा विचारभूमिं वा निष्क्रामेत् वा प्रविशेत् वा। सः भिक्षु वा, ग्रामानुग्रामं गच्छन् सर्वं भण्डकं आदाय ग्रामानुग्रामं गच्छेत् // 343 || III सूत्रार्थ : साधु और साध्वी जब गृहस्थ के घर में प्रवेश करने की इच्छा करे तो अपने समस्त धर्मोपकरणों को साथ में लेकर गृहस्थ के घर में आहार-पानी की अभिलाषा से प्रवेश करे और बाहर निकले। साधु या साध्वी जब बाहर स्वाध्याय भूमि या स्थंडिल भूमि में गमनागमन करे तो उस समय अपने धर्मोपकरणों को साथ में लेकर स्थंडिल भूमि में, स्वाध्याय भूमि से निष्क्रमण और प्रवेश करे। साधु अथवा साध्वी एक गांव से दूसरे गांव जाय तो अपने सभी धर्मोपकरणों को साथ में लेकर एक गांव से दूसरे गांव जावे ! || 353 / / IV टीका-अनुवाद : कल्प के नियमानुसार गच्छ से निकले हुए वे जिनकल्पिकादि साधु गृहस्थों के घर में प्रवेश करने की इच्छावाले हो तब सभी धर्मोपकरण लेकर के हि गृहस्थोंके घरों में आहारादि पिंड की प्रतिज्ञा = चाहना से प्रवेश करे और वहां से निकले... जिनकल्पिकों के धर्मोपकरण का विधान अनेक प्रकार से हैं... जैसे कि- कम से कम दो उपकरण, और अधिक के अधिक तीन, चार, पांच नव, दश, ग्यारह, बारह, इत्यादि... उन जिनकल्पिकों के दो विभाग हैं... 1. छिद्रपाणि 2. अच्छिद्रपाणि... उनमें अच्छिद्रपाणिवालों को शक्ति अनुसार अभियह विशेष से दो प्रकार के उपकरण होतें हैं... 1. रजोहरण 2. मुखवस्त्रिका... तथा किसी और को शरीर (त्वक्-चमडी) की रक्षा के लिये Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-3-6 (353) 55 क्षौमपट याने सूती वस्त्र का परिग्रहण करने से तीन उपकरण होतें हैं तथा अन्य को जलबिंदु एवं परिताप आदि से रक्षण के लिये और्णिक याने ऊनी वस्त्र (कंबल) के परिग्रहण से चार उपकरण... तथा असहिष्णु जिनकल्पिक साधु को एक और दुसरा क्षौमपट सूती-वस्त्रका परिग्रहण करने से पांच उपकरण... तथा छिद्रपाणिवाले जिन-कल्पिकों को सात प्रकार के पात्र के उपकरणों के साथ रजोहरण एवं मुखवस्त्रिका (मुहपत्ती) का परिग्रहण करने से नव (9) उपकरण होतें हैं... तथा 9 + 1 सूती कपडा = 10... तथा 10 + 1 ऊनी कपडा (कंबल) = 11 उपकरण तथा 11 + 1 = 12 उपकरण एक और सूतीवस्त्र के परिग्रहण करने से बारह उपकरण होतें हैं... पात्र के सात उपकरण निम्न प्रकार से हैं... 1. पात्र, 2. पात्रबंधन, 3. पात्रस्थापन, 4. पायकेशरिया (चरवली), 5. पल्ला, 6. रजस्राण, 7. गुच्छक (गुच्छा)... - अन्य जगह भी जाते हुए जिनकल्पिक साधु सभी उपकरणों को साथ लेकर हि जाएं... जैसे कि- वह भिक्षु (साधु) गांव आदि के बाहर विहारभूमि याने स्वाध्यायभूमि तथा विचारभूमि याने मल (विष्टा) विसर्जन भूमि में भी सभी उपकरणों को लेकर हि प्रवेश करे या बाहार निकले... यह दुसरा सूत्र है, इसी प्रकार यामांतरे इत्यादि तीसरा सूत्र है... अब गमन के अभाव के निमित्त सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र में कहेंगे... V. सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- जिनकल्पी या प्रतिमाधारी साधु को आहार के लिए या शौच एवं स्वाध्याय आदि के लिए अपने ठहरे हुए स्थान से बाहर जाते समय अपने सभी उपकरण साथ ले जाने चाहिए। जब कि- सूत्र में जिनकल्पी या स्थविरकल्पी का कोई उल्लेख नहीं है। परन्तु, उपकरण ले जाने के कारणों से यह ज्ञात होता है कि- यह प्रसंग जिनकल्पी आदि के लिए ही हो सकता है। जिनकल्पी एवं विशिष्ट प्रतिमाधारी मुनि गच्छ से अलग अकेला रहता है। अतः उसके बाहर जाने के बाद यदि वर्षा हो जाए तो उसके उपकरण भीग सकते हैं या कभी कोई चोर उन्हें उठाकर ले जा सकता है। स्थविरकल्पी साधु कम . से कम दो साधु रहते हैं, अतः एक-दूसरे को सावधान करके अपने स्थान से बाहर जा सकता है, अतः उसके लिए ऐसा प्रसंग आ नहीं सकता। दूसरे में जिनकल्पी मुनि के पास अधिक उपकरण नहीं होते। सामान्य रूप से रजोहरण और मुखवस्त्रिका ही होती है ओर यदि वह लज्जा पर विजय पाने में समर्थ नहीं है तो एक छोटा-सा चोलपट्टक (धोती के स्थान में लपेटने का वस्त्र) रख सकता है, जिसका उपयोग गांव या शहर में आहार आदि को जाते समय करता है और ये उपकरण तो सदा Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 2-1-1-3-7 (354) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन साथ रहते ही हैं। परन्तु, इसके अतिरिक्त कुछ जिनकल्पी मुनि शीत सहन करने में असमर्थ हों तो वे एक ऊन का और अधिक आवश्यकता पड़ने पर एक सूत का वस्त्र भी रख सकते हैं। इस तरह 5 उपकरण हो गए और यदि किसी जिनकल्पी मुनि के हाथों की अंजली (जिन कल्पी मुनि हाथ की अंजली बनाकर उसी में आहार करते हैं) में छिद्र पड़ते हों तो वे छिद्रपाणी, जिन कल्पिक साधु पात्र के सात उपकरण भी रखतें हैं... ___यहां यह प्रश्न हो सकता है कि- जिनकल्पी मुनि होते हैं, पर उन में साध्वी नहीं होती और प्रस्तुत सूत्र में साधु-साध्वी दोनों शब्दों का उल्लेख है। इसका समाधान यह है कि- यह उल्लेख समुच्चय रूप से हुआ है। पिछले सूत्रों में साधु-साध्वी का उल्लेख होने के कारण इस सूत्र में भी उसे दोहरा दिया गया है। परन्तु, यहां प्रसंगानुसार साधु का ही ग्रहण करना चाहिए। वृत्तिकार ने भी इस पाठ को जिनकल्पी मुनि से संबन्धित बताया है। इस तरह यह स्पष्ट हो जाता है कि- प्रस्तुत सूत्र में जिनकल्पी साधु का प्रसंग ही युक्ति संगत प्रतीत होता है। कुछ कारणों से साधु को अपने भंडोपकरण लेकर आहार आदि को नहीं जाना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैंI सूत्र // 7 // // 354 / / से भिक्खू वा अह पुण एवं जाणिज्जा तिव्वदेसियं वासं वासेमाणं पेहाए तिव्वदेसियं महियं संनिचयमाणं पेहाए, महावाएण वा रयं समुद्धयं पेहाए तिरिच्छसंपाइमा वा तसा पाणा संथडा संनिचयमाणा पेहाए से एवं नच्चा नो सव्वं भंऽगमायाए गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसिज वा निक्खमिज्जा वा बहिया विहारभूमिं वा बिचारभूमिं वा निक्खमिज वा पविसिज्ज वा गामाणुगामं दुइजिज्जा || 354 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा अथ पुनः एवं जानीयात्-तीव्रदेशिकं क्षेत्रं वर्षन्तं प्रेक्ष्य, तीव्रदेशिका महिकां संनिचयमानां प्रेक्ष्य महावातेन वा रजः समुद्धृतं प्रेक्ष्य तिर्यक्सम्पातिनो वा असा: प्राणिनः संस्तृतान् संनिचयमानान् प्रेक्ष्य, स: एवं ज्ञात्वा न सर्वं भाण्डं (भण्डक) आदाय गृहपतिकृलं पिण्डपातप्रतिज्ञया प्रविशेत् वा निष्क्रामेत् वा बहिः विहारभूमिं वा विचारभूमि वा निष्क्रामेत् वा प्रविशेत् वा यामानुग्रामं गच्छेत् // 354 // III सूत्रार्थ : साधु और साध्वी को ऐसा जानने में आवे कि- बहुत भारी और बहुत दूर तक बारिश हो रही है। बहुत दूर तक घिर रहा है। अथवा बड़े तुफान से रज-धूली चारों ओर छा रही Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-3-7.(354) 57 है अथवा अस जीव उडते हैं और गिरते हैं। ऐसा देखकर या ऐसा जानकर अपने सभी पात्रादि उपकरणों को ग्रहण करके माधुकरी के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश न करे और न निकले, इसी तरह न स्वाध्याय भूमि या शौच भूमि में जाय ! एक गांव से दूसरे गांव भी न जावे / || 354 // IV टीका-अनुवाद : वह साधु ऐसा देखे कि- मोटी धार से एवं बहुत क्षेत्र में बरसात बरसता हो, तथा अंधकार वाली महिका याने धूमस गिर रही हो, तथा महावायु के साथ धूली उड रही हो, तथा तिर्यक् संपातिम अस प्राणी-जंतु बहुत सारे चारों और उड रहे हो, इस स्थिति में सर्व पात्र आदि उपकरणों को लेकर गृहस्थों के घरों में आहारादि पिंड की इच्छा से न प्रवेश करे या न निकले... तथा बाहर स्वाध्याय भूमि या स्थंडिलभूमि में भी न जायें या न निकले... यावत् यामानुयाम गमन भी न करें... यहां सारांश यह है कि- साधुओं की सामाचारी हि ऐसी है कि- गच्छ-निर्गत जिनकल्पिकादि तथा गच्छ में रहे हुए स्थविर कल्पिक साधु उपाश्रय से बाहर निकलते वख्त उपयोग देकर देखतें हैं, और यदि बरसात या धूमस हो तो जिनकल्पिक साधु उपाश्रय से बाहर न निकले... क्योंकि- उनके शरीर का सामर्थ्य हि ऐसा है कि- वे छह माह तक मल त्याग को रोक सकतें हैं... तथा स्थविर कल्पवाले साधु कारण प्राप्त होने पर बाहर जायें किंतु सभी उपकरण लेकर न जायें... . यहां तक जुगुप्सित (निंदनीय) कुलों में संभवित दोषके दर्शन होने से प्रवेश का निषेध कहा है... . ... अब अनिन्दनीय कुलों में भी कहिं कहिं दोष दिखने से सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से प्रवेश का निषेध करेंगे... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- यदि देश व्यापी वर्षा बरस रही हो, धुंध पड़ रही हो, आंधी के कारण धूल उड़ रही हो, पतंगे आदि स जीव पर्याप्त संख्या में उड़ एवं गिर रहे हों, ऐसी अवस्था में सभी भण्डोपकरण लेकर साधु को आहार के लिए या शौच एवं स्वाध्याय के लिए अपने स्थान से बाहर नहीं जाना चाहिए। और ऐसे प्रसंग पर एक गांव से दूसरे गांव को विहार भी नहीं करना चाहिए। क्योंकि- ऐसे प्रसंग पर यदि साधु गमनागमन करेगा तो अप्कायिक जीवों की एवं अन्य प्राणियों की हिंसा होगी। अतः उनकी रक्षा के लिए साधु को वर्षा आदि के समय पर अपने स्थान पर ही अवस्थित रहना चाहिए। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 2-1-1-3-8 (355) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन यहां यह प्रश्न हो सकता है कि- यदि सूत्रकार को मल-मूत्र के त्याग का निषेध करना इष्ट नहीं था, तो उसने आहार एवं स्वाध्याय भूमि के साथ उसे क्यों जोडा ? इसका समाधान यह है कि- यह संलग्न सूत्र है, जैसा विधि रूप में इसका उल्लेख किया गया है. उसी प्रकार सामान्य रूप से निषेध के समय भी उल्लेख कर दिया गया है। ऐसा और भी कई स्थलों पर होता है। भगवती सूत्र में एक जगह जीव को गुरु-लघु कहा है और दूसरी जगह अगुरु लघु कहा है। फिर भी दोनों पाठों में कोई विरोध नहीं है। क्योंकि- औदारिक आदि शरीर की अपेक्षा से जीव को गुरु-लघु कहा है, क्योंकि- जीव उन औदारिक आदि शारीरिक पर्यायों के साथ संलग्न है और अगरूलघु आत्म स्वरूप की अपेक्षा से कहा गया है। अतः यहां पर भी मल-मूत्र का पाठ आहार एवं स्वाध्याय भूमि के साथ संलग्न होने के कारण उसके साथ उसका भी उल्लेख किया गया है। परन्तु इससे विभिन्न जिनकल्पी मुनि के लिए वर्षा आदि के समय मल-मूत्र त्याग का निषेध किया गया है। . " नया हा ___कुछ ऐसे कुल भी हैं, जिनमें साधु को भिक्षा के लिए नहीं जाना चाहिए। उन कुलों का निर्देश करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैंI सूत्र // 8 // // 55 // से भिक्खू वा से जाइं पुण कुलाइं जाणिज्जा त जहा- खत्तियाण वा राईण वा कुराईण वा रायपेसियाण वा रायवंसट्ठियाण वा अंतो वा बाहिं गच्छंताण वा संनिविट्ठाण वा निमंतेमाणाण वा अनिमंतेमाणाण वा असणं वा, लाभे संते नो पडिगगाहिजा / / 355 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा, स: यानि पुनः कुलानि जानीयात् तद्यथा-क्षत्रियाणां वा राज्ञां वा कुराज्ञां वा राजप्रेक्ष्याणां वा राजवंशस्थितानां वा अन्त: वा बहिः वा गच्छतां वा संनिविष्टानां वा निमन्त्रयतां वा अनिमन्त्रयतां वा अशनं वा, लाभे सति न प्रतिगृह्णीयात || 355 // III सूत्रार्थ : चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव आदि क्षत्रिय, सामान्य राजा ठाकोर, सामंत आदि, दंडपाशिक तथा राजवंशीय, उपाश्रय के अंदर या बाहर रहे हो और भिक्षा के लिए आमन्त्रित करे या.न करे तो भी उनके घर से साधु अथवा साध्वी अशनादि मिलने पर भी न लेवें ऐसा मैं कहता हूं। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-3-8 (355) 59 IV टीका-अनुवाद : 'वह साधु यदि ऐसे प्रकार के कुल देखे कि- चक्रवर्ती वासुदेव, बलदेव आदि क्षत्रियों के कुल, तथा क्षत्रियों के अलावा अन्य राजाओं के कुल, तथा तुच्छ राजाओं के कुल, तथा दंडपाशिकादि राजप्रेष्यों के कुल, तथा राजा के मामा, जीजाजी आदि राजवंश में रहे हुए लोगों के कुल, इत्यादि ऐसे लोगों के कुल = घरों में पतन = उपद्रव के कारण से प्रवेश न करें... वे लोग घर में रहे हुए हो या बाहार मार्ग में जाते हुए हो या कहीं आवास किये हुए हो तब निमंत्रण करे या निमंत्रण न करे तो भी उनके घरों में आहारादि प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करें... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- मुनि को चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव आदि क्षत्रिय कुलों का तथा उनसे भिन्न राजाओं के कुल का, एक देश के राजाओं के कुल का, राजप्रेष्यदण्ड-पाशिक आदि के कुल का और राजवंशस्थ कुलों का आहार नहीं लेना चाहिए। उक्त कुलों का आहार उनके द्वारा निमन्त्रण करने पर या बिना निमन्त्रण किये उनके घर से बाहर या घर में किसी भी तरह एवं कहीं भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। यहां इस निषेध का कारण यह है कि- राजभवन एवं राजमहल आदि में लोगों का आवागमन अधिक होने से साधु भली-भांति ईर्यासमिति का पालन नहीं कर सकता। इस कारण से संयम की विराधना होती है। इसलिए साधु को उक्त कुलों में आहार आदि के लिए प्रवेश नहीं करना चाहिए। क्योंकि प्रस्तुत अध्ययन के द्वितीय उद्देशक में जिन 12 कुलों का निर्देश किया है उनमें उय कुल, भोग कुल, राजन्य कुल, इक्ष्वाकु, हरिवंश आदि कुलों से आहार लेने का स्पष्ट वर्णन है। भगवान महावीर के प्रमुख शिष्य गणधर गौतम अतिमुक्त कुमार के अंगुली पकड़ने पर उसके साथ उसके घर पर भिक्षार्थ गए है। इससे स्पष्ट होता है कि- यदि इन कुलों में जाने पर संयम में किसी तरह का दोष न लगता हो तो इन घरों से निर्दोष आहार लेने में कोई दोष नहीं है। यहां पर निषेध केवल इसलिए किया गया है कि- यदि राजघरों में अधिक चहल-पहल आदि हो तब एसे समय ईर्यासमिति का भली-भांति पालन नहीं किया जा सकेगा, इस संबन्ध में वृत्तिकार का भी यही अभिमत है। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें। // प्रथम चूलिकायां प्रथम पिण्डैषणाध्ययने तृतीयः उद्देशकः समाप्तः // Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 2-1-1-3-8 (355) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन 卐卐 : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य थधुंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट -परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. “श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययन से विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवास को प्राप्त करके परमपद की पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. राजेन्द्र सं. 96. म विक्रम सं. 2058. . Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-4-1 (356) 61 आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 1 अध्ययन - 1 उद्देशक - 4 ___ पिण्डैषणा // तीसरा उद्देशक कहा, अब चौथे उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं, इसका यहां यह संबंध है कि- तीसरे उद्देशक में संखडि का विधि कहा है, और यहां भी संखडि का शेष विधि कहतें हैं... I सूत्र // 1 // // 356 // से भिक्खू वा, जाव समाणे से जं पुण जाणेजा मंसाइयं वा मच्छाइयं वा मंसखलं वा मच्छखलं वा आहेणं वा पहेणं वा हिंगोलं वा संमेलं वा हिरमाणं पेहाए अंतरा से मग्गा बहुपाणा बहुबीया बहुहरिया बहुओसा बहुउदया बहुउत्तिंगपणगदगमट्टीय मक्कडासंताणया बहवे तत्थ समणमाहणअतिहिकिविणवणीमगा उवागया उवागमिस्संति तत्थाइण्णा वित्ती नो पण्णस्स निक्खमण-पवेसाए णो पण्णस्स वायणपुच्छणपरियट्टणाणुप्पेहधम्माणुओगचिंताए, से एवं नच्चा तहप्पगारं पुरेसंखडिं वा पच्छासंखडिं वा संखडि संखडिपडियाए नो अभिसंधारिज्जा गमणाए। से भिक्खू वार से जं पुण जाणिज्जा मंसाइयं वा मच्छाइयं वा जाव हीरमाणं वा पेहाए अंतरा से मग्गा अप्पा पाणा जाव संताणगा, नो जत्थ बहवे समण जाव उवागमिस्संति, अप्पाइण्णा वित्ती .पण्णस्स निक्खमणपवेसाए, पण्णरस वायणपुच्छणपरियट्टणाणुप्पेहधम्मा णुओगचिंताए, सेवं नच्चा तहप्पगारं पुरेसंखडिं वा अभिसंधारिजा गमणाए || 356 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा यावत् प्रविष्टः सन् सः यत् पुन: जानीयात् - मांसादिकां वा मत्स्यादिकां वा मांसखलं वा मत्स्यखलं वा आहेण वा प्रहेण वा हिंगोलं वा संमेलं वा हियमाणं प्रेक्ष्य अन्तरा तस्य मार्गाः बहुप्राणिनः बहुबीजाः बहुहरिताः बह्वश्यायाः बहूदका: बहु-उत्तिङ्ग-पनकदक-मृत्तिका-मर्कटसन्तानका: बहवे तत्र श्रमण-ब्राह्मणअतिथि-कृपण-वनीपकाः उपागताः उपागमिष्यन्ति, तत्र आकीर्णा वृत्तिः न प्राज्ञस्य निष्क्रमणप्रवेशाय न प्राज्ञस्य वाचनाप्रच्छना-परिवर्तनाऽनुप्रेक्षा-धर्मानुयोगचिन्तायै, स: एवं ज्ञात्वा तथाप्रकारां पुरः सवडिं वा पश्चात्सलडिं वा सङ्खडिं सजडिप्रतिज्ञया न अभिसन्धारयेत् गमनाय / Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 2-1-1-4-1 (356) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन स: भिक्षुः वा सः यत् पुन: जानीयात् - मांसादिकां वा मत्स्यादिकां वा यावत् ह्रियमाणं वा प्रेक्ष्य अन्तरा तस्य मार्गाः अल्पप्राणिनः यावत् सन्तानकाः, न यत्र बहवः श्रमण यावत् उपागमिष्यन्ति, अल्पाकीर्णा वृत्तिः प्राज्ञस्य निष्क्रमणप्रवेशाय प्राज्ञस्य वाचना-पृच्छना-परिवर्तनाऽनुप्रेक्षा-धर्मानुयोगचिन्तायै, सः एवं ज्ञात्वा तथाप्रकारां पुरःसलडिं वा अभिसन्धारयेत् गमनाय || 356 // III सूत्रार्थ : साधु अथवा साध्वी गोचरी के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करके ऐसा जाने कियहां मांसप्रधान, मत्स्यप्रधान भोजन है, मांस अथवा मत्स्य के ढग रखे हुए है, विवाह संबंधी भोजन, कन्या के बिदाय के समय का भोजन, मृतभोज या यक्ष आदि की यात्रा का भोजन या स्वजन संबंधी भोजन (प्रितिभोज) है और उनके निमित्त से कोई पदार्थ ले जा रहे हैं, और मार्ग में बहुत से बीज, हरी वनस्पति, ओस, बहुत जल, चींटियों के दर, कीचड़, मकडी के जाले इत्यादि है और वहां बहुत से शाक्यादि श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, दीन और भिक्षुक आदि आए हुए है, आनेवाले हैं, आ रहे हैं और भीड़ इतनी जमा हो गई है कि- आने-जाने का मार्ग कठिनता से मिले ऐसा है। वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मानुयोग विचारने का अवकाश न हो तो ऐसी पूर्व जिमणवारी या पश्चात् जिमणवारी में जाने का साधुओं को विचार भी नहीं करना चाहिये। साधु अथवा साध्वी जो जाने कि- यहां मांसप्रधान अथवा मत्स्यप्रधान भोजन है यावत् उसके लिए कोई पदार्थ ले जा रहे हैं किंतु मार्ग में प्राणी, बीज, हरीतकाय आदि नहीं है तथा वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मानुयोग की चिंता के लिए अवकाश भी है। ऐसा जानकर अपवाद रूप में पूर्व संखडि (जिमणवार) अथवा पश्चात्संखडिं में जाने का सोचें / // 356 || IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. कहीं गांव आदि में भिक्षा के लिये प्रवेश करे तब यदि निम्नोक्त प्रकार की संखडि देखे तब उस संखडि में जाने का विचार भी न करें अर्थात् वहां संखडि में न जायें... क्योंकि- उस संखडि में मांस की मुख्यतावाली रसोई बनाते हो या रसोई बन चुकी हो... अर्थात् मांस की बहुलतावाली संखडी की गई हो... वहां कोई स्वजनादि ऐसी वस्तु ले जाय... अतः ऐसे ले जाते हुए उन्हें देखकर साधु वहां न जाय... तथा इसी प्रकार मत्स्य की मुख्यतावाली रसोइ... तथा मांस का खल याने जहां संखडि के लिये मांस के टुकडे टुकडे करके सुखाते हो या सुखे हुए मांस के टुकडे का पुंज याने ढेर किया हो... इसी प्रकार मत्स्य के खल के भी सुखकर ढेर किये हो... तथा आहेण याने विवाह के बाद वधु के प्रवेश वख्त वर के घर में भोजन किया गया हो... तथा प्रहेण याने ली जा रही वधू के पिता के Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-4-1 (356) 63 घर में भोजन बनाया गया हो... तथा हिंगोल याने मृतकभोजन या यक्ष आदि की यात्रा का भोजन... संमेल याने परिजन (ज्ञाति) के सन्मान का भोजन समारोह... अथवा गोष्ठी भोजन समारोह... इस प्रकार की संखडि को देखकर वहां साध भिक्षा के लिये न जायें... क्योंकिवहां जाते हुए साधु को जो दोष लगतें हैं वह अब कहतें हैं... संखडि में जाते हुए उस साधु के मार्ग में बहुत स (कीडी-मकोडे-पतंगीया आदि) जीव, बहुत गेहूं आदि बीज, बहुत दुर्वा आदि वनस्पति, बहुत (अवश्याय) झांकल-हिम, बहुत जल, चीटियों के दर, पनक (निगोद) जल-मिट्टी-एवं करोडीये (मक्कडी) के जाले हो... तथा वहां संखडि में पहुंचने पर वहां बहुत सारे श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण, एवं वनीपक आये हुए हो या आतें हो या अनेवाले हो, वहां चरक आदि भिक्षुकों से व्याप्त उस संखडि में प्राज्ञ साधु को निकलना या प्रवेश करना उचित नही हैं... तथा नाज्ञ साधु को वहां वाचना-पृच्छना-परावर्तना अनुप्रेक्षा एवं धर्मअनुयोगचिंता भी नही हो सकती... क्योंकि- अनेक लोगों के आवागमन से व्याप्त उस संखडि में साधु को स्वाध्यायादि क्रिया नही हो सकती... इस प्रकार गच्छवाले संविज्ञ साधुओं को बहुत दोषवाली एवं मांसादि मुख्यतावाली संखडि में जाना नही चाहिये... अब यहां अपवाद कहतें हैं कि- मार्ग में विहार के श्रम से थका हुआ, या रोगावस्था से उठा हुआ या तपश्चर्या से दुर्बल या पर्याप्त आहारादि के अभाव में दुर्लभ आहारादि की इच्छावाला साधु यदि ऐसा देखे कि- यहां पूर्वोक्त स्वरूपवाली संखडि है और मार्ग में घुस जीव नही है, बीज, वनस्पति, आदि भी नही है या अल्प है तब ऐसी अल्प दोषवाली संखडि को जानकर मांसादि दोषों के त्याग में समर्थ होने के साथ-साथ कारण प्राप्त होने पर वहां संखडि में जाने का विचार करें... अब पिंडाधिकार में भिक्षा विषयक विशेष अधिकार सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V. सूत्रसार : - प्रस्तुत सूत्र में संखडियों के अन्य भेदों का उल्लेख करते हुए बताया गया है किसामिष एवं निरामिष दोनों तरह की संखडि होती थी, कोई व्यक्ति मांस प्रधान या मत्स्य प्रधान संखडि बनाता था, उसे मांस और मत्स्य संखडि कहते थे। कोई पुत्र वधु के घर आने पर संखडि बनाता था, कोई पुत्री के विवाह पर संखडि बनाता था और कोई किसी की मृत्यु के पश्चात् संखडि बनाता था। इस तरह उस युग में होने वाली विभिन्न संखडियों का प्रस्तुत सूत्र में वर्णन किया है और बताया गया है कि- उक्त संखडियों के विषय में ज्ञात होने पर मुनि को उसमें भिक्षार्थ नहीं जाना चाहिए। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 2-1-1-4-1 (356) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन - इसका कारण पूर्व सूत्रों में स्पष्ट कर दिया गया है प्रथम तो आहार में दोष लगने की संम्भावना है, दूसरे में अन्य भिक्षओं का अधिक आवागमन होने से उनके मन में द्वेष भाव उत्पन्न होने की तथा अन्य जीवों की विराधना होने की सम्भावना है और तीसरे में वाचना, पृच्छना आदि स्वाध्याय के पांचों अङ्गों में अन्तराय पड़ने की सम्भावना है। क्योंकि- वहां गीत आदि होने से स्वाध्याय नहीं हो सकेगा। इस तरह संखडि में जाने के कारण अनेक दोषों का सेवन होता है, ऐसा जानकर उसका निषेध किया गया है। इसके अतिरिक्त आगम सूत्रो में भी संखडि में जाने का निषेध किया है, प्रस्तुत अध्ययन के द्वितीय उद्देशक में भी संखडि में जाने का निषेध किया है। परन्तु, प्रस्तुत सूत्र में निषेध के साथ अपवाद मार्ग में विधान भी किया गया है जैसे कि- यदि संखडि में जाने का मार्ग जीव-जन्तुओं एवं हरितकाय या बीजों से व्याप्त नहीं है, अन्य मत के भिक्षु भी वहां नहीं है और आहार भी निर्दोष, भक्ष्य एवं एषणीय है तो साधु उसे ग्रहण कर सकता है। परन्तु, वृत्तिकार का कथन है कि- प्रस्तुत सूत्र अवस्था विशेष के लिए है। उसमें बताया गया है कियदि साधु थका हुआ है अर्थात् लम्बा विहार करके आया है, बीमारी से तुरन्त या तपश्चर्या से जिसका शरीर कृश हो गया है, वह भिक्षु इस बात को जान ले कि- संखडि में जाने से किसी दोष के लगने की सम्भावना नहीं है, तो वह वहां से भिक्षा ले सकता है। - इससे स्पष्ट होता है कि- उत्सर्ग मार्ग में सामिष एवं निरामिष किसी भी तरह की संखडि में जाने का विधान नहीं है। अपवाद मार्ग में भी उस संखडि में जाने एवं आहार ग्रहण करने का आदेश दिया गया है कि- जहां जाने का मार्ग निर्दोष हो और निर्दोष एवं एषणीय निरामिष भक्ष्य आहार मिल सकता हो, परंतु अन्य संखडि में, जहां जाने का मार्ग जीवजन्तु से युक्त हो, जहां सामिष भोजन बना हो एवं निरामिष भोजन भी सदोष हो या अन्यमत के भिक्षु भिक्षार्थ आए हों तो वहां अपवाद मार्ग में भी जाने का आदेश नहीं हैं। प्रश्न पूछा जा सकता है कि- जब साधु अपवाद मार्ग में संखडि में जा सकता है, तो सामिष संखडि में बना हुआ क्यों नहीं ग्रहण कर सकता ? इसका समाधान यह है कि- यहां अपवाद कारण विशेष से है अथवा साधु की शारीरिक स्थिति के कारण है, परन्तु वहां बने हुए सभी तरह के आहार को लेने के लिए नहीं है। यदि संखडि में जाने का मार्ग ठीक नहीं है और आहार भी सामिष है या निरामिष आहार भी सदोष है तो शारीरिक दुर्बलता के समय भी साधु को वहां जाने का आदेश नहीं है। प्रस्तुत सूत्र में वह भी बताया है कि- संखडि में जाने से स्वाध्याय के पांचों अङ्गो में व्यवधान पड़ता है। स्वाध्याय चलते हुए करने का निषेध है, स्वाध्याय तो एक स्थान पर बैठकर ही किया जा सकता है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि- संखडि में जाने पर कुछ देर के Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-4-2 (357) 65 लिए वहां बैठना भी पड़ता था। अतः अपवाद मार्ग में जाने वाला साधु वहां कुछ काल के लिए ठहर भी सकता है और यह अपवाद बीमार एवं तपस्वी आदि विशेष कारण होने पर ही रखा गया है। साधु को घरों में किस तरह के आहार की गवेषणा करनी चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का कहते हैं... I सूत्र // 2 // // 357 // से भिक्खू वा. जाव पविसिउकामे से जं पुण जाणिजा खीरिणियाओ गावीओ खीरिजमाणीओ पेहाए असणं वा उवसंखडिज्जमाणं पेहाए पुरा अप्पजूहिए सेवं नच्चा नो गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए निक्खमिज वा पविसिज वा / से तमादाय एगंतमवक्कमिजा अणावायमसंलोए चिडिजा, अह पुण एवं जाणिज्जा- खीरिणियाओ गावीओ खीरियाओ पेहाए असणं वा उवक्खडियं पेहाए पुराए जूहिए सेवं नच्चा तओ संजयामेव गाहा. निक्खमिज्जा वा। / / 357 / / // संस्कृत-छाया : . स: भिक्षुः वा. यावत् प्रवेष्टुकामः, सः यत् पुन: जानीयात् क्षीरिण्यो गावो, दुह्यमानाः प्रेक्ष्य अशनं वा, उपसंस्क्रियमाणं प्रेक्ष्य, पुरा अदत्ते, सः एवं ज्ञात्वा न गृहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया निष्क्रामेत् वा प्रविशेत् वा। ... स: तमादाय एकान्तमपक्रम्य अनापातमसंलोके तिष्ठेत्, अथ पुनः एवं जानीयात्दीरिण्यः गावः, दुग्धाः प्रेक्ष्य अशनं वा, उपस्कृतं प्रेक्ष्य पुरा दत्ते, सः एवं ज्ञात्वा ततः संयतः एव गृह. निष्क्रामेत् वा // 357 / / III सूत्रार्थ : - साधु अथवा साध्वी आहार-पानी के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करने की इच्छा करे किन्तु दुधवाली गाय दोही जा रही है अशनादि रांधने की क्रिया शुरु है या पहले से आये हुए को दिया नहीं गया है, ऐसा देखकर गृहस्थ के घर में आहार-पानी के लिये प्रवेश न करे। गृहस्थ के घर में साधु कदाचित् पहुंच गये हो तो उपरोक्त कथित कारणों में से कोई भी कारण मौजूद हो तो एकांत में चले जाये कि- जहां किसी का आवागमन न हो या कोई भी देख न पाये ऐसे स्थान में खड़े रहे। और जब ऐसा जाने (ज्ञात हो) कि- गायों ने दूध दे दिया है, रसोई बन गई हैं तब गृहस्थों के घर में यतनापूर्वक आहार-पानी के लिये प्रवेश करे। // 357 // Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 2-1-1-4-2 (357) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन IV टीका-अनुवाद : , वह साधु या साध्वीजी म. गृहस्थों के घरों में प्रवेश करने की इच्छावाले हो तब देखे कि- वहां दूधवाली गाय को दोह रहे हो, तथा आहारादि रसोई बना रहे हो, तथा तैयार हुए चावल आदि पहले अन्य को नही दिये हुए होते तो भी प्रकृति भद्रक कोई श्रद्धालु गृहस्थ, साधुको देखकर सोचे कि- “मैं इन साधुओं को बहुत दूध दूं" ऐसा सोचकर बछडे को बहुत दुःख-कष्ट दे अथवा दोही जा रही गाय को त्रास पहुंचाए... तब साधु को संयम विराधना एवं आत्मविराधना हो... अथवा अर्ध पके हुए चावल आदि को शीघ्र से पकाने के लिये अधिक प्रयत्न करे, तब संयम विराधना हो... इत्यादि ऐसा देख करके साधु गृहस्थों के घर में आहारादि के लिये प्रवेश न करें और निकले भी नही.... ऐसी स्थिति में साधु को क्या करना चाहिये... वह अब कहतें हैं... वह साधु उस गाय को दोहना आदि देखकर एकांत (निर्जन) में जाकर खडे रहें... अर्थात् गृहस्थों का जहां आगमन न हो, या उनकी नजर न पहुंचे... वहां खड़े रहें... और वहां खड़े-खड़े जब ऐसा जाने किदूधवाली गाय दोह ली... इत्यादि... यावत् ऐसे उन घरों में प्रवेश करें एवं निकले... . अब पिंडाधिकार में ही यह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- यदि किसी गृहस्थ के घर पर गायों का दूध निकाला जा रहा है और अशन आदि चारों प्रकार का आहार पक रहा है और उस आहार में से अभी तक किसी को दिया नहीं है, तो साधु को उस घर में आहार के लिए नहीं जाना चाहिए। यदि गायों का दूध निकाल लिया गया है, आहार पक चुका है और उसमें से किसी को दिया जा चुका है, तो साधु उस घर में आहार के लिए प्रवेश कर सकता है। इसका कारण यह है कि- गायें साधु के वेश को देखकर डर जाएं और साधु को मारने दौड़े तो उससे साधु को या दोहने के लिए बैठे हुए व्यक्ति को चोट लग सकती है। और दूध निकालते समय साधु को आया हुआ देखकर गृहस्थ यह सोचे कि- साधु को भी दूध देना होगा, अतः वह गाय के बछड़े के लिए छोड़े जाने वाले दूध को भी गाय के स्तनों में से निकाल लेगा। इससे मुनि के निमित्त बछड़े को अन्तराय हो। आहार पक रहा हो और उस समय साधु पहुंच जाए तो गृहस्थ उसे जल्दी पकाने का यत्न करेगा उससे अग्नि के जीवों की विराधना (हिंसा) होगी। इस तरह कई दोष लगने की सम्भावना होने के कारण साधु को ऐसे समय में गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रवेश नहीं करना चाहिए। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-4-3 (358) 67 आगम में लिखा है कि- आहार आग पर पक रहा हो और गृहस्थ उसे आग पर से उतार कर दे तो साधु को स्पष्ट कह देना चाहिए कि- यह आहार मेरे लिए कल्पनीय नहीं है। इससे स्पष्ट होता है कि- प्रस्तुत सूत्र में किया गया निषेध घर में प्रवेश करने की दृष्टि से नहीं, किन्तु आग पर स्थित आहार को न लेने के लिए है। गाय को दोहन का प्रथम विकल्प घर में प्रवेश करने सम्बन्धी निषेध को लेकर है और दूसरा विकल्प उस आहार को लेने के . निषेध से सम्बन्धित है। इसका स्पष्ट कारण यह है कि- गृहस्थ के घर में स्थित पशु भयभीत नहीं हों और आहार आदि भी पक चुका हो तो साधु उस घर में प्रवेश करके आहार ले सकता है। साधु को यह विवेक अवश्य रखना चाहिए कि- उसके निमित्त किसी तरह की हिंसा एवं अयतना न हो। इसी विषय को और स्पष्ट करने के लिये हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे का सूत्र कहेंगे। I सूत्र // 3 // // 358 // भिक्खागा नामेगे एवमाहंसु-समाणा वा वसमाणा वा गामाणुगाम दुइज्जमाणे खुड्डाए खलु अयं गामे संनिरुद्धए नो महालए से हंता भयंतारो बाहिरगाणि गामा भिक्खायरियाए वयह, संति तत्थेगइयस्स भिक्खुस्स पुरे संथुआ वा पच्छा संथुया वा परिवसंति, तं जहा गाहावई वा गाहावड़णीओ वा गाहावइपुत्ता वा गाहावइधूयाओ वा गाहावइसुण्हाओ वा धाइओ वा दासा वा दासीओ वा कम्मकरा वा कम्मकरीओ वा तहप्पगाराइं कुलाइं पुरे संथुयाणि वा पच्छा संथुयाणि वा पुव्वामेव भिक्खायरियाए अणुपविसिस्सामि। - अविय इत्थ लभिस्सामि पिंडं वा लोयं वा खीरं वा दहिं वा नवणीयं वा घयं वा मुल्लं वा तिल्लं वा महुं वा मज्जं वा सक्कुलिं वा फाणियं वा पूयं वा सिहरिणिं च संलिहिय संमजिय तओ पच्छा भिक्खूहिं सद्धिं गाहा, पविसिस्सामि वा निक्खमिस्सामि वा माइट्टाणं संफासे, तं नो एवं करिज्जा / से तत्थ भिक्खूहिं सद्धिं कालेण अणुपविसित्ता तस्थियरेयरेहिं कुलेहिं सामुदाणियं एसियं वेसियं पिंडवायं पडिग्गाहित्ता आहारं आहारिजा। एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं / / / 358 // // संस्कृत-छाया : . भिक्षुका: नाम एके एवं आहुः - समाना: वा वसमाना वा ग्रामानुग्रामं दूयमानाः, बुल्लकः खलु अयं ग्रामः संनिरुद्धः न महान्, ततः हन्त ! भवन्तः बहिः ग्रामेषु Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 2-1-1-4-3 (358) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन भिक्षाचर्यार्थं व्रजत, सन्ति तत्र एकस्य भिक्षोः पुरः संस्तुताः वा पश्चात्संस्तुताः वा परिवसन्ति / तद्-यथा-गृहपतयः वा गृहपतिभार्याः वा गृहपतिपुत्राः वा गृहपतिदुहितारः वा गृहपतिस्नुषाः वा धात्र्यः वा दासाः वा दास्यः वा कर्मकरा: वा कर्मकर्यः वा तथाप्रकाराणि कुलानि पुर:- संस्तुतानि वा पश्चात्संस्तुतानि वा पूर्वमेव भिक्षाचयार्थं अनुप्रवेक्ष्यामि। . अपि च अत्र लप्स्ये पिण्डं वा लोयं वा क्षीरं वा दधि वा नवनीतं वा घृतं वा गुडं वा तैलं वा मधु वा मद्यं वा शष्कुलिं वा फाणितं वा पूतं वा शिखरिणीं वा, तं पूर्वमेव भुक्त्वा पित्वा प्रतिग्रहं च संलिख्य संमृज्य ततः पश्चात् भिक्षुभिः सार्धं गृह. प्रवेक्ष्यामि वा निष्क्रमिष्यामि वा मातृस्थानं संस्पृशेत्, तत् न एवं कुर्यात् / सः तत्र भिक्षुभिः सार्द्ध कालेन अनुप्रविश्य तत्र इतरेतरेभ्यः कुलेभ्यः सामुदानिकं एषणीयं वैषिकं पिण्डपातं प्रतिगृह्य आहारं आहारयेत्, एतत् खलु तस्य भिक्षोः वा भिक्षुण्यः वा सामग्यम् / / 358 // III सूत्रार्थ : स्थिस्थरवास करनेवाले अथवा मासकल्पी कोई मुनि आगंतुक मुनिओं को ऐसा कहे कि- यह गांव बहुत ही छोटा है और उसमें भी कितने घर प्रसूति आदि कारणों से रुके हुए है। यह गांव बड़ा नहीं है इसलिए- 'हे पूज्य मुनिवरों ! आप गांव से बाहर किसी अन्य गांव में गोचरी के लिए पधारें !' यह सुनकर नवागंतुक मुनिओं को अन्य गांव में गोचरी के लिए जाना चाहिए। उस गांव में कोई साधु के माता-पिता आदि पूर्व सम्बन्धी अथवा श्वसुरादि पश्चात् संबंधी निवास करते हो जैसे कि- गृहस्थ, गृहस्थपत्नी, पुत्र, पुत्री, गृहस्थ की पुत्रवधु, धायमाता, दास-दासी, कर्मचारी, कर्मचारिणी आदि, इसलिए कोई साधु ऐसा विचार करे किपहले मैं उनके घर में भिक्षा के लिए प्रवेश करुंगा जिससे मुझे अन्न, रसमय पदार्थ दूध, दही, मक्खन, घी, गुड, तेल, मध (शहद) मद्य, पुरी, गुड़राब, पोएँ, श्रीखंड इत्यादि उत्तम भोजन मिलेगा। उस उत्तम भोजन को लाकर प्रथम में आहार-पानी करुंगा बादमें पात्रे साफ कर लूंगा। पश्चात् अन्य साधुओं के साथ गोचरी के लिए गृहस्थ के घरमें प्रवेश करूंगा। अथवा प्रवेश के लिए निकलूंगा। ऐसा विचार करनेवाला साधु मातृस्थान को स्पर्श करता है। संयम में दोष लगाता है। ऐसा केवली भगवंत फरमाते हैं कि- इसलिए ऐसा विचार भी नहीं करना चाहिए। किन्तु अन्य साधुओं के साथ भिक्षा के समय गृहस्थ के घर में प्रवेश कर अनेक घरों में से शुद्धिपर्वक निर्दोष भिक्षा ग्रहण कर आहार लाना चाहिए। साधु और साध्वी को ऐसा आहार ग्रहण करने का आचार हैं। // 358 // Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-4-3 (358) 69 IV टीका-अनुवाद : भिक्षा के द्वारा देह का निर्वाह करनेवाले कितने साधु... जैसे कि- समाना याने जंघाबल की क्षीणता से एक क्षेत्र में रहने वाले तथा वसमाना याने मासकल्प विहारवाले साधुजन, यामानुयाम विहार के क्रम से वहां आये हुए प्राधूर्णक मान) साधओं को ऐसा कहे कि- यह गांव छोटा है अथवा अल्प घरवाला है. एवं अल्प आहारादि भिक्षा देनेवाला है... तथा सूतक आदि से संनिरुद्ध यह गांव बडा नही है... किंतु अतिशय छोटा गांव है... अतः आप पूज्य बाहर के गांवों में भिक्षाचर्या के लिये जाएं... इत्यादि अथवा वहां के निवासी कोई एक साधु के भाई भत्तीजे आदि या श्वसुरकुल के लोगों का नाम लेकर कहें... और इन घरों में भिक्षाकाल से पहले ही में प्रवेश करूं, और स्वजनों से इच्छित लाभ की प्राप्ति करूं... जैसे कि- पिंड याने शालि-ओदनादि तथा लोयं याने इंद्रियों को अनुकूल रसादि युक्त भोजन... तथा दूध, दहीं इत्यादि श्रीखंड पर्यंत के आहारादि... किंतु यहां मद्य की बात छेदसूत्र के अभिप्राय को समझें अथवा कोई साधु अतिशय प्रमाद के कारण अत्यंत रसासक्त होने से मधु-मद्य भी ग्रहण करे किंतु यह संयमाचरण के अनुकूल नही है... तथा फाणित याने जल से धोला हुआ गुड तथा शिखरिणी याने दही एवं शक्कर से बना श्रीखंड... इत्यादि भी आहारादि को प्राप्त करके एवं उनको वापर करके पात्र को साफ करके पुनः भिक्षाकाल में अविकृतमुखवाला वह साधु प्राघूर्णक याने आगंतुक (महेमान) साधुओं के साथ गृहस्थों के घर में आहारादि के लिये जाउंगा इत्यादि विचार से माया-जाल (कपट) करे... किंतु संयमी साधुको ऐसी माया नही करनी चाहिये.... - वह साधु वहां गांव में प्राघूर्णक साधुओं के साथ भिक्षा का समय होने पर गृहस्थों के घरों से आहारादि प्राप्त करें कि- जो उद्गमादि दोष रहित एवं एषणीय हो तथा धात्रीदोष आदि उत्पादनादि दोष रहित वैषिक हो... ऐसी भिक्षा को ग्रहण करके प्राघूर्णकादि साधुओं के साथ व्यासैषणादि दोष रहित आहारादि वापरे... यह ही साधु जीवन का संपूर्ण साधुभाव है... V. सूत्रसार : ... प्रस्तुत सूत्र में स्थिरवास रहने वाले मुनियों के पास आए अतिथि मुनियों के साथ उन्हें कैसा व्यवहार करना चाहिए इसका निर्देश किया गया है। कोई साधु हृदय की संकीर्णता के कारण आए हुए अतिथि मुनियों को देखकर सोचे कि- यदि ये भी इसी गांव से भिक्षा लाएंगे तो मेरे को प्राप्त होने वाले सरस आहार में कमी पड़ जाएगी। अतः इस भावना से वह आगन्तुक मुनियों से यह कहे कि- इस गांव में थोड़े घर हैं, उनमें भी कई घर बन्द पड़े हैं, इसलिए इतने साधुओं का आहार इस गांव में मिलना कठिन है। अतः आप दूसरे गांव से आहार ले आएं, या वह उन्हें दूसरे गांव जाने को तो नहीं कहे, परन्तु उनके गोचरी (आहार लाने) Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 2-1-1-4-3 (358) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन को जाने से पूर्व ही अपने माता-पिता या श्वसुर आदि कुलों से या परिचित कुलों से सरसस्वादिष्ट एवं इच्छानुकूल पदार्थ लाकर वापर ले और उसके बाद उनके साथ अन्य साधारण घरों से भिक्षा लाकर वापरे, यह माया एवं छल-कपट का सेवन है। अतः साधु को आगन्तुक मुनियों के साथ ऐसा नहीं करना चाहिए। ऐसा व्यवहार साधुता के अनुकूल तो क्या, मानवता के अनुकूल भी नहीं है, इसलिए सूत्रकार ने इस तरह माया-जाल (कपट) का व्यवहार करने का निषेध किया है। साधु का कर्तव्य है कि- वह नवागन्तुक मुनियों के साथ अभेद वृत्ति रखे, उनके साथ आहार को जाए और जैसा भी आहार उपलब्ध हो उसे संयमभाव से उनके साथ बैठकर वापरें। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'समाणा-वसमाणा' का अर्थ है- जो साधु चलने-फिरने में या विहार करने में असमर्थ होने के कारण किसी एक क्षेत्र में स्थिरवास रहते हैं। निष्कर्ष यह निकला कि- साधु को अतिथि रूप से आए हुए साधु के साथ छल-कपट एवं भेद-भाव का वर्ताव नहीं रखना चाहिए। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझे। / प्रथमचूलिकायां प्रथमपिण्डैषणाध्ययने चतुर्थः उद्देशकः समाप्तः // 卐卐卐 . : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शश्रृंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद विजय यतीन्द्रसरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. "श्रमण" के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययन से विश्व के सभी जीव पंचाचार की दिव्य सुवास को प्राप्त करके परमपद की पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-5-1 (359) 71 आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 1 अध्ययन - 1 उद्देशक - 5 पिण्डैषणा // चौथा उद्देशक कहा, अब पांचवे उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं, इसका यहां यह परस्पर संबंध हैं कि- तीसरे उद्देशक में आहारादि पिंड की ग्रहण विधि कही, अब यहां चौथे उद्देशक में भी वही बात विशेष प्रकार से कहेंगे... ' I सूत्र // 1 // // 359 // . से भिक्खू वा जाव पविढे समाणे से जं पुण जाणिज्जा-अग्गपिंडं उक्खिप्पमाणं पेहाए अग्गपिंड निक्खिप्णमाणं पेहाए अग्गपिंडं हीरमाणं पेहाए अग्गपिंड परिभाइज्जमाणं पेहाए अग्गपिंडं परिभुंजमाणं पेहाए अग्गपिंडं परिदृविजमाणं पेहाए पुरा असिणाइ वा अवहाराइ वा पुरा जत्थ अण्णे समण-वणीमगा खद्धं खद्धं उवसंकमंति, से हंता अहमवि खद्धं खद्धं उवसंकमामि, माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करेजा // 359 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा यावत् प्रविष्टः सन् सः यत् पुन: जानीयात्- अग्रपिण्डं उत्क्षिप्यमाणं प्रेक्ष्य, अग्रपिण्डं ह्रियमाणं प्रेक्ष्य, अग्रपिण्डं परिभज्यमानं प्रेक्ष्य, अग्रपिण्डं परित्यज्यमानं प्रेक्ष्य पुरा अशितवन्तः वा अपहृतवन्त: वा, पुरा यत्र अन्ये श्रमण-वनीपका त्वरितं त्वरितं उपसङ्क्रामन्ति, स: हन्त ! अहमपि त्वरितं त्वरितं उपसङ्क्रमामि, मातृस्थानं संस्पृशेत्, न एवं कुर्यात् // 259 // III सूत्रार्थ : ... कोई साधु अथवा साध्वी आहार के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर अयपिंड को निकालते हुए देखकर, अगपिंड को फेंकते हुए देखकर अथवा अन्य लोगों ने पहले भोजन कर लिया है अथवा अन्य श्रमण-ब्राह्मणादि, अतिथि, दरिद्र, याचक पहले उसे लेने के लिये जा रहे हैं, अतः मैं भी उन आहारादि को ऐसा विचार करने वाला साधु मातृस्थान का स्पर्श करता है। इसलिए ऐसा नहीं करना चाहिए। / / 3 59 // Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 2-1-1-5-1 (359) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन IV टीका-अनुवाद : वह साधु गृहस्थों के घर में प्रवेश करने पर ऐसा जाने कि- अयपिंड याने बनी हुई रसोई शालि-ओदनादि आहार का देवतादि के लिये थोडा थोडा निकालते हुए देखकर, तथा अन्य जगह फेंकते हुए देखकर तथा देवता के मंदिर आदि में ले जाते हुए देखकर तथा थोडा थोडा अन्य लोगों को देते हुए देखकर, तथा भोजन करते हुए देखकर, तथा देवता के मंदिर से चारों दिशाओ में फेंकते हुए देखकर तथा पहले भी अन्य साधु-श्रमणादि इस अग्रपिंड को वापरतें थे, तथा पहले ऐसे अयपिंड को व्यवस्था से या अव्यवस्था से लेते थे, इस अभिप्राय से पुनः पूर्व की तरह हम भी यहां प्राप्त करें ऐसा सोचकर जहां अयपिंडादि हो वहां श्रमण आदि जल्दी जल्दी से जाते हैं ऐसा देखकर वह साधु ऐसा सोचे कि- मैं भी जल्दी से वहां जाऊं... ऐसा करने पर वह साधु माया (कपट) करता है... किंतु साधुओं को ऐसा नही करना चाहिये... अब भिक्षाटन की विधि सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- यदि कोई गृहस्थ अव्यपिंड को देव स्थानक में ले जा रहा हो, या अन्य मत के भिक्षु उस पिण्ड को खा रहे हों, खा चुके हों या खाने जा रहे हों तो जैन मुनि को उस स्थान पर उसे ग्रहण करने के लिए जाने का,संकल्प नहीं करना चाहिए। क्योंकि- वह अयपिण्ड अन्य देव या भिक्षु आदि के निमित्त से निकाला गया है, इसलिए मुनि को ऐसा आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए। परन्तु गृहस्थ ने अपने एवं परिवार के लिए बनाये हुए निर्दोष आहार में से समस्त दोषों को टालते हुए साधु थोड़ा-थोड़ा आहार ग्रहण करें। जैसे- भ्रमर एक ही फूल से रस न लेकर अनेक पुष्पों से थोड़ा-थोड़ा रस लेकर अपने आप को तृप्त करता है और फूल के सौंदर्य को भी नहीं बिगाड़ता, उसी तरह मुनि भी प्रत्येक घर से उतना ही आहार ग्रहण करे जिससे उस परिवार को न तो भूखे रहना पड़े और न फिर से भोजन तैयार करना पड़े। __ प्रस्तुत सूत्र से यह स्पष्ट होता है कि- उस युग में भोजन बनाने के बाद उसमें से देव आदि के निमित्त अयपिण्ड निकालने की परम्परा थी और वह अग्रपिण्ड भी पर्याप्त मात्रा में होता था, जिसे वे लोग देव स्थान पर ले जाकर प्रसाद के रूप में बांटते थे। जैसे आजकल अन्य धर्मों में देव मन्दिर में चढ़ाए गए भोग (अन्न आदि) को बांटने का रिवाज है। उस अयपिण्ड में से शाक्यादि भिक्षु भी प्रसाद या आहार रूप में लेते थे। इसलिए साधु के लिए ऐसा आहार ग्रहण करने का निषेध किया है। क्योंकि- इसमें एषणीय एवं निर्दोषता की कम संभावना रहती है। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-5-2 (380) 73 भिक्षा के लिए साधु को कैसे रास्ते से जाना चाहिए, इसका उल्लेख सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे के सूत्र में करेंगे... I सूत्र // 2 // // 300 / / से भिक्खू वा जाव समाणे अंतरा से वप्पाणि वा फलिहाणि वा पागाराणि वा तोरणाणि वा अग्गलाणि वा अग्गलपासगाणि वा सति परक्क मे संजयामेव परिपकमिजा, नो उज्जुयं गच्छिज्जा, केवली बूया आयाणमेयं, से तत्थ परकममाणे पयलिज वा पक्खलेज वा पवडिज वा, से तत्थ पयलमाणे वा पक्खलेजमाणे वा पवडमाणे वा, तत्थ से काए उच्चारेण वा पासवणेण वा खेलेण वा सिंघाणेण वा वंतेण वा पित्तेण वा पूएण वा सुक्केण वा सोणिएण वा उवलित्ते सिया। ___ तहप्पगारं कायं नो अणंतरहियाए पुढवीए नो ससिणिद्धाए पुढवीए नो ससरपखाए पुढवीए नो चित्तमंताए सिलाए, नो चित्तमंताए लेलूए कोलावासंसि वा दासए जीवपइदिए सअंडे सपाणे जाव ससंताणए नो आमजिज वा पमजिज वा संलिहिज वा निलिहिज्ज वा उव्वलेज्ज वा उव्वट्रिज्ज वा आयाविज्ज वा पयाविज्ज वा से पुवामेव अप्पससरक्खं तणं वा पत्तं वा कटुं वा सक्करं वा जाइजा, जाइत्ता से तमायाय एगंतमवक्कमिज्जा अहे झामथंडिलंसि वा जाव अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि पडिलेहिय पहिलेहिय पमजिय पमज्जिय तओ संजयामेव आमज्जिज्ज वा जाव पयाविज्ज वा / / 380 // II संस्कृत-छाया : .स: भिक्षुः वा यावत् प्रविष्टः सन् अन्तराले तस्य वप्राः वा परिघा: वा प्राकाराः वा तोरणानि वा अर्गलानि वा अर्गलपाशकाः वा सति पराक्रमे संयतः एव पराक्रमेत, व जुना गच्छेत्, केवली ब्रूयात् आदानमेतत्, सः तत्र पराक्रममाणः, प्रचलेत् वा प्रस्खलेद वा प्रपतेत वा। सः तत्र प्रचलन वा प्रस्खलन वा प्रपतन वा, तत्र तस्य काय: उध्दारेण वा प्रस्त्रवणेन वा श्लेष्मणा वा सिङ्घानकेन वा वान्तेन वा पित्तेन वा पूतेन वा शुक्रेण वा शोणितेन वा उपलिप्त: स्यात् / तथा प्रकारं कायं न अनन्तरहितया पृथिव्या सस्निग्धया पृथिव्या, न सरजस्कया पृथिव्या, न चित्तवत्या शिलया, न चित्तवता लेलुना कोलावासभूते वा दारूणि जीवप्रतिष्ठितं साण्डे सप्राणिनि यावत् ससन्तानके, न आमृज्यात् वा न प्रमृज्यात् वा, बसंलिखेत् वा न विलिखेत वा न उद्वलेत् वा न उद्वर्तयेत् वा न आतापयेत् वा, न प्रतापयेत् वा, सः पूर्वमेव अल्प-सरजस्कं तृणं वा पत्रं वा काष्ठं वा सर्करं वा याचेत, Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 2-1-1-5-2 (380) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन याचित्वा सः तमादाय एकान्तमपक्रामेत्, अपक्रम्य दग्धस्थण्डिले वा यावत् अन्यतरे वा तथा प्रकारे प्रतिलिख्य प्रतिलिख्य प्रमृज्य प्रमृज्य ततः संयतः एव आमृज्यात् वा यावत् प्रतापयेत् वा // 380 // III सूत्रार्थ : साधु अथवा सांध्वी अशनादि के लिए महल्ला में, गली में अथवा ग्रामादि में जावे, हुए तब बीच में (रास्ते में) टीले (ऊंचा भूभाग) रवाई के कोट हो, तोरणद्वार हो अथवा आगे दीवार या बाड़ हो तो स्वयं का सामर्थ्य होने पर भी उस मार्ग पर न जाय ! दूसरा मार्ग हो तो उस मार्ग पर होकर जाय। ऐसा केवली भगवन्त कहते हैं। वैसे मार्ग पर जा ने से कर्म-बंध होता है। पूर्वोक्त सीधे मार्ग पर चलने से साधु का पांव फिसल जाएंगा अथवा साधु गिर जायेगा पवि फिसलने से, गिरने से स्वयं को पीड़ा होती है और दूसरें जीवों को पीडा पहुंचती है। उसका शरीर मल, मूत्र, कफ, लीट, वमन, पित्त, मवाद, शुक्र (वीर्य) अथवा रक्त से लिपट सकता है। यतना करने पर भी कदाचित् ऐसा हो जाए तो साधु उपलिप्त स्वयं के शरीर को सचित्त पृथ्वी से, गिली मिट्टी से, सूक्ष्म रज कणवाली मिट्टी से, सचित्त पत्थर से, सचित्त मिट्टी के ढेले से अथवा धुन के बीलों से अथवा धुन वाले काष्ट से जीव युक्त काष्ट से घिसकर साफ न करे। एवं अण्डे युक्त, प्राण युक्त, जालों युक्त वनस्पति से भी वह शरीर पोंछे नहीं, साफ करे नहीं, कुचाले नहीं, कुदरे नहीं, मले नहीं, धूप से तपाएं नहीं / किन्तु सचित्त रज रहित घास, पत्ते, काष्ठ, कंकर आदि की याचना करे, याचना करके एकान्त में जाये। एकान्त में जाकर दग्ध भूमि अथवा ऐसी कोई अचित्त भूमि हो जिसका बारम्बार प्रतिलेखन करके और प्रमार्जन करके यतना पूर्वक शरीर को स्वच्छ करे। || 360 // IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. भिक्षा के लिये गृहस्थों के घर, पाटक (पाडो, महोल्ला) शेरी, गांव आदि में प्रवेश करने पर देखे कि- वहां मार्ग में यदि उंचे किल्ले हो, या अर्गला आदि हो, तो संयत ऐसा साधु राजमार्ग से ही जाये, किंतु अन्य सीधे मार्ग से न जाये... क्योंकिकेवलज्ञानी प्रभु कहतें हैं कि- राजमार्ग को छोडकर अन्य मार्ग में जाने से संयम विराधना एवं आत्मविराधना होती है। जैसे कि- वप्रादि वाले मार्ग में जाने से वह मार्ग विषम होने से चलने में कंपन हो, स्खलन हो, या पतन हो... यदि वह साधु उस विषम मार्ग से जाते हुए स्खलना पाये या गिर जाये तब पृथ्वीकायादि छह मे से कोई भी काय की विराधना हो, और वहां उस साधु का शरीर मल, मूत्र, श्लेष्म (कफ), सिंधानक याने नाक का मल, वमन, पित्त, पूय याने रसी-परु, शुक्र (वीर्य) शोणित याने खून इत्यादि से मलीन हो, इसलिये ऐसे विषम मार्ग से नहि जाना चाहिये... किंतु जब अन्य कोई मार्ग न होने से ऐसे विषम मार्ग से हि जाते हुए Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-5-2 (380) 75 स्खलित हो और कीचड (कादव) से शरीर मलीन हो तब वह साधु उस अशुचि-कीचड आदि से मलीन हुए शरीर को सचित्त (मिट्टी) पृथ्वी से, आर्द्र (मिट्टी) पृथ्वीसे सचित्त शिला से, सचित्त लेलु याने ढेफा (लोष्ठ) से अथवा पृथ्वी (पथ्थर) के टुकडे से, इसी प्रकार कीडे (धूण) वाली लकडी, जीववाले अंडे एवं उस जंतुवाली पृथ्वी पे उस कीचड को साफ न करें और वहां रहा हुआ तपावे (सुखावे) भी नही... किंतु ऐसी स्थिति में अल्परजः कणवाले अचित्त तृण, पत्ते, काष्ठ छोटे पत्थर के टुकड़ों की याचना करके एकांत जीव निर्जन भूमि में जाकर शरीर को साफ करें... v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु को विषम-मार्ग से भिक्षा के लिए नहीं जाना चाहिए। यदि रास्ते में खड़े, खाई आदि हैं, सीधा एवं सम मार्ग नहीं है, तो अन्य मार्ग के होते हुए साधु को उस मार्ग से नहीं जाना चाहिए। क्योंकि- उस मार्ग से जाने पर कभी शरीर में कम्पन होने या पैर आदि के फिसलने पर वह साधु गिर सकता है और उसका शरीर मलमूत्र या नाक के मैल या गोबर आदि से लिप्त हो सकता है और उसे साफ करने के लिए सचित्त मिट्टी, सचित्त लकड़ी या सचित्त पत्थर या जीव-जन्तु से युक्त काष्ठ का प्रयोग करना पड़े। इससे अनेक जीवों की विराधना होने की संभावना है। अतः साधु को ऐसे विषम मार्ग का त्याग करके अच्छे रास्ते से जाना चाहिए। यदि अन्य मार्ग न हो और उधर जाना आवश्यक है तो उसे विवेक पूर्वक उस रास्ते को पार करना चाहिए और विवेक रखते हुए भी यदि उसका पैर फिसल जाए और वह गिर पड़े तो अपने अशुचि से लिपटे हुए अंगोपाङ्गों को सचित्त मिट्टी आदि से साफ न करे, परंतु अचित्त काष्ठ-कंकर की याचना करके एकान्त स्थान में चले जाना चाहिए और वहां अचित्त भूमि को देखकर वहां जीव-जन्तु से रहित अचित्त काष्ठ आदि के टुकड़े एवं अचित्त मिट्टी से अशुचि को साफ करके, फिर से अपने शरीर को धूप में सूखाकर शुद्ध करना चाहिए। आगम में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि- अशुचि को दूर करने के लिए साधु अचित्त पानी का उपयोग कर सकता है। आगम में यह भी बताया गया है कि- गुरु एवं शिष्य शौच के लिए एक ही पात्र में पानी ले गए हों तो शिष्य को गुरु से पहले शुद्धि नहीं करनी चाहिए। और प्रतिमाधारी मुनि के लिए सब तरह से जल स्पर्श का निषेध होने पर भी शौच के लिए जल का उपयोग करने का आदेश दिया गया है। आगम में पांच प्रकार की शुद्धि का वर्णन आता है, वहां जल से शुद्धि करने का भी उल्लेख है। और अशुचि की अस्वाध्याय भी मानी है। इससे स्पष्ट होता है कि- जल से अशुचि दूर करने का निषेध नहीं किया गया है। साधक को यह विवेक अवश्य रखना चाहिए कि- पहले अचित्त एवं जन्तु रहित काष्ठ आदि से साफ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 2-1-1-5-3 (361) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन करके फिर अचित्त पानी से साफ करे। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे का सूत्र कहेंगे। सूत्र // 3 // // 361 // से भिक्खू वा० से जं पुण जाणिजा गोणं वियालं पडिपहे पेहाए, महिसं वियालं पडिपहं पेहाए, एवं मणुस्सं आसं हत्थिं सीहं वग्धं विगं दीवियं अच्छं तरच्छं परिसरं सियालं बिरालं सुणयं कोलसुणयं कोकंतियं चित्ताचिल्लडयं वियालं पडिपहे पेहाए से सइ प रक्कमे संजयामेव परक्कमेजा, नो उज्जुयं गच्छेज्जा / से भिक्खू वा समाणे अंतरा से उवाओ वा खाणुए वा कंटए वा घसी वा भिलुगा वा विसमे वा विजले वा परियावजिजा, सह परक्कमे संजयामेव, नो उज्जुयं गच्छिज्जा। || 361 // II संस्कृत-छाया : सः भिक्षाः वा सः यत् पुनः जानीयात्-गां व्यालं प्रतिपथे प्रेक्ष्य, महिषं व्यालं प्रतिपथे प्रेक्ष्य एवं मनुष्यं अवं हस्तिनं सिंहं व्याघ्रं वृकं द्वीपिनं ऋक्षं तरक्षं सरभं शृगालं बिडालं थूनकं कोलथूनकं (महाशूकर) लोमकं चित्ताचिल्लडयं (जंगली पशु) व्यालं प्रतिपथे प्रेक्ष्य सति पराक्रमे संयतः एव पराक्रमेत, न ऋजुना गच्छेत् / सः भिक्षुः वा प्रविष्टः सन् अन्तराले सः अवपात: वा स्थाणु वा कण्टक: वा घसी वा, भिलुगा वा विषमं वा विजलं वा पर्यापद्येत, सति पराक्रमे संयत एव, न ऋजुना गच्छेत् // 361 // III सूत्रार्थ वह साधु और साध्वी भिक्षा लेने के लिए जा रहे हो तब वे जाने कि- मार्ग में दुष्ट मदोन्मत सांड़, भंसा, मनुष्य, अश्व, हाथी, सिंह, बाघ, भेडिया, चित्ता, तरश, व्याघ्र, सरभ (अष्टापद) सियार, बिल्ला, कुत्ता, वराह, सूअर, लोमडी या के चित्तचिल्लडय-एक प्रकार का जंगली प्राणी रास्ते में हो और दूसरा रास्ता भी हो तो उस भयवाले सीधे रास्ते पर न जाऐ किंतु दूसरे रास्ते से जाऐ। साधु अथवा साध्वी मार्ग में जा रहे हो तब मार्ग में खड़े, ढूंठ, कांटे उतराई की भूमि हो, फटी हुई जमीन, विषमता अथवी कीचड़ आदि हो तो उस मार्ग से न जाए, यदि दूसरा मार्ग हो तो उस मार्ग से जाएं। / / 361 // IV टीका-अनुवाद : वह साधु भिक्षा के लिये गांव की ओर निकला हुआ मार्ग में उपयोग दे, और यदि ऐसा ज्ञात हो कि- यहां कोई उन्मत्त बैल आदि मार्ग को रोके है... तब अन्य मार्ग हो तो उस मार्ग से न जायें... क्योंकि- वहां संयम विराधना एवं आत्मविराधना होने की संभावना है... Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-5-4 (362) 77 दुष्ट बैल, दुष्ट महिष (पाडा) दुष्ट मनुष्य, घोडा, हाथी, सिंह, वाघ, वरू, चित्ता, रीछ, तरक्ष, सरभ, कुत्ते, सूअर, लोमडी, सियार, बिलाडे, इत्यादि भयानक जंगली पशु मार्ग में चिल्लाते हो, तब ऐसे मार्ग से न जायें... तथा वह साधु भिक्षा के लिये निकले तब मार्ग में ध्यान दें कि- बीच में खड्डा, ढूंठ, विषय याने ऊंची-नीची भूमि और कादव कीचड हो तो संयम एवं आत्म विराधना होने की संभावना से, अन्य मार्ग होने पर उस सीधे मार्ग से न जायें... सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- भिक्षा के लिए जाते समय साधु को विवेक से चलना चाहिए। यदि रास्ते में मदोन्मत्त बैल या हाथी खड़ा हो, या सिंह, व्याघ्र, भेड़िया आदि जङ्गली जानवर खडे हो तब अन्य मार्ग के होते हुए साधु को उस मार्ग से नहीं जाना चाहिए और इसी तरह जिस मार्ग में गड्ढे आदि हैं उस पथ से भी नहीं जाना चाहिए। क्योंकि- उन्मत्त बैल एवं हिंसक जन्तुओं से आत्म विराधना हो सकती है और गड्ढे आदि से युक्त पथ से जाने पर संयम की विराधना हो सकती है। अतः मुनि को उस पथ से न जाकर अन्य पथ से जाना चाहिए, यदि अन्य मार्ग कुछ लम्बा भी पड़ता हो तो संयम रक्षा के लिए लम्बे रास्ते से जाना चाहिए। .. उस युग में कई बार मुनि को भिक्षा के लिए एक गांव से दूसरे गांव भी जाना पड़ता था और कहीं-कहीं दोनों गांवों के बीच में पड़ने वाले जंगल में सिंह, व्याघ्र आदि जङ्गली जानवर भी रास्ते में मिल जाते थे। इसी अपेक्षा से इनका उल्लेख किया गया है। परन्तु, इसका यह अर्थ नहीं है कि- कुत्तों की तरह शेर भी गांवों की गलियों में घूमते रहते थे। अतः आहार के लिए जाने वाले मुनि को नामान्तर में जाते हुए शेर आदि का मिल जाना भी संभव है, इस दृष्टि से सूत्रकार ने मुनि को यतना एवं विवेक पूर्वक चलने का आदेश दिया है। ___ इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र 'कहतें हैं। I सूत्र // 4 // // 362 // से भिक्खू वा गाहावडकुलस्स दुवारबाहं कंटगबुंदियाए परिपिहियं पेहाए तेसिं पुष्वामेव उग्गहं अणणुण्णविय अपडिलेहिय अपमज्जिय नो अवंगुणेज वा पविसिज्ज वा निक्खमिज वा तेसिं पुवामेव उग्गहं अणुण्णविय पडिलेहिय पडिलेहिय पमजिय पमजिय तओ संजयामेव अवंगुणिज वा पविसिज वा निक्खमिज वा। // 362 // Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 2-1-1-5-4 (362) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन II संस्कृत-छाया : . स: भिक्षुः वा गृहपतिकुलस्य द्वारभागं कण्डकशाखया परिपिहितं प्रेक्ष्य तेषां पूर्वमेव अवग्रहं अननुज्ञाप्य अप्रत्युपेक्ष्य अप्रमृज्य न उद्घाटयेत् वा प्रविशेत् वा निष्क्रामेत् वा, तेषां पूर्वमेव अवग्रहं अनुज्ञाप्य प्रत्युपेक्ष्य प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्य प्रमृज्य ततः संयतः एव उद्घाटयेत् वा प्रविशेत् वा निष्क्रामेत् वा || 362 // III सूत्रार्थ : साधु और साध्वी गृहस्थ के घर में प्रवेश करते हुए मुख्य द्वार को कांटो से ढंका हुआ देखकर पहले गृहस्वामी की अनुज्ञा लिये बिना, अच्छी प्रकार से देखे बिना और प्रमार्जना किये बिना उस द्वार को न खोले, न प्रवेश करे। गृहस्वामी की आज्ञा लेकर, पश्चात् प्रतिलेखन (बार-बार) करके, बारम्बार प्रमार्जन करके, यतना पूर्वक खोलकर प्रवेश करे और उसमें से निकलें। / / 362 // IV टीका-अनुवाद : ___ वह साधु आहारादि के लिये निकले तब देखे कि- गृहस्थ के घर का द्वार कांटो से ढका हुआ है, इस स्थिति में साधु उन गृहस्थ के अवग्रह की आज्ञा लिये बिना एवं आंखों से देखे बिना तथा रजोहरणादि से प्रमार्जन किये बिना द्वार न खोले, न प्रवेश करे एवं न निकले... क्योंकि- आज्ञा लिये बिना ऐसा करने से गृहस्थ को गुस्सा आवे, या कोई वस्तु न मिलने पर साधु पर शंका हो... और द्वार खुला रहने पर अन्य पशु आदि का प्रवेश हो... इत्यादि कारणों से संयम एवं आत्मविराधना की संभावना है... किंतु यदि कोई विशेष कारण हो तब साधु उन गृहस्थों की अनुज्ञा लेकर तथा प्रमार्जनादि करके द्वार खोले... एवं प्रवेश करे... यहां सारांश यह है कि- स्वयं द्वार खोलकर प्रवेश न करें... यदि ग्लान याने रोगावस्था या आचार्यादि के योग्य कुछ आहारादि प्राप्त न हो तथा दुर्भिक्ष के कारण से आहारादि पर्याप्त प्राप्त न हो... इत्यादि कारण होने पर यदि दरवाजा बंद हो तब आवाज दें या स्वयं हि यथाविधि द्वार खोलकर प्रवेश करें। अब वहां प्रवेश करने पर क्या करना चाहिये वह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करते समय साधु यह देखे कि- घर का द्वार (कण्टक शाखा से) बन्द है, तब उस घर के व्यक्ति से Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-5-5 (363) 79 आज्ञा लिए बिना तथा रजोहरण आदि से प्रमार्जित किए बिना उसे खोले नहीं, और न उस घर में प्रवेश करे तथा न वहां से वापिस बाहर निकले। इससे स्पष्ट होता है कि- यदि गृहस्थ के घर का दरवाजा बन्द है और साधु को कार्यवश उसके घर में जाना है तो उस घर के व्यक्ति की आज्ञा से यतना पूर्वक द्वार को देखकर खोल सकता है और उसके घर में जा-आ सकता है। गृहस्थ के बन्द द्वार को उसकी आज्ञा के बिना खोलकर जाने से कई दोष लगने की सम्भावना है-१-यदि कोई महिला स्नान करी रही हो तब साधुको देखकर क्रोधित हो सकती है, २-घर का मालिक आवेश वश साधु को अपशब्द भी कह सकता है, 3-यदि उसके घर से कोई वस्तु चली जाए तो साधु पर उसका दोषारोपण भी हो सकता है और ४-द्वार खुलने से पशु अन्दर जाकर कुछ पदार्थ खा जाएं या बिगाड़ दे या तोड़-फोड़ कर दें तो उसका आरोप भी साधु पर लग सकता है। इस तरह बिना आज्ञा दरवाजा खोलकर जाने से कई दोष लगने की सम्भावना है, अतः साधु को घर के व्यक्ति की आज्ञा लिए बिना उसके घर के दरवाजे को खोलकर अन्दर नहीं जाना चाहिए। . गृहस्थ के घर में प्रविष्ट होने के बाद साधु को किस विधि से आहार लेना चाहिए, इसका उल्लेख सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहतें हैं... I सूत्र // 5 // // 33 || से भिक्खू वा से जं पुण जाणिज्जा समणं वा माहणं वा गामपिंडोलगं वा अतिहिं वा पुव्वपविटुं पेहाए नो तेसिं संलोए सपडिदुवारे चिट्ठिजा, से तमायाय एगंतमवक्कमिजा अणावायमसंलोए चिट्ठमाणस्स असणं वा, आहट्ट दलइज्जा, से य एवं वइज्जा आउसंतो समणा ! इमे मे असणे वा, सव्वजणाए निसट्टे, तं भुंजह वा णं, तं परिभाएह वा णं, तं चेगइओ पडिग्गाहित्ता तुसिणीओ उवेहिज्जा, अवियाइं एयं मममेव सिया, माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करिज्जा, से तमायाए तत्थ गच्छिज्जा से पुट्वमेव आलोइज्जा || - आउसंतो समणा ! इमे मे असणे वा सव्वजणाए निसिढे, तं भुंजह वा णं जाव परिभाएह वा णं, सेणमेणं परो वइज्जा-आउसंतो समणा ! तुमं चेव णं परिभाएहि, से तत्थ परिभाएमाणे नो अप्पणो खद्धं डायं ऊसढं रसियं मणुण्णं निद्धं, लुक्खं से तत्थ अमुच्छिए अगिद्धे अ(ना)गढिए अणज्झोववण्णे परो वइजा-आउसंतो समणा ! मा णं तुमं परिभाएहि, सव्वे वेगइआ ढिआउ भुक्खामो वा पाहामो वा, से तत्थ भुंजमाणे नो अप्पणा खद्धं, जाव लुक्खं, से तत्थ अमुच्छिए, बहुसममेव भुंजिज्ज वा पाइज्जा वा / / 383 || Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 2-1-1-5-5 (363) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा सः यत् पुन: जानीयात् - श्रमणं वा ब्राह्मणं वा ग्रामपिण्डावलगकं वा अतिथिं वा पूर्वप्रविष्टं प्रेक्ष्य न तेषां संलोके सप्रतिद्वारे तिष्ठेत्, सः तमादाय एकान्तमपक्रामेत् अपक्रम्य अनापातमसंलोके तिष्ठेत् सः तस्य परः अनापातमसंलोके तिष्ठत: अशनं वा आहात्य दद्यात्, स: च एवं ब्रूयात् हे आयुष्मन्तः श्रमणा: ! अयं मया अशनं वा, सर्वजनार्थं निसृष्टम्, तत् भुङ्ग्ध्वं वा परिभजध्वं वा, तं च एकाकी प्रतिगृह्य तुष्णीकः उत्प्रेक्षेत-अविदितं एतत् मम एव स्यात्, मातृस्थानं संस्पृशेत्, न एवं कुर्यात्, स: तमादाय तत्र गच्छेत्, गत्वा स: पूर्वमेव आलोकयेत् - हे आयुष्मन्तः श्रमणाः ! अयं मह्यं अशनादिकः, सर्वजनार्थं निसृष्टः, तत् भुङ्ग्ध्वं वा यावत् परिभजध्वं वा, स: एनं एवं पर: ब्रयात - हे आयुष्मनः श्रमण ! त्वमेव परिभाजय, सः तत्र परिभाजयन न आत्मनः प्रचुरं शाकं उच्छ्रितं रसितं, मनोज्ञं स्निग्धं रुक्ष, सः तत्र अमुर्छित: अगृद्धः अनादृतः अनध्युपपन्न: बहुसमं एव परिभाजयेत्, तं परिभाजयन्तं परः ब्रूयात् - हे आयुष्मन् श्रमण ! मा त्वं रिभाजय, सर्वे एव एकात्रिता: स्थिता: तु भोक्ष्यामहे वा पास्यामः वा, सः तत्र भुजान: न आत्मना प्रचुरं यावत् रुक्ष, सः तत्र अमूर्छितः, बहुसमं एव भुञ्जीत वा पिबेत् वा || 383 || III सूत्रार्थ : वह भिक्षु और भिक्षुणी गृहस्थ के घर में प्रथम प्रवेश किये हुए कोई श्रमण, ब्राह्मण अथवा भिक्षुक आदि को देखकर ऐसी जगह पर खड़ा न रहे कि- वे उन्हें देख पाये. अथवा उनके जाने के मार्ग में खड़ा न रहे। केवलज्ञानी का फरमान है कि- वह कर्मबंधन का स्थान है। साधु को ऐसे स्थान पर खड़ा रहा हुआ देखकर गृहस्थ साधु के लिये आहार बनायेगा। इसलिए वोक्त कथन अनुसार ऐसी प्रतिज्ञा, ऐसा हेतु और ऐसा उपदेश आवश्यक है कि- ऐसे स्थान पर खड़ा न रहे कि- जिससे वह देख सके। किन्तु मुनि प्रथम किसी को आए हुए जानकर एकान्त स्थान में चले जाए। और एकान्त में जाकर ऐसी जगह पर खड़े रहे किजहां अन्य किसीका आवागमन न हो और कोई देख भी न सके। कदाचित् एकान्त में स्थिर साधु को गृहस्थ अशन आदि लाकर देवे और कहे कि- हे आयुष्मन् श्रमण ! आप सभी के लिये यह आहार मैंने दिया हैं। इसलिए आप सब इसका उपयोग करे (उपभोग करे) और परस्पर विभाजन कर ले। गृहस्थ का यह वचन सुनकर साधु चुपचाप ग्रहण करके मनमें विचार करें कि- यह आहार मात्र मेरे लिए ही योग्य है। अतः ऐसा विचारने वाला साधु मातृस्थान का स्पर्श करता है इसलिये साधु ऐसा न करे। किन्तु संमिलित आहार लेकर जहां श्रमणादि स्थित है वहां जाएं और कहे कि- आयुष्मन् श्रमणो / यह अशनादि सभी के लिये मिला हैं। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-5-5 (363) 81 उसका उपयोग करे। दूसरें श्रमणादि ऐसा कहने वाले साधु को कहे कि- हे आयुष्मन् श्रमण ! औप ही इसे हम सबको बांट दो ! तब वह साधु भोजन का विभाग करता हुआ अपने लिये स्वादिष्ट पकवान, उत्तम सब्जी, सरस भोजन, मनोज्ञ स्निग्ध पदार्थ, अथवा रुखा-सुखा भोजन ग्रहण न करे वह साधु अधुरा मूच्छभिाव न रखता हुआ। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. ऐसा जाने कि- श्रमण, ब्राह्मण, ग्रामपिंडावलगक, या अतिथि, पहले से ही प्रवेश किये हुए हैं, तब उनके नजर में आवे ऐसा दरवाजे पर खडे न रहें... क्योंकिदाता एवं प्रतिव्याहक को असमाधि एवं अंतराय होने की संभावना है... अतः वह साधु उन श्रमणादि को भिक्षा के लिये आये हुए देखकर एकांत (निर्जन) में जाकर खडे रहें कि- जहां कोई आवे नही और देखे नही... अब वहां खडे हुए उस साधु को वह गृहस्थ आहारादि लाकर दे और कहे कि- आप बहुत सारे लोग भिक्षा के लिये आये हुए हो और मैं अन्य कार्यों में व्यस्त हूं अतः मैं आपको बांटकर नहि दे सकता... अतः हे श्रमणजन ! यह चारों प्रकार का आहार मैंने आप सब को दीया है, तो अब आप अपनी अपनी इच्छारूचि के अनुसार एक जगह भोजन करो या विभाग करके लें जाओ... इस प्रकार के आहारादि को उत्सर्ग विधि से साधु न लें... किंतु दुर्भिक्ष हो या मार्ग के श्रम से थक गये हो तो अपवाद विधि के कारण होने पर ग्रहण करें... और आहारादि को ग्रहण करके चुपचाप वह साधु जाता हुआ विचारे किमुझे अकेले को हि यह आहारादि दीया है, और अल्प भी है अतः मेरे अकेले को हि हो... ऐसी माया (कपट) न करे... किंतु वह साधु उस आहारादि को लेकर वहां श्रमण आदि के पास जावे और उन्हे पहले सब आहारादि दिखावे और कहे कि- हे श्रमणादि लोगों ! यह आहारादि आप सभी के लिये गृहस्थ ने दिया है अतः आप एक जगह भोजन करो या बांट लो... अब ऐसा कहते हुए उस साधु को कोई श्रमणादि ऐसा कहे कि- हे श्रमण ! आप ही हमें बांट कर दो, अब वह साधु ऐसा विभाग स्वयं तो न करे किंतु कारण होने पर यदि विभाग करना हो तो वह साधु अच्छे वर्णादिवाले सब्जी आदि स्वयं न ले... किंतु आहारादि में मूरिहित, अनासक्त, आदि गुणवाला वह सभी आहारादि को समान विभागसे बांटे... अब इस प्रकार विभाग करते हुए उस साधु को कोईक श्रमणादि कहे कि- हे श्रमण ! आप विभाग मत करो.. हम एक ही जगह रहकर भोजन करेंगे... किंतु वहां अन्य मतवालों के साथ साधु भोजन न करें... परंतु अपने समुदाय के साधुओं के साथ तथा सांभोगिक पासत्थादि के साथ सामान्य से आलोचना देकर भोजन करने की विधि से भोजन करें अर्थात् आहारादि वापरें... यहां पूर्व के सूत्र में बाहर के आलोकस्थान का त्याग करने को कहा, अब गृहस्थ के घर में प्रवेश करने की विधि कहने के लिये सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहेंगे... Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 2-1-1-5-5 (363) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- भिक्षा के लिए गया हुआ साधु यह देखे किगृहस्थ के द्वार पर शाक्यादि अन्य मत के भिक्षुओं की भीड़ खड़ी है, तो वह गृहस्थ के घर में प्रवेश न करके एकान्त स्थान में खडा हो जाए। यदि गृहस्थ उसे वहां खड़ा हुआ देख ले और उसे अशन आदि चारों प्रकार का आहार लाकर दे और साथ में यह भी कहे किमैं गृह कार्य में व्यस्त रहने के कारण सब साधुओं को अलग-अलग भिक्षा नहीं दे सकता। अतः आप यह आहार ले जाएं और आप सबकी इच्छा हो तो साथ बैठकर खा लें या आपस में बांट ले। इस प्रकार के आहार को ग्रहण करके वह भिक्षु (मुनि) अपने मन में यह नहीं सोचे कि- यह आहार मुझे दिया गया है, अतः यह मेरे लिए है और वस्तुतः मेरा ही होना चाहिए, यदि वह साधु ऐसा सोचता है तो उसे दोष लगता है। अतः वह मुनि उस आहार को लेकर वहां जाए जहां अन्य भिक्षु खड़े हैं और वह आहार दिखाकर उनसे यह कहे कि- गृहस्थ ने यह आहार हम सब के लिए दिया है। यदि आपकी इच्छा हो तो सम्मिलित खा लें और आपकी इच्छा हो तो सभी परस्पर बांट लें। यदि वे कहें कि- मुनि तुम ही सब को विभाग कर के दे दो, तो मुनि सरस आहार की लोलपता में फंसकर अच्छा-अच्छा आहार अपनी ओर न रखे, किंतु समभाव पूर्वक वह सभी का समान हिस्सा कर दे। यदि वे कहें कि- विभाग करने की क्या आवश्यकता है। सब साथ बैठकर ही खा लें, तो वह मुनि उनके साथ बैठकर अनासक्त भाव से आहार करे। __ प्रस्तुत पाठ पर यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि- क्या जैन मुनि शाक्यादि अन्य मत के भिक्षुओं के साथ बैठकर आहार कर सकता है ? अपने द्वारा व्यहण किया गया आहार उन्हें दे सकता है ? इस पर वृत्तिकार का यह अभिमत है कि- उत्सर्ग मार्ग में तो साधु ऐसे आहार को स्वीकार नहीं करता किंतु दुर्भिक्ष आदि के प्रसंग पर अपवाद में वह इस तरह का आहार ग्रहण कर सकता है। परन्तु, इतना होने पर भी उसे अन्य मत के भिक्षुओं के साथ बैठकर नहीं खाना चाहिए। किन्तु जो पार्श्वस्थ जैन मुनि या सांभोगिक हैं, उन्हें ओघ आलोचना देकर उनके साथ खा सकता है। आगम में एक स्थान पर गौतम स्वामी उदक पेढ़ाल पुत्र को कहते हैं कि- हे श्रमण ! मुनि किसी गृहस्थ या अन्यतीर्थिक (मत के) साधु के साथ आहार नहीं कर सकता। यदि वह गृहस्थ या अन्य मत का साधु दीक्षा ग्रहण कर ले तो फिर उसके साथ आहार कर सकता है। परन्तु, यदि वह किसी कारणवश दीक्षा का त्याग करके पुनः अपने पूर्व रूप में परिवर्तित हो जाए तो फिर उसके साथ साधु आहार नहीं कर सकता। इससे स्पष्ट होता है कि- मुनि का आहार-पानी का सम्बन्ध अपने समान आचार-विचार वाले साधु के साथ ही है, अन्य Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-5-6 (364) 83 भिक्षुकों के साथ नहीं। अतः इसका तात्पर्य यह है कि- गृहस्थ ने जो आहार दिया वह अन्य मत के साधुओं को सम्बोधित करके नहीं, प्रत्युत उक्त साधु के साथ के अन्य साम्भोगिक साधुओं को सम्बोधित करके दिया है। अतः वह अपने साथ के अन्य मुनियों के पास जाकर उन्हें वह आहार दिखाए और उनके साथ या उन सबका समविभाग करके उस आहार को खाए। इस तरह यह सारा प्रसंग अपने समान आचार वाले मुनियों के लिए ही घटित होता है। वृत्तिकार एवं टब्बाकार दोनों के अभिमतों में टब्बाकार का अभिमत आगम सम्मत प्रतीत होता है। ‘गच्छेज्जा' और 'आउसंतो समणा' शब्दा टब्बाकार के अभिमत को ही पुष्ट कहते हैं। यदि अन्यमत के साधुओं के साथ ही आहार करना होता तो वे सब वहीं गृहस्थ के द्वार पर ही उपस्थित थे, अतः कहीं अन्यत्र जाकर उन्हें दिखाने का कोई प्रसंग उपस्थित नहीं होता और साधु की मर्यादा है कि- वह गृहस्थ के घर से ग्रहण किया गया आहार अपने सांभोगिक बड़े साधुओं को दिखाकर सभी को आहार करने की प्रार्थना करके फिर आहार ग्रहण करे और यह बात गच्छेज्जा' शब्द से स्पष्ट होती है और 'आयुष्मन् श्रमणो' यह शब्द भी सांभोगिक साधुओं के लिए प्रयुक्त हुआ है, ऐसा इस पाठ से स्पष्ट परिलक्षित होता है। "पुरा पेहाए तस्सट्ठाए परो असणं वा 4 आहट्ट दलएज्जा अह भिक्खू णं पुव्वोवदिट्ठा एस पतिन्ना, एस हेउ, एस उवएसो जं णो तेसिं संलोए सपड़िदुवारे चिट्ठज्जा से तमायाए एगंतमवक्कमिज्जा 2 अणावायमसंलोए चिट्ठज्जा / ' इसका तात्पर्य यह है कि- केवली भगवान ने इसे कर्म आने का मार्ग कहा है। (अन्य मत के भिक्षुओं और भिखारियों को लांघकर गृहस्थ के घर में जाने तथा उनके सामने खड़े रहने को)। क्योंकि- यदि उनके सामने खड़े हुए मुनि को गृहस्थ देखेगा तो वह उसे वहां आहार आदि पदार्थ लाकर देगा। अतः उनके सामने खड़ा न होने में यह कारण रहा हुआ है तथा यह पूर्वोपदिष्ट है कि- साधु उनके सामने खड़ा न रहे। इससे अनेक दोष लगने की संभावना है। अब गृहस्थ के घर में प्रवेश के सम्बन्ध में सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 6 // // 364 // से भिक्खू वा. से जं पुण जाणिज्जा समणं वा माहणं वा गामपिंडोलगं वा अतिहिं वा पुटव-पविढे पेहाए नो तं उवाइक्कम्म पविसिज वा ओभासिज्ज वा, से तमायाय एगंतमवक्कमिज्जा आणावायमसंलोए चिट्ठिजा, अह पुणेवं जाणिजा-पडिसेहिए वा दिण्णे वा तओ तंमि नियत्तिए संजयामेव पविसिज वा ओभासिज्ज वा, एवं एयं सामग्गियं / / 364 // Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 2-1-1-5-6 (364) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन - II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा सः यत् पुन: जानीयात् श्रमणं वा ब्राह्मणं वा ग्रामपिण्डावलगकं वा अतिथिं वा पूर्वप्रविष्टं प्रेक्ष्य, न तान् उपातिक्रम्य प्रविशेत् वा अवभाषेत वा / सः तमादाय एकान्तमपक्रामेत्, अपक्रम्य अनापातमसंलोके तिष्ठेत्, अथ पुन: एवं जानीयात्प्रतिषिद्धे वा दत्ते वा, ततः तस्मिन् निवृत्ते संयत एव प्रविशेत् वा अवभाषेत वा, एवं एतत् सामग्यम् / / / 364 // III सूत्रार्थ : साधु और साध्वी ऐसा जाने कि- कोई अन्य श्रमण, ब्राह्मण, याचक या अतिथि पूर्व में गृहस्थ के घर में प्रवेशित है। तो उसके आगे होकर गृहस्थ के घर में जायें नहीं, और बोले भी नहीं। किंतु अपने पात्र को लेकर एकांत स्थान में जाकर दृष्टिपथ से दूर खड़ा रहे एवं जब ऐसा जाने कि- उसको मना कर दिया है या उसको भिक्षा दे दी गई है तब उसके (भिक्षुक-याचक-ब्राह्मण-अतिथि) जाने के बाद यतना सहित वह प्रवेश करे या बोले। साधु साध्वी के लिए यह वास्तविक क्रियाविधि है। ऐसा मैं कहता हूं। || 364 // IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. आहारादि के लिये गांव आदि में प्रवेश करने पर ऐसा जाने कि- यहां गृहस्थ के घर में श्रमणादि प्रवेश किये हुए हैं... इस स्थिति में वह साधु पूर्वप्रविष्ट उन श्रमण आदि को ओलंगकर प्रवेश न करें और नही वहां खडे रहकर दाता से याचना करें किंतु इस स्थिति में वह साधु एकांत में जाकर खडा रहें अर्थात् तब तक कोई न देखे एवं कोई न आवे ऐसी जगह खडा रहे कि- जब तक वे उन श्रमणादि को, या तो निषेध करे या आहारादि दे... उसके बाद जब वे श्रमणादि उस घर में से निकले तब संयत ऐसा वह साधु उस घर में प्रवेश करे एवं याचना करे... इस प्रकार की आचरणा से ही उस साधु का संपूर्ण साधुभाव होता है... V सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- यदि किसी गृहस्थ के द्वार पर पहले से शाक्यादि मत के भिक्षु खड़े हैं, तो मुनि उन्हें उल्लंघकर गृहस्थ के घर में प्रवेश न करे और न आहार आदि पदार्थो की याचना करे। उस समय वह एकान्त में ऐसे स्थान पर जाकर खड़ा हो जाए, जहां पर गृहस्थादि की दृष्टि न पड़े। और जब वे अन्य मत के भिक्षु भिक्षा लेकर वहां से हट जाएं या गृहस्थ उन्हें बिना भिक्षा दिए ही वहां से हटा दे, तब मुनि उस घर में भिक्षार्थ जा सकता है और निर्दोष एवं एषणीय आहार आदि पदार्थ ग्रहण कर सकता है। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-5-6 (364) 85 अन्य मत के भिक्षुओं को उल्लंघकर जाने से गृहस्थ के मन में भी द्वेष-भाव आ सकता है कि यह कैसा साधु है, इसे इतना भी विवेक नहीं है कि- पहले द्वार पर खड़े व्यक्ति को लांघ कर अन्दर आ गया है। उसके मन में यह भी आ सकता है कि- क्या भिक्षा के लिए सभी भिक्षुओं को मेरा ही घर मिला है। और यदि गृहस्थ भक्तिवश मुनि को देखकर उन्हें पहले आहार देने लगेगा तो इससे उन भिक्षुओं की वृत्ति में अंतराय पड़ेगी। और इस कारण वे गृहस्थ को पक्षपाती कह सकते हैं और साधु को भी बुरा-भला कह सकते हैं। अतः मुनि को ऐसे समय पर एकान्त स्थान में खड़े रहना चाहिए, किन्तु अन्य मत के भिक्षुओं एवं अन्य भिखारियों को उल्लंघकर किसी भी गृहस्थ के घर में प्रविष्ट नहीं होना चाहिए। यदि साधु के प्रवेश करने के पश्चात् कोई अन्य मत का भिक्षु या भिखारी आता हो तो उस साधु के लिए उस घर से आहार लेने का निषेध नहीं है। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझनी चाहिए। || प्रथम चूलिकायां प्रथमपिण्डैषणाध्ययने पंचमः उद्देशकः समाप्तः // ___ 卐卐卐 ' : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शगुंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट -परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. "श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययन से विश्व के सभी जीव पंचाचार की दिव्य सुवास को प्राप्त करके परमपद की पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. // राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058. Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 2-1-1-6-1 (365) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 1 अध्ययन - 1 उद्देशक - 6 . पिण्डैषणा पांचवे उद्देशक के बाद अब छठे उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं... और यहां परस्पर यह संबंध है कि- पांचवे उद्देशक में श्रमणादिकों को अंतराय न हो अतः गृहप्रवेश का निषेध किया है... अब इस छठे उद्देशक में अन्य प्राणियों को भी अंतराय न हो अतः इस भय से इस छठे उद्देशक में भी प्रवेश निषेध विधि कहतें हैं... I सूत्र // 1 // // 365 // से भिक्खू वा से जं पुण जाणिज्जा- रसेसिणो बहवे पाणा घासेसणाए संथडे संनिवइए पेहाए, तं जहा कुक्कुडजाइयं वा सूयरजाइयं वा अग्गपिंडंसि वा वायसा संथडा संनिवाइया पेहाए सड़ परक्कमे संजया नो उज्जुयं गच्छेज्जा || 365 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा सः यत् पुनः जानीयात् - रसैषिणः बहून् प्राणिनः ग्रासैषणार्थं संस्तृतान् संनिपतितान् प्रेक्ष्य तद्-यथा-कुक्कुटजातिकं वा शूकर जातिकं वा अग्रपिण्डे वा वायसान् संस्तृतान् संनिपतिताम् प्रेक्ष्य सति पराक्र मे संयतः न ऋजुना गच्छेत् / / 365 // III सूत्रार्थ : साधु और साध्वी गोचरी जाते समय बहुत से प्राणिओं को आहार की खोज में भूमि पर एकत्रित हुए देखे जैसे कि- कुर्केटजाति के अर्थात् द्विपद और शुकर जाति के अर्थात् चतुष्पद अथवा अयपिंड के लिए कौवे आदि नीचे एकत्रित हुए देखे तब यदि अन्य मार्ग हो तो उस मार्ग से यतना पूर्वक जाए, परंतु उन प्राणियों को भय और अंतराय उत्पन्न हो ऐसे उस मार्ग से गमन न करें | 365 // IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. भिक्षा के लिये गांव में प्रवेश करने पर देखे कि- बहुत सारे क्षुद्र जंतु-प्राणी भोजन के लिये कहिं शेरी आदि में रहे हुए हैं एवं आहार के लिये इकडे हुए मुर्गे आदि पक्षीजाति तथा सूकर (भंड) आदि चार पांव वाले प्राणियों को देखकर साधु Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-6-2 (366) 87 उस मार्ग से न जावे... तथा अग्रपिंड याने काकपिंडी में बाहार पिंड उछालने पर कौए इकट्ठे हुए हो तब उन्हें देखकर संयत-साधु अन्य मार्ग होने पर उस सीधे मार्ग में न जावे... क्योंकिउस मार्ग से जाने में उन प्राणियों को खाने में (भोजन में) अंतराय होता है... और वे प्राणी यदि अन्य जगह जावे तब उनका वध (मरण) भी हो... इत्यादि दोषों की संभावना है... अब गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर साधु को क्या करना चाहिये वह विधि सूत्रकार * महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- जिस रास्ते में भोजन की कामना से कुक्कुट आदि पक्षी या सूअर आदि पशु बैठे हों या अयपिंड के भक्षणार्थ कौवे आदि एकत्रित होकर बैठे हों तो अन्य रास्ते के होते हुए मुनि को उन्हें उल्लंघकर उस रास्ते से नहीं जाना चाहिए। क्योंकि मुनि को देखकर वे पशु-पक्षी भय के कारण इधर-उधर भाग जाएंगे या उड़ जाएंगे। इससे उन्हें प्राप्त होने वाले भोजन में अंतराय पडेगी और साधु के कारण उनके उडने या भागने से अन्य प्राणियों की हिंसा होगी। और कभी वे पशु जंगल में भाग गए और हिंसक जन्तु की लपेट में आ गए तो उनका भी वध हो जाएगा। अतः साधु को जहां तक अन्य पथ हो तो ऐसे रास्ते से आहार आदि के लिए नहीं जाना चाहिए। इससे स्पष्ट हो जाता है कि- साधु का जीवन दया एवं रक्षा की भावना से कितना ओत-प्रोत होता है। यही साधुता का आदर्श है कि- उसका जीवन प्रत्येक प्राणी के हित की भावना से भरा है। साधु स्वयं कष्ट सह लेता है, परन्तु अन्य प्राणी को कष्ट नहीं देता। ... गृहस्थ के घर में प्रवेश करने के बाद साधु को वहां किस वृत्ति से खड़े होना चाहिए, इस सम्बन्ध में उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैंI सूत्र || 2 || || 366 || से भिक्खू वा, जाव नो गाहावइकुलस्स वा दुवारसाहं अवलंबिय अवलंबिय चिद्विज्जा, नो गाहा दगच्छडुणमत्तए चिट्ठिज्जा, नो गाहा चंदणिउयए चिट्ठिजा, नो गाहा सिणाणस्स वा वच्चस्स वा संलोए सपडिदुवारे चिट्ठिजा, नो आलोयं वा थिग्गलं वा संधि वा दगभवणं वा बाहाओ पगिज्झिय अंगुलियाए वा उद्दिसिय उण्णमिय अवनमिय निज्झाइजा, नो गाहावड़ अंगुलियाए उद्दिसिय जाइज्जा, नो गाहा, अंगुलियाए चालिय, जाइज्जा, नो गाहा, अंगुलिए तज्जिय तजिय जाइज्जा, नो गाहा, अंगुलिए उपखुलंपिय जाइजा, नो गाहावई वंदिय जाइज्जा, नो वयणं फरुसं वइज्जा / / 380 || Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2-1-1-6-2 (366) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा यावत् न गृहपतिकुलस्य वा द्वारघाखां अवलम्ब्य अवलम्ब्य तिष्ठेत्, न गृह उदक प्रतिष्ठापनमात्रके तिष्ठेत्, न गृह आचमनोदकप्रवाहभूमौ तिष्ठेत्, न गृह स्नानस्य वा वर्चसः वा संलोके सप्रतिद्वारे तिष्ठेत्, न आलोकं वा थिग्गलं वा सन्धिं वा उदकभवनं वा भुजां प्रगृह्य प्रगृह्य अङ्गुल्य वा उद्दिश्य उद्दिश्य वा, उन्नम्य उन्नम्य वा अवनम्य अवनम्य वा निध्यापयेत्, न गृहपतिं अङ्गुल्या उद्दिश्य उद्दिश्य याचेत, न गृह अङ्गुल्या चालयित्वा चालयित्वा याचेत, न गृह, अङ्गुल्या तर्जयित्वा तर्जयित्वा याचेत, न गृह, कण्डूयनं कृत्वा याचेत, न गृहपतिं वन्दित्वा याचेत, न वचनं परुष वदेत् / / 366 | III सूत्रार्थ : भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर में गये साधु और साध्वी को गृहस्थ के घर का बारसाख का सहारा लेकर खडा नहीं रहना चाहिए। गृहस्थ के घर का पानी फेंकने के मार्ग पर अथवा आचमन के स्थान पर अथवा गृहस्थ के घर का जहां स्नानगृह या शौचस्थान हो उस मार्ग पर खड़े नहीं रहे, और गृहस्थ के घर की खिडकियों को या चोर कृत खात को एवं जलगृह को हाथ के स्पर्श से या अंगुली से संकेत करके, स्वयं नीचे झुककर या ऊंचा मुख करके मुनि अवलोकन करें और गृहस्थ के पास अंगुली से बतलाकर याचना करें। अंगुली से उसको धमकाना नहीं चाहिए। गृहस्थ की प्रशंसा करके भी याचना करें। यदि गृहस्थ देवे तब कठोर वचन भी न कहें / / 366 // IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. आहारादि के लिये गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर गृहस्थ के घर के बारसाख का आलंबन लेकर खडे न रहें... क्योंकि- यदि वह जीर्ण हो तो गिर जाय, एवं ठीक से रखा न हो तो टेढामेढा हो जाय, ऐसा होने से संयम एवं आत्मविराधना हो... तथा बरतन धोने के बाद मलीन जल को फेंकने के स्थान के मार्ग में खडा न रहें... क्योंकि- ऐसी स्थिति में जिनशासन की निंदा हो, तथा इसी प्रकार हाथ धोने के स्थान पर खडे न रहें... तथा स्नान एवं मलत्याग (संडास) के द्वार दिखे ऐसे स्थान में खड़े न रहें... यहां सारांश यह है कि- जहां खडे रहने से गृहस्थों के स्नान एवं मलत्याग की क्रिया नजर में न आवे वहां खडे रहें... अन्यथा साधु के उपर गृहस्थ को द्वेष हो... तथा गवाक्षादि आलोक या गिरे हुए थोडे भाग को पुनः संस्कारित किये हुए थिग्गल... चौर ने किया हुआ छिद्र याँ भित्ति (दीवार) के संधान... तथा जलगृह याने "पाणीयारुं" इन सभी स्थानों को बार बार हाथ (भुजा) फेलाकर तथा अंगुली से निर्देश करके, अंगुली उंची करके, अंगुली नीची करके, न Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-6-2 (366) 89 देखें... तथा अन्य को भी न दिखावें... क्योंकि- वैसा देखने से गृहस्थ की चोरी गइ एवं न मिलनेवाली वस्तु के विषय में गृहस्थ को साधु के उपर शंका हो... तथा वह साधु गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर अंगुली से गृहपति की ओर दिखाकर के, तथा अंगुली को चलाकर, या भय दिखाकर तर्जना करके अथवा गृहस्थ को वचन के द्वारा खुश करके याचना न करे... यदि गृहपति कुछ भी आहारादि न दे तब भी कठोर वचन न बोले... वह इस प्रकारतुम तो यक्ष हो, क्योंकि- दूसरों के घर को संभालते हो, अतः आपसे दान की बात कैसे हो ? आपकी बात ही अच्छी है, अनुष्ठान याने आचरण अच्छा नही है... कहा भी है कि- "नास्ति' ऐसे दो अक्षरों का उच्चारण जो लोग करतें हैं वे भविष्यकाल में “देहि" एसे अक्षरों को बोलेंगे... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- गृहस्थ के घर में प्रविष्ट मुनि को चञ्चलता एवं चपलता का त्याग करके स्थिर दृष्टि से खड़े रहना चाहिए। इसमें बताया गया है कि- मुनि को गृहस्थ के द्वार की शाखा को पकड़कर खड़ा नहीं होना चाहिए। क्योंकि- यदि वह जीर्ण है तो गिर जाएगी, इससे मुनि को भी चोट लगेगी, उसके संयम की विराधना होगी और अन्य प्राणियों की भी हिंसा होगी। यदि जीर्ण तो नहीं है, परन्तु कमजोर है तो आगे-पीछे हो जाएगी, इस तरह उसको पकड़कर खड़े होने से अनेक तरह के दोष लगने की सम्भावना है। इसी तरह मुनि को उस स्थान पर भी खड़े नहीं रहना चाहिए जहां बर्तनों को धो कर पानी गिराया जाता है तथा स्नानघर, शौचालय या पेशाबघर है। क्योंकि- ऐसे स्थानों पर खड़े रहने से प्रवचन की जुगुप्सा-घृणा होने की सम्भावना है। और स्नानघर आदि के सामने खड़े होने से गृहस्थों के मन में अनेक तरह की शंकाएं पैदा हो सकती है। इसी प्रकार झरोखां, नव निर्मित दीवारों या दीवारों की सन्धि की ओर देखने से साधु के सभ्य व्यवहार में दोष लगता है। भिक्षा ग्रहण करते समय अंगुली आदि से संकेतकर पदार्थ लेने से साधु की रस लोलुपता प्रकट होती है और तर्जना एवं प्रशंसा द्वारा भिक्षा लेने से साधु के अभिमान एवं दीन भाव का प्रदर्शन होता है। अतः साधु को भिक्षा ग्रहण करते समय किसी भी तरह की शारीरिक चेष्टाएं एवं संकेत नहीं करने चाहिएं। इसके अतिरिक्त यदि कोई गृहस्थ साधु को भिक्षा देने से इन्कार करे, तब साध उस पर क्रोध करें और न उन्हें कट एवं कठोर वचन कहें। साध का यह कर्तव्य है कि- वह विना कुछ कहे एवं मन में भी किसी तरह की दुर्भावना लाए बिना तथा संक्लेश का संवेदन किए बिना शान्त भाव से गृहस्थ के घर से बाहर आ जाएं। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 2-1-1-6-3 (367) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन इस सूत्र से साधु जीवन की धीरता, गम्भीरता, निरभिमानता अनासक्ति एवं सहिष्णुता का स्पष्ट परिचय मिलता है और इन्हीं गुणों के विकास में साधुता स्थित रहती है। इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 3 // // 367 / / अह तत्थ कंचि भुंजमाणं पेहाए गाहावई वा जाव कम्मकरिं वा, से पुव्वामेव आलोइजा-आउसोत्ति वा, भइणित्ति वा दाहिसि मे इत्तो अण्णयरं भोयणजायं ? से सेवं वयंतस्स परो हत्थं वा मत्तं वा दट्विं वा भायणं वा सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलिज्जा वा पहोइज्ज वा, से पुव्वामेव आलोइज्जा - आउसोत्ति वा भइणित्ति वा मा एयं हत्थं वा सीओदगवियडेण वा उच्छोलेहि वा अभिकंखसि मे दाउं एवमेव दलयाहि, से सेवं वयंतस्स परो हत्थं वा सीओ० उसि० उच्छोलित्ता पहोइत्ता आहट्ट दलइज्जा, तहप्पगारेणं पुरेकम्मकएणं हत्थेण वा असणं वा, अफासुयं जाव नो पडिग्गाहिज्जा। ____ अह पुण एवं जाणिज्जा नो पुरेकम्मएणं उदउल्लेणं तहप्पगारेणं वा उदउल्लेण वा हत्थेण वा, असणं वा, सफासुयं जाव नो पडिग्गाहिज्जा। अह पुणेवं जाणिज्जा नो उदउल्लेण ससिणिद्धेण सेसं तं चेव एवं ससरक्खे उदउल्ले ससिणिद्धे मट्टिया ऊसे। हरियाले हिंगुलए, मणोसिला अंजणे लोणे। गेरुय वणिय सेडिय सोरट्ठिय, कुकुस उक्कुटुसंसटेण अह पुणेवं जाणिज्जा नो असंसढे संसढे तहप्पगारेण संसटेण हत्थेण वा, असणं वा, फासुयं जाव पडिग्गाहिज्जा || 367 // II संस्कृत-छाया : अथ तत्र कथन भुञ्जानं प्रेक्ष्य गृहपतिं वा यावत् कर्मकरी वा, सः पूर्वमेव आलोचयेत्- हे गृहपते ! हे भगिनि ! दास्यसि मह्यं इत: अन्यतरं भोजनजातम् ? सः तस्य एवं वदतः परः हस्तं वा मात्रं वा दर्वी वा भाजनं वा शीतोदकविकटेन वा उष्णोदकविकटेन वा उत्क्षालयेत् वा प्रधावेत् वा। सः पूर्वमेव आलोचयेत् - हे गृहपति ! हे भगिनि ! मा एवं त्वं हस्तं वा शीतोदकविकटेन वा उत्क्षालय वा , अभिकाङ्कसि मह्यं दातुम् ? एवमेव दद्याः, सः तस्य एवं वदतः परः हस्तं वा, शीतो० उष्णो० उत्क्षालयित्वा प्रधावित्वा आहृत्य दद्यात्, तथाप्रकारेण पुरःकर्मकृतेन हस्तेन वा, अशनं वा, अप्रासुकं यावत् न प्रतिगृह्णीयात् / अथ पुनः एवं जानीयत्- न पुरःकर्मकृतेन उदकाइँण तथाप्रकारेण वा उदकार्टेण वा हस्तेन वा, अशनं वा अप्रासुकं यावत् न प्रतिगृह्णीयात् / अथ पुनः एवं जानीयात् Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-6-3 (367) 91 न उदकाइँण सस्निग्धेन शेषं तत् चैव एवं- सरजस्क: उदकाः सस्निग्धः मृत्तिका ऊषः हरताल: हिङ्गलोकः मन:शिला अञ्जनं लवणं। गेसकः वर्णिका सेटिका सौराष्टिका कुक्कुसः उत्कृष्टसंसृष्टेन अथ पुनः एवं जानीयात्- न असंसृष्टः संसृष्टः तथा प्रकारेण संसृष्टेन हस्तेन वा, अशनं वा, प्रासुकं यावत् प्रतिगृह्णीयात् || 367 // III सूत्रार्थ : भिक्षा के लिए गये साधु और साध्वी गृह-स्वामी को, उसकी पत्नीको, पुत्रको, पुत्री को, पुत्रवधु को, दास-दासी को, कर्मचारी को यावत् कर्मचारिणीको भोजन करते हुए देखकर प्रथम कहते हैं कि- हे आयुष्मन् या हे आयुष्यमती ! इसमें से थोड़ा आहार मुझे दे सकते है क्या ? ऐसे कहनेवाले मुनिको भोजन करनेवाले पुरुष या स्त्री हाथ, थाली, चम्मच या अन्य पात्र सचित्त या अचित्त (उष्ण) जल से धोंने लगे या विशेष शुद्धिपूर्वक मांझने लगे तो साधु प्रथम से ही कह दे कि- हे आयुष्मन् ! आप हाथ यावत् पात्र को कच्चे या उष्ण जल से धोवे नहीं या विशेष धोवे नहीं (मांझकर धोवे नहीं) मुझे देने की चाहना करते हो तो ऐसे ही देवें। साधु के ऐसा कहने पर भी यदि गृहस्थ हाथ यावत् पात्र को सचित्त या अचित्त जल से धोकर या विशेष धो-कर देवे तो साधु ग्रहण न करे। पूर्वकृत कर्मवाले हाथ आदि से अशनादि ग्रहण करना अप्रासुक है, अनेषणीय है / 'लाभ होने की सम्भावना हो तो भी न ले ! कदाचित्, साधु को प्रतीत होवे कि- मुझे भिक्षा देने के लिए नहीं परंतु अन्य कारण से दाता के हाथ आदि गिले हैं. फिर भी उस हाथ से दिये जाने वाले अशनादि को ग्रहण न करे। उसकी प्रकार स्निग्धहाथ, सचित्त रजःवाला हाथ, और जिसमें से पानी टपक रहा है ऐसा हाथ या गिला हाथ आदि से तथा सचित्त मिट्टी, खार, हडताल, हिंगलो, मनसिल, अंजन, नमक, गेलं, पीली मिट्टी, सफेद मिट्टी, फटकड़ी, ताजा (गीला) आटा, अथवा ताजे कूटे हुए चने, चावल आदिका आटा, या कण की आदि कोई पण सचित्त पदार्थ से लिप्त हाथ आदि से अशन आदि ग्रहण न करे। किंतु यदि ऐसा जाने कि- दातार के हाथ आदि अचित्त चीजों से लिप्त है तो वैसे हाथ आदि से दिया जानेवाला अशन आदिको प्रासुक जानकर तथा ऐषणिक जानकर ग्रहण करे || 367 // IV टीका-अनुवाद : ..... अब वह साधु वहां गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर किसी घर के स्वामी आदि को भोजन करते हुए देखकर ऐसा सोचे कि- यह गृहस्थ या उनकी भार्या या कर्मकरी (सेविका) भोजन करतें हैं... तब विचार करके और नाम लेकर याचना करे कि- हे गृहपति ! हे भगिनि ! क्या आप मुझे इस आहारादि में से कुछ भी आहारादि देना चाहते हो ? यदि ऐसा कह नही सकतें और कारण होने पर पुनः ऐसा कहे तब याचना करते हुए उस साधु को देखकर वह गृहस्थ कभी हाथ पात्र चम्मच या बरतन शीतल जल (अप्काय) से या तीन उकाला न हुआ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92 2-1-1-6-3 (367) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन हो ऐसा अप्रासुक गरम पानी से अथवा सचित्त बने हुए जल से एक बार या बार बार हाथ आदि बरतन धोवे तब वह साधु पहले से ही उपयोगवाला होकर देखे कि- यह गृहस्थ हाथ आदि धो रहा हैं... तब वह साधु नाम लेकर कहे कि- हे गृहपति ! आप ऐसा न करें... जब वह गृहस्थ सचित्त जल से हाथ आदि धोकर आहारादि देने के लिये तत्पर बने तब अप्रासुक जानकर साधु उन आहारादि को ग्रहण न करें... जब गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर वह साधु ऐसा जाने कि- साधु को भिक्षा देने के लिये हाथ, बरतन आदि नही धोये है, किंतु तथा प्रकार से स्वयं ही कोई कार्य से जलवाला हाथ है, तथा इसी प्रकार बरतन आदि भी टपकते हुए जलबिंदुवाले हो, और चारों प्रकार के आहारादि दे रहे हो तब अप्रासुक एवं अनेषणीय मानकर साधु उन आहारादि को ग्रहण न करें... जिस प्रकार जलबिंदुवाले हाथ से आहारादि ग्रहण न करे, इसी प्रकार जलबिंदु टपकते न हो किंतु जल से स्निग्ध हाथ हो तो भी आहारादि ग्रहण न करें... इसी प्रकार रजकणवाले . हाथ हो, या मिट्टी, क्षार, हरताल, हिंगलोक, मनःशिला, अंजन, लवण, गेरूक, पीलीमिट्टी, सफेद खडी मिट्टी, तुबरिका, नही छाने हुए तंदुल का चूर्ण, धान्य आदि के छिलके, तथा पीलुपर्णिकादि के उखल में चूर्ण किया हुआ हो, तथा आर्द्रपर्ण का चूर्ण इत्यादि युक्त हाथ आदि से दिये जा रहे आहारादि को साधु ग्रहण न करें... किंतु इन सभी प्रकार से यदि हाथ बरतन आदि असंसृष्ट हो तब दिये जा रहे आहारादि को ग्रहण करे... जब ऐसा जाने कि- हाथ-बरतन आदि असंसृष्ट नही है किंतु उनसे बने हुए आहारादि से संसृष्ट है तब ऐसे संसृष्ट हाथ आदि से दिये जा रहे आहारादि को प्रासुक एवं एषणीय मानकर साधु ग्रहण करें... यहां आठ भांगे होते हैं... 1. 2. असंसृष्ट हाथ असंसृष्ट पात्र निरवशेष द्रव्य.. असंसृष्ट हाथ असंसृष्ट पात्र सावशेष द्रव्य.. असंसृष्ट हाथ संसृष्ट पात्र निरवशेष द्रव्य. असंसृष्ट हाथ असंसृष्ट पात्र सावशेष द्रव्य. संसृष्ट हाथ असंसृष्ट पात्र निरवशेष द्रव्य. संसृष्ट हाथ असंसृष्ट पात्र सावशेष द्रव्य. संसृष्ट हाथ संसृष्ट पात्र निरवशेष द्रव्य. संसृष्ट हाथ असंसृष्ट पात्र सावशेष द्रव्य. 7. 8. यहां द्वितीय भंग संपूर्ण शुद्ध है, शेष सात भंगो में यथासंभव निर्दोषता को ध्यान में लेकर आहारादि को गवेषणा करें... अब वह साधु ऐसा जाने कि- जल आदि से हाथ आदि असंसृष्ट है तब आहारादि ग्रहण करें... अथवा तथाप्रकार के दान योग्य द्रव्य से हाथ आदि Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-6-3 (367) 93 संसृष्ट है तब तथाप्रकार के हाथ आदि से दिये जा रहे आहारादि को प्रासुक एवं एषणीय मानकर साधु ग्रहण करें... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- यदि साधु गृहस्थ के घर में प्रविष्ट होते समय यह देखे कि- गृहपति या उसकी पत्नी या पुत्र या पुत्री या दास-दासी भोजन कर रहा है; यदि वह गृहपति या उसका पुत्र है तो हे आयुष्मन् ! और यदि वह स्त्री है तो हे बहन !, भगिनी / आदि सम्बोधन करके पूछे कि- क्या तुम मुझे आहार दोगे ? इस पर यदि वह व्यक्ति शीतल (सचित्त)जल से या स्वल्प-उष्ण(मिश्र) जल से अपने हाथ धोकर आहार देने का प्रयत्न करे, तो उसे ऐसा करते हुए देखकर कहे कि- इस तरह सचित्त एवं मिश्र जल से हाथ धोकर आहार न दें, बिना हाथ धोए ही दे दें। इस पर भी वह न माने और उस जल से हाथ धोकर आहार दे तो उस आहार को अप्रासुक समझकर साधु उसे ग्रहण न करे। . यदि गृहस्थ ने साधु को आहार देने के लिए सचित्त जल से हाथ नहीं धोए हैं, परन्तु अपने कार्यवश उसने हाथ धोए हैं और अब वह उन गीले हाथों से या गीले पात्र से आहार दे रहा है तब भी साधु उस आहार को ग्रहण न करे। इसी तरह सचित्त रज, मिट्टी, खार आदि से हाथ या पात्र संसृष्ट हों तो भी उन हाथों या पात्र से साधु आहार ग्रहण न करे। यदि किसी व्यक्ति ने सचित्त जल से हाथ या पात्र नहीं धोए हैं और उसके हाथ या पात्र गीले भी नहीं है या अन्य सचित्त पदार्थों से संसृष्ट नहीं हैं, तो ऐसे प्रासुक एवं एषणीय आहार को साधु ग्रहण कर सकता है। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'उदउल्ले और ससिणिद्धे' शब्द में इतना ही अंतर है कि- पानी से धोने के बाद जिस हाथ से जल की बूंदें टपकती हों उसे जलार्द्र कहते हैं और जिससे बून्द नहीं टपकती हों परन्तु गीला हो उसे स्निग्ध कहते हैं। आचाराङ्ग की कुछ प्रतियों में 'अफासुयं' के साथ 'अणेसणिज्जं' शब्द भी मिलता है, वृत्तिकार ने भी अप्रासुक और अनेषणीय आहार लेने का निषेध किया है। यहां यह प्रश्न हो सकता है कि- प्रासुक शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- निर्जीव / अतः अप्रासुक क आ सजीव पदार्थ। अतः सचित्त जल से हाथ या पात्र धोने मात्र से पदार्थ अप्रासुक कैसे हो जाते हैं ? अथह इसका समाधान यह है कि- प्रस्तुत प्रकरण में इस शब्द का प्रयोग अकल्पनीय अर्थ में हुआ है और उसके समान होने के कारण इसे भी अप्रासुक कहा गया है जैसे राजप्रश्नीयसूत्र में देवकृत पुष्पदृष्टि के अचित्त पुष्पों के लिए जलज एवं स्थलज शब्दों का प्रयोग किया गया Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 942-1-1-6-4 (368) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन है। जब कि- वे जलज एवं स्थलज नहीं हैं। परन्तु, उनके समान दिखाई देने के कारण उन्हें जलज एवं स्थलज कहा गया है। इसी तरह अप्रासुक शब्द अकल्पनीय शब्द के समान होने के कारण यहां उसे ग्रहण किया गया है। अब आहार की गवेषणा के सम्बन्ध में उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 4 // // 368 // से भिक्खू वा से जं पुण जाणिज्जा पिहयं वा बहुरयं वा जाव चाउलपलंबं वा असंजए भिक्खुपडियाए चित्तमंताए सिलाए जाव संताणाए कुटिंसु वा कुटिंति वा कुट्टिरसंति वा, उप्फणिंसु वा, तहप्पगारं पिहयं वा अप्फासुयं नो पडिग्गाहिज्जा / / 368 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा सः यत् पुन: जानीयात्- पृथुकं वा पहुकं वा अर्धपकं वा असंयतः भिक्षुप्रतिज्ञया चित्तवत्यां शिलायां यावत् सन्तानायां कुट्टितवन्तः वा कुदृन्ति वा कुट्टिष्यन्ति वा, उवाफणन् वा उत्फणन्ति वा, उत्फणिष्यन्ति वा तथाप्रकारं पृथुकं वा अप्रासुकं न प्रतिगृह्णीयात् || 368 // III सूत्रार्थ : साधु अथवा साध्वी ऐसा जाने कि- कोई असयंमी गृहस्थ साधु के निमित्त धाणी, चावल, परमर, पोंक आदि तथा चावल के अर्धपक्व कण सचित्तशिला पर अथवा बीजयुक्त, वनस्पति युक्त, चींटी-मकोडे युक्त या ओसवाली, सचित्तजलवाली, सचित्त मिट्टीवाली अथवा जीव युक्त शिला पर कूटकर, पीसकर तैयार किया हुआ है या तैयार कर रहे है या करेंगे अथवा छाज से झटक रहे है या झटकेंगे तो ऐसे चावल आदि वस्तुको अशुद्ध अकल्पनीय जानकर ग्रहण न करे || 368 // IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. भिक्षा के लिये गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर देखे किशालि आदि के लाज (धानी) बहुरय याने चिवडे जैसा खाद्यआहार, तथा अर्ध पके हुए शालि आदि के कणों को गृहस्थ साधुओं के लिये सचित्त शिला के उपर तथा बीजवाले हरित-वनस्पति के ऊपर या अंडेवाली भूमि के ऊपर एवं करोडीये के जालेवाली जगह में कुट्टा हो, या कूटते हो या कुटनेवाले हो अथवा पृथुक आदि सचित्त या अचित्त शिला के उपर कूटकर के साधुओं Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-6-5 (369) 95 को देने के लिये सुखाने के लिये छाज से साफ किये हो, करते हो या करनेवाले हो, तब ऐसे प्रकार के पृथुकादि प्राप्त होने पर भी साधु ग्रहण न करें... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- यदि कोई गृहस्थ सचित्त रज कणों से युक्त चावल आदि अनाज के दानों को या अर्द्ध पक्व चावल आदि के दानों को सचित्त शिला पर पीस कर या वायु में झटक कर उन दानों को साधु को दे तो साधु उन्हें अप्रासुक समझकर ग्रहण न करे। इसमें समस्त सचित्त अनाज के दाने तथा सचित्त वनस्पति एवं बीज आदि का समावेश हो जाता है। यदि कोई गृहस्थ इन्हें सचित्त शिला पर कूट-पीस कर दे या वायु में झटक कर उन्हें साफ करके दे तो साध उन्हें कदापि ग्रहण न करे। प्रस्तुत सूत्र का तात्पर्य यह है कि सचि अनाज एवं वनस्पति आदि तो साधु को किसी भी स्थिति में ग्रहण नहीं करने चाहिए, चाहे वह सचित्त शिला पर कूट-पीस कर या वायु में झटककर दी जाए या क्रूटने झटकने की क्रिया किए बिना दी जाए। इसके अतिरिक्त यदि अचित्त अन्न के दाने, वनस्पति या बीज सचित्त शिला पर कूट-पीस कर या वायु में झटककर दिए जाएं तो वे भी साधु को ग्रहण नहीं करने चाहिए। अब आहार ग्रहण करते समय साधु को पृथ्वीकायिक जीवों की किस प्रकार यतना करनी चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I . ' सूत्र // 5 // // 369 // से भिक्खू वा जाव समाणे से जं० बिलं वा लोणं उब्भियं वा लोणं असंजए जाव संताणाए भिंदिसु वा रुचिंसु वा बिलं वा लोणं उब्भियं वा लोणं अफासुयं नो पडिग्गाहिज्जा || 369 // // संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा यावत् प्रविष्टः सन् सः यत् बिलं वा लवणं, अद्भिदं वा लवणं, असंयतः यावत् सन्तानायां अभैत्सुः वा पिष्टवन्त: वा, बिलं वा लवणं, उद्भिदं वा लवणं अप्रासुकं न प्रतिगृह्णीयात् || 369 // III. सूत्रार्थ : साधु और साध्वी भिक्षा के लिये जाते ऐसा जाने कि- बिल (खाण में निकला नमक) उद्भिज (समुद् किनारे या अन्य स्थान पर खारेपानी से बनाया) नमक तथा अन्य प्रकार का Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 2-1-1-6-6 (370) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन नमक असंयमी गृहस्थ ने साधु के निमित्त सचित्त यावत् जीवजन्तुवाली शीला पर कूटा है, कूटते हैं या कूटेंगे। पीसा है, पीस रहे है अथवा पीसेंगे तब ऐसा वह अप्रासुक जानकर उसको साधु ग्रहण नहीं करे | 369 // IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. ऐसा जाने कि- बिल याने खदान से निकला हुआ नमक जैसे कि- सैंधव आदि तथा समुद्र के किनारे पर क्षारवाले जल के संपर्क से उत्पन्न होनेवाला नमक तथा रुमकादि लवण को पूर्व कहे गये विशेषणवाली शिला के उपर कणिक बनावे तथा उस कणिकाकार नमक को पीसा हो, या पीसते हो या पीसेंगे... तब ऐसे प्रकार के लवण भी अकल्पनीय जानकर साधु ग्रहण न करें... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- खान से एवं समुद्र से उत्पन्न लवण (नमक) को साधु ग्रहण न करे। इसके साथ सैन्धव, सौवर्चल (संचर) आदि सभी प्रकार का सचित्त नमक साधु को ग्रहण नहीं करना चाहिए। यदि कोई गृहस्थ सचित्त नमक को सचित्त शिला पर उसके टुकड़े-टुकड़े करके दे या उसका बारीक चूर्ण बनाकर दे तो उसे अप्रासुक समझकर ग्रहण न करे। "बिल' शब्द खान एवं 'उब्भियं' शब्द समुद्र का बोधक है। और भिंदिसु एवं 'रुचिंसु' इन उभय क्रियाओं से क्रमशः खंड-खंड करने एवं बारीक पीसने का निर्देश किया गया है। इसके अतिरिक्त लवण शब्द के उपलक्षण से यहां समस्त सचित्त पृथ्वीकाय का ग्रहण किया गया है। अतः संयमशील साधु को पृथ्वीकायिक जीवों की यत्ना करनी चाहिए, अर्थात् पृथ्वीकायिक जीवों की विराधना नहीं करनी चाहिए। 'अप्रासुक' शब्द से यह भी सूचित किया गया है कि- यदि सचित्त नमक अन्य पदार्थ या शस्त्र के संयोग से अचित्त हो गया है, तब साधु के लिए अप्रासुक एवं अव्याह्य नहीं है। अब अग्निकाय के आरम्भ का निषेध करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 6 // // 70 // से भिक्खू वा से ज० असणं वा, अगणिनिक्खितं तहप्पगारं असणं वा, अफासुयं नो० केवली बूया-आयाणमेयं, असंजए भिक्खुपडियाए उस्सिंचमाणे वा निस्सिंचमाणे वा आमज्जमाणे वा पमजमाणे वा ओयारेमाणे वा उव्वत्तमाणे वा Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-6-6 (370) 97 अगणिजीवे हिंसिजा। अह भिक्खूणं पुव्वोवइट्ठा एस पडण्णा, एस हेऊ एस कारणे एसुवएसें जं तहप्पगारं असणं वा अगणिनिक्खित्तं अफासुयं नो पडि० एयं० सामग्गियं / / 370 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० स: यत्० अशनं वा अग्निनिक्षिप्तं तथा प्रकारं अशनं वा अप्रासुकं न० केवली ब्रुयात्-आदानमेतत् / असंयतः भिक्षु प्रतिज्ञया उत्सिचन् वा निसिचन् वा आमार्जयन् वा प्रमार्जयन् वा अवतारयन् वा अपवर्तयन् वा अग्निजीवान् हिंस्यात् / अथ भिक्षूणां पूर्वोपदिष्टा एषा प्रतिज्ञा एष: हेतुः एतत् कारणं अयमुपदेश: यत् तथाप्रकारं अशनं वा, अग्निनिक्षिप्तं अप्रासुकं न प्रति० एतत् सामण्यम् // 370 // III सूत्रार्थ : भिक्षा के लिए गए साधु और साध्वी को ज्ञात होवे कि- अशनादि आहार अग्नि पर रखा हुआ है तो ऐसे अशनादि को अप्रासुक जानकर व्यहण न करे। केवली भगवन्त का यह कथन है कि- ऐसा आहार ग्रहण करने से कर्मबंधन होता है। ऐसा आहार कर्मबंधन का कारण है। असंयमी गृहस्थ अग्नि पर रखे हुए आहार में से थोड़ा आहार साधु के लिये निकालतें हैं या पुनः डाल रहे हैं, हाथ पोंछतें हैं, तथा विशेष रूप से साफकर रहे हैं। पात्र को नीचे उतार रहे है या चढा रहे हैं। इसी कारण से निग्रंथ मुनिओंकी यह ही प्रतिज्ञा है, यह ही हेतु है, यह ही कारण है, यह ही उपदेश है कि- अग्नि पर रखे हुए उस आहार को हिंसाका कारण जानकर ग्रहण न करे। साधु और साध्वी का यह आचार है। उसका पालन करते हुए संयम में यतनावान् बनना चाहिये | 370 / / .IV टीका-अनुवाद : ___ करने पर देखे कि- चारों प्रकार का आहारादि अग्नि के उपर रखा हुआ है, तब ऐसा अग्नि-ज्वाला के संपर्क वाला आहारादि प्राप्त होने पर भी साधु ग्रहण न करें... केवलज्ञानी प्रभुजी कहतें हैं कि- इस स्थिति में कर्मबंध स्वरुप आदान रहा हुआ है... जैसे कि- गृहस्थ साधुओं के लिये वहां अग्नि के उपर रहे हुए आहारादि को निकाले या पुनःवापस डालें... तथा एक बार हाथ आदि से साफ करे, और विशेष प्रकार से साफ करे तथा नीचे उतारे या तिरच्छा करे... ऐसा करने से अग्निजीवों की हिंसा होती है... . अब कहतें हैं कि- साधुओं की पूर्व कही गई यह प्रतिज्ञा है, यह हेतु है, यह कारण है, और यह उपदेश है... कि- तथा प्रकार के अग्नि से संबद्ध आहारादि अग्नि के उपर रहे हुए हैं अतः अप्रासुक है और अनेषणीय है... ऐसा जानकर प्राप्त होने पर भी उन आहारादि Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 2-1-1-6-6 (370) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन को साधु ग्रहण न करे... और यह हि निश्चित साधु का संपूर्ण साधुभाव है... V सूत्रसार: ___प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि यदि किसी गृहस्थ के घर आहार आदि पदार्थ आग पर रखे हुए हैं और उस समय साधु को अपने घर में आया हुआ देखकर कोई गृहस्थ उस अग्नि पर स्थित आहार में से निकाल कर दे, या वह आग पर उबलते हुए दूध को पानी के छींटों से शान्त करके या आग पर से कोई वस्तु उतार कर साधु को दे तो साधु उस आहार को अप्रासुक समझ कर ग्रहण न करे। क्योंकि इन क्रियाओं से अग्निकायिक जीवों की हिंसा होती है। इसलिए साधु को इस तरह की सावध क्रिया कहते हुए कोई व्यक्ति आहार दे तो साधु उसे ग्रहण न करे। कुछ प्रतियों में 'अफासुयं' के साथ 'अणेसणिज्जं लाभे संते' यह पाठ भी मिला है। उद्देशक की समाप्ति होने के कारण यहां 'त्तिबेमि' शब्द ग्रहण किया गया है। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें। / प्रथमचलिकायां प्रथमपिण्डैषणाध्यनने षष्ठः उद्देशकः समाप्तः || ॐ . : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शझुंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. "श्रमण" के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययन से विश्व के सभी जीव पंचाचार की दिव्य सुवास को प्राप्त करके परमपद की पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058. Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-7-1 (371) 99 . आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 1 अध्ययन - 1 उद्देशक - 7 म पिण्डैषणा // छढे उद्देशक के बाद अब सातवे उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं... यहां पूर्व के छठे उद्देशक में संयम की विराधना कही, जब कि- इस सातवे उद्देशक में तो संयम, आत्मा एवं दाता की विराधना और ऐसी उस विराधना से प्रवचन (जिनशासन) की निंदा हो... यह बात यहां कहेंगे... I सूत्र // 1 // // 371 / / से भिक्खू वा से जं पुण असणं वा खंधंसि वा थंभंसि वा मंचंसि वा मालंसि वा पासायंसि वा हंम्मियतलंसि वा अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि अंतलिक्खजायंसि उवनिक्खित्ते सिया तहप्पगारं मालोहडं असणं वा, अफासुयं नो० केवली बूयाआयाणमेयं, असंजए भिक्खुपडियाए पीढं वा फलगं वा निस्सेणिं वा उदूहलं वा आहट्ट उस्सविय दुरुहिज्जा, से तत्थ दुरुहमाणे पयलिज्जा वा पवडिज वा, से तत्थ पयलमाणे वा हत्थं वा पायं वा बाहुं वा ऊरुं वा उदरं वा सीसं वा अण्णयरं वा कायंसि इंदियजालं लूसिज्ज वा पाणाणि वा, अभिहणिज्ज वा लेसिज्ज वा संघसिज्जा वा संघट्टिज वा परियाविज वा, तं तहप्पगारं मालोहडं असणं वा लाभे संते नो पडिगाहिज्जा / से भिक्खू वा, जाव समाणे से जं, असणं वा कुट्ठियाओ वा कोलेज्जाउ वा, असंजए भिक्खुपडियाए उक्फुज्जिय अवउजिय ओहरिय आहट्ट दलइज्जा, तहप्पगारं असणं वा, लाभे संते नो पडिग्गाहिज्जा || 371 // II संस्कृत-छाया : .. सः भिक्षुः वा सः यत्० अशनं वा स्कन्धे वा स्तम्भे वा मञ्चके वा माले वा प्रासादे वा हर्म्यतले वा अन्यतरे वा तथाप्रकारे अन्तरिक्षजाते उपनिक्षिप्त: स्यात् / तथाप्रकारं मालापहृतं अशनं वा, अप्रासुकं न० केवली ब्रूयात्-आदानमेतत्, असंयतः भिक्षुप्रतिज्ञया पीठं वा फलकं वा नि:श्रेणिं वा उदूखलं वा आहृत्य ऊर्ध्वं व्यवस्थाप्य आरोहेत्, सः तत्र आरोहन् प्रचलेत् वा प्रपतेत् वा, सः तत्र प्रचलन् वा हस्तं वा पादं वा बाहं वा ऊरुं वा उदरं वा शिरः वा (शीर्षं वा) अन्यतरं वा काये इन्द्रियजालं विराधयेत्, प्राणिनः वा अभिहन्यात् वा वित्रासयेत् वा श्लेषयेत् वा संघर्षयेत् वा संघट्टयेत् व परितापयेत् वा क्लामयेत् वा स्थानात् स्थानं सङ्क्रामये वा, तं तथाप्रकारं मालापहृतं Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 2-1-1-7-1 (371) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अशनं वा, लाभे सति न प्रतिगृह्णीयात् / स: भिक्षुः वा यावत् प्रविष्टः सन् सः यत् अशनं वा, कोष्ठिकातः वा अधोवृत्तखाताकारात् वा असंयतः भिक्षुप्रतिज्ञया उत्कुब्जीभूय अधोऽवनम्य तिरधीनो भूत्वा आहृत्य दद्यात्, तथाप्रकारं अशनं वा लाभे सति न प्रतिगृह्णीयात् // 371 // III सूत्रार्थ : . गृहस्थ के घर भिक्षा के लिये गए साधु और साध्वी को ऐसा जानने में आता है किअशनादि दिवार पर, स्तंभ पर, मांचे पर प्रासाद पर, हवेली की छत पर अथवा ऐसे कोई अन्य ऊंचे स्थान पर रखा हुआ है। तो ऐसे स्थान पर से लाया गया दिया जानेवाला आहार अप्रासुक है। इससे ऐसा आहार ग्रहण न करे। केवली भगवंत कहते है कि- यह कर्मबंध का कारण है। क्योंकि- असंयमी गृहस्थ साधु के निमित्त बाजोठ, पाट, पाटियुं, सीडी लाकर उसको ऊंचा कर उपर चढ़ेंगे, संभव है कि वहां से फिसल जाये, गीर जाये। यदि फिसलें या गीरे तो उसके हाथ-पैर या शरीरका कोई भी अवयव या कोई इन्द्रिय के अंगोपांग तूट जाय, फूट जाये और प्राणी, भूत, जीव तथा सत्व की हिंसा करेंगे। उनको त्रास होगा। या कूचला जायेंगे। उनके अंगोपांग तूट जायेंगे। टकरायेंगे ! मसलायेंगे। टकरायेंगे, रगडायेंगे, संताप पायेंगे, पीडित होंगे, किलामणा होगी, उपद्रव पायेंगे, एक स्थान से दूसरे स्थान पर गिरेंगे। इसलिए इस प्रकारके मालोपहृत भिक्षा मिलने पर भी साधु ग्रहण करे नहीं। अशन आदिको गृहस्थ के घर गये साधु अथवा साध्वी जाने कि- यह अशन आदि कोठी में से या कोठा में से साधु के निमित्त ऊंचा होकर, नीचे झुककर, शरीर को संकोचकर या आडे होकर आहार लाकर बहोरा रहे है तो उस अशनादि को लाभ होने पर भी ग्रहण न करे // 371 // . IV टीका-अनुवाद : ___वह साधु या साध्वीजी म. आहारादि के लिये गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर देखे कि- चारों प्रकार के आहारादि-स्कंध याने आधे प्राकार पे है. स्तंभ याने पत्थर या लकडी के थंभे पे है, तथा मांचडे पे, माले पे, प्रासाद याने महल-घर के उपर, तथा हवेली के उपर या अन्य कोई भी ऐसे प्रकार के आकाश में रहे हुए आहारादि को वहां से लाकर यदि गृहस्थ दे तब मालापहृत-दोष मानकर साधु ऐसे आहारादि को ग्रहण न करे... केवलज्ञानी प्रभु कहतें हैं कि- यह मालापहृत आहारादि आदान है... अर्थात् कर्मबंध का कारण है... जैसे कि- गृहस्थ साधुओं को दान देने के लिये पीठक, या फलक, या निसरणी, या उदूखल (सांबेलु) लाकर खडा रखकर उसके उपर चढे और चढते चढते स्खलित हो या गिर जाय तब हाथ, पाउँ आदि शरीर के कोइ भी अंगोपांग को चोंट लगे तथा अस एवं स्थावर जंतुओं को भी दुःख हो, या त्रास पहुंचाये... या क्लेश-परिताप हो, या एक स्थान से दुसरे स्थान पे संक्रमित हो... ऐसा Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-7-1 (371) 101 जानकर मालापहृत दोषवाले आहारादि प्राप्त होने पर भी साधु उन्हें ग्रहण न करें... तथा वह साधु यदि जाने कि- कोठी से या भूमि में कीये हुए गोलाकार गडे से आहारादि लेकर गृहस्थ दान दे रहा है, तब ऐसे अधोमालाहृत दोषवाले आहारादि का लाभ होने पर भी साधु ग्रहण न करे... अब पृथ्वीकाय के अधिकार को लेकर कहतें हैं... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- समतल भूमि से बहुत ऊपर या नीचे के स्थान पर आहार आदि रखा हो, वह आहार सीढ़ी या चौकी को लगाकर या उसे ऊंचा करे उस पर चढ़कर वहां से आहार को उतार कर दे या इसी तरह नीचे झूक कर, टेढ़ा होकर नीचे के प्रकोष्ठ में रखे हुए पदार्थों को निकाल कर दे तो उन्हें अप्रासुक अकल्पनीय समझ कर ग्रहण नहीं करना चाहिए। यहां अप्रासुक का अर्थ सचित्त नही, परन्तु अकल्पनीय है। उन अचित्त पदार्थों को अकल्पनीय इसलिए कहा गया है कि उक्त विषम स्थान से सीढ़ी, तख्त आदि पर से उतारते समय यदि पैर फिसल जाए या सीढ़ी या तख्त का पाया फिसल जाए तो व्यक्ति गिर सकता है और उससे उसके शरीर में चोट आ सकती है एवं अन्य प्राणियों की भी विराधना हो सकती है। इसी तरह नीचे के प्रकोष्ठ में झुककर निकालने से भी अयतना होने की सम्भावना है, अतः साधु को ऐसे स्थानों पर रखा हुआ आहार-पानी ग्रहण नहीं करना चाहिए। परन्तु, यदि उक्त स्थान पर चढ़ने के लिए सीढियां बनी हों, किसी तरह की अयतना होने की सम्भावना न हो तो ऐसे स्थानों पर स्थित वस्तु कोई यत्नापूर्वक उतार कर दे तो साधु ले सकता है। ‘पीढं वा फलगं वा निस्सेणिं वा आह? उस्सावय दुरुहिज्जा' पाठ से यह सिद्ध होता है कि हिलने-डुलने वाले साधनों पर चढ़कर उन वस्तुओं को उतार कर दे तो साधु को नहीं लेनी चाहिए, क्योंकि उन पर से फिसलने का डर रहता है। परन्तु, स्थिर सीढ़ियों पर से चढ़कर कोई वस्तु उतार कर लाई जाए या किसी स्थिर रहे हुए तख्त आदि पर चढ़कर उन्हें उतारा जाए तो वे अकल्पनीय नहीं कही जा सकतीं। __ इससे यह स्पष्ट होता है कि जिससे आत्म विराधना, संयम विराधना, गृहस्थ की विराधना एवं जीवों की विराधना हो या गृहस्थ को किसी तरह का कष्ट होता हो तो ऐसे स्थान थत पदार्थ को ग्रहण नहीं करना चाहिए। यदि किसी भी तरह की विराधना एवं किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं पहंचता हो तो उस स्थान पर स्थित वस्तु साध के लिए ग्राह्य है। यह ध्यान रखने की आवश्यकता है कि साधु के निमित्त किसी भी प्राणी को कष्ट न हो और आत्मा एवं संयम की विराधना भी न हो। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 2-1-1-7-2 (372) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन पृथ्वीकाय पर स्थित आहार के विषय में उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 2 // // 372 // से भिक्खू वा से जं असणं वा, मट्टियाउलित्तं तहप्पगारं असणं वा लाभे स० केवलीo अस्संजए भि० मट्टिओलितं असणं वा उभिंदमाणं पुढविकायं समारंभिज्जा, तह तेउ-वाउ-वणस्सइ-तसकायं समारंभिज्जा, पुणरवि उल्लिंपमाणे पच्छाकम्मं करिजा, अह भिक्खूणं पुव्वो० जं तहप्पगारं मट्टिओलित्तं असणं वा, लाभे०। से भिक्खू० से जं असणं वा पुढविकायपइट्ठियं तहप्पगारं असणं वा अफासुयं से भिक्खू० ज० असणं वा आउकायपइट्ठियं चेव, एवं अगणिकायपइट्ठियं लाभे० केवलीo अस्संजo भि0 अगणिं उस्सक्किय निस्सक्किय ओहरिय आहट्ट दलइज्जा, अह भिक्खूणं० जाव नो पडि० // 372 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा स: यत्० अशनं वा मृत्तिकाअवलिप्तं तथाप्रकारं अशनं वा लाभे सति० केवली० असंयत: भिक्षु० मृत्तिकावलिप्तं अशनं वा उद्भिन्दन् पृथिवीकार्य समारभेत, तथा तेजोवायु वनस्पति प्रसकायं समारभेत, पुनरपि अवलिम्पन् पश्चात्कर्म कुर्यात्, अथ भिक्षूणां पूर्वोपदिष्टा० यत् तथाप्रकारं मृत्तिकावलिप्तं अशनं वा, लाभेल... स: भिक्षुः वा० स: यत्० अशनं वा पृथिवीकाय प्रतिष्ठितं तथाप्रकारं अथनं वा. अप्रासुकं सः भिक्षुः वा० यत्० अशनं वा अप्काय प्रतिष्ठितं चैव, एवं अग्निकाय प्रतिष्ठितं लाभे० केवलीo असंयत: भिक्षुः वा० अग्निं प्रज्वाल्य उत्सिञ्चय नि:सिथ्य अपवृत्त्य आहृत्य दद्यात्, अथ भिक्षुः यावत् न प्रति० // 372 / / III सूत्रार्थ : साधु या साध्वी भिक्षा के निमित्त गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर यदि देखे कि अशनादि चतुर्विध आहार मिट्टी से लीपे हुए बर्तन में स्थित है, इस प्रकार के अशनादि चतुर्विध आहार को, मिलने पर भी साधु ग्रहण न करे। क्योंकि भगवान ने इसे कर्म आने का मार्ग कहा है। इसका कारण यह है कि गृहस्थ, भिक्षु के लिए मिट्टी से लिप्त अशनादि के भाजन का उद्भेदन करता हुआ पृथ्वीकाय का समारम्भ करता है, तथा अप्-पानी, तेज-अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस काय का समारम्भ करता है, फिर शेष द्रव्य की रक्षा के लिए उस बर्तन का पुनः लेपन करके पश्चात् कर्म करता है, इसलिए भिक्षओं को तीर्थकर आदि ने पहले ही Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-7-2 (372) 103 कह दिया है कि वे मिट्टी से लिप्त बर्तन में रखे हुए अशनादि को ग्रहण न करें। तथा गृहपति कुल में प्रविष्ट हुआ भिक्षु यदि यह जाने कि अशनादि चतुर्विध आहार सचित्त मिट्टी पर रखा हुआ है तो इस प्रकार के आहार को अप्रासुक जानकर साधु ग्रहण न करे। वह भिक्षु यदि यह जाने कि अशनादि चतुर्विध आहार अप्काय पर रखा हुआ है तो उसे भी अप्रासुक जान कर स्वीकार न करे। इसी प्रकार अग्निकाय पर प्रतिष्ठित अशनादि चतुर्विध आहार को भी अप्रासुक जानकर उसे ग्रहण नहीं करना चाहिए। केवली भगवान कहते हैं कि यदि गृहस्थ भिक्षु के निमित्त अग्नि में ईन्धन डालकर अथवा प्रज्वलित अग्नि में से ईन्धन निकाल कर या अग्नि पर से भोजन को उतार कर, इस प्रकार से आहार लाकर दे तो साधु ऐसे अहार को अप्रासुक जानकर ग्रहण न करे। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. आहारादि के लिये गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर जाने कि- पिठरक आदि में मिट्टी से लेपा हुआ तथाप्रकार के आहारादि को कोइक निमित्त से पश्चात्कर्म दोषवाला जानकर ऐसे चारों प्रकार के आहारादि को प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करें.. क्योंकि- केवलज्ञानी कहतें हैं कि- यह कर्मबंध का कारण है... जैसे कि- कोइक गृहस्थ साधु के लिये मिट्टीवाले आहारादि के बरतन को खोलता हुआ पृथ्वीकाय का समारंभ करे... और अग्नि, वायु, वनस्पति एवं प्रसकाय का भी समारंभ करे.... तथा वह आहारादि देने के बाद भी शेष आहारादि के संरक्षण के लिये उस बरतन को पुनः लेप करता हुआ पश्चात्कर्म करे... * 'अतः साधुओं को पूर्व कही गइ प्रतिज्ञा एवं यह हेतु और यह कारण तथा यह उपदेश है कि- मिट्टी से लेपे हुए तथाप्रकार के आहारादि को प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करें... वह साधु या साध्वीजी म. आहारादि के लिये गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर जाने कि- आहारादि सचित्त पृथ्वीकाय के उपर रहा हुआ है, ऐसे आहारादि को पृथ्वीकाय के संघट्टन के भय से प्राप्त होने पर भी अप्रासुक एवं अनेषणीय जानकर ग्रहण न करें... इसी प्रकार अप्काय (जल), और अग्नि के उपर रहे हुए आहारादि को गृहस्थ दे तो भी ग्रहण न करे... क्योंकि- केवलज्ञानी प्रभुजी कहतें हैं कि- यह आदान याने कर्मबंध का कारण है... वह इस प्रकार- असंयत एसा गृहस्थ साधु को देनेके लिये अग्नि को उल्मुकादि से प्रज्वलित करके या अग्नि के उपर रहे हुए आहार के बरतन पिठरकादि को उतारकर या उस में से आहारादि लाकर साधु को दे... तब वहां साधुओं को पूर्व कही गइ यह प्रतिज्ञा है कि- ऐसे प्रकार के आहारादि को ग्रहण न करें... Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 2-1-1-7-3 (393) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- मिट्टी के लेप से बन्द किए गए खाद्य पदार्थ के बर्तन में से उक्त लेप को तोड़कर गृहस्थ कोई पदार्थ दे तो साधु को ग्रहण नहीं करना चाहिए। क्योंकि इससे पथ्वीकाय की एवं उसके साथ अन्य अप्कायिक आदि जीवों की हिंसा होगी और उस बर्तन में अवशिष्ट पदार्थ की सुरक्षा के लिए उस पर पुनः मिट्टी का लेप लगाने के लिए नया आरम्भ करना होगा। इस तरह पश्चात कर्म दोष भी लगेगा। इसी तरह सचित्त पृथ्वी, पानी एवं अग्नि पर रखा हुआ आहार भी साधु को ग्रहण नहीं करना चाहिए। यदि कोई गृहस्थ अग्नि पर रखे हुए बर्तन को उतारते हुए या ऐसा ही कोई अन्य अग्नि सम्बन्धी आरम्भ करते हुए साधु को आहार दे तो उस आहार को भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि जिससे छः काय एवं 6 में से किसी भी एक कायिक जीवों की हिंसा होती हो तो ऐसा आहार साधु को ग्रहण नहीं करना चाहिए। अब वायुकाय की यतना के सम्बन्ध में उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 3 // // 393 // से भिक्खू वा से जं0 असणं वा, अच्चुसिणं अस्संजए भि० सुप्पेण वा विहुयणेण वा तालियंटेण वा पत्तेण वा साहाए वा साहाभंगेण वा पिहुणेण वा पिहुणहत्थेण वा चेलेण वा चेलकण्णेण वा हत्थेण वा मुहेण वा फुमिज वा वीज वा, से पुत्वामेव आलोइज्जा आउसोत्ति वा भइणित्ति वा ! मा एतं तुमं असणं वा अच्चुसिणं सुप्पेण वा जाव फुमाहि वा वीयाहि वा, अभिकंखसि मे दाउं, एमेव दंलयाहि, से सेवं वयंतस्स परो सुप्पेण वा जाव वीइत्ता आहट्ट दलइज्जा, तहप्पगारं असणं वा अफासुयं वा नो पडि० // 393 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा सः यत्० अशनं वा अत्युष्णं असंयत: भि0 सूर्पण वा वीजनेन वा तालवृन्तेन वा पत्रेण वा शाखया वा शाखाभङ्गेन वा बहेण वा बहकलापेन वा वस्त्रेण वा वस्त्रकर्णेन वा हस्तेन वा मुखेन वा शीतीकुर्यात् वा वीजयेत् वा, सः पूर्वमेव आलोकयेत् हे आयुष्मन् ! वा भगिनि ! वा, मा, एतत् त्वं अशनं वा, अत्युष्णं सूर्पण वा यावत् शीतीकृथाः वा वीजय वा, अभिकाङ्क्षसि मे (मह्यं) दातुं, एवमेव ददस्व, सः तस्य एवं वदतः परः सूर्पण वा यावत् वीजयित्वा आहृत्य दद्यात्, तथाप्रकारं अशनं वा, अप्रासुकं वा न प्रति० // 373 // Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-7-3 (303) 105 III सूत्रार्थ: * आहार के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर यदि साधु या साध्वी यह देखे कि, गृहस्थ साधु को देने के लिए अत्युष्ण अशनादिक चतुर्विध आहार को शूर्प से, पंखे से, ताड़ पत्र से, शाखा से, साखा खंड से, मयूरपिच्छ से, मयूर पिच्छ के पंखे से, वस्त्र से, वस्त्र खंड से, हाथ से अथवा मुख से फूंक मार कर या पंखे आदि की हवा से ठंडा करके देने लगे तब वह भिक्षु उस गृहस्थ को कहे कि हे आयुष्मन्-गृहस्थ ! अथवा हे आयुष्मति बहिन ! तुम इस उष्ण आहार को इस प्रकार पंखे आदि से ठंडा मत करो। यदि तुम मुझे देना चाहती हो तो ऐसे ही दे दो। साधु के इस प्रकार कहने पर भी यदि वह गृहस्थ, उसे पंखे आदि से ठंडा करके दे तो साधु उस आहार को अप्रासुक जानकर ग्रहण न करे। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. आहारादि के लिये गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर जाने कि- अतिशय गरम ओदन (चावल) आदि साधुओं को देने के लिये गृहस्थ उन चावल आदि को ठंडा करने के लिये सूपडे से या पंखे से या मोरपींछ के पंखे से या पत्ते से या शाखा याने डाली से या शाखा के पल्लव से.तथा पीछे से या पीछे के समूह से या वस्त्र से या वस्त्र के (पालव) छेडे से या हाथ से या मुख से या ऐसी अन्य कोई भी वस्तु से (मुखवायु याने फुक से) ठंडा करे या वस्त्र आदि से वींजकर ठंडा करे, तब वह साधु पहेले से हि उपयोगवाला होकर जान ले एवं ऐसा करते हुए देखकर उन गृहस्थ को कहे कि- हे भाइ ! हे बहन ! ऐसा मत करो ! यदि आप यह आहारादि मुझे देना चाहते हो, तो ऐसा हि दीजीये... ... अब वह गृहस्थ उस प्रकार साधु के कहने पर भी सूपडे या यावत् मुख से पवन देकर एवं लाकर वह आहारादि साधु को दे, तब वह साधु अनेषणीय जानकर उस आहारादि को ग्रहण न करें.... अब पिंडाधिकार में हि एषणा-दोषों के विषय में कहते हैं... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि- यदि कोई गृहस्थ उष्ण पदार्थ को पंखे आदि से ठंडा करके देने का प्रयत्न करे तो साधु उसे ऐसा करने से इन्कार कर दे। वह स्पष्ट कहे कि हमारे लिए पंखे आदि से किसी भी पदार्थ को ठंडा करने की आवश्यकता नहीं है। इस पर भी यदि वह गृहस्थ साधु की बात को न मानकर उक्त उष्ण पदार्थ को पंखे आदि से ठण्डा करके दे तो साधु उस आहार को ग्रहण करें। क्योंकि इस तरह की क्रिया से वायुकायिक जीवों की हिंसा होती है। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 2-1-1-7-4 (374) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अब वनस्पति काय की यतना का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 4 // // 374 // से भिक्खू वा से जं0 असणं वा. वणस्सइकायपइट्ठियं तहप्पगारं असणं वा, लाभे संते नो पडि०। एवं तसकाए वि // 374 / / // संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा सः यत् अशनं वा वनस्पतिकाय प्रतिष्ठितं तथाप्रकारं अशनं वा, लाभे सति न प्रति० / एवं प्रसकायेऽपि || 374 // III सूत्रार्थ : साधु या साध्वी, भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करते हुए यदि यह देखे कि गृहस्थ के वहां अन्नादि चतुर्विध आहार वनस्पति काय पर रखा हुआ है, तो ऐसे वनस्पतिकाय पर प्रतिष्ठित अशनादि को साधु प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे। इसी प्रकार असकाय के विषय में भी जान लेना चाहिए। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. आहारादि के लिये गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर जाने कि- यह चारों प्रकार के आहारादि वनस्पतिकाय के उपर रहे हुए है, अतः ऐसे आहारादि को ग्रहण न करें... इसी प्रकार असकाय के विषय में भी जानीयेगा...' यहां “वनस्पतिकाय के उपर रहा हुआ" इत्यादि कहने से "निक्षिप्त" नाम का एषणादोष कहा... इसी प्रकार अन्य भी एषणा के दोषों को यथासंभव सूत्रों के माध्यम से जानीयेगा... और वे इस प्रकार हैं... शंकित - मक्षित - निक्षिप्त - पिहित - संहृत - आधाकर्म आदि की शंकावाला... जल आदि से... पृथ्वीकाय आदि के उपर... बीजोरे आदि फलों से ढांके हुए... बरतन में रहे हुए तुष (फोतरे) आदि को सचित्त पृथ्वीकाय आदि के उपर रखकर उसी बरतन से यदि आहारादि दे तब यह "संहृत' दोष होता है... Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-7-5 (375) 107 8. 6. दायक - दान देनेवाला बालक, वृद्ध आदि... 7. उन्मिश्र - सचित्त से मिश्रित हो... अपरिणत- देने योग्य आहारादि अच्छी तरह से अचित्त न हुए हो, या दाता एवं ग्रहण करनेवालों के अच्छे भाव न हो... लिप्त - वसा = चरबी आदि से लिप्त हो... 10. छर्दित - आहारादि देते हुए नीचे बिखेरता हुआ दे... यह एषणा के दश (10) दोष हैं... अब पानक याने जल के विषय में कहतें हैं... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि यदि किसी गृहस्थ के घर में आहार वनस्पति या अस प्राणी (द्वीन्द्रिय आदि प्राणियों) पर रखा हो या वनस्पति आदि खाद्य पदार्थों पर रखा हो तो साधु उस आहार को ग्रहण करें। इसका तात्पर्य यह है कि साधु के निमित्त स्थावर एवं अस किसी भी प्राणी को कष्ट होता हो तो साधु को ऐसा आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए। . आहार की तरह पानी भी जीवन के लिए आवश्यक है और नदी, तालाब, कुएं आदि का जल सचित्त होता है। अतः साधु को कैसा पानी ग्रहण करना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 5 // // 375 // से भिक्खू वा से जं पुण पाणगजायं जाणिज्जा, तं जहा- उस्सेइमं वा 1, संसेइमं वा 2, चाउलोदगं वा 3, अण्णयरं वा तहप्पगारं पाणगजायं अहणाधोयं अणंबिलं अव्वुक्कतं अपरिणयं अविद्धत्थं अफासुयं जाव नो पडिगाहिज्जा / अह पुण एवं जाणिज्जा - चिराधोयं अंबिलं वुक्कंतं परिणयं विद्धत्थं फासुयं पडिगाहिज्जा। से भिक्खू वा से जं पुण पाणगजायं जाणिज्जा, तं जहा- तिलोदगं वा 4, तुसोदगं वा 5, जवोदगं वा 6, आयामं वा 7, सोवीरं वा 8, सुद्धवियडं वा 9, अण्णयरं वा तहप्पगारं वा पाणगजायं पुवामेव आलोइजा - आउसोत्ति वा भइणित्ति वा ! दाहिसि मे इत्तो अण्णयरं पाणगजायं ? से सेवं वयंतस्स परो वइज्जा - आउसंतो समणा ! तुमं चेवेयं पाणगजायं पडिग्गहेण वा उस्सिंचिया णं उयत्तिया णं गिण्हाहि, तहप्पगारं पाणगजायं सयं वा गिव्हिज्जा, परो वा से दिज्जा, फासुयं लाभे संते पडिगाहिजा || 375 // Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 2-1-1-7-5 (375) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन %3 II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा सः यत् पुनः पानकजातं जानीयात्, तद् - तथा - उत्स्वेदितं वा 1, संस्वेदितं वा 2, तन्दुलोदकं वा 3, अन्यतरं वा तथाप्रकारं पानकजातं जानीयात्, अधुनाद्यौतं, अनाम्लं, अव्युत्क्रान्तं, अपरिणतं, अविघ्वस्तं, अप्रासुकं यावत् न प्रतिगृह्णीयात् / अथ पुनः एवं जानीयात् - चिरात् धौतं आम्लं व्युत्क्रान्तं परिणतं विघ्वस्तं प्रासुकं प्रतिगृह्णीयात्। सः भिक्षुः वा सः यत् पुनः पनकजातं जानीयात्, तद्-यथातिलोदकं वा 4, तुषोदकं वा 5, यवोदकं वा 6, आचाम्लं वा 7, सौवीरं वा 8, शुद्धविकट वा 9, अन्यतरं वा तथाप्रकारं वा पानकजातं पूर्वमेव आलोचयेत् - हे आयुष्मन् ! भगिनि ! वा, दास्यसि मे (मह्यं) इत: अन्यतरत् पानकजातम् ? तस्य सः एवं वदतः परः वदेत्हे आयुष्मन् श्रमण ! त्वमेवेदं पानकजातं पतद्ग्रहेण वा उत्सिञ्चय अपवर्त्य वा गृहाण। तथाप्रकारं पानकजातं स्वयं वा गृह्णीयात्, परः वा तस्मै दद्यात्, प्रासुकं लाभे सति प्रतिगृह्णीयात् || 375 // III सूत्रार्थ : साधु या साध्वी गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पार पानी के भेदों को जाने जैसे किचूर्ण से लिप्त बर्तन का धोवन, अथवा तिल आदि का धोवन, चावल का धोवन अथवा इसी प्रकार का अन्य कोई धोवन तत्काल का किया हुआ हो। जिसका कि स्वाद चलित नहीं हुआ हो, रस अतिक्रान्त नहीं हुआ हो। वर्ण आदि का परिणमन नहीं हुआ हो और शस्त्र से भी परिणत नहीं हआ हो तो ऐसे पानी के मिलने पर भी उसे अप्रासुक जानकर साधु ग्रहण न करे। यदि पुनः वह इस प्रकार जाने कि यह धोवन बहुत देर का बनाया हुआ है और इसका स्वाद बदल गया है, रस का अतिक्रमण हो गया है, वर्ण आदि परिणत हो गया है और शस्त्र से भी परिणत हो गया है तो ऐसे पानी को प्रासुक जानकर साधु उसे ग्रहण कर ले। फिर वह साधु या साध्वी गृहस्थ के घर में जलार्थ प्रविष्ट होने पर जल के विषय में इस प्रकार जाने, यथा-तिलों का धोवन, तुषों का धोवन, यवों का धोवन तथा उबले हुए चावलों का जल, कांजी के बर्तन का धोवन एवं प्रासुक तथा उष्ण जल अथवा इसी प्रकार का अन्य जल इनको पहले ही देखकर साधु गृहपति से कहे-आयुष्मन् गृहस्थ ! अथवा- (स्त्री हो तो) हे भगिनि ! क्या मुझे इन जलों में से किसी जल को दोगी ? तब वह गृहस्थ, साधु के इस प्रकार कहने पर यदि कहे कि आयुष्मन् श्रमण ! तुम इस जल के पात्र में से स्वयं उलीचकर और नितार कर पानी ले लो। गृहस्थ के इस प्रकार कहने पर साधु स्वयं ले ले अथवा गृहस्थ के देने पर उसे प्रासुक जान कर ग्रहण कर ले। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-7-5 (375) 109 IV टीका-अनुवाद : __वह साधु या साध्वीजी म. जल के लिये गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर जाने किउस्सेइमं याने यह जल आटे के उत्स्वेदन याने कणिक के लिये है... तथा संसेइमं याने बरतन को लगे हुए जलबिंदु का सुखना... तथा चाउलोदगं याने चावल का ओसामण... आदेश तो यह है कि- जल का स्वच्छ होना... इत्यादि जल यदि अनाम्ल याने अपने स्वाद से बदले न हो, तथा अचित्त न हुआ हो, परिणत न हुआ हो, विघ्वस्त एवं प्रासुक न हुआ हो तो ऐसे जल को प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करें... और यदि इससे विपरीत याने अम्ल, व्युत्क्रांत परिणत यावत् प्रासुक हो तो ग्रहण करें... - तथा वह साधु जल के लिये गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर जाने कि- यह जल तिलों के द्वारा कोइक प्रकार से अचित्त हुआ है, इसी प्रकार- तुष, तथा यव, से अचित्त हुआ है... आचाम्ल याने ओसामण, सौवीर याने आरनाल (छासकी आछ) तथा शुद्धविकल याने गरम कीया हुआ अचित्त जल, इसी प्रकार अन्य भी तथाप्रकार के द्राक्षपानक याने द्राक्षजल इत्यादि पानी याने जल के प्रकारों को पहले से हि साधु उपयोग देकर जान ले और गृहस्थ को कहे कि- हे भाइ ! हे बहन ! यदि आप यह जल देना चाहते हो तो दीजीये... तब इस प्रकार कहते हुए साधु को वह गृहस्थ कहे कि- हे आयुष्मान् श्रमण / आप अपने पात्र, टोकनी या कटाह से जल ग्रहण करो... इस प्रकार गृहस्थ से अनुज्ञा मीलने पर वह साधु स्वयं हि वह जल ग्रहण करें या अन्य गृहस्थ उन्हें दें... इस प्रकार प्रासुक जल प्राप्त होने पर साधु ग्रहण करे... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया हे कि- साधु को वह पानी ग्रहण करना चाहिए जो शस्त्र से परिणत हो गया है और जिसका वर्ण, गंध एवं रस बदल गया है। अतः बर्तन आदि का धोया हुआ प्रासुक पानी यदि किसी गृहस्थ के घर में प्राप्त हो तो साधु उसे ग्रहण कर सकता है। इस प्रकार निर्दोष एवं एषणीय प्रासुक जल गृहस्थ की आज्ञा से स्वयं भी ले सकता है। इसका तात्पर्य यह है कि यदि कभी गृहस्थ पानी का भरा हुआ बर्तन उठाने में असमर्थ है और वह आज्ञा देता है तो साधु उस प्रासुक एवं एषणीय पानी को स्वयं ले सकता है। - प्रस्तुत सूत्र में 9 तरह के पानी के नामों का उल्लेख किया गया है-१. आटे के बर्तनों का धोया हुआ धोवन (पानी) / 2. तिलों का धोया हुआ पानी, 3. चावलों का धोया हुआ पानी, 4. जिस पानी में उष्ण पदार्थ ठंडे किए गए हों, वह पानी, 5. तुषों का धोया हुआ पानी, 6. यवों का धोया हआ पानी, 7. उबले हए चावलों का निकाला हआ पानी, 8. कांजी के बर्तनों फा धोया हुआ पानी, 9. उष्ण-गर्म पानी / इसके आगे 'तहप्पगारं' शब्द से यह सूचित किया क्या है कि इस तरह के शस्त्र से जिस पानी का वर्ण, गन्ध, रस बदल गया हो वह पानी Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 2-1-1-7-6 (376) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन भी साधु ग्रहण कर सकता है। जैसे-द्राक्षा का पानी, राख से मांजे हुए बर्तनों का धोया हुआ पानी आदि भी प्रासुक एवं ग्राह्य है। इससे स्पष्ट हो गया कि साधु शस्त्र परिणत प्रासुक जल ग्रहण कर सकता है। यदि निर्दोष बर्तन आदि का धोया हुआ या गर्म पानी प्राप्त होता हो तो साधु उसे स्वीकार कर सकता है। इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र ||6|| || 376 // से भिक्खू वा से जं पुण पाणगं जाणिज्जा, अणंतरहियाए पुढवीए जाव संताणए उद्धट्ट, निक्खिते सिया, असंजए भिक्खुपडियाए उदउल्लेण वा ससिणिद्धेण वा सकसाएण वा मत्तेण वा सीओदगेण वा संभोइत्ता आहट्ट दलइजा, तहप्पगारं पाणगजायं अफासुयं, एयं खलु सामग्गियं || 376 || II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा सः यत् पुनः पानकं जानीयात्-अनन्तरहितायां पृथिव्यां यावत् सन्तानके उदृत्त्य उदृत्त्य निक्षिप्तं स्यात्, असंयतः साधुप्रतिज्ञया उदकाइँण वा, सस्निग्धेन वा, सकषायेण वा मात्रेण वा शीतोदकेन वा मिश्रयित्वा आहत्य दद्यात्, तथाप्रकारं पानकजातं अप्रासुकं, एतत् खलु सामग्यम् || 376 || III सूत्रार्थ : जल के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर साधु या साध्वी जल के सम्बन्ध में यदि यह जान ले कि गृहस्थ ने प्रासुक जल को सचित्त पृथ्वी से लेकर मकड़ी आदि के जालों से युक्त पदार्थ पर रखा है या उसने उसे अन्य पदार्थ से युक्त बर्तन से निकाल कर रखा है या वह उन हाथों से दे रहा है जिससे सचित्त जल टपक रहा है या उसके हाथ जल से भीगे हुए हैं ऐसे हाथों से, या सचित्त पृथ्वी आदि से युक्त बर्तन से या प्रासुक जल के साथ सचित्त जल मिलाकर देवे तो इस प्रकार के जल को अप्रासुक जानकर साधु उसे ग्रहण न करे। यही संयमशील मुनि का समय आचार है। ऐसा में कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. यदि ऐसा जाने कि- यह जल सचित्त पृथ्वीकाय आदि में यावत् करोडीये (मकडी) के जाले में या अन्य बरतन में से निकाल निकालकर रखा हुआ है, तथा वह गृहस्थ साधु को देने के लिये जल से भीगे हाथों से या सचित्त पृथ्वी आदि से सहित पात्र (बरतन) से या ठंडा (कच्चा) जल मीलाकर के लाकर दे, तब ऐसा जल अप्रासुक Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-7-6 (376) 111 एवं अनेषणीय मानकर साधु ग्रहण न करें... यह हि साधु एवं साध्वीजी म. का संपूर्ण साधुपना v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- यदि किसी गृहस्थ के घर पर प्रासुक पानी सचित्त पृथ्वी आदि पर रखा हुआ है, या उसमें सचित्तं जल मिलाया जा रहा है, या उस सचित्त जल से गीले हाथों से या सचित्त पृथ्वी या रज आदि से भरे हुए हाथों से दे रहा है, तो साधु को वह पानी नहीं लेना चाहिए। क्योंकि उससे अन्य जीवों की हिंसा होती है। अतः साधु को वही प्रासुक पानी ग्रहण करना चाहिए जो सचित्त पृथ्वी, पानी, अग्नि वनस्पति आदि पर न रखा हो और गृहस्थ भी इन पदार्थों से युक्त न हो। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें। // प्रथमचूलिकायां प्रथमपिण्डैषणाध्ययने सप्तमः उद्देशकः समाप्तः // 卐卐卐 : : प्रशस्ति : __ मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शगुंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट -परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. "श्रमण" के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058. Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 2-1-1-8-1 (377) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 1 अध्ययन - 1 उद्देशक - 8 पिण्डैषणा सातवां उद्देशक कहा, अब आठवे उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं... इसका पूर्व के उद्देशक के साथ यह संबंध है कि- सातवे उद्देशक में जल का विचार कीया, अब यहां आठवे उद्देशक में भी जल विषयक हि विशेष कहतें हैं... I सूत्र // 1 // // 377 // से भिक्खू वा से जं पुण पाणगजायं जाणिज्जा, तं जहा - अंबपाणगं वा 10, अंबाडगपाणगं वा 11, कविठ्ठपाण० 12, माउलिंगपा० 13, मुद्दिया पा० 14, दालिम पा० 15, खजूर पा० 16, नालियेर पा० 17, करीर पा० 18, कोल पा० 19, आमलपा० 20, चिंचा पा० 21, अण्णयरं वा तहप्पगारं पाणगजातं सअट्ठियं सकणुयं सबीयगं, अस्संजए भिक्खुपडियाए छब्बेण वा दूसेण वा वालगेण वा, आविलियाण पविलियाण परिसावियाण आहट्ट दलइजा, तहप्पगारं पाणगंजायं अफा0 लाभे संते नो पडिगाहिज्जा // 377 // II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा सः यत् पुन: पानकजातं जानीयात्, तद्-यथा आम्रपानकं वा 10, अम्बाडक-पानकं वा११, कपिस्थपानकं वा 12, मातुलिङ्ग पा० 13, द्राक्षा पा० 14, दाडिमपा० 15, खजूर पा० 16, नालिकेर पा० 17, करीर पा० 18, कोलपा० 19, आमलक पा० 20, चिधा पा० 21, अन्यतरं वा तथाप्रकारं पानकजातं सास्थिकं सकणुकं सबीजकं असंयतः भिक्षुप्रतिज्ञया छब्बकेन वा दूष्येन वा वालकेन वा, आपीड्य परिपीड्य परिस्त्राव्य आहृत्य दद्यात्, तथाप्रकारं पानकजातं अप्रासुकं० लाभे सति न प्रतिगृह्णीयात् // 377 // III सूत्रार्थ : गृहस्थ के घर में पानी के निमित्त प्रवेश करने पर साधु या साध्वी पानी के विषय में इन बातों को जाने / जैसे कि-आमफल का पानी, अम्बाडगफल का पानी, कपित्थ फल का पानी, मातुलिंग फल का पानी, द्राक्षा का पानी, अनार का पानी, खजूर का पानी, नारियल का पानी, करीर का पानी, बदरी फल-पानी, आंवले का पानी और इमली का पानी, तथा Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-8-1 (377) 113 इसी प्रकार का अन्य पानी, जो कि गुठली सहित, छाल सहित और बीज के साथ मिश्रित है, उसे यदि गृहस्थ भिक्षु के निमित्त बांस की छलनी से, वस्त्र से या बालों की छलनी से, एक बार अथवा अनेक बार छानकर और उसमें हुए गुठली छाल और बीजादि को छलनी के द्वारा अलग करके उसे दे तो साधु इस प्रकार के जल को अप्रासुक जानकर मिलने पर भी ग्रहण न करे। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. जल के लिये गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर जाने कियह जल आम के घोवण का जल है या अंबाडकजल, या कोठे का जल, या बीजोरे का जल, या द्राक्ष का जल, या दाडिम का जल, या खजूर का जल, या (श्रीफल) नारियेल का जल, या केर का जल, या कोल का जल, या आमले का जल या इमली का जल या अन्य ऐसे प्रकार के जल कि- जो (अस्थि) कुलकंवाला है, छिल्लकेवाला है, बीजवाला है, अस्थि और बीज का स्वरूप आंवले आदि में विशेष रूप से प्रतीत होता है, तो ऐसे प्रकार के जल, यदि गृहस्थ साधुओं को देने के लिये,द्राक्ष आदि का आर्मदन (चोलना-दबाना) करके तथा छिलके तथा बीज को निकालने के लिये वस्त्र या सुघरी (पक्षी) के माले (छलनी) से छानकर लाकर साधुओं को दे, तब ऐसे प्रकार के जल उद्गम-दोषवाले होने के कारण से प्राप्त होने पर भी साधु ग्रहण न करें... उद्गम-दोष निम्न प्रकार के हैं... आधाकर्म साधु के लिये सचित्त को अचित्त कीया जाय, या अचित्त को पकाया जाय... 2. औदेशिक - पहले अपने लिये बनाये हुए लड्डू के चूरे में साधुओं को देने के लिये यदि गुड घी आदि से संस्कार करे तब वह आहारादि औद्देशिक दोषवाला होता है... और वह सामान्य एवं विशेष भेद से अनेक प्रकार का है कि- जो अन्य सूत्रों से जानीयेगा... 3. पूतिकर्म जो शुद्ध आहार आधाकर्मवाले आहार से मिश्रित किया जाय वह... पूतिकर्म... 4. मिश्र जो आहारादि पहले से हि साधु एवं गृहस्थों के लिये बनाया हो वह... मिश्रदोष... स्थापना जो आहारादि साधुओं को देने के लिये संभालकर रखा जाय, वह स्थापना-दोष... Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 2-1-1-8-1 (377) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन 6. प्राभृतिका साधुओं की उपस्थिति को ध्यान में रखकर जो भी विवाहादि प्रसंग का समय (दिन) आगे-पीछे कीया जाय वह... प्रादृष्करण साधुओं को आहारादि देने के लिये गवाक्ष खीडकी-दरवाजे आदि का खोलना या प्रकाश (दीया-लाइट) करना वह प्रादुष्करण-दोष... 8. क्रीत - धन (पैसा) देकर खरीदकर आहारादि साधुओं को देना वह क्रीतदोष... 9. प्रामित्य साधुओं को देने के लिये जो आहारादि अन्य से "उधार" लेना वह प्रामित्य 10. परिवर्तित साधुओं को देने के लिये जो गृहस्थ अपने पडौशी के घर से कोंद्रव आदि के बदले में शालि-चावल आदि का अदलाबदला करे वह परिवर्तित- दोष... 11. अभ्याहृत 12. उद्भिन्न गृहस्थ अपने घर से आहारादि लाकर साधुओं के उपाश्रय (वसति) में जाकर उन्हे दे, वह अभ्याहृत दोष... गोमय या मिट्टी आदि से लेपे हुए बरतन को खोलकर आहारादि साधु को दे, तब उद्भिन्न-दोष होता है... माले पे रहे हुए आहारादि को निसरणी आदि के द्वारा उतारकर यदि साधुओं को दे, तब मालापहृत-दोष होता 13. मालापहृत नौकर आदि से बल जबरन लेकर जो आहारादि साधुओं को दीया जाय वह आच्छेद्य... दो-चार व्यक्तिओं की सामान्य स्वामीत्व वाले आहारादि यदि उनकी अनुमति लिये बिना हि कोई एक व्यक्ति साधुओं को दे, तब अनिसृष्ट-दोष... अपने लिये बन रही रसोई में यदि साधुओं का आगमन जानकर और अधिक रसोड (चावल आदि) का प्रक्षेप करे तब अध्यवपूरक-दोष होता है... 16. अध्यवपूरक - Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-8-2 (378) 115 इस प्रकार उद्गम के सोलह दोषों में से कोई भी दोष हो तब ऐसे आहारादि प्राप्त होने पर भी साधु ग्रहण न करें... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में 21 प्रकार के प्रासुक पानी का उल्लेख किया गया है। उसमें आम फल आदि के धोवन पानी के विषय में बताया गया है कि यदि कोई गृहस्थ आम आदि को धोने के पश्चात् उस पानी को छान रहा है और उसमें रहे हुए गुठली छाल एवं बीज आदि को निकाल रहा है, तो साधु को उक्त पानी नहीं लेना चाहिए। क्योंकि वह वनस्पतिकायिक (बीज, गुठली आदि) जीवों से युक्त होने के कारण निर्दोष एवं ग्राह्य नहीं है। प्रस्तुत सूत्र में ‘अस्थि' शब्द गुठली के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। क्योंकि आम के साथ उसका प्रयोग होने के कारण उसका गुठली अर्थ ही घटित होता है। द्राक्षा की अपेक्षा त्वक्छाल, अनार आदि की अपेक्षा से बीज शब्द का प्रयोग हुआ है। प्रस्तुत सूत्र का तात्पर्य यह है कि आम आदि फलों का धोया हुआ पानी एवं रस यदि गुठली, बीज आदि से युक्त है और उसे बांस की बनाई गई टोकरी या गाय के बालों की बनाई गई छलनी या अन्य किसी पदार्थ से निर्मित छलनी या वस्त्र आदि से एक बार या एक से अधिक बार छानकर तथा उसमें से गुठली, बीज आदि को निकाल कर दे तो वह पानी या रस साधु के लिए अग्राह्य है। क्योंकि इस तरह का पानी उद्गमादि दोषों से युक्त होता है। अतः साधु को ऐसा जल अनेषणीय होने के कारण ग्रहण नहीं करना चाहिए। - अपने स्थान में स्थित साधु को भौतिक आहारादि पदार्थों से किस तरह अनासक्त रहना चाहिए, इस बात का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं.. I सूत्र // 2 // // 378 // * से भिक्खू वा आगंतारेसु वा, आरामागारेसु वा, गाहावड़गिहेसु वा, परियावसहेसु वा अण्णगंधाणि वा पाणगंधाणि वा, सुरभिगंधाणि वा आघाय से तत्थ आसायपडियाए मुच्छिए गिद्धे गड्ढिए अज्झोववण्णे अहो गंधे, नो गंधमाघाइजा / / 378 // // संस्कृत-छाया : . सभिक्षुः वा आगन्तारेषु वा, आरामागारेषु वा, गृहपतिगृहेषु वा, पर्यावसथेषु वा, अन्नगन्धान् वा पानगन्धान् वा सुरभिगन्धान् वा आघ्राय आघ्राय सः तत्र आस्वादन Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 2-1-1-8-3 (379) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन प्रतिज्ञया मूर्छित, गृद्धः, ग्रथित, अध्युपपन्नः अहो गन्धः अहो गन्धः न गन्धं आजिज्रेत् / / 378 // III सूत्रार्थ : धर्मशालाओं में, आरामशालाओं में, गृहस्थों के घरों में या परिव्राजकों के मठों में ठहरा हुआ साधु या साध्वी अन्न एवं पानी की तथा सुगन्धित पदार्थो कस्तूरी आदि की गन्ध को सुंघ कर उस गन्ध के आस्वादन की इच्छा से उसमें मूर्छित, गृद्धित, यथित और आसक्त होकर हि वाह ! क्या ही अच्छी सुगन्धि है, कहता हुआ उस गन्ध की सुवास न ले। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. आगंतार याने नगर के बाहार जहां मुसाफिर आकर ठहरतें हैं, तथा आरामगृह याने बगीचे-उद्यान में या गृहस्थों के घर में या भिक्षुकादि के मठों में इत्यादि स्थानो में आहार के गंध एवं जल-पान के गंध (सुगंध) को सुंघ-सुंघकर उनको खाने की पीने की इच्छा से मूर्छित हुओ, गृद्ध हुए, आदरवाले एवं उसी के विचारवाले होकर "अहो क्या सुगंध है," इत्यादि प्रकार से आदरवाले होकर गंध (सुगंध) को ग्रहण न करें.... अब और भी आहार के विषय में कहतें हैं... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- धर्मशाला में, बगीचे में, गृहस्थ के मकान में, परिव्राजक-संन्यासी के मठ में अथवा किसी भी निर्दोष एवं एषणीय स्थान में ठहरा हुआ साधु अनासक्त भाव से अपनी साधना में संलग्न रहे। यदि उक्त स्थानों के पास स्वादिष्ट अन्न एवं पानी या अन्य सुवासित पदार्थो की सुहावनी सुवास आती हो तो वहां स्थित साधु उसमें आसक्त होकर उस सुवास को ग्रहण न करे और न यह कहे कि क्या ही मधुर एवं सुहावनी सुवास आ रही है। परन्तु, वह अपने मन आदि योगों को उस ओर से हटाकर अपनी साधना मेंस्वाध्याय, ध्यान, चिन्तन-मनन आदि में लगा दे। ___ अब फिर से आहार ग्रहण करने के सम्बन्ध में सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र || 3 || || 379 // से भिक्खू वा से जं सालुयं वा विरालियं वा सासवनालियं वा अण्णयरं वा तहप्पगारं आमगं असत्थपरिणयं अफासु / से भिक्खू वार से जं पुण पिप्पलिं वा पिप्पलचुण्णं वा मिरियं वा मिरियचुण्णं वा सिंगबेरं वा सिंगबेरचुण्णं वा अण्णयरं वा Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-8-3 (379) 117 तहप्पगारं वा आमगं वा असत्थप / से भिक्खू वार से जं पुण पलंबजायं जाणिज्जा, तं जहा- अंबपलंबं वा अंबाडगपलंबं वा तालप झिझिरिप सुरहिए सल्लरप अण्णयरं तहप्पगारं पलंबजायं आमगं असत्थप / से भिक्खू वा से जं पुण पवालजायं जाणिज्जा, तं जहा-आसोत्थपवालं वा निग्गोहप पिलुंखुप निपूरप सल्लइप अण्णयरं वा तहप्पगारं पवालजायं आमगं असत्थपरिणयं से भिक्खू वा से जं पुण सरडुयजायं जाणिज्जा, तं. जहा सरडुयं वा कविट्ठसर दाडिमसर बिल्लसर अण्णयरं वा तहप्पगारं सरडुयजायं आमं असत्थपरिणयं / से भिक्खू वा से जं पु. तं जहा-उंबरमंथु वा नग्गोहमंथु वा पिलुखुमं आसोत्थमं अण्णयरं वा तहप्पगारं वा मंथुजायं आमयं दुरुक्कं साणुबीयं अफासुयं / // 379 // II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा सः यत् सालुकं वा, विरालिकं वा, सर्षपनालिकं वा अन्यतरं वा तथाप्रकारं आमं अशस्त्रपरिणतं अप्रासुकं / सः भिक्षुः वा सः यत् पुनः पिप्पली वा पिप्पलीचूर्णं वा मरिचं वा मरिचचूर्णं वा शृङ्गबेरं वा शुङ्गबेरचूर्णं वा अन्यतरं वा तथाप्रकारं वा आमं वा अशस्त्रपरि / स: भिक्षुः वा सः यत् पुन: पलम्बजातं जानीयात्, तद्यथा-आम्रपलम्बं वा अम्बाडकपलम्बं वा तालप झिज्झिरी (वल्ली) पलम्बं वा, सरभिप० सल्लरप अन्यतरं तथाप्रकारं प्रलम्बजातं आमं अशस्त्रपरिणतं / सः भिक्षः वा सः यत् पुनः प्रवालजातं जानीयात्, तद्यथा- अश्वत्थप्रवालं वा न्यग्रोधप्रवालं वा, पिप्परीप निपूरप० सल्लकिप अन्यतरं वा तथाप्रकारं प्रवालजातं आमं अशस्त्रपरिणतं / स: भिक्षुः वा सः यत् पुनः सरडुक जातं (अबद्धास्थिफलं) जानीयात्, तद्यथा-सरडुकं वा कपित्थसर० दाडिमसर बिल्लसर अन्यतरं वा तथाप्रकारं सरडुकजातं आमं अशंखपरिणतं० / स: भिक्षुः वा सः यत् पुनः तद्यथा-उम्बरमन्धुं वा न्यग्रोधमन्थु वा . पिप्परीमन्थु वा अश्वत्थमन्थु वा अन्यतरं वा तथाप्रकारं वा मन्थुजातं आमं दुरुष्कं (ईषत्पिष्टं) सानुबीजं अप्रासुकं०। || 379 // III सूत्रार्थ : . गृहपति के घर में प्रविष्ट जलज कन्द, और सर्षपनालिका कन्द तथा इसी प्रकार का अन्य कोई कच्चा कन्द कि- जो शस्त्रपरिणत नहीं हुआ ऐसे कन्द आदि को अप्रासुक जानकर मिलने पर भी ग्रहण न करे। .. गृहस्थ के घर में प्रविष्ट होने पर साधु वा साध्वी पिप्पली, पिप्पली का चूर्ण, मिरच, मिरच. का चूर्ण, अदरक, अदरक का चूर्ण, तथा इसी प्रकार का अन्य कोई पदार्थ या चूर्ण, फच्चा और अशस्त्र परिणत-जिसे शस्त्र परिणत नहीं हुआ हो ऐसा मिलने पर अप्रासुक जान कर ग्रहण न करे। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 2-1-1-8-3 (379) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन गृहपति के घर में प्रविष्ट साधु या साध्वी प्रलम्बजात फलजात-फल समुदाय को जाने, देखे कि- यथा-आमप्रलम्ब आमफल का गुच्छा-फलसामान्य, अम्बाडग फल, ताडफल, लताफल, सुरभि फल, और शल्यकी का फल तथा इसी प्रकार का अन्य कोइ प्रलम्बजात . कच्चा और जो शस्त्र परिणत नही हुआ हो वह मिलने पर अप्रासुक जान कर ग्रहण न करे। गृहस्थ के घर में प्रविष्ट साधु या साध्वी प्रवालजात-पत्र समुदाय को जाने यथा अश्वत्थ प्रवाल, न्यग्रोध-वट प्रवाल, प्लक्ष प्रवाल, निपूर प्रवाल, नन्दी वृक्ष प्रवाल और शल्यकी प्रवाल तथा इस प्रकार का कोई अन्य प्रवालजात कच्चा अशस्त्रपरिणत (जिसे शस्त्रपरिणत नही हुआ) मिलने पर अप्रासक जानकर ग्रहण न करे। - गृहपति के घर में प्रविष्ट साधु या साध्वी अबद्धास्थि फल-कोमल फल को जाने, जैसे कि- आम वृक्ष का कोमल फल, कपित्थ का कोमल फल, अनार का कोमल फल और बिल्व का कोमल फल तथा इसी प्रकार का अन्य कोमल फल जो कि कच्चा और शस्त्र परिणत नहीं, एसा फल मिलने पर भी अप्रासुक जान कर साधु उसे परिग्रहण न करें... गृहस्थी के घर में प्रविष्ट साधु या साध्वी मन्थु के सम्बंध में जानकारी करे जैसेउदुम्बर मन्थु-चूर्ण, न्यग्रोधमन्थु, प्लक्षमथु, अश्वत्थमन्थु, तथा इसी प्रकार का अन्य मन्थुजात जो कि कच्चा और थोड़ा पीसा हुआ तथा सबीज अर्थात् जिसका कारण-योनि बीज विध्वस्त नहीं हुआ ऐसे चूर्ण जात को मिलने पर भी अप्रासुक जानकर ग्रहण न करे। IV टीका-अनुवाद : इस सूत्र का अर्थ सुगम है, तो भी जो कठिन है वह कहते हैं- सालुंक याने जल में उत्पन्न होनेवाला कंद, विरालियं याने भूमि में हि उत्पन्न होनेवाला कंद, सासवनालियं याने सर्षपके कंद, तथा पिप्पली एवं मरिच तो प्रतीत हि है, तथा शृंगबेर याने आर्द्रक, तथा तथाप्रकार के आमले आदि आम याने कच्चे या शस्त्र से उपहत न हुए हो अर्थात् अचित्त न हुए हो, ऐसे उन्हे साधु ग्रहण न करें... . तथा प्रलंबजात याने सामान्यफल, झिज्झिरी याने-वल्ली (वेलडी) के पाश (जाल) तथा सुरभि याने शता... इत्यादि... , तथा अश्वत्थं (पिंपल) तथा पिलुंखु याने पिप्परली, निपूर याने नंदीवृक्ष, तथा सरडुय याने जिस में अस्थि (मिंज) न बंधे हो ऐसे फल, तथा कपित्थ (कोठे) आदि... तथा मंथु याने चूर्ण, तथा दुरुक्क याने थोडा पीसा हुआ, और साणुबीय याने जिस बीज में योनि विनष्ट न हुइ हो ऐसे बीज... Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-8-4 (380) 119 V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु को अपक्व कन्द-मूल, वनस्पति एवं फल आदि नहीं लेने चाहिए। यदि कच्ची सब्जी शस्त्रपरिणत हो गई है तो वह ग्राह्य है, परन्तु, जब तक वह शस्त्रपरिणत नहीं हुई है, तब तक सचित्त है; अतः साधु के लिए अग्राह्य है। 'विरालियं' का अर्थ है-जमीन में उत्पन्न होने वाला कन्द विशेष / 'पलम्बजायं' का तात्पर्य फल से है। 'अबद्धा अत्थि फलं' का तात्पर्य है- वह फल जिस में अभी तक गुठली नहीं बन्धी है, ऐसे सुकोमल फल को 'सरडुय' कहते हैं 'मन्थु' का अर्थ चूर्ण होता है और 'साणुबीयं' का तात्पर्य है-वह बीज जिसकी योनि का अभी नाश नहीं हुआ है। 'झिज्झरी' शब्द लता विशेष का बोधक है। इस पाठ का तात्पर्य यह है कि साधु को सचित्त वनस्पति को ग्रहण नहीं करना चाहिए। पुनः आहार के सम्बन्ध में उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं.. I सूत्र // 4 // // 380 // .. से भिक्खू वा से जं पुण आमडागं वा, पूइपिन्नागं वा, महुं वा, मज्जं वा, सप्पिं वा, खोलं वा, पुराणगं वा, इत्थ पाणा अणुप्पसूयाइं जायाइं सुंवाडाइं अवुयकताई अपरिणया इत्थ पाणा अविद्धत्था नो पडिगाहिज्जा || 380 / / II संस्कृत-छाया : .स: भिक्षुः वा सः यत् पुन:० आमपत्रं वा, पूतिपुन्नागं वा, मधु वा, मद्यं वा . सर्पिः वा खोलं वा, पुरानकं वा अत्र प्राणिन: अनुप्रसूता: जाता: संवृद्धाः अव्युत्क्रान्ता: अपरिणता अत्र प्राणिनः अविध्वस्ता: न प्रतिगृह्णीयात् || 380 // II सूत्रार्थ : - गृहपति कुल में प्रविष्ट हुआ साधु या साध्वी अर्द्धपक्व शाक, सडी हुई खल, मधु, मद्य, सर्पि-घृत, खोल-मद्य के नीचे का कर्दम-कीच इन पुराने पदार्थों को ग्रहण न करे, कारण कि- इन में प्राणी-जीव उत्पन्न होते हैं, जन्मते हैं, तथा वृद्धि को प्राप्त होते हैं और इन में प्राणियों का व्युत्क्रमण, परिणमन तथा विध्वंस नहीं होता, अर्थात् सजीव है.अतः इसलिए मिलने पर भी उन पदार्थों को ग्रहण न करे। IV . टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. जब ऐसा जाने कि- यह अरणिक एवं तंदुलीयक आदि के Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 2-1-1-8-5 (381) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन पत्ते अर्धपक्व या अपक्व है तथा पुतिपुन्नाग याने कुतखल, तथा मध, मद्य, घी, और खोल याने मदिरा के नीचे जमा हुआ कर्दम (कादव-कीचड) यह सभी यदि पुराने हो तो ग्रहण न करें... क्योंकि- इन सभी पदार्थो में जीवजंतु उत्पन्न होतें हैं... यहां विभिन्न देश के शिष्यजनों को समझाने के लिये एक अर्थवाले हि अनेक शब्द कहे गये हैं... अथवा तो इन अनुप्रसूत, जात, संवृद्ध, अव्युत्क्रांत, अपरिणत एवं अविध्वस्त शब्दों में परस्पर थोडा थोडा अर्थभेद भी है... v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु को कच्चा पत्र, (वृक्षादि का पत्ता), सचित्त पत्र या अर्द्धपक्व पत्र एवं शाक-भाजी आदि ग्रहण नहीं करना चाहिए और सड़ी हुई खल एवं पुराना मद्य, मधु (शहद), घृत और मद्य के नीचे जमा हुआ कर्दम नहीं लेना चाहिए। क्योंकि ये पदार्थ बहुत दिनों के पुराने होने के कारण उनका रस विचलित हो जाता है और इस कारण उनमें अस जीव उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिए मुनि को ये पदार्थ ग्रहण नहीं करने चाहिएं। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त घृत तो साधु के लिए कल्पनीय है। परन्तु, मद्य अकल्पनीय है, अतः मद्य शब्द कुछ विचारणीय है। क्योंकि सूत्र में कहा गया है कि पुराना मद्य एवं उसके नीचे जमा हुआ कर्दम (मैल) नहीं लेना, तो इसका अर्थ यह हो सकता है कि नया मद्य लिया जा सकता है। किन्तु, आगमों में मद्य एवं मांस का सर्वथा निषेध किया गया है। अतः यहां इसका यह अर्थ है-मद्य के समान गुण वाला पदार्थ / यदि इसका तात्पर्य शराब से होता तो उसके अन्य भेदों का उल्लेख भी करते। क्योंकि सूत्र की यह एक पद्धति है कि जिस वस्तु का उल्लेख करते हैं. उसके सब भेदों का नाम गिना देते हैं। यहां मद्य शब्द के साथ अन्य नामों का उल्लेख नहीं होने से ऐसा लगता है कि मद्य का अर्थ होगा- उसके सदृश पदार्थ / आगम में युगलियों के अधिकार में दश प्रकार के कल्पवृक्षों में 'मातंय' कल्प वृक्ष का नाम आता है। उसके फल मद्य के समान मादक होते है। आजकल महुए के फलों को उसके समान समझ सकते हैं। इससे स्पष्ट है कि मद्य शब्द मदिरा का बोधक नहीं है। आगम में मदिरा का प्रबल शब्दों में निषेध किया गया है। इसके लिए दशवैकालिक सूत्र का ५वां अध्ययन द्रष्टव्य है। दशवैकालिक सूत्र प्रायः आचाराङ्ग का पद्यानुवाद है। इससे प्रस्तुत सूत्र का मदिरा सदृश पदार्थ अर्थ ही उपयुक्त प्रतीत होता है। . आहार के विषय में और बातों का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 5 // // 381 // से भिक्खू वा० से जं० उच्छुमेरगं वा अंककरेलुगं वा कसेरूगं वा सिंघाडगं वा Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-8-5 (381) 121 पुइआलुगं वा अंण्णयरं वा० / से भिक्खू वा० से जं० उप्पलं वा उप्पलनालं वा भिसं वा भिसमुणालं वा, पुक्खलं वा पुक्खलविभंगं वा अण्णयरं वा तहप्पगारं० // 381 // // संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा सः यत्० इक्षुगण्डिकां वा, अङ्ककरेलुकं वा कसेरुकं वा शृङ्गाटकं वा, पूति-आलुकं वा अन्यतरं वा० / स: भिक्षुः वा सः यत् उत्पलं वा उत्पलनालं वा पद्मकन्दमूलं वा पद्मकन्दमृणालं वा, पुष्कलं वा पुष्कलविभषे वा अन्यतरं वा तथाप्रकारं० // 381 // III सूत्रार्थ : गृहपति कुल में प्रवेश करने पर साधु या साध्वी इस प्रकार से जाने, यथा-इक्षुखंडगंडेरी, अंककरेल नामक वनस्पति, कसेरु, सिघाडा और पूति आलुक तथा अन्य इसी प्रकार की वनस्पति विशेष जो शस्त्र परिणत नहीं हुई, उसे मिलने पर भी अप्रासुक जान कर साधु ग्रहण न करे। ___ गृहस्थ के घर में प्रविष्ट हुआ साधु या साध्वी यदि यह जान ले कि उत्पलकमल,उत्पलकमल की नाल, उसका कन्द-मूल, उस कन्द के ऊपर की लता, कमल की केसर और पद्म कन्द तथा इसी प्रकार का अन्य कन्द कोई कच्चा हो, जो शस्त्र परिणत नहीं हुआ हो तो साधु मिलने पर भी उसे अप्रासुक जानकर ग्रहण न करे। IV टीका-अनुवाद : ... उच्छुमेरग याने छाल निकाले हुए शेरडी के टुकडे, तथा अंककरेलुका आदि जल में उत्पन्न होनेवाली वनस्पतियां तथा अन्य भी तथाप्रकार की वनस्पतियां कि- जो कच्ची याने शख से उपहत न हइ हो अर्थात अचित्त न हड़ हो, तो उनका ग्रहण न करें... वह साध या साध्वीजी म. यदि ऐसा जाने कि- उत्पल याने नीलकमल तथा नीलकमल के नाल तथा पद्मकंद के मूल एवं पद्मकंदे के उपर रहनेवाली लता, तथा पद्मकेशरा एवं पद्मकंद तथा ऐसे प्रकार के अन्य भी जो जो वनस्पतियां हो कि- जो आम याने सचित्त हो तो साधु प्राप्त होने पर भी उनका ग्रहण न करें... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु को इक्षुखंड, कसेरु, सिंघाडा, उत्पल (कमल), उत्पल-नाल (कमल की डंडी), मृणाल (कमल के नीचे का कन्द) आदि ग्रहण नहीं करना चाहिए। क्योंकि ये सचित्त होते हैं, अतः जब तक शस्त्रपरिणत न हों तब तक साधु के लिए अव्याह्य है। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 2-1-1-8-6 (382) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन इस विषय में और पदार्थों का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 6 // // 382 // से भिक्खू वा, से जं पु० अग्गबीयाणि वा मूलबीयाणि वा खंधबीयाणि वा पोरबीयाणि वा अरगजायाणि वा मूलजा० खंधजा० पोरजा० नन्नत्थ तक्कलिमत्थएण वा तक्कलिसीसेण वा, नालियेरमत्थएण वा खज्जूरिमत्थएण वा तालम० अन्नयरं वा तह० / से भिक्खू वा से जं0 उच्छु वा काणगं वा अंगारियं वा संमिस्सं विगदूमियं वित्तग्गं वा कंदलीऊसुगं अण्णयरं वा तहप्प० / से भिक्खू वा से जं पुण लसुणं वा लसुणपत्तं वा ल० नालं वा लसुणकंदं वा, ल० चोयगं वा अण्णयरं वा। से भिकखू वा से जं अच्छियं वा कुंभिपक्कं तिंदुर्ग वा वेलुगं वा कासवनालियं वा अण्णयरं वा तहप्पगारं आमं असत्थप० / से भिक्खू वा से जं0 कणं वा कणकुंडगं वा कणपूयलियं वा चाउलं वा, चाउलपिटुं वा तिलं वा तिलपिढें वा तिलपप्पडगं वा अण्णयरं वा तहप्पगारं आमं असत्थप० लाभे संते नो प०, एवं खलु तस्स भिक्खुस्स सामग्गियं // 382 // II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा सः यत् पुनः० अग्रबीजानि वा मूलबीजानि वा स्कन्धबीजानि वा पर्वबीजानि वा अग्रजातानि वा मलजातानि वा स्कन्धजातानि वा पर्वजातानि वा. न अन्यत्र, तत्कलि-मस्तकेन वा तत्कलिशीर्षेण वा नालिकेरमस्तकेन वा खजूरमस्तकेन वा तालम० अन्यतरं वा तथा० / सः भिक्षुः वार सः यत्० इधुं वा काणकं वा अंगारकितं वा, संमिश्रं वृकभक्षितं वेत्राग्रं वा कन्दलीमध्यं अन्यतरं वा तथाप्रकारं० / सः भिक्षुः वा स: यत्० लशुनं वा लशुनपत्रं वा, लशुननालं वा, लशुनकन्दं वा, लशुनबाह्यत्वक् वा अन्यतरं वा। स: भिक्षुः वा सः यत् अच्छियं वा कुम्भीपक्वं, टेम्बरुयं वा, बिल्वं वा श्रीपर्णीफलं वा अन्यतरं वा तथाप्रकारं आमं अशस्त्रपरि० / स: भिक्षुः वा सः यत् कणं वा कणकुण्डं वा कणपूपलिकां वा तन्दुलं वा तन्दुलपिष्टं वा तिलं वा तिलपिष्टं वा तिलपर्पटकं वा अन्यतरं वा तथाप्रकारं आमं अशस्त्रपरि० लाभे सति न प्रति० एवं खलु तस्य भिक्षोः सामग्यम् // 382 / / III सूत्रार्थ : गृहपतिकुल में प्रविष्ट हुआ साधु या साध्वी अयबीज, मूलबीज, स्कन्धबीज, तथा पर्वबीज, एवं अग्रजात, मूलजात, स्कन्धजात पर्वजात, इनमें इतना विशेष है कि ये उक्त स्थानों Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-8-6 (382) 123 से अन्यत्र उत्पन्न नहीं होते, तथा कन्दली के मध्य का गर्भ, कन्दली का स्तबक, नारियल का मध्यगर्भ, खजूर का मध्यगर्भ और ताड़ का मध्यगर्भ तथा इसी प्रकार की अन्य कोई कच्ची और अशस्त्रपरिणत वनस्पति, मिलने पर अप्रासुक जानकर ग्रहण न करे। गृहस्थ के घर में प्रविष्ट हुआ साधु या साध्वी इक्षु (इख) को, सछिद्र इक्षु की तथा जिसका वर्ण बदल गया, त्वचा फटगई एवं शृगालादि के द्वारा खाया गया ऐसा फल, तथा बैंत का अग्रभाग और कन्दली का मध्यभाग तथा अन्य इसी प्रकार की वनस्पति, जो कि कच्ची और शस्त्र परिणत नहीं हुई, मिलने पर अप्रासुक जानकर साधु उसे स्वीकार न करे। गृहस्थ के घर में प्रविष्ट हुआ साधु या साध्वी लशुन, लशुन के पत्र, लशुन की नाल औश लशुन की बाह्यत्वक्-बाहर का छिलका, तथा इसी प्रकार की अन्य कोई वनस्पति जो कि कच्ची और शस्त्रोपहंत नहीं हुई है, मिलने पर अप्रासुक जान कर उसे ग्रहण न करे। गृहपति कुलमें प्रविष्ट हुआ साधु या साध्वी अस्तिक (वृक्षविशेष) के फल, तिन्दुकफल, बिल्वफल और श्रीपर्णीफल, जो कि गर्त आदि में रखकर धुंएं आदि से पकाए गए हों, तथा इसी प्रकार के अन्य फल जो कि कच्चे और अशस्त्र परिणत हों तब मिलने पर अप्रासुक जान कर उन्हें ग्रहण न करे। . गृहस्थ के घर में प्रविष्ट हुआ साधु या साध्वी शाल्यादि के कण कणमिश्रितकुक्कस, कणमिश्रित रोटी, चावल, चावलों का चूर्ण-आटा, तिल, तिलपिष्ठ-तिलकुट और तिलपर्पटतिलपपडी तथा इसी प्रकार का अन्य पदार्थ जोकि कच्चा और अशस्त्र परिणत हो, मिलने पर अप्रासुक जान कर उसे ग्रहण न करे। यह साधु का समय-सम्पूर्ण आचार है। IV. टीका-अनुवाद : _ वह साधु या साध्वीजी म. जब ऐसा जाने कि- यह जपाकुसुमादि अयबीज हैं तथा जाइ आदि मूलबीज हैं, सल्यकी आदि स्कंधबीज हैं इक्षु (शेलडी) आदि पर्वबीज हैं, तथा अग्रजात, मूलजात, स्कंधजात, पर्वजात कि- जो अन्य अग्रबीज आदि से लाकर अन्य जगह नहिं उगे हुए है, किंतु वहिं अयबीजादि में हि उत्पन्न हुए वे अग्रजातादि... तथा उनकी कली के मस्तक याने गर्भ, तथा कलीका शीर्ष याने स्तबक (गुच्छा) है... तथा नालियेर के मस्तक (गर्भ) तथा खजूर के मस्तक, तथा ताल का मस्तक, इसी प्रकार के कोइ अन्य भी हो... और वह आम याने कच्चा तथा शस्त्र से परिणत न होने से, अचित्त हुआ न हो, तो ग्रहण न करें... .' वह साधु या साध्वीजी म. जब जाने कि- यह इक्षु (शेलडी) रोगादि के कारण से छिद्रवाली है, या खराब वर्णवाली हुइ है, या छिलका फुटे हुए छिलकेवाली है, या वरु एवं शियाल Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 2-1-1-8-6 (382) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आदि से कुछ खाइ हुइ है... अतः इतने हि मात्र छिद्र आदि से वह शेलडी प्रासुक याने अचित्त नहि होती... तथा वेत्र का अय, तथा कंदली का मध्य, तथा अन्य भी कोई इसी प्रकार आम याने कच्चे हो, तथा शस्त्र से उपहत के अभाव में अचित्त न हुए हो तो ग्रहण न करें... इसी प्रकार लहसुन के विषय में भी स्वयं हि जानीयेगा... किंतु चोयगं याने कोशिकाकारवाली जो लहसुन की बाहार की छल्ली है, वह जब तक आर्द्र हो तब तक सचित्त है... तथा अच्छियं याने एक वृक्ष विशेष का फल, तथा तेंदयं याने टेंबरुय, वेलयं याने बिल्व, कासवनालियं याने श्रीपर्णी का फल यहां इन सभी के साथ कुंभीपक्व शब्द को जोडीयेगा... यहां सारांश यह है कि- जो अपरिपक्व (कच्चे) अच्छिक आदि फल गर्ता (खडे) आदि में रखकर बलात्कार के पकाये जातें हैं वे आम याने कच्चा, अर्थात् अपरिणत हो तब उनको साधु ग्रहण न करें... तथा कण याने शालि आदि कणिका, तथा कणिककुंड याने कणिका से मिश्रित बुक्कस, तथा कणपूपलिका याने कणिका से मिश्रित पूपलिका, यहां भी अपरिपक्वता के कारण से इन सभी पदार्थों को साधु ग्रहण न करें... यह हि साधु का सच्चा साधुपना है... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- अयबीज, मूलबीज, स्कन्धबीज, पर्वबीज, मूलजात, स्कन्धजात, पर्वजात तथा कन्द का, खजूर का एवं ताड़ का मध्य भाग तथा इक्षु या श्रृंगाल आदि से खाया हुआ फल, लहसुन का छिलका, पत्ता, त्वचा या बिल्व आदि के फल आदि सभी तरह की वनस्पति जो सचित्त है, अपक्व है, शस्त्रपरिणत नहीं हुई है; तो साधु को उसे ग्रहण नहीं करना चाहिए। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'अव्यबीज' एवं 'अग्रजात' में यह अन्तर है कि अव्यबीज को भूमि में बो देने पर उस वनस्पति के बढ़ने के बाद उसके अग्रभाग में बीज उत्पन्न होता है, जबकि अग्रजात अग्रभाग में ही उत्पन्न होता है, अन्यत्र नहीं। वृत्तिकार ने 'नन्नत्थ' शब्द के दो अर्थ किए हैं- एक तो अन्यत्र उत्पन्न नहीं होते हैं और दूसरा अर्थ यह किया है कि कदली (केला) आदि फलों का मध्य भाग छेदन होने से नष्ट हो जाता है। इस तरह वे फल अचित्त होने से व्याह्य हैं। परन्तु, इन अचित्त फलों को छोड़ कर, अन्य अपक्व एवं शस्त्र से परिणित नहीं हुए फलों को ग्रहण नहीं करना चाहिए। इसी तरह शृगाल आदि पशु या पक्षियों के द्वारा थोड़ा सा खाया हुआ तथा अग्नि के धुंएं से पकाया हुआ फल भी अव्याह्य है। प्रस्तुत सूत्र का अनुशीलन-परिशीलन करने से स्पष्ट हो जाता है कि उस युग में साधु प्रायः बगीचों में ठहरते थे। शृगाल आदि द्वारा भक्षित फल बगीचों में ही उपलब्ध हो सकते हैं। क्योंकि शृगाल आदि जङ्गलों में ही रहते एवं घूमते हैं, वे घरों में आकर फलों को नहीं खाते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि उस युग में साधु अधिकतर बगीचों में ही ठहरते थे। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-8-6 (382) 125 इसी कारण वनस्पति की ग्राह्यता एवं अग्राह्यता पर विशेष रूप से विचार किया गया है। जैसे गरम पानी के झरने भी बहते हैं, परन्तु फिर भी वह पानी साधु के लिए अग्राह्य है। इसी तरह कृत्रिम साधनों से पकाए जाने वाले फल भी अयाह्य हैं। क्योंकि वह उष्ण योनि के जीवों का समूह होने से सचित्त हैं। इसी तरह कुछ फल ऐसे हैं, जो अपक्व एवं शस्त्र परिणत नहीं होने के कारण साधु के लिए अग्राह्य हैं। इस तरह साधु को सब्जी ग्रहण करते समय उसकी सचित्तता एवं अचित्तता का सूक्ष्म अवलोकन करना चाहिए। इस तरह प्रासुक सब्जी ग्रहण करने पर ही उसका अहिंसा महाव्रत निर्दोष रह सकता है। यहां सारांश यह है कि- साधु के लिए अप्रासुक, अनेषणीय सब्जी ग्रहण करने का निषेध किया गया है। 'त्तिबेमि' का अर्थ पूर्ववत् समझना चाहिए। .|| प्रथमचूलिकायां प्रथमे पिण्डैषणाध्यनने अष्टमः उद्देशकः समाप्तः // % % % : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शझुंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. “श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. २५२८.卐 राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058. 卐卐卐 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126. 2-1-1-9-1 (303) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 1 ____ अध्ययन - 1 उद्देशक - 9 पिण्डैषणा आठवा उद्देशक कहा, अब नववे उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं... यहां परस्पर यह संबंध है कि- आठवे उद्देशक में अनेषणीय आहारादि पिंड का त्याग करने का कहा, अब यहां नववे उद्देशक में भी यह हि बात प्रकारांतर से कहतें हैं... I सूत्र // 1 // // 383 // इह खलु पाईणं वा, संतेगइया सड्ढा भवंति, गाहावई वा जाव कम्मकरी वा तेसिं च णं एवं वृत्तपुव्वं भवइ, जे इमे भवंति समणा भगवंतो सीलवंतो वयवंतो गुणवंतो संजया संवुडा बंभयारी उवरया मेहुआणो धम्माओ, नो खलु एएसिं कप्पड़ आहाकम्मिए असणे वा, भुत्तए वा। से जं पुण इमं अम्हं अप्पणो अट्ठाए निट्ठियं तं असणं, सव्वमेयं समणाणं निसिरामो, अवियाई वयं पच्छा अप्पणो अट्ठाए असणं वा, चेहस्सामो, एयप्पगारं निग्धोसं सुच्चा निसम्म तहप्पगारं असणं वा अफासुर्य० / / 383 / / II संस्कृत-छाया : इह खलु प्राच्यादौ दिशि सन्ति, एके श्राद्धाः भवन्ति, गृहपतिः वा यावत् कर्मकरी वा, तेषां च एवं उक्तपूर्वं भवेत्, ये इमे श्रमणा: भगवन्त: शीलवन्तः व्रतवन्त: संयता: संवृताः ब्रह्मचारिण: उपरता: मैथुनात् धर्मात्, न खलु एतेषां कल्पते आधाकर्मिकं अशनं वा, भोक्तुं वा पातुं वा। सः यत् पुनः इदं अस्माकं आत्मार्थं निष्ठितं, तं अशनं वा, सर्वमेतत् श्रमणेभ्यः प्रयच्छामः, अपि च वयं पश्चात् आत्मार्थं अशनं वा. चेतयिष्यामः, एतत्-प्रकारं निर्घोषं श्रुत्वा निशम्य तथाप्रकारं अशनं वा, अप्रासुकं० // 383 | III सूत्रार्थ : इस क्षेत्र में पूर्वादि चारों दिशाओं में कई गृहपति एवं उनके परिजन आदि श्रद्धावान् सद्गृहस्थ रहते हैं, और वे परस्पर मिलने पर इस प्रकार बातें करते हैं कि ये पूज्य श्रमण शील निष्ठ हैं, व्रतधारी हैं, गुण संपन्न हैं, संयमी हैं, संवृत-आस्रवों का निरोध करने वाले हैं, परमब्रह्मचारी हैं, मैथुन धर्म से सर्वथा निवृत्त हैं ! इनको आधाकर्मिक अशनादि चतुर्विध आहार लेना कल्पता नहि है। अतः हमने जो अपने लिए आहार बनाय है, वह सब आहार इन श्रमणों को दे देंगे, और हम अपने लिए और आहार बना लेंगे। उनके इस प्रकार के वार्तालाप को Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-9-1 (303) 127 सुन कर तथा विचार कर साधु इस प्रकार के आहार को अप्रासुक जानकर मिलने पर भी ग्रहण न कर। IV टीका-अनुवाद : यहां प्रज्ञापक क्षेत्र में याने प्रज्ञापक की अपेक्षा से पूर्व आदि दिशाओं में पुरुष (मनुष्य) हैं, उनमें से कितनेक श्रद्धालु हैं... वे भद्रक प्रकृतिवाले श्रावक, तथा और अन्य गृहपति यावत् कर्मचारी (दासी) हैं... उन्होंने पहले से हि ऐसा कहा हो कि- जो यह श्रमण साधुभगवंत, अट्ठारह हजार (18000) शीलांग को धारण करनेवाले शीलवंत, तथा पांच महाव्रत एवं छठे रात्रिभोजन विरमण व्रत को धारण करनेवाले व्रतवाले, तथा पिंडविशुद्धि आदि उत्तर गुणवाले गुणवंत, तथा पांच इंद्रियां एवं मन (नोइंद्रिय) के संयमवाले संयत, तथा आश्रव द्वारों का निरोध करनेवाले संवृत, तथा ब्रह्मचर्य की गुप्ति से गुप्त ऐसे ब्रह्मचारी, तथा अट्ठारह भेदवाले अब्रह्म स्वरूप मैथुन से उपरत (संयत) ऐसे उन्हें आधाकर्मादि दोषवाले आहारादि लेना कल्पता नहि है, अतः जो यह अपने लिये आहारदि तैयार कीये हुए है, वह अशन, पान आदि इन साधुओं को दे रहे हैं... तथा हम बादमें अपने लिये आहारादि बनाएंगे... इत्यादि प्रकार की घोषणा सुनकर या अन्य से जानकर साधु पश्चात्कर्म (दोष) के भयसे वह आहारादि अनेषणीय एवं अप्रासुक मानकर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करें... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया हैं कि- साधु को अपने घर में आया हुआ देखकर यदि कोई श्रद्धालु गृहस्थ एक-दूसरे से कहें कि ये पूज्य श्रमण संयम निष्ठ हैं; शीलवान हैं, ब्रह्मचारी हैं। इसलिए ये आधाकर्म आदि दोषों से युक्त आहार नहीं लेते हैं। अतः हमने जो अपने लिए आहार बनाया है, वह सब आहार इन्हें दे दें और अपने लिए फिर से आहार बना लेंगे। इस तरह के विचार सुन कर साधु उक्त आहार को ग्रहण न करे। क्योंकि इससे साधु को पश्चात्कर्म दोष लगेगा। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त तीन शब्द विशेष विचारणीय हैं- 1. सड्ढा, 2. असण 3. चेइस्सामो। 1. सड्ढा-प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार ने श्रावक एवं उपासक दोनों शब्दों का उपयोग न करके 'सड्ढा' शब्द का उपयोग किया है। इसका तात्पर्य यह है कि व्रतधारी एवं साधुसामाचारी से परिचित श्रावक इतनी भूल नहीं कर सकता कि वह पश्चात्कर्म का दोष लगाकर साधु को आहार दे। अतः इससे यह स्पष्ट होता है कि इस तरह का आहार देने का विचार करने वाला व्यक्ति श्रद्धानिष्ठ भक्त हैं, परन्तु साधु के आचार से पूरी तरह परिचित 'नहीं है। वह इतना तो जानता है कि ये आधाकर्म आदि आहार ग्रहण नहीं करते हैं। परन्तु उसे यह ज्ञात नहीं है कि ये पश्चात्कर्म दोष युक्त आहार भी ग्रहण नहीं करते हैं। अतः यहां Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 2-1-1-9-2 (384) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन यह स्पष्ट कर दिया गया है कि चाहे दाता श्रद्धालु हो, प्रकृति का भद्र हो, दोषों से अज्ञात हो फिर भी साधु को इस तरह का सदोष आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए। ____2. असणं वा-सूत्रकार ने जगह-जगह चार प्रकार के आहार का उल्लेख किया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि मद्य-मांस आदि का आहार साधु के लिए सर्वथा अग्राह्य है। यदि इस प्रकार के पदार्थ ग्राह्य होते तो जगह-जगह चार प्रकार के आहार का ही ग्रहण न करके, अन्य प्रकार के आहार को भी साथ जोड़ देते। 3. चेइस्सामो- इससे स्पष्ट होता है कि साधु को आहार देने के बाद फिर से 6 काय का आरम्भ करके आहार तैयार करने का विचार करके दिया जाने वाला आहार भी सदोष माना गया है। अतः आहार शुद्धि के लिए साधु को बड़ी सावधानी से गवेषणा करनी चाहिए। ___ इसी विषय में कुछ और जानकारी कराते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 2 // // 384 // से भिक्खू वा वसमाणे वा० गामाणुगामं वा दूइज्जमाणे, स: जं० गामं वा जाव रायहाणिं वा इमंसि खलु गामंसि वा रायहाणिंसि वा संतेगइयस्स भिक्खुस्स पुरे संथुया वा पच्छासंथुया वा परिवसंति, तं जहा-गाहावई वां जाव कम्म० तहप्पगाराइं कुलाई नो पुव्वामेव भत्ताए वा पाणाए वा निक्खमिज वा पविसेज्ज वा केवली बूया-आयाणमेयं, पुरा पेहाए तस्स परो अट्ठाए असणं वा उवकरिज्ज वा उवक्खडिज्ज वा, अह भिक्खूणं पुव्वोवट्ठा जं नो तहप्पगाराइं कुलाइं पुत्वामेव भत्ताए वा पाणाए वा पविसिज्ज वा निक्खमिज्ज वा, से तमायाय एगंतमवक्कमिज्जा, अणावायमसंलोए चिट्ठिज्जा। से तत्थ कालेणं अणुपविसिज्जा तत्थियरेयरेहिं सामुदाणियं एसियं वेसियं पिंडवायं एसित्ता आहारं आहारिज्जा, सिया से परो कालेण अणुपविट्ठस्स आहाकम्मियं असणं वा, उवकरिज्ज वा उवक्खडिज्ज वा, तं चेगडओ तुसिणीओ उवेहेज्जा, आहडमेव पच्चाइक्खिस्सामि, माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करिज्जा, से पुव्वामेव आलोइज्जा-आउसोत्ति वा भइणित्ति वा ! नो खलु मे कप्पड आहाकम्मियं असणं वा, उवक्खडावित्ता अफासुयं / / 384 // II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा वसन् वा ग्रामानुगामं वा गच्छन्, सः यत्० ग्रामं वा यावत् राजधानी वा, अस्मिन् खलु ग्रामे वा राजधान्यां वा सन्ति एकस्य भिक्षोः पूर्वसंस्तुता: Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-9-2 (384) 129 वा पश्चात्संस्तुता: वा परिवसन्ति, तद्यथा-गृहपतिः वा यावत् कर्म० तथाप्रकाराणि फुलानि न पूर्वमेव भक्तार्थं वा पानार्थं वा निष्क्रामेत् वा प्रविशेत् वा, केवली ब्रूयात्आदानमेतत्, पूर्वापेक्षया तस्य परः अर्थाय अशनं वा, उपकुर्यात् वा, पचेत् वा, अथ भिक्षूणां पूर्वोपदिष्टा यत् न तथाप्रकाराणि कुलानि पूर्वमेव भक्तार्थं वा पानार्थं वा प्रविशेत् वा निष्क्रामेत् वा, स: तमादाय एकान्तमपक्रामेत्, अपक्रम्य च अनापातमसंलोके तिष्ठेत् / सः तत्र कालेन अनुप्रविशेत्, अनुप्रविश्य च तत्र इतरेतरेभ्यः कुलेभ्यः सामुदानिक एषणीयं वैषिकं पिण्डपातं एषित्वा आहारं आहारयेत्, स्यात् तस्य परः कालेन अनुप्रविष्टस्य आधाकर्मिकं अशनं वा उपकुर्यात् वा पचेत् वा, तं च एककिक: तुष्णीभावेन उपेक्षेत, आहृतमेव प्रत्याख्यास्यामि, इति मातृस्थानं संस्पृशेत्, न एवं कुर्यात्, सः पूर्वमेव आलोचयेत् - हे आयुष्मन् ! भगिनि ! वा, न खलु मे (मह्यं) कल्पते आधाकर्मिकं अशनं वा भोक्तुं वा पातुं वा, मा उपकुरु मा पच / सः तस्य एवं वदतः परः आधाकर्मिकं अशनं वा, कत्वा आहृत्य दद्यात्, तथाप्रकारं अशनं वा, अप्रासुकं० // 384 / / III सूत्रार्थ : . : शारीरिक अस्वस्थता एवं वार्धक्य के कारण एक ही स्थान पर रहने वाले या ग्रामानुग्राम विहार करने वाले साधु या साध्वी के किसी गांव या राजधानी में, माता-पिता या श्वसुर आदि सम्बन्धिजन रहते हों या परिचित गृहपति, गृहपत्नी यावत् दास-दासी रहती हों तो इस प्रकार के कुलों में भिक्षाकाल से पूर्व आहार-पानी के लिए उनके घर में आए-जाए नहीं। केवली भगवान कहते हैं कि यह कर्म आने का मार्ग है। क्योंकि आहार के समय से पूर्व उसे अपने घर में आए हुए देखकर वह उसके लिए आधाकर्म आदि दोष युक्त आहार एकत्रित करेगा या पकाएगा। अतः भिक्षुओं को पूर्वोपदिष्ट तीर्थंकर आदि का उपदेश है कि इस प्रकार के कुलों में भिक्षा के समय से पूर्व आहार-पानी के लिए आए-जाए नहीं, किन्तु वह साधु स्वजनादि के कुल को जानकर और जहां पर न कोई आता-जाता हो और न देखता हो, ऐसे एकान्त स्थान पर चला जाए। और जब भिक्षा का समय हो, तब ग्राम में प्रवेश करे और स्वजन आदि से भिन्न कुलों में सामुदानिक रूप से निर्दोष आहार का अन्वेषण करे। यदि कभी वह गृहस्थ भिक्षा के समय प्रविष्ट हुए भिक्षु के लिए भी आधाकर्मी आहार एकत्रित कर रहा हो या पका रहा हो और उसे देखकर भी कोई साधु इस भाव से मौन रहता हो कि जब यह लेकर आएगा तब इसका प्रतिषेध कर दूंगा तो मातृस्थान-माया का स्पर्श होता है। अतः साधु ऐसा न करे, अपितु वह देखते ही कह दे कि हे आयुष्मन् ! गृहस्थ ! अथवा भगिनि ! मुझे आधाकर्मिक आहार-पानी खाना और पीना नही कल्पता है, अतः मेरे लिए इसको एकत्रित न करो और न पकाओ। उस भिक्षु के इस प्रकार कहने पर भी यदि वह गृहस्थ, आधाकर्म आहार को एकत्रित करता है या पकाता है, और उसे लाकर देता है तो इस प्रकार Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 2-1-1-9-2 (384) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन के आहार को अप्रासुक जानकर वह ग्रहण न करे। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. गांव यावत् राजधानी में रहते हुए या यामानुग्राम विहार करते हुए, ऐसा जाने कि- इस गांव यावत् राजधानी में किसी एक साधु के माता-पिता चाचा आदि पूर्व परिचित, अथवा श्वशुरादि पश्चात् परिचित रहते हैं... और गृहपति या यावत् कर्मकरी रहते हैं... तब तथाप्रकार के कुल-घरों में आहारादि के लिये न प्रवेश करें और न निकलें... गणधर म. कहतें हैं कि- यह बात मैं मेरे मनसे नहि कहता हूं किंतु केवलज्ञानी प्रभुजी कहतें हैं कि- यह आदान याने कर्मबंध का कारण है... यह बात वह साधु पहले से हि विचारे... तथा वे गृहस्थ लोग यदि उन साधुओं के लिये आहारादि की तैयारी करें या रसोइ बनावें... तब साधुओं की यह पूर्व कह गई प्रतिज्ञा है कि- तथा प्रकार के स्वजन-संबंधिजनों के घरों में भिक्षाकाल के पहले हि आहारादि के लिये न प्रवेश करें या न निकलें... अब इस स्थिति में क्या करना चाहिये ? यह बात अब कहतें हैं- वह साधु स्वजनों के घर को जानकर कोइ स्वजन न जाने इस प्रकार एकांत (निर्जन जगह) में जायें... एकांत जगह में जाकर वे स्वजनादि न आवें और न देखें इस प्रकार रहें... तथा वह साधु उस स्वजनवाले गांव में भिक्षा के समय में हि प्रवेश करें... और प्रवेश करके स्वजनों के सिवा अन्य अन्य घरों में से उद्गमादि दोष रहित एषणीय, तथा उत्पादनादि दोष रहित “वैषिक" आहारादि-भिक्षा की एषणा करके ग्रासैषणादि दोष रहित उन आहारादि को वापरें... (आहार करें-भोजन करें...) अब यहां उत्पादना के सोलह दोष का स्वरूप कहतें हैं... , 1. धात्रीपिंड... आहारादि प्राप्त करने के लिये गृहस्थ-दाता के बच्चों पर उपकार करें... तब धात्री-दोष... दूतीपिंड - गृहस्थों के आपस आपस के कार्यों को जोड़ने के लिये “दूत" का कार्य करें... निमित्तपिंड... आहारादि की प्राप्ति के लिये जब साधु अंगुष्ठ-प्रश्न आदि करें तब निमित्तपिंड... __ आजीविका-पिंड... आहारादि की प्राप्ति के लिये साधु अपनी जाति-कुल की प्रशंसा करे... Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-9-2 (384) 131 वनीपकपिंड... गृहस्थ-दाता की जहां भक्ति हो उसकी प्रशंसा करे तब वनीकपिंड दोष होता है... चिकित्सापिंड - छोटे -बड़े रोगों का निदान एवं चिकित्सा - दवाइयां बताने से... क्रोधपिंड - क्रोध (गुस्सा) दिखाकर जो आहारादि प्राप्त किये जाय, वह क्रोधपिंड कहलाता है... मानपिंड... अपनी जाति - कुल - ज्ञान - तप आदि का उत्कर्ष दिखलाने से... माया पिंड... आहारादि प्राप्ति के लिये माया-कपट करे तब मायापिंड दोष होता है... लोभपिंड... लोभ-लालच दिखलाकर जो आहारादि प्राप्त कीये जाय वह लोभपिंड... पूर्वपश्चात्संस्तवपिंड... आहारादि की.प्राप्ति के लिये साधु गृहस्थों के साथ अपना पूर्व (माता-पितादि का) परिचय दे या पश्चात् याने सास-ससुराल का परिचय दे तब यह पूर्वपश्चात् संस्तवपिंड... विद्यापिंड - विद्या के बल पर, जो आहारादि प्राप्त कीये जाय वह विद्यापिंड दोष है... 13. मंत्रपिंड - मंत्र - जाप के द्वारा जो आहारादि प्राप्त कीये जाय वह मंत्रपिंड कहलाता है.. ___ चूर्णपिंड - वशीकरण एवं संमोहन आदि के लिये जो चूर्ण का प्रयोग कीया जाय वह चूर्णपिंड.. - योगपिंड - अंजन (पादलेप) आदि योग के द्वारा जो आहारादि प्राप्त कीया जाय वह योगपिंड... मूलकमपिंड - जिस कार्य से गर्भ-पतन हो इत्यादि कार्य करने से “मूल' नाम का प्रायश्चित लगता है वह मूलकमपिंड दोष है... यह सोलह दोष आहारादि की प्राप्ति के लिये कीये जातें हैं अतः वे उत्पादन दोष कहलातें हैं... तथा यासैषणा के पांच दोष इस प्रकार हैं... संयोजना - स्वाद की लोलुपता से साधु आहारादि में दहिं, गुड आदि का संयोजन करे तब "संयोजना" दोष होता है... 2. प्रमाण - बत्तीस (32) कवल से अधिक आहार वापरने से प्रमाण दोष लगता है... Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 2-1-1-9-2 (384) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अंगार-दोष - आहारादि को राग से, आसक्ति से वापरने से साधु के चारित्र को अंगारे लगतें हैं, चारित्र जलकर भस्म हो जाता है अतः यह “अंगार" दोष है... धूमदोष. - अंत - प्रांत नीरस - तुच्छ आहार आदि वापरते वख्त साधु को आहारादि के उपर द्वेष हो तब धूम-दोष लगता है... कारणाभावदोष - वेदना, ईर्यासमिति आदि छह (6) कारणों के सिवा यदि साधु आहारादि ग्रहण करे तब "कारणाभाव' दोष लगता है... अतः प्रासुक एवं एषणीय आहारादि प्राप्त होने के बाद भी साधु व्यासैषणा के दोष न लगे, इस प्रकार आहारादि वापरें... अब कहतें हैं कि- कभी ऐसा हो कि- वह गृहस्थ भिक्षा के समय पर प्रवेश कीये हुए उस साधु के लिये यदि आधाकर्मादि दोषवाले आहारादि बनावे, तब यदि वह साधु मौन रहकर उपेक्षा करे और सोचे कि- जब वे गृहस्थ लोग आहारादि देने लगेंगे तब मैं उन्हें मना करुंगा... किंतु ऐसा करने से वह साधु माया-स्थान को प्राप्त करता है, अतः साधु को ऐसा नहि करना चाहिये... इस स्थिति में साधुओं को क्या करना चाहिये.वह बात अब कहतें हैं - वह साधु पहले से हि उपयोगवाला होकर सावधान रहें, और देखे कि- गृहस्थ साधुओं के लिये आहारादि तैयार कर रहें हैं, तब साधु उन्हें कहे कि- हे भाइ ! हे बहिन ! ऐसा आधाकर्मादिवाले आहारादि हमें वापरना कल्पता नहि है... अतः आप हमारे लिये रसोइ न बनावें... यदि साधु ऐसा कहे तो भी वह गृहस्थ आधाकर्मादि दोषवाले आहारादि बनाकर साधुओं को दे, तब साधु ऐसे आहारादि प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करें..... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में दो बातों का उल्लेख किया गया है- 1. साधु आहार का समय होने से पहले अपने पारिवारिक व्यक्तियों के घरों में आहार को न जाए। क्योंकि उसे अपने यहां आया हुआ जानकर वे स्नेह एवं श्रद्धा-भक्ति वश सदोष आहार तैयार कर देंगे। इस तरह साधु को पूर्वकर्म दोष लगेगा। 2. यदि कोई गृहस्थ साधु के लिए आधाकर्मी आहार बना रहा हो, तो उसे देखकर साधु को स्पष्ट कह देना चाहिए कि यह आहार मेरे लिए ग्राह्य नहीं है। यदि इस बात को जानते-देखते हुए भी साधु उस गृहस्थ को आधाकर्म आदि दोष युक्त आहार बनाने से नहीं रोकता है, तो वह माया का सेवन करता है। यदि साधु के इन्कार करने के बाद भी कोई आधाकर्म आहार बनाता रहे और वह सदोष आहार साधु को देने के लिए लाए तो साधु उसे ग्रहण न करे। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-9-3 (385) 133 ___प्रस्तुत सूत्र में जो सम्बन्धियों के घर में जाने का निषेध किया है, उसका तात्पर्य इतना ही है कि यदि उनके घर में राग-स्नेह भाव के कारण आहार में दोष लगने की सम्भावना हो तो वहां साधु आहार को न जाए। यद्यपि साधु को परिवार वालों के यहां आहार को जाने एवं आहार-पानी लाने का निषेध नहीं किया है। क्योंकि- आगम में बताया है कि स्थविरों की आज्ञा से साधु सम्बन्धियों के घर पर भी भिक्षा के लिए जा सकता है। निष्कर्ष यह है कि साधु को 16 उद्गम के, 16 उत्पादन के और 10 एषणा के 42 दोष टाल कर आहार ग्रहण करना चाहिए और व्यासैषणा के 5 दोषों का त्याग करके आहार करना चाहिए। इस तरह साधु को 47 दोषों से दूर रहना चाहिए। साधु को सभी दोषों से रहित निर्दोष आहार ग्रहण करना चाहिए, इसका उल्लेख करके अब उत्सर्ग एवं अपवाद में आहार ग्रहण करने की विधि का उल्लेख करते हुए सुत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 3 // . // 385 // ... से भिक्खू वा से जं० मंसं वा मच्छं वा भज्जिज्जमाणं पेहाए तिल्लपूयं वा आएसाए उवक्खडिज्जमाणं पेहाए नो खद्धं, उवसंकमित्तु ओभासिज्जा, नन्नत्थ गिलाणनीसाए || 385 // // संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा सः यत् मांसं वा मत्स्यं वा भज्यमानं प्रेक्ष्य तैलपूपं वा आदेशाय संस्क्रियमाणं (पच्यमानं) प्रेक्ष्य, न शीघ्रं, उपसङ्क्रम्य अवभाषेत, अन्यत्र ग्लानादिकार्यात् / / 385 // III सूत्रार्थ : .. गृहपति कुल में प्रवेश करने पर साधु या साध्वी इस प्रकार जाने कि गृहस्थ अपने यहां आए हुए किसी अतिथि के लिए मांस और मत्स्य तथा तेल के पूड़े पका रहा है। उस समय उक्त पदार्थों को पकाते हुए देखकर वह अतिशीघ्रता से वहां जाकर उक्तविध आहार की याचना न करे। यदि किसी रोगी के लिए आवश्यकता हो तो उसके लिए उनकी याचना कर सकता है। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. यदि ऐसा जाने कि- यहां मांस या मत्स्य पकाये जा रहे हैं, अथवा तैलके पुएं महेमानों (अतिथिओं) के लिये बनाये जा रहें हैं, तब ऐसा देखकर आहारादि Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 2-1-1-9-3 (385) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन की लोलुपता से जल्दी जल्दी से जाकर याचना न करें... सिवा कि- ग्लान = बिमार आदि साधुओं के... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि यदि कोई गृहस्थ अपने घर पर आए हुए अतिथि का आतिथ्य सत्कार करने के लिए कोई भोजन तैयार कर रहा हो तो साधु उसे देखकर शीघ्रता से उसकी याचना करने के लिए न जाए। यदि कोई बीमार साधु है और उसके लिए वह पदार्थ लाना है तो वह उसे मांगकर ला सकता है। अतिथि के भोजन करने के पूर्व नहीं लाना यह उत्सर्ग मार्ग है और बीमार के लिए आवशक्यकता पड़ने पर अतिथि के भोजन करने से पहले भी ले आना अपवाद मार्ग है। __ प्रस्तुत सूत्र में तैल के पूड़ों के साथ मांस एवं मत्स्य शब्द का प्रयोग हुआ है और वृत्तिकार ने इसका मांस एवं मत्स्य अर्थ ही किया है परन्तु, बालावबोध के लेखक उपाध्याय पार्श्वचन्द्र ने वृत्तिकार के विचारों की आलोचना की है, उन्हें आगम से विरूद्ध बताया है। उपाध्याय जी का कहना है कि सूत्रकार के युग में कुछ वनस्पतियों के लिए मांस एवं मत्स्य शब्द का प्रयोग होता था। अतः इससे उक्त शब्दों का वर्तमान में प्रवलित अर्थ करना उचित नहीं है। जब हम वृत्तिकार एवं उपाध्याय जी के विचारों पर गहराई से विचार करते हैं। तो उपाध्याय जी का मत ही आगम के अनुकूल प्रतीत होता है। प्रस्तुत सूत्र में बीमार के लिए उक्त आहार लाने का उल्लेख किया गया है और तैल के पूए एवं मत्स्य आदि बीमार के लिए पथ्यकारक नहीं हो सकते और पूर्ण अहिंसक साधु की वृत्ति के भी अनुकूल नहीं है। जो मुनि समस्त सावध व्यापार का त्यागी है, वह सामिष आहार कैसे ग्रहण कर सकता है। इसलिए उक्त शब्द वनस्पति के ही पारिचायक हैं। यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि यदि उक्त शब्द वनस्पति के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं, तो फिर उसके लिए याचना करने को अपवाद मार्ग क्यों बताया गया ? वनस्पति तो साधु बिना कारण भी मांग कर ला सकता है। इसका समाधान यह है कि अतिथि के लिए बनाए हुए पदार्थ उसके भोजन करने से पूर्व मांग कर लाना नहीं कल्पता इसलिए यह आदेश दिया गया है कि यदि बीमार के लिए उनकी आवश्यकता हो तो साधु अतिथि के भोजन करने के पूर्व भी उनकी याचना करके ला सकता है। आहार के विषय में और बातों का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 2-1-1-9-4 (386) 135 - I सूत्र // 4 // // 386 / / से भिक्खू वा, अण्णयरं भोयणजायं पडिगाहित्ता सुब्भिं सुब्भिं भुच्चा, दुब्भिं दुब्धि परिद्ववेड, माइट्टाणं संफासे, नो एवं करिज्जा। सुब्भिं वा दुन्भिं वा सव्वं भुंजिज्जा, नो किंचिवि परिविज्जा || 386 // II संस्कृत-छाया : ___स: भिक्षुः वा, अन्यतरत् भोजनजातं परिगृह्य सुरभि सुरभि भुक्त्वा , दुर्गन्धं दुर्गन्धं परित्यजेत् मातृस्थानं संस्पृशेत्, न एवं कुर्यात् / सुरभि वा दुर्गन्धं वा सर्व भुञ्जीत, न किचिदपि परित्यजेत् // 386 // III सूत्रार्थ : ___गृहस्थ के घर में जाने पर कोई साधु या साध्वी वहां से भोजन लेकर, उसमें से अच्छाअच्छा खाकर शेष आहार को बाहर फेंक दे तो उसे मातृस्थान (माया) का स्पर्श होता है। इसलिए उसे ऐसा नहीं करना चाहिए, सुगन्धित या दुर्गन्धित जैसा भी आहार मिला है, साधु उसे समभाव पूर्वक खा ले, किन्तु उसमें से किचिन्मात्र भी फैंके नहीं। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. कोइ भी प्रकार के आहारादि प्राप्त करके सुगंधी (अच्छे अच्छे) वापरकर दुर्गंधी याने नीरस आहारादि को फेंक न दे... ऐसा करने से माया-स्थान का स्पर्श होता है, अतः साधु ऐसा न करें... किंतु प्रासुक एवं एषणीय जो भी सुगंधी या दुर्गंधी आहारादि प्राप्त हुए हो, उन सभी आहारादि को वापरें... फेंक न दें... || V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु को रस (स्वाद) की आसक्ति के वश लाए हुए आहार में से अच्छे-अच्छे स्वादिष्ट पदार्थ को ग्रहण करके, शेष अस्वादिष्ट पदार्थों को फैंक नहीं देना चाहिए। सरस एवं नीरस जैसा भी आहार उपलब्ध हुआ है, उसे अनासक्त एवं समभाव पूर्वक खा लेना चाहिए। क्योंकि साधु का आहार स्वाद के लिए नहीं, संयम का परिपालन करने के लिए होता है। अतः उसे लाए हुए आहार में स्वाद की दृष्टि से अच्छे-बुरे का भेद करके नहीं, बल्कि समभाव पूर्वक, बिना स्वाद लिए खा लेना चाहिए। अब पानी के विषय में वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 2-1-1-9-5 (387) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन I सूत्र // 5 // // 387 // . से भिक्खू वा अन्नयरं पाणगजायं पडिगाहित्ता पुप्फं, आविइत्ता कसायं परिहवेइ, माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करिज्जा। पुप्फ पुप्फेड वा कसायं कसायेइ वा सव्वमेव भुंजिज्जा, नो किंचिवि परि० // 383 / / II संस्कृत-छाया : ___स: भिक्षुः वा अन्यतरत् पानकजातं परिगृह्य पुष्पं आपीय, कषायं परित्यजेत् मातृस्थानं संस्पृशेत्, न एवं कुर्यात् ! पुष्पं पुष्पितं वा कषायं कषायितं वा सर्वमेव भुञ्जीत, न किचिदपि परि० / / 387 // III सूत्रार्थ : गृहस्थ के घर में जाने पर यदि कोई साधु या साध्वी जल को ग्रहण करके उसमें से वर्ण गन्ध युक्त जल को पीकर कषायले पानी को फेंक देता है तो उसे मातृस्थान-कपट का स्पर्श होता है। अतः वह ऐसा न करे, किन्तु वर्ण, गन्ध युक्त या वर्ण, गन्ध रहित जैसा भी जल उपलब्ध हो उसे समभाव पूर्वक पी ले, परन्तु उसमें से थोड़ा सा भी न फैंके। IV टीका-अनुवाद : इसी प्रकार पानकसूत्र भी... किंतु पुष्पं याने अच्छे वर्ण-गंधवाले, और इससे विपरीत कषाय... यहां जल के विषय में भी पूर्व के दो सूत्र में कहे गये दोषों की संभावना है तथा आहारादि की आसक्ति से सूत्र एवं अर्थ ग्रहण करने में हानि होती है और कर्मबंध भी होता है... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि यदि कभी खट्टा या कषायला पानी आ गया हो तो मुनि उसे फैंके नहीं। मधुर पानी के साथ उस पानी को भी पी ले / आहार की तरह पानी पीने में भी साधु अनासक्त भाव का त्याग न करे। दशवैकालिक सूत्र में भी इस सम्बन्ध में बताया गया है कि मधुर या खट्टा जैसा भी प्रासुक पानी आ जाए, साधु को बिना खेद के उसे पी लेना चाहिए। अब फिर से आहार के विषय का वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-9-6 (388) 137 I सूत्र // 6 // // 388 // से भिक्खू वा बहुपरियावण्णं भोयणजायं पडिगाहित्ता बहवे साहम्मिया तत्थ वसंति, संभोइया समणुण्णा अपरिहारिया अदूरगया, तेसिं अनालोइया अणामंते परिद्ववेड, माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करिज्जा, से तमायाय तत्थ गच्छिज्जा, गच्छिऊण से पुव्वामेव आलोइज्जा, आउसंतो समणा ! इमे मे असणे वा पाणे वा बहुपरियावण्णे, तं भुंजह णं, सेवं वयंतं परो वइज्जा - आउसंतो समणा ! आहारमेयं असणं वा जावइयं सरह तावइयं भुक्खामो वा पाहामो वा, सव्वमेयं परिसडइ, सव्वमेयं भुक्खामो वा पाहामो वा // 388 // . II संस्कृत-छाया : ___ सः भिक्षुः वा बहुपर्यापन्नं आहारजातं परिगृह्य, बहवः साधर्मिका: तत्र वसन्ति, साम्भोगिकाः समनोज्ञाः अपरिहारिकाः अदूरगताः तेषां अनापृच्छ्य अनामन्य, परित्यजति, मातृस्थानं संस्पृशेत्, न एवं कुर्यात् / सः तत् आदाय तत्र गच्छेत्, गत्वा च सः पूर्वमेव आलोकयेत्। - हे आयुष्मन् श्रमण ! इदं मम अशनं वा बहुपर्यापन्नं, तत् भु वम्, सः तं एवं वदन्तं पर: वदेत् - हे आयुष्मन् श्रमण ! आहारं एतत् अशनं वा, यावन्मात्र, परिशटति, तावन्मानं भोक्ष्यामहे वा पास्यामः वा, सर्वमेतत् परिशटति, सर्वमेतत् भोक्ष्यामहे वा पास्यामः वा || 388 / / III. . सूत्रार्थ : साधु अथवा साध्वी गृहपति कुल में प्रवेश करने पर गृहस्थ के घर से बहुत सा अशनादिक आहार प्राप्त होने पर ग्रहण करके अपने स्थान पर आए। यदि वह आहार उससे खाया न गया हो तो वहां पर जो अन्य स्वधर्मी साधु रह रहे हों, जो सांभोगिक तथा समान आचार वाले हैं, और जो अपने उपाश्रय के समीप भी हैं, उनको बिना पूछे, बिना निमन्त्रित किए यदि उस शेष आहार को परठ-फेंक देता है तो उसे मातृस्थान का स्पर्श होता है, अर्थात् माया का दोष लगता है। इस लिए वह ऐसा न करे, किन्तु वह भिक्षु उस आहार को लेकर वहां जावे और जाकर सर्वप्रथम उस आहार को दिखाए और दिखाकर इस प्रकार कहे-कि हे भाग्यशाली श्रमण ! यह अशनादिक चतुर्विध अहार मेरे खाने से बहुत अधिक है अतः आप इसे लीजिये वापरियेगा... इस प्रकार कहने पर किसी भिक्षु ने कहा-हे आयुष्मन् श्रमण! यह आहार हम जितना खा सकेंगे उतना खाने का प्रयत्न करेंगे। यदि हम पूरा आहार-पानी खापी सके तो सब खा-पी लेंगे। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 2-1-1-9-6 (388) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. आचार्य, ग्लान, प्राधूर्णक आदि के लिये बहोत प्रकार के आहारादि प्राप्त करने के बाद, वह आहारादि बहोत होने के कारण से यदि वापरने में असमर्थ हो तब वहां उस गांव में अन्य जो साधर्मिक सांभोगिक समनोज्ञ अपरिहारिक साधुजन हो या बहोत दूर न गये हो तब उनके पुछे विना हि प्रमादी होकर यदि साध उन आहारादि का त्याग करे तब वह साधु माया-स्थान का स्पर्श करता है, किंतु साधु को ऐसा नहि करना चाहिये... इस स्थिति में वह साधु क्या करे, यह बात अब कहतें हैं, कि- वह साधु उस बचे हुए आहारादि को लेकर उन साधुओं के पास जावे, और वहां जाकर बचा हुआ आहारादि उनको दिखलावे और कहे कि- "हे आयुष्मन् श्रमण ! यह आहारादि अधिक है, कि- जिसको मैं वापर नहि शकता, अतः आप कुछ आहारादि लीजीये..." ऐसा कहने पर वे साधजन कहे किजितना आहारादि हम वापर शकेंगे उतना ग्रहण करेंगे, अथवा तो यदि सभी आहारादि हम वापर शकेंगे तो सब कुछ आहारादि वापरेंगे... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- यदि साधु रोगी एवं बीमार आदि के लिए पर्याप्त आहार लेकर आए और वह आहार खाने के बाद कुछ बच गया है, तो साधु अपने शहर में या समीपस्थ गांव आदि में स्थित सांभोगिक साधुओं को उस आहार को खाने के लिए प्रार्थना करे, किन्तु दिखाए बिना परठे (फैंके) नहीं। यदि वह समीपस्थ स्थान में स्थित साधुओं को दिखाए बिना उस बढ़े हुए आहार को बाहर फेंकता है, तो वह प्रायश्चित का अधिकारी होता है। अतः साधु का कर्तव्य है कि वह अपने निकट प्रदेश में स्थित सहधर्मी एवं सांभोगिक साधुओं के पास जाकर उन्हें प्रार्थना करे कि हमारे खाने के बाद कुछ आहार बढ़ा है, अतः आप इसे ग्रहण करने की कृपा करें। और आप थोड़ा या पूरा जितना भी खा सकें, खाने का प्रयत्न करें। इससे स्पष्ट होता है कि बढ़ा हुआ आहार समान धर्मी, समान आचार-विचार वाले या सांभोगिक साधु को ही देने का विधान है। दूसरी बात यह है कि उस युग में बड़े-बड़े शहर होते थे. अतः एक ही शहर में कई स्थानों पर साधु आकर ठहर जाते थे। या थोड़ी-थोड़ी दूर पर गांव होते थे, जिनमें साधु ठहरा करते थे और वे गांव आहार-पानी लाने-ले जाने की मर्यादा में होते थे। तीसरी बात यह है कि साधु की भाषा निश्छल एवं स्पष्ट होती है। वह अन्य साधु के पास जाकर ऐसा नहीं कहता कि में आपके लिए अच्छा आहार लेकर आया हूं। वह तो स्पष्ट कहता है कि मैं अपने या अपने साथ के साधुओं के लिए आहार लाया या, उसमें से इतना आहार बढ़ गया है। अतः कृपा करके इसे ग्रहण करें और लेने वाले साधु भी बिना Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-9-7 (389) 139 किसी भेदभाव के स्नेह एवं सद्भावना के साथ तथा जीवों की यतना के लिए उसे ग्रहण करते हैं और उस आए हुए श्रमण से कहते हैं कि हम जितना खा सकेंगे उतना खाने का प्रयत्न करेंगे। इससे स्पष्ट होता है कि साधु जीवन कितना स्पष्ट, सरल एवं मधुर है। इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 7 // // 389 // से भिक्खू वा से जं0 असणं वा परं समुद्दिस्स बहिया नीहडं जं परेहि असमणुण्णायं अनिसिढ़ अफा0 जाव नो पडिगाहिज्जा, जं परेहिं समणुण्णायं सम्म निसिहँ फासुयं जाव पडि गाहिज्जा, एवं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं / / 389 // II संस्कृत-छाया : सः भितुः वा सः यत्० अशनं वा. परं समुद्दिश्य बहिः निष्क्रान्तं यत् परैः असमनुज्ञातं अनिसृष्टं अप्रासुकं० यावत् न प्रतिगृह्णीयात्, यत् परैः समनुज्ञातं सम्यग् निसृष्टं प्रासुकं यावत् प्रतिगृह्णीयात्, एवं खलु तस्य भिक्षोः भिक्षुण्याः वा सामण्यम् / / 389 // III सूत्रार्थ : गृहस्थों के घर में भिक्षार्थ प्रविष्ट साधु या साध्वी भाट आदि के निमित्त बनाया गया जो अशनादिक चतुर्विध आहार घर से देने के लिए निकाला गया है, परन्तु, गृहपति ने अभी तक उस आहार की उन्हें ले जाने के लिए नहीं कहा है, और उनके स्वाधीन नहीं किया है, ऐसी स्थिति में यदि कोई व्यक्ति उस आहार के लिये साधु को विनति करे तो वह उसे अप्रासुक जानकर स्वीकार न करे। और यदि गृहपति आदि ने उन भाटादि को वह भोजन सम्यक् प्रकार से समर्पित कर दिया है और कह दिया है कि तुम जिसे चाहो दे सकते हो। ऐसी स्थिति में वह साधु को बिनती करे तो साधु उसे प्रासुक जानकर ग्रहण कर ले। यही साधु या साध्वी का समय आचार. है। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. जब ऐसा जाने कि- यह आहारादि चार-भट्ट आदि के लिये घर से बाहार निकाला हुआ है, और उन गृहस्थों ने ऐसा कहा न हो कि- “आप किसी को भी दे दीजीयेगा...' तब देनेवाले एवं लेनेवालेने स्वामी-भाव से त्याग न कीया होने के कारण से बहुदोषवाले अप्रासुक एवं अनेषणीय उस आहारादि को साधु ग्रहण न करें... परंतु यदि इससे विपरीत याने देनेवाले गृहस्थ ने भी अनुमति दी हो तो साधु उन आहारादि को ग्रहण करें... और ऐसा करना यह हि उस साधु का साधुपना है... Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 2-1-1-9-7 (389) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन - V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- यदि किसी गृहस्थ ने भाट या अन्य किसी के लिए अशन आदि चार प्रकार का भोजन बनाया है, किन्तु अभी तक न तो उसे दिया गया है, न उसके अधिकार में किया गया है और न उसे यह कहा गया है कि इस आहार को तुम जिसे चाहो दे सकते हो, ऐसी स्थिति में यदि कभी वह उस आहार के लिए साधु को प्रार्थना करे तो साधु उस आहार को अप्रासुक-अकल्पनीय समझ कर ग्रहण न करे। क्योंकि, वह. आहार देने वाले व्यक्ति के अधिकार में नहीं है, अतः हो सकता है कि साधु को देते हुए देखकर गृहस्थ के मन में भाट या साधुके प्रति दुर्भाव या आवेश आ जाए। या वह भाट क देने के लिए फिर से भोजन बनाए। इससे कई तरह के दोष लगने की सम्भावना है। अतः साधु को ऐसा आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए। यदि वह आहार भाट आदि के अधिकार में हो गया है तो अब वह इस बात के लिए स्वतन्त्र है कि उक्त आहार को चाहे जिसे दे। ऐसी स्थिति में यदि वह साधु को आहार के लिए विनति करता है, तो साधु उसे ग्रहण कर सकता है। // प्रथमचूलिकायां प्रथमे पिण्डैषणाध्ययने नवमः उद्देशकः समाप्तः // .. :: प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य थधुंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट -परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. "श्रमण" के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु.सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. फ राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058. Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-10-1 (390) 141 आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 1 अध्ययन - 1 उद्देशक - 10 म पिण्डैषणा // नववा उद्देशक कहा, अब दशवे उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं... यहां परस्पर यह संबंध है कि- नववे उद्देशक में पिंडग्रहणविधि कही, अब यहां दशवे उद्देशक में साधारणादि-पिंड की प्राप्ति होने पर वसति (उपाश्रय) में जाने के बाद साधु को क्या करना चाहिये, वह बात कहतें I सूत्र // 1 // // 390 // से एगइओ साहारणं वा पिंडवायं पडिगाहित्ता, ते साहम्मिए अणापुच्छित्ता जस्स जस्स इच्छड तस्स तस्स खद्धं खद्धं दलह, माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करिज्जा। से तमायाय तत्थ गच्छिज्जा, गच्छिऊण.एवं वइज्जा-आउसंतो समणा ! संति मम पुरेसंथुया वा पच्छा० तं जहा आयरिए वा उवज्झाए वा पवित्ती वा थेरे वा, गणी वा गणहरे वा गणावच्छेइए वा अवियाइं एतेसिं खलु खलु दाहामि, से सेवं वयंतं परो वइज्जा - कामं खलु आउसो ! अहापज्जत्तं निसिराहि, जावइयं परो वदइ, तावइयं निसिरिज्जा, सव्वमेव, परो वयह सव्वमेयं निसिरिज्जा || 390 // II संस्कृत-छाया : स: एकतरः साधारणं वा पिण्डपातं परिगृह्य तान् साधर्मिकान् अनापृच्छ्य यस्मै * यस्मै रोचते तस्मै तस्मै खलु खद्धं ददाति, मातृस्थानं संस्पृशेत्, न एवं कुर्यात् / सः तत् आदाय तत्र गच्छेत्, गत्वा च एवं वदेत् - हे आयुष्मन् श्रमण ! सन्ति मम पुरःसंस्तुता: वा पश्चात् तद् यथा - आचार्य: वा, उपाध्यायः वा, प्रवर्तक वा स्थविरः वा, गणी वा गणधरः वा, गणावच्छेदक: वा, इति एवमादीन्, एतेभ्यः खलु खद्धं दास्यामि, 'स: एवं वदन्तं परः वदेत्-कामं खलु आयुष्मन् ! यथापर्याप्तं निसृज, - यावन्मानं परः वदति, तावन्मानं निसृज, सर्व एव परः वदति सर्वं एतत् निसृज || 390 / / III सूत्रार्थ : . कोई भिक्षु गृहस्थ के यहां से सम्मिलित आहार को लेकर अपने स्थान पर आता है और अपने साधर्मियों को पूछे बिना जिस जिस को जो रुचता है उस उस के लिए वह दे देता है तो ऐसा करने से वह मायास्थान का सेवन करता है। अतः साधु को ऐसा नहीं करना चाहिए Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 2-1-1-10-1(390) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन परन्तु, उसे यह करना चाहिए कि उपलब्ध आहार को लेकर जहां अपने गुरुजनादि हों जैसे कि-आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक स्थविर, गणी, गणधर और गणावच्छेदक आदि, वहां जाए और उनसे प्रार्थना करे कि हे गुरुदेव ! मेरे पूर्व और पश्चात् परिचय वाले दोनों ही भिक्षु यहां उपस्थित है यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं इन उपस्थित सभी साधुओं को आहार दे दूं ? उस भिक्षु के ऐसा कहने पर आचार्य कहें कि-आयुष्मन् श्रमण ! जिस साधु की जैसी इच्छा हो, उसी के अनुसार उसे पर्याप्त आहार दे दो। आचार्य की आज्ञानुसार सबको यथोचित बांट कर दे देवे। यदि आचार्य कहें कि जो कुछ लाए हो, सभी दे दो, तो बिना किसी संकोच के सभी आहार उन्हें दे दे। IV टीका-अनुवाद : वह कोइ एक साधु सामान्य से सभी साधुओं के लिये प्राप्त उन आहारादि को लेकर, उन साधर्मिक-साधुओं के बिना पुछे हि जिस जिस साधु को जो कुछ चाहिये वह, अपने हि मन से बहोत सारा देता है, तब वह साधु माया-स्थान को स्पर्श करता है, अतः साधु को ऐसा नहि करना चाहिये... असाधारण आहारादि की प्राप्ति में भी साधु को जो करना चाहिये वह अब कहतें हैं कि- वह साधु एषणीय एवं वेषमात्र से प्राप्त उस आहारादि को लेकर के वहां आचार्य आदि के पास जावे, तथा जाकर ऐसा कहे कि- हे आयुष्मन् श्रमण ! मेरे पूर्वसंस्तुत याने दीक्षा देनेवाले या पश्चात्संस्तुत याने जिन्हों के पास श्रुतज्ञान प्राप्त कीये है, वे या उनके संबंधित कि- जो अन्य जगह रहे हुए हैं... वे इस प्रकार... 1. अनुयोगधारक आचार्य म. या 2. अध्ययन करानेवाले उपाध्याय म. या 3. साधुओं को अपनी अपनी योग्यता अनुसार वैयावृत्य आदि प्रवृत्तिओं मे जोडनेवाले प्रवर्तक, या 4. संयमादि में खेद पानेवाले साधुओं को संयम में स्थिर करनेवाले स्थविर, या 5. गच्छ के नायक गणी, या 6. आचार्य नहि किंतु आचार्य के समान कि- जो गुरु के आदेश से साधुओं को लेकर अलग विचरतें हैं वे गणधर, या 7. गच्छके कार्यो को संभालनेवाले गणावच्छेदक, इत्यादि उनके लिये, ऐसा कहे कि- आपकी अनुमति से मैं इन आचार्य आदि को बहोत सारा आहारादि दूं... इस प्रकार विनंति करने पर, वे साधुजन कहे कि- वे आपके आचार्यादि जितना चाहे उतना उन्हे दे दीजीये... और यदि सभी आहारादि की अनुमति हो तो, सब आहारादि उन आचार्यादि को साधु दे दे... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- यदि कोई मुनि अपने सांभोगिक साधुओं का आहार लेकर आया है, तो उसे पहले आचार्य आदि की आज्ञा लेनी चाहिए कि मैं यह आहार लाया हूं, आपकी आज्ञा हो तो सभी साधुओं में विभक्त कर दूं। उसके प्रार्थना करने पर आचार्य Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-10-1 (390) 143 ल ॐ आदि जो आज्ञा प्रदान करें उसके अनुसार कार्य करना चाहिए। इससे स्पष्ट होता है कि साधु को संघ की व्यवस्था करने वाले आचार्य आदि प्रमुख मुनियों की आज्ञा लेकर ही साधु जीवन की प्रत्येक क्रिया में प्रवृत्त होना चाहिए। आचार्य अभयदेव सूरि ने सात पदवियों का निम्न अर्थ किया है१. . आचार्य :- प्रतिबोधक प्रव्राजकादि; अनुयोगाचार्यो वा। उपाध्याय :- सूत्रदाता। प्रवर्तक :- प्रवर्तयति साधूनाचायोपादिष्टेषु वैयावृत्यादिष्विति प्रवर्ती। स्थविर :- प्रवर्तिव्यापारितान् साधून संयमयोगेषु सीदतः स्थिरीकरोतीति स्थविरः। . गणी :-गणोऽस्यातीति गणी-गणाचार्यः / गणधर :- गणधरो-जिनशिष्यविशेषः / गणावच्छेदक :- गणस्यावच्छेदो- विभागोंऽशोऽस्यास्तीति यो हि गणांशं गृहीत्वा गच्छोपष्टम्भायैवोपधिमार्गणादि निमित्तं विहरति स गणावच्छेदकः। इससे स्पष्ट हो जाता है कि उक्त सातों उपाधियां गण की, संघ की सुरक्षा एवं सुव्यवस्था बनाए रखने के लिए रखी गई हैं। इनमें गणावच्छेदक का कार्य साधुओं की उपधि आदि की आवशक्यकता को पूरा करना है। जबकि आचाराङ्ग सूत्र के वृत्तिकार आचार्य शीलांक ने गणावच्छेदक को गण, गच्छ या संघ का चिन्तक बताया है। परन्तु, आचार्य अभयदेव सूरि ने जो अर्थ किया है, वह दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र में वर्णित आठ गणि संपदाओं से संबन्ध रखता ॐ है। ___प्रस्तुत सूत्र में 'पूरे संथुवा' और 'पच्छा संथुवा' शब्द का प्रयोग किया गया है। इसका तात्पर्य दीक्षाचार्य एवं वाचनाचार्य से है। उक्त सूत्र से यह स्पष्ट होता है कि दीक्षाचार्य एवं वाचनाचार्य (आगम का ज्ञान कराने वाले) अलग-अलग होते थे। प्रस्तुत सूत्र में साधु के वात्सल्य भाव का वर्णन किया गया है और साथ में यह भी स्पष्ट कर दिया है कि उसे प्रत्येक कार्य आचार्य आदि की आज्ञा से करना चाहिए। उन्हें बिना बताए या उन्हें बिना पूछे न स्वयं आहार करना चाहिए एवं न अन्य साधुओं को देना चाहिए। परंतु आहार आदि कार्यों में माया, छल, कपट आदि का परित्याग करके सरल भाव से साधना में संलग्न रहना चाहिए। साधु को माया-कपट से सदा दूर रहना चाहिए इसे स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 2-1-1-10-2 (391) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन सुधर्म स्वामी आगे का सत्र कहतें हैं... . I सूत्र // 2 // // 391 // से एगइओ मणुण्णं भोयणजायं पडिगाहित्ता पंतेण भोयणेण पलिच्छाएइ, मा मेयं * दाइयं संतं दवणं समयाइए आयरिए वा जाव गणावच्छेए वा, नो खलु मे कस्सइ किंचि दायव्वं सिया, माइट्ठणं संफासे, नो एवं करिज्जा। से तमायाय तत्थ गच्छिज्जा, गच्छिऊण पुव्वामेव उत्ताणए हत्थे पडिग्गहं कट्ट इमं खलु इमं खलुत्ति आलोइज्जा, नो किंचिवि निगहिज्जा / से एगइओ अण्णयरं भोयणजायं पडिगाहित्ता भद्दयं भुच्चा, विवण्णं विरसमाहरइ, माइ० नो एवं० // 391 / / II संस्कृत-छाया : स: एकतरः मनोज्ञं भोजनजातं परिगृह्य, प्रान्तेन भोजनेन पर्याच्छादयति (अवगूहयेत्) मा मा एतत् दर्शितं सत्, दृष्ट्वा समाददाति आचार्यः वा यावत् गणाऽवच्छेदको वा, न खलु मया कस्मैचित् किधिदपि दातव्यं स्यात्, मातृस्थानं संस्पृशेत्, न एवं कुर्यात् ! सः तद् आदाय तत्र गच्छेत्, गत्वा च पूर्वमेव उत्तानके हस्ते प्रतिग्रहं कृत्वा, "इदं खलु इदं खलु" इति आलोकयेत्, न किचिदपि निगूहयेत्। सः एकतरः अन्यतरं भोजनजातं परिगृह्य भद्रकं, भुक्तवा विवर्णं विरसं समाहरति, मातृ० नो एवं० // 391 // III सूत्रार्थ : . यदि कोई मुनि भिक्षा में प्राप्त सरस, स्वादिष्ट आहार को आचार्य आदि न ले लेवे इस दृष्टि से उसे रूखे-सूखे आहार से छिपा कर रखता है, तो वह माया का सेवन करता है। अतः साधु को सरस एवं स्वादिष्ट आहार के लोभ में आकर ऐसा छल-कपट नहीं करना चाहिए। जैसा भी आहार प्राप्त हुआ हो उसे ज्यों का गों लाकर आचार्य आदि के सामने रख दे और झोली एवं पात्र को हाथ में ऊपर उठाकर एक-एक पदार्थ को बता दे कि मुझे अमुक-अमुक पदार्थ प्राप्त हुए हैं। इस तरह साधु को थोड़ा भी आहार छिपाकर नहीं रखना चाहिए। यदि कोई साधु गृहस्थ के घर पर ही प्राप्त पदार्थों में से अच्छे-अच्छे पदार्थों को उदरस्थ करके बचे-खुचे पदार्थ आचार्य आदि के पास लेकर आता है, तो वह भी माया का सेवन करता है। अतः साधु को ऐसा कार्य नही करना चाहिए। IV टीका-अनुवाद : . ऐसा न करें यहां तक यह सूत्र सुगम हि है, अब जो करना चाहिये वह कहते हैं Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-10-2 (391) 145 वह साधु उस आहारादि पिंड को लेकर, जहां आचार्यादि है वहां जावे, और जाकर जो आहारादि जैसा है वैसा हि दिखलावे, थोडा भी छुपावे नहि... अब आहारार्थ घुमनेवाले साधु को मातृस्थान का प्रतिषेध करतें हैं... कि- वह कोइ एक साधु अच्छे वणर्वादिवाले अन्य कोइ आहारादि को ग्रहण करके, रस में आसक्त होने के कारण से घूमता हुआ हि अच्छे अच्छे आहारादि को वापरकर, जो कुछ अंत प्रांत विवर्ण आहारादि बचा हो वह उपाश्रय में लाता है, इस प्रकार वह साधु माया-स्थान का स्पर्श करत है, परंतु साधु को ऐसा नहि करना चाहिये... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में साधु जीवन की सरलता एवं स्पष्टता का दिग्दर्शन कराया गया है। इसमें बताया गया है कि साधु को अपने स्वादेन्द्रिय का परिपोषण करने के लिए सरस आहारादि को न तो नीरस आहार से छुपाकर रखना चाहिए और न उसे गृहस्थ के घर में या मार्ग में ही उदरस्थ कर लेना चाहिए। साधु को चाहिए कि उसे गृहस्थ के घरों से जो भी आहार उपलब्ध हुआ है, उसमें किसी तरह की आसक्ति नहीं रखते हुए अपने अपने स्थान पर ले आए और आहार के पात्र को अपने हाथ में ऊपर उठाकर आचार्य आदि से निवेदन करे कि मुझे भिक्षा में ये पदार्थ प्राप्त हुए हैं। परन्तु, उसे उसमें से थोड़ा सा भी छुपाना नहीं चाहिए। आगम में यह भी कहा गया है कि जो साधु प्राप्त पदार्थों का सबसे समान भाग नहीं देता है तो वह मुक्ति नहीं पा सकता। अतः साधु को चाहिए कि वह बिना किसी संकोच एवं बिना किसी तरह की स्वादलोलुपता को रखते हुए सब सांभोगिक साधुओं में सम विभाजन करके आहार करे। परन्तु, ऐसा न करे कि अच्छे-अच्छे पदार्थ स्वयं खा ले और बचे-खुचे पदार्थ अन्य साधुओं को देवे। __ प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'मणुन्न' और 'पंतेण' पदों से सामूहिक संघारक आहार की परम्परा सिद्ध होती है। क्योंकि विविध प्रकार के सरस आहार की प्राप्ति अनेक घरों से ही हो सकती है। और अनेक घरों में कई साधुओं के लिए ही घूमा जाता है। केवल एक साधु के लिए पांच-दश घर ही पर्याप्त होते हैं। इस तरह इस सूत्र से सामूहिक संघारक गोचरी का स्पष्ट निर्देशन मिला है। ___ इस सूत्र में यह भी बताया गया है कि साधु को सदा सरल एवं स्पष्ट भाव रखना चाहिए। उसे अपने स्वाद एवं स्वार्थ के लिए किसी भी वस्तु को छुपाकर नहीं रखना चाहिए और गुरु एवं आचार्य आदि के सामने सभी पदार्थ इस तरह रखने चाहिए कि वे आसानी से सभी पदार्थों को देख सके। न तो उन्हें देखने में कोई कष्ट हो और न कोई पदार्थ उनकी दृष्टि से ओझल रह सके। इस सूत्र से विशेष कारण होने पर गृहस्थ के घर में आहार करने की ध्वनि भी Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 2-1-1-10-3 (392) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन प्रस्फुटित होती है। यह ठीक है कि उस समय वह इतना ईमानदारी एवं प्रमाणिकता रखे कि वह स्वयं ही सभी सरस पदार्थ न खा जाए। उस समय उस पर अपनी प्रमाणिकता को निभाने का बहुत बड़ा उत्तरदायित्व आ जाता है। अतः, विशेष परिस्थिति में गृहस्थ के घर में खाने का पूर्णतया निषेध नहीं है। आगम में इसकी आज्ञा भी दी गई है। साधु को किस तरह का आहार ग्रहण करना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 3 // // 392 || से भिक्खू वा से जंo अंतरुच्छियं वा उच्छुगंडियं वा उच्छुचोयगं वा उच्छुमेरगं वा उच्छुसालगं वा उच्छुडालगं वा सिंबलिं वा सिंबलथालगं वा अस्सिं खलु पडिग्गहियंसि अप्पे भोयणजाए बहुउज्झिय धम्मिए तहप्पगारं अंतरुच्छयं वा अफा० / से भिक्खू वा से जं० बहुअद्वियं वा मंसं वा मच्छं वा बहुकंटयं अस्सिं खलु तहप्पगारं बहुअट्ठियं वा मंसं लाभे संते नो०। से भिक्खू वा सिया णं परो बहुअट्ठिएण मंसेण वा मच्छेण वा उवनिमंतिज्जा - आउसंतो समणा ! अभिकंखसि बहुअट्ठियं मंसं पडिगाहित्तए ? एयप्पगारं निग्योसं सुच्चा निसम्म से पुव्वामेव आलोइज्जा - आउसोत्ति वा, नो खलु मे कप्पड़ बहु० पडिगा०, अभिकंखसि मे दाउं जावइयं तावड़यं पुग्गलं दलयाहि, मा य अट्ठियाई, से सेवं वयंतस्स परो अभिहट्ट, अंतो पडिग्गहंसि बहु० परिभाइत्ता निहट्ट दलइज्जा, तहप्पगारं पडिग्गहं परहत्थंसि वा परपायंसि वा अफा० नो०। से आहच्च पडिगाहिए सिया तं नोहित्ति वइज्जा नो अणिहित्ति वइज्जा, से तमायाय एगंतमवक्कमिज्जा, अहे आरामंसि वा अहे उवस्सयंसि वा अप्पंडे जाव संताणए मंसगं मच्छगं भुच्चा अट्ठियाई कंटए गहाय, से तमायाय एगंतमवक्कमिज्जा, अहे झामथंडिलंसि वा जाव पमज्जिय पमज्जिय परदृविज्जा || 392 // II संस्कृत-छाया : ___स: भिक्षुः वा सः यत्० इक्षुपर्वमध्यं वा, सपर्वेक्षुथकलं वा, पीलितेषुच्छोदिका वा, इक्ष्वग्रं वा, इक्षुदीर्घशाखा वा, इशाखैकदेश: वा, मुद्गादीनां विध्वस्ता फलि: वा वल्यादिफलीनां पाकः वा, अत्र खलु प्रतिगृहीते, अल्पं भोजनजातं, बहुत्यजनधर्मकं तथाप्रकारं इक्षुपर्वमध्यं वा अप्रासुकं० / स: भिक्षुः वा सः यत् बहुअस्थिकं वा मांसं वा मत्स्य वा बहुकण्टकं, अत्र खलु तथाप्रकारं बहुअस्थिकं वा मांसं, लाभे सति नो० / स: भिक्षुः वा स्यात् परः बहअस्थिकेन मांसेन वा मत्स्येन वा उपनिमन्त्रयेत् - हे आयुष्मन् श्रमण ! अभिकाङ्क्षसि बहअस्थिकं मांसं प्रतिगृहीतुं ? एतत्-प्रकारं निर्घोषं Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-10-3 (392) 147 श्रुत्वा निशम्य स: पूर्वमेव आलोचयेत् - हे आयुष्मन् ! न खलु मे कल्पते बहु० प्रतिगृ० अभिकाङ्क्षसि मह्यं दातुं यावन्मानं तावन्मानं पुद्गलं देहि, मा च अस्थिकानि, तस्य सः एवं वदतः परः अभ्याहृत्य अन्तः प्रतिग्रहके बहु० परिभज्य निहृत्य दद्यात्, तथाप्रकारं प्रतिग्रहं परहस्ते वा परपादे वा अप्रा० न०। सः आहृत्य (अकरमात्) प्रतिगृहीत: ग्राहितः ? स्यात्, तं न इति वदेत् न इति वदेत्, सः तमादाय एकान्तमपक्रामेत् अपक्रम्य च अथ आरामे उपाश्रये वा अल्पाण्डं वा यावत् संतानकं मांसं मत्स्यं भुक्त्वा अस्थिकानि कण्टकान् च गृहीत्वा, सः तमादाय एकान्तमपक्रामेत् अपक्र म्य च अथ दग्धस्थण्डिले वा यावत् प्रमृज्य प्रमृज्य परिष्ठापयेत् / / 392 // III सूत्रार्थ : गृहस्थ के घर पर आहार आदि के लिए गया हुआ भिक्षु, इक्षु खड आदि जो छिले हुए हैं एवं सब प्रकार से अचित्त हैं, तथा मूंग और बल्ली आदि की फली, जो किसी निमित्त से अचित्त हो चुकी है, परन्तु उसमें खाद्य भाग स्वल्प है और फैंकने योग्य भाग अधिक है तो इस प्रकार का आहार मिलने पर भी• अकल्पनीय जानकर ग्रहण न करे। फिर वह भिक्षु किसी गृहस्थ के यहां गया हुआ बहुत गुठलियों युक्त फल के टुकडे को और बहुत कांटों वाली मत्स्य नामक वनस्पति को भी उपर्युक्त दृष्टि के कारण ग्रहण न करे। यदि गृहस्थ उक्त दोनों पदार्थों की निमंत्रणा करे तो मुनि उसे कहे कि आयुष्मन् गृहस्थ ! यदि तू मुझे यह आहार देना चाहता है तो उक्त दोनों पदार्थों का खाद्य भाग ही मुझे दे दे, शेष गुठली तथा कांटे मत दे। . यदि शीघ्रता में गृहस्थ ने उक्त पदार्थ मुनि के पात्र में डाल दिए हों तो गृहस्थ को भला बुरा न कहता हुआ वह मुनि बगीचे या उपाश्रय में आए और वहां एकान्त स्थान में जाकर खाने योग्य भाग वापर ले और शेष गुठली तथा कांटों को ग्रहण कर एकान्त अचित्त एवं प्रासुक स्थान पर परठ छोड़ दे। IV टीका-अनुवाद : ___ वह साधु या साध्वीजी म. जब ऐसा जाने कि- यह आहारादि- जैसे कि- शेलडी के पर्वमध्य है या पर्ववाली शेलडी के टुकडे है, या पीली हुइ शेलडी के छिलके (चूर) है, या शेलडी का अग्रभाग है या शेलडी की लंबी शाखा है, या उसका एक टुकड़ा है, अथवा मुग आदि की अचित्त फली है, या वली आदि की फलीओं का पाक है, तब ऐसे आहारदि कि- जो खाने में थोडा और फेंकने में ज्यादा होतें हैं, अतः साधु ग्रहण न करें... इसी प्रकार मांस-सूत्र को Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 2-1-1-10-3 (392) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन भी जानीयेगा... इस सूत्रका यहां ग्रहण इसलिये किया है कि- कहिं कोई साधु को लुता-दोष के शमन के लिये अच्छे वैद्य के कहने से शरीर के बाहार के भागों में उपयोग लेने के लिये... क्योंकि- स्वेद = पसीने आदि से ज्ञानादि में उपकारक होने से सफलता देखी गइ है, यहां भुज धातु का अर्थ बाह्योपभोग हि लेवें... इसी प्रकार गृहस्थ के आमंत्रण आदि की विधि यावत् पुद्गल... सूत्र सुगम है... इस प्रकार छेदसूत्र के अभिप्राय से ग्रहण करने पर कांटे आदि के त्याग की विधिवाला यह सूत्र भी सुगम हि है... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु को ऐसे पदार्थ ग्रहण नहीं करने चाहिएं जिनमें से थोड़ा भाग खाया जाए और अधिक भाग फैंकने में आए। जैसे-छिला हुआ इक्षु खण्ड, मूंग, एवं बल्ली आदि की फली जो आग आदि के प्रयोग से अचित्त हो चुकी है, किंतु साधु को नहीं लेनी चाहिए। आग में भूनी हुई मूङ्गफली, पिस्ते, नोजे (छिलके सहित) भी नहीं लेने चाहिए। इसी तरह अग्नि पर पके हुए या अन्य तरह से अचित्त हुए फल भी नहीं लेने चाहिएं। जिनमें गुठली, कांटे आदि फैंकने योग्य भाग अधिक हो। यदि कभी शीघ्रतावश गृहस्थ ऐसे पदार्थ पात्र में डाल दे तो फिर मुनि को उस पर क्रोध नहीं करना चाहिए, प्रत्युत उक्त पदार्थों को लेकर अपने स्थान पर आ जाए और उनमें से खाने योग्य भाग खा लेवे और अवशेष भाग (गुठली, कांटे आदि) एकान्त प्रासक स्थान में परठ-फैंक दे। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'बहु अट्ठियं मंसं' और 'मच्छं वा बहु कंटयं' पाठ कुछ विवादास्पद है। कुछ विचारक इसका प्रसिद्ध शाब्दिक अर्थ ग्रहण करके जैन साधुओं को भी मांस भक्षक कहने का साहस करते हैं। वृत्तिकार आचार्य शीलांक ने इसका निराकरण करने का विशेष प्रयत्न नहीं किया। वे स्वयं लिखते हैं कि बाह्य भोग के लिए अपवाद में मांस आदि का उपयोग किया जा सकता है। परन्तु, वृत्तिकार के पश्चात् आचाराङ्ग सूत्र पर बालबोध व्याख्या लिने वाले उपाध्याय पार्श्वचन्द्र सूरि ने लिखा है कि आगम में अपवाद एवं उत्सर्ग का कोई भेद नहीं किया है और जो कंटक आदि को एकान्त स्थान में परठने का विधान किया है, उससे यह स्पष्ट होता है कि अस्थि एवं कण्टक आदि फलों में से निकलने वाले बीज (गुठली) या कांटे आदि ही हो सकते हैं। प्रज्ञापना सूत्र में बीज (गुठली) के लिए अस्थि शब्द का प्रयोग किया गया है। यथा‘एगळ्यिा बहुट्ठिया' एक अस्थि (बीज) वाले हरड़े आदि और बहुत अस्थि (बीज) वाले अनार, अमरूद आदि। इससे स्पष्ट होता है कि उक्त शब्दों का वनस्पति अर्थ में प्रयोग हुआ है। प्रस्तुत सूत्र के पूर्व में वनस्पति का स्पष्ट निर्देश है और उत्तर भाग में मांस शब्द का उल्लेख है। इ तरह पूर्व एवं उत्तर भाग का परस्पर विरोध दृष्टिगोचर होता है। एक ही प्रकरण Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-10-4 (393) 149 में वनस्पति एवं मांस का सम्बन्ध घटित नहीं हो सकता। और अस्थि एवं मांस शब्द का आगम एवं वैद्यक ग्रन्थों में गुठली एवं गर अर्थ में प्रयोग मिलता है। आचाराङ्ग सूत्र में जहां धोवन (पासुक) पानी का वर्णन किया गया है, वहां अस्थि शब्द का प्रयोग किया गया है। उसमें बताया गया है कि यदि कोई गृहस्थ आम आदि के धावन को साधु के सामने छीनकर एवं अस्थि (गुठली) निकाल कर दे तो ऐसा धोवन पानी साधु को ग्रहण नहीं करना चाहिए। यहां गुठली के लिए. अस्थि शब्द का प्रयोग हुआ है। और यह भी स्पष्ट है कि आम के धोवन में अस्थि (हड्डी) के होने की कोई सम्भावना ही नहीं हो सकती। उसमें गठली का होना ही उचित प्रतीत होता है। और आम के धोए हुए पानी में गुठली के अतिरिक्त और हो ही क्या सकता है। इसे स्पष्ट होता है कि अस्थि शब्द का गुठली के अर्थ में प्रयोग होता रहा है। ____ प्रज्ञापना सूत्र में वनस्पति के प्रसंग में 'मंसकहाडं' शब्द का प्रयोग किया गया है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'समांसं सगिरं' अर्थात् फलों का गुद्दा किया है। और वृक्षों का वर्णन करते हुए लिखा है कि कुछ वृक्ष एक अस्थि वाले फलों के होते हैं- जैसे- आम, जामुन आदि के वृक्ष / अर्थात् आम, जामुन आदि फलों में एक गुठली होती है। यह तो स्पष्ट है कि फलों में गुठली ही होती है, न कि हड्डी इससे स्पष्ट है कि आगम में अस्थि शब्द गुठली के अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है। जैनागमों के अतिरिक्त आयुर्वेद के ग्रन्थों में भी अस्थि शब्द का गुठली के अर्थ में अनेक स्थलों पर प्रयोग हुआ है तथा-वैद्यक के सुप्रसिद्ध सुश्रुतसंहिता तथा चरक संहिता से भी हमारे उक्त कथन का समर्थन होता है, यथाचूतफलेऽपरिपक्वे केशर मांसास्थि मज्जा न पथक् दृश्यन्ते / - सुश्रुत संहिता अध्याय 3, श्लोक 32, पृ० 642 / अर्थ-पके आम फल में केशर, अस्थि, मज्जा प्रत्यक्ष रूप में देखते हैं। परन्तु, कच्चे आम में ये अंग सूक्ष्म अवस्था में होने के कारण भिन्न-भिन्न नहीं दीखते, उन सूक्ष्म केशरादि को सुपक्व आमही व्यक्त रूप देता है। प्रस्तुत पाठ में फलों के बारे में कहा गया है इसे और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... सूत्र // 4 // // 393 // से भिक्खू० सिया से परो अभिहट्ट अंते पडिगिहे बिलं वा लोणं वा उब्भियं वा Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 2-1-1-10-4 (393) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन लोणं परिभाइत्ता नीहट्ट दलइज्जा० तहप्पगारं पडिग्गहं परहत्थंसि वा अफासुयं नो पडि० / से आहच्च पडिगाहिए सिया, तं च नाइदूरगए जाणिज्जा, से तमायाय तत्थ गच्छिज्जा, पुव्वामेव आलोइज्जा-आउसोत्ति ! , इमं किं ते जाणया दिण्णं उयाह अजाणया ? से य भणिज्जा - नो खलु मे जाणया दिण्णं, अजाणया दिण्णं, कामं खलु आउसो ! इयाणिं निसिरामि, तं भुंजह वा णं परिभाएह वा णं, तं परेहिं समणुण्ण यं समणुसटुं तओ संजयामेव भुंजिज्ज वा पीइज्ज वा, जं च नो संचाएइ भोत्तए वा पायए वा साहम्मिया तत्थ वसंति संभोइया समणुण्णा अपरिहारिया अदूरगया, तेसिं अणुप्पयायव्वं सिया, नो जत्थ साहम्मिया, जहेव बहुपरियावण्णं कीरइ तहेव कायव्वं सिया, एवं खलु० // 393 // II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा तस्य परः अभ्याहृत्य अन्तः प्रतिग्रहे बिडं वा लवणं वा उभिन्न वा लवणं परिभज्य निसृत्य दद्यात्, तथाप्रकारं प्रतिग्रहं परहस्ते वा अप्रासुकं न प्रति० / सः आहत्य (सहसा) प्रतिगृहीत: स्यात्, तं च नाऽतिदूरगत: जानीयात्, सः तमादाय तत्र गच्छेत्, गत्वा च पूर्वमेव आलोकयेत् - हे आयुष्मन् ! वा इदं किं त्वया जानता दत्तं, उत अजानता ? सः च भणेत् - न खलु मया जानता दत्तं, अजानता दत्तं, कामं खलु हे आयुष्मन् ! इदानीं नि:सरामि, तत् भुङ्ग्ध्वं वा परिभाजयत वा तत् परैः समनुज्ञातं समनुसृष्टं, ततः संयतः एव भुञ्जीत वा पीबेत् वा, यत् च न शक्नोति भोक्तुं वा पातुं वा, साधर्मिकाः तत्र वसन्ति, साम्भोगिका: समनुज्ञा: अपरिहारिका: अदूरगताः, तेभ्यः अनुप्रदातव्यं स्यात्, न तत्र साधर्मिकाः यथैव बहुपर्यापन्नं क्रियते, तथैव कर्तव्यं स्यात्, एवं खलु० // 393 // III सूत्रार्थ : यदि कोई गृहस्थ घर पर भिक्षार्थ आए हुए भिक्षु को अंदर- घर में अपने पात्र में बिड़ अथवा उद्भिज्ज लवण को विभक्त कर उसमें से कुछ निकाल कर साधु को दे दे तो तथाप्रकार लवणादि को गृहस्थ के पात्र में अथवा हाथ में अप्रासुक जानकर ग्रहण न करे। यदि कभी अकस्मात् वह ग्रहण कर लिया है तो मालूम होने पर गृहस्थ को समीपस्थ ही जानकर लवणादि को लेकर वहां जावे और वहां जाकर पहले दिखलाए और कहे किहे आयुष्मन् ! अथवा भगिनि ! तुमने यह लवण मुझे जानकर दिया है या बिना जाने दिया है ? यदि वह गृहस्थ कहे कि मैंने जानकर नहीं दिया, किन्तु भूल से दिया है। परन्तु, हे आयुष्मन् ! अब मैं तुम्हें जानकर दे रहा हूं, अब तुम्हारी इच्छा है- तुम स्वयं खाओ अथवा परस्पर में बांट लो। गृहस्थ की ओर से सम्यक् प्रकार से आज्ञा पाकर साधु अपने स्थान पर चला जावे, Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-10-4 (393) 151 और वहां जाकर यंत्नपूर्वक खाए तथा पीए। यदि स्वयं खाने या पीने को असमर्थ हो तो जहां आस-पास में एक मांडले के सभागी, समनोज्ञ और निर्दोष साधु रहते हों वहां जावे और उनको दे दे। यदि साधर्मिक पास में न हो तो जो परठने को विधि बतलाई है उसी के अनुसार परठ दे। इस प्रकार मुनि का आचार धर्म बतलाया गया है। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर जाने कि- वह गृहस्थ घर में जाकर काष्ठ के बरतन आदि में ग्लान आदि साधु के लिये सक्कर की याचना करने पर बिड नमक या सैंधव नमक, देने योग्य वस्तु में से अलग करके यदि साधु को दे, तब तथाप्रकार के गृहस्थ के हाथ आदि में रहे हुए उनका निषेध करे, कदाचित् जल्दी जल्दी में ले लिया हो, तब उस दाता को बहोत दूर नहि गया हुआ जानकर साधु वह लवण (नमक) आदि लेकर उसके पास जावे, और जाकर पहले हि उन्हे वह नमक आदि दिखावे, और कहे कि- हे भाइ ! हे बहन ! यह नमक आदि क्या आपने जानकर दिया है या अनजाने में ? ऐसा करने पर यदि वह कहे कि- मैंने यह नमक आदि आपको अनजानेमें दीये है, किंतु यदि आपको चाहिये तो ले जाइए... उसका उपयोग करो... इस प्रकार गृहस्थ से अनुमति मिलने पर साधु वापरे, यदि साधु स्वयं वापर नहि शकता तब साधर्मिक साधुओं को दे, यदि वे न हो तब पूर्व कही गइ विधि से त्याग करे... यह हि साधु का साघुपना है... V सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- यदि किसी गृहस्थ ने साधु को भूल से अचित्त नमक दे दिया है तो साधु उस गृहस्थ से पूछे कि यह नमक तुमने भूल से दिया है या जानकर ? वह कहे कि मैंने दिया तो भूल से है, फिर भी मैंने आपको दे दिया है अतः अब आप इसे खा सकते हैं या अपने अन्य साधुओं को भी दे सकते हैं। ऐसा कहने पर वह साधु उस अचित्त नमक को यदि स्वयं खा सकता है तो स्वयं खा ले, अन्यथा अपने सांभोगिक, मनोज्ञ एवं चारित्रनिष्ठ साधुओं को बांट दे। यदि स्वयं एवं अन्य साधु नहीं खा सकते हों तो उसे एकान्त एवं प्रासुक स्थान में जाकर परठ देवे। प्रस्तुत सूत्र में यह स्पष्ट होता है कि यदि कोई पदार्थ बिना इच्छा के भूल से आ गया है तो उसके लिए गृहस्थ के पूछकर उसकी आज्ञा मिलने पर उसे खा सकता है, अपने समान आचार-विचारनिष्ठ साधुओं को दे सकता है और उसे खाने में समर्थ न हो तो साधु मर्यादा के अनुसार परिष्ठापन-विसर्जन कर सकता है। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 2-1-1-10-4 (393) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन // प्रथमचूलिकायां प्रथमे पिण्डैषणाध्ययने दशमः उद्देशकः समाप्तः // 卐 : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शगुंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन . श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट -परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. "श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के.साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. राजेन्द्र सं. ९६.卐 विक्रम सं. 2058. m परम) . . . . . ... ......... Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-11-1 (394) 153 आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 1 अध्ययन - 1 उद्देशक - 11 म पिण्डैषणा दशवा उद्देशक कहा, अब ग्यारहवे उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं... और इसका परस्पर यह संबंध है कि- दशवे उद्देशक में प्राप्त पिंड की विधि कही थी, और यहां ग्यारहवे उद्देशक में भी वह हि प्राप्तपिंड की विधि विशेष प्रकार से कहतें हैं... I सूत्र // 1 // // 394 // भिक्खागा नामेगे एवमाहंसु समाणे वा वसमाणे वा गामाणुगामं वा दुइज्जमाणे मणुण्णं भोयणजायं लभित्ता से भिक्खू गिलाइ, से हंदह णं तस्साहरह, से य भिक्खू नो भुंजिज्जा, तुमं चेत् णं भुंजिज्जासि, से एगइओ भोक्खामि त्ति कट्ट पलिउंचिय आलोइज्जा, तं जहा इमे पिंडे इमे लोए इमे तिते इमे कडुयए इमे कसाए इमे अंबिले इमे महरे, नो खलु इत्तो किंचि गिलांणस्स सयइत्ति माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करिज्जा तहाठियं आलोइज्जा जहाठियं गिलाणस्स सयइत्ति, तं तित्तयं तित्तएति वा कडुयं कडुयं फसायं कसायं अंबिलं अंबिलं महुरं महरं० // 394 // // संस्कृत-छाया : . . भिक्षाटा: नाम एके एवं आहुः - समाना: वा, वसन्तः वा ग्रामानुग्रामं गच्छन्तो वा मनोज्ञं भोजनजातं लब्ध्वा, सः यः कश्चित् भिक्षुः ग्लायति, तस्मै गृह्णीत, तस्मै आहरत, सः च भिक्षुः न भुङ्क्ते, त्वमेव भुव, स: एकाकिक: भोक्ष्ये इति कृत्वा गोपित्वा गोपित्वा आलोकयेत्, - तद् - यथा - अयं पिण्डः, तत्र अयं रुक्ष: अयं तिक्तः, अयं कटुकः अयं कषाय, अयं अम्लः, अयं मधुरः, न खलु अत: किञ्चत् ग्लानाय स्वदति इति मातृस्थानं संस्पृशेत्, न एवं कुर्यात् / तथास्थितं आलोकयेत्, यथास्थितं ग्लानाय स्वदति इति, तं तिक्तकं तिक्तक इति वा, कटुकं कटुकः, कषायं कषायः, अम्लं अम्लः, मधुरं मधुरः इति० // 394 / / III सूत्रार्थ : . एक क्षेत्र में किसी कारण से साधु रहते हैं, वहां पर ही व्यामानुयाम विचरते हुए अन्य साधु भी आ गये हैं और वे भिक्षाशील मुनि मनोज्ञ भोजन को प्राप्त कर उन पूर्वस्थित भिक्षुओं को कहे कि अमुक भिक्षु रोगी है उसके लिए तुम यह मनोज्ञ आहार ले लो। यदि वह रोगी Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 2-1-1-11-1 (394) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन भिक्षु न खाए तो तुम खा लेना ? किसी एक भिक्षु ने उनके पास से आहार लेकर मन में विचार किया कि यह मनोज्ञ आहार में ही खाऊंगा। इस प्रकार विचार कर उस मनोज्ञ आहार की अच्छी तरह छिपा कर, रोगी भिक्षु को अन्य आहार दिखला कर कहे कि यह आहार भिक्षुओं ने आप के लिए दिया है। किन्तु यह आहार आपके लिए पथ्य नहीं है, क्योंकि यह रुक्ष है, तिक्त है, कटुक है, कसैला है, खट्टा है, मधुर है, अतः रोग की वृद्धि करने वाला है, आपको इससे कुछ भी लाभ नहीं होगा। जो भिक्षु इस प्रकार कपट चर्या करता है, वह मातृस्थान का स्पर्श करता है, अतः भिक्षु को ऐसा कभी नहीं करना चाहिए। किन्तु जैसा भी आहार हो उसे वैसा ही दिखलावे-अर्थात् तिक्त को तिक्त, कटुक को कटुक, कषाय को कषाय, खट्टे, को खट्टा और मीठे को मीठा बतलावे। तथा जिस प्रकार रोगी को शांति प्राप्त हो उसी प्रकार पथ्य आहार के द्वारा उसकी सेवा-शुश्रूषा करे। IV टीका-अनुवाद : भिक्षाके लिये जो घुमतें हैं वे भिक्षुक... साधु... कितनेक साधु सांभोगिक या असांभोगिक वहां रहे हुए या यामानुयाम विहार करनेवाले साधुओं के पास जाकर कहे किआपके साथ यदि कोइ साधु ग्लान हो, तो उनके लिये यह मनोज्ञ हो, यदि ग्लान साधु इस आहारादि को न वापरे, तो आप हि वापरीयेगा... इत्यादि... तब वह साधु उस साधु के हाथों से ग्लान साधु के लिये आहारादि लेकर उपाश्रय की और जाता है उस वख्त उसको विचार आता है कि- यह आहारादि मैं अकेला हि वापरुं... ऐसा सोचकर अच्छे अच्छे आहारादि को छुपाकर उस ग्लान साधु के पास जाकर आहारादि दिखाकर कहे कि- आपको वायु का रोग है अतः यह आहारादि आपके लिये अपथ्य है ऐसा कहकर उनके आगे रखे... और कहे कि- यह आहारादि आपके लिये दुसरे साधुने दीया है, किंतु रुक्ष है, अथवा तिक्त, कटु, कषाय, अम्ल, मधुर इत्यादि कहकर कहे कि- इसमें से कुछ भी आपके लिये अनुकूल नहि है... इस प्रकार वह साधु माया-स्थान का स्पर्श करता है, किंतु ऐसा नहि करना चाहिये... ___अब, क्या कहना चाहिये, वह कहते हैं... ग्लान साधु को आहारादि जैसा है वैसा कहकर दिखलाये... यहां सारांश यह है कि- माया - कपटका त्याग करके आहारादि जैसा है वैसा यथावस्थित हि कहे... सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में रोगी साधु की निष्कपट भाव से सेवा-शुश्रूषा करने का आदेश दिया गया है। यदि किसी साधु ने किसी रोगी साधु के लिए मनोज्ञ आहार दिया हो तो सेवा करने Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-11-2 (395) 155 वाले साधु का कर्तव्य हैं कि जिस साधु ने जैसा आहार दिया है उसे उसी रूप में बताए। ऐसा न करे कि उस मनोज्ञ आहार को स्वयं के लिए छुपाकर रख ले और बीमार साधु से कहे कि तुम्हारे लिए अमुक साधु ने यह रूखा-सूखा, खट्टा, कषायला आदि आहार दिया है, जो आपके लिए अपथ्यकर है। यदि स्वाद लोलुपता के वश साधु इस तरह से सरस आहार को छुपाकर उस रोगी साधु को दूसरे पदार्थ दिखाता है और उसके सम्बन्ध में गलत बातें बताता है तो वह माया-कपट का सेवन करता है। कपट आत्मा को गिराने वाला है। इससे महाव्र में दोष लगता है और साधु साधुत्व से गिरता है। अतः साधु को अपने स्वाद का पोषण करने के लिए छल-कपट नहीं करना चाहिए। जैसे आहार दिया गया है उसे उसी रूप में रोगी साधु के सामने रख देना चाहिए। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 2 // // 395 // . भिक्खागा नामेगे एवमाहंसु - समाणे वा वसमाणे वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे वा मणुण्णं भोयणजायं लभित्ता; से य भिक्खू गिलाइ, से हंदह णं तस्स आहरह, से य भिक्खू नो भुंजिज्जा आहारिज्जा, से णं नो खलु मे अंतराए आहरिस्सामि, इच्चेयाई आयतणाइं उवाइक्कम्म / / 395 // // संस्कृत-छाया : .. भिक्षारा: नाम एके एवं आहुः - समाना: वा वसन्तः वा ग्रामानुग्रामं गच्छन्तो वा, मनोज्ञं भोजनजातं लब्ध्वा, स: च भिक्षुः ग्लायति, तस्मै गृहीत, तस्मै आहरत, सः च भिक्षुः न भजीत, न आहरेत्, सः न खलु मम अन्तरायः, आहरिष्ये... इत्यादीनि आयतनानि उपातिक्रम्य // 395 // II सूत्रार्थ : ..भिक्षाशील साधु, संभोगी साधु वा एक क्षेत्र में स्थिरवास रहने वाला साधु गृहस्थ के वहां से मनोज्ञ आहार प्राप्त करके ग्रामानुग्राम विचरने वाले अतिथि रूप में आए हुए साधुओं से कहे कि तुम रोगी साधु के लिए यह मनोज्ञ आहार ले लो ? यदि यह रोगी साधु इसे न खाए तो यह आहार हमें वापिस लाकर दे देना, क्योंकि हमारे यहां भी रोगी साधु है। तब वह आहार लेने वाला साधु उनसे कहे कि यदि मुझे आने में कोई विघ्न न हुआ तो मैं इस आहार को वापिस लाकर दे दूंगा, परन्तु रस लोलुपी वह साधु उस आहार को रोगी को न देकर स्वयं खा जाए और पूछने पर कहे मुझे शूल उत्पन्न हो गया था अर्थात् मेरे पेट में बहुत Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 2-1-1-11-2 (395) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन दर्द हो गया था इस लिए मैं नहीं आ सका, इस प्रकार वह साधु मायास्थान का सेवन करता है, अतः इस तरह के पापकर्मों के स्थानों को सम्यक्तया दूर करके, रोगी साधु की आहार आदि के द्वारा सेवा करनी चाहिए। IV टीका-अनुवाद : साधु अच्छे आहारादि को प्राप्त करे तब मनोज्ञ या अमनोज्ञ, साधुओं को अथवा वहां रहनेवाले या प्राघूर्णकों को, ग्लान साधु को ध्यान में रखकर इस प्रकार कहे- कि- इस अच्छे आहारादि को व्यहण करो और ग्लान साधु के लिये ले जाओ... यदि वह ग्लानसाधु इस आहारादि को न वापरे, तो हमारे ग्लान साधु के लिये वापस लाओ... वह साधु यदि ऐसा कहने पर जवाब दे कि- अंतराय याने कोइ विघ्न के अभाव में मैं आहारादि ले आउंगा... इस प्रकार प्रतिज्ञा करके आहारादि लेकर ग्लान साधु के पास जाकर पूर्व के सूत्र में कहे गये आहारादि संबंधि रुक्ष आदि दोष कहकर उस ग्लान साधु वह आहारादि दीये बिना हि स्वयं हि लोलुपता से उस आहारादि को वापरकर बाद में उस साधु के पास जाकर कहे कि- ग्लान साधु की सेवा करते करते मुझे पेट में शूल की पीडा हुई अतः मुझे आनेमें अंतराय (विघ्न) हुआ... इसलिये मैं वह आहारादि लेकर नहि आया... इत्यादि प्रकार से वह साधु माया-स्थान का सेवन करे... किंतु ऐसी माया करना वह कर्मबंध का कारण है, यह बात अच्छी तरह जानकर माया का त्याग करके वह आहारादि ग्लान साधु को दे, अथवा आहारादि देनेवाले साधु को वापस लौटा दे... . अब पिंडाधिकार में हि सात पिंडैषणा का अधिकार कहतें हैं... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में पूर्व सूत्र में कथित विषय को कुछ विशेषता के साथ बताया गया है। पूर्व सूत्र में कहा गया था कि यदि कोई साधु रोगी साधु की सेवा में स्थित साधु को यह कहकर मनोज्ञ आहार दे कि यह आहार रोगी को दे देना यदि वह न खाए तो तुम खा लेना, तो साधु उस आहार को अपने लिए छुपाकर नहीं रखे। किंतु प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि यदि किसी साधु ने प्रतिज्ञा पूर्वक यह कहा हो कि यह मनोज्ञ आहार रोगी साधु को ही देना यदि वह न खाए तो हमें वापिस लाकर दे देना, तो उस साधु को चाहिए कि वह आहार रोगी साधु को दे दे। स्वयं उसका उपभोग न करे। यदि वह स्वाद की लोलुपता से उस आहार को अपने लिए छुपाकर रखता है, तो माया का सेवन करता है। और उसकी इस वृत्ति से उसका दूसरा महाव्रत भी भंग होता है और रोगी को आहार की अंतराय देने के कारण अन्तराय कर्म का भी बन्ध होता है। इस तरह स्वाद के वश साधु अपना अधःपतन कर लेता है। वह आध्यात्मिक साधना से भ्रष्ट हो जाता है। अतः साधक को अपनी क्रिया में छल-कपट नहीं Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-11-3 (396) 157 करना चाहिए। पदार्थों के स्वाद की अपेक्षा साधना, सरलता, सेवा एवं सत्यता का अधिक मूल्य है, उस से आत्मा का विकास होता है। इसलिए साधु को शुद्ध एवं निष्कपट भाव से रोगी की सेवा करनी चाहिए और उसके लिए जो आहार दिया गया हो उसे बिना छुपाए उसी रूप में उसको देना चाहिए। वृत्तिकार का भी यही अभिमत है। अब सप्त पिडैषणा के विषय में सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 3 // // 396 // अह भिक्खू जाणिज्जा सत्त पिंडेसणाओ, सत्त पाणेसणाओ, तत्थ खलु इमा पढमा पिंडेसणा - असंसढे हत्थे असंसढे मत्ते, तहप्पगारेण असंसटेण हत्थेण वा मत्तेण वा असणं वा सयं वा णं जाइज्जा, परो वा से दिज्जा, फासुअं पडिगाहिज्जा, पढमा पिंडेसणा। अहावरा दुच्चा पिंडेसणा - संसढे हत्थे संसढे मत्ते, तहेव दुच्चा पिंडेसणा। अहावरा तच्चा पिंडेसणा - इह खलु पाईणं वा संतेगइया सड्ढा भवंति - गाहावई वा जाव कम्मकरी वा; तेसिं च णं अण्णयरेसु विरुवरुवेसु भायणजाएसु उवनिक्खित्तपुवे सिया, तं जहा - थालंसि वा पिढरंसि वा सरगंसि वा परगंसि वा वरगंसि वा, अह पुणेवं जाणिज्जा - असंसढे हत्थे संसढे मत्ते, संसट्टे वा हत्थे असंसद्धे मते, से य पडिग्गहधारी सिया पाणिपडिग्गहिए वा, से पुव्वामेव आउसोत्ति वा ! एएण तुमं असंसटेण हत्थेण संसद्वेण मत्तेण, संसद्वेण वा हत्थेण असंसडेण मत्तेण अस्सिं पडिग्गहगंसि वा पाणिंसि वा निहट्ट उचित्तु दलयाहि, तहप्पगारं भोयणजायं सयं वा णं जाइज्जा, फासुयं० पडिगाहिज्जा, तइया पिंडेसणा। __ अहावरा चउत्था पिंडेसणा - से भिक्खू वा से जं पिहुयं वा जाव चाउलपलंब वा अस्सिं खलु पडिग्गहियंसि अप्पे पच्छाकम्मे अप्पे पज्जवजाए, तहप्पगारं पिहुयं वा जाव चाउलपलंबं वा सयं वा णं० जाव पडि० चउत्था पिंडेसणा। अहवरा पंचमा पिंडेसणा - से भिक्खू वा उग्गहियमेव भोयणजायं जाणिजा, तं जहा सरावंसि वा डिंडिमंसि वा कोसगंसि वा, अह पुणेवं जाणिज्जा - बहुपरियावण्णे पाणीसु दगलेवे, तहप्पगारं असणं वा, सयं जाव पडिगाहिक पंचमा पिंडेसणा। अहावरा छट्ठा पिंडेसणा - से भिक्खू वा पग्गहियमेव भोयणजायं जाणिज्जा, जं च सयट्ठा पग्गाहियं, जं च परट्ठा पग्गहियं, तं पायपरियावण्णं तं पाणिपरियावण्णं फासुयं पडि० छट्ठा पिंडेसणा। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 2-1-1-11-3 (396) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन ___अहावरा सत्तमा पिंडेसणा - से भिक्खू वा बहु उज्झियधम्मियं भोयणजायं जाणिजा, जं चऽण्णे बहवे दुपयचउप्पय समण माहण अतिहिकिविणवणीमगा नावकंखंति, तहप्पगारं उज्झियधम्मियं भोयणजायं सयं वा णं जाइज्जा, परो वा से दिजा, जाव पडि० सत्तमा पिंडेसणा। इच्चेइयाओ सत्त पिंडेसणाओ अहावराओ सत्त पाणेसणाओ, तत्थ खलु इमा पढमा पाणेसणा असंसढे हत्थे असंसढे मत्ते, तं चेव भाणियव्वं, नवरं चउत्थाए नाणत्तं / से भिक्खू वा० से जंo पुण पाणगजायं जाणिज्जा, तं जहा - तिलोदगं वा, अस्सिं खलु पडिग्गहियंसि अप्पे पच्छाकम्मे तहेव पडिगाहिज्जा || 396 || II संस्कृत-छाया : अथ भिक्षुः जानीयात् सप्त पिण्डैषणाः सप्त पानेषणाः, तत्र खलु इयं प्रथमा पिण्डैषणा - असंसृष्ट हस्तः असंसृष्ट मात्रम्, तथाप्रकारेण असंसृष्टेन हस्तेन वा मात्रेण वा अशनं वा स्वयं वा याचेत परः वा तस्मै दद्यात्, प्रासुकं प्रतिगृह्णीयात्, प्रथमा पिण्डैषणा / अथाऽपरा द्वितीया पिण्डैषणा - संसृष्टं हस्तं संसृष्टं मात्रम्, तथैव द्वितीया पिण्डैषणा। अथाऽपरा तृतीया पिण्डैषणा - इह खलु प्राचीनं वा सन्ति एके श्राद्धाः भवन्ति गृहपतिः वा यावत् कर्मकरी वा, तेषां च अन्यतरेषु विसपरूपेषु भाजनजातेषु उपनिक्षिप्तपूर्वं स्यात्, तद् - यथा - स्थाले वा पिठरे वा थरके वा परके वा वरके वा, अथ पुन: एवं जनीयात् - असंसृष्टं हस्त: संसृष्टं मात्रम्, संसृष्टं वा हस्त: असंसृष्टं वा मात्रम्, सः च प्रतिग्रहधारी स्यात्, पाणिप्रतिग्रहिक: वा, तस्य पूर्वमेव हे आयुष्मन् ! वा एतेन त्वं असंसृष्टेन हस्तेन संसृष्टेन मात्रेण, संसृष्टेन वा हस्तेन असंसृष्टेन मात्रेण, अस्मिन् प्रतिग्रहके वा पाणौ वा निहत्य उचितं दहि, तथाप्रकारं भोजनजातं स्वयं वा याचेत प्रासुकं० प्रतिगृह्णीयात्, तृतीया पिण्डैषणा / अथाऽपरा चतुर्थी पिण्डैषणा - सः भिक्षुः वा सः यत् पृथुकं वा यावत् तन्दुलपलम्बं वा अस्मिन् खलु प्रतिगृहीते अल्पे पश्चात्कर्म अल्पं पर्यवजातं, तथाप्रकारं पृथुकं वा यावत् तन्दुलपलम्बं वा स्वयं वा० यावत् प्रति० चतुर्था पिण्डैषणा।। अथाऽपरा पञ्चमी पिण्डैषणा - स: भिक्षुः वा उद्गृहीतं एव भोजनजातं जानीयात्, तद् - यथा - शरावं वा डिण्डिमं वा कोशकं वा, अथ पुनः एवं जानीयात् बहुपर्यापन्न: पाणिषु दकलेपः, तथाप्रकारं अशनं वा, स्वयं यावत् प्रति० (प्रतिगृह्णीयात्) पचमा पिण्डैषणा। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-11-3 (396) 159 अथाऽपरा षष्ठी पिण्डैषणा - सः भिक्षुः वा प्रगृहीतमेव भोजनजातं जानीयात्, यत् च स्वार्थ प्रगृहीतं, यत् च परार्थं प्रगृहीतं, तत् पापर्यापन्नं तत् पाणिपर्यापन्नं प्रासुकं प्रति० षष्ठी पिण्डैषणा। अथाऽपरा सप्तमी पिण्डैषणा - स: भिक्षुः वा बहु उज्झितधर्मिकं भोजनजातं जानीयात्, यत् च अन्ये बहवः द्विपदचतुष्पद श्रमण ब्राह्मण अतिथिकृपण वनीपका: नाऽवकाङ्क्षन्ते, तथाप्रकारं उज्झितधर्मिकं भोजनजातं स्वयं वा याचेत, परः वा तस्मै दद्यात्, यावत् प्रति० सप्तमी पिण्डैषणा। इत्यादिकाः सप्त पिण्डैषणाः अथाऽपराः सप्त पानेषणाः तत्र खलु इयं प्रथमा पानैषणा - असंसृष्टं हस्तः असंसृष्टं मात्रम्, तच्चैव भणितव्यम्, नवरं चतुर्थ्यां नानात्वम् / सः भिक्षुः वा सः यत् पुन: पानकजातं जानीयात्, तद् - यथा - तिलोदकं वा अस्मिन् खलु प्रतिगृहीते अल्पं पश्चात्कर्म तथैव प्रतिगृह्णीयात् || 396 || III सूत्रार्थ : संयमशील साधु सात पिण्डैषणाओं तथा सात पानैषणाओं को जाने / उन सातों में से पहली पिंडैषणा यह है कि अचित्त वस्तु से न हाथ लिप्त है और न पात्र ही लिप्त है, तथा प्रकार के अलिप्त हाथ और अलिप्त पात्र से अशनादि चतुर्विध आहार की स्वयं याचना करे अथवा गृहस्थ दे तो उसे प्रासुक जानकर ग्रहण करले, यह प्रथम पिन्डैषणा है, इसके अनन्तर दूसरी पिन्डैषणा यह है कि अचित वस्तु से हाथ और भाजन लिप्त हैं तो पूर्ववत् प्रासुक जान कर उसे ग्रहण करले, यह दूसरी पिण्डैषणा है। तदनन्तर तीसरी पिण्डैषणा कहते हैं- इस संसार या क्षेत्र में पूर्वादि चारों दिशाओं में बहुत पुरुष हैं उन में से कई एक श्रद्धालु-श्रद्धा वाले भी हैं, यथा गृहपति, गृहपत्नी यावत् उनके दास और दासी आदि रहते हैं। उनके वहां नानाविध बरतनों में भोजन रखा हुआ होता है यथा-थाल में, पिठर-बटलोही में, सरक (छाज जैसा) में, टोकरी में और मणिजटित महाघ पात्र में / फिर साधु यह जाने कि गृहस्थ का हाथ तो लिप्त नहीं है भाजन लिप्त है, अथवा हाथ लिप्त है, भाजन अलिप्त है, तब वह स्थविरकल्पी अथवा जिनकल्पी साधु प्रथम ही उसको देखकर कहे कि- हे आयुष्मन् गृहस्थ ! अथवा भगिनि ! तू मुझ को इस अलिप्त हाथ से और लिप्त भाजन से हमारे पात्र वा हाथ में वस्तु लाकर दे दीजिये। तथाप्रकार के भोजन को स्वयं मांग ले अथवा बिना मांगे ही गृहस्थ लाकर दे तो उसे प्रासुक जानकर ग्रहण करें। यह तीसरी पिण्डैषणा है। अब चौथी पिण्डैषणा कहते हैंवह भिक्षु तुषरहित शाल्यादि को गावत् भुग्न शाल्यादि के चावल को जिसमें पश्चात्कर्म नहीं है, और न तुषादि गिराने पड़ते हैं, इस प्रकार का भोजन स्वयं मांग ले या बिना मांगे गृहस्थ दे तो प्रासुक जान कर ले लेवे, यह चौथी पिण्डैषणा है। पांचवीं पिण्डैषणा-गृहस्थ ने सचित्त Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 2-1-1-11-3 (396) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन जल से हस्तादि को धोकर अपने खाने के लिए, सकोरे में, कांसे की थाली में अथवा मिट्टी के किसी भाजन में भोजन रक्खा हुआ है- उसके हाथ जो सचित्त जल से धोए थे अचित्त हो चुके हैं तथाप्रकार के अशनादि आहार को प्रासुक जानकर साधु ग्रहण कर ले, यह पांचवीं पिण्डैषणा है। छठी पिण्डैषणा यह है- गृहस्थ ने अपने लिए अथवा किसी दूसरे के लिए बर्तन में से भोजन निकाला है परन्तु दूसरे ने अभी उसको ग्रहण नहीं किया है तो उस प्रकार का भोजन गृहस्थ के पात्र में हो या उसके हाथ में हो तो मिलने पर प्रासुक जानकर उसे ग्रहण कर ले। यह छठी पिण्डैषणा है। सातवीं पिण्डैषणा यह है- वह साधु या साध्वी, जिसे बहुत से पशु-पक्षी मनुष्य-श्रमण (बौद्ध भिक्षु) ब्राह्मण, अतिथि, कृपण और भिखारी लोग नहीं चाहते, तथा प्रकार के उज्झित धर्म वाले भोजन को स्वयं याचना करे अथवा गृहस्थ दे तो उसे प्रासुक जानकर ग्रहण कर ले. यह सातवीं पिंडैषणा है। इस प्रकार ये सात पिंडैषणाए कही हैं। तथा अपर सात पानैषणा अर्थात् पानी की एषणाएं हैं। जैसे कि अलिप्त हाथ और अलिप्त.भाजन आदि, शेष सब वर्णन पूर्वोक्त पिंडैषणा की भांति समझना चाहिए। और चौथी पानैषणा में नानात्व का विशेष है। वह साधु या साध्वी पानी के विषय में जाने जैसे कि तिलादि का धोवन जिसके ग्रहण करने पर पश्चातकर्म नहीं लगता है तो उसे प्रासुक जानकर ग्रहण कर ले। शेष पानैषणा पिंडैषणा की तरह जाननी चाहिए IV टीका-अनुवाद : यहां “अथ' शब्द अन्य अधिकार के विषय में प्रयुक्त है.. प्रश्न - वह कौन सा अधिकार है ? उत्तर - सात पिंडेषणा और सात पानेषणा... अब साधु या साध्वीजी म. सात पिंडैषणा एवं सात पानैषणा को जाने - समझें... वे इस प्रकार- 1. असंसृष्टा, 2. संसृष्टा, 3. उद्धृता, 4. अल्पलेपा, 5. उद्गृहीता, 6. प्रगृहीता, 7. उज्झितधर्मिका... __ जिनशासन में साधु दो प्रकार के होते हैं... 1. गच्छ में रहे हुए, स्थविरकल्पी 2. गच्छ से बाहार रहे हुए जिनकल्पी... इन दोनों में जो साधु गच्छ में रहे हुए हैं, उन्हें सातों पिंडैषणा के ग्रहण की अनुमति है, किंतु जो जिनकल्पिकादि गच्छ से बाहार रहे हुए हैं, उन्हें पहली दो पिडैषणा का ग्रहण नहि होता है... शेष पांच पिंडैषणा का हि अभिग्रह करतें हैं... अब इन सातों पिडैषणाओं का क्रमशः स्वरूप कहतें हैं... वहां पहली पिंडैषणा का स्वरूप है असंसृष्ट हाथ एवं असंसृष्ट पात्र... अब द्रव्य (आहारादि) दो प्रकार से होते हैं... 1. सावशेष एवं 2. निरवशेष... इनमें से जो निरवशेष है, उनमें पश्चातकर्म दोष होता है, तो भी गच्छ में बाल ग्लान आदि प्रकार के साधु होतें हैं अतः निषेध नहि है... इसी कारण से हि सूत्र में भी इस बाबत विशेष विचार नहि कीया गया है... शेष सुगम है.... Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-11-3 (396) 161 अब दुसरी पिंडैषणा है संसृष्ट हाथ एवं संसृष्ट पात्र... इत्यादि... शेष सुगम है... अब तीसरी पिंडैषणा कहतें हैं कि- प्रज्ञापक की अपेक्षा से जो पूर्व आदि दिशाएं हैं उनमें जो कोइ श्रद्धालु गृहस्थ हैं, उनके घर में विध विध प्रकार के बरतन में आहारादि पहले से हि रखे हुए हो... जैसे कि- थाला, सूपडा, वांस से बने हुए छाबडी आदि, तथा मूल्यवान् मणी आदि से बने हुए बरतन... यदि प्रासुक एवं एषणीय आहारादि हो तो ग्रहण करें... यहां संसृष्ट असंसृष्ट एवं सावशेष द्रव्य इन तीन पदों के आठ (8) भंग होतें हैं... उनमें जो आठवा भंग (विकल्प) है वह इस प्रकार है... संसृष्ट हाथ संसृष्ट पात्र एवं सावशेष द्रव्य... इस प्रकार की पिंडेषणा गच्छ से निकले हुए जिनकल्पिकादि को भी कल्पती है... और शेष सात (7) भंग वाली यह पिंडैषणा सूत्र एवं अर्थ की हानि आदि कारण को लेकर गच्छ में रहे हुए साधुओं को कल्पती है... अब अल्पलेप नाम की जो चौथी पिंडैषणा है उसका स्वरूप कहतें हैं... अल्पलेप जैसे कि- फोतरे निकले हुए शेके हुए शालि आदि को पृथुक कहतें हैं... इत्यादि से लेकर तंदुलपलंब याने शेके हुए शालि आदि तंदुल (चावल)... यहां पृथुक आदि ग्रहण करने पर पश्चात्कर्म दोष अल्प है और पर्यायजात दोष अल्प है... क्योंकि- यहां तुष-फोतरों का त्याग करना होता है, इस प्रकार यह अल्पलेप है... और भी वाल चने इत्यादि... यह सब कुछ यदि प्रासुक एवं एषणीय हो तो ग्रहण करते हैं... ___अब ‘अवगृहीता' नाम की पांचवी पिंडैषणा कहतें हैं... जैसे कि- वह साधु या साध्वीजी म. जब आहारादि के लिये गृहस्थ के घर गये हो तब यदि वह गृहस्थ भोजन करने के लिये जो कुछ भोजन थाली में लेकर बैठे हो और कहे कि- यह आहारादि ग्रहण कीजीये... उस वख्त यदि उस गृहस्थ ने पहले से हि जल से हाथ या बरतन धोया हुआ हो, अर्थात् जल से भीगे हाथ एवं बरतन हो तो आहारादि ग्रहण न करें... किंतु यदि जल से भीगे हाथ एवं पात्र का जल सुख गया हो तब प्रासुक एवं एषणीय जानकर आहारादि ग्रहण करें... . अब “प्रग्रहीता' नाम की छठी पिंडैषणा कहतें हैं... वह इस प्रकार... गृहस्थ ने अपने लिये या दुसरों के लिये पिठरक (बरतन) आदि से चम्मच आदि से आहारादि निकाल कर खाने के लिये हाथ उंचा उठाया हो और इस स्थिति में यदि साधु को आहारादि दें तब वह प्रयहिता नाम की पिंडैषणा होती है... इस प्रकार यदि आहारादि पात्र में हो या हाथ में हो, और प्रासुक एवं एषणीय है ऐसा जानने में आवे, तब ग्रहण करें... अब “उज्झितधर्मिका' नाम की जो सातवी पिंडैषणा है वह सुगम है... इन सातों पिडैषणाओं में संसृष्ट आदि आठ भंग होतें हैं... किंतु चौथी पिंडैषणा में विभिन्नता है, क्योंकिवह अल्पलेपा है अतः संसृष्ट आदि का अभाव है... आठ भंग इस प्रकार होतें हैं... Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2-1-1-11-3 (396) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन CM - 3 1. संसृष्ट हाथ संसृष्ट पात्र निरवशेष द्रव्य संसृष्ट हाथ संसृष्ट पात्र सावशेष द्रव्य संसृष्ट हाथ असंसृष्ट पात्र निरवशेष द्रव्य 4. संसृष्ट हाथ असंसृष्ट पात्र सावशेष द्रव्य असंसृष्ट हाथ संसृष्ट पात्र निरवशेष द्रव्य असंसृष्ट हाथ संसृष्ट पात्र सावशेष द्रव्य 7. असंसृष्ट हाथ असंसृष्ट पात्र निरवशेष द्रव्य 8. असंसृष्ट हाथ असंसृष्ट पात्र सावशेष द्रव्य इसी प्रकार सात पानेषणा और आठ भंग जानीयेगा... किंतु चौथी पानैषणा में विभिन्नता है... क्योंकि- यहां जल स्वच्छ होने से अल्पलेपता है... अतः संसृष्ट आदि का अभाव है... इन एषणाओं में उत्तरोत्तर विशुद्धि की तरतमता होती है इसलिये इस प्रकार के उनका अनुक्रम उचित हि है... अब इन एषणाओं का अभिग्रह लेनेवाले एवं पूर्वकाल में अभियह लीये हुए साधुओं को जो करना चाहिये वह कहतें हैं... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में विशिष्ट अभिग्रहधारी मुनियों के सात पिंडेषणा एवं सात पानैषणा का वर्णन किया गया है। इसमें आहार एवं पानी ग्रहण करने के एक जैसे ही नियम हैं। ये सातों एषणाएं इस प्रकार हैं अलिप्त हाथ एवं अलिप्त पात्र से आहार ग्रहण करना प्रथम पिण्डैषणा है और अलिप्त हाथ एवं अलिप्त पात्र से पानी ग्रहण करना प्रथम पानैषणा है। लिप्त हाथ और लिप्त पात्र से आहार ग्रहण करना द्वितीय पिण्डैषणा है और ऐसी ही विधि से पानी ग्रहण करना द्वितीय पानैषणा है। अलिप्त हाथ और लिप्त पात्र या लिप्त हाथ और अलिप्त पात्र से आहार एवं इसी विधि से पानी ग्रहण करना तृतीय पिण्ड एवं पानैषणा है। साधु को आहार देने के बाद सचित्त जल से हाथ या पात्र आदि धोने या पुनः आहार बनाने आदि का पश्चात्कर्म नहीं करना चतुर्थ पिण्डैषणा है, इसी तरह पानी देने के बाद भी पश्चात् कर्म नहीं लगाना चतुर्थ पानैषणा है। इसमें तिल, तुष, यव (जौ) का धोवन, आयाम-जिस पानी में गर्म वस्तु ठण्डी की जाती है, कांजी का पानी और उष्ण Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-11-3 (396) 163 जल आदि 6 प्रकार के प्रासुक जल का नाम निर्देश किया है। परन्तु उपलक्षण से अन्य प्रासुक पानी को भी समझ लेना चाहिए। गृहस्थ ने अपने पात्र में खाद्य पदार्थ रखे हैं और उसके बाद वह सचित्त जल से हाथ धोता है, यदि हाथ धोने के बाद वह जल अचित्त रूप में परिवर्तित हो गया है तो मुनि उसके हाथ से आहार ले सकता है। इस तरह पानी भी ले सकता है, यह पांचवीं पिण्डैषणा एवं पानैषणा है। गृहस्थ ने अपने या अन्य के खाने के लिए पात्र में खाद्य पदार्थ रखा है, परन्तु न स्वयं ने खाया है और न अन्य ने ही खाया है, ऐसा आहार ग्रहण करने की प्रतिज्ञा करना छठी पिण्डैषणा है और ऐसा पानी लेने का संकल्प करना छठी पानैषणा है। जिस आहार को बहुत से लोग खाने की इच्छा नहीं रखते हों ऐसा रूक्ष आहार लेने का संकल्प करना सातवीं पिण्डैषणा है। इसी तरह ऐसे पानी को ग्रहण करने की प्रतिज्ञा करना सातवीं पानैषणा है। उक्त अभियह जिनकल्प एवं स्थविरकल्प दीनों तरह के मुनियों के लिए हैं। तृतीय पिण्डैषणा में 'पडिग्गहधारी सिया पाणिपडिग्गहिए वा' तथा छठी पिण्डैषणा में, पाय परियावन्नं पाणि परियावन्नं' दो पदों का उल्लेख करके यह स्पष्ट कर दिया है कि दोनों ही कल्प वाले मुनि इन अभिग्रहों को ग्रहण कर सकते हैं। प्रस्तुत सूत्र में उस युग के गृहस्थों के रहन-सहन, आचार-विचार एवं उस युग की सभ्यता का स्पष्ट परिचय मिलता है। ऐतिहासिक अन्वेषकों के लिए प्रस्तुत सूत्र महत्त्वपूर्ण 'उज्झित धर्म वाला' अर्थात् जिस आहार को कोई नहीं चाहता हो इसका तात्पर्य इतना ही है कि जो अधिक मात्रा में होने के कारण विशेष उपयोग में नहीं आ रहा है। परन्तु, इसका यह अर्थ नहीं है कि वह पदार्थ खाने योग्य नहीं है। इस अभिग्रह का उद्देश्य यही है कि अधिक मात्रा में अवशिष्ट आहार में से ग्रहण करने से पश्चात्कर्म का दोष नहीं लगता है। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'बहुपरियावन्ने पाणीसु दंगलेवे' का अर्थ है- यदि सचित्त जल से हाथ धोए हों, परन्तु हाथ धोने के बाद वह जल अचित्त हो गया है तो साधु उस व्यक्ति के हाथ से आहार ले सकता है। “सयं वा जाइज्जा परो वा से दिज्जा' का तात्पर्य है- जिस प्रकार मुनि गृहस्थ से आहार की याचना करे उसी प्रकार गृहस्थ के लिए भी यह विधान है कि वह भक्ति एवं श्रद्धा पूर्वक साधु को आहार ग्रहण करने की प्रार्थना करे। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इप्प 164 2-1-1-11-4 (397) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन = ___ उक्त अभियह ग्रहण करने वाले मुनि को अन्य मुनियों के साथ-जिन्होंने अभिग्रह नहीं किया है या पीछे से ग्रहण किया है, कैसा बर्ताव रखना चाहिए, इस संबंध में सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 4 // // 397 / / इच्चेयासिं सत्तण्हं पिंडेसणाणं सत्तण्हं पाणेसणाणं अण्णयरं पडिमं पडिवज्जमाणे नो एवं वइज्जामिच्छापडिवण्णा खलु एए भयंतारो, अहमेगे सम्म पडिवण्णे, जे एए भयंतारो एयाओ पडिमाओ पडिवज्जित्ता णं विहरंति, जो य अहमंसि एवं पडिमं पडिवज्जित्ता णं विहरामि, सव्वे वि ते उ जिणाणाए उवट्ठिया अण्णुण्ण समाहीए, एवं च णं विहरंति, एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं // 397 // II संस्कृत-छाया : इत्येतासां सप्तानां पिण्डैषणानां सप्तानां पानैषणानां अन्यतरां प्रतिमां प्रतिपद्यमान: न एवं वदेत् - मिथ्याप्रतिपन्नाः खलु एते भगवन्तः अहं एकः सम्यक् प्रतिपन्न: ये इमे भगवन्त: एताः प्रतिमाः प्रतिपद्य विहरन्ति, यश्च अहं अस्मि, एतां प्रतिमा प्रतिपद्य विहरामि। सर्वेऽपि ते तु जिनाज्ञया उपस्थिताः अन्योन्यसमाधिना, एवं च विहरन्ति, एतत् खलु तस्य भिक्षोः भिक्षुण्याः वा सामग्यम् // 397 // III सूत्रार्थ : इन सातों पिण्डैषणाओं तथा पानैषणाओं में से किसी एक प्रतिमा-प्रतिज्ञा अभिग्रह को ग्रहण करता हुआ साधु फिर इस प्रकार न कहे कि- ये सब अन्य साधु सम्यक्तया प्रतिमाओं को ग्रहण करने वाले नहीं हैं, केवल एक मैं ही सम्यक् प्रकार से प्रतिमा ग्रहण करने वाला हूं। परंतु उसे किस तरह बोलना चाहिए ? इस विषय में कहते हैं- ये सब साधु महाराज इन प्रतिमाओं को ग्रहण करके विचरते हैं। ये सब जिनाज्ञा में उद्यत हुए परस्पर समाधि पूर्वक विचरते हैं। इस तरह जो साधु साध्वी अहंभाव को नहीं रखता उसी में साधुत्व है और अहंकार नहीं रखना सम्यक् आचार है। IV टीका-अनुवाद : इस प्रकार इन सात पिंडैषणा एवं सात पानैषणा प्रतिमाओं में से अन्यतर कोइ भी प्रतिमा को स्वीकारनेवाला साधु ऐसा न कहे कि- यह अन्य साधु भगवंत अच्छी तरह से पिंडैषणा आदि अभिग्रहवाले नहि है, अर्थात् मिथ्या प्रकार से प्रतिमा स्वीकारी है, मैंने अकेलेने हि यह प्रतिमा अच्छी तरह से स्वीकारी है... क्योंकि- मैंने विशुद्ध पिडैषणा का अभिग्रह कीया है, इन्होने नहि कीया... इत्यादि... परंतु गच्छ से निकले हुए या गच्छ में रहे हुए साधु को Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-11-4 (397) 165 चाहिये कि- अन्य साधुओं को समदृष्टि से देखें... न कि- गच्छ में रहा हुआ उत्तरोत्तर आगे आगे की पिंडैषणा के अभिग्रहवाला साधु पूर्व पूर्वतर पिंडैषणा के अभिग्रह वालों को दूषित करें... अब जो करना चाहिये वह कहते हैं कि- वह साधु ऐसा कहे कि- देखीये / यह वे साधु भगवंत पिंडैषणादि अभिग्रहवाले इन प्रतिमाओं को स्वीकार के यामनुयाम विहार करतें हैं... और यथायोग विचरतें हैं... जिस प्रतिमा का स्वीकार करके में विचरता हुं... यह सभी साधु भगवंत जिनाज्ञा के अनुसार हि उद्यत विहारवाले होते हुए विचरतें हैं... और वे परस्पर समाधि से विचरतें हैं कि- जो समाधि गच्छ में रहे हुए साधुओं को कही गइ है... तथा सात पिंडैषणा गच्छवासीओं को कही है, और गच्छ से निकले हुए जिनकल्पिक आदि को पहली दो प्रतिमाओं को छोडकर शेष पांच पिंडैषणा का अभिग्रह कहा है... - इस प्रकार यथाविहारी वे सभी साधु भगवंत जिनाज्ञा का उल्लंघन नहिं करतें... कहा भी है कि- जो साधु दो वस्त्रवाले हैं, या तीन वस्त्रवाले हैं या बहु वस्त्रवाले हैं या वस्त्र रहित हि विचरते हैं उन सभी साधुओं की हीलना (निंदा) तिरस्कार नहि करना चाहिये, क्योंकिवे सभी जिनाज्ञा अनुसार हि हैं... और ऐसा भाव रखना यह हि तो साधु और साध्वीजी म. का संपूर्ण साधुपना है... कि- जहां आत्मोत्कर्ष याने अभिमान का त्याग है... v सूत्रसार : - प्रस्तुत सूत्र में साधना में अहंकार करने का निषेध किया गया है। साधना का उद्देश्य जीवन को ऊंचा उठाना है, अपनी आत्मा को शुद्ध बनाना है। अतः साधक को चाहिए कि वह दूसरे की निन्दा एवं असूया से ऊपर उठकर क्रिया-अनुष्ठान करे। यदि कोई साधु उसके समान अभिग्रह या प्रतिमा स्वीकार नहीं करता है, तो उसे अपने से निम्न श्रेणी का मानना एवं उससे घृणा कस्ना साधुत्व से गिरना है। साधना की दृष्टि से की जाने वाली प्रत्येक क्रिया महत्वपूर्ण है और उसका मुल्य बाह्य त्याग के साथ आभ्यन्तर दोषों के त्याग में स्थित है। यदि बाह्य साधना की उत्कृष्टता के साथ-साथ उस त्याग का अहंकार है और दूसरे के प्रति ईर्ष्या एवं घृणा की भावना है तो वह बाह्य त्याग आत्मा को ऊपर उठाने में असमर्थ ही रहेगा। प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु को अपने त्याग का, अपने अभिग्रह आदि का गर्व नहीं करना चाहिए और अन्य साधुओं को अपने से हीन नहीं समझना चाहिए। उसे तो साधना के पथ पर गतिशील सभी साधकों का समान भाव से आदर करना चाहिए। गुण सम्पन्न पुरुषों के गुणों को देखकर प्रसन्न होना चाहिए और उनके गुणों की प्रशंसा करनी चाहिए। इसी से आत्मा का विकास होता है। . . आगम में यह स्पष्ट शब्दों में बताया गया है कि साधु को परस्पर एक-दूसरे की निन्दा नहीं करनी चाहिए। एक वस्त्र रखने वाले मुनि को दो वस्त्रधारी मुनि की और दो वस्त्र सम्पन्न मुनि को तीन या बहुत वस्त्र रखने वाले मुनि की निन्दा नहीं करनी चाहिए। इसी तरह अचेलक Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 2-1-1-11-4 (397) . श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन मुनि को सवस्त्र मुनि का तिरस्कार नहीं करना चाहिए। साधु को निन्दा-चुगली से सर्वथा निवृत्त रहना चाहिए। क्योंकि आत्मा का विकास निन्दा एवं चुगली से निवृत्त होने में है। साधना का महत्व आभ्यन्तर दोषों के त्याग में है, न कि केवल बाह्य साधना में। माता मरुदेवी एवं भरत चक्रवर्ती ने आभ्यन्तर दोषों का त्याग करके ही गृहस्थ के वेश में पूर्णता को प्राप्त किया था। प्रस्तुत सूत्र में सात पिण्डैषणाओं का वर्णन करके अभिग्रह की संख्या सीमित कर दी है। सात से ज्यादा या कम अभिग्रह नहीं होते। और 'विहरंति' वर्तमानकालिक क्रिया का प्रयोग करके यह स्पष्ट कर दिया है कि चारित्र की साधना वर्तमान में ही होती है, ज्ञान एवं दर्शन पूर्व भव से भी साथ में आते हैं और एक गति से दूसरी गति में जाने समय भी साथ रहते हैं। परन्तु, चारित्र न पूर्वभव से साथ में आता है और न साथ में जाता है। उसकी साधनाआराधना इसी भव में की जा सकती है। अभिग्रह के सम्बन्ध में वृत्तिकार का मत है कि स्थविर कल्पी मुनि सप्त अभिग्रह स्वीकार कर सकता है और जिन कल्पी मुनि 5 अभिग्रह स्वीकार कर सकता है। आगमोदय समिति की प्रति में प्रस्तुत उद्देशक के अन्त में 'त्तिबेमि' नहीं दिया है। किन्तु, अन्य कई प्रतियों में तिबेमि' शब्द दिया है। 'तिबेमि' की व्याख्या पर्ववत् समझनी चाहिए। // प्रथमचूलिकायां प्रथमपिण्डैषणाध्ययने एकादशः उद्देशकः समाप्तः // 卐 : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शत्रुजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट -परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक एनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. “श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिबमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058. Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 167 आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 1 अध्ययन - 2 उद्देशक - 1 # शय्यैषणा // प्रथम अध्ययन कहा, अब दूसरे अध्ययन का प्रारंभ करतें हैं, और इन दोनों का इस प्रकार परस्पर संबंध है... यहां पहले अध्ययन में धर्म के आधार स्वरूप शरीर के पालन के लिये प्रारंभ में हि पिंड (आहारादि). ग्रहण करने की विधि कही... आहारादि प्राप्त होने पर साधु को जहां गृहस्थ न हो ऐसे उपाश्रय (वसति-मकान) में जाकर अवश्य ठहरना चाहिये... इस प्रकार से वसति-उपाश्रय के गुण एवं दोष कहने के लिये इस दुसरे अध्ययन का प्रारंभ करतें हैं... अतः इस प्रकार के परस्पर के संबंध से आये हुए इस दुसरे अध्ययन के चार अनुयोग द्वारा कहतें हैं... उनमें नामनिष्पन्न निक्षेप में "शय्यैषणा' ऐसा नाम है... अतः उसके निक्षेप करने के लिये कहतें हैं कि- जहां पिंडैषणा नियुक्ति है वहां उनके निक्षेप कीये गये हैं अतः वहां से जानीयेगा... ऐसा अतिदेश याने भलामण करके प्रथम गाथा से और अन्य नियुक्तिओं की यथायोग्य संभावना और निक्षेप दुसरी गाथा से कहकर अब तीसरी गाथा से "शय्या' पद के छह (6) निक्षेप कहतें हैं... उनमें से भी नाम एवं स्थापना सुगम होने के कारण से नियुक्तिकार अब शेष द्रव्य क्षेत्र आदि को कहतें हैं... द्रव्यशय्या, क्षेत्रशय्या कालशय्या एवं भावशय्या उनमें यहां द्रव्यशय्या याने वसति-उपाश्रय का अधिकार है और वह संयत ऐसे साधुओं के योग्य होनी चाहिये... अब द्रव्यशय्या का स्वरूप कहतें हैं... द्रव्यशय्या तीन प्रकार से होती है... 1. सचित्त, 2. अचित्त एवं 3. मिश्र... उनमें सचित्त पृथ्वीकाय आदि में रहना वह सचित्त द्रव्यशय्या है, और अचित्त पृथ्वीकाय आदि के उपर रहना वह अचित्त द्रव्यशय्या है, और अर्धपरिणत पृथ्वीकायादि में रहना वह मिश्रद्रव्यशय्या है... अथवा तो सचित्त द्रव्यशय्या का स्वरूप स्वयं नियुक्तिकार आगे की गाथा से कहेंगे... तथा क्षेत्रशय्या याने जहां गांव या नगर आदि क्षेत्र में निवास कीया जाय वह क्षेत्रशय्या है... तथा कालशय्या याने जहां ऋतुबद्ध काल आदि में रहा जाय वह कालशय्या... अब सचित्त द्रव्यशय्या का स्वरूप कथानक के द्वारा कहतें हैं... जैसे कि- कोइ एक अटवी में उत्कल और कलिंग नाम के दो भाइ जंगल के विषम स्थान में पल्लि (निवास योग्य छोटा सा गांव) बनाकर चोरी के द्वारा जीवन जीतें हैं... उनकी Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन वल्गुमती नाम की एक बहिन है... अब एक बार वहां गौतम नाम का निमित्तज्ञ आया तब उत्कल और कलिंग ने उनका स्वागत किया, उस वख्त उनकी बहिन वल्गुमति ने कहा कियह पुरुष भद्रक याने भला (अच्छा) नहि है... यदि यह पुरुष यहां रहेगा तो कभी न कभी अपनी पल्लि (निवास स्थान) का विनाश करेगा... इसलिये इस पुरुष को यहां से निकाल दीया जाय... तब उन दोनों भाइओं ने उस निमित्तज्ञ पुरुष को वहां से निकाल दीया... इस स्थिति में उस पुरुष ने गुस्से में आकर एक प्रतिज्ञा की कि- यदि में वल्गमती के उदर (पेट) को चीरकर वहां न सोउं तो मैं पुरुष नहि... इत्यादि... यहां अन्य आचार्य ऐसा कहतें हैं कि- वह वल्गुमती अपने पुत्र-पुत्रीयां छोटे होने के कारण से वह हि उस पल्लिकी स्वामिनी थी, और उत्कल तथा कलिंग दोनों निमित्तज्ञ थे... वह वल्गुमती इन दो निमित्तज्ञ के प्रति सद्भाववाली होने से पहले से हि वहां रहनेवाले गौतम नाम के निमित्तज्ञ को वहां से निकाल दीया... इस स्थिति में वह गौतम निमित्तज्ञ गुस्से में आकर प्रतिज्ञा करके सर्षप (सरसव) को बोता हुआ वहां से निकल गया... वर्षाकाल में वे सर्षय अंकुरित होकर पौधे बन गये, तब उस सर्षपके पौधे की पंक्ति के अनुसार उस गौतम निमित्तज्ञने अन्य कोइ राजा को उस पल्लि में प्रवेश कराकर संपूर्ण पल्लि को लुटकर जला दी... और गौतम निमित्तज्ञने भी उस वख्त वल्गुमती का पेट (उदर) फाडकर मूर्छित जीवित देहवाली उस वल्गुमती के उपर सो गया... इस प्रकार जो गौतम का सोना (रहना) वह सचित्त द्रव्यशय्या है... अब भावशय्या का स्वरूप कहतें हैं... भावशय्या के दो प्रकार है... 1. काय विषयक, एवं 2. षड्भावविषयक... उनमें षड्भाववाली शय्या इस प्रकार है कि- जो जीव औदयिक आदि सन्निपात पर्यंत के छह (6) भावों मे जिस समय कहता है वह षड्भावभावशय्या... क्योंकिजहां रहा जाय- शयन कीया जाय वह भावशय्या... तथा स्त्रीआदि के शरीर में गर्भ स्वरूप जो जीव रहा हुआ है, उसको वह स्त्रीदेह हि भावशय्या है... क्योंकि- स्त्री आदि का शरीर सुखी हो या दुःखी हो, सोया हुआ हो या उठा (खडा-बैठा) हुआ हो तब उनके शरीर में रहा हुआ जीव भी वैसी हि अवस्था को प्राप्त करता है, अतः कायभावशय्या है... . इस संपूर्ण अध्ययन का विषय शय्या है... अब उद्देशार्थाधिकार कहने के लिये नियुक्तिकार आगे की गाथा कहतें हैं... . इस द्वितीय अध्ययन के तीनों उद्देशकों में शय्या संबंधि अधिकार है, फिर भी उनमें परस्पर जो विशेषता है वहा मैं संक्षेप में कहता हुं... प्रथम उद्देशक में वसति के आधाकर्मादि उद्गम दोष एवं गृहस्थ आदि के संसर्ग से होनेवाले अपाय (उपद्रव) का विचार कीया जाएगा... तथा द्वितीय उद्देशक में शौचवादीओं से होनेवाले अनेक प्रकार के दोष तथा शय्या (वसति) का विवेक एवं ऐसी वसति का त्याग कहा जाएगा... इस प्रकार यहां यह अधिकार है... Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-1-1 (398) 169 तृतीय उद्देशक में- उद्गमादि दोषों का त्याग करनेवाले यतनाशील साधु को जो कोइ छलना हो तब उसके परिहार (त्याग) में साधु सदा प्रयत्न करें... एवं पंचविध स्वाध्याय में व्याघात न हो ऐसे सम या विषमादि उपाश्रय (वसति) में कर्मो की निर्जरा हेतु साधु रहे... यह यहां अर्थाधिकार है... यहां नियुक्ति अनुगम पूर्ण हुआ, अब सूत्रानुगम में सूत्र का शुद्ध उच्चार करें... और इस सूत्र के बारेमें सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का प्रथम सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 1 // // 398 // से भिक्खू वा अभिकंखिज्जा उवस्सयं एसित्तए अणुपविसित्ता गाम वा जाव रायहाणिं वा से जं पुण-उवस्सयं जाणिज्जा - सअंडं जाव ससंताणयं, पहप्पगारे उवस्सए नो ठाणं वा सिज्जं वा निसीहियं वा चेइज्जा। से भिक्खू वा से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा, अप्पंडं जाव अप्पसंताणयं, तहप्पगारे उवस्सए पडिलेहित्ता पमज्जित्ता तओ संजयामेव ठाणं वा, चेइज्जा। से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा, अस्सिं पडियाए एणं साहम्मियं समुद्दिस्स पाणाई, समारम्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छिज्जं अनिसटुं अभिहडं आहट्ट चेएड, तहप्पगारे उवस्सए पुरिसंतरकडे वा जाव अणासेविए वा नो ठाणं वा चेइज्जा। एवं बहवे साहम्मिया एणं साहम्मिणिं बहवे साहम्मिणीओ। से भिक्खू वा० से जं पुण उ0 बहवे समणवणीमए पगणिय समुद्दिस्स तं चेव भाणियव्वं से भिक्खू वा० से जंo बहवे समण समुदिस्स पाणाई, जाव चेएति, तहप्पगारे उवस्सए अपुरिसंतरकडे जाव अणासेविए नो ठाणं वा चेइज्जा। अह पुणेवं जाणिज्जा पुरिसंतरकडे जाव अणासेविए नो ठाणं वा सेज्जं वा निसीहिं वा चेइज्जा, अह पुण एवं जाणिज्जा पुरिसंतकडे जाव आसेविए पडिलेहित्ता तओ चेइज्जा || 398 // II संस्कृत-छाया : ... सः भिक्षुः वा अभिकाङ्क्षत उपाश्रयं एषितुं, अनुप्रविश्य ग्रामं वा यावत् राजधानी वा, सः यत् पुन: उपाश्रयं जानीयात् सअण्डं यावत् ससन्तानकं, तथाप्रकारे उपाश्रये न स्थानं वा शय्यां वा निषीधिकां वा चेतयेत्। सः भिक्षुः वा सः यत् पुन: उपाश्रयं जानीयात् अल्पाऽण्डं यावत् अल्पसन्तानकं, तथाप्रकारे उपाश्रये प्रतिलिख्य प्रमृज्य ततः संयत एव स्थानं वा चेतयेत्। सः यत् पुन: उपाश्रयं जानीयात् एतया प्रतिज्ञया एकं साधर्मिकं उद्दिश्य प्राणिनः, समारभ्य, समुद्दिश्य क्रीतं प्रामीत्यं आच्छेद्यं अनिसृष्टं अभ्याहृतं आहत्य चेतयति, तथाप्रकारे उपाश्रये पुरुषान्तरकृते वा यावत् अनासेविते वा न स्थानं वा चेतयेत् / एवं Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 2-1-2-1-1 (398) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन बह-साधर्मिकान् एकां साधर्मिकां बहू: साधर्मिकाः / सः भिक्षुः वा० स: यत् पुन: उपा० बहून् श्रमण-वनीपकान् प्रगणय्य, समुद्दिश्य तच्चैव भणितव्यम् / सः भिक्षुः वा० सः यत् बहून् श्रमण उद्दिश्य प्राणिनः, यावत् चेतयति, तथाप्रकारे उपाश्रये अपुरुषान्तरकृते यावत् अनासेविते न स्थानं वा चेतयेत् / अथ पुनः एवं जानीयात्, पुरुषान्तरकृतं यावत् सेवितं, प्रतिलिख्य ततः संयत एव चेतयेत्। स: भिक्षुः वा सः यत् पुन: असंयत: भिक्षुप्रतिज्ञया कटकित: वा उत्कम्बित: वा छन्न: वा लिप्त: वा घृष्टः वा मृष्टः वा संप्रधूपितः वा तथाप्रकारे उपाश्रये अपुरुषान्तरकृते यावत् अनासेविते न स्थानं वा शय्यां वा निषेधिकां वा घेतयेत् / अथ पुन: एवं जानीयात् पुरुषान्तरकृतः यावत् आसेवितः प्रतिलिख्य ततः चेतयेत् // 398 // III सूत्रार्थ : वह साधु वा साध्वी उपाश्रय की गवेषणा के लिए व्याम यावत् राजधानी में जाकर उपाश्रय को जाने जो उपाश्रय अण्डों से यावत् मकड़ी आदि के जालों से युक्त है तो उसमें वह कायोत्सर्ग संस्तारक (संथारा) और स्वाध्याय न करे। वह साधु या साध्वी जिस उपाश्रय को अण्डों और मकड़ी के जाले आदि से रहित जाने, उसे प्रतिलेखित और प्रमाजित करके उसमें कायोत्सर्गादि करे। जो उपाश्रय एक साधर्मी के उद्देश्य से प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वादिका समारम्भ करके, मोल लेकर, उधार लेकर, किसी निर्बल से छीन कर, यदि सर्व साधारण का है तो किसी एक की भी बिना आज्ञा लिए साधु को देता है तो इस प्रकार का उपाश्रय पुरुषान्तरकृत हो अथवा अपुरुषान्तरकृत, एवं सेवित हो या अनासेवित, उसमें साधु कायोत्सर्ग आदि कार्य न करे। इसी प्रकार जो बहुत से साधर्मियों के लिए बनाया गया हो तथा एक साधर्मिणी या बहुत सी साधर्मिणियों के लिए बनाया गया है उसमे भी स्थानादि कायोत्सर्गादि न करे। और जो उपाश्रय बहुत से श्रमणों तथा भिक्षुकों के लिए बनाया गया हो उसमें भी स्थान आदि न करे। _____ जो उपाश्रय शाक्यादि भिक्षुओं के निमित्त षट्काय का समारम्भ करके बनाया गया है, जब तक वह अपुरुषान्तरकृत यावत् अनासेवित है तब तक उसमें स्थानादि-कायोत्सर्गादि न करे, और यदि वह पुरुषान्तरकृत या आसेवित है तो उसका प्रतिलेखन करके यत्नापूर्वक वहां स्थानादि कार्य कर सकता है। जो उपाश्रय गृहस्थ ने साधु के लिए बनाया हुआ है उसका काष्ठादि से संस्कार किया है, बांस आदि से बान्धा है तृणादि से आच्छादित किया है गोबरादि से लिंपा है; सवारा है तथा ऊंची नीची भूमि को समतल बनाया है, सुकोमल बनाया है और दुर्गन्धादि को दूर करने के Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-1-1 (398) 171 लिए सुगन्धित द्रव्यों से सुवासित किया है तो इस प्रकार का उपाश्रय जब तक अपुरुषान्तरकृत या अनासेवित है, तब तक उस में नहीं ठहरना चाहिए, और यदि वह पुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित हो गया हो तो उस का प्रतिलेखन करके उस में स्थानादि कार्य कर सकता है, अर्थात् कायोत्सर्ग, संथारा और स्वाध्याय आदि कर सकता है। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. वसति याने उपाश्रय की एषणा करना चाहे, तो गांव आदि में प्रवेश करें, वहां प्रवेश करके साधु को रहने के लिये योग्य वसति-उपाश्रय की शोध करे... यदि वहां जीवजंतु के अंडेवाला उपाश्रय हो, तो वहां स्थानादि न करें स्थान याने खडे खडे कायोत्सर्ग... शय्या याने संस्तारक (संथारो) निषीधिका याने स्वाध्यायभूमि... इत्यादि न करें... यदि इससे विपरीत याने जीव-जंतु रहित उपाश्रय हो तो प्रतिलेखन करके स्थानादि करे। अब उपाश्रय के विषय में रहे हुए उद्गमादि दोषों को कहतें हैं... वह भाव-साधु जब जाने कि- यह उपाश्रय कीस श्रद्धावाले श्रावक (गृहस्थ) ने साधुओं के लिये त्रस एवं स्थावर जीवों को पीडा पहुंचाकर बनाया है... जैसे कि- जिनेश्वर ने कहे हुए धर्मानुष्ठान का आचरण करनेवाले किसी एक साध के लिये त्रस एवं स्थावर जीवों का मर्दन करके बनाया गय तथा उसी साधु के लिये मूल्य से खरीद करके, अन्य से उच्छीना मांगकर के, या नौकर चाकर आदि से बल पूर्वक झंटकर या मकान के स्वामी या मकान के स्वामी ने अनुमति न दी हो ऐसे. य तैयार हि खरीदा गया हो, इत्यादि प्रकार से यदि गृहस्थ साधु को उपाश्रय दे, तब तथाप्रकार के पुरुषांतरकृतादि उपाश्रय में साधु स्थानादि न करे... इसी प्रकार बहुवचनसूत्र याने अनेक साधुओं के लिये... इत्यादि जानीयेगा... इसी प्रकार साध्वीजी. म. के विषय में भी एकवचन एवं बहुवचन के विषय में भी स्वयं जानीयेगा... किंतु यह दोनों सूत्र पिंडैषणा के अनुसार जानीयेगा... सुगम होने के कारण से यहां पुनः नहि कहतें हैं... ____ तथा वह साधु यदि ऐसा जाने कि- यह उपाश्रय असंयत (गृहस्थ) ने साधुओं के लिये बनाया है... वह इस प्रकार - काष्ठ (लकडी) आदि से दिवार... आदि बनाइ हो, वंश आदि की कंबा आदि से बांधा हो, दर्भ (तृण-घास) आदि से ढांका हो, गोमय (गोबर) आदि से लिंपा हो, खडी मिट्टी आदि से पोता हो, तथा लेपनिका आदि से समतल कीया हो, भूमिकर्मादि से संस्कारित कीया हो; दुर्गध को दूर करने के लिये धूप आदि से धूपित कीया हो, तो इस प्रकार के अन्य पुरुष ने स्वीकार नहि हुए एवं नहि वापरे हुए उपाश्रय (मकान) में साधु स्थानादि न करें... किंतु यदि अन्य पुरुष ने अपने आपके लिये ग्रहण कीया हो यावत् निवास किया हो तो प्रतिलेखन करके साधु स्थान, शय्या, निषद्यादि करे... Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 2-1-2-1-1 (398) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- गांव या शहर में ठहरने के इच्छुक साधु-साध्वी को उपाश्रय (ठहरने के स्थान) की गवेषणा करनी चाहिए। उसे देखना चाहिए कि उस स्थान में अण्डे एवं मकड़ी के जाले आदि न हो और बीज एवं अनाज के दाने बिखरे हुए न हों। क्योंकि अण्डे, बीज एवं सब्जी आदि से युक्त मकान में ठहरने से उनकी विराधना होने की सम्भावना है। अतः साधु को ऐसे मकान की गवेषणा करनी चाहिए कि जिसमें संयम की विराधना न हो। यदि किसी मकान में चींटी आदि क्षुद्र जन्तु हो तो उस मकान का प्रमार्जन करके उन स जीवों को एकान्त में छोड़ दे। इस तरह साधु ऐसे मकान में ठहरे जिसमें किसी भी प्राणी की विराधना (हिंसा) न हो। स्थान की गवेषणा करते समय क्षुद्र प्राणियों से रहित स्थान के साथ-साथ यह भी देखना चाहिए कि वह स्थान साधु के उद्देश्य से न बनाया गया हो, साधु के लिए किसी निर्बल व्यक्ति से छीन कर न लिया गया हो, अनेक व्यक्तियों के सांझे का न हो यदि वह उपरोक्त दोषों से युक्त है तो वह स्थान चाहे गृहस्थों ने अपने काम में लिया हो या न लिया हो, चाहे उसमें गृहस्थ ठहरे हों या न ठहरे हों, साधु के लिए अकल्पनीय है, साधु उस स्थान में न ठहरे। सांझे के मकान के विषय में इतना अवश्य है कि वह मकान साधु के लिए नहीं बनाया गया है और जिन व्यक्तियों का उस पर अधिकार है वे सब व्यक्ति इस बात में सहमत हैं कि साधु उक्त मकान में ठहरें तो साधु उस मकान में ठहर सकते हैं। यदि उन में से एक भी व्यक्ति यह नहीं चाहता कि साधु उक्त मकान में ठहरें तो साधु को उस मकान में नहीं ठहरना चाहिए। __ यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि क्या मकान भी सामने लाकर दिया जाता है ? इसका समाधान यह है कि तम्बू आदि सामने लाकर खड़े किए जा सकते हैं। लकड़ी के बने हुए मकान भी एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाए जा सकते हैं। और आजकल तो ऐसे मकान भी बनने लगे हैं कि उन्हें स्थानान्तर किया जा सकता है। इससे स्पष्ट होता है कि साधु के निमित्त 6 काय की हिंसा करके जो मकान बनाया गया है, साधु को उस मकान में नहीं ठहरना चाहिए। और जो मकान साधु के लिए नहीं बनाया गया है, परन्तु उसमें साधु के निमित्त फर्श आदि को लीपा-पोता गया है या उसमें सफेदी आदि कराई गई है, तो साधु को उस मकान में तब तक नहीं ठहरना चाहिए जब तक वह पुरुषान्तर नहीं हो गया है। इसी तरह जो मकान अन्य श्रमणों के लिए या अन्य व्यक्तियों के ठहरने Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-1-2 (399) 173 के लिए बनाया गया है- जैसे कि- धर्मशाला आदि। ऐसे स्थानो में उनके ठहरने के पश्चात् पुरुषान्तर होने पर साधु ठहर सकता है। इसी बात को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 2 // // 399 // . ___ से भिक्खू वा० से जं० पुण उवस्सयं जा अस्संजए भिक्खुपडियाए खुडियाओ दुवारियाओ महल्लियाओ कुज्जा, जहा पिंडेसणाए जाव संथारगं संथारिज्जा, बहिया वा निन्नक्खू, तहप्पगारे उवस्सए अपु० नो ठाणं, अह पुणेवं पुरिसंतरकडे आसेविए पडिलेहित्ता, तओ संजयामेव जाव चेइज्जा। से भिक्खू वा० से जं0 अस्संजए भिक्खुपडियाए उदग्गप्पसूयाणि कंदाणि वा मूलाणि वा पत्ताणि वा पुप्फाणि वा फलाणि वा बीयाणि वा हरियाणि वा ठाणाओ ठाणं साहरड़, बहिया वा निन्नक्खू, तह० अपुरि० नो ठाणं वा चेइज्जा, अह पुण० पुरिसंतरकडं चेइज्जा। . से भिक्खू वा से जं. अस्संज० भि० पीठं वा फलगं वा निस्सेणिं वा उदूखलं वा ठाणाओ ठाणं साहरइ, बहिया वा निन्नक्खू, तहप्पगारे उ० अपु० नो ठाणं वा चेइज्जा, अह पुण० पुरिसं० चेइज्जा // 399 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० स: यत् पुन: उपाश्रयं जाव असंयतः भिक्षुप्रतिज्ञया लघु द्वारं महत् कुर्यात्, यथा पिण्डैषणा यावत् संस्तारकं संस्तरेत् बहिः वा निस्सारयेत्, तथाप्रकारे उपाश्रये अपु० न स्थान अथ पुनः एवं पुरुषान्तरकृतं आसेवितं प्रतिलिख्य तत: संयत एव यावत् चेतयेत्। स: भिक्षुः वा० स: यत् असंयत: भिक्षुप्रतिज्ञया उदग्रप्रसूतानि कन्दानि वा मूलानि वा पत्राणि वा पुष्पाणि वा फलानि वा बीजानि वा हरितानि वा स्थानात् स्थानं आहरति बहिः वा नि:सारयति, तथा० अपु० न स्थानं वा चेतयेत्, अथ पुनः पुरुषा० चेतयेत् / स: भिक्षुः वा सः यत् असंयत: भिक्षु० पीठं वा फलकं वा निःश्रेणिं वा उदूखलं वा स्थानात् स्थानं आहरति बहिः वा नि:सारयति, तथाप्रकारे उपा० अपु० न स्थानं वा चेतयेत्, अथ पुनः पुरुषा० चेतयेत् // 399 // Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 2-1-2-1-2 (399) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन III सूत्रार्थ : वह साधु या साध्वी उपाश्रय के विषय में यह जाने कि गृहस्थ ने साधु के लिए उपाश्रय के छोटे द्वार को बडा बनाया है या बडे द्वार को छोटा कर दिया है, तथा भीतर से कोई पदार्थ बाहर निकाल दिया है तो इस प्रकार के उपाश्रय में जब तक वह अपुरुषान्तरकृत एवं अनासेवित है तब तक वहां कायोत्सर्गादि न करे, और यदि वह पुरुषान्तरकृत अथवा आसेवित हो गया है, तो उसमें स्थानादि कर सकता है। ___ इसी प्रकार यदि कोई गृहस्थ साधु के लिए उदक से उत्पन्न होने वाले कन्द मूल, पत्र, पुष्प, फल, बीज और हरी का एक स्थान से स्थानान्तर में संक्रमण करता है, या भीतर से किसी पदार्थ को बाहर निकालता है, तो इस प्रकार का उपाश्रय भी अपुरुषान्तरकृत और अनासेवित हो तो साधु के लिए अकल्पनीय है। और यदि पुरुषान्तरकृत अथवा आसेवित है तो उसमें वह कायोत्सर्गादि कर सकता है। इसी भांति यदि गृहस्थ साधु के लिए पीढ (चौकी) फलक और ऊखल आदि पदार्थों को एक स्थान से दूसरे स्थान में रखता है या भीतर से बाहर निकालता है, तो इस प्रकार के उपाश्रय में जो कि अपुरुषान्तरकृत और अनासेवित है तो साधु उसमें कायोत्सर्ग आदि कार्य न करे, और यदि वह पुरुषान्तरकृत अथवा आसेवित हो चुका है तो उसमें वह कायोत्सर्गादि क्रियाएं कर सकता है। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. जब ऐसा जाने कि- यह उपाश्रय असंयत ऐसे गृहस्थ ने साधुओं के लिये जो लघु द्वारावाला था वह बडे द्वारवाला कीया है... तब ऐसे अन्य पुरुषों ने नहि ग्रहण कीये हुए उपाश्रय में स्थानादि न करें... किंतु यदि अन्य पुरुष ने उस मकान को ग्रहण कीया हो एवं उपयोग में लिया हो तब स्थानादि करें... यहां इन दोनों सूत्र में उत्तरगुण कहे गये हैं... अतः ऐसे दोषवाला होने पर भी यदि अन्य पुरुष ने ग्रहण कीया हो तो स्थान शय्या निषद्यादि करना कल्पता है... और यदि वह उपाश्रय मूलगुण के दोषवाला हो तब अन्य पुरुष ने ग्रहण कीया हो तो भी स्थानादि करना कल्पता नहि है... मूलगुण के दोष इस प्रकार हैं... पृष्ठवंशादि से साधुओं के लिये बनाये हुओ उपाश्रय में वसति = निवास करने पर मूलगुण में दोष लगता है... वह साधु या साध्वीजी म. जब ऐसा जाने कि- यह उपाश्रय गृहस्थ ने साधुओं के लिये बनाते वख्त पानी में उगे हुए कंद आदि को स्थानांतर में संक्रमित कीया है..या उखेडकर बाहार निकाल दीया है, तब ऐसे प्रकार के एवं अन्य पुरुष ने ग्रहण न कीये हो तो. वहां साधु Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-1-3 (400) 175 स्थान, शय्या, निषद्यादि न करें, यदि अन्य पुरुष ने ग्रहण कीया हो तो साधु स्थानादि करे... ___ इसी प्रकार अचित्तनिःसारणसूत्र को भी जानीयेगा... यहां अस आदि जीवों की विराधना का दोष लगता है, यह यहां भाव है... सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि- यदि किसी गृहस्थ ने साधु के निमित्त उपाश्रय के दरवाजे छोटे-बड़े किए है, या कन्द, मूल, वनस्पति आदि को हटाकर या कांट-छांट कर उपाश्रय को ठहरने योग्य बनाया है तथा उसमें स्थित तख्त आदि को भीतर से बाहर या बाहर से भीतर रखा है और इस तरह की क्रियाएं करने के बाद उस उपाश्रय में गृहस्थ ने निवास किया हो या अपने सामायिक संवर आदि धार्मिक क्रियाएं करने के काम में लिया हो तो साधु उस मकान में ठहर सकता है। इससे स्पष्ट होता है कि जो मकान मूल से साधु के लिए बनाया हो, उस मकान में साधु किसी भी स्थिति-परिस्थिति में नहीं ठहर सकता। परन्तु, जो स्थान मूल से साधु के लिए नहीं बनाया गया है, केवल उसकी मुरम्मत की गई है या उसके कमरों या दरवाजों आदि को छोटाई-बड़ाई में कुछ परिवर्तन किया गया है या उसका अभिनव संस्कार किया गया है तो वह पुरुषान्तर होने के बाद साधु के लिए कल्पनीय है। . इसी बात को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 3 // // 400 // से भिक्खू वा० से जं० तं जहा- खंधंसि वा मंचंसि वा मालंसि वा पासायंसि वा हम्मंसि वा अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि अंतलिक्खजायंसि, नन्नत्थ आगाढानागाढेहिं कारणेहिं वा नो चेइज्जा / से आहच्च वा पहोइज्ज वा, नो तत्थ ऊसढं पकरेज्जा, तं जहा- उच्चारं वा पासवणं वा खेलं वा सिंघाणं वा वंतं वा पित्तं वा पूर्व वा सोणियं वा अण्णयरं वा सरीरावयवं वा, केवली बूया-आयाणमेयं, से तत्थ ऊसढं पगरेमाणे पयलिज्ज वा से तत्थ पयलमाणे वा पवडमाणे वा हत्थं वा जाव सीसं वा अण्णयरं वा कायंसि इंदियजालं लूसिज्जा वा पाणि अभिहणिज्ज वा जाव ववरोविज्ज वा, अथ भिक्खूणं पुटवोवट्ठा, जं तहप्पगारं उवस्सए अंतलियखजाए न ठाणंसि वा, घेइज्जा / / 400 // II. संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० सः यत् तद्-यथा-स्कन्धे वा मधे वा माले वा प्रासादे वा हर्ये Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 2-1-2-1-3 (400) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन वा अन्यतरे वा तथाप्रकारे अन्तरिक्षजाते, न अन्यत्र आगाढाऽनागालैः कारणैः स्थान वा न चेतयत् / सः आहृत्य वा प्रहृत्य वा, न तत्र उत्सृष्टं प्रकुर्यात्, तद् यथा-उच्चारं वा प्रस्त्रवणं वा खेलं वा सिवानकं वा वान्तं वा पित्तं वा पूतं वा शोणितं वा अन्यतरं वा शरीरावयवं वा, केवली ब्रूयात्-आदानमेतत्, सः तत्र त्यागे प्रकुर्वन् प्रचलेत् वा सः तत्र प्रपलन् वा प्रपतन् वा हस्तं वा यावत् शीर्ष वा अन्यतरं वा काये इन्द्रियजालं विनाशयेत् वा, प्राणिनः, अभिहन्यात् वा जाव ववरोविज्ज वा, अह भिक्खूणं पुटवोवट्ठा, जं तहप्पगारं उवस्सए अंतलिक्खजाए नो ठाणंसि वा चेतयेत् // 400 // III सूत्रार्थ : वह साधु या साध्वी उपाश्रय को जाने, जैसे कि- जो उपाश्रय एक स्तम्भ पर है, मंच पर है, माले पर हे, प्रासाद पर-दूसरी मंजिल पर या महल पर बना हुआ है, तथा इसी प्रकार के अन्य किसी ऊंचे स्थान पर स्थित है तो किसी असाधारण कारण के बिना, उक्त प्रकार के उपाश्रय में स्थानादि न करे। यदि कभी विशेष कारण से उसमें ठहरना पड़े तो वहां पर प्रासुक शीतल या उष्ण जल से, हाथ, पैर, आंख, दान्त और मुख आदि का एक या एक से अधिक बार प्रक्षालन न करे। वहां पर मल आदि का उत्सर्जन न करे यथा-उच्चार (विष्ठा) प्रस्त्रवण (मूत्र) मुख का मल, नाक का मल, वमन, पित्त, पूय, और रुधिर तथा शरीर के अन्य किसी अवयव के मल का वहां त्याग न करे। क्योंकि केवली भगवान ने इसे कर्म आने का मार्ग कहा है। यदि वह मलादि का उत्सर्ग करता हुआ फिसल पड़े या गिर पड़े, तो उसके फिसलने या गिरने पर उसके हाथ-पैर, मस्तक एवं शरीर के किसी भी भाग में चोट लग सकती है और उसके गिरने से स्थावर एवं त्रस प्राणियों का भी विनाश हो सकता है। अतः भिक्षुओं के लिए तीर्थकरादि का पहले ही यह उपदेश है कि इस प्रकार के उपाश्रय में जो कि अन्तरिक्ष में अवस्थित हैं, साधु कायोत्सर्गादि न करे और न वहां ठहरे। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. जब ऐसा जाने कि- यह उपाश्रय एक थंभे के उपर हि रहा हुआ है, या मंच के उपर, या प्रासाद याने दो मंजिलवाला महल, या हऱ्यातल याने भूमीगृह... या अन्य ऐसे प्रकार के वसति-उपाश्रय में स्थान शय्या निषधा आदि न करें, हां यदि ऐसे कोई विशेष प्रयोजन न हो तब / यदि पूर्व कहे गये स्वरुपवाला उपाश्रय हो एवं तथा प्रकार के कोई विशेष प्रयोजन हो तो ऐसे उपाश्रय को ग्रहण करके वहां उपाश्रयमें शीतजल आदि से हाथ न धोयें, तथा वहां मल आदि अशुचि विसर्जन न करें, क्योंकि- केवलज्ञानी प्रभु कहतें हैं किउपाश्रय में ऐसा अनुचित करने से आदान याने आत्म एवं संयम की विराधना से कर्मबंध का कारण होता है। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-1-3 (400) 177 जैसे कि- वहां उपाश्रय में मल-मूत्र आदिका त्याग करने से वहां पांउ फिसलने से गिरना होता है, इस स्थिति में शरीर के कोई भी अवयव एवं आंख आदि इंद्रियों का विनाश होता है... और अस एवं स्थावर जीवों को आघात लगे यावत् प्राण त्याग स्वरुप मरण भी हो शकता है... अतः साधुओं की पूर्व कही गइ यह प्रतिज्ञा है कि- तथाप्रकार के अंतरिक्षवाले उपाश्रय में स्थान-शय्या-निषद्यादि न करें... v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में उपाश्रय के विषम स्थान में रहने का निषेध किया गया है। जो उपाश्रय एक स्तम्भ या मंच पर स्थित हो और उसके ऊपर निःश्रेणी (लकड़ी की सीढ़ी) लगाकर चढ़ना पड़े, तो ऐसे स्थानों में किसी विशेष कारण के बिना नहीं ठहरना चाहिए। क्योंकि उस पर चढ़ने के लिए निःश्रेणी लाने (लगाने) की व्यवस्था करनी होगी और उस पर से गिरने से शरीर पर चोट लगने या अन्य प्राणियों की हिंसा होने की संभावना रहती है। अतः जहां इस तरह के अनिष्ट की संभावना हो ऐसे विषम स्थानों में नहीं ठहरना चाहिए। प्रस्तुत सूत्र में अन्तरिक्षजात स्थानों में जो ठहरने का निषेध किया गया है, वह स्थान की विषमता के कारण किया गया है। यदि किसी उपाश्रय में ऊपर बने हए आवासस्थल पर पहुंचने के लिए सुगम रास्ता है, उसमें गिरने आदि का कोई भय नहीं है और ऊपर छत इतनी मजबूत है कि चलने-फिरने से हिलती नहीं है या ऊपर से मिट्टी आदि नहीं गिरती है तो ऐसे स्थानों में ठहरने का निषेध नहीं किया गया है। आगम में यत्र-तत्र विषम स्थानों पर ठहरने या ऐसे विषम स्थानों पर रखी हुई वस्तु यदि कोई गृहस्थ उतार कर देवे तो साधु को ग्रहण करने का निषेध किया गया है। इसी तरह जो उपाश्रय दुर्बद्ध (विषम स्थान पर स्थित) है, तो वहां साधु को नहीं ठहरना चाहिए। परन्तु, जिस उपाश्रय में ऊपर पहुंचने का मार्ग सुगम है और उसमें किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं होती हो तो ऐसे स्थान में साधु को ठहरने का निषेध नहीं किया गया है। . इसी तरह ऊपर की छत पर जो हाथ-पैर धोने आदि का निषेध किया है उसमें भी यही दृष्टि रही हुई है। यदि विषम स्थान नहीं है तो साधु उस पर आ-जा सकता है तथा दन्त आदि प्रक्षालन करने का जो निषेध किया है वह विभूषा की दृष्टि से किया गया है, न कि कारण विशेष की दृष्टि से। छेद सूत्रों में स्पष्ट कहा गया है कि जो साधु विभूषा, के लिए दान्तों का प्रक्षालन करते हैं उन्हें प्रायश्चित आता है। किंतु कारण विशेष से उपाश्रय में स्थित ऊपर के ऐसे स्थानों में जिन पर पहुंचने का मार्ग सुगम है, वहां ठहरने आदि का निषेध नहीं है। - उपाश्रय के विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 2-1-2-1-4 (401) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन I सूत्र // 4 // // 401 // से भिक्खू वा० से जं० सइत्थियं सखुड्डं सपसुभत्तपाणं तहप्पगारे सागारिए उवस्सए नो ठाणं वा चेइज्जा / आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावइकु लेण सद्धिं संवसमाणस्स अलसगे वा विसूइया वा छड्डी वा उव्वाहिज्जा अण्णयरे वा। से दुक्खे रोगायंके समुपज्जिज्जा, अस्संजए कलुणपडियाए तं भिक्खुस्स गायं तिल्लेण वा घएण वा नवनीएण वा वसाए वा अब्भंगिज्ज वा मक्खिज्ज वा सिणाणेण वा कक्केण वा लुद्धेण वा वण्णेण वा चुण्णेण वा पउमेण वा आघंसिज्ज वा पघंसिज्ज वा उव्वलिज्ज वा उव्वट्टिज्ज वा सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलिज्ज वा पक्खालिज्जा वा सिणाविज्ज वा सिंचिज्ज वा दारुणा वा दारुपरिणामं कट्ट अगणिकायं उज्जालिज्ज वा पज्जालिज्ज वा उज्जालित्ता कायं आयाविज्जा वा प० / अह भिक्खूणं पुव्वोवइट्ठा० जं तहप्पगारे सागारिए उवस्सए नो ठाणं वा, चेइज्जा || 401 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० स: यत् सस्त्रीकं सक्षुल्लं (सबालं) सपशुभक्तपानं तथाप्रकारे सागारिके उपाश्रये न स्थानं वा चेतयेत् / आदानमेतत्, भिक्षोः गृहपतिकुलेन सार्द्ध संवसतः अलशकं वा विशुचिका वा छर्दी वा उद्बाधेरन्, अन्यतरत् वा दुःखं रोगातङ्क समुत्पद्येत, असंयत: करुणप्रतिज्ञया तत् भिक्षोः गात्रं तैलेन वा घृतेन वा नवनीतेन वा वसया वा अभ्यङ्ग्यात् वा प्रक्षयेत् वा स्वानेन वा कल्केन वा लोध्रेण वा चूर्णेन वा पोन वा आघर्षयेत् वा प्रघर्षयेत् वा उद्वलेत् वा उद्वर्तयेत् वा शीतोदकविकटेन वा उष्णोदकविकटेन वा उत्क्षालयेत् वा प्रक्षालयेत् वा स्नापयेत् वा सिचेत् वा दारुणा वा दारुपरिणामं कृत्वा अग्निकायं उज्ज्वालयेत् वा प्रज्वालयेत् वा उज्ज्वालयित्वा कायं आतापयेत् वा प्रतापयेत् वा। अथ साधूनां पूर्वोपदिष्टा० यत् तथाप्रकारे सागारिके उपाश्रये न स्थानं वा चेतयेत् // 401 // III सूत्रार्थ : जो उपाश्रय स्त्री, बालक और पशु तथा उनके खाने योग्य पदार्थों से युक्त है तो इस प्रकार के गृहस्थादि से युक्त उपाश्रय में साधु-साध्वी न ठहरे। क्योंकि ऐसा उपाश्रय कर्म आने का मार्ग है। भिक्ष का गृहस्थ के कुटुम्ब के साथ बसते हुए कदाचित् शरीर का स्तम सूजन हो जाए या विसूचिका, वमन, ज्वर या शूलादि रोग उत्पन्न हो जाये, तो वह गृहस्थ करुणाभाव से प्रेरित होकर साधु के शरीर का तेल से, घी से, नवनीत (मक्खन) से और Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-1-4 (401) 179 बसा से मालिश करेगा। और फिर उसे प्रासुक शीतल या उष्ण जल से स्नान कराएगा या लोध्र से, चूर्ण से तथा पद्म से एक अथवा अनेक बार उसके शरीर को घर्षित करेगा, तथा शरीर की स्निग्धता को उबटन आदि से दूर करेगा। उस मैल को साफ करने के लिए उसके शरीर का प्रासुक शीतल या उष्ण जल से प्रक्षालन करेगा। उसके मस्तक को धोएगा या उसे जल से सिंचित करेगा, अथवा अरणी के काष्ठ को परस्पर रगड़ कर अग्नि प्रज्वलित करेगा और उससे साधु के शरीर को गर्म करेगा। इस तरह गृहस्थ के परिवार के साथ उसके घर में ठहरने से अनेक दोष लगने की संभावना देखकर भगवान ने ऐसे स्थान पर ठहरने का निषेध किया है। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. जब ऐसा जाने कि- इस उपाश्रय में स्त्रीजन रहे हुए हैं तथा अथवा क्षुद्र ऐसे सिंह, कुत्ता, बिल्ली इत्यादि रहे हुए हैं... तथा पशुओं के आहार-पानी रहे हुए हैं... अथवा गृहस्थों से भरे हुए उपाश्रय में साधु स्थान शय्या निषद्यादि न करें... क्योंकि- ऐसे उपाश्रय में रहने से कर्मो का बंधन होता है... तथा गृहस्थ के कुटुंब के साथ रहनेवाले साधु को कर्मबंधनादि अनेक दोष लगतें हैं.. तथा गृहस्थों के वहां रहने से वे साधु लोग भोजनादि क्रिया निःशंक नहि कर शकतें... अथवा तो कोइ रोग-व्याधि उत्पन्न हो... जैसे कि- अलशक याने हाथ-पैर आदि का स्तंभित होना अथवा हाथ-पाउं में सोजे आ जाना, विशूचिका तथा सरदी इत्यादि पीडाएं उस साधु को पीडा करे, अथवा अन्य कोइ ज्वरादि रोग या तत्काल प्राण जाय ऐसा शूल देह में उत्पन्न हो... इस स्थिति में साधु को रोगादि से पीडित देखकर कोइ गृहस्थ करुणाभाव से या पूज्य-भक्ति से उस साधु के शरीर को तैल, घी, मक्खन आदि से मसले और बाद में स्नान याने सुगंधिद्रव्य, कल्क याने कषायद्रव्य का कवाथ, लोध्र और वर्णक याने कंपिल्लकादि, यव आदि के चूर्ण, तथा पद्मक इत्यादि पदार्थों से एक बार या बार बार देह को घसे, घीसने के बाद तैलादि के अभ्यंग को दूर करने के लिये उदवर्तन करे और उसके बाद शीतजल से या गरम जलसे देह की शुद्धि करे या पुरे शरीर का स्नान करे... तथा लकडी से लकडी का घर्षण करके अग्नि उत्पन्न करे और प्रज्वलित करके साधु के शरीर को एक बार या बार बार सेक दे... इस कारण से साधुओं को पूर्व कही गइ प्रतिज्ञाएं है कि- इस प्रकार के उपाश्रय में साधु स्थान, शय्या, निषधादि न करे... .V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु-साध्वी को ऐसे मकान में नहीं ठहरना चाहिए जिसमें गृहस्थ सपरिवार रहता हो और अपने परिवार एवं पशुओं के पोषण के लिए सब तरह के सुख-साधन एवं भोगोपभोग की सामग्री रखी हो। क्योंकि, गृहस्थ के साथ ऐसे मकान Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 2-1-2-1-5 (402) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन में ठहरने पर यदि कभी वह बीमार हो गया तो वह अनुरागी गृहस्थ अनेक तरह की सावध एवं निरवद्य औषधियों से, तेल आदि के लेपन से या अग्नि जलाकर उसके शरीर को तपाकर उसे व्याधि से मुक्त करने का प्रयत्न करेगा तब साधु को निषेध करना होगा। यदि वह प्रतिकार नहीं करेगा तो उसके संयम का नाश होगा। इसलिए साधु को ऐसे स्थान में नहीं ठहरना चाहिए, जिससे उसके महाव्रतों में किसी तरह का दोष लगे। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त ‘वसा' शब्द का अर्थ चर्बी नहीं, किन्तु स्निग्ध (चिकनाहट से युक्त) औषधि विशेष है। और ‘पसुभत्तपाणं' का अर्थ है- पशुओं के काम में आनेवाले खाद्य पदार्थ। 'सखुड्डं' (क्षुद्र) शब्द से कुत्ता, बिल्ली आदि पशुओं का एवं पशु शब्द से गाय भैंस आदि पशुओं का ग्रहण किया गया है। यह स्पष्ट है कि बीमार साधु को देखकर गृहस्थ के मन में दयाभाव विशेष रूप से जागृत होता है। इसलिए साधु को गृहस्थ के परिवार के साथ नहीं ठहरना चाहिए। इससे और भी अनेक दोष लगने की संभावना है। स्त्री आदि के साथ अधिक परिचय रहने से ब्रह्मचर्य में भी शिथिलता आ सकती है। यही कारण है कि आगम में साधु को स्त्री, पशु और नपुंसक युक्त मकान में और साध्वी को पुरुष, पशु और नपुंसक सहित मकान में रहने का निषेध किया गया है और इनसे रहित मकान में रहने वाले साधु को ही निर्ग्रन्थ कहा गया है। यह बात अलग है कि जिस मकान में केवल पुरुष ही रहते हो तो उस मकान में साधु और जिस मकान में केवल स्त्रियें निवसित हो तो उस मकान में साध्विये ठहर सकती हैं। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... . I सूत्र // 5 // // 402 // आयाणमेयं भिक्खूस्स सागारिए उवस्सए संवसमाणस्स इह खलु गाहावई वा जाव कम्मकरी वा अण्णमण्णं अक्कोसंति वा पचंति वा रुंभंति वा उद्दविंति वा, अह भिक्खू णं उच्चावयं मणं नियंछिज्जा, एए खलु अण्णमण्णं अक्कोसंतु वा मा वा अक्कोसंतु जाव मा वा उद्दविंतु, अह भिक्खूणं पुटवल जं तहप्पगारे सा० नो ठाणं वा चेइज्जा || 402 // II संस्कृत-छाया : आदानमेतत्, भिक्षोः सागारिके उपाश्रये संवसतः इह खलु गृहपतिः वा यावत् कर्मकरी वा, अन्योऽन्यं आक्रोशन्ति वा पचन्ति वा रुन्धन्ति वा उपद्रवन्ति वा, अथ भिक्षु: उच्चावचं मनः कुर्यात्, एते खलु अन्योऽन्यं आक्रोशन्तु वा, मा वा आक्रोशन्तु, यावत् Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-1-5 (402) 181 मा वा उपद्रवन्तु, अथ भिक्षूणां पुटवोप० यत् तथाप्रकारे सागा० नो स्थानं वा घेतयेत् // 402 // III सूत्रार्थ : . गृहस्थों से युक्त उपाश्रय में निवास करना साधु के लिए कर्म बन्ध का कारण कहा है। क्योंकि उसमें गृहपति, उसकी पत्नी, पुत्रिय, पुत्रवधु, दास-दासियां आदि रहती हैं और कभी वे एक-दूसरी को मारें, बांधे या उपद्रव करें तो उन्हें ऐसा करते हुए देखकर मुनि के मन में ऊंचे-नीचे भाव आ सकते हैं। वह यह सोच सकता है कि ये परस्पर लड़े-झगड़े या लड़ाई-झगड़ा न करें आदि / इसलिए तीर्थकरों ने साधु को पहले ही यह उपदेश दिया है कि वह गृहस्थ से युक्त उपाश्रय में न ठहरे। IV टीका-अनुवाद : . - गृहस्थवाले उपाश्रय (मकान) में रहनेवाले साधु को कर्मबंध होता है, क्योंकि- ऐसे उपाश्रय में बहोत प्रकार के अपाय याने उपद्रवों की संभावना हैं... जैसे कि- गृहस्थादि गृहपति यावत् दास-दासियां परस्पर आक्रोशादि करे... तब उनके परस्पर होनेवाले आक्रोशादि को देखकर उस साधु का मन “उंचा-नीच' हो... “उंचा' याने यह लोग ऐसा आक्रोशादि न करे इत्यादि... तथा "नीचा' याने परस्पर आक्रोशादि करे इत्यादि... शेष सुगम है... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में भी परिवार से युक्त मकान में ठहरने का निषेध किया है। क्योंकि कभी पारिवारिक संघर्ष होने पर साधु के मन में भी अच्छे एवं बुरे संकल्प विकल्प आ सकते हैं। वह किसी को कहेगा कि तुम मत लड़ो और किसी को संघर्ष के लिए प्रेरित करेगा। इस तरह वह साधना के पथ से भटककर झंझटों में उलझ जाएगा। यहां प्रश्न हो सकता है कि किसी को लड़ने से रोकना तो अच्छा है, फिर यहां उसका निषेध क्यों किया गया ? इसका समाधान यह है कि परिवार के साथ रहने के कारण उसका मन तटस्थ न रहकर राग-द्वेष से युक्त हो जाता है और इस कारण वह अपने अनुरागी व्यक्ति का पक्ष लेकर विरोधी को कना चाहता है और अनरागी को भडकाता है. उसकी यह राग-द्वेष यक्त प्रवत्ति कर्म बन्ध का कारण होने से साधु के लिए इसका निषेध किया है। यदि कोई साधु तटस्थ एवं मध्यस्थ भाव से संघर्ष को शान्त करने का प्रयत्न करता है तो उसका कहीं निषेध नहीं किया गया है। भगवान महावीर ने कहा है कि साधु जनता को शान्ति का मार्ग बताए और उपदेश के 'द्वारा कलह को शान्त करने का प्रयत्न करे। प्रस्तुत प्रसंग में जो निषेध किया है, वह रागवेष युक्त भाव से किसी का पक्ष लेकर हां या ना करने का निषेध किया गया है, और इसी Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 2-1-2-1-6 (403) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन भावना को सामने रखकर साधु को परिवार युक्त मकान में ठहरने का निषेध किया गया है, जिससे वह पारिवारिक संघर्ष से अलग रहकर अपनी साधना में संलग्न रह सके। इसी बात को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... सूत्र // 6 // // 403 // आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावईहिं सद्धिं संवसमाणस्स, इह खलु गाहावई अप्पणो सयट्ठाए अगणिकायं उज्जालिज्जा वा पज्जालिज्जा वा विज्झविज्ज वा, अह भिक्खू उच्चावयं मणं नियंछिज्जा, एए अगणिकायं उ० वा. मा वा उ० पज्जालिंतु वा मा वा प० विज्झविंतु वा मा वा वि०, अह भिक्खूणं पुटवो० जं तहप्पगारे उ० नो ठाणं वा, चेइज्जा || 403 // II संस्कृत-छाया : आदनमेतत् साधोः गृहपतिआदिभिः (गृहस्थैः) (सह) सार्द्ध संवसतः, इह खलु गृहपतिः आत्मनः स्वार्थाय अग्निकायं उज्ज्वालयेत् वा प्रज्वालयेत् वा विध्यापयेत् वा, अथ भिक्षुः उच्चावचं मनः कुर्यात् / एते खलु अग्निकायं उज्ज्वालयन्तु वा, मा वा उज्ज्वालयन्तु, प्रज्वालयन्तु वा, मा वा प्रज्वालयन्तु, विध्यापयन्तु वा, मा वा विध्यापयन्तु। अथ भिक्षूणां पूर्वोप० यत् तथाप्रकारे उपाश्रये न स्थानं वा घेतयेत् // 403 // III सूत्रार्थ : गृहस्थादि से युक्त उपाश्रय में ठहरना साधु के लिए कर्मबन्ध का कारण है। क्योंकि वहां पर गृहस्थ लोग अपने प्रयोजन के लिए अग्नि को उज्ज्वलित और प्रज्वलित करते हैं या प्रज्वलित आग को बुझाते हैं। अतः उनके साथ बसते हुए भिक्षु के मन में कभी ऊंचेनीचे परिणाम भी आ सकते हैं। कभी वह यह भी सोच सकता है कि यह गृहस्थ अग्नि को उज्ज्वलित और प्रज्वलित करें या ऐसा न करें, यह अग्नि को बुझा दें या न बुझाएं। इसलिए तीर्थंकरादि ने भिक्षु को पहले ही यह उपदेश दिया है कि वह इस प्रकार के सागारिक उपाश्रय में न ठहरे। IV टीका-अनुवाद : इस सूत्र में भी यह कहा गया है कि- गृहपति आदि अपने लिये अग्नि का समारंभ करे तब साधु के मन में "उच्च'' याने यह लोग इस प्रकार अग्नि का समारंभ न करें इत्यादि विचार आवे, तथा “अवच'' याने अग्नि का समारंभ करे... इत्यादि विचार आवे... शेष Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-1-7 (404) 183 सुगम है... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में भी गृहस्थ के साथ गृहवास करने का निषेध किया गया है और बताया गया है कि उसके साथ निवास करने से मन विभिन्न संकल्प विकल्पों में चक्कर काटता रहेगा। कभी गृहस्थ दीपक प्रज्वलित करेगा और कभी जलते हुए दीपक को बुझा देगा। उसके इन कार्यों से साधु की साधना में रुकावट पड़ने के कारण उसके मन में ऊंचे-नीचे संकल्पविकल्प उठ सकते हैं। इन सब संकल्प-विकल्पों से बचने के लिए साधु को गृहस्थ के साथ नहीं ठहरना चाहिए। ___ इस संबन्ध में सूत्रकार और भी बताते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 7 // // 404 // आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावईहिं सद्धिं संवसमाणस्स, इह खलु गाहावइस्स कुंडले वा गुणे वा मणी वा मुत्तिए म हिरण्णेसु वा सुवण्णेसु वा, कडगाणि वा तुडियाणि वा तिसराणि वा पालंबगाणि वा हारे वा अद्धहारे वा एगावली वा कणगावली वा मुत्तावली वा रयणावली वा तरुणीयं कुमारिं वा अलंकियविभूसियं पेहाए, अह भिक्खू उच्चाव० एरिसिया वा सा, नो वा एरिसिया, इय वा णं बूया, इय वा णं मणं साइज्जा, अह भिक्खूणं पूव्यो०, जं तहप्पगारे उवस्सए नो ठाणं० // 404 // II * 'संस्कृत-छाया : . आदानमेतत् भिक्षोः गृहपत्यादिभिः सार्द्ध संवसतः, इह खलु गृहपत्यादेः कुण्डले आ वा रसना वा मणी वा मौक्तिकः वा हिरण्येषु वा सुवर्णेषु वा कटकानि वा शुटितानि वा त्रिसराणि वा प्रालम्बकानि वा हारः वा अर्द्धहारः वा एकावली वा कनकावली वा मुयतावली वा रत्नावली वा तरुणिकां वा कुमारिकां वा अलङ्कृतविभूषितां प्रेक्ष्य, अथ भितः उच्चावचं० एतादृशी वा सा न वा एतादृशी इति वा ब्रूयात्, इति वा मनः कुर्यात्, अथ भिक्षूणां पूर्वोप०, यत् तथाप्रकारे उपाश्रये न स्थाo || 404 / / -III सूत्रार्थ : गृहस्थ के साथ ठहरना भिक्षु के लिए कर्म बन्धन का कारण है। जो भिक्षु गृहस्थ के साथ बसता है उसमें निम्नलिखित कारणों से राग-द्वेष के भावों का उत्पन्न होना संभव है। यथा-गृहपति के कुण्डल, या धागे में पिरोया हुआ आभरण विशेष, मणि, मुक्ता-मोती, Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 2-1-2-1-8 (405) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन चांदी, सोना या स्वर्ण के कड़े, बाजूबन्द-भुजाओं में धारण करने के आभूषण, तीन लड़ी का हार, फूल माला, अठारह लड़ी का हार, नौ लडी का हार, एकावली हार, सोने का हार, मोतियों और रत्नों के हार तथा वस्त्रालंकारादि से अलंकृत और विभूषित युवती स्त्री और कुमारी कन्या को देखकर भिक्षु के मन में ये संकल्प-विकल्प उत्पन्न हो सकते हैं, कि ये पूर्वोक्त आभूषणादि मेरे घर में भी थे अथवा मेरे घर में ये आभूषण नहीं थे। एवं मेरी स्त्री या कन्या भी इसी प्रकार की थी अथवा नहीं थी। इन्हें देखकर वह ऐसे वचन बोलेगा या मन मे उन का अनुमोदन करेगा। इसलिए तीर्थंकरों ने पहले ही भिक्षुओं को यह उपदेश दिया है कि वे इस प्रकार के उपाश्रय में न ठहरें। IV टीका-अनुवाद : गृहस्थों के साथ निवास करनेवाले साधु को यहां जो कहे जाएंगे वे दोष लगते हैं...... जैसे कि- किसी युवती या कन्या को अलंकारों से विभूषित देखकर साधु के मन में विभिन्न प्रकार के विचार आतें हैं, जैसे कि- यह ऐसी विभूषित यह युवती अच्छी लगती है या अच्छी नहि लगती... इत्यादि... अथवा यह युवती मेरी भार्या-पत्नी के समान दिखती है... तथा यह अलंकार अच्छा है या अच्छा नहि है इत्यादि बोले... इस प्रकार साधु के मन में अच्छे-बुरे अनेक विचार आते हैं इसलिये ऐसे उपाश्रय में साधु स्थान शय्या निषद्यादि न करें... यहां सूत्र में जो गुण शब्द है वह रसना याने कंदोरा... हिरण्य याने सोनामहोर... शुटित याने मृणालिका... तथा प्रालम्बक याने आप्रदीपन नाम का आभरण विशेष है... शेष पुरा सूत्र सुगम है... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में गृहस्थ के साथ ठहरने का निषेध करते हुए बताया गया है कि गृहस्थ के यहां विभिन्न तरह के वस्त्राभूषण एवं वस्त्राभूषणों से सुसज्जित नवयुवतियों एवं उसकी कुमारी कन्याओं को देखकर उसके मन में अपने पूर्व जीवन की स्मृति जाग सकती है। वह यह सोच सकता है कि मेरे घर में भी ऐसा ही या इससे भी अधिक वैभव था या मेरे घर में इतनी प्रचुर भोग सामयी नहीं थी, मैंने अपने जीवन में इतने भोग नहीं भोगे। इस तरह गृहस्थ के वैभव संपन्न जीवन को देखकर उसका मन भोगों के चिन्तन में लग सकता है। अतः इसे कर्म बन्ध का कारण जानकर साधु को ऐसे स्थान में नहीं ठहरना चाहिए। __ इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... सूत्र // 8 // // 405 // आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावईहिं सद्धिं संवसमाणस्स, इह खलु गाहावड़णीओ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-1-8 (405) 185 वा, गाहावइधूयाओ वा, गाहा० सुण्हाओ वा, गाहा० धाईओ वा, गाहा० दासीओ वा, गाहा० कम्मकरीओ वा, तासिं च णं एवं वुत्तपुव्वं भवड़ - जे इमे भवंति समणा भगवंतो जाव उवरया मेहुणाओ धम्माओ, नो खलु एएसिं कप्पड़ मेहणधम्म परियारणाए आउट्टित्तए, जा य खलु एएहिं सद्धिं मेहुणधम्म परियारणाए आउट्टाविज्जा पुत्तं खलु सा लभिज्जा, उयस्सिं तेयस्सिं वच्चस्सिं संपराइयं आलोयणदरसणिज्जं, एयप्पगारं निग्धोसं सुच्चा निसम्म तासिं च णं अण्णयरी सड्ढी तं तवस्सिं भिक्खं मेहणधम्मपडियारणाए आउट्टाविज्जा, अह भिक्खूणं पुव्यो० जं तहप्पगारे सागारिए उव० नो ठाणं वा चेइज्जा, एयं खलु तस्स सामग्गियं // 405 // II संस्कृत-छाया : . ___ आदानमेतत् भिक्षोः गृहपत्यादिभिः सार्धं संवसतः, इह खलु गृहपतिभार्या वा गृहपतिदुहितारः वा, गृहपतिस्नुषाः वा गृहपतिधात्र्यः वा, गृहपतिदास्यः वा, गृहपतिकर्मकर्यः वा, तासां च एवं उक्तपूर्वं भवति- ये इमे भवन्ति श्रमणाः भगवन्तः यावत् उपरता: मैथुन-धर्मात्, न खलु एतेषां कल्पते मैथुनधर्म परिचारणाय अभिमुखीभवनम् / या च.खंलु एतैः सार्द्ध मैथुनधर्म आसेवनार्थ अभिमुखं कुर्यात्, पुत्रं सा लभेत, स च ओजस्वी तेजस्वी वर्चस्वी यशस्वी भवेत्, तथा साम्परायिकः आलोकनदर्शनीयश्च / एतत्-प्रकारं निर्घोषं श्रुत्वा निशम्य तासां मध्ये अन्यतरी श्राद्धी तं तपस्विनं भिq मैथुनधर्म-आसेवनार्थ अभिमुखं कुर्यात् / अथ भिक्षूणां पूर्वोपo यत् तथाप्रकारे सागारिके उपा० नो स्थानं वा चेतयेत्, एतत् खलु तस्य (भिक्षोः) सामण्यम् // 405 // III सूत्रार्थ : भिक्षु को गृहस्थों के साथ बसने से निम्नलिखित दोषलग सकते हैं। जब वह गृहस्थों के साथ रहेगा तब उन गृहस्थों की गृहपत्निएं उनकी पुत्रिएं, पुत्रवधुएं, धावमाताएं, दासिएं और अनुचरिएं आपस में मिल कर यह वार्तालाप भी करने लगती है कि- ये साधु मैथुन धर्म से सदा उपरत रहते हैं अर्थात् ये मैथुन क्रीडा नहीं करते। अतः इन्हें मैथुन सेवन करना नहीं कल्पता। परन्तु, जो कोई स्त्री इनके साथ मैथुन क्रीड़ा करती है, उसको बलवान, तेजस्वी, रूपवाला और कीर्तिमान, संग्राम में शूरवीर एवं दर्शनीय पुत्र की प्राप्ति होती है। इस प्रकार के शब्द को सुनकर उनमें से कोई एक पुत्र की इच्छा रखने वाली स्त्री उस तपस्वी भिक्षु को मैथुन सेवन के लिए तैयार कर लेवे। इस तरह की संभावना हो सकती है, इसलिए तीर्थंकरों ने ऐसे स्थान में ठहरने का निषेध किया। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 2-1-2-1-8 (405) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन IV टीका-अनुवाद : पूर्व के सूत्र में कहे गये घर में निवास करनेवाले साधु को इस प्रकार के दोष लगतें हैं... जैसे कि- गृहपति की भार्या, पुत्री, पुत्रवधू, धात्री, दासी, कर्मकरी इत्यादि ऐसा चिंतवे कि- यह साधुजन मैथुन से उपरत याने निवृत्त है... यदि इनके द्वारा पुत्र हो तब वह पुत्र ओजस्वी याने बलवान, तेजस्वी याने दीप्ति-कांतिमान्, वर्चस्वी याने रूपवान् तथा यशस्वी याने कीर्तिमान् हो... इस प्रकार का निर्धारण करके उनमें से कोइक श्रद्धालु स्त्री उस साधु को मैथुनकर्म की आसेवना के लिये अभिमुख करे... इत्यादि दोषों के भय से साधुओं को पूर्व के सूत्रो में कही गइ यह प्रतिज्ञा है कि- ऐसे प्रकार के उपाश्रय में साधु स्थान, शय्या, निषद्यादि न करें... यह हि साधु एवं साध्वीजीओं का संपूर्ण साधुभाव है... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- गृहस्थ के साथ ठहरने से साधु के ब्रह्मचर्य व्रत में दोष आ सकता है। क्योंकि साधु को अपने बीच में पाकर स्त्रिएं उसकी और आकर्षित हो सकती है और पारस्परिक वार्तालाप से यह जानकर कि ब्रह्मचारी के संपर्क से होने वाला पुत्र बलवान एवं तेजस्वी होता है, तो पुत्र की अभिलाषा रखने वाली कोई स्त्री मुनि से मैथुन क्रीड़ा करने की प्रार्थना भी कर सकती है और अपने हाव-भाव से वह मुनि को भी इस कार्य के लिए तैयार कर सकती है। इस तरह महाव्रतों से गिरने की संभावना देखकर भगवान ने साधु को गृहस्थ के परिवार के साथ ठहरने का निषेध किया है। वस्तुतः देखा जाए तो वीर्य ही जीवन है। क्योंकि इस शरीर का निर्माण वीर्य से ही होता है। आगम में बताया गया है कि मनुष्य की अस्थि, मज्जा, केश एवं रोम का निर्माण पिता के वीर्य से होता है और मांस-मस्तक आदि का ढांचा माता के रुधिर (रज) से बनता है। माता और पिता का जीवन जितना संयमित, नियमित एवं मर्यादित होगा उतना ही सन्तान का शरीर शक्तिसम्पन्न एवं तेजस्वी होगा। अतः जीवन को शक्तिसम्पन्न एवं तेजस्वी बनाए रखने के लिए वीर्य की सुरक्षा करना आवश्यक है। इसी कारण गृहस्थ के लिए भी स्वदारसन्तोष व्रत का उल्लेख किया गया हैं। स्वपत्नी के साथ भी मर्यादा से अधिक मैथुन का सेवन करना अपनी शक्ति का नाश करना एवं सन्तति को दुर्बल एवं रोगी बनाना है। असंयत एवं अमर्यादित जीवन चाहे गृहस्थ का हो या साधु का, किसी के लिए भी हितप्रद नहीं है। अतः साध को अपने संयम एवं ब्रह्मचर्य की रक्षा में सदैव सावधान रहना चाहिए। क्योंकि ब्रह्मचर्य साधना का महत्वपूर्ण स्तम्भ है, इसलिए साधु को ऐसे स्थान में नहीं ठहरना चाहिए, कि- जहां ब्रह्मचर्य के स्खलित होने की संभावना हो। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-1-8 (405) 187 प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त ‘आउटित्तए, आउट्टिाविज्जा' का प्राकृत महार्णव में आवृत करना, भुलाना, व्यवस्था करना, सन्मुख करना एवं तत्पर होना अर्थ किया है। और अर्द्धमागधी कोष में आउट्ट (आ+कुट्ट) धातु को हिंसार्थक माना है। परन्तु, प्रस्तुत प्रसंग में 'आउटिए' पद का सम्मुख करना अर्थ ही संगत प्रतीत होता है। ___प्रथमचूलिकायां द्वितीये शय्यैषणाध्ययने प्रथमः उद्देशकः समाप्तः // 卐 - : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य थ|जयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. "श्रमण" के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. // राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058. Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 2-1-2-2-1 (406) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन %3 आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 1 . अध्ययन - 2 उद्देशक - 2 // शय्यैषणा / प्रथम उद्देशक कहा, अब द्वितीय उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं... इसका परस्पर संबंध इस प्रकार है कि- यहां पहले उद्देशक में गृहस्थों के निवासवाले उपाश्रय में रहने से होनेवाले दोष कहे हैं, अब यहां दुसरे उद्देशक में भी तथाविध वसति के संभवित दोष विशेष प्रकार से कहतें हैं... I सूत्र // 1 // // 406 // गाहावई नामेगे सुइसमायारा भवंति, से भिक्खू य असिणाणए मोयसमायारे ते तग्गंधे दुग्गंधे पडिकूले पडिलोमे यावि भवड, जं पुव्वं कम्मं तं पच्छाकम्म, जं पच्छाकम्म तं पुरेकम्म, तं भिक्खुपडियाए वट्टमाणा करिज्जा वा, नो करिज्जा वा, अह भिक्खूणं पुव्वो० जं तहप्पगारे उव० नो ठाणं० // 406 // II संस्कृत-छाया : ___ गृहपतयः नाम एके शुचिसमाचाराः भवन्तिः सः भिक्षुः च अस्नानतया कायिकसमाचारः, सः तद्गन्धः प्रतिकूल: प्रतिलोमः च अपि भवति / यत् पूर्वं कर्म तत् पश्चात् कर्म, यत् पधात् कर्म तत् पुरःकर्म, तत् भिक्षुप्रतिज्ञया वत्तमानाः कुर्यात् वा, न कुर्यात् वा। अथ भिक्षूनां पूर्वोप० यत् तथाप्रकारे उपा० न स्थानं // 406 // III सूत्रार्थ : - कई एक गृहस्थ शुचि धर्म वाले होते हैं, और साधु स्नानादि नहीं करते और विशेष कारण उपस्थित होने पर मोक का आचरण भी कर लेते हैं। अतः उनके वस्त्रों से आने वाली दुर्गन्ध गृहस्थ के लिए प्रतिकूल होती है। इस लिए वह गृहस्थ जो कार्य पहले करना है उसे पीछे करता है और जो कार्य पीछे करना है उसे पहले करने लगते हैं और भिक्षु के कारण भोजनादि क्रियाएं समय पर करें, या न करें। इसी प्रकार भिक्षु भी प्रत्युपेक्षणादि क्रियाएं समय पर नहीं कर सकेगा, अथवा सर्वथा ही नहीं करेगा। इसलिए तीर्थंकरादि ने भिक्षुओं को पहले ही यह उपदेश दिया है कि वे इस प्रकार के उपाश्रय में न ठहरें। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-2-1 (406) 189 IV टीका-अनुवाद : कितनेक गृहस्थ शुचि-पवित्रता के आचरणवाले होतें हैं कि- जो भागवतादि के भक्त हैं, अथवा चंदन अगुरु कुंकुम कपूरादि के आसेवन करनेवाले भोगी होतें हैं... अब स्नान नहि. करनेवाले और प्रसंगानुसार कायिक के समाचरण से साधु के देह से वैसी गंध दुर्गंध देखकर उन गृहस्थों को वह साधु अनुकूल (मान्य) नहि लगता, एवं उनके देह की गंध से विपरीत गंधवाले साधु उनको प्रतिलोम लगता है... इस स्थिति में वे गृहस्थ साधु के निमित्त से वहां गोचरी एवं स्वाध्याय भूमि में स्नानादि करे... यदि पहले स्नान कीया हो तो साधु के समीप जाने के कारण से पुनः स्नानादि करतें हैं... अथवा बाद में करने योग्य कार्य पहले करतें हैं.. इस प्रकार जाने-आने की क्रिया से साधुओं को अधिकरण (दोष) की संभावना होती है... अथवा तो वे गृहस्थ साधुओं के कारण से भोजन का काल हो जाने पर भी भोजन न करें... इस स्थिति में अंतराय या मनःदुःख आदि की संभावना है, अथवा वे साधुजन गृहस्थों के कारण से जो प्रतिलेखनादि पहले करने योग्य कार्य को बाद में करे, अथवा इससे विपरीत काल बित जाने पर करे, अथवा न करे... इस लिये साधुओं को पूर्व कही गइ यह प्रतिज्ञा है कि- तथाप्रकार के उपाश्रय में स्थान शय्या निषधादि न करे... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में गृहस्थ एवं साधु जीवन के रहन-सहन का अन्तर बताते हुए कहा है कि कुछ गृहस्थ शुद्धि वाले होते हैं। वे स्नान आदि से अपने शरीर को शुद्ध बनाने में ही व्यस्त रहते हैं। और साधु सदा आत्मशुद्धि में संलग्न रहता है। वह ज्ञान रूपी सागर की अनन्त गहराई में डुबकिएं लगाता रहता है। वह गृहस्थों की तरह स्नान आदि नहीं करता और यदि कभी उसके शरीर पर घाव आदि हो जाता है तो वह औषध के रूप में अपने मत्र का प्रयोग करके उस घाव को ठीक कर लेता है। इस तरह उसका आचरण गृहस्थ से भिन्न होता है। इसलिए अधिक शौच का ध्यान रखने वाला गृहस्थ मुनि के जीवन को देखकर उससे घृणा कर सकता है। और इस कारण वह गृहस्थ साधु के कारण अपनी क्रियाओं को आगे-पीछे कर सकता है और साधु भी गृहस्थों के संकोच से अपनी आवश्यक क्रियाओं को यथासमय करने में असमर्थ हो जाता है। इस तरह गृहस्थ के कारण साधु की साधना में अन्तराय पड़ती है और साधु के कारण गृहस्थ के दैनिक कार्यो में विघ्न होता है, इससे दोनों के मन में चिन्ता एवं एक-दूसरे के प्रति कुछ बुरे भाव भी आ सकते है। अतः मुनि को गृहस्थ के साथ नहीं ठहरना चाहिए। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'मोय समायारे' का पाठ भी विचारणीय है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ कायिक मूत्र माना है। परन्तु, वृत्तिकार ने उसके आचरण करने के विशिष्ट कारण का Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190 2-1-2-2-2 (407) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन भी उल्लेख नहीं किया है और उसके पीछे किसी तरह का विशेषण नहीं होने से यह भी स्पष्ट नहीं होता है कि वह मूत्र सामान्य है या विशिष्ट ? मूत्र सामान्य की अपेक्षा से गौ मूत्र का भी ग्रहण हो सकता है और उसे वैदिक एवं लौकिक परम्परा में भी अशुद्ध नहीं माना है। इसके अतिरिक्त 'मोय' शब्द के संस्कृत में मोक, मोच और मोद तीन रूप बनते हैं। इस अपेक्षा से 'मोय समायारे' की संस्कृत छाया 'मोद समाचारः' बनेगी और इसका अर्थ होगा-प्रसन्नता पूर्वक स्नान का त्याग करने वाला। अर्थात्- ज्ञान के पवित्र सागर में गोते लगाने वाला मुनि / महाभारत आदि ग्रन्थों में भी मुनि के लिए बाह्य स्नान के स्थान में अन्तर स्नान को महत्व दिया गया है। क्योंकि पानी से केवल शरीर की शुद्धि होती है, आत्मा की शुद्धि नहीं होती। आत्मशुद्धि के लिए ज्ञान एवं तप-त्याग का स्नान ही आवश्यक माना गया है। इस तरह 'मोय' का संस्कृत रूप मोद मान लेने पर अर्थ में किसी तरह की असंगति नहीं रहती है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी 'मोय' शब्द का 'मोद' के अर्थ में प्रयोग किया गया है। उसमें बताया गया है कि जैसे पक्षी स्वेच्छा पूर्वक आकाश में उड़ाने भरता है, उसी तरह काम-भोग का परित्याग करके लघुभूत बना हुआ मुनि 'मोयमाणा-मोदमाना' अर्थात् प्रसन्नता पूर्वक देश में विचरण करे। इस तरह 'मोय' शब्द का प्रसन्नता अर्थ ही अधिक संगत एवं उपयुक्त प्रतीत होता है। .. इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 2 // // 407 // आयणमेयं भिक्खुस्स गाहावईहिं सद्धिं संव०, इह खलु गाहावइस्स अप्पणो सयट्ठाए विसवरुवे भोयणजाए उवक्खडिए सिया, अह पच्छा भिक्खुपडियाए असणं वा, उवक्खडिज्ज वा उवकरिज्ज वा, तं च भिक्खु अभिकंखिज्जा भुत्तए वा पायए वा वियट्टित्तए वा, अह भि० जं नो तह० // 407 // II संस्कृत-छाया : आदानमेतत् भिक्षोः गृहपत्यादिभिः सार्द्ध संवसतः, इह खलु गृहपतिना आत्मनः स्वार्थाय विसपरूप: भोजनजात: उपस्कृत: (संस्कृतः) स्यात् / अथ पधात् भिक्षुप्रतिज्ञया अथनं वा, संस्कृर्यात् वा उपस्कुर्यात् वा, तच्च भिक्षुः अभिकाङ्केत भोक्तुं वा पातुं वा विवर्तितुं वा, अथ भि० यत् न तथा० // 407 / / III सूत्रार्थ : गृहस्थों के साथ निवास करते हुए भिक्षु के लिए यह भी एक कर्म बन्धन का कारण हो सकता है, जैसे कि- गृहस्थ अपने लिये नाना प्रकार का भोजन तैयार करके फिर साधु Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-2-3 (408) 191 के लिये चतुर्विध आहार को तैयार करने एवं उसके लिये सामग्री एकत्रित करने में लगेगा, उस आहार को देखकर साधु भी उसका आस्वादन करना चाहेगा या उसमें आसक्त हो जायेगा। इसलिये तीर्थंकर भगवान ने पहले ही यह प्रतिपादन कर दिया है कि साधु को इस प्रकार के उपाश्रय में नहीं ठहरना चाहिये। IV टीका-अनुवाद : गृहस्थादि से युक्त ऐसे उपाश्रय में रहने से साधु को कर्मबंध होता है... जैसे किगृहपति ने अपने आपके लिये विविध प्रकार के आहारादि बनाये हो, और उसके बाद साधुओं के लिये पुनः आहारादि तैयार करे, अथवा रसोइ के लिये गेहुं चावल आदि लाकर दे... तब ऐसे तथाप्रकार के आहारादि यदि साधु वापरना चाहे... या वहां पर हि आहारादि की इच्छा से बैठना चाहे... किंतु साधु को ऐसा नहि करना चाहिये इत्यादि पूर्ववत् जानीयेगा... v सूत्रसार : प्रस्तुत उभय सूत्रों में यह बताया गया है कि यदि साधु गृहस्थ के साथ ठहरेगा तो गृहस्थ अपने लिए भोजन बनाने तथा सर्दी निवारणार्थ ताप के लिए लकड़ी आदि की व्यवस्था कर चुकने के बाद अतिथि रूप में ठहरे हुए साधु के लिए भोजन बनाने की सामग्री एकत्रित करेगा और उसके शीत को दूर करने के लिए लकड़िये खरीदेगा, उसका छेदन-भेदन कराएगा। उसे ऐसा करते हुए देखकर साधु के भावों में भी परिवर्तन आ सकता है और वह उस भोजन एवं आताप में आसक्त होकर संयम पथ से गिर भी सकता है। क्योंकि आत्मा का विकास एवं पतन भावों पर ही आधारित है। भावों के बनते एवं बिगड़ते विशेष देर नहीं लगती है। जैसे अपस्मार (मृगी) का रोगी पानी को देखते ही मूछित होकर गिर पड़ता है। इसी तरह आत्मा में सत्ता रूप से स्थित औदयिक भाव बाहर का निमित्त पाकर जागृत हो उठते हैं और आत्मा को सन्मार्ग के शिखर से पतन के गर्त में गिरा देता है। इसलिए साधु को सदा सावधान रहना चाहिए और उसे सदा ऐसे निमित्तों से बचकर रहना चाहिए जिससे उसकी आत्मा पतन की और गतिशील न हो। इसीलिए आगम में यह आदेश दिया गया है कि साधु को गृहस्थ के साथ नहीं ठहरना चाहिए। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... सूत्र // 3 // // 408 // आयणमेयं भिक्खुस्स गाहावड़णा सद्धिं संव० इह खलु गाहावइस्स अप्पणो सयट्ठाए विरूवरूवाइं दारुयाइं भिण्णपुटवाइं भवंति, अह पच्छा भिक्खुपडियाए Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192 2-1-2-2-3 (408) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन विरूवरूवाइं दारुयाई भिंदिज्ज वा किणिज्ज वा पामिच्चेज्ज वा दारुणा वा दारुपरिणाम कट्ट अगणिकायं उज्जा० पज्जा० तत्थ भिक्खू अभिकंखिज्जा आयावित्तए वा पयावित्तए वा वियट्टित्तए वा, अह भिक्खू० जं नो तहप्पगारे० // 408 // II संस्कृत-छाया : आदानमेतत् भिक्षोः गृहपत्यादिना सार्द्ध संवसतः, इह खलु गृहपतिना आत्मनः स्वार्थाय विरूपसपाणि दारुणि भिन्नपूर्वाणि भवन्ति, अथ पश्चात् भिक्षुप्रतिज्ञया विरूपरूपाणि दारुणि भिन्द्यात् वा क्रीणीयात् वा प्रामीत्येत् वा दारुणा वा दारुपरिणाम कृत्वा अग्निकायं उज्ज्वालयेत् प्रज्वालयेत्, तत्र भिक्षुः अभिकाङ्केत आतापयितुं वा प्रतापयितुं वा विवर्तयितुं वा, अथ भिक्षूणां० यत् न तथाप्रकारे // 408 // III सूत्रार्थ : इसी प्रकार गृहस्थों के साथ ठहरने से भिक्षु को एक यह भी दोष लगेगा कि गृहस्थ ने अपने लिये नाना प्रकार का काष्ठ-इंधन एकत्रित कर रखा है, फिर वह साधु के लिये नाना प्रकार के काष्ठों का भेदन करेगा, मोल लेगा अथवा किसी से उधार लेगा, और काष्ठ से काष्ठ को संघर्षित करके अग्निकाय को उज्जवलित और प्रज्वलित करेगा, और उस गृहस्थ की तरह साधु भी शीत निवारणार्थ अग्नि का आताप लेगा और उसमें आसक्त हो जायगा / इस लिये भगवान ने साधु के लिये ऐसे मकान में ठहरने का निषेध किया है। , IV टीका-अनुवाद : पूर्ववत् यहां भी इस प्रकार काष्ठादि के प्रज्वलन का सूत्र जानीयेगा... सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'गाहावइस्स' पद में तृतीया विभक्ति के अर्थ में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग किया गया है। और ‘उवस्सए' अर्थात् उपाश्रय शब्द का प्रयोग स्थानक के अर्थ में नहीं, प्रत्युत मकान मात्र के अर्थ में हुआ है। और जब हम प्रस्तुत पाठ का गहराई से अध्ययन करते हैं तो उपाश्रय का अर्थ गृहस्थों से युक्त एवं भोजनशाला के निकटवर्ती स्थान विशेष पर ही स्पष्ट होता है ! इसे अन्तरगृह भी कहते हैं और कल्पसूत्र में साधु-साध्वी को अन्तरगृह में ठहरने एवं मल-मूत्र के त्याग करने आदि क्रियाओं का निषेध किया गया है और दशवैकालिक सूत्र में भी अन्तरगृह में निवास करने एवं पर्यंक आदि पर बैठने का निषेध किया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि संयम की सुरक्षा के लिए मुनि को ऐसे मकान में नहीं ठहरना चाहिए जिसमें गृहस्थ अपने परिवार सहित निवसित हो। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका ___2-1-2-2-4 (409) 193 - इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं.. I सूत्र // 4 // // 409 // से भिक्खू वा० उच्चारपासवणेण उब्बाहिज्जमाणे राओ वा वियाले वा गाहावडकुलस्स दुवारबाहं अवंगुणिज्जा, तेणे य तस्संधिचारी अणुपविसिज्जा, तस्स भिक्खुस्स नो कप्पड़ एवं वइत्तए- अयं तेणो पविसइ वा नो पविसइ, उवल्लियड वा नो वा० आवयइ वा नो वा० वयइ वा नो वा० तेणहडं अण्णेण हडं, तस्स हडं अण्णस्स हडं, अयं तेणे, अयं उवचरए, अयं हंता अयं इत्थमकासी, तं तवस्सिं भिक्खू अतेणं तेणंति संकडू, अह भिक्खूणं पुव्वो० जाव नो ठा० // 409 // II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा० उच्चारप्रसवणेन उद्बाध्यमानः रात्रौ वा विकाले वा गृहपतिकुलस्य द्वारभागं उद्घाटयेत्, स्तेनश्च तत्सन्धिचारी अनुप्रवियेत् / तस्य शिक्षोः न खलु कल्पते एवं वक्तुं-अयं स्तेनः प्रविशति वा, नो वा प्रविशति, उपलीयते वा, न वा उपलीयते, आपतति वा, न वा आपतति, (व्रजति वा, न वा व्रजति) वदति वा न वा वदति तेन हृतं, अन्येन हृतं, तस्य हृतं अन्यस्य हृतं, अयं स्तेन: अयं उपचरकः अयं हन्ता, अयं इत्थं अकार्षीत्, तं तपस्विनं भिv अस्तेनं स्तेनं इति शङ्कते, अथ भिक्षुणां पूर्वोपदिष्टां० यावत् न स्थानं० // 409 / / III सूत्रार्थ : रात्रि में अथवा विकाल में साधु ने मल-सूत्रादि की बाधा होने पर गृहस्थ के घर का द्वार खोला और उसी समय कोई चोर या उसका साथी घर में प्रविष्ट हो गया तो उस समय साधु तो मौन रहेगा। वह हल्ला नहीं मचाएगा, कि यह चोर घरमें घुसता है, अथवा नहीं घुसता है. छिपता है. अथवा नहीं छिपता है. नीचे कढ़ता है अथवा नहीं कदता है. बोलता है अथवा नहीं बोलता है, उसने चुराया है, अथवा अन्य ने चुराया है, उसका धन चुराया है, अथवा अन्य का धन चुराया है, यह चोर है, यह उसका उपचारक है, यह मारने वाला है, और इस चोर ने यहां यह कार्य किया है। अतः साधु के कुछ नहीं कहने पर गृहस्थ को उस तपस्वी साधु ने का सन्देह हो जाएगा। इसलिए भगवान ने गृहस्थ से युक्त मकान में ठहरने एवं कायोत्सर्ग का निषेध किया हैं। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194 2-1-2-2-4 (409) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन IV टीका-अनुवाद : वहां गृहस्थों से भरे हुए उपाश्रय में रहनेवाला साधु जब उच्चार (वडीनीति-स्थंडिल) के लिये पीडित हो, और रात्रि या विकाल आदि समय में उपाश्रय के द्वार को खोले, उस वख्त कोइ चौर या छिद्रान्वेषी दुश्मन (शत्रु) उपाश्रय में प्रवेश करे... तब उसको देखकर वह साधु ऐसा न कहे कि- यह चौर उपाश्रय में प्रवेश करता है... या प्रवेश करता नहि है... तथा छुपा हुआ है... आया है, बोल रहा है या बोल नहि रहा है... उसने चोरी की है, या अन्यने चोरी की है, उसके यहां चोरी हुइ है, या अन्य के यहां चोरी हुइ है इत्यादि... तथा यह चौर है, यह उसका सेवक है... यह शस्त्रवाला है, यह मारता है, इसने यहां ऐसा कीया है इत्यादि साधु न बोले... क्योंकि- ऐसा बोलने से उस चौर का मरण हो, या क्रोधवाला वह चौर हि उस साधु को मार डाले... इत्यादि दोषों की संभावना है... और यदि साधु कुछ भी न बोले तब वह गृहस्थ उस तपस्वी साधु को हि. चौर समझे इत्यादि... शेष पूर्ववत्... और भी वसति के दोष कहतें हैं... सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु रात्रि में या विकाल में मल-मूत्र का त्याग करने के लिए द्वार खोलकर बाहर आए और यदि उसी समय कोई चोर घर में प्रविष्ट होकर छुप जाए और समय पाकर चोरी करके चला जाए। ऐसी स्थिति में साधु उस चोर को चोर नहीं कह सकता है और न वो हल्ला ही कर सकता है। वह उस चोर को उपदेश दे सकता है। यदि उसने साधु का उपदेश नहीं माना तो उसके चोरी करके चले जाने के बाद गृहस्थ को मालूम पड़ने पर उस साधु पर चोरी का संदेह हो जाएगा, अतः साधु को ऐसे स्थान में नहीं ठहरना चाहिए। प्रस्तुत सूत्र से यह स्पष्ट होता है कि जिस मकान में मल-मूत्र के परिष्ठापन का योग्य स्थान न हो वहां साधु को नहीं ठहरना चाहिए तथा यह भी स्पष्ट होता है कि मल-मूत्र के त्याग के लिए साधु द्वार खोलकर जा सकता है एवं वापिस आने पर बन्द भी कर सकता है। इस सूत्र से यह भी स्पष्ट होता है कि साधु को ऐसे मकान में नहीं ठहरना चाहिए, जिसमें गृहस्थ का कीमती सामान पड़ा हो। इस तरह गृहस्थ के साथ ठहरने से साधु की साधना में अनेक दोष आने की संभावना है। इसलिए साधु को गृहस्थ से युक्त मकान में नहीं ठहरना चाहिए। - इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-2-5 (410) 195 % 3D I सूत्र // 5 // // 410 // से भिक्खु वा० से जं० तणपुंजेसु वा पलालपुंजेसु वा सअंडे जाव ससंताणए तहप्पगारे उव० नो ठाणं वा / से भिक्खू वा० से जं० तणपुं० पलाल0 अप्पंडे जाव० चेइज्जा // 410 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० सः यत् तृणपुजेषु वा पलालपुजेषु वा सअण्डे यावत् ससन्तानके तथाप्रकारे उपा० न स्थानं वा / सः भिक्षुः वा० स: यत् तृणपुजेषु वा पलालपुज्नेषु वा अल्पाण्डे वा यावत् अल्प सन्तानके वा० चेतयेत् // 410 // III सूत्रार्थ : साधु अथवा साध्वी उपाश्रय के संबन्ध में यह जाने कि यदि तृण एवं पलाल का समूह अण्डों से युक्त है, अथवा मकडी के जालों से युक्त है तो इस प्रकार के उपाश्रय में कायोत्सर्गादि न करे। वह भिक्षु यदि यह जाने कि यह उपर्युक्त प्रकार का उपाश्रय अण्डों से रहित यावत् मकडी के जालों से रहित है. तो इस प्रकार के उपाश्रय में कायोत्सर्गादि क्रियायें कर सकता है। IV टीका-अनुवाद : यह सूत्र सुगम है... और इससे विपरीत सूत्र भी सुगम है, किंतु यहां “अल्प' शब्द अभाव-वाचक है * अब वसति के परित्याग के जो उद्देशक का अर्थाधिकार कहा गया है, वह अब कहतें हैं... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में यह अभिव्यक्त किया गया है कि- तृण और पलाल (घास) के पुंजों से निर्मित उपाश्रय अण्डे आदि से युक्त हो तो साधु को वहां नहीं ठहरना चाहिए और न कायोत्सर्ग (ध्यान) ही करना चाहिए। इससे स्पष्ट होता है कि उस युग में साधु गांवों में अधिक भ्रमण करते थे। क्योंकि, घास-फूस की झोंपड़िएं (मकान) प्रायः गांवों में ही मिलती है। और इस पाठ से यह भी ध्वनित होता है कि मकान के जिस भाग में साधु को कायोत्सर्ग आदि क्रियायें करनी हों, उस भाग में अण्डा एवं त्रस जीव आदि न हों। दशवैकालिक सूत्र में भी बताया गया है कि कायोत्सर्ग करते समय या अन्य समय में मुनि के शरीर पर या वस्त्रपात्र आदि पर ऊपर से अस जीव गिर गया हो तो मुनि उसे बिना किसी तरह का कष्ट पहुंचाए Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196 2-1-2-2-6 (411) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन % 3D एकान्त स्थान में छोड़ देवे। इस तरह प्रस्तुत पाठ विधि और निषेध दोनों का परिबोधक है। जिस स्थान में साधु को ठहरना हो, कायोत्सर्ग आदि क्रियाएं करनी हों उस स्थान में अंडा आदि जीव-जंतु नहीं होना चाहिए। साधु को किस स्थिति में किस तरह के मकान में नहीं ठहरना चाहिए, इस सम्बन्ध में सूत्रकार कहते हैंI सूत्र // 6 // // 411 // से आगंतारेसु आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अभिक्खणं साहम्मिएहिं उवयमाणेहिं नो उवइज्जा // 411 / / II संस्कृत-छाया : स: आगन्तागारेषु आरामागारेषु वा गृहपकुिलेषु वा पर्यावसथेषु वा अभीक्ष्णं साधर्मिकैः अवपतद्भिः न अवपतेत् // 411 // III सूत्रार्थ : धर्मशाला, उद्यान में बने हुए विश्रामगृह, गृहपति कुल एवं तापस आदि के मठों में जहां अन्य मत के साधु बार-बार आते-जाते हों, वहां जैन मुनि को मासकल्प नहीं करना चाहिए। IV टीका-अनुवाद : जहां गांव आदि के बाहार आकर मुसाफिर ठहरतें हैं वे आगन्तागारों में तथा आराम याने बगीचे के मध्य में जो घर है वहां, तथा पर्यावसथ याने मठों में इत्यादि उपाश्रय-मकानों में कि- जहां बार बार अन्य साधर्मिक साधु मासकल्पादि के लिये आतें हो, वहां साधु न आवें अर्थात् वहां मासकल्पादि न करें... अब कालातिक्रांत वसति के दोष कहतें हैं... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में धर्मशाला, विश्रामगृह, गृहपति के अतिथ्यालय एवं तापस आदि के मठों में यदि अन्यमत के साधुओं का अधिक आवागमन रहता हो तो साधु को ऐसे स्थानों में मासकल्प नहीं करना चाहिए। इसका कारण यह है कि उनके अत्यधिक आवागमन से वहां का वातावरण शान्त नहीं रह पाएगा और उस कोलाहलमय वातावरण में साधु एकाय एवं शान्त मन से स्वाध्याय, ध्यान एवं चिन्तन-मनन नहीं कर सकेगा। दूसरी बात यह है कि जैन मुनि की वृत्ति उनसे कठिन होने के कारण उनकी अधिक प्रतिष्ठा को देखकर वे उससे ईर्ष्या रखने Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-2-7 (412) 197 लगेंगे और उसे तंग करने का भी प्रयत्न करेंगे और इस कारण संक्लेश का वातावरण भी बन सकता है और उनके साथ अधिक परिचय होने से श्रद्धा में विपरीतता आने की भी संभावना रहती है। इसलिए साधु को अन्य मत के भिक्षुओं के अधिक आवागमन वाले स्थान में मासकल्प या चातुर्मास कल्प नहीं करना चाहिए। इससे स्पष्ट होता है कि साधु को ऐसे स्थानों में परिस्थितिवश एक-दो दिन ठहरना पड़े तो उसका निषेध नहीं है। प्रस्तुत पाठ से यह भी ज्ञात होता है कि उस युग में यात्रियों ठहरने की सविधा के लिए गांव के बाहर धर्मशालाएं. विश्रामगृह एवं मठ आदि होते थे और गांव या शहर में गृहपतियों के अतिथ्यालय बने होते थे और उनमें बिना किसी सम्प्रदाय या पंथ भेद के सबको समान रूप से ठहरने की सुविधा मिलती थी। प्रस्तुत सूत्र में 'साहम्मिएहि' पद का केवल साधर्मिक साधुओं के लिए नहीं, अपितु सभी साधुओं के लिए सामान्य रूप से प्रयोग किया गया है। अतः प्रस्तुत प्रसंग में इसका अर्थ अन्य मत के साधु संन्यासी करना चाहिए। वृत्तिकार ने भी यही अर्थ किया है। साधु को अपनी विहार मर्यादा में काल का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। इस सम्बन्ध में सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 7 // // 412 // से आगंतारेसु वा जे भयंतारो उउबद्धियं वा वासावासियं वा कप्पं उवाइणित्ता तत्थेव भुज्जो संवसंति, अयमाउसो ! कालाइक्कंतकिरिया वि भवति // 9 // // 412 / / II संस्कृत-छाया : स: आगन्तागारेषु वा ये भगवन्तः ऋतुबद्धं वा वर्षावासं वा कल्पं उपनीय तत्रैव भूयः संवसन्ति, अयं हे आयुष्मन् ! कालातिक्रान्त-क्रिया-दोषः भवति // 1 // // 412 / / III सूत्रार्थ : धर्मशाला आदि स्थानों मे जो मुनिराज शीतोषण काल में मास कल्प एवं वर्षाकाल में चातुर्मासकल्प को बिताकर बिना कारण पुनः वहीं पर निवास करते हैं तो वे काल का अतिक्रमण करते हैं। IV टीका-अनुवाद : उन आगन्तागार-गृहों में जो साधु भगवंत ऋतुबद्ध याने शीत एवं उष्णकाल में मासकल्प करके पुनः वर्षाकाल में चार महिने रह कर पुनः वहां बिना कारण हि यदि रहतें Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 2-1-2-2-8 (413) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन हो, तब हे आयुष्मन् श्रमण ! वहां उन्हें कालातिक्रम नाम का दोष लगता है, तथा वहां के स्त्रीजनों से प्रतिबंध याने स्नेह-सद्भाव होता है और उस स्नेह-सद्भाव के कारण से उद्गमादि दोषों की संभावना है, इस कारण से ऐसे उपाश्रय (क्षेत्र) में साधुओं को स्थान शय्या निषद्यादि करना कल्पे नहि... // 1 // // 412 // अब उपस्थान दोष कहतें हैं... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि- जिस स्थान में साधु ने मासकल्प या वर्षावासकल्प किया हो उसे उसके बाद उस स्थान में बिना कारण के नहीं ठहरना चाहिए। यदि बिना किसी विशेष कारण के वे उस स्थान में ठहरते हैं तो कालातिक्रमण दोष का सेवन करते हैं। क्योंकि मर्यादा से अधिक समय तक एक स्थान में रहने से गृहस्थों के साथ अधिक घनिष्ठ परिचय हो जाता है और इससे उनके साथ राग-भाव हो जाता है और इस कारण आहार में भी उदगमादि दोषों का लगना सम्भव है। और दूसरी बात यह है कि एक ही स्थान पर रुक जाने से अन्य गांवों में धर्म प्रचार भी नहीं होता है। अतः संयम शुद्धि एवं शासनोन्नति की दृष्टि से साधु को मर्यादित काल से अधिक नहीं ठहरना चाहिए। क्योंकि प्रत्येक क्रिया कालमर्यादा में ही होनी चाहिए। इससे जीवन की व्यवस्था बनी रहती है और तप-संयम भी निर्मल रहता है। आगम में एक प्रश्न किया गया है कि काल की प्रतिलेखना करने से अर्थात् कालमर्यादा का पालन करने से जीव को किस फल की प्राप्ति होती है ? इसका उत्तर देते हुए श्रमण भगवान महावीर ने फरमाया है कि काल मर्यादा का सम्यक्तया परिपालन करने वाला व्यक्ति ज्ञानावरणीय कर्मो की निर्जरा करता है। इसका कारण यह है कि प्रत्येक क्रिया समय पर करने के कारण वह स्वाध्याय, ध्यान एवं चिन्तन-मनन के समय का उल्लंघन नहीं करेगा और स्वाध्याय आदि के करने से ज्ञानावरणीय आदि कर्म का क्षय या क्षयोपशम होगा और उसके ज्ञान में अभिवृद्धि होगी। और समय पर क्रियाएं न करके आगे-पीछे करने से साधक स्वाध्याय आदि के लिए भी व्यवस्थित समय नहीं निकाल सकेगा। अतः मुनि को मासकल्प एवं वर्षावासकल्प के पश्चात बिना किसी कारण के काल का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। अब उपस्थान क्रिया के सम्बन्ध में सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें I सूत्र // 8 // // 413 // से आगंतागारेसु वा, जे भयंतारो उ30 वासा कप्पं उवाइणावित्ता तं दुगुणा Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-2-8 (413) 199 दु (ति) गुणेण वा अपरिहरित्ता तत्थेव भुज्जो० अयमाउसो ! अवठ्ठाणकि० // 2 // // 413 // II संस्कृत-छाया : सः आगन्तागारेषु वा ये भगवन्तः ऋतु० वर्षा० कल्पं उपनीय तं द्विगुणत्रिगुणादिना वा अपरिहत्य तत्रैव भूय:० अयं आयुष्मन् ! उपस्थान क्रियादोषदुष्टो भवति // 2 // // 413 // III सूत्रार्थ : हे आयुष्यमन् (शिष्य) ! जो साधु साध्वी धर्मशाला आदि स्थानों में, शेषकाल में मासकल्प आदि और वर्षा काल में चातुमार्सकल्प को बिताकर अन्य स्थानों में द्विगुण या त्रिगुण काल को न बिताकर जल्दी ही फिर उन्हीं स्थानों पर निवास करते हैं, तो उन्हें उपस्थान क्रिया लगती है। . IV टीका-अनुवाद : . आगंतागारादि घरों में जो साधु भगवंत ऋतुबद्ध मासकल्प या वर्षावास रहकर अन्य अन्य जगह एक एक मासकल्प करके यदि दो या तीन महिने का अंतर रखे बिना पुनः वहां हि आकर रहतें हो, तब इस प्रकार का वह उपाश्रय उपस्थान क्रिया नाम के दोष से दूषित होता है, अतः वहां साधुओं को रहना कल्पता नहि है... || 2 || || 413 || . अब अभिक्रांत वसति का स्वरुप कहतें हैं... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु-साध्वी ने जिस स्थान में मास कल्प या वर्षावासकल्प किया है, उससे दुगुना या तिगना काल व्यतीत किए बिना उक्त स्थान में फिर से मास या वर्षावास कल्प नहीं करना चाहिए। यदि कोई साधु-साध्वी अन्य क्षेत्र में मर्यादित काल बिताने से पहले पुनः उस क्षेत्र में आकर मास या वर्षावास कल्प करते हैं तो उन्हें उपस्थान क्रिया लगती है। इससे स्पष्ट है कि जिस स्थान में एक महीना ठहरें हों उस स्थान पर दो या तीन महीने अन्य क्षेत्रों में लगाए बिना मास कल्प करना नहीं कल्पता। इसी तरह जहां चातुर्मास किया है उस क्षेत्र में दो या तीन वर्षावास अन्य क्षेत्रों में किए बिना पुनः वर्षावास करना नहीं कल्पता। इस प्रतिबन्ध का कारण यह है कि नए-नए क्षेत्रों में घूमते रहने से साधु का संयम भी शुद्ध रहता है और अनेक क्षेत्रों को उनके उपदेश का लाभ भी मिलता है। और अनेक प्राणियों को आत्म विकास करने का अवसर मिलता है। मुनियों का आवागमन कम Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 2-1-2-2-9 (414) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन होने से कई बार लोगों की श्रद्धा में शिथिलता एवं विपरीतता भी आ जाती है। नन्दन-मणिहार का उदाहरण हमारे सामने हैं। यह व्रतधारी श्रावक था, परन्तु साधुओं का संपर्क कम रहने से, साधुओं का दर्शन न होने से तथा अन्य धर्म के विचारकों एवं भिक्षुओं का संपर्क रहने से उसकी श्रद्धा में विपरीतता आ गई थी। इसी तरह भगवान पार्श्वनाथ के पास से श्रावक व्रत स्वीकार करने के बाद सोमल ब्राह्मण को साधुओं का संपर्क नहीं मिला और परिणाम स्वरूप वह भी पथभष्ट हो गया था। इसलिए साधुओं को किसी एक गांव के स्थान विशेष से बंधकर नहीं रहना चाहिए, प्रत्युत उन्हें समभाव पूर्वक गुरु परंपरा से निर्णीत जिल्ले या राज्य के सभी क्षेत्रों को संभालते रहना चाहिए। इससे उनकी साधना भी शुद्धरूप से गतिशील * रहती है और लोगों की श्रद्धा एवं चारित्र में भी अभिवृद्धि होती है। अब तृतीय अभिक्रान्त क्रिया का वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 9 // // 414 // इह खलु पाइणं वा, संतेगइया सड्ढा भवंति, तं जहा-गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा, तेसिं च णं आयारगोयरे नो सुनिसंते भवइ, तं सद्दहमाणेहिं पत्तियमाणेहिं रोयमाणेहिं बहवे समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमए समुद्दिस्स तत्थ तत्थ अगारीहिं अगाराइं चेइयाइं भवंति, तंजहा-आसणाणि वा आयतणाणि वा देवकुलाणि वा सहाओ वा, पवाणि वा, पणियगिहाणि वा पणियसालाओ वा, जाणगिहाणि वा जाणसालाओ वा सुहाकम्मंताणि वा भवणगिहाणि वा वद्धकं० वक्कयकं० इंगालकम्म० कट्ठकं० शुण्णागार-गिरिकंदरसंति सेलोव द्वाणकम्मंताणि वा जे भयंतारो तहप्पगाराई आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा तेहिं उवयमाणेहिं उवयंति, अयमाउसो ! अभिक्कंतकिरिया यावि भवइ // 3 // // 414 / / II संस्कृत-छाया : इह खलु प्राच्यादिषु वा, सन्ति एके श्राद्धाः भवन्ति, तद्यथा-गृहपतिः वा यावत् कर्मकर्यः वा, तेषां च आचारगोचरः न सुनिशान्तः भवति, तं श्रद्दधानः प्रतीयमानः रोचमानैः बहवः श्रमण-ब्राह्मण-अतिथि-कृपण-वणीपकान् समुद्दिश्य तत्र तत्र अगारिभिः अगाराणि कृतानि भवन्ति, तद्यथा- आसनानि वा आयतनानि वा देवकुलानि वा, सभाः वा प्रपा: वा, पण्यगृहाणि वा, पण्यशाला: वा, यानगृहाणि वा यानशाला: वा सुधाकर्मान्तानि वा भवनगृहाणि वा, वर्धक र्मान्तानि वा वल्क जक० अङ्गारकर्मान्तानि वा काष्ठगृहाणि श्मशानगृहाणि वा शून्यागार-गिरिकन्दरा-शान्तिशैलोपस्थापन- कर्मान्तानि वा ये भगवन्त: तथाप्रकाराणि आदेशनानि वा यावत गृहाणि Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-2-9 (414) 201 वा, तै: उपयद्भिः उपयन्ति, इयं हे आयुष्मन् ! अभिक्रान्तक्रिया च अपि भवति / / 3 / / / / 414 // III सूत्रार्थ : हे आयुष्यमन् शिष्य ! इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में कई व्यक्ति श्रद्धा और भक्ति से युक्त होते हैं। जैसे कि- गृहपति यावत् उनके दास-दासियां / उन्होंने साधु का आचार और व्यवहार तो सम्यक्तया नहीं सुना है परन्तु यह सुन रखा है कि उन्हें उपाश्रय आदि का दान देने से स्वर्गादि का फल मिलता है और इस पर श्रद्धा, विश्वास एवं अभिरुचि रखने के कारण उन्होंने बहोत से शाक्यादि श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण और भिखारी आदि का उद्देश्य करके तथा अपने कुटुम्ब का उद्देश्य रख कर अपने-अपने गांवों या शहरों में उन गृहस्थों ने बड़ेबड़े मकान बनाए हैं। जैसे कि लोहकार की शालायें, धर्मशालायें, देवकुल, सभाएं, प्रपाएं प्याउ, दुकानें, मालगोदाम, यानगृह, यानशालायें, चूने के कारखाने, कुशा के कारखाने, बर्ध के कारखाने, बल्कल के कारखाने, कोयले के कारखाने, काष्ठ के कारखाने, श्मशान भूमि में बने हुए मकान, शून्यगृह, पहाड़ के ऊपर बने हुए मकान पहाड़ की गुफा शान्तिगृह, पाषाण मण्डप, भूमिघर-तहखाने इत्यादि... और इन स्थानों में श्रमण-ब्राह्मणादि अनेक बार ठहर चुके हैं। यदि ऐसे स्थानों में जैन भिक्षु भी ठहरते हैं तो उसे अभिकान्त क्रिया कहते हैं अर्थात् साधु को ऐसे मकान में ठहरना कल्पता है। IV टीका-अनुवाद : यहां प्रज्ञापक की अपेक्षा से पूर्व आदि दिशाओं में श्राद्ध (श्रावक) या प्रकृतभद्रक गृहस्थ आदि होवे, किंतु वे साधुओं के आचार अच्छी तरह से जानते न हो, कि- साधुओं को ऐसा उपाश्रय (मकान) कल्पता है या नहि, किंतु उन्होंने कहिं से सुना हो कि- साधुओं को वसति (निवास) देने का फल स्वर्ग आदि है, अतः इस श्रद्धा, प्रतीति, रुचि से वे गृहस्थ उद्यान आदि में अपने लिये यानशाला आदि बनाते हुए उन श्रमण आदि को भी उतारा (निवास) देने के उद्देश से वे यानशाला आदि अधिक बड़े बनाये हो... जैसे कि- आदेशन याने लुहारशाला आदि... आयतन याने देवकुल के पास विभिन्न कमरे... तथा देवकुल (मंदिर), सभा याने चातुर्वेद्यादिशाला, प्रपा याने जलपान की परब, तथा पण्यगृह याने किराने की दुकान या कोठार... तथा यानगृह याने रथ आदि रखने के पडसाल... तथा सुधाकर्म याने जहां खडीसफेद मिट्टी, चुना आदि तैयार करतें हो ऐसे मकान... तथा दर्भ, वर्ध, वल्क, अंगार, और काष्ठकर्म के घर, तथा स्मशानगृह, शांतिकर्मगृह, गिरिगुफा, पाषाणमंडप इत्यादि प्रकार के मकान- घर में वे चरक, ब्राह्मण आदि साधुजन बार बार आकर ठहरतें हो, तब हे आयुष्मन् श्रमण ! ऐसी वसति (उपाश्रय) अभिक्रांतक्रियावाली याने अल्पदोषवाली होती है... Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202 2-1-2-2-10 (415) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु के आचार एवं व्यवहार से अपिरिचित श्रद्धानिष्ठ, भद्रपरिणामों वाले गृहस्थों ने शाक्य आदि अन्यमत के भिक्षुओं को ठहरने के लिए या अपने व्यवसाय आदि के लिए कुछ मकान बनाए हैं और वे मकान अन्यमत के साधु-संन्यासियों एवं गृहस्थों द्वारा अभिकान्त हो चुके हैं अर्थात् भोग लिए गए हैं तो साधु उसमें ठहर सकता है और उसकी इस वृत्ति को अभिक्रान्त क्रिया कहा गया है। अन्य भिक्षुओं एवं गृहस्थों द्वारा मकान के अभिक्रान्त होने की क्रिया के आधार पर ही इस क्रिया का नाम अभिकान्त क्रिया रखा गया है। प्रस्तुत पाठ में अभिव्यक्त किए गए मकानों के नाम से उस युग में चलने वाले विविध व्यापारों का स्पष्ट परिचय मिलता है। और यह भी स्पष्ट होता है कि उस युग में देवी-देवताओं के मन्दिर, भिक्षुओं के लिए मठ, धर्मशालाएं एवं पहाड़ों पर विश्रामगृह तथा गुफाएं बनाने की परम्परा रही है। वर्तमान में उपलब्ध अनेक विशाल गुफाओं से- जिनमें रहने के लिए प्रकोष्ठ भी बने हैं, उस युग की प्रवृत्तियों का स्पष्ट परिज्ञान होता है। 'सड्ढा' शब्द का वृत्तिकार ने 'श्रावकाः वा प्रकृति भद्रकाः अर्थात् भद्र प्रकृति के श्रावक' अर्थ किया है। परन्तु, मूल पाठ में यह भी स्पष्ट कर दिया है कि ऐसे श्रद्धालु भक्त जो साध्वाचार से अपरिचित हैं। इस पाठ से यह स्पष्ट होता है कि साधु को निर्दोष एवं सीधे-सादे मकानों में ठहरना चाहिए। जिससे उनकी साधना में किसी तरह का दोष न लगे। इसी कारण आगम में मनोहर एवं सुसज्जित मकानों में तथा गृहस्थ के साथ ठहरने का निषेध किया गया है। जितना एकान्त, सादा एवं निर्दोष स्थान होगा जीवन में उतनी ही अधिक समाधि एवं शान्ति रहेगी। इसलिए साधक को बगीचों में, श्मशान एवं शून्य गृहों में ठहरने का भी आदेश दिया गया है। और इस पाठ से भी स्पष्ट होता है कि उस युग में स्मशान, जंगल एवं गिरिकन्द्राओं में भी स्थान बने होते थे. जिनमें वानप्रस्थ संन्यासी निवास किया करते थे और ऐसे निर्दोष एवं शान्त वातावरण वाले स्थानों में जैन साधु भी ठहर जाते थे। और ऐसे स्थान उनकी आत्मसमाधि एवं चिन्तन में सहायक होते थे। अब अनभिकान्त क्रिया का वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 10 // // 415 // इह खलु पाईणं वा जाव रोयमाणेहिं बहवे समण-माहण अतिहि किवण Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-2-10 (415) 203 वणीमए समुद्दिस्स तत्थ अगारीहिं अगाराइं चेइयाई भवंति, तं० आएसणाणि वा जाव - भवणगिहाणि वा, जे भयंतारो तहप्प० आएसणाणि जाव गिहाणि वा तेहिं आणोवयमाणेहिं उवयंति, अयमाउसो ! अणभिक्कंतकिरिया यावि भवइ // 4 // // 415 // II संस्कृत-छाया : इह खलु प्राच्यादिषु वा, यावत् रोचमानैः बहून् श्रमण-ब्राह्मण-अतिथि-कृपणवनीपकान् समुद्दिश्य तत्र तत्र अगारिभिः अगाराणि चेतितानि भवन्ति, तद्यथाआदेशनानि वा यावत् भवनगृहाणि वा, ये भगवन्तः तथाप्र० आदेशनानि यावत् गृहाणि वा, ते: अनुपयद्भिः उपयन्ति, इयं आयुष्मन् ! अनभिक्रान्तक्रि या च अपि भवति / / 4 / / / / 415 // III सूत्रार्थ : हे आयुष्मन् शिष्य ! संसार में बहुत से श्रद्धालु गृहस्थ ऐसे हैं जो साधु के आचार विचार को नहीं जानते हैं, परन्तु वसती दान के स्वर्गादि फल को जानते हैं। उन लोगों ने उक्त स्वर्ग के फल पर श्रद्धा और अभिरुचि करते हुए शाक्यादि श्रमणों का उद्देश्य करके लोहकार शाला यावत् तलघर आदि बनाए हैं। यदि ये लोहकार शाला यावत् तलघर आदि स्थान, गृहस्थों ने तथा शाक्यादि श्रमणों ने अपने उपभोग में नहीं लिए हैं, अर्थात् बनने के बाद वे खाली ही पड़े रहे हैं। ऐसे स्थानों में यदि जैन साधु ठहरते हैं तो उन्हें अनभिक्रान्त क्रिया लगती है। IV टीका-अनुवाद : सुगम है... किंतु चरक आदि श्रमणों से वह वसति पूर्व काल में सेवित नहि होने के कारण से वह वसति अनभिक्रांतक्रिया स्वरुप दोषवाली है, अतः अनभिक्रांत के कारण से साधुओं को वह वसति (उपाश्रय) अकल्पनीय है... 4... || 415 // v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में पूर्व सूत्र में अभिव्यक्त की गई बात को दुहराते हुए कहा गया है कि यदि किसी श्रद्धालु गृहस्थ द्वारा शाक्य आदि श्रमणों के लिये एवं अपने उपभोग के लिए बनाए गए स्थानों में वे अन्यमत के श्रमण एवं गृहस्थ ठहरे नहीं हो, उन्होंने उस मकान को अपने उपभोग में नहीं लिया है, तो जैन साधु को वहां नहीं ठहरना चाहिए। इसमें आरम्भ आदि के दोष की दृष्टि के अतिरिक्त एक कारण यह भी है कि यदि कालान्तर में उस मकान में कोई उपद्रव हो गया या उससे कोई विशेष लाभ नहीं हुआ तो लोगों में यह अपवाद फैल सकता है कि इसमें सबसे पहले जैनमुनि ठहरे थे। अतः इस तरह की भ्रान्ति न फैले इस दृष्टि से Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 2-1-2-2-11 (416) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन भी साधु को पुरुषान्तरकृत अपरिभुक्त मकान में ही ठहरना चाहिए। अब वाभिधान क्रिया का वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 11 // // 416 // इह खलु पाईणं वा, जाव कम्मकरीओ वा तेसिं च णं एवं वुत्तपुव्वं भवइ-जे इमे भवंति समणा भगवंतो जाव उवरया मेहुणाओ धम्माओ, नो खलु एएसिं भयंताराणं कप्पड़ अहाकम्मिए उवस्सए वत्थए, से जाणिमाणि अम्हं अप्पणो सयट्ठाए चेइयाई भवंति, तं० आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा, सव्वाणि ताणि समणाणं निसिरामो, अवियाइं वयं पच्छा अप्पणो सयट्ठाए चेइस्सामो, तं० आएसणाणि जाव एयप्पगारं निग्योसं सुच्चा निसम्म जे भयंतारो तहप्प० आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा उवागच्छंति, इयरा-इयरेहिं पाहडे हिं वटुंति, अयमाउसो ! वज्जकिरिया वि भवड़॥ 5 // // 416 // II संस्कृत-छाया : इह खलु प्राच्यादिषु वा, यावत् कर्मकर्यः वा तेषां च एवं उक्तपूर्वं भवति, ये इमे भवन्ति श्रमणा: भगवन्तः यावत् उपरता: मैथुन-धर्मात्, न खलु एतेभ्यः भगवद्भ्यः कल्पते आधाकर्मिक: उपाश्रयः वसितुम्, सः यानि इमानि अस्माकं आत्मनः स्वार्थाय चेतितानि भवन्ति, तद्यथा आदेशनानि वा यावत् गृहाणि वा सर्वाणि तानि श्रमणेभ्य: नि:सरामः, वयं पश्चात् आत्मनः स्वार्थाय चेतयिष्यामः, तद्यथा-आदेशनानि वा यावत् एतत्प्रकारं निर्घोषं श्रुत्वा निशम्य ये भगवन्तः तथाप्रकाराणि आदेशनानि वा यावत् गृहाणि वा उपागच्छन्ति, इतरेतरेषु प्राभृतेषु वर्तन्ते, इयं आयष्मन् ! वयक्रिया च अपि भवति // 5 // // 416 // III सूत्रार्थ : संसार में पूर्वादि दिशाओं में बहुत से ऐसे श्रद्धालु गृहस्थ यावत् दास दासी आदि व्यक्ति हैं, वे परस्पर बातचीत करते हुए कहते हैं कि- ये पूजनीय जैन साधु मैथुन धर्म से सर्वथा उपरत हैं एवं सावध क्रियाओं से विरक्त हैं। अतः इन्हें आधाकर्मिक- आधाकर्म दोष से दूषित उपाश्रय में बसना नहीं कल्पता है। हमने अपने लिए जो लोहकार शाला आदि मकान बनाए हैं, वे सब इन श्रमणों को दे देते हैं। और हम अपने लिए दूसरे नए लोहकार शाला आदि मकान बना लेगें। गृहस्थों के उक्त निर्घोष को सुनकर तथा समझ कर भी जो मुनि-साधु तथाप्रकार के छोटे-बड़े लोहकार शाला आदि, गृहस्थों द्वारा, दिए गए स्थानों में उतरते हैं तो हे आयुष्मन् Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-2-12 (417) 205 शिष्य ! उन्हें वयक्रिया लगती है। अर्थात् जो साधु ऐसे स्थानों में ठहरता हैं उसे वयक्रिया का दोष लगता है। IV टीका-अनुवाद : सुगम है, किंतु सारांश यहा है कि- साधुओं के आचार से अनजान गृहस्थों ने अपने खुद के लिये बनाये हुए घर साधुओं को निवास के लिये देकर अपने लिये अन्य बनावे, तब ऐसे अन्य अन्य छोटे-बड़े घर में यदि साधु निवास करे, तो वह वसति वज्याभिधान दोषवाली होने के कारण से साधुओं को वज्याभिधान दोष लगता है, अतः ऐसी वसति साधुओं के लिये अकल्पनीय है... अब महावाभिधान वसति का स्वरुप कहतें है... v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- जो श्रद्धालु गृहस्थ साध्वाचार से अपरिचित हैं, वे अपने अपने परिजनों को बताते हैं कि हम अपने लिए बनाए हुए मकान इन्हें ठहरने को दे देते हैं। अपने रहने के लिए दूसरा मकान बना लेंगे। इस तरह के विचारों को सुनकर साधु को उस मकान में नहीं ठहरना चाहिए। यदि यह जानने के पश्चात् भी वह उस मकान में ठहरता है तो उसे वयक्रिया लगती है। ___ स्थानांग सूत्र में 'वज्ज' शब्द की व्याख्या करते हुए आचार्य अभयदेव सूरि ने लिखा है- 'वज्जंति-वय॑न्ते इति वय॑ः हिंसानृतादि पापं कर्म' अर्थात् 'वज की तरह भारी हिंसा, झूठ * ' आदि पापों को वर्ण्य कहते हैं। और तत्सम्बन्धी क्रिया वर्ण्य क्रिया कहते हैं।' इस अपेक्षा से 5 आश्रव वज्र या वर्ण्य है। अतः साधु के निमित्त आहार या उपाश्रय यदि बनाया गया हो और साधु उसे जानते हुए भी उसका उपभोग कर रहा हो तो उसे वर्ण्य दोष लगता है। अतः साधु को ऐसे मकान में ठहरना नहीं कल्पता। अब महावर्ण्य क्रिया का स्पष्टीकरण करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 12 // // 417 // इह खलु पाईणं वा संतेगइया सड्ढा भवंति, तेसिं च णं आयारगोयरे जाव तं रोयमाणेहिं बहवे समणमाहण जाव वणीमगे पगणिय समुद्दिस्स तत्थ, अगारीहिं अगाराइं चेहयाई भवंति, तंo आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा जे भयंतारो तहप्पगाराई आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा उवागच्छंति, इयरा-इयरेहिं पाहुडेहिं० अयमाउसो ! Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 2-1-2-2-12 (417) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन महावज्जकिरियावि भव // // || 417 // II संस्कृत-छाया : इह खलु प्राच्यादिषु वा सन्ति एके श्राद्धाः भवन्ति, तेषां च आचारगोचरान् यावत् तान् रोचमानैः बहून् श्रमण ब्राह्मण यावत् वनीपकान् गणयित्वा समुद्दिश्य तत्र तत्र अगारिभिः अगाराणि चेतितानि भवन्ति, तद्यथा-आदेशनानि वा यावत् गृहाणि वा, ये भगवन्तः तथाप्रकाराणि आदेशनानि वा यावत् गृहाणि वा, उपागच्छन्ति, इतरेतरेषु प्राभृतेषु० इयं आयुष्मन् ! महावय॑क्रिया च अपि भवति / / 6 / / / / 417 // III सूत्रार्थ : इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में बहुत से ऐसे श्रद्धालू गृहस्थ हे जो साधु (जैन मुनि) के आचार विचार को सम्यक्तया नहीं जानते हैं, परन्तु साधु को बसती दान देने से स्वर्गादि फल को सम्यक्तया जानते हैं और उस पर श्रद्धा-विश्वास तथा अभिरुचि रखते हैं। उन गृहस्थों ने बहुत से श्रमण, ब्राह्मण यावत् भिखारियों को गिन गिन कर तथा उनका लक्ष्य करके लोहकार शाला आदि विशाल भवन बनाए हैं। जो पूज्य मुनिराज तथाप्रकार के छोटे बड़े और गृहस्थों द्वारा सहर्ष भेंट किए गए उक्त लोहकार शाला आदि गृहों में आकर ठहरते हैं तो हे आयुष्मन् शिष्य ! यह उनके लिए महावर्ण्य क्रिया होती है, अर्थात् उन को यह सदोष क्रिया लगती है। IV टीका-अनुवाद : सुगम है, किंतु श्रमण आदि के लिये बनाये हुए जो कोइ वसति (घर) में यदि साधु स्थान, शय्या, निषद्यादि करे तब, उन्हे महावाभिधान नाम का दोष लगता है, अतः महावाभिधान दोषवाली वसति साधुओं के लिये अकल्पनीय है... किंतु विशुद्धकोटि भी है... अब सावधाभिधान वसतिका स्वरुप कहतें है... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- कुछ श्रद्धालु लोग साध्वाचार से अनभिज्ञ हैं, परन्तु वे साधु को मकान का दान देने में स्वर्ग आदि की प्राप्ति के फल को जानते हैं और इस कारण उन्होंने श्रमण, भिक्षु आदि को लक्ष्य में रखकर उनके ठहरने के लिए मकान बनाए हैं। साधु को ऐसे मकान में नहीं ठहरना चाहिए, यदि वह ऐसे मकानों में ठहरता है तो उसे महावर्ण्य दोष लगता है। इस पर यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि गृहस्थ ने शाक्य आदि श्रमणों के लिए मकान बनाया है और वे उस मकान में ठहर भी चुके हैं, तो फिर साधु उस Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-2-13 (418) 207 मकान में ठहरता है तो उसे महावर्ण्य क्रिया कैसे लगती है ? इसका समाधान यह है कि श्रमण शब्द का प्रयोग निर्ग्रन्थ के लिए भी होता है। आगम में बताया गया है- 1. निर्ग्रन्थ (जैन साधु), 2. बौद्ध भिक्षु, 3. तापस, 4. गैरिक (संन्यासी) और 5. आजीवक (गौशालक मत के साधु) आदि 5 सम्प्रदायों के साधुओं के लिए श्रमण शब्द का प्रयोग होता रहा है। अतः श्रमण शब्द से जैन साधु का ग्रहण किया गया है, क्योंकि बौद्ध भिक्षुओं आदि के लिए भिक्षु शब्द का भी प्रयोग किया गया है। अतः जिस मकान को बनाने में जेन साधु का लक्ष्य रखा गया हो उस मकान के पुरुषान्तर होने पर भी जैन साधु को उसमें नहीं ठहरना चाहिए। यदि वह उसमें ठहरता है तो उसे महावर्ण्य क्रिया (दोष) लगती है। अब सावद्य क्रिया को अभिव्यक्त करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे के सूत्र से कहेंगे। I सूत्र // 13 // // 418 // इह खलु पाईणं वा, संतेगइया जाव तं सद्दहमाणेहिं तं पत्तियमाणेहिं तं रोयमाणेहिं बहवे समणमाहण-अतिहिकिवणवणीमगे पगणिय समुद्दिस्स तत्थ अगाराइं चेइयाइं भवंति तं० आएसगाणि वा जाव भवणगिहाणि वा, जे भयंतारो तहप्पगाराणि आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा उवागच्छंति, इयराइयरेहिं पाहुडेहिं, अयमाउसो! आवज्जकिरिया यावि भव // 7 // // 418 // // संस्कृत-छाया : ____ इह खलु प्राच्यादिषु वा सन्ति एके यावत् तं श्रद्दधानः तं प्रतीयमानैः तं रोचमानैः बहून् श्रमण-ब्राह्मण-अतिथि-कृपण-वनीपकान् गणयित्वा, समुद्दिश्य तत्र तत्र अगाराणि चेतितानि भवन्ति, तद्यथा-आदेशनानि वा यावत् भवनगृहाणि वा, ये भगवन्तः तथाप्रकाराणि आदेशनानि वा यावत् भवनगृहाणि वा उपागच्छन्ति, इतरेतरेषु प्राभृतेषु, इयं आयुष्मन् ! सावधक्रिया च अपि भवति // 7 // // 498 // III सूत्रार्थ : इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में बहुत से ऐसे श्रद्धालू गृहस्थ हैं जो उपाश्रय दान के फल पर श्रद्धा करने से प्रीति करने से और रुचि करने से बहुत से श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण और भिखारियों का उद्देश्य रखकर लोहकार शालादि भवनों का निर्माण करते हैं जो मुनिराज तथाप्रकार के भेंटस्वरुप दिए गए छोटे बड़े भवनों में ठहरतें हैं, तो हे आयुष्मन् शिष्य ! उनके लिए यह सावध क्रिया होती है। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 2-1-2-2-14 (419) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन IV टीका-अनुवाद : सुगम है, किंतु पांच प्रकार के श्रमणादि के लिये बनाइ हुइ यह वसति (उपाश्रय) सावधक्रिया नाम के दोषवाली है, अतः ऐसी वसति में स्थान, शय्या, निषधादि करनेवाले साधु को सावधक्रिया नाम का दोष लगता है, इसलिये ऐसी वसति साधुओं को अकल्पनीय है... तो भी विशुद्धकोटि है... पांच प्रकार के श्रमण इस प्रकार हैं... 1. निर्यथ, 2. शाक्य 3. तापस, 4. गेरुक, 5. आजीवश्रमण... अब महासावधाभिधान वसति का स्वरुप कहतें हैं... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में भी पूर्व सूत्र की बात को दुहराया गया है। इसमें यह बताया गया है कि यदि श्रमण, भिक्षु आदि को लक्ष्य में रखकर किसी मकान में सावध क्रिया की गई हो तो साधु को उसमें नहीं ठहरना चाहिए। यदि कोई साधु उसमें ठहरता है तो उसे सावध क्रिया लगती है। अब महासावध क्रिया का वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहतें हैं.. सूत्र // 14 // // 419 // इह खलु पाईणं वा, जाव तं रोयमाणेहिं एगं समणजायं समुद्दिस्स तत्थ, अगारीहिं अगाराई चेइयाई भवंति, तं० आएसणाणि जाव गिहाणि वा महया पुढविकायसमारंभेणं जाव महया तसकायसमारंभेणं महया विरूवरूवेहिं पावकम्मकिच्चेहिं, तं जहा- छायणओ लेवणओ संथारदुवार पिहणओ सीओदए वा परट्टवियपुव्वे भवइ, अगणिकाए वा उज्जालियपुव्वे भवइ, जे भयंतारो तह० आएसणाणि वा० उवागच्छंति, इयरा-इयरेहिं पाहुडेहिं दुपक्खं ते कम्म सेवंति, अयमाउसो ! महासावज्जकिरिया यावि भवइ / / 8 // // 419 / / II संस्कृत-छाया : इह खलु प्राच्यादिषु वा, यावत् तं रोचमानैः एकं श्रमणजातं समुद्दिश्य तत्र तत्र अगारिभिः अगाराणि चेतितानि भवन्ति, तद्यथा-आदेशनानि यावत् गृहाणि वा महता पृथिवीकायसमारम्भेण यावत् महता प्रसकाय समारम्भेण महता विरूपरूपैः पापकर्मकृत्यैः, तद्यथा- छादनतः लेपनत: संस्तार-द्वारपिधानार्थं शीतोदकं वा त्यक्तपूर्व भवति, ये भगवन्तः तथा० आदेशनानि वा0 उपागच्छन्ति, इतरेतरेषु प्राभृतेषु द्विपक्षं ते कर्म सेवन्ते, इयं आयुष्मन ! महासावधक्रिया च अपि भवति / / 8 / / / / 419 // Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 2-1-2-2-14 (419) 209 III सूत्रार्थ : ___इस संसार में पूर्वादि चारों दिशाओं में बहुत से श्रद्धालु व्यक्ति हैं, जिन्होंने साधु का आचार तो सम्यक्तया नहीं सुना, केवल उपाश्रय दान के स्वर्गादि फल को सुना है। वे साधु के लिए 6 काय का समारम्भ करके लोहकार शाला आदि स्थान-मकान बनाते हैं। यदि साधु उनमें ज्ञात होने पर भी ठहरता है तो वह द्रव्य से साधु और भाव से गृहस्थ है, अर्थात् साधु का वेष होने से साधु और षट्काय के आरम्भ की अनुमति आदि से युक्त होने के कारण भाव से गृहस्थ जैसा है। अतः हे शिष्य ! इस क्रिया को महासावध क्रिया कहते हैं। IV टीका-अनुवाद : यहां कोइक गृहस्थ आदि किसी एक श्रमणसाधर्मिक के लिये पृथ्वीकाय आदि के संरंभ समारंभ एवं आरंभ से या कोई भी एक से विभिन्न प्रकार के भारे पाप कर्मो के आचरण के द्वारा जैसे कि- आच्छादन, लेपन, तथा संस्तारक के लिये या द्वार को ढांकने के लिये इत्यादि कारणों को लेकर पहले शीतल जल का छंटकाव कीया हो या अग्नि जलाया हो. तो ऐसी वसति (मकान) में स्थान-शय्या-निषद्यादि करनेवाला साधु दो पक्ष के कर्मो का आसेवन करता है... जैसे कि- प्रव्रज्या में रहकर आधाकर्मवाली वसति में रहने के कारण से गृहस्थपना प्राप्त होने का दोष और राग-द्वेष का दोष... इस स्थिति में साधु को ईर्यापथ एवं सांपरायिक कर्मबंध होता है... इत्यादि दोषों के कारण से ऐसी वसति महासावधक्रिया नाम के दोषवाली होती है... अतः अकल्पनीय है... अब अल्पक्रियाभिधान वसति का स्वरुप कहतें है... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- जो उपाश्रय-मकान साधु के उद्देश्य से बनाया गया है और साधु के उद्देश्य से ही उसको लीप-पोत कर साफ-सुथरा बनाया है और छप्पर आदि से आच्छादित किया है तथा दरवाजे आदि बनवाए हैं और गर्मी में ठण्डे पानी का छिड़काव करके मकान को शीतल एवं शरद् ऋतु में आग जलाकर गर्म किया गया है तो ऐसे मकान में साधु को नहीं ठहरना चाहिए। यदि साधु जानते हुए भी ऐसे मकान में ठहरता है तो उसे महासावध क्रिया लगती है। और ऐसे मकान में ठहरने वाला केवल वेष से साधु है, भावों से वह साधु नहीं। क्योंकि, उसमें साधु के लिए 6 काय के जीवों का आरंभ समारंभ हुआ है। इसलिए सूत्रकार ने स्पष्ट शब्दों में कहा है- 'दुपक्खं ते कम्म सेवंति।' आचार्य शीलांक ने प्रस्तुत पद की व्याख्या करते हुए लिखा है- 'ते द्विपक्षं कर्मासेवन्ते तद्यथाप्रव्रज्यायामाधाकर्मिकवसत्यासेवनाद् गृहस्थत्वं च रागद्वेषं च इर्यापथं साम्परायिकं च।' Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 2-1-2-2-15 (420) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन इससे स्पष्ट हो जाता है कि ऐसे सदोष मकान में ठहरने वाले साधु साधुत्व के महापथ से गिर जाते हैं, उनकी साधना शुद्ध नहीं रह पाती। अतः साधु को सदा निर्दोष एवं निरवद्य मकान में ठहरना चाहिए। अब अल्प सावध का वर्णन सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे के सूत्र से कहेंगे। सूत्र // 15 // // 420 // इह खलु पाईणं वा०, रोयमाणेहिं अप्पणो सयट्ठाए तत्थ अगारीहिं जाव उज्जालियपुव्वे भवइ, जे भयंतारो तहप्प० आएसणाणि वा० उवागच्छंति, इयरा-इयरेहि पाहुडेहिं एगपक्खं ते कम्म सेवंति, अयमाउसो ! अप्पसावज्जकिरिया यावि भवइ // 9 // एवं खलु तस्स० // 420 // // संस्कृत-छाया : इह खलु प्राच्यादिषु वा रोचमानैः आत्मनः स्वार्थाय तत्र तत्र अगारिभिः यावत् उज्ज्वालितपूर्वं भवति, ये भगवन्तः तथाप्र० आदेशनानि वा० उपागच्छन्ति, इतरेतरेषु प्राभृतेषु एकपक्षं ते कर्म आसेवन्ते, इयं आयुष्मन् ! अल्पसावधक्रिया च अपि / भवति // 9 // एवं खलु तस्य० // 420 // . III सूत्रार्थ : इस संसार में स्थित कुछ श्रद्धालु गृहस्थ जो यह जानते हैं कि साधु को उपाश्रय का दान देने से स्वर्ग आदि फल की प्राप्ति होती है, वे अपने उपयोग के लिए बनाए गए मकान को तथा शीतकाल में जहां अग्नि प्रज्वलित की गई हो ऐसे छोटे-बड़े मकान को सहर्ष साधु को ठहरने के लिये देते हैं। ऐसे मकान में जो साधु ठहरते हैं वे एकपक्ष-पूर्ण साधुता का पालन करते हैं और इसे अल्पसावध क्रिया कहते हैं। IV टीका-अनुवाद : सुगम है, किंतु यहां “अल्प' शब्द अभाव वाचक है... 9... अतः ऐसी निर्दोष वसति उपाश्रयमें रहनेवाले साधुको हि सच्चा साधुपना होता है... यहां 1. कालातिक्रांत, 2. उपस्थान, 3. अभिक्रांत, 4. अनभिक्रांत, 5. वर्ण्य, 6. महावय॑, 7. सावध, 8. महासावद्य, एवं 9. अल्पक्रिया... यह नव प्रकारकी वसति अनुक्रमसे नव सूत्रोंके द्वारा कही गइ है, इन नव में से अभिक्रांत एवं अल्पक्रियावाली वसति साधुओंको ठहरनेके लिये योग्य है, शेष सात प्रकारकी वसति साधुओंको ठहरनेके लिये योग्य नहि है... इति... Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-2-15 (420) 211 V सूत्रसार : - प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- जो मकान गृहस्थ ने अपने लिए बनाया हो और उसमें अपने लिए अग्नि आदि प्रज्वलित करने की सावध क्रियाएं की हों। साधु के उद्देश्य से उसमें कुछ नहीं किया हो तो ऐसे मकान में ठहरने वाला साधु पूर्ण रूप से साधुत्व का परिपालन करता है। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त ‘अप्प' शब्द अभाव का परिबोधक है। वृत्तिकार ने भी इसका अभाव अर्थ किया है। और मूलपाठ जो “एक पक्खं ते कम्मं सेवंयि-अर्थात जो द्रव्य और भाव से एक रुप अर्थात् साधुत्व का परिपालक है।'' यह पद दिया है, इससे 'अप्प' शब्द अभाव सूचक ही सिद्ध होता है। कुछ हस्तलिखित प्रतियों में उक्त नव क्रियाओं की एक गाथा भी मिलती है। उक्त नव प्रकार के उपाश्रयों में अभिक्रान्त और अल्प सावध क्रिया वाले दो प्रकार के मकान साधु के लिए ग्राह्य हैं, शेष सातों प्रकार के स्थान अकल्पनीय हैं। // प्रथमचूलिकायां पिण्डैषणा शय्यैषणा-नाम-द्वितीयाध्ययने द्वितीयः उद्देशकः समाप्तः // 卐卐॥ * : प्रशस्ति : . मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शगुंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट -परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. “श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवास को प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. // राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058. Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212 2-1-2-3-1 (421) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 1 ___ अध्ययन - 2 उद्देशक - 3 // शय्यैषणा // द्वितीय उद्देशक कहा, अब तृतीय उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं... यहां परस्पर यह संबंध है कि- दुसरे उद्देशक में कहा है कि- अल्पक्रिया वसति शुद्ध याने निर्दोष है... अब यहां तीसरे उद्देशक में प्रथम सूत्र से सदोष याने पूर्व कहे गये प्रकार से विपरीत वसति का स्वरुप कहतें I सूत्र // 1 // // 421 // से य नो सुलभे फासुए उंछे अहेसणिज्जे नो य खलु सुद्धे इमेहिं पाहुडेहिं, तं जहा-छायणओ लेवणओ संथारदुवारपिहणओ पिंडवाएसणाओ, से य भिक्खू चरियारए, ठाणरए, निसीहियारए, सिज्जासंथारपिंडवाएसणारए, संति भिक्खूणो एवमक्खाइणो उज्जुया नियागपडिवण्णा अमायं कुव्वमाणा वियाहिया, संतेगइया पाहुडिया उक्खित्तपुटवा भवड, एवं निक्खित्तपुव्वा भवड़, परिभाइयपुव्वा भवइ, परिभुत्तपुव्वा भवइ, परिद्ववियपुव्वा भवड़, एवं वियागरेमाणे समियाए वियागरेइ ? हंता भवइ // 421 // II संस्कृत-छाया : सः च न सुलभः प्रासुक: उञ्छ: अथ एषणीयः, न च खलु शुद्धा अमीभिः प्राभृतैः, तद्यथा-छादनत: लेपनत: संस्तार-द्वार- पिधानतः पिण्डपातैषणामाश्रित्य, सः च भिक्षुः चर्यारत: स्थानरत: निषद्यारत: शय्यासंस्तारक-पिण्डपातैषणारतः, सन्ति भिक्षवः एवं आख्यायिनः ऋजव: नियागप्रतिपन्ना: अमायाविनः व्याख्याताः, सन्ति एके प्राभृतिका उत्क्षिप्तपूर्वा भवति, एवं निक्षिप्तपूर्वा भवति परिभाजितपूर्वा भवति, परिभुक्तपूर्वा भवति, परित्यक्तपूर्वा भवति, एवं व्याकुर्वन् सम्यग् व्याकर्ता भवति ? हन्त ! सम्यग् व्याकर्ता भवति // 421 // III सूत्रार्थ : भिक्षा के लिए व्याम में गए हुए साधु को यदि कोई भद्र गृहस्थ यह कहे कि भगवन् ! यहां आहार-पानी की सुलभता है, अतः आप यहां रहने की कृपा करें। इसके उत्तर में साधु यह कहे कि यहां आहार-पानी आदि तो सब कुछ सुलभ है परन्तु निर्दोष उपाश्रय का मिलना Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-3-1 (421) 213 दुर्लभ कठिन है। क्योंकि साधु के लिए कहीं उपाश्रय में छत डाली हुई होती है, कहीं लेपापोत्ती की हुई होती है, कहीं संस्तारक के लिए ऊंची-नीची भूमि को समतल किया गया होता है और कहीं द्वार बन्द करने के लिए दरवाजे आदि लगाए हुए होते हैं, इत्यादि दोषों के कारण शुद्ध निर्दोष उपाश्रय का मिलना कठिन है। और दूसरी यह बात भी है कि शय्यातर का आहार साधु को लेना नहीं कल्पता है। अतः यदि साधु उसका आहार लेते हैं तो उन्हें दोष लगता है और उनके नहीं लेने से बहुत से शय्यातर गृहस्थ रुष्ट हो जाते हैं। यदि कभी उक्त दोषों से रहित उपाश्रय मिल भी जाए, फिर भी साधु की आवश्यक क्रियाओं के योग्य उपाश्रय का मिलना कठिन है। क्योंकि- साधु विहारचर्या वाले भी हैं, तथा शय्या-संस्तारक और पिंडपात की शुद्ध गवेषणा करने वाले भी है। उक्त क्रियाओं के लिये योग्य उपाश्रय मिलना और भी कठिन है। इस प्रकार कितने ही सरल-निष्कपट एवं मोक्ष पथ के गामी भिक्षु उपाश्रय के दोष बतला देते हैं। कुछ गृहस्थ मुनि के लिये ही मकान बनाते हैं, और फिर यथा अवसर आगन्तुक मुनि से छल युक्त वार्तालाप करते हैं। वे साधु से कहते हैं कि 'यह मकान हमने अपने लिये बनाया है, आपस में बांट लिया है, परिभोग में ले लिया है, परन्तु अब नापसंद होने के कारण बहुत पहले से वैसे ही खाली छोड़ रखा है। अतः पूर्णतया निर्दोष होने के कारण आप इस उपाश्रय में ठहर सकते हैं।' परन्तु विचक्षण मुनि इस प्रकार के छल में न फंसे, तथा सदोष उपाश्रय में ठहरने से सर्वथा इन्कार कर दे। गृहस्थों के पूछने पर जो मुनि इस प्रकार उपाश्रय के गुण-दोषों को सम्यक् प्रकार से बतला देता हैं, उसके संबन्ध में शिष्य प्रश्न करता है किहे भगवन् ! क्या वह सम्यक् कथन करता है ? सूत्रकार उत्तर देते हैं कि- हां, वह सम्यक् कथन करता है। IV टीका-अनुवाद : यहां कभी कोइक साधु वसति (उपाश्रय) की अन्वेषणा (शोध) के लिये या भिक्षा के लिये गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर कोइक श्रद्धालु गृहस्थ ऐसा कहे कि- "इस गांव में आपको बहोत सारा आहारादि प्राप्त होगा अतः यहां वसति (उपाश्रय) ग्रहण करके आपको यहां रहना (ठहरना) ठीक रहेगा..." इत्यादि तब वह साधु गृहस्थ को कहे कि- यहां केवल (मात्र) प्रासुक आहारादि हि दुर्लभ है, ऐसा नहि है किंतु प्रासुक आहारादि प्राप्त होने पर, जहां बैठकर भोजन कर शकें ऐसी आधाकर्मादि रहित उपाश्रय (वसति) भी दुर्लभ है, और उंछ याने छादन-लेपनादि उत्तर गुण के दोष रहित भी नहि है... और साधुओं को तो मूलगुणदोष एवं उत्तरगुणदोष रहित हि उपाश्रय एषणीय होता है, यहां वह वसति दुर्लभ है... मूल एवं उत्तर गुण इस प्रकार हैं... Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 2-1-2-3-1 (421) 'श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन 1. गृहस्थों ने अपने आप के लिये बनाये हुए मकान-घर वह यथाकृत वसति मूलगुण से विशुद्ध है... गृहस्थों ने अपने आपके लिये बनाये हुए मकान में यदि आच्छादन, लेपन आदि परिकर्म की भी आवश्यकता न हो तब वह मकान (वसति) उत्तरगुण से विशुद्ध है... यदि उस मकान में धूप-वास-उद्योत-बलिवृत्त सिक्त और संमार्जनादि क्रिया करनी हो तब वह वसति विशोधिकोटि दोषवाली कही है... प्रायः वसति (मकान) में उत्तरगुण दोषों की संभावना होती है, अतः विस्तार से कहते हैं... जैसे कि- दर्भ आदि से ढांकना, गोमय आदि से लेपना, अपवर्तक के अनुसार संस्तारक (संथारो) तथा द्वार को बडा बनाना या छोटा बनाना इत्यादि... अथवा द्वार के कपाट (कमाडदरवाजे) बनाना... इत्यादि दोषों के कारण से वह वसति सदोष कही है.... तथा पिंड याने आहारादि की निर्दोष एषणा की दृष्टि से कहतें हैं कि- कीसी उपाश्रय में ठहरे हुए साधुओं को घर का मालिक गृहस्थ आहारादि के लिये निमंत्रण करे, तब उस घर के मालिक (शय्यातर) के यहां से आहारादि लेने में निषिद्ध आचरण नाम का दोष लगता है, क्योंकि- साधुओं को शय्यातर-पिंड अकल्पनीय कहा गया है, तथा यदि साधु उनके घर में से आहारादि न ग्रहण करे तो उन घर के मालिक (स्वामी) को द्वेष (गुस्सा) आदि होने की संभावना है, इस कारण से कहतें हैं कि- उत्तरगुण से विशुद्ध उपाश्रय प्राप्त होना दुर्लभ है... यदि निर्दोष उपाश्रय प्राप्त हो तब साधु वहां स्थान, शय्या, निषद्यादि करे... अन्यत्र भी कहा है कि मूल एवं उत्तर गुण से विशुद्ध तथा स्त्री, पशु एवं नपुंसकों के आवागमन से रहित वसति में साधु निवास (मासकल्पादि) करे, और सदा दोषों से बचतें रहें... अब कहतें हैं कि- मूल एवं उत्तर गुण से विशुद्ध वसति प्राप्त होने पर भी स्वाध्यायभूमीवाला विविक्त उपाश्रय प्राप्त होना दुर्लभ है... जैसे कि- मल-मूत्र के निरोध में असहिष्णु साधु बार बार चर्यारत याने आवागमन करते रहते हैं, स्थानरत याने एक जगह स्थिर रहकर काउस्सग करनेवाले, निषद्यारत याने स्वाध्याय ध्यान करनेवाले, शय्या याने शरीर प्रमाण और संस्तारक याने ढाइ हाथ प्रमाण सोने की जगह... अथवा ग्लान (रोग) आदि के कारण से कोइक साधु सोने के लिये संथारे में रहतें हो तथा निर्दोष आहारादि प्राप्त होने पर व्यासैषणा (भोजन) में रक्त होतें हैं इत्यादि विभिन्न चर्यावाले साधुजन होतें हैं... इत्यादि प्रकार से गृहस्थ को वसति के गुण-दोष कहनेवाले वे साधु मोक्षमार्ग में चलनेवाले होतें हैं एवं माया-कपट रहित होतें हैं... अब इस प्रकार वसति का स्वरुप कहकर वे साधु वहां से विहार करे तब वे श्रद्धालु श्रावकों ने देखा कि- साधओं को उपयोग में आवे ऐसी एषणीय वसति तो है नहि. अतः वे गृहस्थ साधुओं के लिये नये मकान को छादन, लेपन आदि से संस्कारित करें... अब कालांतर Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-3-1 (421) 215 में वे साधु या अन्य साधु आवे तब वे गृहस्थ इस प्रकार की छलना (माया) करे कि- प्राभृतिका देने के लिये यह वसति बनी हुइ है, अतः यहां ठहरीयेगा... अथवा, यह वसति पहले से हि हमारे लिये बनाइ हुइ है, अथवा हमारे भाइ-भतीजे के लिये यह घर बनाया हुआ है, अथवा इस घर में पहले अन्य लोग रहते थे, अथवा यह मकान अब हमारे काम का नहि है, हमने इसका त्याग कीया है, यदि श्रमण भगवंत ऐसे आपको इस मकान में ठहरना न कल्पे तो अब हम इस मकान को तोडकर गिरा देंमे... इत्यादि प्रकार से छलना (माया-कपट) करे तब गीतार्थ साधु उन गृहस्थों की छलना को सम्यग् प्रकार से जानकर उस वसति का त्याग करें। प्रश्न- क्या कभी ऐसी छलना होने पर भी कोइक गृहस्थ वसति के गुण-दोष आदि पुछे तब साधु जवाब दे कि नहि ? और ऐसा जवाब देनेवाला साधु सम्यक् जवाब देनेवाला कहलायेगा ? . उत्तर- आचार्यजी कहतें हैं कि- हे शिष्य ! वसतिके गुण-दोष कहनेवाला साधु सम्यग् (सच्चा) जवाब देनेवाला है ऐसा कहा गया है... अब तथाविध कार्य के कारण से चरक, कार्पटिक आदि के साथ संवास करना हो तो उसकी विधि कहतें हैं... V. सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु किसी गांव या शहर में भिक्षा के लिए गया, उस समय कोई श्रद्धानिष्ठ गृहस्थ उक्त मुनि से प्रार्थना करे कि हमारे गांव या शहर में आहारपानी आदि की सुविधा है, अतः आप इसी गांव में ठहरें। गृहस्थ के द्वारा इस प्रकार प्रार्थना करने पर मुनि सरल एवं निष्कपट भाव से कहे कि- आहार पानी की तो यहां सुलभता है, परन्तु ठहरने के लिए निर्दोष मकान का उपलब्ध होना कठिन है। मूल एवं उत्तर गुणों की दृष्टि से निर्दोष मकान सर्वत्र सुलभ नहीं होता। कहीं मकानों की कमी के कारण मूल से ही साधु के लिए मकान बनाया जाता है। कहीं साधु के उद्देश्य से नहीं बने हुए मकान पर साधु के लिए छत डाली जाती है, उसमें सफेदी करवाई जाती है, शय्या के लिए योग्य स्थान बनाया जाता है, दरवाजे तथा खिडकिएं लगाई जाती हैं। इस तरह मूल या उत्तर गुण में दोष लगने की संभावना रहती है। यदि कहीं सब तरह से निर्दोष मकान मिल जाए तो दूसरा प्रश्न यह सामने आएगा कि हम शय्यातर (मकान मालिक) के घर का आहार-पानी आदि ग्रहण नहि करते। कभी वह भक्तिवश आहार आदि के लिए आग्रह करे और हमारे द्वारा इनकार करने पर क्रोधित Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 2-1-2-3-2 (422) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन होकर धर्म से या साधु-सन्तों से विमुख होकर उनका विरोध कर सकता है। वृत्तिकार ने भी यही भाव अभिव्यक्त किया है। निर्दोष मकान एवं शय्यातर के अनुकूल मिलने के बाद तीसरी समस्या साधना की रह जाती है। कुछ साधु विहार चर्या वाले होती हैं, कुछ कायोत्सर्ग करने में अनुरक्त रहते हैं, कुछ स्वाध्याय एवं चिन्तन-मनन में व्यस्त रहते हैं। अतः इन सब साधनाओं की दृष्टि से भी मकान अनुकूल होना आवश्यक है, अर्थात् साधना के लिए एकान्त एवं शान्त वातावरण का होना जरूरी है। इस तरह मुनि स्थान सम्बन्धी निर्दोषता एवं सदोषता को स्पष्ट रूप से बता दे और सभी दृष्टियों से शुद्ध एवं निर्दोष मकान की गवेषणा करने के पश्चात् उसमें ठहरे। साधु से मकान सम्बन्धी सभी गुण-दोष सुनने के बाद यदि कोई गृहस्थ साधु के लिए बनाए गए मकान को भी शुद्ध बताए और छल-कपट के द्वारा उसकी सदोषता को छिपाने का प्रयत्न करे तो साधु को उसके धोखे में नहीं आना चाहिए। और उसकी तरह स्वयं को भी छल-कपट का सहार नहीं लेना चाहिए। साधु को सदा सरल एवं निष्कपट भाव ही रखना चाहिए। यदि कोई गृहस्थ छल-कपट रखकर उपाश्रय के गुण-दोष जानना चाहे, तब भी साधु को बिना हिचकिचाहट के उपाश्रय सम्बन्धी सारी जानकार करा देनी चाहिए। इसी से साधु की साधना सम्यक् रह सकती है। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त ‘चरियारए' पद से विहार चर्या का 'ठाणरए' से ध्यानस्थ होने का, 'निसिहियाए' से स्वाध्याय का, ‘उज्जुया' से छल-कपट रहित, सरल स्वभाव वाला होने का एवं 'नियाग पडिवन्ना' से संयम में मोक्ष के ध्येय को सिद्ध करने वाला बताया गया है। और 'संतेगइय पाहुडिया उक्खित्तपुव्वा भव:' पद से यह स्पष्ट किया गया है कि- साधु के उद्देश्य से बनाए गए उपाश्रय को निर्दोष बताना तथा ‘एवं परिभुत्तपुव्वा' भवइ परिट्ठवियपुव्वा भवइ' आदि पदों से इस बात को बताया गया है कि- कुछ श्रद्धालु भक्त रागवश सदोष मकान को भी छल-कपट से निर्दोष सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं साधु को उनकी बातों में नहीं आना चाहिए। यदि कभी परिस्थितिवश साधु को चरक-आदि अन्य मत के भिक्षुओं के साथ ठहरना पडे, तो किस विधि से ठहरना चाहिए इसका उल्लेख सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे के सूत्र से कहेंगे... I सूत्र // 2 // // 422 // से भिक्खू वा० से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा खुड्डियाओ खुड्डदुवारियाओ निययाओ संनिरुद्धाओ भवंति, तहप्पगा० उवस्सए राओ वा वियाले वा निक्खममाणे Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-3-2 (422) 217 वा पविसमाणे वा० पुरा हत्थेण वा पच्छा पाएण वा तओ संजयामेव निक्खमिज्ज वा केवली बूया-आयाणमेयं, जे तत्थ समणाण वा माहणाण वा छत्तए वा मत्तए वा दंडए वा लट्ठिया वा मिसिया वा नालिया वा चेलं वा चिलिमिली वा चम्मए वा चम्मकोसए वा चम्मछेयणए वा दुब्बुद्धे दुण्णिक्खित्ते अनिकंपे चलाचले भिक्खू य राओ वा वियाले वा निक्खममाणे वा पयलिज्जमाणे वा, से तत्थ पयलमाणे वा० हत्थं वा० लूसिज्ज वा पाणाणि वा० जाव ववरोविज्ज वा, अह भिक्खूणं पुव्वोवढं जं तह० उवस्सए पुरा हत्थेण निक्ख० वा पच्छा पाएणं तओ संजयामेव निक्खमिज्ज वा पविसिज्ज वा // 422 // II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा० सः यत् पुन: उपाश्रयं जानीयात्- शुद्धिकाः क्षुद्रद्वाराः नीचा: सन्निरुद्धाः भवन्ति, तथाप्रका० उपाश्रये रात्रौ वा विकाले वा निष्क्रममाणेन वा प्रविशता वा पुरा हस्तेन वा पश्चात् पादेन वा तत: संयतः एव निष्क्रामेत् वा केवली ब्रूयात्आदानमेतत्, ये तत्र श्रमणानां वा ब्रह्मणानां वा (श्रमणेभ्य: वा ब्राह्मणेभ्य: वा) छत्रक वा मात्रकं वा दण्डः वा लष्टिः वा मिश्रिका वा नालिका वा चेलं वा चिलिमिली (यवनिका) वा चर्म वा चर्मकोश: वा चमच्छेदनक: वा दुर्बद्धः दुर्णिक्षिप्त: अनिकम्प: चलाचलः, भिक्षुः च रात्रौ वा विकाले वा निष्क्रममाण: वा प्रविशन् वा, प्रचलेत् वा प्रपतेत् वा, सः तत्र प्रचलन् वा प्रपतन् वा हस्तं वा० लुष्यात् वा प्राणिनः वा यावत् व्यवरोपयेत् वा, अथ भिक्षूणां पूर्वोपदिष्टं यत् तथा० उपाश्रये पुरा हस्तेन० निष्क्रम० वा पश्चात् पादेन, ततः संयतः एव निष्क्रामेत् वा प्रविशेत् वा // 422 // III सूत्रार्थ : वह साधु अथवा साध्वी फिर उपाश्रय को जाने, जैसे कि- जो उपाश्रय छोटा है अथवा छोटे द्वार वाला है, तथा नीचा है और चरक आदि भिक्षुओं से भरा हुआ है, इस प्रकार के उपाश्रय में यदि साधु को ठहरना पडे तो वह रात्रि में और विकाल में, भीतर से बाहर निकलता हुआ या बाहर से भीतर प्रवेश करता हुआ, प्रथम हाथ से देखकर पीछे पैर रखे। इस प्रकार साधु यत्नापूर्वक निकले या प्रवेश करे। क्योंकि केवली भगवान कहते हैं कि- यह कर्म बन्धन का कारण है, क्योंकि वहां पर जो शाक्यादि श्रमणों तथा ब्राह्मणों के छत्र, अमत्र (भाजन विशेष) मात्रक, दंड, यष्टी, योगासन, नलिका (दण्ड विशेष) वस्त्र, यवनिका (मच्छरदानी) मृगचर्म, मृगचर्मकोष, चर्मछदन-उपकरण विशेष-जो कि अच्छी तरह से बन्धे हुए और ढंग से रखे हुए नहीं है, कुछ हिलते हैं और कुछ अधिक चंचल हैं उनको आघात पहुंचने का डर है, क्योंकि रात्रि में और विकाल में अन्दर से बाहर और बाहर से अन्दर निकलता या प्रवेश करता हुआ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 2-1-2-3-2 (422) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन साधु यदि फिसल पड़े या गिर पड़े तो वे उपकरण टूट जाएंगे, अथवा उस भिक्षु के फिसलने या गिर पड़ने से उसके हाथ-पैर आदि के टूटने का भी भय है और उसके गिरने से वहां पर रहे हुए अन्य क्षुद्र जीवों के विनाश का भी भय है, इसलिए तीर्थकरादि आप्त पुरुषों ने पहले ही साधुओं को यह उपदेश दिया है कि इस प्रकार के उपाश्रय में पहले हाथ से टटोल कर फिर पैर रखना चाहिए और यत्नापूर्वक बाहर से भीतर एवं भीतर से बाहर गमनागमन करना चाहिए। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. जब ऐसा जाने कि- यह उपाश्रय छोटा है, या छोटे द्वारवाला है, अथवा बहोत हि नीचा है अथवा गृहस्थों से भरा हुआ है, और ऐसे उपाश्रय में यदि साधु ठहरे, तब गृहपति ने अन्य भी चरक आदि को भी कितनेक दिन रहने के लिये निवास दीया हुआ हो, या तो वे चरकादि पहले से हि रहते हो, और बाद में साधुओं को वहां ठहरने के लिये निवास दे, और विशेष कार्य को लेकर यदि साधु वहां निवास करे, तब रात्री में लघुनीति (पेसाब) आदि के लिये बाहार निकलते या पुनः अंदर प्रवेश करती वख्त वहां रहे हुए चरक आदि के पात्र आदि उपकरणों का तुट-फुट (घात) विनाश न हो, या थोडा सा भी नुकसान न हो इस प्रकार अंधेरे में वह साधु अंधे आदमी की तरह हाथ आगे की और फैलाता हुआ गमनागमन (आना-जाना) करे इत्यादि... तथा चिलिमिली याने यवनिका (पडदा) तथा चर्मकोश याने पेर की पेनी का रक्षण करने का साधन, खल्लक आदि... अब वसति-याचना की विधि कहतें हैं... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- अपनी आत्मा एवं संयम की विराधना से बचने के लिए साधु को रात्रि एवं विकाल के समय आवश्यक कार्य से उपाश्रय के बाहर जाते एवं पुनः उपाश्रय में प्रविष्ट होते समय विवेक एवं यत्नापूर्वक गमनागमन करना चाहिए। यदि किसी उपाश्रय के द्वार छोटे हों या उपाश्रय छोटा हो और उसमें कुछ गृहस्थ रहते भी हों या अन्य मत के भिक्षु ठहरे हुए हों तो साधु को रात के समय बाहर आते-जाते समय पहले हाथ से टटोल कर फिर पैर रखना चाहिए। क्योंकि ऐसा करने से उसको कहीं चोट नहीं लगेगी और न किसी से टक्कर खाकर गिरने या फिसलने का भी भय रहेगा। यदि वह अपने हाथ से टटोल कर सावधानी से नहीं चलेगा तो संभव है दरवाजा छोटा होने के कारण उसके सिर आदि में चोट लग जाए या वह फिसल पड़े या किसी भिक्षु की उपधि-उपकरण पर पैर पड़ जाने से वह टूट जाए और इससे उसके मन को संक्लेश हो और परस्पर कलह भी हो जाए। इस तरह समस्त दोषों से बचने के लिए साधु को विवेक एवं यत्नापूर्वक गमनागमन करना Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-3-3 (423) 219 चाहिए। प्रस्तुत सूत्र से उस युग के साधु समाज में प्रचलित उपधियों-उपकरण का एवं उस युग की विभिन्न साधना पद्धतियों का परिचय मिलता है और साथ में गृहस्थ की उदारता का भी परिचय मिलता है कि वह बिना किसी भेद भाव से सभी संप्रदाय के भिक्षुओं को विश्राम करने के लिए मकान दे देता था। उसके द्वार सभी के लिए खुले थे। साधु को स्थान की याचना किस तरह करनी चाहिए, इसका उल्लेख सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे के सूत्र से करेंगे। I सूत्र // 3 // // 423 // . से आगंतारेसु वा अणुवीय उवस्सयं जाइज्जा, जे तत्थ ईसरे, जे तत्थ समहिट्ठाए, ते उवस्सयं अणुण्णविज्जा- कामं खलु आउसो ! अहालंदं अहापरिण यं वसिस्सामो जाव आउसंतो ! जाव आउसंतस्स उवस्सए जाव साहम्मियाइं ततो उवस्सयं गिहिस्सामो, तेण परं विहरिस्सामो // 423 // I संस्कृत-छाया : - सः आगन्तागारेषु वा अनुविचिन्त्य उपाश्रयं याचेत, यः तत्र ईश्वरः यः तत्र समधिष्ठाता, सः उपाश्रयं अनुज्ञापयेत्- कामं खलु आयुष्मन् ! यथाप्राप्तं यथापरिज्ञातं वत्स्यामः यावत् आयुष्मन् ! यावत् आयुष्मत: उपाश्रयः, यावत् साधर्मिका: तत: उपाश्रयं गृहीष्यामः, ततः परं विहरिष्यामः // 423 // III सूत्रार्थ : वह साधु धर्मशालाओं आदि में प्रवेश करने के अनन्तर यह विचार करे कि- यह उपाश्रय किसका है और यह किसके अधिकार में है ? तदनन्तर उपाश्रय की याचना करे। (इस सूत्र का विषय कुछ क्लिष्ट है इसलिए प्रश्नोत्तर के रूप में लिखा जाता है) मुनि- आयुष्मन् गृहस्थ ! यदि आप आज्ञा दें तो आपकी इच्छानुकूल जितने समय पर्यन्त और जितने भूमि भाग में आप रहने की आज्ञा देंगे, उतने ही समय और उतने ही भूमि भाग में हम रहेंगे। गृहस्थ- आयुष्मन् मुनिराज ! आप कितने समय तक रहेंगे ? मुनि- आयुष्मन् सद्गृहस्थ ! किसी कारण विशेष के बिना हम ग्रीष्म और हेमन्त ऋतु में एक मास और वर्षा ऋतु में चार मास पर्यन्त रह सकते हैं। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 2-1-2-3-3 (423) 'श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन गृहस्थ- इतने समय के लिए आप को यह उपाश्रय नहीं दिया जा सकता। मुनि- यदि इतने समय तक की आज्ञा नहीं दे सकते तो कोई बात नहीं आप जितने समय के लिए कहेंगे उतने समय तक यहां ठहर कर फिर हम विहार कर जावेंगे। गृहस्थ- आप कितने साधु हैं ? मुनि- साधु तो समुद्र के समान अनगिनत है। क्योंकि अपने पठन पाठन आदि कार्य के लिए कई मुनि आते हैं, और अपना कार्य करके चले जाते हैं। किन्तु जो यहां पर आवेंगे वे सब आपकी आज्ञानुसार रह कर विहार कर जावेंगे। इस प्रकार मुनि को गृहस्थ के पास उपाश्रय की याचना करनी चाहिए। IV टीका-अनुवाद : वह साधु आगंतुकों के ठहरने के घरों में प्रवेश करके एवं अनुप्रेक्षा (विचार) करके याने यह उपाश्रय कैसा है ? इसका स्वामी कौन है ? इत्यादि सोच-विचार करके मकान मालिक से वसति की याचना करे, तब वहां पर यदि गृहस्वामी हो या गृहस्वामी से नियुक्त कोड सेवक हो, तो वे उन साधुओं को ठहरने की अनुमति दे... जैसे कि- हे दीर्घायुः ! हे श्रमण ! आप यहां इच्छानुसार ठहरीये... तब साधु उन्हे कहे कि- हां, ठीक है, आपकी अनुमति से दीये हुए इस उपाश्रय के इतने भाग में कुछ दिन रहेंगे... तब वह गृहस्थ कहे कि- हे श्रमण ! आप यहां कितने दिन रहोगे ? तब वह वसति के परीक्षक गीतार्थ साधु कहे कि- विशेष कारण के सिवा ऋतुबद्ध काल में एक महिना और वर्षाकाल में चार महिने रहने का विधान है... ऐसा कहने पर वह गृहस्थ कहे कि- इतने दिन तक तो मेरा यहां रहना नहि होगा.. तब वह साधु तथाप्रकार के कारण को लेकर कहे कि- हे आयुष्मन् ! आप जब तक यहां रहोगे तब तक हम आपके उपाश्रय (मकान) में निवास करेंगे, उसके बाद अन्यत्र विहार करेंगे... जब यह गृहस्थ कहे कि- हे श्रमण ! आप कितने साधुजन यहां रहेंगे ? तब वह साधु कहे कि- देखिये ! पू. आचार्य म. समुद्र के समान बहोत बडे परिवारवाले हैं, अतः साधुओं की संख्या नियत नहि कह शकतें... किंतु विभिन्न कार्यों के लिये केतनेक साधु आयेंगे, और जिन्हो का कार्य पूर्ण हुआ होगा वे अन्यत्र जाएंगे... अतः जितने भी हमारे साधर्मिक साधु आयेंगे, उनका यह निवास स्थान रहेगा, ऐसा आप जानीयेगा... यहां सारांश यह है कि- साधुओं की संख्या निश्चित न कहें... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में उपाश्रय की याचना करने की विधि का उल्लेख किया गया है। इसमें बताया गया है कि- साधु को सबसे पहले यह जानना चाहिए कि यह मकान किसके अधिकार Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-3-4 (4.24) 221 में है अथवा किस का है ? मकान मालिक का परिज्ञान करने के बाद उससे उस मकान में ठहरने की आज्ञा मांगनी चाहिए। यदि वह पूछे कि आप कितने समय तक ठहरेंगे तो मुनि उससे कहे कि हम वर्षावास में 4 महीने और शेष काल में एक महीने से ज्यादा बिना किसी विशेष कारण के एक स्थान में नहीं ठहरते हैं। यदि वह एक महीने के लिए मकान देने को तैयार न हो तो वह जितने दिन ठहरने की आज्ञा दे उतने दिन उस मकान में ठहरे। उसकी आज्ञा की अवधि पूरी होने के बाद उसकी पुनः आज्ञा लिए बिना साधु को उस मकान में नहीं ठहरना चाहिए। गृहस्थ ने जितने समय के लिए जितने भू-भाग को उपभोग में लेने की आज्ञा दी हो उतने समय तक उतने ही क्षेत्र को अपने काम में ले। यदि कोइ गृहस्थ साधुओं की संख्या के विषय में पूछे तो मुनि को निश्चत संख्या में नहीं बंधना चाहिए। क्योंकि- कई बार स्वाध्याय आदि के लिए स्थान की अनुकूलता देखकर आस-पास के क्षेत्र में स्थित साधु भी स्वाध्याय, ध्यान आदि के लिए आ जाते हैं और वापिस चले भी जाते हैं। इस तरह सन्तों की संख्या कम-ज्यादा भी होती रहती है। इसलिए इस सम्बन्ध में उसे इतना ही कहना चाहिए की साधुओं की संख्या असीम हैं उसे नियमित रूप से नहीं बताया जा सकता, परन्तु आपने जितने समय के लिए आज्ञा दी है उससे ज्यादा समय आपकी आज्ञा लिए बिना कोई भी साधु नहीं ठहरेगा। . प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'अहालंद-यथालंद' पद का अर्द्धमागधी कोष में निम्न अर्थ किया है- 'जितने समय के लिए कहा गया हो उतने समय तक ठहरे।' पानी से भीगा हुआ हाथ जितनी देर में सूखे उतने समय को जघन्य यथालन्द काल कहते हैं और पांच दिन की अवधि को उत्कृष्ट यथालन्द काल कहते हैं तथा उन दोनों के बीच के समय को मध्यम यथालन्द काल * कहते हैं। - इस तरह उपाश्रय की आज्ञा लेने के बाद साधु को किस तरह रहना चाहिए इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... सूत्र // 4 // // 424 // से भिक्खू वा० जस्सुवस्सए संवसिज्जा तस्स पुव्वामेव नामगुत्तं जाणिज्जा, तओ पच्छा तस्स गिहे निमंतेमाणस्स वा अनिमंतेमाणस्स वा असणं वा, अफासुयं जाव नो पडिगाहेज्जा // 424 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा यस्य उपाश्रये संवसेत्, तस्य पूर्वमेव नामगोत्रं जानीयात्, ततः पश्चात् तस्य गृहे निमन्त्रयतः वा अनिमन्त्रयतः वा अथनं वा, अप्रासुकं यावत् न प्रतिगृह्णीयात् // 424 // Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 2-1-2-3-5 (425) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन III सूत्रार्थ : साधु या साध्वी जिस गृहस्थ के उपाश्रय-स्थान में ठहरे, उसका नाम और गोत्र पहले ही जान लें। तत्पश्चात् उसके घर में निमंत्रित करने या न करने पर भी अर्थात् बुलाने या न बुलाने पर भी उसके घर का अशनादि चतुर्विध आहार ग्रहण न करे। IV टीका-अनुवाद : सुगम है, किंतु साधुओं की यह सामाचारी (आचार-मर्यादा) है कि- शय्यातर (मकान मालिक) का नाम-गोत्र आदि जानना चाहिये, ऐसा करने से हि प्राघूर्णकादि श्रमण भिक्षा-गोचरी घूमने के वख्त शय्यातर-गृह का सुख-सुगमता से त्याग कर शकें... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- मकान में ठहरने के पश्चात् शय्यातर के नाम एवं गोत्र तथा उसके मकान आदि का परिचय करना चाहिए। आगमिक परिभाषा में मकान मालिक को शय्यातर कहते हैं। शय्या का अर्थ है- मकान और तर का अर्थ है- तैरने वाला, अर्थात् शय्या+तर का अर्थ हुआ-साधु को मकान का दान देकर संसार-समुद्र से तैरने वाला। शय्यातर के नाम आदि का परिचय करने का यह तात्पर्य है कि- उसके घर को अच्छी तरह पहचान सके। क्योंकि; भगवान ने शय्यातर के घर का आहार-पानी लेने का निषेध किया है। इसका कारण यह रहा है कि- जो कोई गृहस्थ किसी अन्य मत के साधु को ठहरने के लिए स्थान देता था उसे ही उसके आहार-पानी आदि का सारा प्रबन्ध करना पड़ता था। इस तरह वह भिक्ष उसके लिए बोझ रूप बन जाता था। इस कारण कई व्यक्ति निर्दोष मकान होते हुए भी देने से इन्कार कर देते थे। परन्तु, जैन साधु का जीवन किसी भी व्यक्ति पर बोझ रूप नहीं रहा है। इसी कारण भगवानने साधुओं को यह आदेश दिया है कि- जिस समय से शय्यातर के मकान में ठहरें तब से लेकर जब तक उस मकान में रहें तब तक शय्यातर के घर का आहार-पानी आदि ग्रहण न करें अर्थात् मकान का दान देने वाले पर दूसरा किसी तरह का बोझ नहीं डालें। इसलिए शय्यातर के नाम आदि का परिचय करना जरुरी है, जिससे आहारादि के लिए उसके घर को छोड़ा जा सकें। उपाश्रय की योग्यता एवं अयोग्यता के विषय को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं I // 425 // से भिक्खू वा० से जं० ससागारियं सागणियं सउदयं नो पण्णस्स निक्खमणपवेसाए जाव अणुचिंताए तहप्पगारे उवस्सए नो ठा० // 425 // Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-3-6 (426) 223 . - II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० स: यत् ससागारिकं साग्निकं सोदकं, न प्रज्ञस्य निष्क्रमणप्रवेशाय यावत् अनुचिन्तायै तथाप्रकारे उपाश्रये न स्था० // 425 // III सूत्रार्थ : जो उपाश्रय गृहस्थों से, अग्नि से और जल से युक्त हो, उसमें प्रज्ञावान् साधु या साध्वी को निष्क्रमण और प्रवेश नहीं करना चाहिए तथा वह उपाश्रय धर्मचिन्तन के लिए भी उपयुक्त नहीं है। अतः साधु को उसमें कायोत्सर्गादि क्रियाएं नहीं करनी चाहिए। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. जब ऐसा जाने कि- यह उपाश्रय (वसति) गृहस्थोंवाला है, अग्निवाला है, जलवाला है, तब ऐसी स्थिति में साधुओं को उपश्रय में प्रवेश करना, बाहार जाना, यावत् शरीर की छोटी-बडी चिंता, इत्यादि सुगम न हो, अतः ऐसे उपाश्रय में स्वाध्यायादि के लिये साधु स्थानादि न करें... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु को ऐसे उपाश्रय में नहीं ठहरना चाहिए जिसमें गृहस्थों का, विशेष करके साधुओं के स्थान में बहनों का एवं साध्वियों के स्थान में पुरुषों का आवागमन रहता हो और जिन स्थानों में अग्नि एवं पानी रहता हो। क्योंकि इन सब कारणों से साधु के मन में विकृति आ सकती है। इसलिए साधु को इन सब बातों से रहित स्थान में ठहरना चाहिए। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 6 // // 426 // से भिक्खू वा० से जं० गाहावइकुलस्स मज्झंमज्झेणं गंतुं पंथए पडिबद्धं वा, नो पण्णस्स जाव चिंताए, तह० उव० नो ठा0 || 426 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० सः यत् गृहपतिकुलस्य मध्य-मध्येन गन्तुं, पन्थाः प्रतिबद्धः वा, न प्रज्ञस्य यावत् अनुचिन्तायै, तथाप्रकारे उपाश्रये न स्थानादि कुर्यात् // 426 // . Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 2-1-2-3-7/8 (427/428) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन III सूत्रार्थ : जिस उपाश्रय में जाने के लिए गृहपति के कुल से-गृहस्थ के घर से होकर जाना पड़ता हो, और जिसके अनेक द्वार हों ऐसे उपाश्रय में बुद्धिमान साधु को स्वाध्याय और कायोत्सर्ग-ध्यान नहीं करना चाहिए अर्थात् ऐसे उपाश्रय में वह न ठहरे। IV टीका-अनुवाद : जिस उपाश्रय का आने-जाने का मार्ग गुहस्थ के घर के मध्य (बीच) से हो, वहां अनेक अपाय (उपद्रव-संकट) होने की संभावना है, अतः साधु वहां स्थानादि न करें... v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- जिस उपाश्रय में जाने का मार्ग गृहस्थ के घर में से होकर जाता हो तो साधु को ऐसे स्थान में नहीं ठहरना चाहिए। क्योंकि, बार-बार गृहस्थ के घर में से आते-जाते स्त्रियों को देखकर साधु के मन में विकार जागृत हो सकता है तथा साधु के बार-बार आवागमन करने से गृहस्थ के कार्य में भी विघ्न पड़ सकता है या बहिनों के मन में संकोच या अन्य भावना उत्पन्न हो सकती है। इसी कारण आगम में ऐसे स्थानों में ठहरने का निषेध किया गया है। ___ इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 7 // // 427 // से भिक्खू वा० से जं० इह खलु गाहावई वा० जाव कम्मकरीओ वा अण्णमण्णं अक्कोसंति वा जाव उद्दवंति वा, नो पण्णस्स० सेवं नच्चा तहप्पगारे उव० नो ठा० // 427 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० स: यत् इह खलु गृहपतिः वा यावत् कर्मकर्यः वा अन्योऽन्यं आक्रोशन्ति वा यावत् उपद्रवन्ति वा, न प्रज्ञस्य० सः एवं ज्ञात्वा तथाप्रकारे उपाश्रये न स्थानादि कुर्यात् // 427 // I सूत्र // 8 // // 428 // से भिक्खू वा० से जं पुण० इह खलु गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा अण्णमण्णस्स गायं तिल्लेण वा नव० घय० वसाए वा अब्भंगेति वा मक्खेंति वा, नो Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-3-9/10 (429/4 30) 225 पण्णस्स जाव० तहप्प० उव० नो ठा० // 428 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० सः यत् पुनः० खलु गृहपतिः वा यावत् कर्मकर्यः वा अन्योऽन्यस्य गात्रं तैलेन वा नवनीतेन वा घृतेन वा वसया वा अभ्यञ्जन्ति वा म्रक्षयन्ति वा, न प्रज्ञस्य यावत् तथाप्रकारे उपाश्रये न स्थानादि कुर्यात् // 428 / / I सूत्र // 9 // // 429 // से भिक्खू वा० से जं पुण० इह खलु गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा अण्णमण्णस्स गायं सिणाणेण वा क० लु० चु० प० आघंसंति वा पघंसंति वा उव्वलंति वा उव्वमिति वा नो पण्णस्स० // 429 / / II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा० स: यत् पुनः इह खलु गृहपतिः वा यावत् कर्मकर्यः वा अन्योऽन्यस्य गात्रं स्नानेन, वां क० लु० चू० प० आघर्षयन्ति वा प्रघर्षयन्ति वा उद्वलयन्ति वा उद्वर्तयन्ति वा न प्रज्ञस्य० // 429 // I. सूत्र // 10 // // 430 // से भिक्खू वा० से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा, इह खलु गाहावती वा जाव कम्मकरी वा अण्णमण्णस्स गायं सीओदग० उसिणो० उच्छो० पहोयंति सिंचंति सिंणायंति वा नो पण्णस्स जाव नो ठाणं० // 430 // II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा० सः यत् पुन: उपाश्रयं जानीयात्, इह खलु गृहपतिभार्या वा यावत् कर्मकरी वा अन्योऽन्यस्य गात्रं शीतोदकेन वा उष्णोदकेन वा उत्क्षालयंति वा प्रधोवन्ति वा सिधन्ति वा स्नापयन्ति वा न प्रज्ञस्य यावत् न स्थानं० // 40 // III सूत्रार्थ : साधु और साध्वी गृहस्थ के उपाश्रय को जाने, जैसे कि जिस उपाश्रय-वसती में, गृहपति और उसकी स्त्री यावत् दास दासिएं परस्पर एक दूसरे को आक्रोशती-कोसती हैं, मारती और पीटती यावत् उपद्रव करती हैं। तथा परस्पर एक दूसरी के शरीर को तैल से, मक्खन से, घी से और बसा से मर्दन करती हैं और एक दूसरे के शरीर को पानी से, कर्क से, लोघ्र से, चूर्ण से और पद्मद्रव्य से साफ करती हैं मैल उतारती हैं तथा उबटन करती हैं और एक Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 2-1-2-3-11 (4 31). श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन दूसरे के शरीर को शीतल जल से, उष्ण जल से छींटे देती है, धोती हैं, जल से सींचन करती हैं और स्नान कराती हैं, प्रज्ञावान् साधु को इस प्रकार के उपाश्रय मे न ठहरना चाहिए और न कायोत्सर्गादि क्रियाएं करनी चाहिए। IV टीका-अनुवाद : सुगम है, किंतु जहां पडौसी लोग प्रतिदिन कलह (झगडे) करते हो, वहां स्वाध्यायादि न हो पाने के कारण से साधु ऐसे उपाश्रय में स्थानादि न करें... इसी प्रकार- तैल आदि से अभ्यंगन, कल्क आदि से उदवर्तन एवं जल आदि से प्रक्षालन (स्नान) आदि के विषय में भी सत्र क्रमांक-४२८-२९-30 का भावार्थ जानीयेगा... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्रों में यह बताया गया हैं कि- जिस वस्ती में स्त्रिएं परस्पर लड़ती-झगड़ती हों, मार-पीट करती हों, या एक दूसरी के शरीर पर तेल आदि स्निग्ध पदार्थों की मालिस करती हों, मैल उतारती हों, या परस्पर पानी उछालती हों, छींटे मारती हों या इसी तरह की अन्य क्रीड़ाएं करती हों तो मुनि को ऐसे स्थान में नहीं ठहरना चाहिए। ये चारों सूत्र स्त्रियों से सम्बन्धित हैं, अतः ऐसे स्थानों में साधुओं को ठहरने के लिए निषेध किया गया है, क्योंकि, इससे उनके मन में विकार जागृत हो सकता है। परन्तु, साध्विएं ऐसे स्थान में ठहर सकती हैं। यदि किसी वस्ती में उपरोक्त क्रियाएं पुरुष करते हों तो वहां साध्वियों को नहीं ठहरना चाहिए। छेद सूत्रों में भी बताया गया है कि जिस मकान में स्त्रिएं रहती हों उस मकान में साधु को तथा जिस मकान में पुरुष रहते हों उस मकान में साध्वियों को ठहरना नहीं कल्पता। ___ इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 11 // // 439 // से भिक्खू वा० से जं० इह खलु गाहावई वा, जाव कम्मकरीओ वा निगिणा ठिया, निगिणा उल्लीणा, मेहुणधम्म विण्णर्विति रहस्सियं वा मंतं मंतंति, नो पण्णस्स जाव नो ठाणं वा चेइज्जा // 431 / / II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० स: यत् इह खलु गृहपतिः वा, यावत् कर्मकरी वा नग्ना स्थिता, नग्ना उपलीना मैथुनधर्म विज्ञापयन्ति, रहस्यं वा मन्त्रं मन्त्रयन्ति, न प्रज्ञस्य यावत् न स्थानं वा, वेतयेत् // 431 // Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-3-12 (432) 227 III सूत्रार्थ : जिस उपाश्रय-वस्ती में गृहपति यावत् उसकी स्त्रियें और दासिएं आदि नग्न अवस्था में खड़ी हैं, और नग्न होकर मैथुनधर्म विषय परस्पर वार्तालाप करती हैं, अथवा कोई रहस्यमय अकार्य के लिए गुप्तमंत्रणा-गुप्त विचार करती हैं तो बुद्धिमान साधु को ऐसे उपाश्रय में नहीं ठहरना चाहिए और उसमें कायोत्सर्गादि भी नहीं करना चाहिए। IV टीका-अनुवाद : जहां पडौसी की स्त्रीयां कपडे उतारकर नग्न बैठी हो, या नग्न होकर गुप्त रीति से मैथुनक्रीडा विषयक कुछ रहस्य याने रात्रि में कीये हुए संभोग-क्रीडा की परस्पर बातें करतें हो, अथवा अन्य रहस्य याने अनुचित कार्य संबंधित मंत्रणा याने बात-चित करतें हों, तो ऐसे उपाश्रय में साधु स्थानादि न करें, क्योंकि- वहां स्वाध्यायादि में हानि होती है, और चित्त विक्षोभ याने काम विकार के विकल्प इत्यादि दोष होने की संभावना होती है... V सूत्रसार, प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि जिस मकान में स्त्री-पुरुष नग्न होकर आमोदप्रमोद में व्यस्त हों, विषय-भोग सम्बन्धी वार्तालाप करते हों, रात्रि में मैथुन सेवन के लिए परस्पर प्रार्थना करते हों या किसी रहस्यमय कार्य के लिए गप्त मन्त्रणा कर रहे हों, तो विवेक सम्पन्न साधु को ऐसे स्थान में नहीं ठहरना चाहिए। क्योंकि इससे साधु के स्वाध्याय, ध्यान एवं चिन्तन-मनन में विघ्न पड़ेगा और उसके मन में भी विकार भावना जागृत हो सकती है। इसलिए साधु को सदा ऐसे स्थानों से बचकर ही रहना चाहिए। प्रस्तुत सूत्र से यह स्पष्ट होता है कि जब मानव मन में विषय-वासना की आग प्रज्वलित होती है तो उस समय वह अपना सारा विवेक भूल जाता है। उस समय उसे वस्त्रों का त्याग करने में भी हिचक नहीं होती और अश्लील शब्दों पर तो उसका जरा भी प्रतिबन्ध नहीं रहता है। इसलिए साधु-साध्वियों को ऐसे अश्लील वातावरण से सदा दूर रहना चाहिए। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 12 // // 432 / / से भिक्खू वा, से जं पुण उव० आइण्णसंलिक्खं, नो पण्णस्स० // 432 // Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 2-1-2-3-12 (432) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० स: यत् पुन: उपाश्रयं आकीर्णसंलेख्यं० न प्रज्ञस्य० // 432 // III सूत्रार्थ : जो उपाश्रय स्त्री पुरुष आदि के चित्रों से सज्जित हो तो उस उपाश्रय में प्रज्ञावान साधु को नहीं ठहरना चाहिए और वहां पर स्वाध्याय अथवा ध्यानादि भी नहीं करना चाहिए। IV टीका-अनुवाद : सुगम है, किंतु ऐसे उपाश्रय में विभिन्न चित्रों के दर्शन से स्वाध्यायादि में हानि होती . है... क्योंकि- तथाप्रकार के चित्रों में स्त्री आदि के दर्शन से, पूर्व गृहस्थावस्था में जो कोइ कामक्रीडा की हुइ हो, उसका स्मरण एवं कौतुक आदि होने की संभावनाएं हैं.... अब फलकादि संस्तारक के विषय में कहतें हैं... सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु को चित्रों से आकीर्ण उपाश्रय में नहीं ठहरना चाहिए। इसमें चित्र मात्र का उल्लेख किया गया है। यहां स्त्रियों एवं पुरुषों आदि के चित्र का भेद नहीं किया गया है। इससे यह ध्वनित होता है कि केवल चित्र का अवलोकन करने मात्र से ही विकार की जागृति नहीं होती। यदि स्त्री का चित्र देखते साधु का मन साधना के नियम को तोड़कर वासना की ओर प्रवहमान होने लगे तो फिर कोई भी साधु संयम में स्थिर नहीं रह सकेगा। क्योंकि, व्याख्यान सुनने एवं दर्शन के लिए आने वाली बहिनों को प्रत्यक्ष रूप से देखकर तथा आहार-पानी के समय भी उन्हें देखकर या उनसे बातें करके तो वह न मालूम कहां जा गिरेगा। संयम का नाश केवल स्त्री के चित्र या शरीर को देखने मात्र से नहीं होता, अपितु विकारी भाव से स्त्रियों को देखने पर संयम का विनाश होता है। ___ इससे यह प्रश्न पैदा होता है कि- फिर सूत्रकार ने चित्रों से युक्त मकान में ठहरने का निषेध क्यों किया ? इसका समाधान यह है कि चित्र केवल विकृति के ही साधन नहीं हैं, उनका और रूप में भी प्रभाव पड़ता है। यदि केवल विकार उत्पन्न होने की दृष्टि से ही निषेध किया जाता हो तब यह उल्लेख अवश्य किया जाता कि- साधु को स्त्री के चित्रों से चित्रित उपाश्रय में तथा साध्वी को पुरुषों के चित्र युक्त उपाश्रय में नहीं ठहरना चाहिए। परन्तु, प्रस्तुत सूत्र में तो केवल स्त्री-पुरुष के चित्र ही नहीं, अपितु पशु-पक्षी एवं नदी, पर्वत, जंगल आदि के प्राकृतिक चित्रों से युक्त उपाश्रय में भी ठहरने का निषेध किया है। जबकि पशुपक्षी एवं प्रकृति सन्बन्धी चित्रों को देखकर विकार भाव जागत नहीं होते हैं। फिर भी इसका Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-3-13 (433) 229 निषेध किया गया है। इसका मुख्य उद्देश्य यह है कि उपाश्रय में चित्रित चित्र चाहे स्त्री-पुरुष कें हों या अन्य किन्हीं प्राणियों एवं प्रकतिक द्रश्यों के हों, साध उन्हें देखने में व्यस्त हो जाएगा और उसका स्वाध्याय एवं ध्यान का समय चक्षुइन्द्रिय के पोषण में लग लाएगा। इस तरह उसकी ज्ञान और ध्यान की साधना में विघ्न पड़ेगा और यदि उन चित्रों में आसक्ति उत्पन्न हो गई तो मन में विकृत भाव भी उत्पन्न हो सकते हैं। ज्ञान-दर्शन की साधना के प्रवाह को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए साधु को ऐसे स्थानों में ठहरने का निषेध किया गया है। छेद सूत्रों में भी ऐसे स्थानों में ठहरने का निषेध किया गया है। मकान में ठहरने मे बाद तख्त आदि की आवश्यकता होती है, अतः साधु को कैसा तख्त ग्रहण करना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... - I सूत्र // 13 // // 433 // से भिक्खू वा० अभिकंखिज्जा संथारगं एसित्तए, से जं, संथारगं जाणिज्जा सअंड जाव ससंताणयं, तहप्पगारं संथारं लाभे संते नो पडि०॥ से भिक्खू वा० से जं० अप्पंडं जाव संताणगरुयं तहप्पगारं नो पडि० // से भिक्खू वा० अप्पंडं लहुयं अपाडिहारियं तह० नो पडि० // से भिक्खू वा० अप्पंडं वा जाव अप्पसंताणगं लहुअं पाडिहारियं नो अहाबद्धं तहप्पगारं लाभे संते नो पडिगाहिज्जा // से भिक्खू वा से जं पुण० संथारगं जाणिज्जा अप्पंडं जाव संताणगं लहुअं पाडिहारिअं अहाबद्धं, तहप्पगारं संथारगं लाभे संते पडिगाहिज्जा / II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० अभिकाङ्क्षत संस्तारकं एषयितुं सः यत् संस्तारकं जानीयात् स-अण्डं यावत् ससन्तानकं, तथाप्रकारं संस्तारकं लाभे सति न प्रतिगृह्णीयात् // सः भिक्षुः वा० सः यत् अल्पाण्डं यावत् संतानकगरुकं तथाप्रकारं न प्रति० // सः भितुः वा0 अल्पाण्डं लघुकं अप्रातिहारिकं तथाप्रकारं० न प्रति० // स: भिक्षुः वा० अल्पाण्डं यावत् अल्पसन्तानकं लघुकं प्रातिहारिकं, न यथाबद्धं, तथाप्रकारं लाभे सति न प्रतिगृह्णीयात् // Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230 2-1-2-3-13 (433) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन स: भिक्षुः वा सः यत् पुनः संस्तारकं जानीयात् अल्पाण्डं यावत् अल्प सन्तानकं लघुकं प्रातिहारिकं यथाबद्धं, तथाप्रकारं संस्तारकं लाभे सति प्रतिगृह्णीयात् / / 433 / / III सूत्रार्थ : जो साधु या साध्वी फलक आदि संस्तारक की गवेषणा करनी चाहे तो वह संस्तारक के सम्बन्ध में यह जाने कि जो संस्तारक अण्डों से यावत् मकड़ी के जालों से युक्त है, ऐसे संस्तारक को मिलने पर भी ग्रहण न करे। ___ इसी प्रकार जो संस्तारक अण्डों और जाले आदि से तो रहित है, किन्तु भारी है, ऐसे संस्तारक का भी मिलने पर ग्रहण न करे। जो संस्तारक अण्डों से रहित एवं लधु भी है किन्तु गृहस्थ उसे देकर फिर वापिस लेना नहीं चाहता है, तो ऐसा संस्तारक भी मिलने पर स्वीकार न करे। इसी तरह जो संस्तारक अण्डादि से रहित है, लघु है और गृहस्थ ने उसे वापिस लेना भी स्वीकार कर लिया है परन्तु उसके बन्धन शिथिल हैं तो ऐसा संस्तारक भी स्वीकार न करे। जो संस्तारक अण्डों आदि से रहित है, लघु है, गृहस्थ ने वापिस लेना भी स्वीकार कर लिया है और उसके बन्धन भी सुदृढ़ हैं, तो ऐसे संस्तारक को मिलने पर साधु ग्रहण कर ले। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. जब फलकादि (लकड़ी की पाट) आदि की शोध करना चाहे, तब देखे कि- यह पाट-पाटले क्षुद्र जंतुओं के अंडेवाले तो नहि है न ? यदि अंडेवाले हो तो संयमविराधना का दोष लगता है..... दुसरे सूत्र में- यदि वे पाट-पाटले वजन में भारी हो तो उठाने करने में आत्मविराधनादि दोष लगने की संभावना है... तीसरे सूत्र में- यदि वहां कोई रखेवाल-चोकीदार न हो तो उसके परित्याग आदि दोष लगतें है... चौथे सूत्र में- यदि वे पाट-पाटले अबद्ध हो तो उनको बांधना आदि पलिमंथ दोष होतें हैं... पांचवा सूत्र- यदि वे पाट-पाटले अंडे के अभाववाले हो यावत् करोडीये (मकडी) के Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-3-14 (434) 231 जाले न हो, वजन में हलुवे हो, चौकीदार भी हो, और अवबद्ध याने बंधे हुए हो, तो सभी दोषों से मुक्त होने के कारण से वह साधु उन संस्तारक-पाट-पाटले को ग्रहण करें... इस प्रकार पांचों सूत्रो का यह समुदाय अर्थ जानीयेगा... अब संस्तारक के विषय में अभिग्रह विशेष कहतें हैं... V सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में संस्तारक-तख्त, पाट आदि के ग्रहण करने की विधि बताई गई है। इसमें बताया गया है कि जो तख्त अण्डे एवं जीव-जन्तुओंसे युक्त हो भारी हो जिसे गृहस्थ ने वापिस लेने से इन्कार कर दिया हो तथा जिसके बन्धन शिथिल (ढीले) हों, वह तख्त ग्रहण नहीं करना चाहिए। यहां निर्दिष्ट चार या इनमें से कोई भी एक कारण उपस्थित हो तो साधुसाध्वी को वेसा तख्त ग्रहण नहीं करना चाहिए। परन्तु, जो तख्त इन चारों कारणों से रहित हो वही तख्त साधु ग्रहण कर सकता है। इसका कारण यह है कि- अण्डे आदि से युक्त तख्त ग्रहण करने से जीवों की हिंसा होगी, अतः संयम की विराधना होगी। और भारी तख्त उठाकर लाने से शरीर को संक्लेश होगा, कभी अधिक बोझ के कारण रास्ते में पैर के इधर-उधर पड़ने से पैर आदि में चोट आ सकती है, इस तरह आत्म विराधना होगी। यदि गृहस्थ उस तख्त को वापिस नहीं लेता है तो फिर साधु के सामने यह प्रश्न उपस्थित होगा कि वह उसे कहां रखे। क्योंकि- उसे उठाकर तो वह विहार कर नहीं सकता और एक व्यक्ति के यहां से ली हुई वस्तु दूसरे के यहां रख भी नहीं सकता, और यदि वह उसे यों ही त्याग देता है तो उसे परित्याग करने का * दोष लगता है। और शिथिल बन्धन वाला तख्त लेने से उसे पलिमंथ दोष लगेगा। क्योंकियदि उसकी कोई कील निकल गई या वह कहीं से टूट या तो, साधु को स्वाध्याय में व्याघात होगा। अतः साधु को इन सब दोषों से मुक्त तख्त ही ग्रहण करना चाहिए। ___ जो तख्त अण्डे, जाले आदि से रहित हो, वजन में हल्का हो, साधु की आवश्यकता - पूरी होने पर गृहस्थ उसे वापिस लेने के लिए कह चुका हो और जिसके बंधन मजबूत हों, वही तख्त साधु-साध्वी को ग्रहण करना चाहिए। संस्तारक ग्रहण करने के लिए किए जाने वाले अभिग्रहों का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... सूत्र // 14 // // 434 // इच्चेयाई आयतणाई उवाइफ्कम्म-अह भिक्खू जाणिज्जा- इमाइं चउहिं पडिमाहिं Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 2-1-2-3-14 (434) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन संथारगं एसित्तए, तत्थ खलु इमा पढमा पडिमा / भिक्खू वा उद्दिसिय संथारगं जाइज्जा, तं जहा-इक्कडं वा कढिणं वा जंतुयं वा, परगं वा मोरगं वा तणगं वा सोरगं वा कुसं वा कुच्चगं वा पिप्पलगं वा पलालगं वा, से पुत्वामेव ओलोइज्जा- आउसो ! त्ति वा भ० दाहिसि मे इत्तो अण्णयरं संथारगं ? तह० संथारगं सयं वा णं जाइज्जा परो वा देज्जा, फासुयं एसणिज्जं जाव पडि० पढमा पडिमा // 1 // // 434 / / II संस्कृत-छाया : इत्येतानि आयतनाननि उपातिक्रम्य-अथ भिक्षुः जानीयात् आभिः चतसृभिः प्रतिमाभिः संस्तारकं एषयितुं, तत्र खलु इयं प्रथमा प्रतिमा। भिक्षुः वा उद्दिश्य संस्तारकं याचेत, तदयथा- इक्कडं वा कठिनं वा जन्तुकं वा परकं वा मोरकं वा तृणकं वा सौरकं वा, कुशं वा कूर्चकं वा पिष्पलकं वा पलालकं वा सः पूर्वमेव आलोकयेत्-हे आयुष्मन् ! वा भ० दास्यसि मह्यं इतः अन्यतरत् संस्तारकं ? तथा० संस्तारकं स्वयं वा याचेत परः वा दद्यात्, प्रासुकं एषणीयं यावत् प्रतिगृह्णीयात्, प्रथमा प्रतिमा // 1 // || 434 // III सूत्रार्थ : साधु या साध्वी को वसती और संस्तारक सम्बन्धि दोषों को छोड़कर इन चार प्रतिज्ञाओं से संस्तारक की गवेषणा करनी चाहिए इन चार प्रतिज्ञाओं में से पहली प्रतिज्ञा यह है- साधु तृण आदि का नाम ले लेकर याचना करे। जैसे-इक्कड़-तृण विशेष, कठिन बांस से उत्पन्न हुआ तृण विशेष, तृण विशेष, तृण विशेषोत्पन्न, पुष्पादि के गुन्थन से निष्पन्न, मयूर पिच्छ से निष्पन्न-संस्तारक, दूब, कुशादि से निर्मित संस्तारक पिप्पल और शाली आदि के पलाल आदि को देखकर साधु कहे कि हे आयुष्मन् गृहस्थ ! अथवा भगिनि ! बहन ! क्या तुम मुझे इन संस्तारकों में से किसी एक संस्तारक को देओगी ? इस प्रकार के प्रासुक और निर्दोष संस्तारक की स्वयं याचना करे अथवा गृहस्थ ही बिना याचना किए दे तो साधु उसे ग्रहण कर सकता है। यह प्रथम अभिग्रह की विधि है। IV टीका-अनुवाद : इत्यादि पूर्व कहे गये आयतन याने उपाश्रय दोष रहित होने पर या आगे कहे जानेवाले दोषों का निवारण करके वसति और संस्तारक का ग्रहण करें... वह भाव-साधु विशिष्ट किसूत्रोक्त अभिग्रह स्वरुप चार प्रतिमाओ के माध्यम से संस्तारक की अन्वेषणा (शोध) करें... वे इस प्रकार-१. उद्दिष्टा, 2. प्रेक्ष्या, 3. तस्य एव, 4. यथासंस्तृता... .. Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-3-14 (434) 233 1. उद्दिष्टा- फलहक याने पाट-पाटले में से कोई एक ग्रहण करुंगा... अन्य नहि // 1 // प्रेक्ष्या- पूर्व जो उद्दिष्ट कीया था उसको हि देखुंगा और बाद में ग्रहण करूंगा... अन्य नहि... यह दुसरी प्रतिमा... | // 2 // तस्यैव- और वह पाट-पाटले भी यदि शय्यातर के घर में हो, तो हि ग्रहण करुंगा, . किंतु यदि अन्य जगह से लाकर दे, तो वहां शयन (संथारा) नहिं करुंगा... || 3 || यथासंस्तृता- और वे फलहकादि याने पाट-पाटले यथासंस्तृत हि हो, तो ग्रहण करुंगा, अन्यथा नहि... यह चौथी प्रतिमा // 4 // इन चार प्रतिमा में से पहली दो प्रतिमाओं का ग्रहण जिनकल्पिक साधु नहि करतें, किंतु अंतिम दो प्रतिमाओं में से कोई भी एक प्रतिमा का अभिग्रह करतें हैं... तथा स्थविर कल्पवाले साधुओं को चारों प्रतिमा का अभिग्रह ग्रहण करना कल्पता है... इन चारों प्रतिमा का स्वरुप यथाक्रम से सूत्र के द्वारा कहतें हैं... जैसे कि- इक्कड आदि में से कोई भी एक प्रकार से संस्तारक ग्रहण करुंगा... इस प्रकार जिस मुनी को अभिग्रह हो, वह मुनी अन्य प्रकार के संस्तारक प्राप्त हो, तो भी ग्रहण न करें... इत्यादि शेष सुगम है... किंत- कठिन याने वंश, कट आदि... जंतुक याने तृण विशेष से तैयार होनावाला परक याने जिस तृण विशेष से होनेवाले पुष्प... मोरक याने मोर के पिंछे से बना हुआ, कूर्चक याने जिसके कूर्चक बनाये जाय वह... यह इस प्रकार के संस्तारक अनूपदेश में आदि भूमी को अंतरित (ढांकने के लिये) करने के लिये साधु को अनुज्ञा दी गइ है... अर्थात् ग्रहण करें... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में निर्दोष संस्तारक की गवेषणा के लिए उदिष्ट, प्रेक्ष्य, तस्यैव और यथासंस्तृत चार प्रकार के अभिग्रह का उल्लेख किया गया है। प्रस्तुत प्रसंग में सूत्रकार को संस्तारक से तृण, घास-फूस आदि बिछौना ही अभिप्रेत है। अतः यदि साधु-साध्वी को बिछाने के लिए तृण आदि की आवशक्यकता पड़े तो, उन्हें ग्रहण करने के लिए वह साधु या साध्वी जिस प्रकार का तृण या घास ग्रहण करना हो उसका नाम लेकर उसकी गवेषणा करे। अर्थात् तृण आदि की याचना के लिए जाने से पूर्व यह उद्देश्य बना ले कि मुझे अमुक प्रकार के तृण का संस्तारक ग्रहण करना है। जैसे- इक्कड़ आदि के तुण, जिनका तृण, जिनका नाम मूलार्थ में दिया गया है। इस तरह उस समय एवं आज भी साधु-साध्वी विभिन्न तरह के तृण एवं घास फूस के बिछौने का प्रयोग करते हैं। अतः संस्तारक संबन्धी पहली प्रतिमा (अभिग्रह) है कि साधु यह निश्चय करके गवेषणा करे कि मुझे संस्तारक के लिए अमुक तरह का तृण ग्रहण करना है। इस तरह साधु किसी भी एक प्रकार के तृण का नाम निश्चित करके उसकी याचना करता Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 2-1-2-3-15 (435) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन है और यदि कोई गृहस्थ उसे उस तरह के तृण का आमंत्रण करे तब भी वह उसे ग्रहण कर सकता है। यह प्रथम प्रतिमा हुई। अब दूसरी एवं तीसरी प्रतिमा का वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 15 // // 435 // अहावरा दुच्चा पडिमा- से भिक्खू वा० पेहाए संथारगं जाइज्जा, तं जहागाहावई वा कम्मकरिं वा से पुव्वामेव आलोइज्जा- आउ० ! भइ० ! दाहिसि मे ? जाव पडिगाहिज्जा, दुच्चा पडिमा | // 2 // अहावरा तच्चा पडिमा- से भिक्खू वा० जस्सुवस्सए संवसिज्जा, जे तत्थ अहासमण्णागए, तं जहा-इक्कडेइ वा जाव पलालेड़ वा, तस्स लाभे संवसिज्जा, तस्साऽलाभे उक्कुडुए वा नेसज्जिए वा विहरिज्जा, तच्चा पडिमा || 3 || II संस्कृत-छाया : अथाऽपरा द्वितीया प्रतिमा - स: भिक्षुः वाo प्रेक्ष्य संस्तारकं याचेत, तद्यथागृहपतिं वा कर्मकरी वा सः पूर्वमेव आलोकयेत्- हे आयुष्मन् ! हे भगिनि ! दास्यसि मह्यं ? यावत् प्रतिगृह्णीयात्, द्वितीया प्रतिमा // 2 // अथाऽपरा तृतीया प्रतिमा- सः भिक्षुः वा० यस्य उपाश्रये संवसेत्, ये तत्र अथ समन्वागताः तद्यथा- इक्कडः वा यावत् पलाल: वा तस्य लाभे सति संवसेत्, तस्य अलाभे सति उत्कटुक: वा नैषधिकः वा विहरेत्, तृतीया प्रतिमा // 3 // III सूत्रार्थ : द्वितीया प्रतिमा यह है कि साधु या साध्वी गृहपति आदि के परिवार में रखे हुए संस्तारक को देखकर उस की याचना करे- यथा हे आयुष्मन् ! गृहस्थ ! अथवा बहन ! क्या तुम मुझे इन संस्तारकों में से अमुक संस्तारक देओं ? तब यदि निर्दोष और प्रासुक संस्तारक मिले तो उसे लेकर वे संयम साधना में संलग्न रहे। तृतीया प्रतिमा यह है कि- साधु जिस उपाश्रय में रहना चाहता है यदि उसी उपाश्रय में संस्तारक विद्यमान हो तो गृहस्वामी की आज्ञा लेकर संस्तारक को स्वीकार करके विचरे, यदि उपाश्रय में संस्तारक विद्यमान नहीं है तो वह उत्कुटुक आसन, पद्मासन आदि आसनों के द्वारा रात्रि व्यतीत करे। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-3-16 (436) 235 IV टीका-अनुवाद : ___ यहां पर भी पूर्ववत् सब कुछ जानीयेगा... किंतु यदि वह इक्कडादि संस्तारक को देखकर हि याचना करे, बिना देखे याचना न करें... इसी हि प्रकार तीसरी प्रतिमा को भी जानीयेगा... किंतु यहां इतना विशेष है कि- गच्छान्तर्गत याने स्थविर कल्पिक साधु और गच्छनिर्गत याने जिनकल्पिक साध यदि वसति दाता याने मकान मालिक हि संस्तारक दे, तो उसे ग्रहण करें, यदि ऐसा न हो तो वे साधु उत्कटुक आसन में रहें, या, निषण्ण याने पद्मासनादि के द्वारा हि पूरी रात बैठे रहें... इत्यादि // 435 // V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि- गृहस्थ के घर में जो तृण आदि रखे हुए हैं, उन्हें देखकर साधु उसकी याचना करे और यदि वह प्रासुक एवं निर्दोष हों तो वह उन्हें ग्रहण करे। यह दूसरी प्रेक्ष्य प्रतिमा है। तीसरी प्रतिमा को स्वीकार करने वाला मुनि जिस उपाश्रय में ठहरना चाहता है उसी उपाश्रय में स्थित प्रासुक एवं निर्दोष तृण ही ग्रहण कर सकता है। यदि उपाश्रय में तृण आदि नहीं हैं तो वह उत्कुटुक या पद्मासन आदि आसनों से ध्यानस्थ होकर रात व्यतीत करे, परन्तु अन्य स्थान से लाकर तृण आदि न बिछाए। ये दोनों आसन कायोत्सर्ग से ही सम्बद्ध हैं। अतः इनका उल्लेख कायोत्सर्ग के लिए किया गया है। क्योंकि, कायोत्सर्ग का प्रमुख साधन आसन ही होता है। अतः प्रस्तुत उभय आसनों का उल्लेख करने का उद्देश्य यही है कि यदि तृतीय प्रतिमाधारी मुनि को उपाश्रय में संस्तारक प्राप्त न हो तो वह अपना समय ध्यान एवं चिन्तन-मनन में व्यतीत करे। * अब चतुर्थ प्रतिमा का वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे के सूत्र से कहेंगे। I सूत्र // 16 // // 436 // अहावरा चउत्था पडिमा- से भिक्खू वा अहासंथऽमेव संथारगं जाइज्जा, तं जहापुढवि- सिलं वा कट्ठसिलं वा अहासंथडमेव, तस्स लाभे संते संवसिज्जा, तस्स अलाभे उपकुड्डए वा, विहरिज्जा, चउत्था पडिमा // 4 // II संस्कृत-छाया : अथाऽपरा चतुर्थी प्रतिमा- सः भिक्षुः वा० यथासंस्तृतं एव संस्तारकं याचेत, तद्यथा पृथिवीशिलां वा काष्ठशिलां वा यथासंस्तृतामेव, तस्य लाभे सति संवसेत्, तस्य अलाभे उत्कटुकः वा विहरेत्, चतुर्थी प्रतिमा // 4 // Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 2-1-2-3-17 (437) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन III सूत्रार्थ : चतुर्थी प्रतिमा में यह अभिग्रह होता है कि- उपाश्रय में संस्तारक पहले से ही बिछा हुआ हो, या पत्थर की शिला या काष्ठ का तख्त बिछा हुआ हो तो वह उस पर शयन कर सकता है। यदि वहां कोई भी संस्तारक बिछा हुआ न मिले तो पूर्व कथित आसनों के द्वारा रात्रि व्यतीत करे यह चौथी प्रतिमा है। IV टीका-अनुवाद : यह भी सुगम हि है, किंतु इस चौथी प्रतिमा में यह विशेष है कि- यदि शिला आदि संस्तारक यथासंस्तृत हि शयन योग्य प्राप्त हो तो ग्रहण करके शयन करे, अन्यथा याने यदि ऐसा संस्तारक प्राप्त न हो तो शयन न करें... सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में चतुर्थी प्रतिमा के सम्बन्ध में यह बताया गया है कि- उक्त प्रतिमा को स्वीकार करने वाला मुनि जिस उपाश्रय में ठहरे उस उपाश्रय में प्रासुक एवं निर्दोष तृण आदि पहले से बिछे हुए हों या पत्थर की शिला या लड़की का तख्त बिछा हुआ हो तो वह उस पर शयन कर सकता है, अन्यथा तृतीय प्रतिमा में उल्लिखित आसनों के द्वारा रात्रि को आध्यात्मिक चिन्तन करते हुए व्यतीत करता है, परन्तु स्वयं संस्तारक बिछाकर शयन नहीं कर सकता है। इससे स्पष्ट होता है कि- अन्तिम की दोनों प्रतिमाएं ध्यान एवं स्वाध्याय आदि की दृष्टि से रखी गई है। वृत्तिकार का भी यही मन्तव्य है। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'कट्ठसिलं' पद का तात्पर्य काष्ठ के तख्त से ही है। संस्तारक सम्बन्धी प्रतिमाओं के विषय का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं सूत्र // 17 // // 437 / / इच्चेइयाणं चउण्हं पडिमाणं अण्णयरं पडिमं पडिवज्जमाणे तं चेव जाव अण्णोऽण्णसमाहीए, एवं च णं विहरंति // 437 / / II संस्कृत-छाया : इति एतासां चतसृणां प्रतिमानां अन्यतरां प्रतिमा प्रतिपद्यमानः तं च एव यावत् अन्योऽन्य-समाधिना, एवं च विहरन्ति // 437 // Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी-टीका 2-1-2-3-18 (438) 237 - D III सूत्रार्थ : इन चार प्रतिमाओं में से किसी एक प्रतिमा को धारण करके विचरने वाला साधु, अन्य प्रतिमाधारी साधुओं की अवहेलना निन्दा न करे। किन्तु, सब साधु जिनेन्द्र देव की आज्ञा में विचरते हैं ऐसा समझ कर परस्पर समाधिपूर्वक विचरण करे। IV टीका-अनुवाद : ____ इन चार प्रतिमाओं में से अन्यतर कोइ भी एक प्रतिमा का अभिग्रह करनेवाला साधु, अन्य प्रतिमा का अभिग्रह करनेवाले साधु की अवगणना-निंदा न करें, क्योंकि- वे सभी साधुजन जिनाज्ञा का आश्रय लेकर हि समाधि से रहतें हैं... अब प्रातिहारक संस्तारक प्रत्यर्पण की विधि कहतें हैं... V सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- भगवान की आज्ञा के अनुरूप आचरण करनेवाले सभी साधु समाधियुक्त एवं मोक्ष मार्ग के आराधक होने से वन्दनीय एवं पूजनीय हैं। अतः उक्त चारों प्रतिमाओं में से किसी एक प्रतिमा को धारण करनेवाले मुनि को अन्य प्रतिमा धारण करनेवाले मुनियों को अपने से तुच्छ समझकर गर्व नहीं करना चाहिए। क्योंकि- चारित्र-संयम चारित्रावरणीय कर्म के क्षयोपशम के अनुरूप ही ग्रहण किया जाता है। अतः प्रत्येक चारित्रनिष्ठ मुनि का सम्मान करना चाहिए और अपने अहंकार का त्याग करके सबके साथ प्रेम-स्नेह रखना चाहिए। इसे और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... सूत्र // 18 // // 438 // से भिक्खू वा० अभिकंखिज्जा संथारगं पच्चप्पिणित्तए, से जं पुण संथारगं जाणिज्जा, सअंडं जाव ससंताणयं, तहप्प० संथारगं नो पच्चप्पिणिज्जा || 438 // - II संस्कृत-छाया : स: भिक्षः वा अभिकाक्षेत संस्तारकं प्रत्यर्पयितुं, सः यत् पुनः संस्तारकं जानीयात् स-अण्डं यावत् ससन्तानकं, तथाप्रकारं संस्तारकं न प्रत्यर्पयेत् // 438 / / III सूत्रार्थ : साधु या साध्वी यदि प्रतिहारिक संस्तारक, गृहस्थ को वापिस देना चाहे तो वह Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238 2-1-2-3-19 (439) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन संस्तारक अण्डों यावत् मकडी के जाले आदि से युक्त नहीं होना चाहिए। यदि वह इन से युक्त है तो वह उसे गृहस्थ को वापिस न करे। IV टीका-अनुवाद : वह साधु यदि प्रातिहारिक संस्तारक का प्रत्यर्पण करना चाहे, तब यह देखे किवह संस्तारक गृहकोकिल याने गिरोली के अंडेवाला तो नहि है न ? हां ! यदि ऐसा हो तब वह पडिलेहण के योग्य न होने से उसका प्रत्यर्पण नहि करना चाहिये... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु को अपनी निश्रा में स्थित प्रत्येक वस्तु की प्रतिलेखना करते रहना चाहिए। चाहे वह वस्तु गृहस्थ को वापिस लौटाने की भी क्यों न हो, फिर भी जब तक साधु के पास है, तब तक प्रतिदिन नियत समय पर उसका प्रतिलेखन करना चाहिए। जिससे उस में जीव-जन्तु की उत्पत्ति न हो। और उसे वापिस लौटाते समय भी प्रतिलेखन करके लौटानी चाहिए। यदि कभी संस्तारक पर किसी पक्षी ने अंडे दे दिए हों या मकड़ी ने जाले बना लिए हों तो वह संस्तारक गृहस्थ को वापिस नहीं देना चाहिए। क्योंकि, गृहस्थ उसे शुद्ध बनाने का प्रयत्न करेगा और परिणामस्वरूप उन जीवों की घात हो जाएगी। इस तरह साधु के प्रथम महाव्रत में दोष लगेगा, अतः उन जीवों की रक्षा के लिए ऐसे संस्तारक को वापिस नहीं लौटाना चाहिए। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 19 // // 439 // से भिक्खू० अभिकंखिज्जा संथारगं० से जं० अप्पंडं० तहप्पगारं० संथारगं पडिलेहिय पमज्जिय आयाविय विहुणिय तओ संजयामेव पच्चप्पिणिज्जा // 429 // II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः० अभिकाक्षेत संस्तारकं० सः यत् अल्पाण्डं वा० तथाप्रकारं० संस्तारकं प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्य आतापयित्वा विधूय तत: संयतः एव प्रत्यर्पयेत् // 439 // III सूत्रार्थ : अण्डे एवं मकड़ी के जाले आदि से रहित जिस संस्तारक को साधु-साध्वी वापिस लौटाना चाहे, तो वह उसका प्रतिलेखन करके, रजोहरण से प्रमार्जित करके, सूर्य की धूप Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-3-20 (440) 239 में सुखा कर एवं यत्ना पूर्वक देख कर फिर गृहस्थ को लौटावे / IV टीका-अनुवाद : इस सूत्र का भावार्थ सुगम हि है... अब वसति में रहने वालों की विधि कहतें हैं... V सूत्रसार : इस सूत्र में बताया गया है कि- साधु को गृहस्थ के घर से लाए हुए संस्तारक को वापिस लौटाते समय उसकी शुद्धता का पूरा ख्याल रखना चाहिए। प्रतिदिन उसकी प्रतिलेखना करनी चाहिए जिससे उस पर जीव-जन्तु पैदा न हों, और वापिस लौटाते समय भी उसे अच्छी तरह से देख लेना चाहिए और रजोहरण से प्रमार्जन कर लेना चाहिए जिससे उस पर कूड़ाकर्कट भी न जमा रहे। इतना ही नहीं, फिर उसे सूर्य की धूप में रखकर और भली-भांति झाड़-पोंछकर लौटाना चाहिए। इससे साधु जीवन की व्यवहारिकता पर विशेष प्रकाश डाला गया है। यदि वह उस संस्तारक को बिना साफ किए ही दे आएगा, तो गृहस्थ उसे साफ करके रखेगा और यह भी स्पष्ट है कि- वह सफाई करते समय साधु जितना विवेक नहीं रख सकेगा, अतः साधु को ऐसी स्थिति ही नहीं आने देनी चाहिए कि- उसके द्वारा उपभोग किए गए संस्तारक को साफ करने के लिए कोई गृहस्थ अयत्नापूर्वक प्रयत्न करे। दूसरे में साफ की हुई वस्तु को देखकर गृहस्थ के मन में फिर से किसी साधु को देने की भावना सहज ही जागृत होगी और अस्वच्छ रुप में प्राप्त करके उसके मन में कुछ रोष भी आ सकता है। अतः गृहस्थ के यहां से लाए हुए संस्तारक आदि को यत्नापूर्वक साफ करके ही लौटाना चाहिए। . साधु को बस्ती में किस तरह निवास करना चाहिए इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 20 // // 440 // __ से भिक्खू वा० समाणे वा वसमाणे वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे वा पुत्वामेव पण्णस्स उच्चारपासवणभूमिं पडिलेहिज्जा, केवली बूया- आयाण- मेयं, अपडिलेहियाए उच्चारपासवणभूमीए... से भिक्खू वा० राओ वा वियाले वा उच्चारपासवणं परिद्ववेमाणे पयलिज्ज वा से तत्थ पयलमाणे वा, हत्थं वा पायं वा जाव लूसेज्ज वा, पाणाणि वा. ववरोविज्जा, अह भिक्खूणं पुटवो० जं पुत्वामेव पण्णस्स उच्चार० भूमि पडिलेहिज्जा // 440 // Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240 2-1-2-3-20 (440) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन %3 II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा सन् वा वसन् वा ग्रामानुग्राम गच्छन् वा पूर्वमेव प्रज्ञस्य उच्चारप्रस्त्रवणभूमी प्रत्युपेक्षेत, के वली ब्रूयात्-आदानमेतत्, अप्रतिलेखितायां उच्चारप्रस्त्रवणभूमौ, सः भिक्षुः वा० रात्रौ वा विकाले वा उच्चारप्रस्त्रवणं त्यजन् प्रचलेत् वा प्रपतेत् वा, सः तत्र प्रचलन् वा प्रपतन् वा हस्तौ वा पादौ वा यावत् लूषयेत्, प्राणिन: वा, व्यपरोपयेत्, अथ भिक्षूणां पूर्वोपदिष्टं० यत् पूर्वमेव प्रज्ञस्य उच्चार० भूमी प्रतिलेखयेत् // प्रत्युपेक्षेत // 440 // III सूत्रार्थ : जो साधु या साध्वी जंघादि बल से क्षीण होने के कारण एक स्थान में स्थित हो, या उपाश्रय में मास कल्पादि से रहता हो या व्यामानुयाम विहार करता हुआ उपाश्रय में आकर रहे तो उस बुद्धिमान साधु को चाहिए कि- वह जिस स्थान में ठहरे, वहां पर पहले मल-मूत्र का त्याग करने की भूमि को अच्छी तरह से देख ले। क्योंकि- भगवान ने बिना देखी भूमि को कर्म बन्धन का कारण कहा है। बिना देखी हुई भूमि में कोई भी साधु या साध्वी रात्रि में अथवा विकाल में मल-मूत्रादि को परठता हुआ यदि कभी पैर फिसलने से गिर पड़े तो उसके फिसलने या गिरने से उसके हाथ पैर या शरीर के किसी अवयव को आघात पहुंचेगा या उसके गिरने से वहां स्थित अन्य किसी क्षुद्र जीव का विनाश हो जाएगा। यह सब कुछ संभव है, इसलिए तीर्थंकरादि आप्त पुरुषों ने पहले ही भिक्षुओं को यह आदेश दिया है कि- साधु को उपाश्रय में निवास करने से पहले वहां मल-मूत्र त्यागने की भूमि की अवश्य ही प्रतिलेखना कर लेनी चाहिए। IV टीका-अनुवाद : सुगम है, किंतु साधुओं की यह सामाचारी (आचार-मर्यादा) है कि- विकाल याने संध्या समय प्रस्त्रवण याने लघुनीति-मात्रा की भूमी का पडिलेहण करें... अब संस्तारक-भूमी के विषय में कहतें हैं... V सूत्रसार: इस सूत्र में साधु को यह आदेश दिया गया है कि- जिस मकान में स्थानापति करना चाहे या मास एवं वर्षावास कल्प के लिए ठहरे या विहार करते हुए कुछ समय के लिए ठहरे, तो उसे उस मकान में मल-मूत्र त्याग करने की भूमि अवश्य देख लेनी चाहिए। क्योंकि, यदि वह दिन में उक्त भूमि की प्रतिलेखना नहीं करेगा तो सम्भव है कि रात्रि के समय भूमि की Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-3-20 (441) 241 विषमता आदि का ज्ञान न होने से उसका पैर फिसल जाए और परिणाम स्वरूप उसके हाथपैर में चोट आ जाए और उसके शरीर के नीचे दब कर छोटे-मोटे जीव-जन्तु भी मर जाएं। इस लिए भगवान ने सबसे पहले मल-मूत्र का त्याग करने की भूमि का प्रतिलेखन का जरूरी बताया है और बिना देखी भूमि में मल-मूत्र का त्याग करने की प्रवृत्ति को कर्म बन्ध का कारण बताया है। अब संस्तारक भूमि का वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 21 // // 441 // ___ से भिक्खू वा, अभिकंखिज्जा सिज्जासंथारगभूमिं पडिलेहित्तए, नण्णत्थ आयरिएण वा उर्वज्झाएण वा जाव गणावच्छेएण वा बालेण वा वुड्ढेण वा सेहेण वा गिलाणेण वा आएसेण वा अंतेण वा मज्झेण वा समेण वा विसमेण वा पवाएण वा निवाएण वा, तओ संजयामेव पडिलेहिय पमज्जिय तओ संजयामेव बहुफासुअं सिज्जासंथारगं संथरिज्जा // 441 // II संस्कृत-छाया : . सः भिक्षुः वा अभिकाक्षेत शय्यासंस्तारकभूमी प्रत्युपेक्षयितुं, नाऽन्यत्र आचार्येण वा उपाध्यायेन वा यावत् गणावच्छेदकेन वा, बालेन वा वृद्धेन वा शैक्षेण वा ग्लानेन वा आदेशेन वा अन्तेन वा मध्येन वा समेन वा विषमेन वा तत: संयतः एव प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्य ततः संयतः एव बहुप्रासुकं थय्या-संस्ताककं संस्तरेत् // 441 // -III सूत्रार्थ : साधु या साध्वी यदि शय्या संस्तारक भूमि की प्रतिलेखना करनी चाहे तो आचार्य, उपाध्याय यावत् गणावच्छेदक, बाल, वृद्ध, नव दीक्षित, रोगी और महेमान रूप से आए साधु के द्वारा स्वीकार की हुई भूमि छोड़कर उपाश्रय के अन्दर, मध्यस्थान में या सम और विषम स्थान में या वायु युक्त और वायु रहित स्थान में भूमि की प्रतिलेखना, और प्रमार्जना करके तदनन्तर अत्यन्त प्रासुक शय्या-संस्तारक को बिछाए। IV टीका-अनुवाद : __वह साधु, आचार्य, उपाध्याय आदि ने स्वीकृत की हो, उससे अतिरिक्त = अन्य भूमी को अपने संथारे के लिये प्रडिलेहण करे... शेष सुगम है, किंतु आदेश याने प्राधूर्णक (महेमान' मुनी, तथा अंतेन वा इत्यादि पदों में जो तृतीया विभक्ति है, वह सप्तमी के अर्थ में जानीयेत Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 2-1-2-3-22 (442) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अब शयन-विधि के विषय में कहतें हैं... V : सूत्रसार : - प्रस्तुत सूत्र में शयन करने की विधि का उल्लेख करते हुए बताया गया है कि- साधु को आसन बिछाते समय यह देखना चाहिए कि आचार्य, उपाध्याय आदि ने कहां आसन लगाया है। उन्होंने जिस स्थान पर आसन किया हो उस स्थान को छोड़कर शेष अवशिष्ट भाग में समविषम, हवादार या बिना हवा वाली जैसी भूमि हो उसका प्रतिलेखन करके वहां पर आसन करें। इसका तात्पर्य यह है कि वह आचार्य आदि की सुविधा का ध्यान अवश्य रखे। इसके लिए वह विषम एवं बिना हवादार भूमि पर आसन अवश्य करें, परन्तु, उसके लिए किसी के स्थान का परिवर्तन न करे और न परिवर्तन करने के लिए संघर्ष करे। इससे साधु समाज के पारस्परिक प्रेम-स्नेह का भाव अभिव्यक्त होता है। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'सिज्जा संथारगं' का अर्थ है शय्या या आसन करने का उपकरण। साधु को संस्तारक पर कैसे बैठना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं.... I सूत्र // 22 // // 442 // से भिक्खू वा० बहु संथरित्ता अभिकं खिज्जा बहुफासुए. सिज्जासंथारए दुरुहित्तए / से भिक्खू० बहु० दुरुहमाणे पुव्वामेव ससीसोवरियं कायं पाए य पमज्जिय तओ संजयामेव बहु० दुरुहित्ता, तओ संजयामेव बहु० सइज्जा || 442 // II संस्कृत-छाया : सभिक्षुः वा० बहु संस्तीर्य अभिकाक्षेत बहु प्रासुके शय्या-संस्तारके आरोढुं, स: भिक्षुः० बहु० आरोहन् पूर्वमेव सशीर्षोपरिकं कायं पादौ च प्रमृज्य ततः संयतः एव बहु० आरुह्य, ततः संयतः एव बह शय्यीत // 442 / / III सूत्रार्थ : साधु या साध्वी प्रासुक शय्यासस्तारक पर जब बैठकर शयन करना चाहे तब पहले सिर से लेकर पैरों तक शरीर को प्रमार्जित करके फिर यतना पूर्वक उस पर शयन करे। IV टीका-अनुवाद : इस सूत्र का भावार्थ सुगम है... Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-3-23 (443) 243 अब सोने (शयन) की विधि के विषय में कहतें हैं... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु संस्तारक को यत्ना पूर्वक बिछाने के बाद उस पर शयन करने से पहले शरीर का सिर से लेकर पैरों तक प्रमार्जन कर ले। क्योंकि, यदि शरीर पर कोई क्षुद्र जन्तु चढ़ गया हो या बैढ गया हो तो उसकी हिंसा न हो जाए और शरीर पर लगी हुई धूल से वस्त्र भी मैले न हों। संयम की साधना को शुद्ध बनाए रखने के लिए साधु को शरीर का प्रमार्जन करके ही शयन करना चाहिए। शयन किस तरह करना चाहिए, उसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी / आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 23 // // 443 / / से भिक्खू वा० बहु० सयमाणे नो अण्णमण्णस्स हत्थेण हत्थं पाएण पायं काएण कायं आसाइज्जा, से अणासायमाणे तओ संजयामेव बहु० सइज्जा। से शिवछू र यसमा छ कीसममाणे aa क्रासमाणे वा छीयमाणे वा जंभायमाणे वा उड्डोए वा, वायनिसग्गं वा करेमाणे पुव्वामेव आसयं वा पोसयं वा पाणिणा परिपेहित्ता तओ संजयामेव ऊससिज्जा वा जाव वायनिसग्गं वा करेज्जा / / 443 // II संस्कृत-छाया : ___ स: भिक्षुः वा० बहु० शयानः न अन्योऽन्यस्य हस्तेन हस्तं पादेन पादं कायेन कायं आसादयेत्, स: अनासादयन् ततः संयतः एव बहु० शयीत। स: भिक्षुः वा उच्छ्वसन् वा नि:श्वसन् वा कासन् वा जृम्भमाण: वा वातनिसर्ग वा कुर्वाण: पूवमेव आस्यं वा अधिष्ठानं वा पाणिना परिप्रेक्ष्य तत: संयत: एव उच्छ्वसेत् वा यावत् वातनिसर्ग वा कुर्यात् // 443 / / III सूत्रार्थ : साधु या साध्वी शयन करते हुए परस्पर-एक दूसरे को अपने हाथ से दूसरे के हाथ की, पैर से दूसरे के पैर की आशातना न करे। अर्थात् इनका एक दूसरे से स्पर्श न हो। अर्थात् आशातना न करते हुए ही शयन करे। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 2-1-2-3-23 (443) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन इसके अतिरिक्त साधु या साध्वी उच्छ्वास अथवा निश्वास लेता हुआ, खांसता हुआ, छींकता हुआ, उबासी लेता हुआ अथवा अपान वायु को छोड़ता हुआ पहले ही मुख या गुदा को हाथ से ढांककर उच्छ्वास ले या अपान वायु का परित्याग करे। IV टीका-अनुवाद : सुगम है, किंतु यहां यह सारांश है कि- शयन के समय एक हाथ के अंतर पे हि संथारा करें... तथा सोने के बाद निःश्वासादि विधि पूर्वक हि करें... तथा-आस्य याने मुख, पोसयं याने अधिष्ठान-गुदा... अब सामान्य से शय्या के विषय में कहतें हैं... v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु को शयन करते समय अपने हाथ-पैर से एक-दूसरे साधु की अशातना नहीं करनी चाहिए। अपने शरीर एवं हाथ-पैर का दूसरे के शरीर आदि से स्पर्श नहीं करना चाहिए। क्योंकि, ऐसी प्रवृत्ति से शारीरिक कुचेष्टा एवं अविनय प्रकट होता है, और मनोवृत्ति की चञ्चलता एवं मोहनीय कर्म की उदीरणा के कारण मोहनीय कर्म का उदय भी हो सकता है। अतः साधु को शयन करते समय किसी भी साधु के शरीर को हाथ एवं पैर आदि से स्पर्श नहीं करना चाहिए। ____यदि साधु को श्वासोच्छवास, छींक आदि के आने पर जो मुंह पर हाथ रखने का कहा गया है, उसका अभिप्राय इतना ही है कि- उससे वायुकायिक जीवों की हिंसा न हो। प्रस्तुत प्रसंग में इतना अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि यह वर्णन सामान्य रूप से चलने वाले श्वासोच्छवास के लिए नहीं, अपितु विशेष प्रकार के श्वासोच्छवास के लिए है। आगम में लिखा है कि फूंक आदि मारने से वायुकाय की हिंसा होती है, इसलिए साधु को इस तरह से यत्ना करने का आदेश दिया गया है। कुछ लोगों का कहना है कि- भाषा के पुद्गल चार स्पर्श वाले होते हैं अतः वे आठ स्पर्श वाले वायुकाय की हिंसा कैसे कर सकते हैं ? इसका समाधान यह है कि भाषा-वर्गणा के पुद्गल उत्पन्न होते समय चार स्पर्श वाले होते है, परन्तु भाषा के रूप में व्यक्त होते समय आठ स्पर्श वाले हो जाते हैं। इसी कारण शरीर से उत्पन्न होने वाली अचित्त वायुकाय को आठ स्पर्श युक्त माना गया है और वह 5 प्रकार की मानी गई है। अतः मुंह से निकलने वाली वायु से वायुकायिक जीवों की हिंसा होती है। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-3-24 (444) 245 - यहां एक प्रश्न पैदा हो सकता है कि- जब साधु-साध्वी मुख पर मुखवस्त्रिका लगाते हैं, तब फिर श्वासोश्वास से होने वाली वायुकायिक जीवों की हिंसा को रोकने के लिए मुंह पर हाथ रखने की क्या आवश्यकता है ? हम यह पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि यहां सामान्य रूप से चलने वाले श्वासोच्छवास के समय मुंह पर हाथ रखने का विधान नहीं किया है। यह विधान विशेष परिस्थिति के लिए है- जैसे उबासी, डकार एवं छींक आदि के समय जोर से निकलने वाली वायु का वेग मुखवत्रिका से नहीं रुक सकता है, ऐसे समय पर मुंह पर हाथ रखने का आदेश दिया गया है और मुख के साथ नाक का भी ग्रहण किया गया है। जैसे मुख से निकलने वाली वायु के वेग को रोकने के लिए मुख पर हाथ रखने को कहा है, उसी तरह अपान वायु के वेग को रोकने के लिए गुदा स्थान पर भी हाथ रखने का आदेश दिया है। आगम में चोलट्टक एवं मुखवस्त्रिका दोनों का विधान मिलता है। अतः इन प्रसंगों पर उक्त स्थानों पर हाथ रखने का उद्देश्य केवल वायुकायिक जीवों की रक्षा करना ही है। ___ अब सामान्य रूप से शय्या का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 24 // . // 444 / / से भिक्खू वा० समा वेगया सिज्जा भविज्जा, विसमा वेगया सिज्जा० निवाया वेगया० ससरक्खा वे० अप्पससरक्खा वे० सदसमसगा वे० अप्पदंसमसगा वे० सपरिसाडा वे० अपरिसाडा वेगया० सउवस्सग्गा वेगया० निरुवसग्गा वेगया० तहप्पगाराहिं सिज्जाहिं संविज्जमाणाहिं पग्गहियतरागां विहारं विहरिज्जा, नो किंचिवि 'गिलाइज्जा, एवं खलु० जं सव्वटेहिं सहिए सया जए तिबेमि // 444 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० समा वा एकदा शय्या भवेत्, विषमा वा एकदा शय्या भवेत्, प्रवाता वा एकदा० निवाता वा एकदा० सरजस्का वा एकदा० अल्पसरजस्का वा एकदा० सदंशमशका वा एकदा० अल्पदंशमशका वा एकदा० सपरिशाटा वा एकदा० अपरिशाटा वा एकदा० सोपसर्गा वा एकदा० निरुपसर्गा वा एकदा० तथाप्रकारामिः शय्याभिः संविद्यमानाभिः प्रग्रहीततरं विहारं विहरेत्, न किञ्चिदपि ग्लायात्, एवं खलु० यत् सवर्थिः सहितः सदा यतेत इति ब्रवीमि // 444 // III सूत्रार्थ : संयम शील साधु या साध्वी को किसी समय सम या विषम शय्या मिले, हवादार या Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246 2-1-2-3-24 (444) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन कम हवा वाला स्थान प्राप्त हो, इसी प्रकार धूलियुक्त या धूलिरहित, अथवा डांस मच्छर युक्त या उसके बिना की शय्या मिले, इसी भांति सर्वथा गिरी हुई, जीर्ण-शीर्ण अथवा सुदृढ़ शय्या मिले या उपसर्ग युक्त उपसर्ग रहित शय्या मिले, इस सब प्रकार की शय्याओं के प्राप्त होने पर वह उनमें समभाव से निवास करे। किन्तु मानसिक दुःख एवं खेद का बिल्कुल अनुभव न करे। यही भिक्षु का सम्पूर्ण भिक्षु भाव है। कि जो सर्व प्रकार से ज्ञान दर्शन और चारित्र से युक्त होकर तथा सदा समाहित होकर विचरने का यत्न करे। इस प्रकार मैं कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : सुगम है, किंतु जब तक तथाप्रकार की वसति (उपाश्रय) विद्यमान होने पर ग्रहण की हो, और वहां कोइक सम या विषम इत्यादि प्रकार की वसति प्राप्त हुइ हो तब उस वसति (उपाश्रय) में समचितवाला होकर रहें... परंतु वहां जरा भी व्यलीकादि याने निंदा-दोष प्रगट न करें... यह हि उस साधु का साधुपना है... कि- सभी आवश्यक क्रियानुष्ठान के साथ सदा यतना करें... v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु को हर परिस्थिति में समभाव रखना चाहिए। चाहे उसे सम शय्या मिले या विषम मिले, सर्दी-गर्मी के अनुकूल स्थान मिले या प्रतिकूल मिले, डांस-मच्छर एवं धूल से युक्त स्थान मिले या इनसे रहित मिले। कहने का तात्पर्य यह है किअनुकूल एवं प्रतिकूल दोनों अवस्थाओं में उसे समभाव रखना चाहिए। अनुकूल स्थान मिलने पर उसमें आसक्त नहीं होना चाहिए और प्रतिकूल मिलने पर द्वेष नहीं करना चाहिए। साधु को राग-द्वेष से ऊपर उठकर विचरना चाहिए। वस्तुतः यही साधुता है और इस पथ पर गतिशील साधक ही अपनी साधना में सफल होकर साध्य को प्राप्त कर सकता है। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें। // प्रथमचूलिकायां द्वितीयथय्यैषणाध्ययने तीयः उद्देशकः समाप्तः // // समाप्तं द्वितीयं शय्यैषणाध्ययनम् / / 卐卐卐 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 2-1-2-3-24 (444) 247 : प्रशस्ति : - मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शगुंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट -परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरल्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. . “श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. . राजेन्द्र सं. 96.' विक्रम सं. 2058. Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 1 . अध्ययन - 3 उद्देशक - 1 // ईर्या // द्वितीय अध्ययन कहा, अब तृतीय अध्ययन का प्रारंभ करतें हैं... और यहां परस्पर यह संबंध है कि- प्रथम अध्ययन में धर्म के हतुभूत शरीर के संरक्षण के लिये आहारादि पिंड का स्वरुप कहा, तथा-उस आहारादि पिंड को प्राप्त करने के बाद इहलोक के एवं जन्मांतर के अपाय (उपद्रवों) से बचने के लिये वसति (उपाश्रय) में हि वापरना चाहिये, अतः दुसरे अध्ययन में पिंड एवं वसति की अन्वेषणा के लिये गमनागमन (आना-जाना) होता है, अतः वह गमनागमन कब किस प्रकार करें यह बात कहने के लिये इस तीसरे अध्ययन में "ईर्या" गमन-विधि कहेंगे... इस प्रकार के संबंध से आये हुए इस तीसरे अध्ययन के चार अनुयोग द्वार होतें हैं, उनमें निक्षेपनियुक्ति अनुगम में नाम-निक्षेप के लिये नियुक्तिकार कहतें हैं... "ईर्या" पद के छह (6) निक्षेप होतें हैं... नाम ईर्या स्थापना ईर्या द्रव्य ईर्या 4. क्षेत्र ईर्या काल ईर्या 6. भाव ईर्या.... नाम एवं स्थापना ईर्या सुगम होने से अब द्रव्य ईर्या का स्वरुप कहतें हैं... द्रव्य-ईर्या सचित्त, अचित्त एवं मिश्र के भेद से तीन प्रकार से है... ईर्या याने गति करना चलना... उनमें सचित्त ईर्या याने सचित्त वायु, पुरुष आदि द्रव्यों का चलना-गति करना वह सचित्त द्रव्य ईया... इसी प्रकार परमाणु आदि पुद्गल द्रव्यों का गमन करना वह अचित्त द्रव्य ईया... तथा पुरुष बैठे हुए रथ का गमन वह मिश्र द्रव्य ईया... तथा क्षेत्र ईर्या याने जिस क्षेत्र में गमनागमन करना वह, अथवा जहां बैठकर ईर्या का स्वरुप कहा जाय वह क्षेत्र ईर्या... इसी प्रकार काल-ईर्या भी जानीयेगा... जैसे कि- जिस काल में गमनागमन कीया जाय, वह, अथवा जिस काल में "ईर्या" का स्वरुप कहा जाय वह काल-ईर्या... अब भाव-ईर्या का स्वरुप कहतें हैं... 2. संयम-ईया... उनमें संयम-ईया के सत्तरह (17) भेद है... अथवा असंख्य संयम स्थानों में से कोई एक संयम स्थान में से अन्य संयम स्थान में जाने को संयम-ईर्या कही गई है... तथा चरण-ईफ याने गति करना, चलना, आवागमन Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 249 %3 करना... अब श्रमण-साधु को किस प्रकार से भाव-ईर्या निर्दोष हो वह कहतें हैं... आलंबन याने प्रवचन के लिये, संघके लिये, गच्छ के लिये, आचार्यादि के लिये. तथा काल याने साधुओं को विहार करने योग्य समय... मार्ग-याने लोगों के आवागमन का मार्ग... यतना याने साढे तीन हाथ प्रमाण भूमी को देखते हुए यतना पूर्वक चलना... इस प्रकार आलंबन, काल, मार्ग एवं यतना के पदों से सोलह (16) भंग-विकल्प होतें हैं. काल मार्ग यतना काल मार्ग अयतना यतना लं काल काल अमार्ग अमार्ग ; अयतना अकाल मार्ग यतना अकाल अयतना अकाल मार्ग अमार्ग अमार्ग यतना / अकाल अयतना आलंबन आलंबन आलंबन आलंबन आलंबन आलंबन आलंबन आलंबन अनालंबन अनालंबन अनालंबन अनालंबन अनालंबन अनालंबन अनालंबन अनालंबन काल मार्ग यतना काल अयतना काल मार्ग अमार्ग अमार्ग यतना काल अयतना अकाल मार्ग यतना 13. 14. अकाल अयतना अकाल मार्ग अमार्ग अमार्ग यतना 16. अकाल . अयतना इत्यादि सोलह भंग-विकल्पों में से जो भंग परिशुद्ध है वह हि प्रशस्त-शुभ कहा गया है... चार कारणों से साधु का गमन (चलना) परिशुद्ध होता है... जैसे कि- आलंबन के द्वारा दिन में मार्ग में यतना से चलना-गमनागमन करना... अथवा अकाल में भी ग्लानादि आलंबन से मार्ग में यतना से चलनेवाले का गमनागमन शुद्ध है... इस प्रकार से मार्ग में साधु यतना से चले... नाम-निष्पन्न निक्षेप कहा, अब उद्देशार्थाधिकार के विषय में कहतें हैं... यहां तीसरे अध्ययन के तीनों उद्देशक में यद्यपि ईर्या-विशुद्धि का हि अर्थाधिकार है, फिर Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 2-1-3-1-1 (445) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन भी प्रत्येक उद्देशक में जो कुछ विशेषता है वह अनुक्रम से कहतें हैं... पहले उद्देशक में-वर्षाकाल के पूर्व हि विवक्षित क्षेत्र में पहुंचना और चातुर्मास ठहरना, तथा चतुर्मास पूर्ण होने के बाद शरत्कालादि में विहार (निर्गमन) की विधि और मार्ग में यतना का स्वरूप कहा जाएगा... तथा दुसरे उद्देशक में- नदी उतरने के लिये नौका आदि में आरुढ हुए साधु को संभवित छलना-प्रक्षेपण इत्यादि कहा जाएगा... तथा जंघा प्रमाण जल में यतना की विधि एवं विभिन्न प्रकार के प्रश्न उपस्थित होने पर साधु को क्या करना चाहिये वह विस्तार से कहा जाएगा... तथा तीसरे उद्देशक में- यदि कोइ मनुष्य नदी के जल आदि के विषयक पुछे तब साधु जानता हुआ भी उसको न कहें इत्यादि अधिकार कहा जाएगा... तथा मार्ग में चोर-लुंट-धाड का उपद्रव न हो वैसा पहले से हि प्रतिबंध करें... कभी मार्ग में कोइ लुट ले तब स्वजन या राजगृह की और न जाएं एवं उन्हें वह बात न कहें... अब सूत्रानुगम में अस्खलितादि गुण सहित सूत्र का उच्चारण करें... वह सूत्र यह हैं... I सूत्र // 1 // // 445 // ___ अब्भुवगए खलु वासावासे अभिपवुढे बहवे पाणा अभिसंभूया बहवे बीया अहणाभिण्णा अंतरा से मग्गा बहुपाणा बहुबीया जाव ससंताणगा अणभिक्कंता पंथा नो विण्णाया मग्गा सेवं णच्चा नो गामाणुगामं दूइज्जिज्जा, तओ संजयामेव वासावासं उवल्लिइज्जा // 445 // II संस्कृत-छाया : अभ्युपगते खलु वर्षावासे अभिप्रवृष्टे बहवः प्राणिनः अभिसम्भूता: बहूनि बीजानि अभिनवाङ्कुरितानि अन्तराले तस्य मार्गाः बहुप्राणिनः बहबीजा: यावत् ससन्तानका: अनभिक्रान्ताः पन्थानः, न विज्ञाता: मार्गाः, सः एवं ज्ञात्वा न ग्रामानुग्रामं गच्छेत् (यायात्) ततः संयतः एव वर्षावासं उपलीयेत.॥ 445 // III सूत्रार्थ : ___वर्षाकाल में वर्षा होजाने से मार्ग में बहुत से प्राणी-जीवजंतु उत्पन्न हो जाते हैं तथा बीज अंकुरित हो जाते हैं, पृथिवी घास आदि से हरी हो जाती है। मार्ग में बहुत से प्राणीक्षुद्रजंतु बहुत से बीज तथा जाले आदि की उत्पत्ति हो जाती है, एवं वर्षा के कारण मार्ग अवरुद्ध हो जाने से मार्ग और उन्मार्ग का पता नहीं लगता। ऐसी परिस्थिति में साधु को एक ग्राम Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-3-1-1 (445) 251 से दुसरे व्याम में विहार नहीं करना चाहिए। किन्तु वर्षाकाल के समय एक स्थान पर ही स्थित रहना चाहिए। तात्पर्य यह है कि- साधु वर्षा काल पर्यन्त भ्रमण न करे किन्तु एक ही स्थान पर ठहरे। IV टीका-अनुवाद : .... चतुर्मास-वर्षाकाल निकट में आने पर मेघ बरसने से साधुओं की सामाचारी (आचार) इस प्रकार हैं कि- आषाढ चतुर्मास के प्रारंभ से पहले हि वर्षावास क्षेत्र में पहुंचकर तृण फलक डगलक एवं भस्म तथा मात्रक आदि ग्रहण कर लें... क्योंकि- वरसाद बरसने से बहोत सारे क्षुद्र जंतु जैसे कि- इंद्रगोपक बीयावक गर्दभक आदि उत्पन्न होतें हैं तथा बहोत प्रकार के बीज भी अंकुरित होतें हैं... यहां वर्षाकाल एवं वृष्टि पढ़ की चतुर्भगी होती है... 1. . वर्षाकाल प्रारंभ वृष्टि होना . वषाकाल प्रारभ वृष्टि न होना 3. वर्षाकाल . के पहले वृष्टि होना 4. वर्षाकाल * के पहले वृष्टि न होना... इत्यादि... यहां चौथा विकल्प निर्दोष है, अतः वर्षाकाल के प्रारंभ के पहले हि एवं वृष्टि होने के पहले से हि चातुर्मास-क्षेत्र में साधु पहुंच जाएं... तथा चतुर्मास के पहले किंतु वर्षा होने के बाद विहार करने पर बिच के मार्ग में चलते हुए साधुओं को बहोत सारे क्षुद्र (स) जीव तथा बहोत प्रकार के बीज अंकुर यावत् मकडी के जाले आदि की विराधना हो तथा मार्ग भी लोगों के आने जाने से रहित हो... इस कारण से मार्ग तृण आदि से व्याकुल (भरे हुए) होने के कारण से साधुओं को ऐसे मार्ग में चलने की अनुमति नहि दी है... अर्थात् इस स्थिति में साधु एक गांव से अन्य गांव में न जावें... किंतु संयत हि रहकर वर्षाकाल में यथावसर प्राप्त वसति में हि तीन गुप्तिओं से गुप्त-लीन रहे, अर्थात् वर्षावास- चतुर्मास कल्प करें... अब इसका अपवाद कहतें हैं... v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में साधु को वर्षा काल में विहार करने का निषेध किया गया है। एक वर्ष में तीन चातुर्मास होते हैं- 1. ग्रीष्म, 2. वर्षा और 3. हेमन्त। इनमें वर्षाकाल में ही साधु को एक स्थान में स्थित होने का आदेश दिया गया है क्योंकि वर्षाकाल में पृथ्वी शस्य-श्यामला हो जाती है, क्षुद्र जन्तुओं की उत्पत्ति बढ़ जाती है अतः हरियाली एवं पानी की अधिकता के कारण साधु को वर्षाकाल में विहार नहीं करना चाहिए। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252 2-1-3-1-2 (446) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागमं हिन्दी प्रकाशन इससे स्पष्ट होता है कि आषाढ़ पूर्णिमा के बाद कार्तिक पूर्णिमा तक विहार नहीं करना चाहिए। यदि कभी आषाढ़ी पूर्णिमा से पूर्व ही वर्षा प्रारम्भ हो जाए और चारों तरफ हरियाली छा जाए तो साधु को उसी समय से एक स्थान पर स्थित हो जाना चाहिए और वर्षावास के लिए आवश्यक वस्त्र आदि ग्रहण कर लेना चाहिए। क्योंकि, वर्षावास में वस्त्र आदि ग्रहण करना नहीं कल्पता, इसलिए साधु उनका वर्षावास के पूर्व ही संग्रह कर ले। वर्षावास का प्रारम्भ चन्द्रमास से माना जाता है। अतः वह श्रावण कृष्णा प्रतिपदा से प्रारम्भ होता है और कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा को समाप्त होता है। शाकटायन ने भी आषाढ़, कार्तिक एवं फाल्गुन की पूर्णिमा को चातुर्मास की पूर्णिमा स्वीकार किया है। उसने भी वर्ष में तीन चातुर्मासी को मान्य किया है। इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि साधु को वर्षाकाल में विहार नहीं करना चाहिए। परन्तु, वर्षावास के लिए साधु को किन बातों का विशेष ख्याल रखना चाहिए इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे का सूत्र कहते हैं.... / I सूत्र // 2 // // 446 // से भिक्खू वा० सेज्जं गाम वा जाव रायहाणिं वा इमंसि खलु गामंसि वा जाव राय० नो महई विहारभूमी, नो महई वियारभूमी, नो सुलभे पीढफलगसिज्जासंथारगे नो सुलभे फासुए उंछे अहेसणिज्जे, जत्थ बहवे समण वणीमगा उवागया उवागमिस्संति य अच्चाइण्णा वित्ती नो पण्णस्स निक्खमणे जाव चिंताए, सेवं नच्चा तहप्पगारं गामं वा नगरं वा जाव रायहाणिं वा नो वासावासं उवल्लिइज्जा। से भिक्खू० से जं० गाम वा जा राय० इमंसि खलु गांमंसि वा जाव महई विहारभूमी, महई वियार० सुलभे जत्थ पीढ, सुलभे फा0 नो जत्थ बहवे समण उवागमिस्संति वा अप्पाइण्णा वित्ती जाव रायहाणिं वा तओ संजयामेव वासावासं उवल्लिइज्जा || 446 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० सः यत्० ग्रामं वा यावत् राजधानी वा अस्मिन् खलु ग्रामे वा यावत् राजधान्यां वा, न महती विहारभूमी वा न महती विचारभूमी, न सुलभः पीठफलकशय्यासंस्तारकः न सुलभः प्रासुक: उञ्छः यथा-एषणीयः, यत्र बहवः श्रमण वनीपका: उपागता: वा उपागमिष्यन्ति वा, अत्याकीर्णा वृत्तिः, न प्रज्ञस्य निष्क्रमणं यावत् चिन्तायां, सः एवं ज्ञात्वा तथाप्रकारं ग्रामं वा नगरं वा यावत् राजधानी वा, न वर्षावासं उपलीयेत्। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-3-1-2 (446) 253 सः भिक्षुः वा० स: यत्० ग्रामं वा यावत् राज० अस्मिन् खलु ग्रामे वा यावत्। महती विहारभूमी महती विचारभूमी० सुलभः यत्र पीठ०, सुलभः प्रासुक:०, नो यत्र बहवः श्रमण उपागमिष्यन्ति वा अल्पाकीर्णा वृत्तिः, यावत् राजधानी वा, ततः संयतः एव वर्षावासं उपलीयेत // 446 / / III सूत्रार्थ : वर्षा वास करने वाले साधु या साध्वी को ग्राम नगर, यावत् राजधानी की स्थिति को भली-भांति जानना चाहिए। जिस ग्राम, नगर यावत् राजधानी में एकान्त स्वाध्याय करने के लिए कोई विशाल भूमि न हो, नगर से बाहर मल-मूत्रादि के त्यागने की भी कोई विशाल भूमि न हो, और पीठ-फलक-शय्या-संस्तारक की प्राप्ति भी सुलभ न हो, एवं प्रासुक और निर्दोष आहार का मिलना भी सुलभ न हो और बहुत से शाक्यादि भिक्षु यावत् भिखारी लोग आए हुए हों जिस से ग्रामादि में भीड़-भाड़ बहुत हो और साधु साध्वी को सुखपूर्वक स्थान से निकलना और प्रवेश करना कठिन हो तथा स्वाध्याय आदि भी न हो सकता हो तो ऐसे व्यामादि में साधु वर्षाकाल व्यतीत. न करे। जिस ग्राम या नगरादि में विहार और विचार के लिए अर्थात् स्वाध्याय और मल-मूत्रादि का त्याग करने के लिए विशाल भूमि हो, पीठ-फलकादि की सुलभता हो, निर्दोष आहार पाणी भी पर्याप्त मिलता हो और शाक्यादि भिक्षु या भिखारी लोग भी आए हुए न हों एवं उनकी अधिक भीड़-भाड़ भी न हो तो ऐसे गांव या शहर आदि में साधु साध्वी वर्षाकाल व्यतीत कर सकता है। * IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. जब ऐसा जाने कि- इस गांव या राजधानी में बडी स्वाध्यायभूमी नहि है, तथा विचारभूमी याने स्थंडिलभूमी बडी नहि है... तथा यहां पीठ, फलक (पाट), शय्या, संस्तारक आदि सुलभ नहि है, तथा यहां प्रसुक एवं एषणीय आहारादि सुलभ नहि है... अर्थात् आहारादि जो उद्गमादि दोष रहित होने चाहिये वैसे एषणीय आहारादि सुलभ नहि है... तथा जहां गांव-नगर आदि में बहोत सारे श्रमण ब्राह्मण, कृपण, वनीपक आदि आये हुए हैं, और अन्य आनेवाले हैं इस प्रकार वहां वृत्ति याने रहना, जैसे कि- भिक्षाटन (गोचरी), स्वाध्याय, ध्यान, स्थंडिल भूमी जाना इत्यादि कार्यो में, लोगों के आवागमन की अधिकता से आकीर्ण याने गीच हो... इस स्थिति में साधुओं को वहां प्रवेश-निष्क्रमण याने आने जाने में यावत् देहचिंता आदि क्रिया निरुपद्रव न हो, ऐसा जानकर साधु वहां वर्षावास चातुर्मास न करें... इसी प्रकार व्यत्यय याने इस से विपरीत सत्र को इस से विपरीत स्वरुप से जानीयेगा... Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 2-1-3-1-3 (447) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अब वर्षाकाल पूर्ण होने पर, कब और किस प्रकार विहार करें, इस विषय में कहतें हैं... सूत्रसार : . प्रस्तुत सूत्र में वर्षावास के क्षेत्र को चुनते समय 5 बातों का विशेष ख्याल रखने का आदेश दिया गया है- १-स्वाध्याय एवं चिन्तन मनन के लिए विशाल भूमि, 2- शहर या गांव के बाहर मल-मूत्र का त्याग करने के लिए विशाल निर्दोष भूमि, 3-साधु साध्वी के ग्रहण करने योग्य निर्दोष शय्या-तख्त आदि की सुलभता, ४-प्रासुक एवं निर्दोष आहार पानी की सुलभता और ५-शाक्यादि अन्य मत के साधुओं तथा भिखारियों के जमघट का नहीं होना / जिस क्षेत्र में उक्त सविधाएं न हों वहां साध को वर्षावास नहीं करना चाहिए। क्योंकि- विचार एवं चिन्तन की शुद्धता के लिए शान्त-एकान्त स्थान का होना आवश्यक है। बिना एकान्त स्थान के स्वाध्याय एवं ध्यान में मन एकाग्र नहीं हो सकता और मन की एकाग्रता के अभाव में साधना में तजस्विता नहीं आ सकती। इसलिए सब से पहले अनुकूल स्वाध्याय भीम का होना आवश्यक है। संयम की शुद्धता को बनाए रखने के लिए परठने के लिए भी निर्दोष भूमि, निर्दोष आहार पानी एवं निर्दोष शय्या-तख्त आदि की प्राप्ति भी आवश्यक है और इनकी निर्दोषता के लिए यह भी आवश्यक है कि उस क्षेत्र में अन्यमत के भिक्षुओं का अधिक जमाव न हो। यदि वे भी अधिक संख्या में होंगे तो शुद्ध आहार-पानी आदि की सुलभता नहीं मिल सकेगी। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि- उस युग में अन्य मत के भिक्षु भी वर्षाकाल में एक स्थान पर रहते थे। गृहस्थ लोग सभी तरह के साधुओं को स्थान एवं आहार आदि देते थे। इसी दृष्टि से साधु के लिए यह निर्देश किया गया कि उसे वर्षावास करने के पूर्व अपने स्वाध्याय की अनुकूलता एवं संयम शुद्धि आदि का पूरी तरह अवलोकन कर लेना चाहिए क्योंकि वर्षावास, जीवों की रक्षा संयम की साधना एवं ज्ञान-दर्शन और चारित्र की आराधना के लिए ही किया जाता है। अतः इन में तेजस्विता लाने का विशेष ध्यान रखना चाहिए। यदि वर्षाकाल के समाप्त होने के पश्चात् भी वर्षा होती रहे तो साधु को क्या करना चाहिए, इसके लिए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 3 // // 447 // ___अह पुणेवं जाणिज्जा-चत्तारि मासा वासावासाणं वीइक्कंता हेमंताण य पंचदसरायकप्पे परिपुसिए, अंतरा से मग्गा बहुपाणा जाव ससंताणगा, नो जत्थ बहवे जाव उवागमिस्संति, सेवं नच्चा नो गामाणुगामं दूइज्जिज्जा || Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-3-1-3 (447) 255 अह पुणेवं जाणिज्जा चत्तारि मासा० कप्पे परिवुसिए, अंतरा से मग्गे अप्पंडा जाव असंताणगा, बहवे जत्थ समण उवागमिस्संति, सेवं नच्चा तओ संजयामेव० दूइज्जिज्जा // 447 // II संस्कृत-छाया : अथ पुनः एवं जानीयात्- चत्वारः मासाः वर्षावासानां व्यतिक्रान्ताः, हेमन्तानां च पञ्चदशरात्रिकल्प: पर्युषितः, अन्तराले तस्य मार्गे बहुप्राणिनः यावत् ससन्तानकाः, न यत्र बहवः यावत् उपागमिष्यन्ति, सः एवं ज्ञात्वा न ग्रामानुग्रामं गच्छेत् // अथ पुन: एवं जानीयात् चत्वारः मासा:० कल्प: पर्युषितः, अन्तराले तस्य मार्गे अल्पाण्डाः यावत् असंतानका: बहवः यत्र श्रमण उपागमिष्यन्ति, सः एवं ज्ञात्वा ततः संयतः एव० गच्छेत् // 447 // III सूत्रार्थ : वर्षाकाल के चार मास व्यतीत हो जाने पर साधु को अवश्य विहार कर देना चाहिए, यह मुनि का उत्सर्गमार्ग है। यदि कार्तिक मास में पुनः वर्षा हो जाए और उसके कारण मार्ग आवागमन के योग्य न रहे और वहां पर शाक्यादि भिक्षु नहीं आए हों तो मुनि को चतुर्मास के पश्चात् वहां 15 दिन और रहना कल्पता है। यदि 15 दिन के पश्चात् मार्ग ठीक हो गया हो, अन्यमत के भिक्षु भी आने लगे हों तो मुनि यामानुयाम विहार कर सकता है इस तरह वर्षा के कारण मुनि कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा के पश्चात् मार्गशीर्षकृष्णा अमावस पर्यन्त ठहर सकता है। IV टीका-अनुवाद : अब वह साधु या साध्वीजी म. ऐसा जाने कि- वर्षाकाल के चार महिने बीत चुके है अर्थात् कार्तिक पूर्णिमा बीत चुकी है, वहां उत्सर्ग से यदि वृष्टि-बरसात न हो तो पडवे के दिन हि विहार करके अन्य गांव में जाकर पारणां करें, और यदि वृष्टि-बरसात हो, तो हेमंत . ऋतु के पंद्रह (15) दिन बीतने पर विहार करें... और वहां यदि अंतराल-मार्ग में क्षुद्र जंतुओं के अंडे हो या मकडी के जाले हो, और बहोत सारे श्रमण ब्राह्मण आदि आये न हो या आनेवाले न हो, तो संपूर्ण मागसर महिना वहां हि स्थिरता करें... उसके बाद कैसी भी स्थिति हो तो भी वहां न रहें... इसी प्रकार इससे विपरीत सत्र का अर्थ भी विपरीत प्रकार से जानीयेगा... .. अब मार्ग-यतना के विषय में कहतें हैं... Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256 2-1-3-1-3 (447) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में वर्षाकाल समाप्त होने के बाद ठहरने के सम्बन्ध में उत्सर्ग एवं अपवाद मार्ग को सामने रखकर आदेश दिया गया है। इस में बताया गया है कि यदि वर्षाकाल के अन्तिम दिनों में वर्षा हो जाए और उसके कारण मार्ग हीरयाली से ढक जाए, जीवों की उत्पत्ति हो जाए और अन्य मत के भिक्षु भी अधिक संख्या में न आए हों तो वर्षाकाल के समाप्त होने पर भी मुनि हेमन्त काल के 15 दिन तक उस स्थान में ठहर सकता है, इससे स्पष्ट होता है कि- मुनि का जीवन जीव-रक्षा के लिए है। क्षुद्र जीवों की यत्ना के लिए ही वह चार महीने एक स्थान पर स्थित होता है। अतः उसके पश्चात् भी क्षुद्र जीवों की एवं वनस्पति की अधिक उत्पत्ति हो तो वह 15 दिन और रुक जाता है। प्रस्तुत सूत्र में इससे अधिक समय का उल्लेख नहीं किया गया है और प्रायः हेमन्त काल में मार्ग भी साफ हो जाता है। फिर भी यदि कभी अकस्मात् वर्षा की अधिकता से मार्ग हरियाली एवं क्षुद्र जन्तुओं की अधिक उत्पत्ति हो जाए और उस से संयम की विराधना होने की संभावना देखकर साधु कुछ दिन और ठहर जाता है, तो भी वह आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता। क्योंकि वह केवल संयम की विशुद्ध आराधना के लिए ही ठहरता है। यदि वर्षाकाल के पश्चात् मौसम साफ हो, मार्ग में किसी तरह की रुकावट न हो तो साधु को मार्गशीर्ष कृष्णा प्रतिपदा को विहार कर देना चाहिए। आगम में स्पष्ट शब्दों में आदेश दिया गया है कि साधु-साध्वी को वर्षाकाल में विहार करना नहीं कल्पता परन्तु हेमन्त और व्यीष्म काल में विहार करना कल्पता है। आचारांग सूत्र में भी एक स्थल पर कहा है कि यदि साधु मास या वर्षावास कल्प के बाद बिना कारण उसी स्थान पर ठहरता है तो उसे कालातिक्रम दोष लगता है। और श्रमण भगवान महावीर ने भी कार्तिक चातुर्मासी (पूर्णिमा) के पश्चात् मार्गशीर्ष कृष्णा प्रतिपदा को विहार कर दिया था। इससे स्पष्ट होता है कि वर्षा आदि विशिष्ट कारणों के उपस्थित हुए बिना साधु को वर्षा काल के पश्चात् उसी स्थान पर नहीं ठहरना चाहिए। वृत्तिकार ने यह भी लिखा है कि यदि वृष्टि आदि न हो तो उत्सर्ग मार्ग में साधु को वर्षावास के समाप्त होने पर चातुर्मासी के तप का पारणा अन्य स्थान पर जाकर करना चाहिए। आगम में वर्षावास के पश्चात् बिना कारण रात को ठहरना नहीं कल्पता अर्थात् जिस स्थान में वर्षावास किया हो साधु को वहां मार्गशीर्ष कृष्णा की प्रतिपदाकी रात को नहीं ठहरना चाहिए। विहार के समय साधु को मार्ग की यत्ना कैसे करनी चाहिए इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-3-1-4 (448) 257 I सूत्र // 4 // // 448 // से भिक्खू वा० गामाणुगामं दूइज्जमाणे पुरओ जुगमायाए पेहमाणे दखूण तसे पाणे उद्धट्ट पादं रीइज्जा साहट्ट पायं रीइज्जा वितिरिच्छं वा कट्ठ पायं रीइज्जा, सइ परक्कमे संजयामेव परिक्कमिज्जा नो उज्जुयं गच्छिज्जा, तओ संजयामेव गामाणुगाम दुइज्जिज्जा। से भिक्खू वा० गामा० दूइज्जमाणे अंतरा से पाणाणि वा बी० हरि० उदए वा मट्टिआ वा अविद्धत्थे सइ परक्कमे जाव नो उज्जुयं गच्छिज्जा, तओ संजया० गामा० दूइज्जिज्ज || 448 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० ग्रामानुग्रामं गच्छन् पुरतः युगमात्रया प्रेक्षमाण: दृष्ट्वा असान् प्राणिनः पादं उद्धृत्य गच्छेत्, संहृत्य पादं गच्छेत् तिरश्चीनं वा पादं कृत्वा गच्छेत्, सति पराक्रमे संयतः एक पराक्रमेत्, न ऋजुना गच्छेत्, ततः संयतः एव ग्रामानुग्रामं गच्छेत् / : सः भिक्षुः वा० ग्रामा० गच्छन् अन्तरा तस्य प्राणिनः वा बीजानि वा हरितानि वा उदकं वा मृत्तिका वा अविद्धार्थे सति पराक्रमे यावत् न ऋजुना गच्छेत्, तत: संयत:० ग्रामा० गच्छेत् // 448 // III सूत्रार्थ : साधु या साध्वी यामानुग्राम विहार करता हुआ अपने मुख के सामने साढे तीन हाथ प्रमाण भूमि को देखता हुआ चले और मार्ग में त्रस प्राणियों को देखकर पैर के अग्रभाग को उठाकर चले। यदि दोनों ओर जीव हों तो पैरों को संकोच कर या तिर्यक् टेढ़ा पैर रखकर चले। यह विधि अन्यमार्ग के अभाव में कही गई है। यदि अन्य मार्ग हो तो उस मार्ग से चलने का प्रयत्न करे, किन्तु जीव युक्त सरल (सीधे) मार्ग पर न चले। यदि मार्ग में प्राणी बीज, हरी, जल और मिट्टी आदि अचित न हुए हों तो साधु को अन्य मार्ग के होने पर उस मार्ग से नहीं जाना चाहिए। यदि अन्य मार्ग न हो तो उस मार्ग से यत्नापूर्वक जाना चाहिए। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. एक गांव से दुसरे गांव की और जाते हुए मार्ग में आगे की और युगमात्र याने चार हाथ प्रमाण अर्थात बैलगाडीकी धूसरी के प्रमाण भूमी को देखते हुए विहार करें... और वहां मार्ग में पतंगीये आदि स जीवों को देखकर पैर के आगे के पंजे के सहारे चले या पैर के पीछे के भाग पानी के सहारे चले या पैर को तीरछा करके Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258 2-1-3-1-5 (449) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन चले... यह विधि अन्य मार्ग न होने पर हि जानीयेगा... यदि अन्य मार्ग हो तो संयत साधु अन्य मार्ग से हि चलें... किंतु ऋजु याने सीधे मार्ग से न चलें इत्यादि... शेष सूत्र के पदार्थ सुगम हैं... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु को विहार करते समय अपनी दृष्टि गन्तव्य मार्ग पर रखनी चाहिए। अपने सामने की साढ़े तीन हाथ भूमि को देखकर चलना चाहिए। उस समय अपने मन, वचन एवं काय योग को भी इधर-उधर नहीं लगाना चाहिए। यहां तक कि साधु को चलते समय स्वाध्याय एवं आत्मचिन्तन भी नहीं करना चाहिए। उस समय उसका ध्यान विवेक पूर्वक चलने की ओर होना चाहिए और रास्ते में आने वाले क्षुद्र जन्तुओं एवं हरित काय की रक्षा करते हुए गति करनी चाहिए। यदि रास्ते में बीज, हरियाली एवं क्षुद्र जन्तु अधिक हों और उस गांव को दूसरा रास्ता जाता हो- चाहे वह कुछ लम्बा पड़ता हो, परन्तु जीवों से रहित हो, तो मुनि को वह जीवजन्तुओं से युक्त सीधा रास्ता छोड़कर उस निर्दोष मार्ग से जाना चाहिए। यदि दूसरा मार्ग न हो तो यत्नापूर्वक पैरों को संकच कर या टेढ़े-मेढ़े पैर रखकर या अंगूठे आदि के बल पर उस रास्ते को तय करे अर्थात् उस मार्ग को विवेकपूर्वक पार करे जिससे जीवों को किसी तरह की पीड़ा एवं कष्ट न पहुंचे। __ इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 5 // // 449 // से भिक्खू वा० गामा० दूइज्जमाणे अंतरा से विरुवरुवाणि पच्चंतिगाणि दस्सुगाययाणि मिलक्खूणि अणायरियाणि दुसण्णपाणि दुप्पण्णवणिज्जाणि अकालपडिबोहीणि अकालपरिभोईणि सइ लाढे विहाराए संथरमाणेहिं जाणवएहिं नो विहारवडियाए पवज्जिज्जा गमणाए, केवली बूया- आयाणमेयं, ते णं बाला अयं तेणे अयं उवचरए अयं ततो आगएत्ति कट्ट तं भिक्खं अक्कोसिज्ज वा जाव उद्दविज्ज वा वत्थं प० कं० पाय० अच्छिंदिज्ज वा भिंदिज्ज वा अवहरिज्ज वा परिढविज्ज वा, अह भिक्खूणं पु० जं तहप्पगाराई विरु० पच्चंतियाणि दस्संगा० जाव विहारवत्तियाए नो पवज्जिज्ज वा गमणाए तओ संजया गा० दू० // 449 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० ग्रामा० गच्छन् अन्तरा तस्य विरूपरूपाणि प्रात्यन्तिकानि दस्युकायतनानि म्लेच्छ प्रधानानि अनार्याणि दु:सज्ञाप्यानि दुष्प्रज्ञाप्यानि अकालप्रतिबोधीनि अकालपरिभोजीनि, सति लाढे विहारे विद्यमानेषु जनपदेषु, न Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-3-1-5 (449) 259 विहारवृत्तितया प्रपद्येत गमनाय, केवली ब्रूयात्- आदानमेतत्, ते बाला:- अयं स्तेन:, अयं उपचरकः, अयं ततः आगतः इति कृत्वा तं भिलु आक्रोशयेयुः वा यावत् जीवितात् व्यपरोपयेयुः, वस्त्रादि वा आच्छिन्द्युः वा भिन्युः वा अपहरेयुः वा निर्धाटयेयुः वा, अथ भिक्षूणां पूर्वोप० यत् तथाप्रकाराणि विरूपरूपाणि प्रात्यान्तिक्रानि दस्युकायतनानि यावत् विहारवृत्तितया न प्रपद्येत वा गमनाय, ततः संयतः एव ग्रामानुग्राम गच्छेत् / / 449 // III सूत्रार्थ : ___ साधु या साध्वी व्यामानुयाम विचरता हुआ जिस मार्ग में नाना प्रकार के देशकी सीमा में रहने वाले चोरों के, म्लेच्छों के और अनार्यों के स्थान हों तथा जिनको कठिनता पूर्वक समझाया जा सकता है या जिन्हें आर्य धर्म बड़ी कठिनता से प्राप्त हो सकता है ऐसे अकाल (कुसमय) में जागने वाले, अकाल (कुसमय) में खाने वाले मनुष्य रहते हों, तो अन्य आर्य क्षेत्र के होते हुए ऐसे क्षेत्रों में विहार करने का कभी मन में भी संकल्प न करे। क्योंकि केवली भगवान कहते हैं कि- वहां जाना कर्म बन्धन का कारण है। वे अनार्य लोग साधु को देखकर कहते हैं कि- यह चोर है, यह गुप्तचर है, यह हमारे शत्रु के गांव से आया है, इत्यादि बातें कहकर वे उस भिक्षु को कठोर वचन बोलेंगे उपद्रव करेंगे और उस साधु के वस्त्र, पात्र, कम्बल और पाद प्रोंछन आदि का छेदन भेदन या अपहरण करेंगे या उन्हें तोड़ फोड़कर दूर फैंक देंगे क्योंकि ऐसे स्थानों में यह सब संभव हो सकता है। इसलिए भिक्षुओं को तीर्थंकरादि ने पहले ही यह उपदेश दिया है, कि साधु इस प्रकार के प्रदेशों में विहार करने का संकल्प भी न करे। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. व्यामांतर विहार करते हुए जाने कि- मार्ग में विभिन्न प्रकार के अतिशय क्रूर ऐसे चौरों का निवास है, या बर्बर, शबर, पुलिंद आदि म्लेच्छलोगों के (साढे पच्चीस आर्यदेश को छोड़कर शेष अनार्यदेश के लोगों के) निवास है, कि- जो लोग बडी कठीनाइ से आर्य-संज्ञा को समझते हैं, और बडे कष्ट से धर्मकथा के उपदेश से अनार्य संज्ञा से निवृत्त होते हैं तथा अकालप्रतिबोधी याने जिन्हों का भटकने का कोई निश्चित समय नहि है... अर्थात् रात-दिन कभी भी भटकते रहतें हैं... क्योंकि- वे आधी रात में भी शिकार के लिये निकल पडतें हैं... तथा अकालभोजी याने खाने-पीने का भी कोई निश्चित समय नहि है ऐसे उन लोगों के निवास क्षेत्र में विहार न करें, किंतु आर्यदेश में हि विहार करें... क्योंकियहां केवली प्रभु कहतें हैं कि- ऐसे अनार्यलोगों के क्षेत्र में विहार करने से कर्मबंध होता है... यहां संयमविराधना और आत्मविराधना संभवित है... तथा आत्मविराधना में संयम विराधना होती है... वह इस प्रकार- अनार्यक्षेत्र में विहार करने पर जब वे अनार्य लोग साधु को देखे Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 2-1-3-1-6 (450) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन तब वे पोकार करे कि- “यह चोर है, यह हमारे शत्रुओं के गांव से आया हुआ चर पुरुष है" इत्यादि कहकर वाणी से आक्रोश करे, दंड-लकडी से मारे, यावत् प्राणांत कष्ट देकर मार डाले... तथा वस्त्र-पत्रादि लुट ले, या तोड-फोड करे, या सब कुछ लुटकर साधु को भगा दे... अतः साधुओं को पूर्व कही गइ प्रतिज्ञादि इस प्रकार है कि- साधु ऐसे वैसे म्लेच्छ-अनार्य क्षेत्र में विहार न करें... किंतु अनार्य-क्षेत्र का त्याग करके आर्यक्षेत्र में हि संयमी होकर एक गांव से दुसरे गांव में विहार करें... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु को ऐसे प्रान्तों में विचरना चाहिए जहां आर्य एवं धर्म-निष्ठ भद्र लोग रहते हों। परन्तु, सीमान्त पर जो अनार्य देश हैं, जहां पर चोर-डाकू, भील, अनार्य एवं म्लेच्छ लोग रहते हों उन देशों में नहीं जाना चाहिए। क्योंकि, वे लोग दुर्लभ बोधि होते हैं अर्थात् धर्म और आर्यत्व को जल्दी ग्रहण नहीं कर पाते। वे कुसमय में जागृत रहते हैं अर्थात् जिस समय सभ्य एवं सज्जन लोग शयन करते हैं, उस समय उनका धन लुटने के लिए वे लोग जागते रहते हैं और कुसमय में ही भोजन करते हैं तथा उन्हें भक्ष्य-अभक्ष्य का भी विवेक नहीं होता है। यदि ऐसे अनार्य व्यक्तियों के निवास स्थानों की ओर साधु चला जाए तो वे उसे चोर, गुप्तचर आदि समझकर कष्ट देंगे, मारेंगे-पीटेंगे तथा उसके उपकरण एवं वस्त्र आदि छीन लेंगे या तोड़-फोड़कर दूर फेंक देंगे। इसलिए मुनि को ऐसे प्रदेशों की ओर विहार नहीं करना चाहिए। __ इससे स्पष्ट होता है कि- वर्तमान युग की तरह उस समय भी एक-दूसरे देश की सीमाओं पर तथा अपने राज्य की आन्तरिक स्थिति का तथा चोर-डाकुओं के गुप्त स्थानों का पता लगाने के लिए गुप्तचरों की नियुक्ति की जाती थी। ' - प्रस्तुत सूत्र में ऐसे स्थानों पर जाने का निषेध साधु के लिए ही किया गया है, न कि सम्यग्दृष्टि एवं श्रावक के लिए। सम्यग्दृष्टि एवं श्रावक अनुकूल साधनों के प्राप्त होने पर वहां जाकर उन्हें संस्कारित एवं सभ्य बनाने का प्रयत्न कर सकते हैं। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 6 // // 450 // से भिक्खू० दुइज्जमाणे अंतरा से अरायाणि वा गणरायाणि वा जुवरायाणि वा दो रज्जाणि वा वेरज्जाणि वा विरुद्धरज्जाणि वा सइ लाढे विहाराए संथ० जण नो विहारवडियाए० केवली बूया-आयाणमेयं, ते णं बाला तं चेव जाव गमणाए तओ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-3-1-6 (450) 261 संजयामेव गामा० दूइज्जिज्जा || 450 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० गच्छन् अन्तरा तस्य अराजानि वा, गणराजानि वा, युवराजानि वा द्विराज्यानि वा विराज्यानि वा विरुद्धराज्यानि वा सति लाढे विहारे विद्यमानेषु जनपदेषु नो विहारवृत्तितया० केवली ब्रूयात्-आदानमेतत्, ते बालाः तं एव यावत् ततः संयतः एव ग्रामानुग्रामं गच्छेत् // 450 // III सूत्रार्थ : साधु या साध्वी विहार करते हुए जिस देश में राजा का शासन नहीं है, अथवा अशांतियुक्त गणराज्य है, अथवा केवल युवराज है, जो कि राजा नहीं बना है, दो राजाओं का शासन चलता है, या दो राजकुमारों में परस्पर वैर विरोध है, या राजा तथा प्रजा में परस्पर विरोध है, तो विहार के योग्य अन्य प्रदेश के होते हुए इस प्रकार के स्थानों में विहार करने का संकल्प न करे। साधु को विहार योग्य अन्य स्थानों में विहार करना चाहिए शेष वर्णन पूर्ववत् समझें। IV टीका-अनुवाद : ___ यह सूत्र सुगम है, किंतु अराजा याने जहां राजा का मरण हुआ हो, तथा युवराजा याने जहां अभी भी राजा का राज्याभिषेक न हुआ हो, इत्यादि... ऐसे क्षेत्र में विहार न करें... सुगम है... . v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताय गया है कि- जिस राज्य में राजा न हो या जिस राज्य में या गणतन्त्र में अशान्ति हो, कलह हो, राज्य प्रबन्ध ठीक न हो, राजा और प्रजा में संघर्ष चल रहा हो, एक ही प्रदेश के दो राजा या दो राजकुमार शासक हों और दोनों में संघर्ष चल रहा हो तो ऐसे देश में साधु को नहीं जाना चाहिए। क्योंकि किसी देश का गुप्तचर आदि समझकर वे लोग उन साधुओं के साथ दुर्व्यवहार कर सकते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि- उस युग में भारत में गणराज्य की व्यवस्था भी थी। काशी और कौशल में मल्लवी और लिच्छवी जाति के क्षत्रियों का गणराज्य था। इससे यह भी सिद्ध होता है कि उस समय भी भारत कई प्रान्तों (देशों) में विभक्त था, जिनमें अलग-अलग राजाओं ___ का शासन था और एक दूसरे देश के राजा सीमाओं आदि के लिए परस्पर संघर्ष भी करते रहते थे। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 2-1-3-1-7 (451) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 7 // // 451 // से भिक्खू वा० गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से विहं सिया, से जं पुण विहं जाणिज्जा एगाहेण वा दुआहेण वा तिआहेण वा चउआहेण वा पंचाहेण वा पाउणिज्ज वा नो पाउणिज्ज वा तहप्पगारं विहं अणेगाहगमणिज्जं सड़ लाढे जाव गमणाए, केवली बूया- आयाणमेयं, अंतरा से वासे सिया पाणेसु वा पणएसु वा बीएसु वा हरि० उद० मट्टियाए वा अविद्धत्थाए, अह भिक्खू जं तह० अणेगाह० जाव नो पव० तओ संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जिज्जा || 451 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० ग्रामानुग्रामं गच्छन् अन्तरा तस्य अनेकाहगमनीयः पन्थाः स्यात्, स: यत् पुनः पन्थानं जानीयात् = एकाहेन वा, द्वयहेन वा, त्र्यहेन वा चतुरहेन वा पचाहेन वा प्राप्नुयात् वा न प्राप्नुयात् वा तथाप्रकारं मागं (पन्थानं) अनेकाहगमनीयं सति लाढे (आर्यदेशे) यावत् गमनाय, केवली ब्रूयात्-आदानमेतत्, अन्तरा तस्य वासः स्यात् प्राणिषु वा पनकेषु वा बीजेषु वा हरितेषु वा उदकेषु वा मृत्तिकायां वा अविद्धार्थायां, अथ भिक्षुः यत् तथा० अनेकाह० यावत् न प्रपद्येत गमनाय, ततः संयतः एव ग्रामानुग्राम गच्छेत् // 451 // III सूत्रार्थ : साधु या साध्वी यामानुग्राम विहार करता हुआ मार्ग में उपस्थित होने वाली अटवी को जाने, जिस अटवी को एक दिन में, दो दिन में, तीन और चार अथवा पांच दिन में उल्लंघन किया जा सके, अन्य मार्ग होने पर उस अटवी को लांघकर जाने का विचार न करे। केवली भगवान कहते है कि- यह कर्म बन्धन का कारण है। क्योंकि मार्ग में वर्षा हो जाने पर, द्वीन्द्रियादि जीवों के उत्पन्न हो जाने पर, लील-फूल एवं सचित्त जल और मिट्टी के कारण संयम की विराधना का होना सम्भव है। इस लिए ऐसी अटवी जो कि अनेक दिनों में पार की जा सके मुनि उसमें जाने का संकल्प न करे, किन्तु अन्य सरल मार्ग से अन्य गावों की ओर विहार करे। IV टीका-अनुवाद : विहारानुक्रम से ग्रामांतर जाता हुआ साधु जब जाने कि- दो गांव के बीच अटवी के Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-3-1-8 (452) 263 मार्ग में अनेक दिनवाला मार्ग आता है, तब ऐसे अनेक दिनवाले मार्ग को जानकर यदि अच्छा मार्ग हो तो उस अनेक दिनवाले मार्ग से जाने का विचार न करें... इत्यादि... शेष सुगम है... अब नौका के द्वारा जाने की विधि कहतें हैं... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि- मुनि को ऐसी अटवी में से होकर नहीं जाना चाहिए जिसे पार करने में लम्बा समय लगता हो। क्योंकि, इस लम्बे समय में वर्षा होने से द्वीन्द्रिय आदि क्षुद्र जन्तुओं एवं निगोदकाय तथा हरियाली आदि की उत्पत्ति हो जाने से संयम की विराधना होगी और कीचड़ आदि हो जाने के कारण यदि कभी पैर फिसल गया तो शरीर में चोट आने से आत्म विराधना भी होगी। और बहुत दूर तक जंगल होने के कारण रास्ते में विश्राम करने को स्थान की प्राप्ति एवं आहार पानी की प्राप्ति में भी कठिनता होगी। इसलिए मनि को सदा सरल एवं सहज ही समाप्त होने वाले यदि कभी विहार करते समय मार्ग में नदी पड़ जाए तो साधु को क्या करना चाहिए इसका उल्लेख सूत्रकार महर्षि .सुधर्म स्वामी आगे के सूत्र से करेंगे। I सूत्र // 8 // // 452 / / से भिक्खू वा० गामाणुगामं दूइज्जिज्जा0 अंतरा से नावासंतारिमे उदए सिया, से जं पुण नावं जाणिज्जा असंजए अ भिक्खुपडियाए किणिज्ज वा पामिच्चेज्ज वा नावाए वा नावं परिणाम कट्ट थलाओ वा नावं जलंसि ओगाहिज्जा, जलाओ वा नावं थलंसि उक्कसिज्जा पुण्णं वा नावं उस्सिंचिज्जा सण्णं वा नावं उप्पीलाविज्जा तहप्पगारं नावं उप्पीलाविज्जा तहप्पगारं नावं उड्ढगामिणि वा अहे गा० तिरियगामिल परं जोयणमेराए अद्ध जोयणमेराए अप्पतरे वा भुज्जतरे वा नो दूरुहिज्जा गमणाए। से भिक्खू वा० पुव्वामेव तिरिच्छसंपाइमं नावं जाणिज्जा, जाणित्ता से तमायाए एगंतमवक्कमिज्जा भंडगं पडिलेहिज्जा, एगओ भोयणभंडगं करिज्जा, ससीसोवरियं कायं पाए पमज्जिज्जा सागारं मत्तं पच्चक्खाइज्जा, एगं पायं जलें किच्चा एगं पायं थले किच्चा, तओ संजयमेव नावं दूरुहिज्जा // 452 // II संस्कृत-छाया : . स: भिक्षुः वा० ग्रामानुग्रामं गच्छन् अन्तरा तस्य नौ-संतार्यं उदकं स्यात्, सः यत् पुन: नावं जानीयात् असंयत: भिक्षुप्रतिज्ञया क्रीणीयात्, उच्छिन्ना वा गृह्णीयात्, नाव: वा नावं परिणामं कृत्वा, स्थलात् वा नावं जले अवगाहयेत्, जलात् वा नावं स्थले Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 2-1-3-1-8 (452) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन उत्सर्पयेत्, पूर्णा वा नावं उत्-सिचेत्, सन्नं वा नावं उत्पीडयेत् तथाप्रकारां नावं ऊर्ध्वगामिनी वा अधोगामिनी वा तिर्यग्गामिनी वा परं योजनमर्यादायां अर्द्धयोजनमर्यादायां अल्पतरे वा भूयस्तरे वा न दूरुहेत् गमनाय / स: भिक्षुः वा० पूर्वमेव तिर्यक्-सम्पातिमां नावं जानीयात्, ज्ञात्वा सः तं आदाय एकान्तं अपक्रामेत्, अपक्रम्य भण्डकं प्रतिलिखेत्, प्रतिलिख्य एकतः भोजनभण्डकं कुर्यात्, कृत्वा सशीर्षोपरिकां कायां पादौ च प्रमार्जयेत्, सागारं भक्तं प्रत्याख्यायात्, एकं पादं जले कृत्वा एकं पादं स्थले कुर्यात्, ततः संयतः एव नावं दूरुहेत् // 452 // III सूत्रार्थ साधु या साध्वी यामानुयाम विहार करता हुआ यदि मार्ग में नौका द्वारा तैरने योग्य जल हो तो नौका से नदी पार करे। परन्तु इस बात का ध्यान रखे कि यदि गृहस्थ साधु के निमित्त मूल्य देता हो या नौका उधार लेकर या परस्पर परिवर्तन करके या नौका को स्थल से जल में या जल से स्थल में लाता हो, या जल से परिपूर्ण नौका को जल से खाली करके या कीचड़ में फंसी हुई को बाहर निकाल कर और उसे तैयार कर के साधु को उस पर चढ़ने की प्रार्थना करे, तो इस प्रकार की ऊर्ध्वगामिनी, अधोगामिनी या तिर्यग् गामिनी नौका, जो कि उत्कृष्ट एक योजन क्षेत्र प्रमाण में, चलने वाली है या अर्द्ध योजन प्रमाण में चलने वाली है, ऐसी नौका पर थोड़े या बहुत समय तक गमन करने के लिए साधु सवार न हो अर्थात् ऐसी नौका पर बैठ कर नदी को पार न करे। किन्तु, पहले से ही तिर्यग् चलने वाली नौका को जानकर, गृहस्थ की आज्ञा लेकर फिर एकान्त स्थान में चला जाए और वहां जाकर भण्डोपकरण की प्रतिलेखना करके उसे एकत्रित करे, तदनन्तर सिर से पैर तक सारे शरीर को प्रमार्जित करके अगार सहित भक्त पान का परित्याग करता हुआ एक पैर जल में और एक पैर स्थल में रखकर उस नौका पर यत्नापूर्वक चढ़े। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. यामानुग्राम विहार करे तब मार्ग में नौका से पार उतर शकें ऐसे जलवाली नदी आती है ऐसा जाने और वह नौका भी कीसी गृहस्थ ने साधुओं के लिये खरीदी हुइ है या अन्य के पास से किराये पर ली हुइ है या अदला-बदली की हुइ है इत्यादि जानीयेगा... तथा यदि वह नौका भूमी से लेकर जल में उतारे तब उस नौका में साधु न चढें इत्यादि शेष सूत्र सुगम है... अब कारण '= प्रयोजन होवे तो नौका में बैठने की विधि कहतें हैं... Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-3-1-8 (452) 265 V . सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में यह अभिव्यक्त किया गया है कि विहार करते हुए यदि मार्ग में नदी आ जाए और उसे बिना नौका के पार करना कठिन हो तो साधु अपनी मर्यादा का परिपालन करते हुए विवेक एवं यत्नापूर्वक नौका का उपयोग कर सकता है। यदि मुनि को नदी के किनारे खड़ा देखकर कोई गृहस्थ उसे पार पहुंचाने के लिए नाविक को पैसा देता हो या उससे नौका उधार लेता हो या उससे नावका परिवर्तन करता हो, तो साधु को उस नाव पर नहीं बैठना चाहिए। इसी तरह यदि कोई नाविक साधु को नदी से पार करने के लिए अपनी नौका को जल में से स्थल पर लाता हो या स्थल पर से जल में ले जाता हो या कर्दम-किच्चड में फंसी हुई नाव को निकाल कर लाता हो, तो साधु उस नौका पर भी सवार न हो, भले ही वह नाव एक योजन गामिनी हो या इससे भी अधिक तेज गति से चलने वाली क्यों न हो। जिस नौका के लिए गृहस्थ को पैसा देना पड़े या जिसमें साधु के लिए नए रूप से आरम्भ करना पड़े... साधु उस नाव में न बैठे। परन्तु, जो नाव पहले से ही पानी में हो, तो उस नाव से पार होने के लिए वह नाविक से याचना करे और उसके स्वीकार करने पर एकान्त स्थान में जाकर अपने भण्डोपकरणों को एकत्रित करे और अपने शरीर का सिर से लेकर पैर तक प्रमार्जन करे। उसके पश्चात् सागारिक संथारा करके विवेक पूर्वक एक पैर पानी में और एक पैर स्थल पर रखकर यत्ना से नौका पर चढ़े। प्रस्तुत सूत्र में ऊर्ध्वगामिनी, अधोगामिनी और तिर्यग् गामिनी नौकाओं का उल्लेख किया गया है। किंतु साधुओं को ऊर्ध्व और अधोगामिनी नौकाओं में बैठने का निषेध किया गया है। कारणवश केवल तिर्यग् गामिनी नौका पर सवार होने का ही आदेश दिया गया है। निशीथ सूत्र में भी ऊर्ध्व और अधोगामिनी नौकाओं पर सवार होने वाले को प्रायश्चित का अधिकारी बताया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि उस समय आकाश में उड़ने एवं पानी के भीतर चलने वाली नौकाएं भी होती थी। ऊर्ध्वगामी नौका से वर्तमान युग के हवाई जहाज जैसे यान का होना सिद्ध होता है और अधोगामी नौका से पनडुबी का होना भी प्रमाणित होता है। वृत्तिकार ने उक्त तीनों तरह की नौकाओं का कोई स्पष्टीकरण नहीं किया है। अतः आकाश एवं जल के भीतर चलने वाली नौकाओं के निषेध का तात्पर्य तो स्पष्ट रुप से समझ में आ जाता है। इससे निष्कर्ष यह निकला कि साधु तिर्यग् गामिनी (पानी के ऊपर गति करने वाली) नौका पर सवार हो सकता है। प्रस्तुत सूत्र में एक या अर्ध योजन तक पानी में रहने वाली नौका पर सवार होने . का निषेध किया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि इतनी या इससे अधिक दूरी का मार्ग नौका के द्वारा तय करना नहीं कल्पता। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266 2-1-3-1-9 (453) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन नौका में सवार होने के पूर्व जो सागारी अनशन करने का उल्लेख किया गया है, उसका तात्पर्य यह है कि यदि मैं कुशलता पूर्वक किनारे न पहुंच पाऊं तो मेरे आहार-पानी आदि का जीवन पर्यन्त के लिए त्याग है। एक पैर पानी में तथा दूसरा पैर स्थल पर रखने का विधान अप्कायिक जीवों की दया के लिए किया गया है और यहां स्थल का अर्थ पानी के ऊपर का आकाश प्रदेश है, न कि पृथ्वी। इसका तात्पर्य यह है कि साधु को पानी को मथते हुए-आलोड़ित करते हुए नहीं चलना चाहिए, परन्तु विवेक पूर्वक धीरे से एक पैर पानी में और दूसरा पैर पानी के ऊपर आकाश में रखना चाहिए, इसी विधि से नौका तक पहुंच कर विवेक के साथ नौका पर सवार होना चाहिए। नौका से सम्बन्धित विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे के सूत्र से कहेंगे। I सूत्र // 9 // // 453 // से भिक्खू वा० नावं दूरूहमाणे नो नावाओ पुरओ दूरुहिज्जा, नो नावाओ मग्गओ दूरुहिज्जा, नो नावाओ मज्झओ दूरुहिज्जा, नो बाहाओ पगिज्झिय, अंगुलियाए उद्दिसिय, ओणमिय उण्णमिय निज्झाइज्जा / से णं परो नावागओ वइज्जा ! आउसंतो! समणा एयं ता तुमं नावं उक्कसाहिज्जा वा दुक्कसाहि वा खिवाहि वा रज्जूयाए वा गहाय आकासाहि। नो से तं परिणं परिजाणिज्जा, तुसिणीओ उवेहिज्जा। __ से णं परो नावागओ नावाग० वइ० -आउसंतो ! नो संचाएसि तुमं नावं उपकसित्तए वा रज्जूयाए वा गहाय आकसित्तए वा आहर एयं नावाए रज्जूयं सयं चेव णं वयं नावं उक्कसिस्सामो वा जाव रज्जूए वा गहाय आकसिस्सामो, नो से तं परिणं परि० तुसिणीओ उदेहिज्जा। से णं परो० आउसंतो ! एअं वा तुमं नावं आलित्तेण वा पीढएण वा वंसेण वा बलएण वा अवलुएण वा वाहेहि, नो से तं पo- तुसि० से णं परो० एयं ता तुम नावाए उदयं हत्थेण वा पाएण वा मत्तेण वा पडिग्गहेण वा नावा उस्सिंचणेण वा उस्सिंचाहि, नो से तं० से णं परो० समणा ! एयं तुमं नावाए उत्तिगं हत्थेण वा पाएण वा बाहुणा वा ऊरुणा वा उदरेण वा सीसेण वा काएण वा उस्सिंचणेण वा चेलेण वा मट्टियाए वा कुसपत्तएण वा कुविंदएण वा पिहेहि, नो से तं० / से भिक्खू वा, नावाए उत्तिंगेण उदयं सवमाणं पेहाए उवरुवरिं नावं Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-3-1-9 (453) 267 कज्जलावेमाणिं पेहाए नो परं उवसंकमित्तु एवं बूया-आउसंतो ! गाहावइ ! एयं ते नावाए उदयं उत्तिंगेण आसवड़, उवरुवरिं नावा वा कज्जलावेड़, एयप्पगारं मणं वा वायं वा नो पुरओ कट्ट विहरिज्जा अप्पुस्सुए अबहिल्लेसे एगंतगएण अप्पाणं विउसेज्जा समाहीए, तओ सं० नावा संतारिमे उदए आहारियं रीइज्जा, एयं खलु सया जइज्जासि तिबेमि // 453 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० नावं दूरुहन् न नाव: पुरत: दुरुहेत्, न नाव: मार्गत: दूरुहेत्, न नाव: मध्यत: दूरुहेत्, न बाहा: प्रगृह्य प्रग्रह्य अङ्गुल्या उद्दिश्य, अवनम्य अवनम्य उन्नम्य उन्नम्य निायेत् / तस्य तस्मै पर: नौगतः नौगतं वदेत्- हे आयुष्मन् ! श्रमण ! एतां तावत् त्वं नावं उत्कर्षय, व्युत्कर्षय, क्षिप, रज्ज्वा वा गृहीत्वा आकृष, न सः तां परिज्ञां परिजानीयात्, तूष्णीकः उपेक्षेत। तस्य पर: नौगत: नौगतं वदेत्- हे आयुष्मन् ! श्रमण ! न शक्नोषि त्वं नावं उत्कर्षयितुं वा रज्ज्वा वा गृहीत्वा आकर्षयितुं वा, आहर एतां नाव: रज्जुकां, स्वयं एव वयं नावं उत्कर्षिष्यामः वा यावत् रज्ज्वा वा गृहीत्वा आकर्षिष्यामः, न स: तां परिज्ञांo तूष्णीक:०। तस्य पर:० हे आयुष्मन् ! हतत् वा त्वं नावं आलिप्तने वा पीठकेन वा वंशेने वा बलकेन वा अवलुकेन वा वाहय। न स: तां परिज्ञां० तूष्णीक:०। .. तस्य पर:० एतत् तावत् त्वं नाव: उदकं हस्तेन वा पादेन वा मात्रेण वा पतद्ग्रहेण वा नौ-उसेचनेन वा उत्सिव... न सः तां० तस्य पर:० हे श्रमण ! एतत् त्वं नाव: उत्तिङ्गं हस्तेन वा पादेन वा बाहुना वा उरुणा वा उदरेण वा शीर्षेण वा कायेन वा उत्सेचनेन वा चेलेन वा मृत्तिकया वा कुशपत्रकेण वा कुविन्दकेन वा पिधेहि, न सः तां०। स: भिक्षुः वा, नाव: उत्ति न उदकं सवन्तः प्रेक्ष्य उपर्युपरि नावं प्लाव्यमानां प्रेक्ष्य, न परं उपसङ्क्रम्य एवं ब्रूयात्- हे आयुष्मन् गृहपते ! एतत् तव नावि उदकं उत्तिङ्गेन आश्रवति, उपरिउपरि नौ वा प्लाव्यते, एतत् प्रकारं. मन: वा वाचं वा पुरतः कृत्वा विहरेत्, अल्पोत्सुकः अविमनस्क: अबहिर्लेश्यः एकान्तगतेन आत्मानं व्युत्सृजेत् समाधौ, तत: संयत: एव० नौसंतार्ये उदके यथा-आर्य गच्छेत्, एतत् खलु सदा यतेत इति ब्रवीमि // 453 // Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268 2-1-3-1-9 (453) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन III सूत्रार्थ : साधु या साध्वी नौका पर चढ़ते हुए नौका के आगे, पीछे और मध्य में न बैठे। और नौका के बाजु को पकड़कर या अंगुली द्वारा उद्देश्य (स्पर्श) करके तथा अंगुली ऊंची करके जल को न देखे। यदि नाविक साधु के प्रति कहे कि हे आयुष्मन् श्रमण ! तू इस नौका को खींच या अमुक वस्तु को नौका में रखकर और रज्जू को पकड़कर नौका को अच्छी तरह से बान्ध दे। या रज्जू के द्वारा जोर से कस दे। इस प्रकार के नाविक के वचनों को साधु स्वीकार न करे किन्तु मौन वृत्ति को धारण कर अवस्थित रहे। यदि नाविक फिर कहें कि आयुष्मन् श्रमण ! यदि तू इस प्रकार नहीं कर सकता तो मुझे रज्जू लाकर दे। हम स्वयं नौका को दृढ़ बन्धनों से बान्ध लेंगे और उसे चलायेंगे फिर भी साधु चुप रहे। यदि नाविक कहे कि आयुष्मन् श्रमण ! तू इस नौका को चप्पू से पीठ से, बांस से, बलक और अबलुक से आगे कर दे। नाविक के इस वचन को भी स्वीकार न करता हुआ साधु मौन रहे। फिर नाविक बोले कि आयुष्मन् श्रमण ! तू नाव में भरे हुए जल को हाथ से, पांव से, भाजन से, पात्र से और उत्सिंचन से बाहर निकाल दें। नाविक के इस कथन को भ अस्वीकार करता हुआ साधु मौन रहे। यदि फिर नाविक कहे कि- आयुष्मन् श्रमण ! तू नाव के इस छिद्र को हाथ से, पैर से, भुजाओं से, जंघा से, उदर से, सिर से और शरीर से, नौका से जल निकालने वाले उपकरणों से, वस्त्र से, मिट्टी से, कुश पत्र और कुबिंद से रोक देबन्द कर दे। साधु नाविक के उक्त कथन को भी अस्वीकार कर मौन धारण करके बैठा रहे। साधु या साध्वी नौका में छिद्र के द्वारा जल भरता हुआ देखकर एवं नौका को जल से भरती हुई देखकर, नाविक के पास जाकर ऐसे न कहे कि हे आयुष्मन् गृहपते ! तुम्हारी यह नौका छिद्र द्वारा जल से भर रही है और छिद्र से जल आ रहा है। इस प्रकार के मन और वचन को उस ओर न लगाता हुआ विचरे। उस समय वह साधु शरीर एवं उपकरणादि पर मूर्छा न करता हुआ, लेश्या को संयम में रखे तथा ज्ञान, दर्शन और चारित्र में समाहित होकर आत्मा को राग और द्वेष से रहित करने का प्रयत्न करे। और नौका के द्वारा तैरने योग्य जल को पार करने के बाद जिस प्रकार तीर्थंकरों ने जल के विषय में ईर्या समिति का वर्णन किया है— उसी प्रकार उसका पालन करे। यही साधु का समय आचार है अर्थात् इसी में उसका साधु भाव है। इसी प्रकार मैं कहता हूं। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-3-1-9 (453) 269 IV टीका-अनुवाद : इस सूत्र का अर्थ स्पष्ट हि है, किंतु नौका के आगे के भाग में न बैठें, क्योंकि- वहां निर्यामक के द्वारा उपद्रव हो शकता है... तथा नौका में बैठनेवाले लोगों के पहले (सर्व प्रथम) भी न चढें... क्योंकि- ऐसा करने से नौका के प्रवर्तन का दोष लगता है... तथा नौका में बैठा हुआ वह साधु न तो स्वयं हि नौका संबंधित कार्य करें, और अन्य के कहने से भी न करें तथा अन्य के द्वारा करवायें भी नहि... तथा छिद्र से नौका में पानी आने से नौका के डूबने की परिस्थिति में उत्सुकता को छोडकर तथा विमनस्कता का त्याग करके शरीर और उपकरणादि में मूर्छा (ममता) न रखें... तथा उस जल में नौका के द्वारा किनारे की और जाता हुआ वह साधु जिस प्रकार आर्य याने तीर्थंकरादि होते हैं उस प्रकार रहें... अर्थात् विशिष्ट अध्यवसायवाला होकर रहें... क्योंकि- यह हि साधु का संयम जीवन है... v सूत्रसार : . प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि यदि नाविक साधु को नौका के बांधने एवं खोलने तथा चलाने आदि का कोई भी कार्य करने के लिए कहे तो साधु को उसके वचनों को स्वीकार नहीं करना चाहिए। परन्तु, मौन रहकर आत्म-चिन्तन में संलग्न रहना चाहिए। इसी तरह 'नौका में पानी भर रहा हो तो साधु को उसकी सूचना भी नहीं देनी चाहिए। इन सूत्रों से कुछ पाठकों के मन में यह सन्देह हो सकता है कि यह सूत्र दया-निष्ठ साधु की अहिंसा एवं दया भावना का परिपोषक नहीं है। परन्तु, यदि इस सूत्र पर गहराई से सोचा-विचारा जाए तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि प्रस्तुत सूत्र साधु के अहिंसा महाव्रत का परिपोषक है। क्योंकि, साधु 6 काय का संरक्षक है, यदि वह नाव को खींचने, बांधने एवं चलाने आदि का प्रयत्न करेगा तो उसमें अनेक त्रस एवं स्थावर कायिक जीवों की हिंसा होगी और नौका में छिद्र आदि का कथन करने से एकाएक लोगों के मन में भय की भावना का संचार होगा। जिससे उनमें भाग दौड़ मच जाना सम्भव है और परिणाम स्वरुप नाव खतरनाक स्थिति में पहुंच सकती है। इसलिए साधु को इन सब झंझटों से दूर रहकर अपने आत्म-चिन्तन मे संलग्न रहना चाहिए। इसमें उन अन्य व्यक्तियों के साथ साधु स्वयं भी तो उसी नौका में सवार है। यदि नौका में Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270 2-1-3-1-9 (453) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन किसी तरह की गड़बड़ होती है तो उसमें साधु का जीवन भी तो खतरे में पड़ता है। फिर भी साधु अपने लिए किसी तरह का प्रयत्न नहीं करता। क्योंकि, जिस प्रवृत्ति में अन्य जीवों की हिंसा हो वैसी प्रवृत्ति करना साधु को नहीं कल्पता। प्रस्तुत सूत्र में साधुत्व की उत्कृष्ट साधना को लक्ष्य में रखकर यह आदेश दिया है कि वह मृत्यु का प्रसंग उपस्थित होने पर भी नाव में होने वाली किसी तरह की सावध प्रवृत्ति में भाग नहीं ले परन्तु मौन भाव से आत्मचिन्तन में लगा रहे। यदि कोई साधारण साधु कभी परिस्थितिवश व्यावहारिक दृष्टि को सामने रखकर नौका को संकट से बचाने के लिए कोई प्रयत्न करे तो उसे भगवान द्वारा दी गई आज्ञा के उल्लंघन का प्रायश्चित लेना चाहिए। निशीथ सूत्र में नौका सम्बन्धी कार्य करने का जो प्रायश्चित बताया गया है वह वह प्रायश्चित्त जो लोगों के प्रति मुनि की दया भावना है, उनकी रक्षा की दृष्टि है, उसका नहीं है वह प्रायश्चित केवल मर्यादा भंग का है। क्योंकि, उक्त प्रवृत्ति में प्रमादवश हिंसा का होना भी सम्भव है, इसलिए उक्त दोष का निवारण करने के लिए ही प्रयश्चित का विधान किया गया है। और उक्त क्रियाओं के करने का लघु चोमासिक प्रायश्चित बताया गया है। कुछ प्रतियों में प्रस्तुत सूत्र का अन्तिम अंश इस प्रकार भी मिलता हैं- ‘एवं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं जं सव्वदे॒हिं सहिते सदा जएज्जासि।' परन्तु, इससे अर्थ में कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ता है। प्रस्तुत सूत्र में साधु की विशिष्ट साधना एवं उत्कृष्ट अध्यवसायों का उल्लेख किया गया है। नौका में आरूढ़ हुआ साधु अपने विचार एवं चिन्तन को इधर उधर न लगाकर आत्म चिन्तन में ही लगाए रहता है और 6 काय की रक्षा के लिए अपने जीवन का व्यामोह भी नहीं रखता है। इसलिए नौका में पानी भरने की स्थिति में भी शांत रहना उसकी विराट् साधना का प्रतीक है. इससे उसके आत्म-चिन्तन की स्थिरता का स्पष्ट परिचय मिलता है। इस तरह प्रस्तुत सूत्र में दिया गया आदेश साधुत्व की विशृद्ध साधना के अनुकूल ही प्रतीत होता है। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें। // शस्त्रपरिज्ञायां प्रथमः उद्देशकः समाप्तः // Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-3-1-9 (453) 271 : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य थश्रृंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट -परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. “श्रमण" के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांण सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. राजेन्द्र सं. 96. म विक्रम सं. 2058. Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272 2-1-3-2-1 (454) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 1 अध्ययन - 3 उद्देशक - 2 म ईर्या // पहला उद्देशक कहा, अब दुसरा उद्देशक कहतें हैं... इसका यहां इस प्रकार अभिसंबंध है... पहले उद्देशक में नौका में बैठे हुए साधु को क्या करना चाहिये वह विधि कही है, और यहां दुसरे उद्देशक में भी वह हि विधि कहना है... अतः इस संबंध से आये हुए इस दुसरे उद्देशक का यह प्रथम सूत्र है... I सूत्र // 1 // // 454 // से णं परो नावा० आउसंतो ! समणा ! एयं ता तुम, छत्तगं वा जाव चम्मछेयणगं वा गिण्हाहि, एयाणि तुमं विरूवरूवाणि सत्थजायाणि धारेहि, एयं ता तुमं दारगं वा पज्जेहि, नो से तं० // 454 / / II संस्कृत-छाया : तस्य पर: नौगत:० हे आयुष्मन् ! श्रमण ! एतत् तावत् त्वं छत्रकं वा यावत् चर्मच्छेदनकं वा गृहाण, एतानि त्वं विरूपरूपाणि शस्त्रजातानि धारय, एतं तावत् त्वं दारकं वा पायय, न सः तां परिज्ञांo || 454 // III सूत्रार्थ : यदि नाविक नाव पर सवार मुनि को यह कहे कि हे आयुष्मन् श्रमण ! पहले तू मेरा छत्र यावत् चर्मछेदन करने के शस्त्र को ग्रहण कर। इन विविध शस्त्रों को धारण कर और इस बालक को दुध पिला दे। वह साधु उसके उक्त वचन को स्वीकार न करे, किन्तु मौन धारण करके बैठा रहे। IV टीका-अनुवाद : नौका में बैठे हुए वे गृहस्थादि वहां बैठे हुए साधु को कहे कि- हे आयुष्मान् श्रमण ! यह मेरे छत्र आदि को जरा (क्षण भरके लिये) पकडीयेगा... तथा यह हमारे शस्त्र-आयुध आदि को पकड कर बैठो... तथा इस हमारे बच्चे को दुध पीलाओ... इत्यादि प्रार्थनाएं न सुनीयेगा... यदि दुसरे के वैसे वैसे कार्य न करने पर यदि वे गुस्से में आकर द्वेष धारण करे Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-3-1-2 (455) 273 और यदि नौका में से साधु को पकड कर जल में फेंके तब जो करना चाहिये वह अब कहतें हैं... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि यदि नाविक साधु को छत्र, शस्त्र आदि धारण करने के लिए कहे या अपने बालक को दुध पिलाने के लिए कहे तो साधु उसकी बात को स्वीकार न करे, किन्तु मौन भाव से आत्म चिन्तन में संलग्न रहे। इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि नाविक मुनि जीवन से सर्वथा अपरिचित होने के कारण उसे ऐसे आदेश देता है। यदि वह साधु के त्याग निष्ठ जीवन से परिचित हो तो वह साधु के साथ ऐसा व्यवहार नहीं कर सकता। अतः उसके भाषण करने के ढंग से उसकी अनभिज्ञता प्रकट होती है और साधु के मौन रहकर उसके आदेश को अस्वीकार करने के पीछे एकमात्र प्राणी जगत की रक्षा एवं संयम साधना को विशुद्ध रखने का भाव स्पष्ट होता है। क्योंकि, यदि साधु छत्र, शस्त्र आदि धारण करेगा तथा नाविक के बच्चों को दुध पिलाएगा या उसके ऐसे ही अन्य कार्य करेगा तो उसमें असंयम होने से अनेक जीवों की हिंसा होगी और परिणाम स्वरूप उसकी संयम साधना भी टूट जाएगी। अतः साधु को नाविक के आदेशानुसार कार्य नहीं करना चाहिए, परन्तु मौन भाव से उसे अस्वीकार करके अपनी आध्यात्मिक साधना में व्यस्त रहना चाहिए। नाविक का कार्य न करने पर यदि कोई नाविक क्रुद्ध होकर साधु के साथ दुष्टता का व्यवहार करे, उसे उठाकर नदी की धारा में फैंक दे तो उस समय साधु को क्या करना चहिए ? इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 2 // // 455 / / से णं परो नावागए नावागयं वएज्जा- आउसंतो ! एस णं समे नावाए भंडभारिए भवइ, से णं बाहाए गहाय नावाओ उदगंसि पक्खिविज्जा, एयप्पगारं निग्योसं सुच्चा निसम्म से य चीवरधारी सिया खिप्पामेव चीवराणि उव्वेढिज्जा वा निवेढिज्जा वा उप्फेसई वा करिज्जा अह० अभिकंत कूरकम्मा खलु बाहाहिं गहाय नावा० पक्खिविज्जा, से पुवामेव वइज्जा- आउसंतो ! गाहावइ ! मा मेत्तो बाहाए गहाय नावाओ उदगंसि पक्खिवह, सयं चेव णं अहं नावाओ उदगंसि ओगाहिस्सामि, से नेवं वयंत परो सहसा बलसा बाहाहिं ग० पक्खिविज्जा, तं नो सुमणे सिया नो दुम्मणे सिया नो उच्चावयं मणं नियंछिज्जा नो तेसिं बालाणं घायाए वहाए समुट्ठिज्जा, अप्पुस्सुए जाव समाहीए तओ, सं० उदगंसि पविज्जा // 455 / / Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274 2-1-3-2-2 (455) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन / संस्कृत-छाया : सः परः नौगतः नौगतं वदेत्- हे आयुष्मन् ! एषः श्रमण: नावि भाण्डभृतः भवति, तस्य बाहं गृहीत्वा नाव: उदके प्रक्षिपेत्, एतत्-प्रकारं निर्घोषं श्रुत्वा निशम्य स: च चीवरधारी स्यात्, शीघ्रमेव चीवराणि उद्वेष्टयेत् वा निर्वेष्टयेत् वा, शिरोवेष्टनं वा कुर्यात्, अथ० अभिक्रान्तक्रूरकर्माणः खलु बालाः बाहुभ्यां गृहीत्वा ना० प्रक्षिपेत्, स: पूर्वमेव वदेत्- हे आयुष्मन् ! गृहपते ! मा मा इत: बाहुना गृहीत्वा नाव: उदके प्रक्षिप, स्वयं एव अहं नाव: उदके अवगाहिष्ये, स: न एवं वदन्तं परः सहसा बलेन बाहुभ्यां गृहीत्वा० प्रक्षिपेत्, तं न सुमना: स्यात्, न दुर्मना: स्यात्, न उच्चावचं मन: नियच्छेत्, न तेषां बालानां घाताय वधाय समुतिष्ठेत्, अल्पोत्सुक: यावत् समाधिना तत: सं० उदके प्रविशेत् / / 455 // III सूत्रार्थ : यदि नाविक नौका पर बैठे हुए किसी अन्य गृहस्थ को इस प्रकार कहे कि हे आयुष्मन् गृहस्थ ! यह साधु जड़ वस्तुओं की तरह नौका पर केवल भारभूत ही है। यह न कुछ सुनता है और ना कोई काम ही करता है। अतः इसको भुजा से पकड़कर इसे नौका से बाहर जल में फेंक दे। इस प्रकार के शब्दों को सुनकर और उन्हें हृदय में धारण करके वह मुनि यदि वस्त्रधारी है तो शीघ्र ही वस्त्रों को फैलाकर, फिर उन्हें अपने सिर पर लपेट कर विचार करे कि ये अत्यन्त क्रूर कर्म करने वाले अज्ञानी लोग मुझे भुजाओं से पकड़कर नौका से बाहर जल में फैंकना चाहते हैं। ऐसा विचार कर वह उनके द्वारा फैंके जाने के पूर्व ही उन गृहस्थों को सम्बोधित करके कहे कि आयुष्मन् गृहस्थों ! आप लोग मुझे भुजाओं से पकड़कर जबदस्ती नौका से बाहर जल में मत फैंको। मैं स्वयं ही इस नौका को छोड़ कर जलमें प्रविष्ट हो जाऊंगा। साधु के ऐसे कहने पर भी यदि कोई अज्ञानी जीव शीघ्र ही बलपूर्वक साधु की भुजाओं को पकड़ कर उसे नौका से जल में फेंक दे, तो जल में गिरा हुआ साधु मन में हर्ष-शोक न करे। वह मनमें किसी तरह का संकल्प-विकल्प भी न करे और उनकी घात-प्रतिघात करने का तथा उनसे प्रतिशोध लेने का विचार भी न करे इस तरह वह मुनि राग द्वेष से रहित होकर समाधिपूर्वक जल में प्रवेश कर जाए। IV टीका-अनुवाद : नौका में रहा हुआ नाविक जब नौका में रहे हुए अन्य गृहस्थों को कहे कि- हे आयुष्मन् यहां बैठा हुआ यह साधु पात्र की समान जड जैसा बैठा है अथवा भारी सामान की तरह बहोत सारे वजनवाला भारी है, अतः इसको बाहु में पकडकर नौका के बाहर जल में फेंक दो... इत्यादि बात-चित को सुनकर या अन्य कहिं से जानकर वह साधु गच्छगत याने Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-3-1-2 (455) 275 स्थविर कल्पवाला हो या गच्छनिर्गत याने जिनकल्पवाला हो, वह साधु तत्काल असार वस्त्रों को शरीर से दूर करे और सारभूत वस्त्रादि को शरीर के साथ बांध ले... या माथे पे बांध दे, जिससे बांधे हुए उन उपकरणों से व्याकुलता रहित जल को तैर शके... या धर्मकथा के द्वारा उन गृहस्थों को अनुकूल करे... शेष सूत्र सुगम है.. अब जल में तैरते हुए साधु को क्या करना चाहिये... वह विधि आगे के सूत्र से कहतें हैं. v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में साधु को हर परिस्थिति में समभाव बनाए रखने का आदेश दिया गया है। साधु का आदर्श ही यह है कि दुःखों की तपती हुई दोपहरी में भी समभाव की जलधारा को न सूखने दे। जैसे कि- अपने आदेश का पालन होते हुए न देखकर यदि कोई नाविक उसे नदी की धारा में फैंकने की योजना बनाए और साधु उसे सुन ले तो उस समय साधु उस पर क्रोध न करे और न उसका अनिष्ट करने का प्रयत्न करे, प्रत्युत वह उससे मधुर शब्दों में कहे कि तुम मुझे फैंकने का कष्ट क्यों करते हो। यदि मै तुम्हें बोझ रूप प्रतीत होता हूँ और तुम मुझे तुरन्त ही नौका से हटाना चाहते हो तो लो मैं स्वयं ही सरिता की धारा में उतर जाता हूं। उसके इतना कहने पर भी यदि कोई अज्ञानी नाविक उसका हाथ पकड़कर उसे जल में फैंक दे, तो साधु उस समय शांत भाव से अपने भौतिक देह का त्याग कर दे। परन्तु, उस समय उन व्यक्तियों पर मन से भी क्रोध न करे और न उनसे प्रतिशोध लेने का ही सोचे और उन्हें किसी तरह का अभिशाप भी न दे और न दुर्वचन ही कहे। .. प्रस्तुत सूत्र में साधुता के आदर्श एवं उज्जवल स्वरूप का एक चित्र उपस्थित किया गया है। साधु की इस विराट् साधना का यथार्थ रूप तो अनुभव गम्य ही है, शब्दों के द्वारा उस स्वरूप को प्रकट करना कठिन ही नहीं, असम्भव है। आत्मा के इस विशुद्ध आचरण के सामने दुनिया की सारी शक्तियां निस्तेज हो जाती हैं इसके प्रखर प्रकाश के सामने सहस्त्रकिरण सूर्य का प्रकाश भी धूमिल सा प्रतीत होता है। आत्मा की यही महान् शक्ति है जिसकी साधना करके मानव आत्मा से परमात्मा बनता है, साधक से सिद्ध अवस्था को प्राप्त करता है। ___ इस सूत्र में सचेलक साधु को ही निर्देश करके यह आदेश दिया गया है। यहां पर वस्त्रों को फैलाकर फिर उन्हें समेटने का आदेश दिया गया है। इससे यही स्पष्ट होता है कि यह पाठ स्थविर कल्पी मुनि को लक्ष्य करके कहा गया है। यदि कोई नाविक साधु को जल में फैंक दे तो उस समय उसे क्या करना चाहिए Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276 2-1-3-2-3 (456) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... . I सूत्र // 3 // // 456 / / से भिक्खू वा० उदगंसि पवमाणे नो हत्थेण हत्थं पाएण पायं काएण कायं आसाइज्जा, से अनासायणाए अनासायमाणे तओ सं० उदगंसि पविज्जा। से भिक्खू वा० उदगंसि पवमाणे उम्मग्ग निमुग्गयं करिज्जा, मामेयं उदगं कण्णेसु वा अच्छीसु वा नक्कंसि वा मुहंसि वा परियावज्जिज्जा, तओ० संजयामेव उदगंसि पविज्जा। से भिक्खू वा० उदगंसि पवमाणे दुब्बलियं पाउणिज्जा खिप्पामेव उवहिं विगिंचिज्ज वा विसोहिज्ज वा; नो चेव णं साइज्जिज्जा, अह पु० पारए सिया उद्गाओ तीरं पाउणित्तए, तओ संजयामेव उदउल्लेण वा ससिणिद्धेण वा काएण उदगतीरे चिट्ठिज्जा। से भिक्खू वा० उदउल्लं वा कायं नो आमज्जिज्जा वा नो पमज्जिज्जा वा नो संलिहिज्जा वा नो निल्लिहिज्ज वा नो उव्वलिज्जा वा नो उव्वट्टिज्जा वा नो आयाविज्ज वा नो पया० अह पु० विगओदओ मे काए छिप्पसिणेहे काए तहप्पगारं कायं आमज्जिज्ज वा जाव पयाविज्ज वा, तओ संजयामेवं गामाणुगामं दूइज्जिज्जा // 456 / / II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा उदके प्लवमानः न हस्तेन हस्तं, पादेन पादं, कायेन कायं आसादयेत्, सः अनासादनया अनासादन्, तत: संयतः एव उदके प्रविशेत् / स: भिक्षुः वा उदके प्लवमान: न मज्जन-उन्मज्जनं कुर्यात्, मा मा एतत् उदकं कर्णयोः वा अक्ष्णोः वा नासिकायां वा मुख वा परितापयेत्, ततः संयतः एव उदके प्रवियेत्। स: भिक्षुः वा उदके प्लवमानः दौर्बल्यं प्राप्नुयात्, शीघ्रमेव उपधिं त्यजेत् वा विशोधयेत् वा, न एव सात्मीकुर्यात्, अथ पुन: पारगः स्यात् उदकात् तीरं प्राप्नोतुं ततः संयतः एव उदकार्टेण वा सस्निग्धेन वा कायेन उदकतीरे तिष्ठेत् / स: भिक्षुः वा उदकाई वा सस्निग्धं वा कायं न आमृज्यात् वा न प्रमृज्यात् वा न संलिखेत् वा न निर्लिखेत् वा, न उद्वलेत् वा न उद्वर्तयेत् वा न आतापयेत् वा न प्रतापयेत् वा, अथ पुन:० विगतोदक: मम काय: छिन्नस्नेहः मम काय:, तथाप्रकारं कायं Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-3-1-3 (456) 277 आमृज्यात् वा यावत् प्रतापयेत् वा, तत: संयतः एव० ग्रामानुग्रामं गच्छेत् // 456 // III सूत्रार्थ : साधु या साध्वी जल में बहते समय अप्काय के जीवों की रक्षा के लिए अपने एक हाथ से दूसरे हाथ का एवं एक पैर से दूसरे पैर का और शरीर के अन्य अवयवों का भी स्पर्श न करे। इस तरह वह परस्पर में स्पर्श न करता हुआ जल में बहता हुआ चला जाए। वह बहते समय डुबकी भी न मारे, एवं इस बात का विचार करे कि यह जल मेरे कानों में, आखों में, नाक और मुख में प्रवेश पाकर परिताप न पाए। तदनन्तर जल में बहता हुआ साधु यदि दुर्बलता का अनुभव करे तो शीघ्र ही थोडी या समस्त उपधि का त्याग कर दे वह साधु उस उपधि-उपकरण पर किसी प्रकार का ममत्व न रखे। यदि वह यह जाने कि मैं उपधि युक्त ही इस जल से पार हो जाऊंगा तो किनारे पर आकर जब तक शरीर से जल टपकता रहे, शरीर गीला रहे तब तक नदी के किनारे पर ही ठहरे किन्तु जल से भीगे हुए शरीर को एक वार या एक से अधिक वार हाथ से स्पर्श न करे, मसले नहीं और न उद्वर्तन की भांति मैल उतारे, इसी प्रकार भीगे हुए शरीर और उपधि को धूप में सुखाने का भी प्रयत्न न करे वह यह जाने ले कि मेरा शरीर तथा उपधि पूरी तरह सूख गई है तब अपने हाथ से शरीर का स्पर्श या मर्दन करे एवं धूप में खड़ा हो जाए फिर किसी गांव की ओर जावे अर्थात् विहार कर दे। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. जल में तैरते हुए अप्काय जीवों की रक्षा के लिये हाथ आदि से हाथ आदि का स्पर्श न करें... इस प्रकार साधु संयत होकर हि जल को तैरे... वह साधु जल में तैरता हुआ जल में मज्जन-उन्मज्जन याने डूबना एवं उपर आना न करें इत्यादि शेष सुगम है... तथा साधु जल में तैरते हुए थक जावे ततः तत्काल वस्त्रादि उपकरणों का त्याग करें या असार वस्त्रादि का त्याग करें, किंतु वस्त्रादि उपकरणों में आसक्त होकर पकड न रखें... तथा जब ऐसा जाने कि- वस्त्रादि उपकरणों के साथ जल में तैर कर किनारे पहुंचने में मैं समर्थ हुं, तब वह साधु जल को तैर कर किनारे पे आकर संयत हि होकर टपकते हुए जलवाले या भीगे हुए शरीर से किनारे पे खडा रहे, और वहां इरियावही प्रतिक्रमण करे... शेष सूत्र सुगम है... किंतु यहां सामाचारी इस प्रकार है कि- जो वस्त्रादि जल से भीगे हुए हैं वे स्वयं हि जब तक सुख जावे तब तक वहां किनारे पे खडा रहें... परंतु यदि वहां चौर आदि के भय से गमन करना हो तो सीधे शरीर से हि (हाथ को चलाये बिना) वहां से गांव की और विहार करें... Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278 2-1-3-2-3 (456) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में मुनि की अहिंसा साधना का विशिष्ट परिचय दिया गया है। इसमें बताया गया है कि नाविक द्वारा जल में फैंके जाने पर भी मुनि अपने जीवन की ओर विशेष ध्यान नहीं देता। उसे अपने जीने एवं मरने की परवाह नहीं है। परन्तु, ऐसी विकट परिस्थिति में भी वह अन्य जीवों की दया का पूरा-पूरा ध्यान रखता है। उसके जीवन के कण-कण में दया का दरिया प्रवहमान रहता है। वह नदी में बहता हुआ भी अपने हाथों एवं पैरों का तथा शरीर के अन्य अंग-प्रत्यंगों का इसलिए परस्पर स्पर्श नहीं करता कि इससे अप्कायिक जीवों की एवं उसमें स्थित अन्य प्राणियों की हिंसा न हो। इसी दया भावना से न वह डुबकी लगाता है और न अपने कान, नाक, आंख आदि में भरते हुए पानी को परिताप देता है। इस तरह वह यत्नापूर्वक बहता चलता है। यदि सरिता की धारा में बहते समय कमजोरी के कारण वह उपकरणों के बोझ को सहने में असमर्थ हो तो उसे चाहिए कि उन्हें विवेक पूर्वक धीरे से नदी में त्याग दे। किंतु यदि समर्थ हो तब त्याग न करें... इस प्रकार नदी के तट पर पहुंचने के पश्चात् वह तब तक स्थिर खड़ा रहे जब तक उसका शरीर एवं उसके वस्त्र आदि सूख न जाएं। परन्तु, वह अपने भीगे हुए वस्त्रों को निचोड़ कर धूप में सुखाने का तथा अपने शरीर को वस्र से पोंछकर या धूप मे खड़ा होकर सुखाने का प्रयत्न भी नहीं करे। जब उसका शरीर स्वाभाविक रूप से सूख जाए तब वह वहां से गांव की ओर विहार करे। इस सम्बन्ध में वृत्तिकार का कहना है कि यदि वहां चोर आदि का भय हो तो वह अपने हाथों को लम्बा फैलाकर शरीर सुखाकर गांव की ओर जा सकता है। प्रस्तुत पाठ में नदी पार करके किनारे पर आने के पश्चात् उसे ईपिथिक प्रतिक्रमण करने का उल्लेख नहीं किया है। परन्तु वृत्तिकार ने इसका उल्लेख किया है। इसका कारण यह है कि यदि आगम में बताई गई विधि से प्रवृत्ति न की गई हो तो उसकी शुद्धि के लिए ईपिथिक प्रतिक्रमण करना चाहिए। अन्यथा प्रतिक्रमण की कोई आवश्यकता नहीं है। आगम में मास में दो या तीन बार महानदी का उल्लंघन करने का निषेध किया गया है तथा उसका प्रायश्चित भी बताया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि मास में एक बार महानदी पार करने का निषेध नहीं है, न उसे सबल दोष ही माना गया है और न उसके लिए प्रायश्चित का ही विधान किया गया है। आगम में यह भी बताया गया है कि यदि कोई साध्वी जल में गिर गई हो तो साधु उसे पकड़कर निकाल ले। आगम में यह भी बताया गया है कि- एक समय में समुद्र के जल में दो एवं नदी के जल में 3 जीव सिद्ध हो सकते हैं। इससे सूर्य के उजाले की तरह यह साफ हो जाता है कि आत्मा की शुद्धि एवं अशुद्धि भावों पर आधारित Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-3-1-4 (457) 279 है। दुर्भाव पूर्वक की गई द्रव्य हिंसा ही पापकर्म के बन्ध का कारण हो सकती है। आगम में स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि विवेक एवं यत्ना पूर्वक चलते समय यदि साधु के पैर के नीचे क्षुद्र मंडुकी आदि कोई जीव मर जाए तब भी साधु को ईर्यापथिक क्रिया से संभवित कर्म का बन्ध होता है, सांपरायिकी क्रिया का बंध नहीं होता। वीतराग भगवान की आज्ञा के अनुसार विवेक पूर्वक नदी पार करने का कोई प्रायश्चित नहीं बताया गया है और न उसके लिए ईर्यापथिक प्रतिक्रमण का ही उल्लेख किया गया है क्योंकि प्रायश्चित विवेक पूर्वक, सावधानी से कार्य करने का नहीं होता, वह प्रायश्चित तो असावधानी एवं आज्ञा के उल्लंघन करने का होता है। साधु-साध्वी को रास्ते में किस तरह चलना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी. आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 4 // // 457 // से भिक्खू वा० गामाणुगामं दूइज्जमाणे नो परेहिं सद्धिं परिलविय गामा० दूइज्जिज्जा, तओं सं० गामा० दूइज्जिज्जा // 457 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० ग्रामानुग्रामं गच्छन् न परैः सार्धं भृशं उल्लापं कुवन् ग्रामानुग्राम गच्छेत्, ततः संयत: एव० ग्रामानुग्रामं गच्छेत् / III सूत्रार्थ : साधु या साध्वी यामानुग्राम विहार करते हुए गृहस्थों के साथ वार्तालाप करता हुआ गमन न करे। किन्तु ईर्यासमिति का यथाविधि पालन करता हुआ ग्रामानुग्राम विहार करे। . IV टीका-अनुवाद : सुगम हि है किंतु- साधु अन्य लोगों के साथ वार्तालाप करते हुए मार्ग में न चलें... अब जंघा-संतरण विधि कहतें हैं... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु या साध्वी को विहार करते समय या चलते समय अपने साथ के अन्य साधु से या गृहस्थ से बातें नहीं करनी चाहिए। क्योंकि, बातें करने से मार्ग में आने वाले जीव जन्तुओं को बचाया नहीं जा सकेगा तथा मार्ग का सम्यक्तया Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280 2-1-3-2-5 (458) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अवलोकन भी नहीं हो सकेगा। आगम में यहां तक कहा गया है कि साधु को चलते समय पांचों तरह का स्वाध्याय- 1. वाचना, 2. पृच्छना, 3. परावर्त 4. अनुप्रेक्षा और 5. धर्म कथा का स्वाध्याय भी नहीं करना चाहिए। इस तरह अपने योगों को सब ओर से हटाकर ईर्यासमिति का पालन करना चाहिए। कहते हैं जिस नदी में जंघा प्रमाण पानी हो उस नदी को साधु किस तरह पार करे, इस विषय को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 5 // // 458 // से भिक्खू वाo गामा० दू० अंतरा से जंघासंतारिमे उदगे सिया, से पुटवामेव ससीसोवरियं कायं पाए य पमज्जिज्जा, एगं पायं जले किच्चा एगं पायं थले किच्चा, तओ संजयामेव० उदगंसि आहारियं रीइज्जा / से भिक्खू वा० आहारियं रीयमाणे नो हत्थेण हत्थं जाव अनासायमाणे, तओ संजयामेव जंघासंतारिमे उदए आहारियं रीएज्जा। से भिक्खू वा० जंघासंतारिमे उदए अहारियं रीयमाणे नो सायावडियाए नो परिदाहपडियाए महइमहालयंसि उदयंसि कायं विउसिज्जा, तओ संजयामेव जंघासंतारिमे उदए अहारियं रीएज्जा, अह पुण एवं जाणिज्जा पारए सिया उदगाओ तीरं पाउणित्तए, तओ संजयामेव उदउल्लेण वा, काएण दगतीरए चिट्ठिज्जा। . से भिक्खू वा० उदउल्लं वा कार्य ससिणिद्धं वा कायं नो आमज्जिज्ज वा नो० अह पुण० विगओदए मे काए छिण्णसिणेहे, तहप्पगारं कायं आमज्जिज्ज वा० जाव पयाविज्ज वा तओ संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जिज्जा // 458 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० ग्रामानुग्रामं गच्छन् अन्तरा तस्य जङ्घा-संताएं उदकं स्यात्, स: पूर्वमेव स्वशीर्षोपरिकां कायां पादौ च प्रमृज्यात्, प्रमृज्य च एकं पादं जले कृत्वा एकं पादं स्थले कुर्यात्, ततः संयतः एव उदके याथार्य गच्छेत् / सः भिक्षुः वा० याथार्यं गच्छन् न हस्तेन हस्तं यावत् अनासादन् ततः संयतः एव जङ्घासंतार्ये उदके यथार्यं गच्छेत् / स: भिक्षुः वा० जङ्घासंतार्ये उदके यथार्यं गच्छन् न साता-पतितया न परिदाहपतितया महति महालये उदके कायं प्रविशयेत्, ततः संयतः एव जङ्घासंतार्ये Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-3-1-5 (458) 281 उदके यथार्यं गच्छेत्, अथ पुनः एवं जानीयात् पारगः स्यां उदकात् पारं प्राप्नोतुं, ततः संयतः एव उदकाइँण वा कायेन उदकतीरे तिष्ठेत् / सः भिक्षुः वा० उदकाई वा कार्य सस्निग्धं वा कायं, न आमृज्यात् वा न प्रमृज्यात् वा० अथ पुनः० विगतोदकः मम कायः, छिन्नस्नेहः मम कायः, तथाप्रकारं कायं आमृज्यात् वा यावत् प्रतापयेत् वा, ततः संयतः एव ग्रामानुग्रामं गच्छेत् // 458 // III सूत्रार्थ : साधु या साध्वी को व्यामानुयाम विहार करते हुए यदि मार्ग में जंघा प्रमाण जल पड़ता हो तो उसे पार करने के लिए साधु सिर से लेकर पैर तक की प्रतिलेखना करके एक पैर जल में और एक पैर स्थल में रखकर, जैसे भगवान ने ईर्यासमिति का वर्णन किया है उसके अनुसार उस पानी के प्रवाह को पार करना चाहिए। उस नदी में चलते समय मुनि को हाथों और पैरों का परस्पर स्पर्श नहीं करना चाहिए। और शारीरिक शान्ति के लिए या दाह उपशान्त करने के लिए गहरे और विस्तार वाले जल में भी प्रवेश नहीं करना चाहिए और उसे यह अनुभव होने लगे कि मैं उपधि अर्थात् उपकरणादि के साथ जल से पार नहीं हो सकता तो उपकरणादि को छोड़ दे, और यदि यह जाने कि मैं उपकरणादि के साथ पार हो सकता हूं तब उपकरण सहित पार हो जाए। परन्तु, पार पहुंचने के पश्चात् जब तक उसके शरीर से जल बिन्दु टपकते रहें और जब तक शरीर गीला रहे तब तक नदी के किनारे पर ही खड़ा रहे और तब तक अपने शरीर को हाथ से स्पर्श भी न करे यावत् आतापना भी न देवे। जब तक शरीर बिलकुल सूख न जाए अर्थात् उसको यह निश्चय हो जाए कि मेरा शरीर पूर्णतया सुख गया है, तब * शरीर की प्रमार्जना करके ईर्यासमिति पूर्वक यामानुयाम विचरने का प्रयत्न करे। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. एक गांव से दुसरे गांव की और जावे तब जाने कि- मार्ग में जानु (ढिंचण) प्रमाण जल वाली नदी आती है, तब नाभि से उपर का मस्तक पर्यंत का शरीर मुहपत्तीसे एवं नाभि से नीचे का पैर पर्यंत का शरीर रजोहरण (ओघा) से प्रमार्जन करके जल में प्रवेश करें... और जल में प्रवेश करके एक पैर जल में रखे और दुसरा पैर उपर आकाश में रखकर चलें किंतु जल को आलोडता हुआ न चलें... तथा जिस प्रकार सरलता होवे उस प्रकार चलें, किंतु बात-चित करता हुआ या विकार-चेष्टा करता हुआ न चलें... वह साधु आर्य पुरुषों की तरह व्यामानुग्राम जाता हुआ जब छाती प्रमाण उंडे (गहरे) जलवाले नदी या द्रह (सरोवर) आदि में प्रवेश करे तब भी पूर्व कही गइ विधि से हि जल में प्रवेश करे... तथा जल में प्रवेश करने के बाद यदि वस्त्रादि उपकरणों को उठाने में समर्थ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282 2-1-3-2-5 (458) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन न हो, तो सभी असार वस्त्रादि का त्याग करें... और जब ऐसा जाने कि- मैं यह वस्त्रादि उपकरणों को उठाने में समर्थ हुं, तब वस्त्रादि उपकरणों के साथ हि नदी को पार करे और किनारे पे आकर पूर्व कही गइ विधि अनुसार इरियावही० का काउस्सग्ग करे... तथा प्रमार्जनादि की विधि पूर्व की तरह जानीयेगा... जब जल से बाहार किनारे पर पहुंचने के बाद विहार (गमन) करने की विधि कहतें हैं... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि यदि विहार करते समय रास्ते में नदी आ जाए और उसमें जंघा प्रमाण पानी हो और उसके अतिरिक्त अन्य मार्ग न हो तो मुनि उसे पार करके जा सकता है। इसके लिए पहले वह सिर से पैर तक अपने शरीर का प्रमार्जन करे। इस प्रसंग में वृत्तिकार का कहना है कि नाभि से नीचे के भाग का रजोहरण से और उससे ऊपर के भाग का मुखवस्त्रिका से प्रमार्जन करे। मुखवस्त्रिका का प्रयोग भाषा की सावधता को रोकने एवं वायुकायिक जीवों की रक्षा की दृष्टि से किया जाता है और नाभि के उपर के भाग आदि पोंछने के लिए। तथा शरीर आदि का प्रमार्जन करने के लिए रजोहरण एवं भी प्रमाणनिका रखने का विधान है। अतः प्रमाणनिका शरीर के प्रमार्जन के लिए ही रखी गई है। ___इस तरह शरीर का प्रमार्जन करके विवेक पूर्वक नौका पर सवार होने के प्रकरण में बताई गई विधि के अनुसार साधु एक पैर जल में और दूसरा पैर स्थल (पानी के ऊपर के आकाश प्रदेश) पर रखकर गति करे। परन्तु, भैंसे की तरह पानी को रौंदता हुआ न चले और मन में यह भी कल्पना न करे कि मैं पानी में उतर तो गया हूँ अब कुछ गहराई में डुबकी लगाकर शरीर की दाह को शान्त कर लूं। उसे चाहिए कि वह अपने हाथ-पैरों को भी परस्पर स्पर्श न करता हुआ, अप्कायिक जीवों को विशेष पीड़ा न पहुंचाता हुआ नदी को पार करे। यदि नदी पार करते समय उसे अपने उपकरण बोझ रूप प्रतीत होते हों और उन्हें लेकर नदी से पार होना कठिन प्रतीत होता हो, तो वह उन्हें ववां छोड़ दे। यदि उपकरण लेकर पार होने में कठिनता का अनुभव न होता हो तो उन्हें लेकर पार हो जाए। परन्तु, नदी के किनारे पर पहुंचने के पश्चात् जब तक शरीर एवं वस्त्रों से पानी टपकता हो या वे गीले हों तब तक वह वहीं खड़ा रहे उस समय वह अपने हाथ से शरीर का स्पर्श न करे और न वस्त्रों को ही निचोड़े। उनके सूख जाने पर अपने शरीर का प्रतिलेखन करके विहार करे। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त जंघा का अर्थ पिंडी अर्थात् गोडे से नीचे के भाग तक पानी समझना चाहिए। क्योंकि, यदि जांघ-साथल या कमर तक पानी होगा तो ऐसी स्थिति में पैरों को उठाकर आकाश में रखना कठिन होगा। और कोष में भी जंघा का अर्थ गोडे से नीचे Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-3-1-6 (459) 283 का भाग ही किया है। वृत्तिकार ने भी इसी बात को पुष्ट किया है। अतः जानु का अर्थ जंघा या गोडे तक पानी का होना ही युक्ति संगत प्रतीत होता है। नदी पार करने के पश्चात् साधु को किस प्रकार चलना चाहिए, इस सम्बन्ध में सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 6 // // 459 / / से भिक्खू वा० गामाणुगामं दूइज्जमाणे नो मट्टियागएहिं पाएहिं हरियाणि छिंदिय, विकुज्जिय विफालिय, उम्मग्गेण हरियवहाए गच्छिज्जा, जमेयं पाएहिं मट्टियं खिप्पमेव हरियाणि अवहरंतु, माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करिज्जा, से पुत्वामेव अप्पहरियं मग्गं पडिलेहिज्जा, तओ संजयामेव गामा० / ___ से भिक्खू वा० गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से वप्पाणि वा फ० पा० तो० अ० अग्गलपासगाणि वा गड्डाओ वा दरीओ वा सइ परक्कमे संजयामेव परिक्कमिज्जा, नो उज्जु० केवली०, से तत्थ परक्कममाणे पयलिज्ज वा से तत्थ पयलमाणे वा रुक्खाणि वा गुच्छाणि वा गुम्माणि वा लयाओ वा वल्लीओ वा तणाणि वा गहणाणि वा हरियाणि वा अवलंबिय उत्तरिज्जा, जे तत्थ पाडिपहिया उवागच्छंति ते पाणी जाइज्जा, तओ संजयामेव० अवलंबिय उत्तरिज्जा, तओ संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जिज्जा। से भिक्खू वा० गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से जवसाणि वा सगडाणि वा रहाणि वा स चक्काणि वा परचक्काणि वा, से णं वा विरूवरूवं संनिरुद्धं पेहाए सड़ परक्कमे सं, नो उ०, से णं परो सेणागओ वइज्जा- आउसंतो ! एस णं समणे सेणाए अभिनिवारियं करेइ, से णं बाहाए गहाय आगसह, से णं परो बाहाहिं गहाय आगसिज्जा, तं नो सुमणे सिया जाव समाहीए तओ संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जिज्जा // 459 // , II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० ग्रामानुग्रामं गच्छन् न मृत्तिकागतैः पादैः हरितानि छित्त्वा छित्त्वा विकुटज्य विकुब्ज्य पाटयित्वा पाटयित्वा उन्मार्गेण हरितवधाय गच्छेत्, यदेनां पादमृत्तिकां शीघ्रमेव हरितानि अपहरन्तु, मातृस्थानं संस्पृशेत्, न च एवं कुर्यात्, सः पूर्वमेव अल्पहरितं मागं प्रत्युपेक्ष्य, तत: संयतः एव गामानुग्रामं गच्छेत्। स: भिक्षुः वा, ग्रामानुग्रामं गच्छन् अन्तरा तस्य वप्राणि वा० अर्गलानि वा Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284 2-1-3-2-6 (459) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अर्गलपाशकानि वा गर्ता: वा दर्यः वा सति पराक्रमे संयतः एव पराक्रमेत्, न ऋजुना० केवली० सः तत्र पराक्रममाण: प्रचलेद् वा प्रपतेत् वा सः तत्र प्रचलन् वा प्रपतन् वा वृक्षान् वा गुच्छान् वा गुल्मान् वा लता: वा वल्ली: वा तृणानि वा, गहनानि वा हरितानि वा अवलम्ब्य अवलम्ब्य उत्तरेत्, ये तत्र प्रातिपथिका: उपागच्छन्ति, तेषां हस्तं वा याचेत, याचित्वा तत: संयतः एव० अवलम्ब्य अवलम्ब्य उत्तरेत्, तत: संयतः एव ग्रामानुग्राम गच्छेत् / स: भिक्षुः वा० ग्रामानुग्रामं गच्छन् अंतरा तस्य यवसानि वा शकटानि वा रथान् वा स्वचक्राणि वा परचक्राणि वा, सेनां वा विरूपरूपां संनिरुद्धां प्रेक्ष्य सति पराक्रमे सं० न उ०, सः परः सेनागतः वदेत्- हे आयुष्मन् ! एष: श्रमण: सेनायाः अभिनिवारकं करोति, तस्य बाहं गृहीत्वा आकर्षय, सः परः बाहं गृहीत्वा आकर्षयेत्, तं न सुमना: स्यात् यावत् समाधिना० ततः संयतः एव ग्रामानुग्रामं गच्छेत् // 459 // III सूत्रार्थ : साधु अथवा साध्वी व्यामानुयाम विचरते हुए मिट्टी और कीचड़ से भरे हुए पैरों को, हरितकाय का छेदन कर, तथा हरे पत्तों को एकत्रित कर उनसे मसलता हुआ मिट्टी को न उतारे, और न हरितकाय का वध करता हुआ उन्मार्ग से गमन करे। जैसे कि- ये मिट्टी और कीचड़ से भरे हुए पैर हरी पर चलने से हरितकाय के स्पर्श से स्वतः ही मिट्टी रहित हो जाएंगे, ऐसा करने पर साधु को मातृस्थान (कपट) का स्पर्श होता है। अतः साधु को इस प्रकार नहीं करना चाहिए। किन्तु, पहले ही हरित से रहित मार्ग को देखकर यत्नापुर्वक गमन करना चाहिए। और यदि मार्ग के मध्य में खेतों के क्यारे हों, खाई हो, कोट हो, तोरण हो, अर्गला और अर्गलापाश हो, गत हो तथा गुफाएं हों, तो अन्य मार्ग के होते हुए इस प्रकार के विषम मार्ग से गमन न करे। केवली भगवान कहते हैं कि यह मार्ग दोष युक्त होने से कर्म बन्धन का कारण है। जैसे कि- पैर आदि के फिसलने तथा गिर पडने से शरीर के किसी अंगप्रत्यंग को आघात पहुंचेगा... तथा जो वृक्ष, गुच्छ-गुल्म और लतायें एवं तृण आदि हरित काय को पकड़ कर चलाना या उतरना है और वहां पर जो पथिक आते हैं उनसे हाथ मांगकर अर्थात् हाथ के सहारे की याचना करके और उसे पकड़कर उतरना है, ये सब दोष युक्त है, इसलिए उक्त सदोष मार्ग को छोड़कर अन्य निर्दोष मार्ग से एक ग्राम से दूसरे ग्राम की ओर प्रस्थान करे। तथा यदि मार्ग में यव और गोधूम आदि धान्य, शकट, रथ, स्वकीय राजा की या पर राजा की सेना चल रही हो, तब नाना प्रकार की सेना के समुदाय को देखकर, यदि अन्य गन्तव्य मार्ग हो तो उसी मार्ग से जाए किन्तु कष्टोत्पादक इस सदोष मार्ग से जाने का प्रयत्न न करे। इस मार्ग से जाने में कष्टोत्पत्ति की सम्भावना है। जैसे कि- जब उस मार्ग से साधु जाएगा तो सम्भव है उसे देखकर कोई सैनिक किसी दूसरे सैनिक को कहे कि आयुष्मन् / Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-3-1-6 (459) 285 यह श्रमण हमारी सेना का भेद लेने आया है। अतः इसे भुजाओं से पकड़कर खेंचो अर्थात् आगे-पीछे करो, और तदनुसार जब वह सैनिक साधु को पकड़ कर खेंचे, तब साधु को उस समय उस पर न प्रसन्न या न रुष्ट होना चाहिए, किन्तु निर्दोष मार्ग से उस साधु को समभाव एवं समाधि पूर्वक एक ग्राम से दूसरे ग्राम को विहार करने का प्रयत्न करना चहिए। IV टीका-अनुवाद : वह साधु जल-नदी तैरने के बाद किनारे पे आया हुआ, कादववाले पैरवाला हो, तब हरित-घास को तोड-तोड कर या कुब्ज करके या मूल से उखेडकर के या उन्मार्ग से हरित याने वनस्पति की विराधना हो ऐसा न चले... जैसे कि- साधु ऐसा सोचे कि- पैरकी इस मिट्टी को हरित याने घास साफ कर देगा... ऐसा करने से साधु माया (कषाय) के स्थान को सेवन करता है... किंतु साधु ऐसा माया-स्थान का सेवन न करें... शेष सूत्र सुगम है... वह साधु एक गांव से दुसरे गांव की और जा रहा हो, तब यदि मार्ग में वप्र याने किल्ला-गढ आदि देखें तब यदि अन्य मार्ग हो तो उस ऋजु मार्ग से न जावें... क्योंकि- वहां गर्ता-गडे आदि में गिर पडने से सचित्त ऐसे वृक्ष आदि का आलंबन लेना होता है... किंतु ऐसा करना साधु के लिये उचित नहि है... यदि विशेष कारण-प्रयोजन हो तो उसी ऋजु मार्ग से हि जावें... और कभी चलते चलते गिर पड़े तब गच्छगत याने स्थविर कल्पवाले साधु वल्लीवेलडी आदि का आलंबन लें अथवा कोइक मुसाफिर जा रहा हो तो हाथ का सहारा मांगकर संयम में रहते हुए हि मार्ग में चलें... तथा वह साधु यदि विहार मार्ग में देखे कि- गेहुं आदि धान्य या बैलगाडीओं का पडाव है तब वहां बहोत सारे अपाय याने उपद्रवों की संभावना होने से यदि दुसरा मार्ग हो तो वहां से न चलें... इत्यादि शेष सूत्र सुगम है... सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में साधु को तीन बातों को ध्यान में रखने का आदेश दिया है- 1. नदी पार करके किनारे पर पहुंचने के बाद वह अपने पैरों में लगा हुआ कीचड़ हरित काय (हरी वनस्पति-घास आदि) से साफ न करे और न इस भावना से हरियाली पर चले कि इस पर चलने से मेरे पैर स्वतः ही साफ हो जाएंगे, 2. यदि अन्य मार्ग हो तो जिस मार्ग में खेत की क्यारियां, खड़े, कंदराएं-गुफाएं आदि पड़ती हों उस विषम मार्ग से भी न जाए, क्योंकि पैर फिसल जाने से वह गिर पड़ेगा और परिणाम स्वरूप शरीर में चोट आएगी या कभी बचाव के लिए वृक्ष आदि को पकड़ना पड़ेगा, इससे वनस्पति कायिक जीवों की हिंसा होगी और 3. जिस मार्ग पर सेना का पड़ाव हो या सैनिक घूम रहे हों तो अन्य मार्ग के होते हुए उस Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286 2-1-3-2-7 (460) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन मार्ग से भी न जाए। क्योंकि वे साधु को गुप्तचर समझकर उसे परेशान कर सकते हैं. एवं कष्ट भी दे सकते हैं। कभी अन्य मार्ग न होने पर जिस मार्ग पर सेना का पड़ाव हो उस मार्ग से जाते हुए साधु को यदि कोई सैनिक पकड़ कर कष्ट देने लगे तो उस समय उसे उस पर राग-द्वेष नहीं करना चाहिए। ऐसे विकट समय में भी उसे समभाव पूर्वक उस वेदना को सहन करना चाहिए। इससे स्पष्ट होता है कि साधु को अपने पैरों में लगी हुई मिट्टी को साफ करने के लिए वनस्पति काय की हिंसा नहीं करनी चाहिए। जैसे अपवाद मार्ग में मास में एक बार महानदी पार करने का आदेश दिया गया है, वैसे वृक्ष का सहारा एवं हरितकाय को कुचलते हुए चलने का आदेश नहीं दिया गया है, अपितु उसका निषेध किया गया है और वृक्ष का सहारा लेनेवाले को प्रायश्चित का अधिकारी बताया है। इस तरह साधु को वनस्पति काय की हिंसा न करते हुए एवं विषम मार्ग तथा सेना से युक्त रास्ते का त्याग करके सम मार्ग से विहार करना चाहिए। जिससे स्व एवं पर की विराधना न हो। - इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 7 // // 460 // से भिक्खू वा० गामा० दूइज्जमाणे अंतरा से पाडिवहिया उवागच्छिज्जा, ते णं पाडिवहिया एवं वइज्जा- आउसंतो ! समणा ! केवइए एस गामे वा जाव रायहाणी वा केवड्या इत्थ आसा हत्थी गामपिंडोलगा मणुस्सा परिवसंति ? से बहुभत्ते बहुउदे बहुजणे बहुजवसे, से अप्पभत्ते अप्पुदए अप्पजणे अप्पजवसे ? एयप्पगाराणि पसिणाणि पुच्छिज्जा, एयप्प० पुट्ठो वा अपुट्ठो वा नो वागरिज्जा, एवं खलु० जं सव्वद्वेहिं० // 460 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० ग्रामानुग्रामं गच्छन् अन्तरा तस्य प्रातिपथिकाः उपागच्छेयुः, ते प्रातिपथिका: एवं वदेयुः- हे आयुष्मन् ! श्रमण ! कीदृशः अयं ग्रामः वा यावत् राजधानी वा ? कीदृशाः अत्र अश्वाः हस्तिन: ग्राम पिण्डोलका: (भिक्षुका:) मनुष्याः परिवसन्ति ? ते बहुभक्ता: बहुजला: बहुजना: बहुयवसाः ? ते अल्पभक्ताः अल्पजला: अल्पजना: अल्पयवसाः वा ? एतत्-प्रकारान् प्रश्चान् प्रच्छेयुः, एतत्-प्रकारान् प्रश्नान् पृष्टः वा अपृष्टः वा न व्याकुर्यात्, एवं खलु० यत् सव्वार्थ:० // 40 // Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-3-2-7 (460) 287 III सूत्रार्थ : साधु अथवा साध्वी व्यामानुग्राम विहार करता हुआ उसके मार्ग में यदि कोई सामने से पथिक आ जाए और साधु से पूछे कि- आयुष्मन् श्रमण ! यह ग्राम यावत् राजधानी कैसी है ? यहां पर कितने घोडे, हाथी और ग्राम याचक हैं, तथा कितने मनुष्य निवास करते हैं ? क्या इस व्याम यावत् राजधानी में अन्न, पानी, मनुष्य एवं धान्य बहुत है या थोड़ा है ? ऐसे प्रश्नों को पूछने पर साधु जवाब न देवे औ उसके बिना पूछे भी ऐसी बातें न करे। परन्तु, वह मौन भाव से विहार करता रहे और सदा संयम साधना में संलग्न रहे। IV टीका-अनुवाद : विहारानुक्रम से एक गांव से दुसरे गांव की और जाते हुए उन साधुओं को मार्ग में मुसाफिर सामने मिले और वे पुछे कि- हे श्रमण ! यह गांव कैसा है ? इत्यादि पुछने पर या बिना पुछे उन्हें कुछ भी न कहें... तथा साधु उन मुसाफरों को भी ऐसे प्रश्न न करें... यह इस सूत्र का पिंडार्थ (संक्षिप्त अर्थ) है... और यह हि साधु का संपूर्ण साधुपना है... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- विहार करते समय रास्ते में यदि कोई पथिक मुनि से.पछे कि- जिस गांव या शहर से तम आ रहे हो उसमें कितने हाथी-घोडे हैं. कितना है, कितने मनुष्य हैं अर्थात् वह गांव धन-धान्य से सम्पन्न है या अभाव ग्रस्त है ? तब मुनि को इसका कोई उत्तर नहीं देना चहिए। क्योंकि, इस चर्चा से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है और न यह चर्चा आत्म विकास में ही सहायक है। यह तो एक तरह की विकथा है, जो आध्यात्मिकं प्रगति में बाधक मानी गई है। इसलिए साध को उस समय मौन रहना चाहिए। यदि पूछने वाला कोई आध्यात्मिक साधक हो और उससे आध्यात्मिक विचारों के प्रसार होने की सम्भावना हो तो साधु के लिए उक्त प्रश्नों का उत्तर देने का निषेध नहीं है। इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि यह प्रतिबन्ध इस लिए लगाया गया है कि केवल व्यर्थ की बातों में साधक का समय नष्ट न हों। कुछ हस्त लिखित प्रतियों में “अप्पजवसे' पद के आगे यह पाठ मिलता है“एयप्पगाराणि पसिणाणि पुट्ठो वा अपुट्ठो वा नो आइक्रोज्जा, एयप्पगाराणि पसिणाणि नो पुच्छेज्जा।" . प्रस्तुत सूत्र से यह भी स्पष्ट होता है कि उस युग में हाथी-घोड़ों का अधिक उपयोग होता था और उन्हीं के आधार पर गांव के वैभव का अनुमान लगाया जाता था। इस कारण प्रश्नों की पंक्ति में सब से पहले उनका उल्लेख किया गया है। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2882 -1-3-2-7 (460) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन - कुछ हस्तलिखित प्रतियों में 'त्तिबेमि' पद भी मिलता है, जिसकी व्याख्या पूर्ववत् समझें। // प्रथम चूलिकायां तृतीय-ईर्याध्ययने द्वितीयः उद्देशकः समाप्तः // 卐 .: प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शचुंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट -परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकपादष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. "श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः'' वीर निर्वाण सं. 2528. राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058. 10000 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-3-3-1 (461) 289 आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 1 अध्ययन - 3 उद्देशक - 3 ईर्या दुसरा उद्देशक कहा, अब तीसरे उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं... यहां परस्पर यह संबंध है कि- दुसरे उद्देशक में गमन याने (जाने की) विहार की विधि कही, अब यहां तीसरे उद्देशक में भी वह हि कहना है, अतः इस संबंध में आये हुए तीसरे उद्देशक का यह प्रथम सूत्र है... I सूत्र // 1 // // 461 // . से भिक्खू वा० गामा० दूइज्जमाणे अंतरा से वप्पाणि वा जाव दरीओ वा जाव कूडागाराणि वा पासायाणि वा नूमगिहाणि वा रुक्खगिहाणि वा पव्वगिहाणि वाo रुक्खं वा चेइयकडं थूभं वा चेइयकडं आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा नो बाहाओ पगिज्झिय, अंगुलिआए उद्दिसिय ओणमिय उण्णमिय निज्झाइज्जा, तओ संजयामेव० गामा०। - से भिक्खू वा० गामा० दूइज्जमाणे अंतरा से कच्छाणि वा दवियाणि वा नूमाणि वा वलयाणि वा गहणाणि वा गहणविदुग्गाणि वा वणाणि वा वणविदुग्गाणि वा, पटवयाणि वा पव्ययविदुग्गाणि वा अगडाणि वा तलागाणि वा दहाणि वा नईओ वा वावीओ वा पुक्खरिणीओ दीहियाओ वा गुंजालियाओ वा सराणि वा सरपंतियाणि वा * ' सरसरपंतियाणि वा नो बाहाओ पगिज्झिय जावं निज्झाइज्जा, केवलीo जे तत्थ मिगा वा पसू वा पंखी वा सरीसवा वा सीहा वा जलचरा वा थलचरा वा खहरा वा सत्ता, ते उत्तसिज्जा वा वित्तसिज्जा वा, वाडं वा सरणं वा कंखिज्जा, चारित्ति मे अयं समणे, अह भिक्खूणं पुत्वोव० जं नो बाहाओ पगिज्झिय, निज्झाइज्जा, तओ संजयमेव आयरिउवज्झाएहिं सद्धिं गामाणुगामं दुइज्जिज्जा || 461 / / // संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा ग्रामानुग्रामं गच्छन् अन्तरा तस्य वप्राणि वा यावत् दर्यः वा यावत् फूटागाराणि वा प्रासादाः भूमीगृहाणि वा वृक्षगृहाणि पर्वतगृहाणि वा वृक्षः वा चैत्यकृतं स्तूपं वा चैत्यकृतं आवेशनानि वा यावत् भवनगृहाणि वा न बाहुं प्रगृह्य प्रगृह्य, अङ्गुल्या उद्दिश्य उद्दिश्य, अवनम्य अवनम्य उन्नम्य उन्नम्य निर्ध्यायेत्, ततः सं० ग्रामा०। स: भिक्षुः वा० ग्रामानुग्रामं गच्छन् अन्तरा तस्य कच्छा: वा द्रव्याणि वा निम्नानि Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 290 2-1-3-3-1 (461) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन वा वलयानि वा गहनानि वा गहनविदुर्गाणि वा वनानि वा वनविदुर्गाणि वा, पर्वता: वा पर्वतविदुर्गाणि वा, अगडानि वा तडागानि वा द्रहाणि वा नद्यः वा वाप्य: वा पुष्करिण्य: वा दीर्घिका: वा गुजालिकाः वा सरांसि वा सर:पङ्क्तय: वा सर: सरः पङ्क्तयः वा न बाहुं उत्क्षिप्य उत्क्षिप्य यावत् निायेत्, केवलीo ये तत्र मृगा वा पशव: वा पक्षिण: वा सरीसृपाः वा सिंहाः वा जलचराः वा स्थलचराः वा खचराः वा सत्त्वाः, ते उत्-असेत् वा वित्रसेत् वा, वृत्तिं वा शरणं वा काङ्क्षत, "चारः" इति अयं श्रमणः / अथ भिक्षूणां पूर्वोपदिष्टां० यत् न बाहू उत्क्षिप्य उक्षिप्य निायेत, ततः संयतः एव आचार्योपाध्यायादिभिः सार्धं ग्रामानुग्रामं गच्छेत् // 461 // III सूत्रार्थ : साधु अथवा साध्वी को व्यामानुयाम विहार करते हुए मार्ग में यदि खेत के क्यारे यावत् गुफाएं, पर्वत के ऊपर के घर, भूमि गृह, वृक्ष के नीचे या ऊपर का निवास स्थान, पर्वतगुफा, वृक्ष के नीचे व्यन्तर का स्थान, व्यन्तर का स्तूप और व्यन्तरायतन, लोहकारशाला यावत् भवनगृह आवें तो इनको अपनी भुजा ऊपर उठाकर, अगुलियों को फैला कर या शरीर को ऊंचा-नीच करके न देखे। किन्तु यत्नापूर्वक अपनी विहार यात्रा में प्रवृत्त रहे। यदि मार्ग में नदी के समीप निम्न-प्रदेश हो या खरबूजे आदि का खेत हो या अटवी में घोड़े आदि पशुओं के घास के लिए राजाज्ञा से छोडी हुई भूमी-बीहड़ एवं खड्डा आदि हो, नदी से वेष्टित भूमि हो, निर्जल प्रदेश और अटवी हो, अटवी में विषम स्थान हो, वन हो और वन में भी विषम स्थान हो, इसी प्रकार पर्वत, पर्वत पर का विषम स्थान, कूप, तालाब, झोलें, नदियें बावडी, और पुष्करिणी और दीर्घिका अर्थात् लम्बी बावडिएं गहरे एवं कुटिल जलाशय, बिना खोदे हुए तालाब, सरोवर, सरोवर की पंक्तियें और बहुत से मिले हुए तालाब हों तो इनको भी अपनी भुजा उपर उठाकर या अंगुली पसार कर, शरीर को ऊंचा नीचा करके न देखे, कारण यह है कि- केवली भगवान इसे कर्मबन्धन का कारण बतलाते हैं, जैसे कि- उन स्थानों में मृग, पशु-पक्षी, सांप, सिंह, जलचर, स्थलचर और खेचर जीव होते हैं, वे साधु को देखकर त्रास पावेंगे वित्रास पावेंगे और किसी बाड़ की शरण चाहेंगे तथा वे सोचे कि यह साधु हमें हटा रहा है, इसलिए भुजाओं को उंची करके साधु न देखे किन्तु यत्ना पूर्वक आचार्य और उपाध्याय आदि के साथ व्यामानुयाम विहार करता हुआ संयम का पालन करे। IV टीका-अनुवाद : एक गांव से दुसरे गांव की और जा रहे साधु यदि मार्ग में देखे कि- परिखा याने गहरी खाइ (गर्ता) प्राकार याने गढ (किल्ले) कूटागार याने पर्वत के उपर के घर, भूमीघर Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-3-3-1 (461) 291 (भोयरे) वृक्ष विशेषवाले घर या वृक्ष के उपर रहे हुए घर तथा पर्वत के गुफा स्वरुप घर, तथा वृक्ष के नीचे व्यंतर आदि देव के मंदिर या स्तूप, कि- जो व्यंतरादि देवों ने बनाये हुए है उनके प्रति हाथ उंचा करके या अंगुली लंबी करके न देखें और न अन्य को बतावें... तथा शरीर को नीचा करके या उंचा करके भी न देखें, न दिखलावें... क्योंकि- यहां दग्ध और मुषितादि दोष के प्रसंग में साधु के उपर आशंका होवे अथवा यह साधु जितेन्द्रिय नहि है इत्यादि शंका हो शकती है... अथवा वहां रहे हुए पशु-पक्षीओं का समूह संत्रास याने भयभीत होवें... इत्यादि दोषों के भय से साधु संयमी होकर हि विचरें... विहार करें... तथा साधु जब यामांतर जावे तब मार्ग में निम्न कच्छ याने नदी के पासवाले निम्न भूमी प्रदेश या मूले एवं रींगण आदि की वाडी, तथा अटवी में घास के लिये राजकुल ने अपने ताबे में रखी हुइ भूमी,, तथा गर्ता याने गडे... वलय याने नदी आदि से वेष्टित भूमी-प्रदेश... गहन याने निर्जल ऐसा वन प्रदेश... तथा गुंजालिका याने लंबे उंडे (गहरे) एवं टेढे-मेढे वांके जलाशय, सरोवर की पंक्ति, तथ परस्पर जुडे हुए अनेक सरोवरों की पंक्ति, इत्यादि को बाहु उंचा करके न दिखलावें और स्वयं भी न देखें... क्योंकि- केवली भगवान कहतें हैं कि- ऐसा करने से कर्मबंध होता है... कारण कि- वहां रहे हुए पक्षी, पशु एवं सर्प-घो-नउले आदि भयभीत होतें हैं, और वहां रहनेवाले लोगों को भी साधु के उपर शंका होवे... इसलिये साधुओं को पूर्व कही गइ प्रतिज्ञा है कि- साधु ऐसा अनुचित कार्य न करें... किंतु आचार्य उपाध्याय आदि गीतार्थ साधुओं के साथ विहार करें... अब आचार्यादि के साथ जा रहे साधुओं को जो विधि होती है वह यहां कहतें हैं... v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु को विहार करते समय रास्ते में पड़ने वाले दर्शनीय स्थलों को अपने हाथ ऊपर उठाकर या अंगुलियों को फैलाकर या कुछ ऊंचा होकर या झक कर नहीं देखना चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि- इससे वह अपने गन्तव्य स्थान पर कुछ देर से पहुंचेगा, जिससे उसकी स्वाध्याय एवं ध्यान साधना में अन्तराय पड़ेगी और किसी सुन्दर स्थल को देखकर साधु के मन में विकार भाव कुतूहत भी जाग सकता है और उसे इस तरह झुककर या ऊपर उठकर ध्यान से देखते हुए देखकर किसी के मन में साधु के प्रति सन्देह भी उत्पन्न हो सकता है। यदि संयोग से उस दिन या उस समय के आसपास उक्त स्थान में आग लग जाए या चोरी हो जाए तो वहां के अधिकारी लोग उस साधु पर दोषारोपण भी कर सकते हैं। अतः इन सब दोषों से बचने के लिए साधु को मार्ग में पड़ने वाले दर्शनीय स्थलों की ओर अपना ध्यान न लगाकर यत्नापूर्वक अपना रास्ता तय करना चाहिए। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 292 2-1-3-3-2 (462) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन यहां यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि- सूत्रकार ने दर्शनीय स्थलों को इस तरह से देखने के लिए इन्कार किया है, जिससे किसी के मन में साधु के प्रति सन्देह उत्पन्न होता हो या उसके मन में विकारी भाव जागृत होता हो। परन्तु, इसका अर्थ यह नहीं है कि साधु उस तरफ से निकलते हुए आंखों को मूंद कर चले। साधु अपनी गति से चलता है और आंखों के सामने आने वाले दृश्य उसके सामने आएं तो वह आंखें बन्द नहीं करेगा, परन्तु उस तरफ विशेष गौर से न देखता हुआ स्वाभाविक गति से अपना विचरण करेगा। . __इस सूत्र से यह भी ज्ञात होता है कि उस समय के राजा गांव या शहर के बाहर जङ्गल में गायों एवं घोड़े आदि पशुओं के चरने के लिए कुछ गोचर भूमि या चरागाह छोड़ते थे, जिन पर किसी तरह का कर नहीं लिया जाता था। इससे यह सहज ही ज्ञात हो जाता है कि उस समय पशुओं के चारा-पानी और रक्षा की ओर विशेष ध्यान दिया जाता था। इसके अतिरिक्त खेत, जलाशय, गुफाओं आदि का उल्लेख करके उस युग की वास्तु कला एवं संस्कृति पर विशेष प्रकाश डाला गया है। यदि साधु को आचार्य एवं उपाध्याय आदि के साथ विहार करना हो तो उन्हें किस तरह चलना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 2 // // 42 // . से भिक्खू वा आयरिउवज्झा० गामा० नो आयरिय-उवज्झायस्स हत्थेण वा हत्थं जाव अणासायमाणे तओ संजयामेव आयरिउ० सद्धिं जाव दूइज्जिज्जा / से भिक्खू वा आय० सद्धिं दूइज्जमाणे अंतरा से पाडिवहिया उवागच्छिज्जा, ते णं पाडि0 एवं वइज्जा- आउसंतो ! समणा ! के तुब्भे ? कओ वा एह ? कहिं का गच्छिहिह ? जे तत्थ आयरिए वा उवज्झाए वा से भासिज्ज वा वियागरिज्ज वा आयरिउवज्झायस्स भासमाणस्स वा वियागरेमाणस्स वा नो अंतरा भासं करिज्जा, तओ सं० अहाराईणिए वा० दूइज्जिज्जा। ‘से भिक्खू वा० अहाराइणियं गामाणुगामं दूइज्जमाणे नो राइणियस्स हत्थेण हत्थं जाव अणासायमाणे, तओ सं० अहाराइणियं गामा० दू०। से भिक्खू वा, अहाराइणियं गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से पाडिवहिया उवागच्छिज्जा, ते णं पाडिपहिया एवं वइज्जा- आउसंतो ! समाणा ! के तुब्भे ? जे तत्थ सव्वराइणिए से भासिज्ज वा वागरिज्ज वा, राइणियरस भासमाणस्स वा वियागरेमाणस्स वा नो अंतरा भासं भासिज्जा, तओ संजयामेव अहाराइणियाए Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2-1-3-3-2 (462) 293 श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका गामाणुगाम दुइज्जिज्जा || 462 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा आचार्योपाध्याय० ग्रामा० न आचार्योपाध्यायानां हस्तेन वा हस्तं यावत् अनाशायतन्, तत: संयतः एव आचार्योपा० सार्द्ध यावत् गच्छेत् / सः भिक्षुः वा आचा० सार्द्ध गच्छन् अन्तरा तस्य प्रातिपथिकाः उपागच्छेयुः, ते प्रातिपथिकाः एवं वदेयुः हे आयुष्मन् ! श्रमण ! के यूयं ? कुत: वा आगच्छत ? कुत्र वा गमिष्यथ ? यः तत्र आचार्यः वा उपाध्यायः वा सः भाषेत वा व्याकुर्यात् वा, आचार्योपाध्यायस्य भाषमाणस्य वा व्याकुर्वाणस्य वा न अन्तरा भाषां कुर्यात्, तत: सं० यथारात्निक: वा० गच्छेत् / सः भिक्षुः वा यथारात्निकं ग्रामा० गच्छन्तं न रात्निकस्य हस्तेन हस्तं यावत् अनाशायतन्, ततः सं० यथारात्निकं ग्रामानुग्रामं गच्छेत् / सः भिक्षुः वा यथारान्तिकं ग्रामानुग्राम गच्छन् अन्तरा तस्य प्रातिपथिका: उपागच्छेयुः, ते प्रातिपथिका: एवं वदेयु:- हे आयुष्मन् ! श्रमण ! के यूयं ? यः तत्र सर्वरात्निकः, सः भाषेत वा व्याकुर्यात् वा, रात्निकस्य भाषमाणस्य वा व्याकुर्वाणस्य वा न अन्तरा भाषां भाषेत, तत: संयतः एव यथारात्निकेन ग्रामानुग्रामं गच्छेत् // 462 / / III सूत्रार्थ : साधु अथवा साध्वी आचार्य और उपाध्याय के साथ विहार करता हुआ, आचार्य और उपाध्याय के हाथ से अपने हाथ का स्पर्श न करे, और आशातना न करता हुआ ईयर्यासमिति . पूर्वक उनके साथ विहार करे। उनके साथ विहार करते हुए मार्ग में यदि कोई व्यक्ति मिले और वह इस प्रकार कहे कि आयुष्मन् श्रमण ! आप कौन हैं ? कहां से आये हैं ? और कहां जाएंगे ? तो आचार्य या उपाध्याय जो भी साथ में है वे उसे सामान्य अथवा विशेष रूप से उत्तर देवे। परन्तु, साधु को उनके बीच में नहीं बोलना चाहिए। किन्तु, ईर्यासमिति का ध्यान रखता हुआ उनके साथ विहार चर्या में प्रवृत्त रहे। और यदि कभी साधु रत्नाधिक (अपने से दीक्षा में बड़े साधु) के साथ विहार करता हो तो उस रत्नाधिक के हाथ से अपने हाथ का स्पर्श न करे ओर यदि मार्ग में कोई पथिक सामने मिले और पूछे कि आयुष्मन् श्रमणो ! तुम कौन हो ? तब वहां पर जो सबसे बड़ा साधु हो वह उत्तर देवे उसके संभाषण में अर्थात् उत्तर देने के समय उसके बीच में अन्य कोई साधु न बोले किन्तु यत्नापूर्वक रत्नाधिक के साथ विहार में प्रवृत्त रहे। IV टीका-अनुवाद : वह साधु आचार्यादि के साथ जाता हुआ इतनी दूरी से चले कि- आचार्यादि के हाथ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 294 2-1-3-3-2 (462) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन को अपने हाथ से स्पर्श न हो... तथा वह साधु आचार्यादि के साथ जा रहा हो तब मार्ग में कोड मुसाफिर प्रश्न पुछे तब आचार्य आदि के अनुमति के बिना उत्तर न दें, तथा आचार्यादि जब जवाब देतें हो तब बीच में कुछ भी न बोलें... इस प्रकार मार्ग में जाता हुआ वह साधु संयमी होकर युगप्रमाण (चार हाथ) भूमी पे नजर रखता हुआ रत्नाधिकों के अनुक्रम से चलें... यह यहां सारांश है... इसी प्रकार आगे के दो सूत्र भी आचार्य एवं उपाध्याय की तरह अन्य रत्नाधिक साधु के साथ चलते वख्त भी हाथ से हाथ का स्पर्श एवं वार्तालाप के बीच बात आदि न करें... इत्यादि स्वयं जानीयेगा... V सूत्रसार: / प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु आचार्य, उपाध्याय एवं रत्नाधिक (अपने से दीक्षा में बड़े साधु) के साथ विहार करते समय अपने हाथ से उनके हाथ का स्पर्श करता हुआ न चले और यदि रास्ते में कोई व्यक्ति मिले और वह पूछे कि आप कौन हैं ? कहां से आ रहे हैं ? और कहां जाएंगे ? आदि प्रश्नों का उत्तर साथ में चलने वाले आचार्य, उपाध्याय या बड़े साधु दे, परन्तु छोटे साधु को न तो उत्तर देने का प्रयत्न करना चाहिए और न बीच में ही बोलना चाहिए। क्योंकि आचार्य आदि के हाथ एवं अन्य अङ्गोंपांग का अपने हाथ आदि से स्पर्श करने से तथा वे किसी के प्रश्नों का उत्तर दे रहे हों उस समय उनके बीच में बोलने से उनकी अशातना होगी और वह साधु भी असभ्य सा प्रतीत होगा। अतः उनकी विनय एवं शिष्टता का ध्यान रखते हुए साधु को विवेक पूर्वक चलना चाहिए। . ___ यदि कभी आचार्य, उपाध्याय या बड़े साधु छोटे साधु को प्रश्नों का उत्तर देने के लिए कहे तो वह उस व्यक्ति को उत्तर दे सकता है और इसी तरह यदि आचार्य आदि के शरीर में कोई वेदना हो गई हो या चलते समय उन्हें उसके हाथ के सहारे की आवश्यकता हो तो वह उस स्थिति में उनके हाथ को सहारा दे सकता है। यहां जो निषेध किया गया है, वह बिना किसी कारण से एवं उनकी आज्ञा के बिना उनके हाथ आदि का स्पर्श करने एवं उनके बीच में बोलने के लिए किया गया है। प्रस्तुत सूत्र में आचार्य आदि के साथ विहार करने के प्रसंग में जो साधु-साध्वी का उल्लेख किया है, वह सूत्र शैली के अनुसार किया गया है। परन्तु, साधु-साध्वी एक साथ विहार नहीं करते हैं, अतः आचार्य आदि के साथ साधुओं का ही विहार होता है, साध्वियों का नहीं। उनका विहार महत्तरा (प्रवर्तिनी) आदि के साथ होता है। साधु और साध्वी दोनों के नियमों में समानता होने के कारण दोनों का एक साथ उल्लेख कर दिया गया है। अतः जहां साधुओं का प्रसंग हो वहां आचार्य आदि का और जहां साध्वियों का प्रसंग हो वहां प्रवर्तिनी आदि का प्रसंग समझना चाहिए। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-3-3-3 (463) 295 - ___ इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र || 3 || || 463 // से भिक्खू वा० दूइज्जमाणे अंतरा से पाडिवहिया उवागच्छिज्जा, ते णं पाडिo एवं वइज्जा-आउसंतो ! समणा ! अवियाई इत्तो पडिवहे पासह- तं० मणुस्सं वा गोणं वा महिसं वा पसुं वा पक्खिं वा सरीसवं वा जलयरं वा से आइक्खह दंसेह, तं नो आइक्खिज्जा नो दंसिज्जा, नो तस्स तं परिणं परिजाणिज्जा, तुसिणीए उवेहिज्जा, जाणं वा न जाणंति वइज्जा, तओ सं० गामा० दू०। से भिक्खू वा० मा० अंतरा से पाडि० उवा० ते णं पाडि० एवं वइज्जा- आउ० स० ! अवियाइं इत्तो पडिवहे पासह उदगपसूयाणि कंदाणि वा मूलाणि वा तथा पत्ता पुप्फा फला बीया हरिया उदगं वा संनिहियं अगणिं वा संनिक्खित्तं से आइक्खह जाव दूइज्जिज्जा / से भिक्खू वा० गामा० दूइज्जमाणे अंतरा से पाडि० उवा० ते णं पाडिo व०- आउ० स० ! अवियाइं इत्तो पडिवहे पासह जवसाणि वा जाव से णं वा विरूवलवं संनिविटुं, से आइक्खह जाव दूइज्जिज्जा। से भिक्खू वा० गामा० दूइज्जमाणे अंतरा पाडि० जाव आउ० स० ! केवइए इत्तो गामे वा जाव रायहाणिं वा से आइक्खह जाव दूइज्जिज्जा / से भिक्खू वा गामाणुगामं दूइज्जेज्जा, अंतरा से पाडिपहिया० आउसंतो ! समणा ! केवइए इत्तो गामस्स नगरस्स वा जाव रायहाणीए वा मग्गे ? से आइक्खह, तहेव जाव दूइज्जिज्जा || 463 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० गच्छन् अन्तरा तस्य प्रातिपथिकाः उपागच्छेयुः ते प्राति० एवं वदेयुः- हे आयुष्मन् ! श्रमण ! अपि च किं इत: प्रतिपथि पश्यत (दर्शयत) तद्यथा मनुष्यं वा गां वा महिषं वा पशुं वा पक्षिणं वा सरीसृपं वा जलचरं वा, तस्य आचक्षीत दर्शयत, तं न आचक्षीत न दर्शयेत्, न तस्य तां परिज्ञां परिजानीयात्, तूष्णीक: उपेक्षेत, ज्ञानं वा न ज्ञानं इति वदेत्, ततः संयतः एव ग्रामानुग्रामं गच्छेत् / स: भिक्षुः वा० ग्रामा० गच्छतः अन्तरा तस्य प्रातिपथिका: उपागच्छेयुः, ते प्राति० एवं वदेयुः- हे आयुष्मन् ! श्रमण ! अपि च किं इत: मार्गे (प्रतिपथि) पश्यत उदक . प्रसूतानि कन्दानि वा मूलानि वा त्वक्, पत्राणि पुप्पाणि फलानि बीजानि हरितानि उदकं वा संनिहितं, अग्निं वा संनिक्षिप्तं, तस्य आचक्षीत यावत् गच्छेत् / सः भिक्षुः वा ग्रामा० गच्छन् अन्तरा तस्य प्राति० उपा० ते प्राति० वदेयुः- हे आयुष्मन् ! श्रमण ! अपि च Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 296 2-1-3-3-3 (463) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन किं इतः प्रतिपथि पश्यत यवसानि वा यावत् तस्य वा विरूपरूपं संनिविष्टं, तस्य आचक्षीत यावत् गच्छेत् / स: भिक्षुः वा० ग्रामानुग्रामं गच्छन् अन्तरा प्राति० यावत् हे आयुष्मन् ! श्रमण ! कियन्तं इत: ग्रामं वा पावत् राजधानी वा ? तस्य आचक्षीत यावत् गच्छेत् / स: भिक्षुः वा ग्रामा० गच्छन् अन्तरा प्रातिपथिका: हे आयुष्मन् ! श्रमण ! कियान् इतः ग्रामस्य नगरस्य वा यावत् राजधान्याः वा मार्गः ? तस्य आचक्षीत, तथैव यावत् गच्छेत् // 463 // III सूत्रार्थ : संयमशील साधु अथवा साध्वी को विहार करते हुए यदि मार्ग के मध्य में सामने से कोई पथिक मिले और वह साधु से कहें कि आयुष्मन् श्रमण ! क्या आपने मार्ग में मनुष्य को, मृग को, महिष को, पशु को, पक्षी को, सर्प को और जलचरो को जाते हुए देखा है ? यदि देखा हो तो बतलाओ वे किस ओर गए हैं ? साधु इन प्रश्नों का कोई उत्तर न दे और मौन भाव से रहे, तथा उसके उक्त वचन को स्वीकार न करे, तथा जानता हुआ भी यह न कहे कि मैं जानता हूं। तथा व्यामानुयाम विचरते हुए साधु को मार्ग में वे पथिक यह पूछे कि आयुष्मन् श्रमण ! क्या आपने इस मार्ग में जल से उत्पन्न होने वाले कन्दमूल, त्वचा, पत्र, पुष्प, फल, बीज, हरित, एवं जल के स्थान और प्रज्वलित हुई अग्नि को देखा है तो बताओ कहां देखा है ? इसके उत्तर में भी साधु कुछ न कहे अर्थात् चुप रहे। तथा ईर्या समिति पूर्वक विहार चर्या में प्रवृत्त रहे और यदि यह पूछे कि इस मार्ग में धान्य और तृण-घांस कहां पर है ? तो इस प्रश्न के उत्तर में भी मौन रहे। यदि वे पूछे कि आयुष्मन् श्रमण ! यहां से ग्राम यावत् राजधानी कितनी दूर है ? तथा यहां से व्याम नगर यावत् राजधानी का मार्ग कितना शेष रहा है ? इन का भी उत्तर न दे तथा जानता हुआ भी मैं जानता हूं ऐसा न कहे, किन्तु मौन धारण करके ईर्यासमिति पूर्वक अपना रास्ता तय करे। IV टीका-अनुवाद : मार्ग में जाते हुए उस साधु को कोइक मुसाफिर ऐसा कहे कि- हे आयुष्मान् श्रमण ! क्या आपने मार्ग में आते हुए कोइ मनुष्य को देखा था ? इस प्रकार पुछते हुए उस मुसाफिर की मौन रहकर उपेक्षा करें... अथवा जानते हुए भी कहे कि- मैं नहि जानता... इत्यादि... तथा व्यामांतर जाते हुए उस साधु को मार्ग में सामने से आ रहा कोइक मुसाफिर पुछे तब जल में उत्पन्न हुए कंदमूलादि का स्वरुप न कहें... जानते हुए भी कहे कि- मैं नहि जानता हूं... इसी प्रकार यवस-धान्यादि सूत्र में भी जानीयेगा... तथा गांव आदि कितने दूर Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-3-3-3 (463) 297 है ? इत्यादि प्रश्न-सूत्र भी पूर्ववत् जानीयेगा... इसी प्रकार- कितना मार्ग है ? इत्यादि भी पूर्ववत् स्वयं हि जानीयेगा... v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- यदि विहार करते समय कोई पथिक पूछे कि हे मुनि ! आपने इधर से किसी मृग, गाय आदि पशु-पक्षी या मनुष्य आदि को जाते हुए देखा है ? इसी तरह जलचर एवं वनस्पतिकाय या अग्नि आदि के सम्बन्ध में भी पूछे और कहे कि यदि आपने इन्हें देखा है तो बताइए वे कहां हैं या किस ओर गए हैं ? उसके ऐसा पूछने पर साधु को मौन रहना चाहिए। क्योंकि, यदि साधु उसे उनका सही पता बता देता है तो उसके द्वारा उन प्राणियों की हिंसा होना सम्भव है। अतः पूर्ण अहिंसक साधु को प्राणीमात्र के हित की भावना को ध्यान में रखते हुए उस समय मौन रहना चाहिए। प्रस्तुत प्रसंग में प्रयुक्त 'जाणं वा नो जाणंति वइज्जा' के अर्थ में दो विचार-धाराएं हमारे सामने हैं। परन्तु, इस बात में सभी विचारक एकमत हैं कि साधु को ऐसी भाषा का बिल्कुल प्रयोग नहीं करना चाहिए, जिससे अनेक प्राणियों की हिंसा होती हो। इस दया भावना को ध्यान में रखते हुए वृत्तिकार उक्त पदों का यह अर्थ करते हैं- साधु जानते हुए भी यह कहे कि मैं नहीं जानता। इसमें साधु की भावना असत्य बोलने की नहीं, प्रत्युत उसकी उपेक्षा करके जीवों की रक्षा करने की भावना है। यह भी तो स्पष्ट है कि- प्रस्तुत प्रसंग में प्रयुक्त 'वा' शब्द अपि (भी) के अर्थ में व्यवहृत हुआ है और 'नो' शब्द 'वइज्जा' क्रिया से संबद्ध है। इस तरह इसका अर्थ हुआ कि . साधु जानते हुए भी यह नहीं कहे कि मैं जानता हूँ। आगमों में प्रायः 'नो' शब्द का क्रिया के साथ ही सम्बन्ध माना गया है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है- 'न सिणेहं कहिंचि कुव्वेज्जा' अर्थात् कहीं पर भी स्नेह न करे। इस सूत्र में 'न' का क्रिया के साथ ही सम्बन्ध माना गया है। इसके अतिरिक्त आगम में ऐसे अनेक स्थल हैं, जिनमें 'नो' शब्द को क्रिया के साथ ही सम्बद्ध माना है। इसलिए प्रस्तत प्रसंग में 'नो' शब्द को ‘वइज्जा' क्रिया से सम्बद्ध मानना ही युक्ति-युक्त प्रतीत होता है। यदि इस तरह से 'नो' शब्द को क्रिया के साथ जोड़कर अर्थ नहीं करेंगे तो फिर मौन रखने का कोई प्रयोजन नहीं रह जाएगा। फिर तो साधु सीधा ही यह कहकर आगे बढ़ जाएगा कि मैं नहीं जानता। परन्तु, आगम में जो मौन रखने को कहा गया है उससे यह स्पष्ट होता है कि साध को जानते हुए भी यह नहीं कहना चाहिए कि मैं नहीं जानता। साधु को जीवों की हिंसा एवं असत्य भाषा दोनों से बचना चाहिए। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 298 2-1-3-3-4 (464) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आगम में कहा गया है कि जिस भाषा के प्रयोग से जीवों की हिंसा होती हो वैसी सत्य भाषा भी साधु को नहीं बोलनी चाहिए। और यह भी बताया गया है कि साधु को सत्य एवं व्यवहार भाषा बोलनी चाहिए और मिश्र एवं असत्य भाषा का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। साधु दूसरे महाव्रत में असत्य भाषण का सर्वथा त्याग करता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि साधु को ऐसे प्रसंगों पर मौन रहना चाहिए। चाहे उस पर कितना भी कष्ट क्यों न आए, फिर भी जानते हुए भी उसे यह नहीं कहना चाहिए कि मैं जानता हूं और झूठ भी नहीं बोलना चाहिए। इसी विषय को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 4 // // 464 // से भिक्खू वा० गामा० दू० अंतरा से गोणं वियालं पडिवहे पेहाए जाव चित्तचिल्लडं वियालं पडि० पेहाए नो तेसिं भीओ उम्मग्गेणं गच्छिज्जा, नो मग्गाओ उम्मग्गं संकमिज्जा, नो गहणं वा वणं वा दुग्गं वा अणुपविसिज्जा, नो रुक्खंसि वा दूरुहिज्जा, नो महइमहालयंसि उदयंसि कायं विउसिज्जा, नो वाडं वा सरणं वा सेणं वा सत्थं वा कंखिज्जा, अप्पुस्सुए जाव समाहीए तओ संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जिज्जा। से भिक्खू वा० गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से विहं सिंया, से जं पुण विहं जाणिज्जा इमंसि खलु विहंसि बहवे आमोसगा उवगरणपडियाए संपिंडिया गच्छिज्ज, नो तेसिं भीओ उम्मग्गेण गच्छिज्जा जाव समाहीए, तओ संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जिज्जा // 464 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० ग्रामानुग्रामं गच्छन् अन्तरा तस्य गां वा व्यालं वा प्रतिपथि प्रेक्ष्य यावत् चित्तकं तदपत्यं वा व्यालं प्रेक्ष्य न तेभ्यः भीत: उन्मार्गेण गच्छेत्, न मार्गात् उन्मार्गं सङ्क्रामेत्, न गहनं वा वनं वा दुग्णं वा अनुप्रविशेत्, न वृक्षं दूरुहेत्, न महति-महालये उदके कायां प्रविशेत्, न वृत्तिं वा शरणं वा सेनां वा शस्त्रं वा काक्षेत, अल्पोत्सुक: यावत् समाधिना तत: संयतः एव ग्रामानुग्रामं गच्छेत् / स: भिक्षुः वा० ग्रामानुग्रामं गच्छन् अन्तरा तस्य अटवीप्राय: दीर्घोऽध्वा स्यात् सः तं पुन: अध्वानं जानीयात्- अस्मिन् खलु अध्वनि बहवः आमोषका: उपकरण-प्रतिज्ञया संपिण्डिताः गच्छेयुः, न तेभ्य: भीत: उन्मार्गेण गच्छेत् यावत् समाधिना, ततः संयतः एव ग्रामानुग्रामं गच्छेत् // 464 // Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-3-3-4 (464) 299 III सूत्रार्थ : संयमशील साधु अथवा साध्वी को यामानुग्राम विहार करते हुए मार्ग में यदि मदोन्मत्त वृषभ-बैल या विषैले सांप या चीते आदि हिंसक जीवों का साक्षात्कार हो तो उसे देखकर साधु को भयभीत नहीं होना चाहिए तथा उनसे डरकर उन्मार्ग में गमन नहीं करना चाहिए और मार्ग से उन्मार्ग का संक्रमण भी नहीं कस्ना चाहिए। और गहन वन एवं विषम स्थान में भी साधु प्रवेश न करे, एवं न विस्तृत और गहरे जल में ही प्रवेश करे और न वृक्ष पर ही चढ़े। इसी प्रकार वह सेना और अन्य साथियों का आश्रय भी न ढूंढे, किन्तु राग-द्वेष से रहित होकर यावत् समाधिपूर्वक ग्रामानुयाम विहार करे। यदि साधु या साध्वी को विहार करते हुए मार्ग में अटवी आ जाए तो साधु उसको जानले, जैसे कि अटवी में चोर होते हैं और वे साधु के उपकरण लेने के लिए इकट्ठे होकर आते हैं, यदि अटवी में चोर एकत्रित होकर आएं तो साधु उनसे भयभीत न हो तथा उनसे डरकर उन्मार्ग की ओर न जाए किन्तु राग-द्वेष से रहित होकर यावत् समाधिपूर्वक ग्रामानुग्राम विहार करने में प्रवृत्त रहे। IV टीका-अनुवाद : ___ एक गांव से दूसरे गांव में जाते हुए साधु को जब मार्ग में मदोन्मत्त बैल देखने में आवे... या क्रूर सिंह, वाघ, चित्ता या उनके बच्चे दीखे तब उनके भय से मार्ग को छोडकर उन्मार्ग से न जावें... तथा गहन वनराजी में भी प्रवेश न करें... तथा वृक्ष आदि के उपर भी न चढ़े और जल में भी प्रवेश न करें तथा अन्य कोई शरण याने आश्रय को भी न ढूंढे... न चाहें... किंतु उत्सुकता को छोडकर शांत मनवाला होकर संयमी होकर हि मार्ग में चलें... यह बात गच्छ-निर्गत याने जिन-कल्पवालों के लिये है... और जो गच्छवास में रहते हैं वे स्थविर कल्पवाले तो मदोन्मत्त क्रूर बैल आदि का दूर से हि त्याग करें... तथा व्यामांतर की और जाते हुए उन साधुओं को मार्ग में यदि अटवी जैसा लंबा मार्ग आवे, और वहां लुटेरे-चौर वस्त्रादि उपकरण लुटने के लिये आवें, तब उनके भय से साधु उन्मार्ग में न जावें... इत्यादि... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में साधु की निर्भयता के सर्वोत्कृष्ट स्वरूप का वर्णन किया गया है। इसमें . बताया गया है कि यदि साधु को रास्ते में उन्मत्त बैल, शेर आदि हिंसक प्राणी मिल जाएं या कभी मार्ग भूल जाने के कारण भयंकर अटवी में गए हुए साधु को चोर, डाकू आदि मिल जाएं तो मुनि को उनसे भयभीत होकर इधर-उधर उन्मार्ग पर नहीं जाना चाहिए, न वृक्ष पर Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 300 2-1-3-3-5 (465) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन चढ़ना चाहिए और न विस्तृत एवं गहरे पानी में प्रवेश करना चाहिए, परन्तु राग-द्वेष से रहित होकर अपने मार्ग पर चलते रहना चाहिए। प्रस्तुत प्रसंग साधु की साधुता की उत्कृष्ट साधना का परिचायक है। वह अभय का देवता न किसी को भय देता है और न किसी से भयभीत होता है। क्योंकि, प्राणी जगत को अभयदान देने वाला साधक कभी भय ग्रस्त नहीं होता। भय उसी प्राणी के मन में पनपता है, जो दूसरों को भय देता है या जिसकी साधना में, अहिंसा में अभी पूर्णता नहीं आई है। क्योंकि, भय एवं अहिंसा का परस्पर विरोध है। मानव जीवन में जितना-जितना अहिंसा का विकास होता है उतना ही भय का ह्रास होता है और जब जीवन में पूर्ण अहिंसा साकार रूप में प्रकट हो जाती है तो भय का भी पूर्णतः नाश हो जाता है। अहिंसा निर्भयता की निशानी है। ___ यह वर्णन पूर्ण अहिंसक साधक को ध्यान में रखकर किया गया है। सामान्यतः सभी साधु हिंसा के त्यागी होते हैं, फिर भी सबकी साधना के स्तर में कुछ अन्तर रहता है। सब के जीवन का समान रूप से विकास नहीं होता। इसी अपेक्षा से वृत्तिकार ने प्रस्तुत सत्र को जिनकल्पी मुनि की साधना के लिए बताया है। क्योंकि स्थविर कल्पी मुनि की यदि कभी समाधि भंग होती हो तो हिंसक जीवों से युक्त मार्ग का त्याग करके अन्य मार्ग से भी आजा सकता है। आगम में भी लिखा है कि यदि मार्ग में हिंसक प्राणी बैठे हों या घूम-फिर रहे हों तो मुनि को वह मार्ग छोड़ देना चाहिए। वृत्तिकार ने प्रस्तुत सूत्र जो जिनकल्पी मुनि से सम्बद्ध बताया है। हिंसक प्राणियों से भयभीत न होने के प्रसंग में तो यह युक्ति संगत प्रतीत होता है। परन्तु, अटवी में चोरों द्वारा उपकरण छीनने के प्रसंग में जिनकल्पी की कल्पना कैसे घटित होगी ? क्योंकि उनके पास वस्त्र एवं पात्र आदि तो होते ही नहीं, अतः उनके लूटने का प्रसंग ही उपस्थित नहीं होगा। इसका समाधान यह है कि आचाराङ्ग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध में सूत्रकार ने एक, दो और तीन चादर रखने वाले जिनकल्पी मुनि का भी वर्णन किया है, अतः कुछ जिनकल्पी मुनियों के उत्कृष्ट 12 उपकरण स्वीकार किए है। अतः इस दृष्टि से इस साधना को जिनकल्पी मुनि की साधना मानना युक्ति संगत ही प्रतीत होता है। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 5 // // 465 // से भिक्खू वा० गामा० दू० अंतरा से आमोसगा संपिंडिया गच्छिज्जा, ते णं आमोसगा एवं वइज्जा-आउसंतो ! समणा ! आहर एवं वत्थं वा, देहि निविखवाहि, तं Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-3-3-5 (465) 301 नो दिज्जा निविखविज्जा, नो वंदिय जाइज्जा, नो अंजलिं कट्ट जाइज्जा, नो कलुणपडियाए जाइज्जा, धम्मियाए जायणाए जाइज्जा, तुसिणीयभावेण वा ते णं आमोसगा सयं करणिज्जं ति कट्ट अक्कोसंति वा जाव उद्दविंति वा वत्थं वा अच्छिंदिज्ज वा जाव परिढविज्ज वा, तं नो गामसंसारियं कुज्जा, नो रायसंसारियं कुज्जा, नो परं उवसंकमित्तु बूया-आउसंतो ! गाहावई ! एए खलु आमोसगा उवगरण पडियाए सयं करणिज्जं ति कट्ठ अक्कोसंति वा जाव परिद्ववंति वा, एयप्पगारं मणं वा वायं वा नो पुरओ कट्ट विहरिज्जा, अप्पुस्सुए जाव समाहीए, तओ संजयामेव गामा० दूइ०। एयं खलु० सया जइ० तिबेमि // 45 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा ग्रामानुग्रामं गच्छन् अन्तरा तस्य आमोषका: संपिण्डिताः गच्छेयुः, ते एवं वदेयुः- हे आयुष्मन् श्रमण ! आहर एतत् वस्त्रं वा देहि, निक्षिप, तं न दद्यात्, निक्षिपेत्, न वन्दि त्वा (दीनं वा), याचेत, न अञ्जलीं कृत्वा याचेत, न करुण प्रतिज्ञया याचेत, धार्मिकया याचनया याचेत तूष्णीकभावेन वा ते आमोषकाः स्वयं करणीयं इति कृत्वा आक्रोशन्ति वा यावत् उपद्रवयन्ति, वा, वसं वा, आच्छिन्द्युः यावत् प्रतिष्ठापयेयुः वा, तं न ग्राम संसारणीयं कुर्यात्, न राजसंसारणीयं कुर्यात्, न परं उपसङ्क्रम्य ब्रूयात्हे आयुष्मन् ! गृहपते ! एते खलु आमोषका: उपकरणप्रतिज्ञया स्वकरणीयं इति कृत्वा आक्रोशन्ति वा यावत् अपद्रावयन्ति, वा, वसं वा, आच्छिन्द्यात् वा यावत् परिष्ठापयेत् वा, एतत् प्रकारं मन: वा वाचं वा न पुरतः कृत्वा विहरेत्, अल्पोत्सुकः यावत् समाधिना, ततः संयतः एव ग्रामानुग्रामं गच्छेत् / एतत् खलु० सदा यतेत इति ब्रवीमि // 465 // III सूत्रार्थ : संयमशील साधु अथवा साध्वी को यामानुयाम विहार करते हुए यदि मार्ग में बहुत से चोर मिलें और वे कहें कि- आयुष्मन् श्रमण ! यह वस्त्र, पात्र और कंबल आदि हमको दे दो या यहां पर रख दो। तो साधु वे वस्त्र, पात्रादि उनको न देवे, किन्तु भूमि पर रख दे, परन्तु उन्हें वापिस प्राप्त करने के लिए मुनि उनकी स्तुति करके, हाथ जोड़ कर या दीन वचन कह कर उन वस्त्रादि की याचना न करे अर्थात् उन्हें वापिस देने को न कहे। तथा यदि मांगना हो तो उन्हें धर्म का मार्ग समझाकर मांगे अथवा मौन रहे। वे चोर अपने चोर के कर्तव्य को जानकर साधु को मारे-पीटें या उसका वध करने का प्रयत्न करें और उसके वस्त्रादि को छीन लें, फाड़ डालें या फैंक दें तो भी वह भिक्षु ग्राम में जाकर लोगों से न कहे और न राजा से ही कहे एवं किसी अन्य गृहस्थ के पास जाकर भी यह न कहे कि आयुष्मन् गृहस्थ ! इन चोरों ने मेरे उपकरणादि को छीनने के लिए मझे मारा है और उपकरणादि को दूर फेंक दिया Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 302 2-1-3-3-5 (465) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन है। ऐसे विचारों को साधु मन में भी न लाए और न वचन से उन्हें अभिव्यक्त करे। किन्तु राग-द्वेष से रहित हो कर समभाव से समाधि में रहकर ग्रामानुयाम विचरे। यही मुनि का 'यथार्थ साधुत्व-साधु भाव है। इस प्रकार मैं कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : वह साधु जब एक गांव से दूसरे गांव में जा रहे हो तब मार्ग में यदि कोइ चौर वस्त्रादि उपकरण मांगे, तब वे वस्त्रादि उन्हें न दें... यदि वे बल से लुटने की कोशीश करे तब साधु व वस्त्रादि भूमी के उपर फेंक दें... किंतु इस परिस्थिति में लुटे हुए उपकरणों की याचना दीन भाव से न करें, किंतु गच्छगत याने स्थविर कल्पवाला साधु चौरों को धर्मकथा कहने के द्वारा वस्त्रादि की याचना करें, या मौन रहकर हि उपेक्षा करें... तथा वे चौर यह अपना कर्तव्य है ऐसा मानकर इस प्रकार करे... जैसे कि- वाणी से आक्रोश करे... तथा दंड याने लकडी से ताडन (मार मारें) करें या इस जीवन का अंत करे याने मार डाले, अथवा वस्त्रादि लुट लेवें... इतने में साधु वहिं वस्त्रादि का त्याग करें... तथा उन लेंटेरों की वह लुटने की चेष्टा (बात) गांव में किसी को न कहें... तथा राजकुलादि में भी न कहें, तथा अन्य गृहस्थ के पास जाकर भी वह साधु चौरों की चेष्टा न कहें, एवं इस प्रकार का मन एवं वाणी का संकल्प भी न करें... किंतु अन्य क्षेत्र की और विहार करें... क्योंकि- ऐसा आचरण करने में हि उस साधु का साधुपना है... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में भी अनंतरोक्त सूत्र की तरह साधु की निर्भयता एवं सहिष्णुता पर प्रकाश डाला गया है। इसमें बताया गया है कि विहार करते समय यदि रास्ते में कोई चोर मिल जाए और वह मुनि से कहे कि तू अपने उपकरण हमें दे दे या जमीन पर रख दे। तो मुनि शम भाव से अपने वस्त्र पात्र आदि जमीन पर रख दे। परन्तु, उन्हें वापिस प्राप्त करने के लिए उन चोरों से याचना न करे, न उनके सामने दीन वचन ही बोले / यदि बोलना उचित समझे तो उन्हें धर्म का मार्ग दिखाकर उन्हें पापकर्मो से बचाए, अन्यथा मौन रहे। इसके अतिरिक्त यदि कोई चोर साधु से वस्त्र आदि ग्रहण करने के लिए उसे मारे-पीटे या उसका वध करने का प्रयत्न भी करे या उसके सभी उपकरण भी छीन ले या उन्हें तोड़-फोड़ कर दूर फैंक दे, तब भी मुनि उस पर राग-द्वेष न करता हुआ समभाव से गांव में आ जाए। गांव में आकर भी वह यह बात किसी भी गृहस्थ, अधिकारी या राजा आदि से न कहे। और न इस सम्बन्ध में किसी तरह का मानसिक चिन्तन ही करे। वह मुनि मन, वचन और काया से उस से (चोर से) किसी भी तरह का प्रतिशोध लेने का प्रयत्न न करे। इस सूत्र में साधुता के महान् उज्जवल रूप को चित्रित किया गया है। अपना अपकार Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-3-3-5 (465) 303 करने वाले व्यक्ति का कभी बुरा नहीं चाहना एवं उसे कष्ट में डालने का प्रयत्न नहीं करना, यह आत्मा की महानता को प्रकट करता है। यह आत्मा के विकास की उत्कृष्ट श्रेणी है जहां पर पहुंच कर मानव अपने वधक-शत्रु के प्रति भी द्वेष भाव नहीं रखता। वह मुनि मारने एवं सेवा करने वाले दोनों पर समभाव रखता है, दोनों को मित्र समझता है और दोनों का हित चाहता है। यही साधुचर्या आत्मा से परमात्मा पद को प्राप्त करने की या साधक से सिद्ध बनने की श्रेणी है। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें। // प्रथमचूलिकायां तृतीय-ईर्याध्ययने तृतीयः उद्देशकः समाप्तः // || समाप्तं तृतीयमध्ययनम् // 卐卐卐 : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य थधुंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन . श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट -परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. "श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. // राजेन्द्र सं. ९६.卐 विक्रम सं. 2058. Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 304 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 1 .. ____ अध्ययन - 4 उद्देशक - 1 卐 भाषा-जातम् // तीसरा अध्ययन कहा, अब चौथे अध्ययन का प्रारंभ करतें हैं... यहां परस्पर यह संबंध है कि- पिंड की विशुद्धि के लिये गमन (जाने की) विधि कही अब वहां मार्ग में चलते चलते कौन सी बाते बोलना और कोन सी बातें न बोलना इत्यादि कहेंगे... अतः इस प्रकार के संबंध से आये हुए इस चौथे अध्ययन का चार अनुयोग द्वार होतें हैं... उनमें निक्षेप नियुक्ति-अनुगम में भाषा-जात शब्दों का निक्षेपार्थ स्वयं नियुक्तिकार हि कहतें हैं... नि. 316 जिस प्रकार वाक्यशुद्धि अध्ययन में वाक्य के निक्षेप कीये है, उसी प्रकार भाषा के भी निक्षेप करने चाहिये... “जात" शब्द का छह निक्षेप इस प्रकार होतें है... 1. नाम जात, 2. स्थापना जात, 3. द्रव्य जात, 4. क्षेत्र जात, 5. काल जात, 6. भाव जात... उनमें नाम एवं स्थापना सुगम है... तथा द्रव्य जात के दो भेद हैं... 1. आगम से द्रव्य जात 2. नो आगम से द्रव्य जात... उनमें तद्व्यतिरिक्त नो आगम से द्रव्य जात के चार भेद होतें है 1. उत्पत्ति द्रव्य जात, 2. पर्यवजात, 3. अंतर जात, 4. ग्रहण जात... उनमें उत्पत्ति जात याने जो द्रव्य भाषा-वर्गणा के है, उन्हें काययोग के द्वारा ग्रहण करके वाणी-भाषा स्वरुप परिणाम उत्पन्न होना... अर्थात् जो द्रव्य भाषा स्वरुप उत्पन्न हुए वह उत्पत्ति-जात-द्रव्य नो आगम से... तथा (2) पर्यवजात याने वाणी-भाषा स्वरुप उत्पन्न हुए भाषा-द्रव्य से विश्रेणि में जो भाषा-वर्गणा के पुद्गल हैं, वे, उत्पन्न हुए भाषा-द्रव्य के पराघातसे भाषा-पर्यायत्व रुप उत्पन्न होते है... तथा (3) अंतरजात याने अंतराल मार्ग में हि समश्रेणि में रहे हुए भाषा-वर्गणा के पुद्गल उत्पन्न हुए भाषा द्रव्य से मिश्रित होकर भाषा-परिणाम को पातें हैं वे अंतरजात... तथा (4) ग्रहण जात याने समश्रेणि या विश्रेणिमें जो कोइ भाषा-वर्गणा के पुद्गल हैं, वे भाषा-परिणाम पाकर कर्ण-कान के छिद्र में प्रवेश करते हैं और पंचेंद्रिय जीव उन्हें ग्रहण करतें हैं वे यहणजात... इस प्रकार द्रव्य जात कहा, अब क्षेत्रादि जात का प्रसंग है, किंतु सुगम होने के कारण से नियुक्तिकार ने उनकी व्याख्या नहि की है... किंतु टीकाकार संक्षेप में उनका स्वरुप कहतें हैं... क्षेत्रजात याने जिस क्षेत्र में भाषा-जात का वर्णन कीया जाय वह क्षेत्र या जितने प्रमाण क्षेत्र में भाषा-जात फैल कर रहे या स्पर्श करके रहे वह क्षेत्र जात... इसी प्रकार काल-जात जानीयेगा... तथा भावजात याने उत्पत्ति-पर्यव-अंतर एवं ग्रहण जात द्रव्य जब श्रोता (सुननेवाले) Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-4-1-1 (466) 305 के कर्ण याने कान में प्रवेश करके “यह शब्द है" ऐसी जो बुद्धि याने समझ (ज्ञान) उत्पन्न हो वह भाव जात... किंतु यहां इन छह में से द्रव्यभाषा-जात का अधिकार है... यहां द्रव्य की प्रधान विवक्षा के द्वारा हि भाव की सिद्धि होती है... क्योंकि- द्रव्य की विशिष्ट अवस्था हि भाव है... अतः भाव-भाषा-जात का भी यहां अधिकार है... अब उद्देशार्थाधिकार के लिये कहतें हैं इस चौथे अध्ययन के दो उद्देशक हैं... यद्यपि दो उद्देशकों में वचन-भाषा को विशुद्धि करनेवाले हैं... तो भी परस्पर इतना विशेष है कि- पहले उद्देशक में वचन की विभक्ति याने एकवचन आदि सोलह प्रकार के वचन विभाग है, उनमें कैसे वचन बोलने चाहिये और कैसे वचन न बोलें इत्यादि वर्णन कीया जाएगा... तथा दुसरे उद्देशक में कहेंगे कि- जिस वचन से क्रोध आदि की उत्पत्ति न हो ऐसे वचन (भाषा) बोलने चाहिये.... अब सूत्रानुगम में अस्खलित आदि गुण सहित सूत्र का उच्चार करना चाहिये और प्रथम उद्देशक का यह प्रथम सूत्र है... / सूत्र // 1 // // 466 || से भिक्खू वा, इमाई वयायाराई सुच्चा निसम्म इमाइं अणायाराई अणारियपुव्वाइं जाणिज्जा- जे कोहा वा वायं विउंजंति, जे माणा वा० जे मायाए वाo जे लोभा वा वायं विउंजंति, जाणओ वा फरुसं वयंति, अजाणओ वा फ० सव्वं चेयं सावज्जं वज्जिज्जा विवेगमायाए, धुवं चेयं जाणिज्जा, अधुवं चेयं जाणिज्जा, असणं वा लभिय नो लभिय, भुंजिय नो भुंजिय, अदुवा आगओ अदुवा नो आगओ, अदुवा एइ अदुवा नो एइ, अदुवा एहिड़ अदुवा नो एहिड़, इत्थ वि आगए इत्थ वि नो आगए, इत्थ वि एइ, इत्थ वि नो एति, इत्थ वि एहिति इत्थ वि नो एहिति। अणुवीड़ निट्ठाभासी समियाए संजए भासं भासिज्जा, तं जहा- एगवयणं 1. दुवयणं, 2. 3. बहुवयणं, 4. इत्थिवयणं, 5. पुरिसवयणं, 6. नपुंसगवयणं, 7. अज्झत्थवयणं, 8. उवणीयवयणं, 9. अवणीयवयणं, 10. उवणीय-अवणीयवयणं, 11. अवणीय-उवणीयवयणं, 12. तीयवयणं, 13. पडुप्पण्णवयणं, 14. अणागयवयणं, 15. पच्चक्खवयणं, 16. परुक्खवयणं... से एवगयणं वइस्सामीति एगवयणं वइज्जा जाव परुक्खवयणं वइस्सामीति परुक्खवयणं वइज्जा, इत्थी वेस, पुरिसो वेस, नपुंसगं वेस, एयं वा चेयं अण्णं वा चेयं अणुवीड़ निट्ठाभासी समियाए संजए भासं भासिज्जा, इच्चेयाई आययणाइं उवातिकम्म, इह भिक्खू जाणिज्जा चत्तारि भासज्जायाई, तं जहा-१. सच्चमेगं पढमं भासज्जायं... 2. बीयं मोसं, 3. तईयं सच्चामोसं... 4. जं नेव सच्चं नेव मोसं नेव Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 306 2-1-4-1-1 (466) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन सच्चामोसं, असच्चामोसं नाम तं चउत्थं भासज्जायं / से बेमि जे अईया, जे य पडुप्पण्णा जे अणागया अरहंता भगवंतो सव्वे ते एयाणि चेव चत्तारि भासज्जायाई भासिंसु वा भासंति वा भासिस्संति वा, पण्णविंसु वा सव्वाइं च णं एयाई अचित्ताणि वण्णमंताणि गंधमंताणि रसमंताणि फासमंताणि चओवचइयाई विप्परिणामधम्माइं भवंतीति अक्खायाइं // 466 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० इमान् वाग्-आचारान् श्रुत्वा निशम्य इमान् अनाचारान् अनाचीर्ण (अनार्य) पूर्वान् जानीयात्- ये क्रोधात् वा वाचं वियुञ्जन्ति, ये मानात् वा० ये मायया वा० लोभात् वा वाचं वियुञ्जन्ति (भाषन्ते) ये जानानाः वा परुषं वदन्ति, अजानाना: वा परुषं वदन्ति, सर्वं चैतत् सावधं वर्जयेत् विवेकं आदाय। ध्रुवं चैतत् जानीयात् अधुवं चैतत् जानीयात्, अशनं वा, लब्ध्वा, न लब्ध्वा, भुक्त्वा न भुक्त्वा, अथवा आगतः अथवा न आगतः, अथवा एति अथवा न एति, अथवा एष्यति अथवा न एष्यति, अत्र अपि आगतः, अत्रापि न आगतः, अत्रापि एति अत्रापि न एति, अत्रापि एष्यति अत्रापि न एष्यति। अनुविचिन्त्य निष्ठाभाषी समित्या संयत: भाषां भाषेत, तद्-यथा- 1. एकवचनं, 2. द्विवचनं, 3. बहुवचनं, 4. स्त्रीवचनं, 5. पुरुषवचनं, 6. नपुंसकवचनं, 7. अध्यात्मवचनं, 8. उपनीतवचनं, 9. अपनीतवचनं, 10. उपनीतअपनीतवचनं, 11. अपनीत-उपनीतवचनं, 12. अतीतवचनं, 13. प्रत्युत्पन्नवचनं, 14. अनागतवचनं, 15. प्रत्यक्षवचनं, 16. परोक्षवचनम् / सः एकवचनं वदिष्यामीति एकवचनं वदेत् यावत् परोक्षवचनं वदिष्यामीति परोक्षवचनं वदेत्, स्त्री वा एषा, पुरुषः वा एषः नपुंसकं वा एतत्, एवं वा च एतत्, अन्यं वा चैतत्, अनुविचिन्त्य निष्ठाभाषी समित्या संयत: भाषां भाषेत / इत्येतानि आयतनानि उपातिक्रम्य, अथ भिक्षु: जानीयात् चात्वारि भाषा-जातानि, तद्यथा- 1. सत्यं एकं प्रथमं भाषा-जातम् / 2. द्वितीया मृषा... 3. तृतीया भाषा सत्यामृषा, 4. यत् नैव सत्यं नैव मृषा नैव सत्यामृषा, असत्यामृषा नाम सा चतुर्थी भाषा। सः अहं ब्रवीमि- ये अतीता: ये च प्रत्युत्पन्ना: ये च अनागता: अर्हन्तः भगवन्तः, सर्वे ते एतानि चैव चत्वारि भाषाजातानि भाषितानि वा भाषन्ते वा भाषिष्यन्ति वा, प्रज्ञापितानि वा प्रज्ञापयन्ति वा प्रज्ञापयिष्यन्ति वा, सर्वाणि च एतानि अचित्तानि वर्णवन्ति गन्धवन्ति रसवन्ति स्पर्शवन्ति चयोपचयिकानि विपरिणामधर्माणि भवन्तीति आख्यातानि // 466 | III सूत्रार्थ : संयमशील साधु और साध्वी वचन के आचार को सुन कर और हृदय में धारण करके Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-4-1-1 (466) 307 वचन के अनाचार को (जिनका पूर्व के मुनियों ने आचरण नहीं किया) जानने का प्रयत्न करे। जो मुनि क्रोध, मान, माया और लोभ से वचन बोलते हैं अर्थात् इनके वशीभूत, होकर भाषण करते हैं, तथा जो किसी के दोष को जानते हुए अथवा न जानते हुए भी उसके मर्म को उद्घाटन करने के लिए कठोर वचन बोलते हैं ऐसी भाषा सावध है अतः विवेकशील साधु इसे छोड़ दे। और वह साधु निश्चयात्मक भाषा भी न बोले, जैसे कि- कल अवश्य वर्षा होगी, अथवा नहीं होगी। यदि कोई साधु आहार के लिए मया हो, तब अन्य साधु उसके लिए ऐसा न कहे किवह साधु अशनादि चतुर्विध आहार अवश्य लेकर आएगा, अथवा बिना लिये ही आएगा। यदि किसी साधु को भिक्षार्थ गये हुए किसी कारण से कुछ विलम्ब हो गया हो, तो संयमशील साधु अन्य साधुओं के प्रति इस प्रकार भी न कहे कि वह साधु-जोकि भिक्षा के लिए गया हुआ है, वहां पर भोजन करके आएगा अथवा आहार किए बिना ही आएगा। इस तरह भूतकाल की किसी बात का जब तक निश्चय न हो जाए तब तक निश्चयात्मक वचन न बोले जैसे कि- राजा अवश्य आया था, अथवा (वर्तमानकाल में) आता है अथवा (भविष्यत् काल में) अवश्य आएगा, अथवा तीनों काल में न आया था, न आता हैं और न आएगा, इस प्रकार के निश्चयात्मक वचन भी न बोले। जिस प्रकार काल के विषय में कहा गया है उसी प्रकार क्षेत्र के विषय में भी समझना चाहिए। यथा भूतकाल में अमुक व्यक्ति नगरा नहीं आया था, इसी प्रकार अमुक व्यक्ति आता है या नहीं आता है, और अमुक व्यक्ति अमुक नगरादि में आएगा अथवा नहीं आएगा। तात्पर्य कि जिस विषय में वस्तु तत्त्व का पूर्णतया निश्चय न हो उसके विषय में निश्चयात्मक वचन साधु को नहीं बोलना चाहिए। अतः विचार पूर्वक निश्चय करके भाषा समिति से समित हआ साध, भाषा का व्यवहार करे अर्थात भाषा समिति का ध्यान रखता हुआ संयत भाषा में बोले। एक वचन, द्विवचन और बहुवचन, तथा * 'स्त्रीलिंग वचन, पुरुष लिंग वचन और नपुंसक लिंग वचन, एवं अध्यात्म वचन प्रसंशा युक्त वचन, निन्दायुक्त वचन, निन्दा और प्रशंसा युक्त वचन, भूतकाल सम्बन्धि वचन, वर्तमानकाल सम्बन्धि वचन और भविष्यत काल सम्बन्धि वचन, तथा प्रत्यक्ष और परोक्ष वचन आदि को भली भांति जानकर बोले। यदि उसे एक वचन बोलना हो तो वह एक वचन बोले यावत् परोक्ष वचन पर्यन्त जिस वचन को बोलना हो उसी को बोले। तथा स्त्रीवेद, पुरुष वेद और नपुंसद वेद अथवा स्त्रीपुरुष और नपुंसक वेद या जब तक निश्चय न हो, तब तक निश्चयात्मक वचन न बोले, जैसेकि- यह स्त्री ही है इत्यादि 2. अतः विचार पूर्वक भाषा समिति से युक्त हुआ साधु भाषा के दोषों को त्यागकर संभाषण करे। साधु को भाषा के चारों भेदों को भी जानना चाहिये, सत्य भाषा 2. मृषा-असत्य भाषा, 3. मिश्र भाषा और 4. असत्यामृषा- जो न सत्य है, न असत्य और न सत्यासत्य किन्तु असत्यामृषा या व्यवहार भाषा के नाम से प्रसिद्ध है। जो कुछ मैं कहता हूं- भूतकाल में जो अनन्त तीर्थकर हो चुके हैं और वर्तमान काल में जो तीर्थंकर हैं, तथा भविष्यित् काल में Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 308 2-1-4-1-1 (466) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन जो तीर्थकर होंगे, उन सब ने इसी प्रकार से चार तरह की भाषा का वर्णन किया है, करते हैं और करेंगे। तथा ये सब भाषा के पुद्गल अचित्त हैं, तथा वर्ण, गंध, रस और स्पर्श वाले हैं, तथा उपचय और अपचय अर्थात् मिलने और विछुड़ने वाले एवं विविध प्रकार के परिणामों को धारण करने वाले होते हैं। ऐसा सर्वज्ञ और सर्वदर्शी तीर्थकर देवों ने प्रतिपादन किया है। IV टीका-अनुवाद : इदम्-सर्वनाम प्रत्यक्ष एवं समीप का वाचक होने से यह अंतःकरण (मन) से उत्पन्न हुए वाणी-उच्चार सुनकर एवं समझकर वह भावसाधु भाषा-समिति के द्वारा हि वचन बोलें... तथा पूर्व के साधुओं ने नहि बोले हुए ऐसे अनुचित वचन साधु कभी भी न बोलें... वे इस प्रकारजैसे कि- कितनेक लोग क्रोध से बोलतें हैं कि- "तु चोर है, तुं दास-नौकर है" इत्यादि... तथा कितनेक लोग मान-अभिमान से बोलतें हैं कि- में उत्तम-जातिवाला हुं और तुं तो हीनअधम जातिवाला है इत्यादि... तथा कितनेक लोग माया से बोलतें हैं कि- आज मैं बहोत हि बिमार (अस्वस्थ) हुं, अथवा इस प्रकार या अन्य जुठा समाचार कोइ भी कपट-उपाय से कहतें हैं, और बाद में क्षमा याचना करके कहतें हैं कि- एका एक- सहसा यह ऐसा मुझ से बोला गया है... इत्यादि... तथा लोभ से कहे कि- “आज इन्हों ने मुझे कहा है, अतः मैं आज कुछ भी लाभ प्राप्त करुंगा' इत्यादि... तथा किसी के दोष-क्षति को जाननेवाले लोग उनके दोषों को प्रगट करते हुए कठोर-भाषा बोलतें हैं... अथवा तो नहिं जानते हुए भी जुठे आल (आरोप) चढाकर कठोर वचन बोलतें हैं... यह सभी क्रोध आदि से बोले जानेवाले वचन सावध याने पाप या निंदा स्वरुप है अतः ऐसे सावध = पापवाले वचनों का साधु विवेक के साथ त्याग करें... अर्थात् साधु विवेकी बनकर सावध वचनों का त्याग करें... तथा किसी के साथ वार्तालाप करते करते कभी भी सावधारण याने "जकार" वाले वचन न बोलें जैसे कि- आज निश्चित हि वृष्टि = बरसात इत्यादि होगा हि... या नहि होगा... इत्यादि... अथवा कोडक साध भिक्षा के लिये गहस्थों के घर में गये हो. और देर से भी नहि आने पर अन्य साधु ऐसा कहे कि- इस आहारादि को हम वापर लें वह साधु तो निश्चित हि आहारादि लेकर हि आएगा... अथवा ऐसा कहे कि- यदि आप उनके लिये कुछ आहारादि रखेंगे तो वह निश्चित हि आहारादि लेकर नहि आएगा... अथवा वहीं पर हि भोजन करके आएगा... या बिना भोजन किये हि आएगा... इत्यादि "निश्चित" प्रकार के वचन न बोलें... तथा और भी इस प्रकार की “जकार" वाली बात न कहें जैसे कि- कोइक राजा आदि आये हुए हैं... या... नहि आये हैं... तथा आ रहें हैं, या नहि आतें हैं... या आएंगे... या नहि आएंगे... इसी प्रकार नगर एवं मठ (वसति) आदि विषय में भी भूतकाल, वर्तमानकाल एवं भविष्यकाल संबंधित बात को स्वयं हि समझीयेगा... यहां सारांश यह है कि- जिस बात को जब तक अच्छी तरह से ठीक नहि जानतें तब तक- "यह ऐसा हि है" इत्यादि न बोलें... Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-4-1-1 (466) 309 अब समान्य से साधु सभी जगह इस प्रकार उपदेश दें अर्थात् बोलें... कि- साधु अच्छी तरह से विचार करके या शास्त्र के माध्यम से प्रयोजन (कारण) होने पर हि निष्ठाभाषी याने सावधारण (जकार) वाली भाषा भाषासमिति के माध्यम से या समभाव अर्थात् राग एवं द्वेष का त्याग करते हुए इस सोलह प्रकार की भाषा की विधि को जानकर उचित वचन बोलें... वह इस प्रकार- एक वृक्ष को कहे कि- वृक्षः दो वृक्ष को कहे कि- वृक्षौ और तीन या तीन से अधिक वक्षों को कहे कि- वक्षाः सन्ति... इत्यादि... तथा स्त्रीलिंग वाचक शब्द- कन्या. वीणा इत्यादि... पुंलिंग वाचक शब्द- घटः पटः इत्यादि तथा नपुंसकलिंग वाचक शब्द- पीठं देवकुलं इत्यादि तथा अध्यात्मवचन- आत्मा के अंदर जो है वह अध्यात्म याने हृदयगत बात... यदि ऐसा न हो और अन्य कुछ बोले तब सहसा याने अनुपयोग से बोले हुए वचन जानीयेगा... ___ तथा उपनीत वचन याने प्रशंसा के वचन- जैसे कि- यह स्त्री रूपवती है, यह पुष्प संदर है... तथा अपनीत वचन याने- निंदा के वचन- जैसे कि- यह स्त्री रूपहीन याने करूप है इत्यादि... तथा उपनीत- अपनीत वचन याने कुछ प्रशंसा एवं कुछ निंदा- जैसे कि- यह स्त्री रूपवती है किंतु बूरे आचरणवाली है... तथा अपनीत-उपनीत वचन याने कुछ निंदा और कुछ प्रशंसा... जैसे कि- यह स्त्री कुरूप है किंतु अच्छे आचरणवाली है... तथा अतीत वचन याने भूतकाल... कृतवान्-कीया... तथा वर्तमान वचन- करोति- कार्य कर रहा है... तथा अनागत वचन याने भविष्यत्काल-कार्य करेगा... तथा प्रत्यक्षवचन- यह देवदत्त है... तथा परोक्ष वचन- वह देवदत्त है... इत्यादि यह भाषा के सोलह (16) प्रकार हैं... अतः साधु इन भाषाओं के प्रकारों को जानकर एक की विवक्षा हो तब एकवचन का प्रयोग करे... यावत् . परोक्ष वचन- की विवक्षा हो तब परोक्ष वचन का प्रयोग करें... तथा स्त्री को देखकर कहे 'कि- यह स्त्री है... पुरुष को देखकर कहे कि- यह परुष है इत्यादि सोच-विचार करके हि निष्ठाभाषी साधु भाषा-समिति के माध्यम से या समभाव से संयमी होकर हि भाषा बोलें... तथा पूर्व कहे गए और आगे कहेंगे ऐसे उन भाषा के दोषों का त्याग करके हि साधु भाषा बोलें... वह भाव-साधु और भी भाषा के चार प्रकार जानें... वे इस प्रकार- 1. सत्य भाषा... याने यथार्थ- जैसा है वैसा... जैसे कि- गाय को गाय कहें... घोडे को घोडा कहें... इत्यादि... तथा- 2. मृषा याने जूठी भाषा- जैसे कि- गाय को घोडा कहे और घोडे को बैल कहे... तथा 3. सत्य-मृषा याने कुछ सत्य एवं कुछ जुठ... जैसे कि- घोडे से जा रहे देवदत्त के लिये बोले कि- देवदत्त उंट के उपर बैठकर जाता है इत्यादि... तथा- 4. असत्य-अमृषा... याने सत्य भी नहिं और जुठी भी नहि... और मिश्र भी नहि... जैसे कि- हे देवदत्त ! यहां आइये... हे देवदत्त यज्ञदत्त को बुलाइये... इत्यादि... अब सूत्रकार महर्षि अपनी यह बात, मनोगत विकल्पों से नहि किंतु भूतकाल, वर्तमानकाल एवं भविष्यकाल के सभी तीर्थंकरादि आप्तपुरुषों ने कही है, कह रहें हैं एवं Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 310 2-1-4-1-1 (466) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन कहेंगे... वह हि मैं तुम्हें कहता हूं... तथा यह भाषा द्रव्य अचित्त है एवं वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्शवालें हैं... तथा चय एवं उपचय इत्यादि विविध परिणामवाले भी होतें हैं ऐसा तीर्थकर परमात्माओं ने कहा है. यहां भाषा वर्णादि गुणधर्मवाली है ऐसा कहने से शब्द मूर्तद्रव्य है ऐसा कथन हुआ... और अमूर्त ऐसे आकाश का मूर्त स्वरुप शब्द गुण कैसे हो शकता है ? क्योंकिआकाश को वर्णादि गुण नहि है अतः आकाश नित्य है... जब कि- चय एवं उपचय धर्मवाले वर्णादि गुणवाले शब्द है अतः शब्द अनित्य है... तथा शब्द-द्रव्य के परिणाम भी विभिन्न प्रकार के होते हैं... अब शब्द कृतक याने कृत्रिम है ऐसा कहतें हैं... सूत्रसार : V प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि- साधु को भाषा शास्त्र का पूरा ज्ञान होना चाहिए। उसे व्याकरण का भली-भांति बोध होना चाहिए। जिससे वह बोलते समय विभक्ति, लिंग एवं वचन आदि की गलती न करे / इससे स्पष्ट होता है कि साधु को जीवन में आध्यात्मिक ज्ञान के साथ व्यवहारिक शिक्षा का भी महत्व है। साधक को जिस भाषा में अपने विचार अभिव्यक्त करने है, उसे उस भाषा का परिज्ञान होना जरूरी है। यदि उसे उस भाषा का ठीक तरह से बोध नहीं है तो वह बोलते समय अनेक गलतिएं कर सकता है और कभी-कभी उसके द्वारा प्रयुक्त भाषा उसके अभिप्राय से विरूद्ध अर्थ को भी प्रकट कर सकती है। इसलिए साधु को भाषा का इतना ज्ञान अवश्य होना चाहिए जिससे वह अपने भावों को स्पष्ट एवं शुद्ध रूप से अभिव्यक्त कर सके। भाषा के सम्बन्ध में दूसरी बात यह है कि साधु-साध्वी को निश्चयात्मक एवं संदिग्ध भाषा नहीं बोलनी चाहिए। इसका कारण यह है कि कभी परिस्थितिवश वह कार्य उसी रूप में नहीं हुआ तो साधु के दूसरे महाव्रत में दोष लगेगा। इसी तरह जिस बात के विषय में निश्चित ज्ञान नहीं है। उसे प्रकट करने से भी दूसरे महाव्रत में दोष लगता है। अतः साधु को बोलते समय पूर्णतया विवेक एवं सावधानी रखनी चाहिए। तीसरी बात यह है कि मनुष्य क्रोध, मान, माया और लोभ आदि विकारों के वश भी झूठ बोलता है। जिस समय मनुष्य के मन में क्रोध की आग धधकती है उस समय वह यह भूल जाता है कि मुझे क्या बोलना चाहिए और क्या नहीं बोलना चाहिए। क्रोधादि कषायों के समय भाषा के दोष एवं गुणों का सही ज्ञान नहीं रख सकता और उन मनोविकारों के वश वह साधु असत्य भाषा का भी प्रयोग कर देता है। इसलिए साधु को सदा इन कषायों के ऊपर उठकर बोलना चाहिए। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-4-1-1 (466) 311 भाषा के स्वरूप के सम्बन्ध में यहां कुछ बताना अनुचित एवं अप्रासंगिक नही होगा। साधारणतया मुंह द्वारा बोले जाने वाले शब्दों के समूह को भाषा कहते हैं। जैन आगमों में शब्द को पुद्गल माना गया हैं। कुछ भारतीय दर्शन शब्द को आकाश का गुण मानते हैं। परन्तु यह मान्यता उचित प्रतीत नहीं होती। क्योंकि आकाश अरूपी है, अतः उसका गुण भी अरूपी ही होगा। परन्तु, शब्द रूपी है, इस लिए वह अरूपी आकाश का गुण नहीं हो सकता। और आज वैज्ञानिक साधनों ने भी यह स्पष्ट कर दिया है कि शब्द आकाश का गुण नहीं, किंतु स्वयं एक मूर्त पदार्थ है। वह पुद्गल के द्वारा रोका जाता है, ग्रहण किया जाता है और स्थानान्तर में भी भेजा जाता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि शब्द आकाश का गुण नहीं, किंतु भाषा वर्गणा के पुद्गलों का समूह है। तथा भाषा वर्गणा के पुद्गल होतें हैं, अचित्त एवं वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से युक्त हैं तथा परिवर्तनशील हैं। व्यक्ति द्वारा बोली जाने वाली भाषा चार प्रकार की मानी गई है- 1. सत्य भाषा, 2. असत्य भाषा, 3. मिश्र भाषा (जिसमें सत्य और असत्य की मिलावट हो) और 4. असत्यामृषा (जिस भाषा में न झूठ है और न सत्य है, जिसे व्यवहार भाषा कहतें है)। इसमें साधु पहली और चौथी अर्थात् सत्य एवं व्यवहार भाषा का प्रयोग कर सकता है। परन्तु, साधु को दूसरी और तीसरी अर्थात् असत्य एवं मिश्र भाषा का प्रयोग करना नहीं कल्पता। इससे यह स्पष्ट हो गया कि साधु को भाषा के दोषों का परित्याग करके विवेकपूर्वक बोलना चाहिए। भाषा के दोषों से बचने के लिए सूत्रकार ने 16 प्रकार के वचनों का उल्लेख किया है। इसमें प्रयुक्त द्विवचन संस्कृत व्याकरण के अनुसार रखा गया है। क्योंकि प्राकृत में एक वचन और बहुवचन ही होता है। द्विवचन का प्रयोग संस्कृत में होता है। अतः उक्त भाषा को ध्यान में रखकर ही सूत्रकार ने द्विवचन शब्द का उल्लेख किया हो ऐसा प्रतीत होता है। ये वचनों के 16 प्रकार इस प्रकार से हैं एक वचन-(संस्कृत भाषा में)- वृक्षः, घटः, पटः इत्यादि / (प्राकृत भाषा में)-वच्छो-रुक्खो , घड़ो, पड़ो इत्यादि / द्विवचन-वृक्षौ, घटौ, पटौ, इत्यादि, प्राकृत में द्विवचन होता ही नहीं। बहुवचन-वृक्षाः, घटाः, पटाः इत्यादि। (प्राकृत में)-वच्छा, रुक्खा , घड़ा, पड़ा इत्यादि। स्त्रीलिंग वचन- (सं0) कन्या, वीणा, राजधानी इत्यादि। (प्रा०) कन्ना, वीणा, रायहाणी इत्यादि। पुरुष वचन-(सं0) घटः, पटः, कृष्णः , साधुः इत्यादि। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 312 2-1-4-1-1 (466) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन (प्राकृत०) घड़ो, पड़ो, कण्हो, साहू इत्यादि। 6. नपुंसक लिंग व०- पत्रम्, ज्ञानम्, चारित्रम्, दर्शनम् इत्यादि। पत्तं, नाणं, चरित्तं, दसणं इत्यादि / अध्यात्म वचन- जिस वचन को बोलने का चित्त में निश्चय किया गया हो; फिर उसको छिपाने के लिए अन्य वचन के बोलने का विचार होने पर भी अकस्मात् वही वचन मुख से निकले उसे अध्यात्म वचन कहते हैं। जैसे कि- कोई वणिक रुई के व्यापार के लिए किसी अन्य व्याम या नगर में गया, उसने अपने मन में निश्चय किया कि मैं किसी अन्य व्यक्ति के पास रुई का नाम नहीं लूंगा। परन्तु जब वह तृषातुर होकर किसी कूप पर पानी पीने के लिए गया तब उसने वहां पानी भरने वालों से कहा कि मुझे शीघ्र ही रुई पिलाओ ! इसी का नाम अध्यात्म वचन है। वृत्तिकार भी यही लिखते हैं- "अध्यात्म-हृदयगतं-तत्परिहारेणान्यद् भणिष्यतस्तदेव सहसा पतितम् / " उपनीत वचन- प्रशंसा युक्त वचन को उपनीत वचन कहते हैं, यथा-यह स्त्री रूपवती है इत्यादि। अपनीत व०- निन्दा युक्त वचन अपनीत वचन है, यथा-यह स्त्री कितनी कुरुपा-भद्दी दिखाई देती है। उपनीतापनीत व०- पहले प्रशंसा करना और बाद में निन्दा करना इसे उपनीतापनीत वचन कहते हैं, यथा-यह स्त्री सुरुपा-रूपवती तो है परन्तु व्यभिचारिणी है। . अपनीतोपनीत व०- पहले निन्दा और पीछे प्रशंसा युक्त वचन अपनीतोपनीत वचन है। यथा-यह स्त्री रूप हीन होने पर भी सदाचारिणी है। अतीत काल वचन- भूतकाल के बोधक वचन को अतीतकाल वचन कहते हैं। यथा (घटं कृतवान् देवदत्तः) देवदत्त ने घड़े को बनाया था। 13. वर्तमान काल वचन-वर्तमान काल का बोधक वचन, यथा-करोति, पठति-करता है, पढ़ता है इत्यादि। 14.. अनागत काल वचन-भविष्यत् काल का बोधक वचन, यथा-करिष्यति, पठिष्यति, . गमिष्यति-करेगा, पढ़ेगा और जावेगा इत्यादि। 15. प्रत्यक्ष वचन-प्रत्यक्ष के बोधक वचन को प्रत्यक्ष वचन कहते हैं, यथा- देवदत्तोऽयम् यह देवदत्त है, इत्यादि। Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-4-1-2 (467) 313 16. परोक्ष वचन-परोक्ष का बोधक वचन यथा-स देवदत्तः-वह देवदत्त है। अब शब्द का कृतकत्व सिध्ध करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 2 // // 467 // से भिक्खू वा० से जं पुण जाणिज्जा- पुट्विं भासा अभासा भासिज्जमाणी भासा भासा, भासा-समय वीइक्कंता च णं भासिया भासा अभासा / से भिक्खू वा० से जं पुण जाणिज्जा- जा य भासा सच्चा 1. जा य भासा मोसा, 2. जा य भासा सच्चामोसा, 3. जा य भासा असच्चामोसा, 4. तहप्पगारं भासं सावज्जं सकिरियं कक्कसं कडुयं निगुरं फरुसं अण्हयकरि छेयणकरिं भेयणकरिं परियावणकरिं उद्दवणकरिं भूओवधाइयं, अभिकंख नो भासिज्जा। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण जाणिज्जा, जा य भासा सच्चा सुहुमा, जा य भासा असच्चामोसा तहप्पगारं भासं असावज्जं जाव अभूओवघाइयं अभिकंख भासं भासिज्जा || 467 // II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा० स: यत् पुन: जानीयात्- पूर्व भाषा अभाषा भाष्यमाणा भाषा भाषा, भाषा-समयव्यतिक्रान्ता च भाषिता भाषा अभाषा। - सः भिक्षुः वा० सः यत् पुनः जानीयात्- या च भाषा सत्या 1. या च भाषा मृषा, 2. या च भाषा सत्या-मृषा, 3. या च भाषा असत्यामृषा, 4. तथाप्रकारां भाषां सावद्यां सक्रियां कर्कशां कटुकां निष्ठुरां परुषां कर्माश्रवकरी छेदनकरी भेदनकरी परितापनकरी अपद्रावणकरीं भूतोपघातिकां अभिकाक्ष्य न भाषेत। स: भिक्षुः वा भिक्षुणी वा सः यत् पुनः जानीयात्- या च भाषा सत्या सूक्ष्मा, या च भाषा असत्यामृषा, तथाप्रकारां भाषां असावद्यां यावत् अभूतोपघातिकां अभिकाझ्य भाषां भाषेत // 467 // III सूत्रार्थ : संयमशील साधु या साध्वी को भाषा के विषय में यह जानना चाहिए कि भाषावर्गणा के एकत्रित हुए पुद्गल बोलने से पहले अभाषा और भाषण करते समय भाषा कहलाते हैं, और भाषण करने के पश्चात् वह बोली हुई भाषा अभाषा हो जाती है। साधु या साध्वी को Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 314 2-1-4-1-2 (467) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन भाषा के इन भेदों को भी जानना चाहिए कि- जो सत्य भाषा, असत्य भाषा, मिश्र भाषा और व्यवहार भाषा है, उन में असत्य और मिश्र भाषा का व्यवहार साधु साध्वी के लिए सर्वथा वर्जित है, केवल सत्य और व्यवहार भाषा ही उनके लिये आचरणीय है। उसमें भी यदि कभी सत्य भाषा भी सावध, सक्रिय, कर्कश, कटुक, निष्ठुर और कर्मों का आस्रवण करने वाली, तथा छेदन, भेदन, परिताप और उपद्रव करने वाली एवं जीवों का घात करने वाली हो तो विचारशील साधु ऐसी सत्य भाषा का भी प्रयोग न करे, किन्तु संयमशील साधु या साध्वी उसी सत्य और व्यवहार भाषा-जो कि पापरहित हो यावत् जीवोपघातक नहीं है- का ही विवेक पूर्वक वयवहार करे। अर्थात् वह निर्दोष भाषा बोले। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. शब्द को इस प्रकार जाने कि- भाषा-द्रव्य वर्गणा के पुद्गल भाषा बनने के पूर्व अभाषा याने भाषा नहि है, तथा जब भाषा बोली जाती है तब वाग्-योग से जो शब्द प्रगट होते हैं उन्हें भाषा कहतें हैं... अर्थात् मनुष्य तालु-ओष्ठ आदि के व्यापारक्रिया के द्वारा शब्द की उत्पत्ति होती है अतः यह शब्द याने भाषा कृतक याने कृत्रिम है... जैसे कि- मिट्टी के पिंड में से कंभार दंड एवं चक्र आदि से घट याने घडे को बनाता है... अतः भाषा कृत्रिम है... तथा उच्चार कीये हुए शब्द उच्चार करने के बाद तुरंत विनष्ट होते हैं अतः भाषा बोलने के बाद विनष्ट होने से वह अभाषा हि कही जाती है... जिस प्रकार- घट तुटने के बाद कपाल याने ठीकरे की अवस्था में उसे घट नहि कहतें हैं... अतः इस प्रकार शब्द का प्राग्-अभाव एवं प्रध्वंसाभाव स्पष्ट कीया... __ अब इन चारों प्रकार की भाषाओं में से अभाषणीयता याने न बोलने योग्य का स्वरुप कहतें हैं... वह इस प्रकार- वह साधु या साध्वीजी म. जब ऐसा जाने कि- सत्य, मृषा, सत्यमृषा एवं असत्यामृषा भाषाओं में से मृषा एवं सत्यमृषा भाषा तो बोलना हि नहि चाहिये... और सत्य भाषा भी यदि कर्कश आदि दोषवाली हो तो नहि बोलनी चाहिये... क्योंकि- ऐसी कर्कशादि दोषवाली सत्य भाषा सावद्य याने पापवाली होती है तथा अनर्थदंड का कारण भी होती है... कर्कश याने चर्वित (कठोर) शब्दवाली... कटुक याने चित्त को उद्वेग करनेवाली... निष्ठुर याने हक्का= धिक्कारवाली... परुष याने मर्म भेदी और कर्मो का आश्रव करनेवाली भाषा नहि बोलनी चाहिये... तथा छेदन करनेवाली... भेदन करनेवाली यावत् प्राणों का विनाश करनेवाली... तथा जीवों को पीडा करनेवाली भाषा सत्य हो तो भी नहि बोलनी चाहिये... किंतु जो भाषा सत्य है एवं कुशाग्र बुद्धी से शुभपरिणामवाली मृषा भाषा भी निर्दोष हो शकती है.. जैसे किहरिणों को देखने पर भी जब शिकारी लोग पुछे तब मुनी शुभपरिणामवाली मृषा भाषा बोलतें Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-4-1-2 (467) 315 % 3D अन्यत्र भी कहा है कि- अलिक याने जुठ तो कभी भी बोलना नहि चाहिये और सत्य भी वह बोलना नहि चाहिये कि- जो वचन अन्य को पीडा देनेवाला हो... क्योंकि- पर-पीडाकारक सत्य वचन भी सदोष कहा जाता है... तथा चौथी जो आमंत्रणी एवं आज्ञापनी असत्यामृषा भाषा है वह भी सावध न हो एवं कर्मबंध का कारण न हो तथा किसी भी जीव को पीडा कारक न हो उस प्रकार से सोच-विचारकर के साधु सदा निर्दोष भाषा बोले... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में भाषा के सम्बन्ध में दो बातें बताई गई हैं- 1. भाषा की अनित्यता और 2. कौन सी भाषा बोलने के योग्य या अयोग्य है। इसमें बताया गया है कि- भाषा वर्गणा के पुद्गल जब तक वाणी द्वारा मुखरित नहीं होते, तब तक उन्हें भाषा नहीं कहा जाता। और बोले जाने के बाद भी उन पुद्गलों की भाषा संज्ञा नहीं रह जाती है। इससे स्पष्ट होता है कि जब तक उनका वाणी के द्वारा प्रयोग होता है तब तक भाषा वर्गणा के उन पुद्गलों को भाषा कहते हैं। अतः ताल्वादि व्यापार से वाणी के रुप में व्यवहृत होने से पहले और बाद में वे पुद्गल भाषा के नाम से जाने पहचाने नहीं जाते। जैसे दंड-चक्र आदि के सहयोग से घड़े के आकार को प्राप्त करने के पहले तथा घड़े के टूट जाने के बाद वह मिट्टी घड़ा नहीं कहलाती है। उसी तरह भाषा वर्गणा के पदल वाणी के रूप में मखरित होने से पहले और बाद में भाषा नहीं कहलाते हैं। इससे वह स्पष्ट सिद्ध होता है कि भाषा नित्य नही, किंतु अनित्य है। क्योंकि ताल्वादि के सहयोग से भाषा वर्गणा के पुद्गलों को भाषा के आकार में प्रस्फुटित किया जाता है। इस लिए वह भाषा कृतक है और जो पदार्थ कृतक होते हैं, वे अनित्य होते हैं, जैसे घट / इससे यह स्पष्ट हुआ कि भाषा भाषावर्गणा के पुद्गलों का समूह है, वर्ण, गन्ध, रस एवं स्पर्श युक्त है, कृतक है और इस कारण से अनित्य है। प्रस्तुत सूत्र में दूसरी बात यह कही गई है कि साधु असत्य एवं मिश्र भाषा का बिल्कुल प्रयोग न करे। सत्य एवं व्यवहार भाषा में भी जो भाषा सावध हो, सक्रिय हो, कर्कश-कठोर हो, कड़वी हो, कर्म बन्ध कराने वाली हो, मर्म का उद्घाटन करने वाली हो तो साधु को ऐसी सत्य भाषा भी नहीं बोलनी चाहिए। इससे यह सिद्ध होता है कि साधु को सदा ऐसी सत्य एवं व्यवहार भाषा का प्रयोग करना चाहिए, जो निरवद्य हो, अनर्थकारी न हो। कठोर एवं कड़वी न हो, दूसरे के मर्म का भेदन करने वाली न हो। अतः साधु को सदा मधुर, निर्दोष एवं निष्पापकारी सत्य एवं व्यवहार भाषा का प्रयोग करना चाहिए। इसके लिए सूत्रकार ने जो 'सुहुमा' शब्द का प्रयोग किया है, उसका यही अर्थ है कि मुनि को कुशाग्र एवं सूक्ष्म (गहरी) दृष्टि से विचार करके विवेक पूर्वक भाषा का प्रयोग करना चाहिए। परन्तु, वृत्तिकार ने इसका अर्थ यह किया है कि सूक्ष्म-कुशाग्र बुद्धि से सम्यक् Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 316 2-1-4-1-3 (468) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन पर्यालोचन करने पर कभी-कभी असत्य भाषा भी निर्दोषता का स्थान ग्रहण कर लेती है। जैसे किसी शिकारी या हिंसक द्वारा मृग आदि के विषय में पूछने पर सत्य को प्रकट नहीं किया जाता। यह बात ठीक है कि झूठ नहीं बोलना चाहिए, परन्तु साथ में यह भी तो है कि ऐसा सत्य भी नहीं बोलना चाहिए जो दूसरे प्राणी के लिए कष्टकर हो। इस तरह का सत्य भी सदोष हो जाता है। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... सूत्र // 3 // // 468 // से भिक्खू वा० पुमं आमंतेमाणे आमंतिए वा अपडिसुणेमाणे नो एवं वइज्जाहोलित्ति वा गोलित्ति वा वसुलेत्ति वा कुपक्खेत्ति वा घड दासित्ति वा साणेत्ति वा तेणित्ति वा चारिएत्ति वा माईत्ति वा मुसावाइत्ति वा, एयाइं तुमं ते जाणगा वा, एअप्पगारं भासं सावज्जं सकिरियं जाव भूओवघाइयं अभिकंख नो भासिज्जा। से भिक्खू वा० पुमं आमंतेमाणे आमंतिए वा अप्पडिसुणेमाणे एवं वइज्जाअमुगेड वा आउसोत्ति वा आउसंतारोत्ति वा सावगेत्ति वा उवासगेत्ति वा धम्मिएति वा धम्मपिएत्ति वा एयप्पगारं भासं असावज्जं जाव अभिकंख भासिज्जा। से भिक्खू वा० इत्थिं आमंतेमाणे आमंतिए य अप्पडिसुणेमाणे नो एवं वइज्जाहोलीइ वा, गोलीति वा इत्थीगमेणं नेयव्वं / से भिक्खू वा० इत्थिं आमंतेमाणे आमंतिए य अप्पडिसुणेमाणी एवं वइज्जाआउसोत्ति वा भइणित्ति वा भोईति वा भगवईति वा साविगेति वा, उवासिएत्ति वा धम्मिएत्ति वा धम्मप्पिएत्ति वा एयप्पगारं भासं असावज्जं जाव अभिकं ख भासिज्जा // 468 // II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा पुरुष (पुमांसं) आमन्त्रयन् आमन्त्रितं वा अशृण्वन्तं वा एवं वदेत्होल इति वा गोल इति वा वसुल इति वा कुपक्ष इति वा घटदास इति वा श्वा इति वा, स्तेन इति वा चारिक इति वा मायी इति वा मृषावादी इति वा, इत्येतानि त्वं, तव जनको वा, एतत्प्रकारां भाषां सावद्यां सक्रियां यावत् भूतोपघातिकां अभिकाक्ष्य न भाषेत। सः भिक्षुः वा० पुमांसं आमन्त्रयन् आमन्त्रितं वा अप्रतिशृण्वन्तं एवं वदेत्- अमुक इति वा, आयुष्मन् इति वा आयुष्मन्त इति वा श्रावक इति वा, उपासक इति वा धार्मिक Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-4-1-3 (468) 317 इति वा धर्मप्रिय इति वा एतत्प्रकारां भाषां असावद्यां यावत् अभिकाढ्य भाषेत। स: भिक्षुः वा स्त्री आमन्त्रयन् आमन्त्रितां च अप्रतिशृण्वतीं न एवं वदेत्- हे होलि ! इति वा हे गोलि ! इति वा इत्यादि स्त्री-गमेन नेतव्यम् / स: भिक्षुः वा स्त्री आमन्त्रयन् आमन्त्रितां च अप्रतिशृण्वती एवं वदेत्- हे . आयुष्मति ! इति वा, हे भगिनि ! इति वा हे भोगिनि ! इति वा, हे भगवति ! इति वा, हे श्राविके ! इति वा, हे उपासिके ! इति वा, हे धार्मिके ! इति वा, हे धर्मप्रिये ! इति वा, एतत्प्रकारां भाषां असावद्यां यावत् अभिकाक्ष्य भाषेत // 468 // III सूत्रार्थ : संयमशील साधु या साध्वी पुरुष को आमंत्रित करते हुए उसके न सुनने पर उसे हे होल ! हे गोल ! हे वृषल ! हे कुपक्ष ! हे घटदास ! हे श्वान ! हे चोर ! हे गुप्तचर ! हे कपटी! हे मृषावादी / तुम यहां हो क्या ? और तुम्हारे माता-पिता भी इसी प्रकार के हैं क्या ? विवेक शील साधु इस तरह की सावध, सक्रिय यावत् जीवोपघातिनी भाषा को न बोले। किन्तु संयमशील साधु अथवा साध्वी कभी किसी व्यक्ति को आमंत्रित कर रहे हों और वह न सुने तो उसे इस प्रकार संबोधित करे- हे अमुक व्यक्ति ! हे आयुष्मन् ! हे आयुष्मानों ! हे श्रावक। हे उपासक ! हे धार्मिक ! हे धर्मप्रिय ! आदि इस प्रकार की निरवद्य पापरहित भाषा को बोले... इसी तरह संयमशील साधु या साध्वी स्त्री को बुलाते समय उसके न सुनने पर उसे हे होली ! हे गोली ! इत्यादि जितने सम्बोधन पुरुष के प्रति ऊपर दिये गये है। उन नीच संबोधनों से संबोधित न करे किन्तु उस के न सुनने पर उसे हे आयुष्मति ! हे भगिनि ! हे बहिन ! हे पूज्य / हे भगवति / हे श्राविके / हे उपासिके ! हे धामिके और हे धर्मप्रिये ! इत्यादि पापरहित कोमल एवं मधुर शब्दों से संबोधित करे। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. जब कभी किसी पुरुष को अभिमुख (आमंत्रण) करना चाहे तब या बुलाने पर भी नहि सुन रहे हो तब इस प्रकार के वचन न बोलें... जैसे कि- हे होल ! गोल ! यह दोनों शब्द अन्य देश में अवज्ञा-तिरस्कार सूचक है... तथा वसुल याने वृषल... तथा कुपक्ष याने निंदनीय वंशवाले ! तथा हे घटदास... या हे कुत्ता ! या हे चौर ! या हे चारिक ! या हे मायावी ! या हे मृषावादी... इत्यादि प्रकार के वचनवाला तुं है या तेरे मा-बाप है इत्यादि इस प्रकार की कठोर भाषा साधु कभी भी न बोलें... किंतु इससे भिन्न प्रकार से बोलना चाहिये... वह इस प्रकार- वह साधु किसी गृहस्थ (पुरुष) को अभिमुख कर रहे हो या, बुलाने पर भी सुनता न हो तब उसको इस प्रकार के वचन कहें... जैसे कि- हे अमुक ! हे आयुष्मान् Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 318 2-1-4-1-4 (469) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन ! हे श्रावक ! हे धर्मप्रिय ! इत्यादि वचन बोलें... इसी प्रकार स्त्री के अधिकार में भी जानीयेगा... अर्थात् बाकी के दोनों सूत्र प्रतिषेध एवं विधि के स्वरुप से स्वयं हि जानीयेगा... सुगम होने से यहां टीकाकार आचार्यजी ने टीका नहि बनाइ है... अब और भी "न बोलने योग्य" भाषा का स्वरुप कहतें हैं... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में साधु को किसी भी गृहस्थ के प्रति हलके एवं अवज्ञापूर्ण शब्दों का प्रयोग करने का निषेध किया गया है। इसमें बताया गया है कि किसी पुरुष या स्त्री को पुकारने पर वह नहीं सुनता हो तो साधु उन्हें निम्न श्रेणी के सम्बोधनों से सम्बोधित न करे, . उन्हें हे गोलक, मूर्ख आदि अलंकारों से विभूषित न करे। क्योंकि, इससे सुनने वाले के मन को आघात लगता है और साधु की असभ्यता एवं अशिष्टता प्रकट होती है। इसलिए साधु को ऐसी सदोष भाषा नहीं बोलनी चाहिए। यदि कभी कोई बुलाने पर नहीं सुन रहा हो तो उसे मधुर, कोमल एवं प्रियकारी सम्बोधनों से पुकारना चाहिए, उसे हे धर्मप्रिय, देवानुप्रिय, आर्य, श्रावक अथवा हे धर्मप्रिये, देवानुप्रिये. श्राविका आदि शब्दों से सम्बोधित करना चाहिए। इससे सुननेवाले मनुष्य के मन में हर्ष एवं उल्लास पैदा होता है और साधु के प्रति भी उसकी श्रद्धा बढ़ती है। अतः साधु-साध्वी को सदा मधुर, निर्दोष एवं कोमल भाषा का ही प्रयोग करना चाहिए। इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 4 // // 469 // से भिक्खू वा नो एवं वइज्जा- नभोदेवित्ति वा गज्जदेवित्ति वा, विज्जुदेवित्ति वा, पवुट्ठदेवित्ति वा निवुट्ठदेवित्तए वा, पडउ वा वासं मा वा पडउ, निप्फज्जउ वा सस्सं, मा वा नि०, विभाउ वा रयणी मा वा विभाउ, उदेउ वा सूरिए मा वा उदेउ, सो वा राया जयउ मा वा जयउ, नो एयप्पगारं भासं भासिज्जा। पण्णवं से भिक्खू वा अंतलियखेत्ति वा गुज्झाणुचरिएत्ति वा संमुच्छिए वा निवइए वा, वओ वइज्जा वुट्टबलाहगेत्ति वा, एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं . जं सव्वद्वेहिं समिए सहिए सया जइज्जासि त्तिबेमि // 469 // Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-4-1-4 (469) 319 IT संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा न एवं वदेत्- नभोदेव ! इति वा गर्जति, देव ! इति वा, विद्युत्देव ! इति वा प्रवृष्टः देवः, निवृष्टः देव इति वा, पततु वा वर्षा मा वा पततु, निष्पद्यतां थस्यं मा वा निष्पद्यतां, विभातु रजनी मा वा विभातु, उदेतु सूयः, मा वा उदेतु, असौ राजा जयतु मा वा जयतु, न एतत्प्रकारां भाषां भाषेत। प्रज्ञावान् सः भिक्षुः वा अन्तरिक्ष ! इति वा गृह्यानुचर ! इति वा समुत्थित ! इति वा, निपतित इति वा वाचो वदेत् वृष्टबलाहक ! इति वा, एतत् खलु तस्य भिक्षो: भिक्षुण्या: वा सामग्यम्, यत् सर्वार्थः समितः सहित: सदा यतेत इति ब्रवीमि || 469 // III सूत्रार्थ : संयमशील साधु अथवा साध्वी इस प्रकार न कहे कि आकाश देव है, गर्ज (बादल) देव है, विद्युत देव है, वे बरस रहा है, या निरन्तर बरस रहा है, एवं वर्षा बरसे या न बरसे। धान्य उत्पन्न हों या न हों। रात्रि व्यतिक्रान्त हो या न हो। सूर्य उदय हो या न हो। और यह भी न कहे कि इस राजा की विजय हो या इसकी विजय न हो। आवश्यकता पड़ने पर प्रज्ञावान् साधु अथवा साध्वी इस प्रकार बोले कि यह आकाश है, देवताओं के गमनागमन करने से इसका नाम गुह्यानुचरित भी है। यह पयोधर जल देने वाला है। चढे हुए बादल जल बरसाता है, या यह मेघ बरसता है, इत्यादि भाषा बोले। जो साधु या साध्वी साधना रूप पांच समिति तथा तीन गुप्ति से युक्त है उनका यह समव्य आचार है, अतः पंचाचार के परिपालन में वे सदा प्रयत्नशील रहते हैं इस प्रकार मैं कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : वह साधु इस प्रकार की असंयत भाषा न बोले- वह इस प्रकार- जैसे कि- नभोदेव / गर्जना करता हुआ देव / तथा विद्युत् देव, देव बहोत बरसा, देव बरस गया, तथा बरसात पडे... या बरसात न पडे... धन्य का पाक हो, या न हो, रात्री पूर्ण हो, या पूर्ण न हो, तथा सूय उगे या न उगे... तथा यह राजा जय पावे या न पावे, इत्यादि प्रकार की देव आदि संबंधित भाषा न बोलें... किंतु यदि प्रयोजन याने कारण उपस्थित हो तब प्रज्ञावान् संयत साधु संयतभाषा Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 320 2-1-4-1-4 (469) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन के द्वारा हि अंतरिक्ष... इत्यादि प्रकार से बोलें... क्योंकि- यह हि साधु का सच्चा साधुपना है... इति... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में यह स्पष्ट रूप से बताया गया है कि संयमनिष्ठ एवं विवेकशील साधुसाध्वी को सदोष भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए। जैसे- आकाश, बादल, बिजली, वर्षा आदि को देव कहकर नहीं पुकारना चाहिए। प्राकृतिक दृश्यों में दैवी शक्ति की कल्पना करके उन्हें देवत्व के सिंहासन पर बैठाना यथार्थता से बहुत दूर है। क्यों कि- इसमें असत्यता का अंश रहता है। इस कारण साधु को उन्हें देवत्व के सम्बोधन से न पुकार कर व्यवहार में प्रचलित आकाश, बादल, बिजली या विद्युत आदि शब्दों से ही उनका संबोधन करना चाहिए। इसी तरह साधु-साध्वी को यह भी नहीं कहना चाहिए कि वर्षा हो या न हो, धान्य एवं अन्न उत्पन्न हो या न हो, शीघ्रता से रात्रि व्यतीत होकर सूर्योदय हो या न हो, अमुक राजा विजयी हो या न हो। क्यों कि इस तरह की भाषा बोलने से संयम में अनेक दोष लगते हैं, अतः साधु को ऐसी सदोष भाषा का प्रयोग कभी भी नहीं करना चाहिए। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'संमुच्छिए वा निवाइए' पाठ का यह अर्थ है- बादल सम्मूर्छित जल बरसाता है। अर्थात् सूर्य की किरणो के ताप से समुद्र, सरिता आदि में स्थित जल बाष्प रूप में ऊपर उठता है और ऊपर ठण्डी हवा आदि के निमित्त से फिर पानी के रूप को प्राप्त करके बादलों के रूप में आकाश में घूमता है और हवा पहाड़ एवं बादलों की पारस्परिक टक्कर से बरसने लगता है। इससे यह स्पष्ट हो गया कि साधु को सदा मधुर, प्रिय, यथार्थ एवं निर्दोष भाषा का ही प्रयोग करना चाहिए। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें। // प्रथम चूलिकायां चतुर्थ-भाषाजाताध्ययने प्रथमः उद्देशकः समाप्तः // Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी- हिन्दी- टीका 2-1-4-1-4 (469) 321 : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शझुंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट -परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान.वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविनयजी म. "श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058. Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 322 2-1-4-2-1 (470) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 1 अध्ययन - 4 उद्देशक - 2 # भाषा-जातम् // पहला उद्देशक कहा, अब दुसरे उद्देशक का प्रारंभ कहतें हैं... इन दोनों में परस्पर इस प्रकार संबंध है कि- पहले उद्देशक में भाषा के वाच्य एवं अवाच्य का स्वरूप एवं विशेषता कही, और यहां दुसरे उद्देशक में भी वह हि वाच्य एवं अवाच्य संबंधित शेष बात कहना है... अतः इस संबंध से आये हुए दुसरे उद्देशक का यह प्रथम सूत्र है... I सूत्र // 1 // // 470 / / से भिक्खू वा० जहा वेगइयाई रूवाइं पासिज्जा तहा वि ताइं नो एवं वइज्जातं जहा- गंडी, गंडीति वा, कुट्टी कुट्ठीति वा, जाव महमेहुणीति वा, हत्थच्छिण्णं हत्थच्छिण्णेत्ति वा एवं पायच्छिण्णेति वा नक्कच्छिण्णेड़ वा कण्णच्छिण्णेड वा उदृच्छिण्णेड वा जे यावण्णे तहप्पगारा एयप्पगाराहिं भासाहिं बुइया कुप्पंति माणवा ते यावि तहप्पगाराहिं भासाहिं अभिकंख नो भासिज्जा। . से भिक्खू वाo जहा वेगइयाई रुवाइं पासिज्जा तहावि ताई एवं वइज्जा- तं जहा- ओयंसी ओयंसित्ति वा तेयंसी तेयंसीति वा जसंसी जसंसीइ वा वच्चंसी वच्चंसीड़ वा अभिरूवंसी, पडिरूवंसी, पासाइयं दरिसणिज्जं दरिसणीयत्ति वा जे यावण्णे तहप्पगारा तहप्पगाराहिं भासाई बुइया, नो कुप्पंति माणवा ते यावि तहप्पगारा एयप्पगाराहिं भासाहिं अभिकंख भासिज्जा। से भिक्खू वा० जहा वेगइयाई रुवाइं पासिज्जा, तं जहा- वप्पाणि वा जाव गिहाणि वा, तहा वि ताई नो एवं वइज्जा, तं जहा- सुक्कडेइ वा सुटुकडेड वा साहुकडेइ वा, कल्लाणेड़ वा करणिज्जेड वा एयप्पगारं भासं सावज्जं जाव नो भासिज्जा। से भिक्खू वा० जहा वेगइयाई रूवाई पासिज्जा, तं जहा- वप्पाणि वा जाव गिहाणि वा तहा वि ताई एवं वइज्जा, तं जहा- आरंभकडेइ वा सावज्जकडेइ वा पयत्तकडेइ वा पासाइयं पासाइए वा दरिसणीयं दरिसणीयंति वा अभिरूवं अभिरूवंति वा, पडिरूवं पडिरूवंति वा एयप्पगारं भासं असावज्जं जाव भासिज्जा // 470 // . Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी-टीका 2-1-4-2-1 (470) 323 II - संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा० यथा वा कानिचित् रूपाणि पश्येत्, तथापि तानि न एवं वदेत्, तद्यथा- गण्डी गण्डी इति वा, कुष्ठी कुष्ठी इति वा, यावत् मधुमेहिनी इति वा, हस्तच्छिन्नं हस्तच्छिन्नः इति वा कर्णच्छिन्नः इति वा ओष्ठच्छिन्न इति वा, ये च अन्ये तथाप्रकाराः, एतत्प्रकाराभिः भाषाभिः उक्ताः कुप्यन्ति मानवाः, ते च अपि तथाप्रकाराभिः भाषाभिः अभिकाक्ष्य न भाषेत। - सः भिक्षुः वा० यथा वा कानिचित् रूपाणि पश्येत्, तथापि तानि एवं वदेत्तद्यथा-ओजस्वी ओजस्वी इति वा, तेजस्वी तेजस्वी इति वा, यशस्वी यशस्वी इति वा वर्चस्वी वर्चस्वी इति वा अभिरूपवान् अभिरूपवान् इति वा, प्रतिरूपवान् प्रतिरूपवान् इति वा, प्रासादिकः प्रासादिकः इति वा, दर्शनीयः दर्शनीयः इति वा ये चाऽन्ये तथाप्रकाराभिः भाषाभिः उक्ता: उक्ता: न कुप्यन्ति मानवाः, ते च अपि तथाप्रकाराभिः भाषाभिः अभिकाक्ष्य भाषेत / स: भिक्षुः वा० यथा वा एकानि रूपाणि पश्येत्, तद्यथा- वप्राणि वा यावत् गृहाणि वा, तथापि तानि न एवं वदेत्, तद्यथा- सुकृतः इति वा, सुष्ठुकृतः इति वा साधुकृतः इति वा कल्याणं इति वा, करणीयः इति वा, एतत्प्रकारां भाषां सावद्यां यावत् न भाषेत। ___स: भिक्षुः वा० यथा वा एकानि रूपाणि पश्येत्, तद्यथा- वप्राणि वा यावत् गृहाणि वा, तथापि तानि एवं वदेत्, तद्यथा- आरम्भकृतः इति वा, सावद्यकृतः इति वा प्रयत्नकृतः इति वा प्रासादिकं प्रासादिकः इति वा दर्शनीयं दर्शनीयः इति वा अभिरूपं अभिरूपः इति वा प्रतिरूपं प्रतिरूपः इति वा, एतत्प्रकारां भाषां असावद्यां यावत् भाषेत // 470 // III सूत्रार्थ : संयमशील साधु या साध्वी किसी रोगी आदि को देखकर ऐसा न कहे कि- हे गंडी! हे कुष्टी ! हे मधुमेही ! इत्यादि। इसी प्रकार आमन्त्रित न करे। इसी प्रकार जिसका हाथ, पैर, कान, नाक, ओष्ठ आदि कटे हुए हों, उसे कटे हाथ वाला, लंगड़ा, कटे कानवाला, नकटा . या कटे हुए ओष्ठ वाला आदि शब्दों से संबोधित न करे। इस प्रकार की भाषा के बोलने से लोग कपित हो सकते हैं. उनके स्वाभिमान को आघात लगता है. अतः भाषा समिति का विवेक रखने वाला साधु ऐसी भाषा का प्रयोग न करे। परन्तु, यदि ऐसी किसी व्यक्ति में कोई गुण हो तो उसे उस गुण से सम्बोधित करके बुला सकता है। जैसे कि- हे ओजस्वी, हे तेजस्वी, हे यशस्वी, हे वर्चस्वी, हे अभिरूप, है प्रतिरूप, हे प्रेक्षणीय और हे दर्शनीय इत्यादि। इस प्रकार Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 324 2-1-4-2-1 (470) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन की निरवद्य भाषा के प्रयोग से सुनने वाले मनुष्य के मन में क्रोध नहीं, किंतु हर्ष भाव पैदा होता है, अतः वह साधु ऐसी मधुर एवं निर्दोष भाषा बोल सकता है। इसी प्रकार साधु अथवा साध्वी बावड़ी. कुंएं, खेतों के क्यारे यावत् महल-घरों को देखकर उनके सम्बन्ध में इस प्रकार न कहे कि यह अच्छा बना हुआ है, बहुत सुन्दर बना हुआ है, इस पर अच्छा कार्य किया गया है, यह कल्याणकारी है और यह कार्य करने योग्य है। इस प्रकार की भाषा से सावध क्रिया का अनुमोदन होता है। अतः साधु इस प्रकार की सावध भाषा न बोले। किन्तु उन बावडी यावत् मकान-घरों को देखकर इस प्रकार कहे कि यह आरम्भ कृत है, सावध है और यह प्रयत्न साध्य है, तथा यह देखने योग्य है, रूपसम्पन्न है और प्रतिरूप है। इस प्रकार की निरवध भाषा का प्रयोग करे। IV टीका-अनुवाद : ___ वह साधु या साध्वीजी म. कभी कहिं गंडीपद, कुष्ठी आदि रूप देखे तब उन्हे गंडीपद आदि नाम से न बोलें... जैसे कि- गंडी याने गंडवाले, अथवा काटे हुए गुल्फ-पैरवाले... वह गंडी है... किंतु उन्हें गंडी कहकर बुलाना नहि चाहिये... इसी प्रकार कुष्ठी को कुष्ठी कहकर न बुलाइयेगा... इसी प्रकार अन्य रोग-व्याधिवाले मनुष्य को उन रोगों के नाम से न बुलाइयेगा... यावत् मधुमेही को मधुमेही न कहीयेगा... मधुमेही याने निरंतर मूत्र होने के रोगवाला... यहां आठवे धूताध्ययन में रोग-विशेष का कथन कीया गया है... अतः इस अपेक्षा से सूत्र में “यावत्" पद का कथन कीया है... इसी प्रकार- कटे हुए हाथवाले, कटे हुए पैरवाले, कटी हुइ नासिकावाले, कटे हुए कानवाले कटे हुए होठवाले इत्यादि... और भी इस प्रकार के काणे, कुंटे आदि... इन विशेषणोंवाले शब्द बोलने पर यदि वे मनुष्य कोप करतें हैं, तब उन्हे ऐसे प्रकार के वचनों से न बुलाइयेगा..... अब जिस प्रकार से बोलना चाहिये वह कहतें हैं... जैसे कि- वह साधु यदि गंडीपद आदि रोगवाले मनुष्य को देखे तब उनमें रहे हुए ओजः या तेजः आदि विशेष गुण को लेकर हि जरुरत होने पर उन्हे बुलाइयेगा... जैसे कि- केश के समान कृष्ण... कुत्ते के मृत शरीर में भी श्वेत दांत के गुण लेने की तरह विशिष्ट गुण को लेकर हि उन्हे बुलाइये... इस प्रकार साधु गुणयाही बने... . तथा वह साधु यदि इस प्रकार के दृश्य-रूप देखें जैसे कि- वप्र याने किल्ला यावत् घर महल आदि तब साधु सदोष भाषा न बोले... वह इस प्रकार- यह सुकृत है, यह अच्छा कीया है, यह सुंदर है, यह कल्याणकारक है, यह ऐसा हि करने योग्य है, इत्यादि... ग्रह और ऐसे अन्य प्रकार के पापाचरण के अनुमोदनवाले वचन साधु न बोलें... Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-4-2-1 (470) 325 %3 अब साधु वप्र आदि को देखकर जो बोले वह कहतें हैं... वह इस प्रकार- सामान्य से साधु वा आदि को देखकर उनके विषय में कुछ भी न बोलें... किंतु यदि प्रयोजन आ पडे तो संयतभाषा से बोले... वह इस प्रकार- महा आरंभ-समारंभ से यह वप्र कीया गया है, बहोत सारे कठोर आचरण से यह वप्र आदि बनाये गये है... बहोत सारे प्रयत्न से कीये गये है... इसी प्रकार यह वप्र आदि प्रसादनीय एवं दर्शनीय है इत्यादि प्रकार से निर्दोष भाषा बोलीयेगा... v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि यदि कोई व्यक्ति गण्डी, कुष्ट (कोढ़) और मधुमेह इत्यादि भयंकर रोगों से पीड़ित हो या उसका हाथ, पैर, नाक, कान, ओष्ठ आदि कोई अङ्ग कटा हुआ हो, तो साधु को उसे उस रोग एवं कटे हुए अङ्गों के नाम से सम्बोधित करके नहीं बुलाना चाहिए। जैसे कि- कोढ़ के रोगी को कोढ़ी, अन्धे को अन्धा या नाक कटे हुए व्यक्ति को नकटा कह कर पुकारना साधु को नहीं कल्पता। क्योंकि, पहले तो वह उक्त बीमारियों एवं अनोपाजों की हीनता के कारण परेशान, दुःखी एवं चिन्तित है। फिर उसे उस रूप में सम्बोधित करने से उसके मन को अवश्य ही आघात पहुंचेगा और उसके मन में साधु के प्रति दुर्भावना जागृत होगी। वह यह भी सोच सकता है कि यह साधु कितना असभ्य एवं असंस्कृत है कि साधना के पथ पर गतिशील होने के पश्चात भी इसकी दूसरे व्यक्ति को चिढ़ाने, परेशान करने एवं उसका मजाक उड़ाने की दुष्ट मनोवृत्ति नहीं गई है। वस्तुतः वेश के साथ अभी इसके अन्तर जीवन का परिवर्तन नहीं हुआ है। इससे उसके मन में साधु से प्रतिशोध लेने की भावना भी जागृत हो सकती है। अतः साधु को किसी के मन को चुभने वाली भाषा भी नहीं बोलनी चाहिए। इससे दूसरे व्यक्ति की मानसिक हिंसा होती है इसलिए साधु को प्रत्येक व्यक्ति को, चाहे वह रोगी हो, अपंग हो, अंगहीन हो तो भी उनको सदा प्रिय एवं मधुर सम्बोधनों से सम्बोधित करना चाहिए। प्रस्तुत सूत्र में गण्ड, कुष्ट और मधुमेह तीन रोगों का नाम निर्देश किया गया है और 'कुट्ठीति वा जाव' पद में यावत् शब्द से उन रोगों की ओर भी इशारा कर दिया है जिसका उल्लेख आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के धूताध्ययन में किया गया है। ये तीनों असाध्य रोग माने गए हैं। गण्ड- यह वात-प्रधान रोग होता है, इस रोग का आक्रमण होने पर मनुष्य के पेर एवं गिट्टे में सूजन आ जाता है और कोढ़ एवं मधुमेह का रोग तो असाध्य रोग के रूप में प्रसिद्ध ही है। अतः साधु को इन असाध्य रोगों से पीड़ित एवं अंगहीन व्यक्ति को आघात लगे ऐसे मर्म भेदी शब्दों से सम्बोधित नहीं करना चाहिए। इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 326 2-1-4-2-2 (471) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन I सूत्र // 2 // // 471 // से भिक्खू वा असणं वा० उवक्खडियं तहाविहं नो एवं वइज्जा, तं० सुकडेत्ति वा सुटुकडेइ वा, साहुकडेइ वा, कल्लाणेड़ वा करणिज्जेड़ वा, एयप्पगारं भासं सावज्जं जाव नो भासिज्जा। से भिक्खू वा असणं वा उवक्खडियं पेहाय एवं वइज्जा, तंo आरंभकडेत्ति वा, सावज्जकडेत्ति वा पयत्तकडेड वा, भद्दयं भद्देति वा, ऊसद ऊसढेड वा, रसियं मणुण्णं एयप्पगारं भासं असावज्जं जाव भासिज्जा // 471 / / II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा, अशनं वा० उपस्कृतं तथाविधं न एवं वदेत्, तद्यथा-सुकृतं इति वा सुष्ठुकृतं इति वा साधुकृतं इति वा, कल्याणं इति वा, करणीयं इति वा, एतत्-प्रकारां भाषां सावद्यां यावत् न भाषेत। स: भिक्षुः वा, अशनं वा, उपस्कृतं प्रेक्ष्य एवं वदेत्, तद्यथा- आरंभकृतं इति वा, सावद्यकृतं इति वा प्रयत्नकृतं इति वा, भद्रकं भद्रकं इति वा उच्छ्रितं उच्छ्रितं इति वा, रसितं रसितं इति वा मनोज्ञं मनोज्ञं इति वा, एतत्प्रकारों भाषां असावद्यां यावत् भाषेत // 471 // III सूत्रार्थ : संयमशील साधु या साध्वी उपस्कृत-तैयार हुए-अशनादि चतुर्विध आहार को देखकर इस प्रकार न कहे कि यह आहारादि पदार्थ सुकृत है, सुष्ठुकृत है और साधुकृत है तथा कल्याणकारी और अवश्य करणीय है। साधु इस प्रकार की सावद्य यावत् जीवोपघातिनी भाषा न बोले। किन्तु संयमशील साधु या साध्वी उपस्कृत अशनादि चतुर्विध आहार को देखकर इस प्रकार कहे कि यह आहारादि पदार्थ बड़े आरम्भ से बनाया गया है। यह सावध पापयुक्त कार्य है यह अत्यन्त यत्न से बनाया हुआ है, यह भद्र अर्थात् वर्णगंधरसादि से युक्त है, सरस है और मनोज्ञ है, साधु ऐसी निरवद्य एवं निष्पाप भाषा का प्रयोग करे। IV टीका-अनुवाद : इसी प्रकार अशन आदि संबंधित एवं प्रतिषेध सूत्र दोनों जानीयेगा... किंतु ऊसढं याने उच्छित = श्रेष्ठ तथा वर्ण, गंध आदि सहित... Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-4-2-3 (472) 327 अब और भी अभाषणीय-वचन दिखलातें हैं... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु-साध्वी को आहार आदि के सम्बन्ध में यह नहीं कहना चाहिए कि यह आहार अच्छा बना है, स्वादिष्ट बना है, बहुत अच्छे ढंग से पकाया गया है। क्योंकि, आहार 6 काय से आरम्भ से बनता है, अतः उसकी प्रशंसा एवं सराहना करना 6 कायिक जीवों की हिंसा का अनुमोदन करना है और साध हिंसा का पूर्णतया अर्थात तीन करण और तीन योग से त्यागी होता है। अतः इस प्रकार की भाषा बोलने से उसके अहिंसा व्रत में दोष लगता है इसी कारण संयमनिष्ठ मुनि को ऐसी सावध भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए। यदि कभी प्रसंगवश कहना ही हो तो वह ऐसा कह सकता है कि यह आरम्भीय (आरम्भ से बना हुआ) है, सरस, वर्ण, गन्ध, रस एवं स्पर्श वाला है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि साध उसके यथार्थ रूप को प्रकट कर सकता है, परन्त, सावध भाषा में आहार आदि की प्रशंसा एवं सराहना नहीं कर सकता। ___ इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 3 // // 472 // . ___ से भिक्खू वा भिक्खुणी वा मणुस्सं वा गोणं वा महिसं वा मिगं वा पसुं वा पक्खिं वा सरीसिवं वा जलचरं वा से तं परिवूढकायं पेहाए नो एवं वइज्जा-थूलेड वा पमेइलेड़ वा वट्टेइ वा वज्झेड वा पाइमेड़ वा एयप्पगारं भासं सावज्जं जाव नो भासिज्जा। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा मणुस्सं वा जाव जलचरं वा, से तं परिवूढकायं पेहाए एवं वइज्जा- परिवूढकाएत्ति वा उवचियकाएत्ति वा थिरसंघयणेत्ति वा चियमंससोणिएत्ति वा बहुपडिपुण्णइंदिइएत्ति वा एयप्पगारं भासं असावज्जं जाव भासिज्जा। से भिक्खु वा विरूवरूवाओ गाओ पेहाए नो एवं वइज्जा, तं जहा- गाओ दुज्झाओत्ति वा दम्मेत्ति वा गोरहत्ति वा वाहिमत्ति वा रहजोग्गत्ति वा एयप्पगारं भासं सावज्जं. जाव नो भासिज्जा। से भि० विरूवरूवाओ गाओ पेहाए एवं वइज्जा, तं जहा- जुवंगवित्ति वा घेणुत्ति वा रसवइत्ति वा हस्सेड़ वा महल्लेइ वा महव्वएइ वा संवहणित्ति वा एयप्पगारं भासं असावज्जं जाव अभिकंख भासिज्जा। से भिक्खू वा० तहेव गंतुमुज्जाणाइं पव्वयाइं वणाणि वा रुक्खा महल्ले पेहाए Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328 2-1-4-2-3 (472) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन नो एवं वइज्जा, तं० पासायजोग्गाति वा तोरणजोग्गाइ वा गिहजोग्गाइ वा फलिहजो० अग्गलजो० नावाजो० उदग० दोणजो० पीढचंगबेरनंगलकुलियजंतलट्ठी नाभि गंडी आसणजो० सयणजाणउवस्सयजोगाई वा, एयप्पगारं० नो भासिज्जा / से भिक्खू वा० बहुसंभूया वणफला अंबा पेहाए एवं वइज्जा, तं0 असंथडाइ वा बहुनिवट्टिमफलाइ वा बहुसंभूयाइ वा भूयरुचित्ति वा, एयप्पगारं भा० असा० / से० बहुसंभूया ओसही पेहाए तहावि ताओ न एवं वइज्जा, तं जहा- पक्काइ वा नीलीयाइ वा छवीइयाइ वा लाइमाइ वा भज्जिमाइ वा बहुखज्जाइ वा, एयप्पगा० नो भासिज्जा। से० बहु० पेहाए तहावि एवं वइज्जा, तं०- रूढाइ वा बहुसंभूयाइ वा थिराइ वा ऊसढाइ वा गब्भियाइ वा पसूयाइ वा ससाराइ वा एयप्पगारं भासं असावज्जं जाव भासि० // 472 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा भिक्षुणी वा मनुष्यं वा गां वा महिष वा मृगं वा पशुं वा पक्षिणं वा सरीसृपं वा जलचरं वा, सः तं परिवृद्धकायं प्रेक्ष्य न एवं वदेत्- स्थूलः इति वा प्रमेदुरः इति वा वृत्तः इति वा, वध्यः इति वा, पच्यः इति वा एतत्प्रकारां भाषां सावद्यां यावत् न भाषेत। स: भिक्षुः वा भिक्षुणी वा मनुष्यं यावत् जलचरं वा, सः तं परिवृद्धकायं प्रेक्ष्य एवं वदेत्- परिवृद्धकायः इति वा उपचितकाय: इति वा स्थिरसङ्घयणः इति वा चितमांसशोणितः इति वा बहुप्रतिपूर्ण-इन्द्रियकः इति वा, एतत्प्रकारां भाषां असावद्यां यावत् भाषेत। स: भिक्षुः वा विरूपरूपा: गाः प्रेक्ष्य न एवं वदेत्,- तद्यथा- गाव: दोह्या: इति वा, दम्याः इति वा गोरहकाः इति वा वाह्याः इति वा रथयोग्याः इति वा, एतत्प्रकारां भाषां सावद्यां यावत् न भाषेत। स: भिक्षुः वा० विरूपरूपाः गाः प्रेक्ष्य एवं वदेत्, तद्यथा- अयं गौः युवा इति वा, धेनुः इति वा, रसवती इति वा, ह्रस्वः इति वा महान् इति वा महाव्ययः इति वा संवहनः इति वा, एतत्प्रकारां भाषां असावद्यां यावत् अभिकाक्ष्य भाषेत। स: भिक्षः वा० तथैव गत्वा उद्यानानि वा पर्वतान् वा वनानि वा, वृक्षान् महान् प्रेक्ष्य न एवं वदेत्, तद्यथा- प्रासादयोग्यः इति वा तोरणयोग्यः इति वा गृहयोग्यः इति Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-4-2-3 (472) 329 वा फलकयोग्यः इति वा अर्गलायोग्यः इति वा, नौयोग्यः इति वा उदकयोग्यः इति वा द्रोणयोग्यः इति वा, पीठ-चङ्गबेर (काष्ठपात्र)- लाङ्गल - कुलिक - यन्त्रयष्टि - नाभि- गण्डी- आसनयोग्यः इति वा, शयन - यान - उपाश्रययोग्यः इति वा एतत्प्रकारां० न भाषेत। स: भिक्षुः वा० तथैव अत्वा० एवं वदेत्, तद्यथा - जातिमन्तः इति वा दीर्घवृत्ताः इति वा महालयाः इति वा, प्रजातशाला: इति वा विडिमशाला: इति वा, प्रसादिकाः इति वा यावत् प्रतिरूपाः इति वा एतत्प्रकारां भाषां असावद्यां यावत् भाषेत / स: भिक्षुः वा० बहुसम्भूतानि वनफलानि प्रेक्ष्य तथापि तानि न एवं वदेत्, तद्यथा- पक्वानि वा पाकखाद्यानि वा वेलोचितानि वा टालानि वा द्वैधिकानि वा, एतत्प्रकारां भाषां सावद्यां यावत् न भाषेत। स: भिक्षुः वा० बहुसम्भूतानि वनफलानि आमान् प्रेक्ष्य एवं वदेत्, तद्यथाअसमर्थाः इति वा बहुनिवृत्तफलाः इति वा बहुसम्भूताः इति वा भूतरूपाः इति वा, एतत्प्रकारां भाषां असावद्यां यावत् भाषेत। सः बहसम्भूताः औषधीः प्रेक्ष्य तथापि ताः न एवं वदेत्, तद्यथा- पक्काः वा नीला: वा छविमत्यः वा लाजायोग्या: वा पचनयोग्या: वा बहुभक्ष्याः वा, एतत्प्रकारां० नो भाषेत। . स: बहु० प्रेक्ष्य तथापि एवं वदेत्, तद्यथा- सढा वा बहुसम्भूता: वा स्थिरा: वा, उच्छ्रिता: वा गर्भिता: वा प्रसूताः वा ससाराः वा एतत्प्रकारां भाषां असावद्यां यावत् भाषेत // 472 // III सूत्रार्थ : संयमशील साधु अथवा साध्वी, मनुष्य, वृषभ (बैल), महिष (भैंस), मृग, पशु-पक्षी सर्प और जलचर आदि जीवों में किसी भारी शरीर वाले जीव को देखकर इस प्रकार न कहे कि यह स्थूल है, यह मेदा युक्त है, वृत्ताकार है, वध या वहन करने योग्य और पकाने योग्य है इत्यादि... किन्तु, उन्हें देखकर ऐसी भाषा का प्रयोग करे कि यह पुष्ट शरीर वाला है, उपचित काय है, दृढ़ संहननवाला है इसके शरीर में रूधिर और मांस का उपचय हो रहा है और इसकी सभी इन्द्रिएं परिपूर्ण हैं। संयमशील साधु और साध्वी गाय आदि पशुओं को देख कर इस प्रकार न कहे कि यह गाय दोहने योग्य है अथवा इसके दोहने का समय हो रहा है तथा यह बैल दमन करने Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 330 2-1-4-2-3 (472) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन योग्य है, यह वृषभ छोटा है, यह बैल वहन के योग्य है और यह बैल हल आदि चलाने के योग्य है, इस प्रकार की सावध यावत् जीवोपघातिनी भाषा का प्रयोग न करे। परन्तु आवश्यकता पड़ने पर उनके लिए इस प्रकार की भाषा का प्रयोग करे कि यह वृषभ जवान है, यह गाय प्रौढ़ है, दूध देने वाली है, यह बैल छोटा है, यह बड़ा है और यह शकट आदि को वहन कर शकता है इत्यादि. संयमशील साधु अथवा साध्वी किसी उद्यान (बगीचे) पर्वत या वन आदि में कुछ विशाल वृक्षों को देख कर उनके सम्बन्ध में भी इस प्रकार न कहे कि यह वृक्ष मकान आदि में लगाने योग्य है, यह तोरण के योग्य है और यह गृह के योग्य है तथा इसका फलक बन सकता है, इसकी अर्गला बन सकती है और यह नौका के लिए भी अच्छा है। इसकी उदकद्रोणी (जल भरने की टोकणी) अच्छी बन सकती है और यह पिठ के योग्य है, इसकी चक्र नाभि अच्छी . बनेगी, यह गंडी के लिए अच्छा है, इसका आसन अच्छा बन सकता हैं और यह पर्यंक (पलंग) के योग्य है, इससे शकट आदि का निर्माण किया जा सकता है और यह वृक्ष उपाश्रय बनाने के लिए उपयुक्त है इत्यादि... साधु को इस प्रकार की सावध भाषा का व्यवहार नहीं करना चाहिए। किन्तु, उक्त स्थानों में अवस्थित विशाल वृक्षों को देख कर उनके सम्बन्ध में इस प्रकार की भाषा का प्रयोग करे कि ये वृक्ष अच्छी जाति के हैं, दीर्घ और वृत्त तथा बड़े विस्तार वाले हैं। इनकी शाखाएं चारों ओर फैली हुई है, ये वृक्ष मन को प्रसन्न करने वाले अभिरूप और नितान्त सुन्दर है। साधु इस प्रकार की असावद्य-निष्पाप भाषा का व्यवहार करे। संयमशील साधु अथवा साध्वी वन में बहुत परिमाण में उत्पन्न हुए फलों को देख कर उनके संबन्ध में भी इस पकार न कहे कि ये फल पक गए हैं, अतः खाने योग्य हैं या ये फल पलाल आदि में रख कर पकाने के पश्चात् खाने योग्य हो सकते हैं। इनके तोडने का समय हो गया है। ये फल अभी बहत कोमल हैं. क्योंकि इनमें अभी तक गठली नहीं पडी है और ये फल खण्ड-खण्ड करके खाने योग्य हैं इत्यादि... विवेकशील साधु इस प्रकार की साक्य भाषा न बोले। किन्तु, आवश्यकता पड़ने पर वह इस प्रकार कहे कि ये वृक्ष फलों के भार से नम हो रहे हैं। अर्थात् ये उनका भार सहन करने में असमर्थ प्रतीत हो रहे हैं। ये वृक्ष बहुत फल दे रहे हैं। ये फल बहुत कोमल हैं, क्योंकि अभी तक इनमें गुठली नहीं पड़ी है, इत्यादि / साधु इस प्रकार की पाप रहित संयत भाषा का व्यवहार करे। संयमशील साधु अथवा साध्वी बहुत परिमाण में उत्पन्न हुई औषधियों को देख कर उनके सम्बन्ध में भी इस प्रकार न कहे कि यह औषधि (धान्य विशेष) पक गई है। यह अभी . नौली अर्थात कच्ची या हरी है। यह काटने योग्य या भंजने या खाने योग्य है इत्यादि... साधु इस प्रकार की सावध यावत् जीवोपघातिनी भाषा को न बोले। किन्तु, अधिक परिमाण में उत्पन्न हुई औषधियों को देख कर यदि उनके संबन्ध में बोलने की आवश्यकता हो तो साधु Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी-टीका 2-1-4-2-3 (472) 331 %3 इस प्रकार बोले कि- यह अभी अंकुरित हुई हैं। यह औषधि अधिक उत्पन्न हुई है। यह स्थिर है और यह बीजों से भरी हुई है, यह सरस है। यह अभी गर्भ में ही है या उत्पन्न हो गई है। साधु इस प्रकार की असावद्य-निष्पाप भाषा का व्यवहार करे। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. पुष्ट शरीरवाले गाय - बैल आदिको देखकर ऐसा कभी न बोलें कि- यह बैल बहोत बडा (स्थूल) है, या बहोत मेद (चरबी) वाला है, तथा वृत्त याने गोल अल्लमस्त है, या वध योग्य है या भारको वहन करने योग्य है, इसी प्रकार पकाने योग्य है या देवतादिके सामने बली देने योग्य है... इत्यादि यह और ऐसी अन्य सावध भाषा साधु न बोलें... - अब भाषण-बोलनेकी विधि कहतें हैं... वह साधु या साध्वीजी म. पुष्ट काय (शरीर) वाले बैल आदिको देखकर जरुरत होने पर इस प्रकार बोलें... जैसे कि- यह बैल पुष्ट शरीरवाला है इत्यादि सूत्र सुगम है... वह साधु या साध्वीजी म. विभिन्न प्रकारके गाय - बैल आदिको देखकर के ऐसा न कहें कि- यह गाय (बैल) युवा है अथवा यह गाय दोहने योग्य है या इन गायोंको दोहनेका . यह समय (काल) है इत्यादि... तथा यह बैल दमन के योग्य है... वाहनके योग्य है, रथके योग्य है इत्यादि ऐसी सावध भाषा साधु न बोले... 'अब कारण उपस्थित होने पर साधु इस प्रकारसे बोले- जैसे कि- विभिन्न प्रकारके गाय या बैल आदिको देखकर साधु प्रयोजन होने पर कहे कि- यह बैल युवान है, अथवा यह गाय दुधवाली है, छोटी है, बडी है, बहोत खर्चवाली है इत्यादि प्रकारसे निर्दोष भाषा बोले... तथा उद्यान आदिमें गये हुए साधु बडे बडे वृक्षोंको देखकर ऐसा न कहे कि- यह वृक्ष महल आदि बनानेके लिये योग्य है इत्यादि प्रकारकी सावध (दोषवाली) भाषा साधु न बोले... किंतु प्रयोजन होने पर कहे कि- यह वृक्ष उत्तम जातिके है इत्यादि प्रकारसे निर्दोष भाषा साधु बोलें... __ तथा साधु वृक्षके फलोंको देखकर ऐसा न कहे कि- यह फल पक्के है, अथवा बीज - गोटली वाले यह फल गड्डेमें रखकर कोद्रव - पराल (घास) आदिसे पकाकर खाने योग्य हैं... अथवा पके हुए यह फल ग्रहण करने योग्य है क्योंकि- अब अधिक समय तक वृक्ष पर नहि रहेंगे... अथवा यह फल कोमल (कच्चे) है अथवा यह फल पेसी करनेके द्वारा दो फाडे करने योग्य है इत्यादि प्रकारकी दोषवाली-सावध भाषा साधु न बोले... किंतु कारण होने पर ऐसा कहे कि- फलोंके अतिशय भारके कारणसे यह आमके पेड अब आमफलोंको धारण करने Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 332 2-1-4-2-3 (472) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन के लिये असमर्थ हैं... इस वाक्यसे “फल पक्के है" ऐसा कहा है... तथा फल बहोत तैयार हो गये है... इस वाक्यसे पकाकर खाने योग्य है ऐसा कहा है... तथा अतिशय पाकके कारणसे यह फल ग्रहण करने योग्य है... इस वाक्यसे वेलोचित अर्थ कहा है... तथाभूतरूप याने बीज= गोटली बद्धी हुइ नहि है अर्थात् अभी फल कोमल है... इस वाक्यसे टालादि अर्थ कहे गये है... यह आमके पैड उपर कहे गये स्वरूप वाले है... यहां फलोंमें आम मुख्य है, अतः उदाहरणमें आम-फलकी बात कही... इस कथनसे कोई भी प्रकारके फलोंके संबंधमें उपरके वाक्य निर्दोष-भावसे साधु विशेष कारण उपस्थित होने पर कहें... . तथा बहोत सारे औषधि याने धान्य = अनाजको देखकर साधु ऐसा न कहे कि- यह धान्य पक्क गये है, या हरे है, या आर्द्र-भीगे है, अर्थात् छिलकेवाले है, या लाजा योग्य है या रोपण योग्य है, या पकाने योग्य है, या काटने योग्य हैं, या विभक्त (अलग) करने योग्य है इत्यादि प्रकारके दोषवाले (सावद्य) वचन न बोलें किंतु जरुरत (कारण) होने पर साधु ऐसा कहे कि- यह औषधि याने धान्य रूढ याने उगे हुए है इत्यादि निर्दोष वचन बोलें... V सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में भाषा के प्रयोग में विशेष सावधानी रखने का आदेश दिया गया है। साधु चाहे सजीव पदार्थों के सम्बन्ध में कुछ कहे या निर्जीव पदार्थों के सम्बन्ध में कुछ बोले, परन्तु, उसे इस बात का सदा ख्याल रखना चाहिए कि- उसके बोलने से किसी भी प्राणी को कष्ट न हो। असत्य एवं मिश्र भाषा की तरह दूसरे जीवों की हिंसा का कारण बनने वाली भाषा भी, भले ही वह सत्य भी क्यों न हो साधु के बोलने योग्य नहीं है। अतः भाषा समिति में ऐसे सदोष-शब्द बोलने का भी निषेध किया गया है जिससे प्रत्यक्ष या परोक्ष में किसी जीव की हिंसा की प्रेरणा मिलती हो या हिंसा का समर्थन होता हो। साधु प्राणी मात्र का रक्षक है। अतः बोलते समय उसे प्रत्येक प्राणी के हित का ध्यान रखना चाहिए। प्रस्तुत सूत्र में इस बात का उल्लेख किया गया है कि साधु को किसी गायभैंस, मृग आदि पशु-पक्षी एवं जलचर तथा वनस्पति (पेड़-पौधों) आदि के सम्बन्ध में भी ऐसी भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए जिससे उन जीवों को किसी तरह का कष्ट पहुंचे। किसी भी पशु-पक्षी के मोटापन को देख कर साधु को यह नहीं कहना चाहिए कि इस स्थूल काय जानवर में पर्याप्त चर्बी है, इसका मांस स्वादिष्ट होता है, यह पका कर खाने योग्य है या यह गाय दोहन करने योग्य है, यह बैल गाड़ी में जोतने या हल चलाने योग्य है और इसी तरह यह पक्के फल खाने योग्य हैं या इन्हें घास में रखकर पकाने के पश्चात् खाना चाहिए, या यह अनाज या औषधि पक गई है, काटने योग्य है या इन वृक्षों की लकड़ी महलों में स्तम्भ लगाने, द्वार बनाने, आर्गला बनाने के लिए उपयुक्त है या तोरण बनाने या कुंए से पानी Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-4-2-4 (473) 333 निकालने या पानी रखने का पात्र, तख्त, नौका आदि बनाने योग्य है, इत्यादि सावध भाषा का कभी भी प्रयोग नहीं करना चाहिए। साधु को भाषा के प्रयोग में सदा विवेक रखना चाहिए और सत्यता के साथ जीवों की दया का भी ध्यान रखना चाहिए। उसे सदा निष्पापकारी सत्य भाषाका का प्रयोग करना चाहिए। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'उदगदोण जोगाईया' एक पद है और इसका अर्थ है- कुंए आदि से पानी निकालने या पानी रखने का काष्ठ-पात्र / दशवैकालिक सूत्र में भी इस का एक पद में ही प्रयोग किया है। इसके अतिरिक्त प्रस्तुत सूत्र में 'रूढाइ वा, थिराइ वा गब्भियाइ वा' आदि पदों में जो बार-बार 'इ' का प्रयोग किया गया है, वह पाद पूर्ति के लिए ही किया गया है। ___ इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 4 // // 473 / / से भिक्खू वा तहप्पगाराई सद्दाइं सुणिज्जा, तहावि एयाइं नो एवं वइज्जा, तं जहा- सुसद्देत्ति वा दुसद्देत्ति वा, एयप्पणारं भासं सावज्जं वो भासिज्जा / से भिक्खू वा० तहावि ताई एवं वइज्जा, तं जहा- सुसहं सुसद्दित्ति वा दुसदं दुसद्दित्ति वा, एयप्पगारं असावज्जं जाव भासिज्जा, एवं स्वाइं किण्हेत्ति वा गंधाइं सुरभिगंधित्ति वा, रसाइं तित्ताणि वा फासाई कक्खडाणि वा. // 473 / / II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा० तथाप्रकारान् शब्दान् शृणुयात् तथापि तान् न एवं वदेत्, तद्यथासुशब्दः इति वा, दुःशब्दः इति वा, एतत्प्रकारां भाषां सावद्यां न भाषेत। सः भिक्षुः वा० तथापि तान् एवं वदेत्, तद्यथा-सुथब्दं सुथब्दः इति वा, दुःशब्दं दुःशब्दः इति वा, एतत्प्रकारां असावद्यां यावत् भाषेत, एवं रूपाणि कृष्णः इति वा गन्धं सुरभिगन्धः इति वा, रसान् तिक्तानि वा स्पर्शान् कर्कशानि वा // 473 // III सूत्रार्थ : संयमशील साधु साध्वी किसी भी शब्द को सुनकर वह किसी भी सुशब्द को दुःशब्द अर्थात् शोभनीय शब्द को अशोभनीय एवं मांगलिक को अमांगलिक न कहे। किन्तु सुशब्द अच्छे शब्द को सुन्दर और दुःशब्द को दुःशब्द और असुन्दर शब्द को असुन्दर ही कहे। इसी Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 334 2-1-4-2-5 (474) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन प्रकार रूपादि के संबन्ध में भी ऐसी ही भाषा का प्रयोग करना चाहिए। कुरूप को कुरुप और सुन्दर को सुंदर तथा सुगन्धित एवं दुर्गन्धित पदार्थों को क्रमशः सुगंध एवं दुर्गन्ध युक्त तथा कटु को कटुक और कर्कश को कर्कश कहे। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. कभी ऐसे वैसे विभिन्न प्रकार के शब्द सुने तो भी ऐसा न कहे कि- यह शब्द अच्छा है या बुरा है... तथा मांगलिक है या अमांगलिक है इत्यादि न कहें, किंतु जब कभी कारण उपस्थित हो तो जैसा हो वैसा कहे... जैसे कि- अच्छे शब्द को अच्छा शब्द है ऐसा कहे, एवं बूरे शब्द को बूरा शब्द है ऐसा कहे... इसी प्रकार रूप - गंध - रस एवं स्पर्श के विषय में भी स्वयं हि अपनी प्रज्ञा से जानीयेगा... V सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि साधु को 5 वर्ण; 2 गन्ध, 5 रस और 8 स्पर्श के सम्बन्ध में कैसी भाषा का प्रयोग करना चाहिए। सूत्रमें स्पष्ट बताया गया है कि साधु को पदार्थ के यथार्थ वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श का कथन करना चाहिये किंतु पदार्थ के विपरीत नहीं कहना चाहिए अर्थात् राग-द्वेष के वश अच्छे पदार्थ हो उससे विपरीत बरे नहीं कहना चाहिए। राग-द्वेष के वश अच्छे पदार्थ को बुरा और बुरे पदार्थ को अच्छा नहीं बताना चाहिए। कुछ व्यक्ति मोहांध होकर कुरूपवान व्यक्ति को सुन्दर एवं रूप सम्पन्न को कुरूप बताने का भी प्रयत्न करते हैं। परन्तु, राग-द्वेष से ऊपर उठे हुए साधु किसी भी पदार्थ का गलत रूप में वर्णन न करे। साधु को सदा सावधानी पूर्वक यथार्थ एवं निर्दोष वचन का ही प्रयोग करना चाहिए। काले गौरे आदि वर्ण की तरह गन्ध, रस एवं स्पर्श के सम्बन्ध में भी यथार्थ एवं निर्दोष भाषा का व्यवहार करना चाहिए। ___ इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 5 // // 474 // से भिक्खू वा० वंता कोहं च माणं च मायं च लोभं च अणुवीइ निट्ठाभासी निसम्मभासी अतुरियभासी विवेगभासी समियाए संजए भासं भासिज्जा / एवं खलु सया जइ० तिबेमि // 474 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा वान्त्वा क्रोधं च मानं च मायां च लोभं च अनुविचिन्त्य निष्ठाभाषी Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-4-2-5 (474) 335 निशम्यभाषी अत्वरितभाषी विवेकभाषी समित्या संयतः भाषां भाषेत, एवं खलु० सदा यतेत इति ब्रवीमि // 474 // III सूत्रार्थ : क्रोध, मान, माया और लोभ का परित्याग करने वाला, एकान्त निरवद्य भाषा बोलने वाला, विचार पूर्वक बोलने वाला शनैः 2 बोलने वाला और विवेक पूर्वक बोलने वाला संयत साधु या साध्वी भाषा समिति से युक्त संयत भाषा का व्यवहार करे। यही साधु और साध्वी का समय आचार है। इस प्रकार मैं कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. क्रोधादि का त्याग करके इस प्रकार बोलें... जैसे किवह साधु सोच-विचार करके निष्ठाभाषी हो, निशम्यभाषी हो, तथा अत्वरित याने जल्दी जल्दी न बोलें किंतु स्पष्ट एवं धीरे धीरे से बोलें तथा विवेकभाषी हो... अर्थात् साधु भाषासमिति के उपयोग से बोलें क्योंकि- ऐसी स्थिति में हि साधु का सच्चा साधुपना है... और यह साधुपना हि साधु का सर्वस्व (संपत्ति) है... इति शब्द अधिकार की समाप्ति का सूचक है एवं ब्रवीमि याने तीर्थकर प्रभु श्री वर्धमानस्वामीजी के मुख से जैसा सुना है वैसा मैं (सुधर्मस्वामी) हे जंबु / तुम्हें कहता हूं... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में भाषा अध्ययन का उपसंहार करते हुए बताया गया है कि साधु को क्रोध, मान, माया और लोभ का परित्याग करके भाषा का प्रयोग करना चाहिए और उसे बहुत शीघ्रता से भी नहीं बोलना चाहिए। क्योंकि, वह क्रोधादि विकारों के वश झूठ भी बोल सकता है और अविवेक एवं शीघ्रता में भी असत्य भाषण का होना सम्भव है। अतः विवेकशील एवं संयम निष्ठ साधक को कषायों का त्याग करके, गम्भीरतापूर्वक विचार करके धीरे-धीरे बोलना चाहिए। इस तरह साधु को सोच विचार-पूर्वक निरवद्य, निष्पापकारी, मधुर, प्रिय एवं यथार्थ भाषा का प्रयोग करना चाहिए। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें। // प्रथम चूलिकायां चतुर्थ-भाषाज्ञाताध्ययने द्वितीयः उद्देशकः समाप्तः // // समाप्तं च चतुर्थमध्ययनम् // 卐g Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 336 2-1-4-2-5 (474) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शगुंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट -परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. “श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. २५२८.卐 राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058. Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-5-1-1 (475) 337 आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 1 अध्ययन - 5 उद्देशक - 1 वस्त्रैषणा // चौथे अध्ययन के बाद अब पांचवे अध्ययन का प्रारंभ करते हैं... यहां परस्पर संबंध इस प्रकार है कि- चौथे अध्ययन में भाषा समिति कही, अब भाषा समिति के बाद एषणा समिति होती है, अतः वस्त्र संबंधित एषणा समिति यहां कहेंगे... इस संबंध से आये हुए इस पांचवे अध्ययन के उपक्रमादि चार अनुयोग द्वार होतें हैं, उनमें उपक्रम के अंतर्गत अध्ययनार्थाधिकार में वषैषणा कहना है... और उद्देशार्थाधिकार तो स्वयं नियुक्तिकार हि कहतें हैं... __प्रथम उद्देशक में वस्त्र की ग्रहणविधि कही है, और दुसरे उद्देशक में वस्त्र पहनने की विधि है... नाम-निष्पन्न निक्षेप में वर्चेषणा नाम है... उनमें वस्त्र शब्द के नाम आदि चार निक्षेप होतें हैं... उनमें भी नाम एवं स्थापना निक्षेप सुगम है... द्रव्य वस्त्र के तीन प्रकार है... 1. एकेंद्रिय से बननेवाला कपास-रुइ आदि के सुती वस्त्र... तथा 2. विकलेंद्रियों से बननेवाला चीनांशुकादि रेशमी वस्त्र... तथा 3. पंचेंद्रिय-प्राणी से बननेवाला कंबलरत्न (ऊनी साल-कंबल) आदि... तथा भाववस्त्र है अट्ठारह हजार शीलांग... इन चारों में से यहां तो द्रव्यवस्त्र की तरह पात्र के भी चार निक्षेप होतें हैं उनमें द्रव्यपात्र है एकेन्द्रियादि से बननेवाले... तथा भावपात्र है गुणधारी साधु-साध्वीजी म... . अब सूत्रानुगम में अस्खलितादि गुण सहित सूत्र का उच्चार करें... और वह सूत्र यह है... I सूत्र // 1 // // 475 // से भिक्खू वा० अभिकंखिज्जा वत्थं एसित्तए, से जं पुण वत्थं जाणिज्जा, तं जहा- जंगियं वा, भंगियं वा, साणियं वा पोत्तगं वा खोमियं वा तुलकडं वा, तहप्पगारं वत्थं वा जे निग्गंथे तरुणे जुगवं बलवं अप्पायंके थिरसंघयणे से एगं वत्थं धारिज्जा नो बीयं, जा निग्गंथी सा चत्तारि संघाडीओ धारिज्जा, एगं दुहत्थवित्थारं दो तिहत्थवित्थाराओ एणं चउहत्थवित्थारं, तहप्पगारेहिं वत्थेहिं असंधिज्जमाणेहिं अह पच्छा एगमेगं संसिविज्जा || 475 // II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा० अभिकाङ्क्षत वखं अन्वेष्टुं, स: यत् पुन: वखं जानीयात्, तद्यथाजङ्गमिकं वा भङ्गिकं वा साणिकं वा, पत्रकं वा, क्षौमिकं वा तूलकृतं वा, तथाप्रकारं Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 338 2-1-5-1-1 (475) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन वखं वा य: निर्ग्रन्थः तरुण: युगवान् बलवान् अल्पातङ्क: स्थिरसंहननः, सः एकं वस्त्रं धारयेत्, न द्वितीयं, या निर्ग्रन्थी सा चतस्त्र: सयाटिकाः धारयेत्, एकां द्विहस्तविस्तारां द्वे त्रिहस्तविस्तारे एकां चतुर्हस्तविस्तारां तथाप्रकारैः वखैः अलब्धैः, अथ पथात् एकमेकेन संसीव्येत् // 475 // III सूत्रार्थ संयमशील साधु तथा साध्वी यदि वस्त्र की गवेषणा करने की अभिलाषा रखते हों तो वे वस्त्र के सम्बन्ध में इस प्रकार जाने कि- ऊन का ऊनी वस्त्र, विकलेन्द्रिय जीवों की लारों से बनाया गया रेशमी वस्त्र, सण तथा बल्कल का वस्त्र, ताड़ आदि के पत्तों से निष्पन्न वस्त्र और कपास एवं आक की तूली से बना हुआ सूती वस्त्र एवं इस तरह के अन्य वस्त्र को भी मुनि ग्रहण कर सकता है। जो साधु तरूण बलवान, रोग रहित और दृढ शरीर वाला है वह . एक ही वस्त्र धारण करे, दूसरा धारण न करे। परन्तु साध्वी चार वस्त्र-चादरें धारण करे। उसमें एक चादर दो हाथ प्रमाण चौड़ी, दो चादरे तीन हाथ प्रमाण और एक चार हाथ प्रमाण चौड़ी होनी चाहिए। इस प्रकार के वस्त्र न मिलने पर वह एक वस्त्र को दूसरे के साथ सी ले। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. जब वस्त्र की गवेषणा करना चाहे तब यह देखे कि- वह गरम ऊनी वस्त्र क्या उंट-भेड़ आदि के बालों से बना है ? या वह रेशमी वस्त्र क्या विभिन्न प्रकार के विकलेंद्रियों की लाला से बना है ? या वह वस्त्र क्या शण-वल्कल (वृक्ष की छाल) से बना है ? या ताड आदि के पत्तोंसे बना है या कपास-रुड़ से बना है या आकडे आदि के तूल-रुड़ से बना है इत्यादि ऐसे और अन्य प्रकार के निर्दोष एवं कल्पनीय वस्त्रों को धारण करें... अब कौन सा साधु कितने वस्त्र धारण करे, वह कहते हैं... जो साधु तरुण याने युवा है बलवान् याने समर्थ है, अल्पातंक याने नीरोगी है तथा दृढ शरीर एवं दृढ धृतिवाला है वह साधु एक हि वस्त्र देह की रक्षा के लिये धारण करे, दुसरा वस्त्र न लें, यदि वह साधु अन्य आचार्यादि के लिये अन्य वस्त्र धारण (रखता) करता है, तब वह साधु उस वस्र का खुद उपभोग न करें... किंतु जो साधु बालक है या दुर्बल है या वृद्ध है या शरीर बल अल्प है वह साधु जिस प्रकार समाधि हो उस प्रकार दो, तीन आदि वस्त्र धारण करें... यह बात स्थविर कल्पवाले साधुओं के लिये कही है, जब कि- जो साधु जिनकल्पवाले हैं वे तो अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार हि वस्त्र धारण करें, उनमें अपवाद नहि है... तथा जो साध्वीजी म. है वह चार संघाटिका धारण करें, जैसे कि- एक दो हाथ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-5-1-1 (475) 339 प्रमाणवाली, कि जो उपाश्रय में रहतें वख्त ओढने की है, तथा दो संघाटिका तीन हाथ वाली उनमें जो उज्ज्वल (सफेद) हो वह गोचरी (भिक्षा) के समय पहने और दुसरी जो है वह बहिर्भूमी याने स्थंडिलभूमी जाने के वख्त पहनें... तथा जो संघाटिका चार हाथ प्रमाणवाली है वह समवसरण-प्रवचन-धर्मकथा सुनने के वख्त संपूर्ण शरीर को ढांककर बैठें... तथा वे संघाटिका यदि जैसी चाहिये वैसे प्रमाणवाली न मीले तब एक दुसरे के साथ सीव कर (जोड लगा कर) प्रमाणोपेत बनावें... V. सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि साधु 6 तरह का वस्र ग्रहण कर सकता है१. जांगमिक-जंगम-चलने-फिरने वाले ऊंट, भेड़ आदि जानवरों के बालों से बनाए हुए ऊन के वस्त्र 2. भंगिय-विभिन्न विकलेन्द्रिय जीवों की लार से, निर्मित तन्तुओं से निर्मित रेशमी वस्त्र, 3. साणिय-सण या वल्कल से बना हुआ वस्त्र, 4. पोत्तक-ताड़ पत्रों के रेशों से बनाया हुआ वस्र, 5. खोमिय-कपास से निष्पन्न वस्त्र और 6. तूलकड़े-आक के डोडों में से निकलने वाली रुई से बना हुआ वस्त्र / इस 6 तरह के वस्त्रों में सभी तरह के वस्त्रों का समावेश हो जाता है। अतः वह इनमें से किसी भी तरह का वस्त्र ग्रहण कर सकता है। . प्रस्तुत सूत्र में साधु और साध्वी के लिए वस्त्रों का परिमाण भी निश्चित कर दिया गया है। यदि साधु युवक, निरोगी, शक्ति सम्पन्न एवं हृष्ट-पुष्ट शरीर वाला हो तो वह एक वस्त्र ही ग्रहण कर सकता है, दूसरा नहीं। इससे यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि वृद्ध, कमजोर, रोगी एवं जर्जरित शरीर वाला साधु एक से अधिक वस्त्र भी रख सकता है। . साध्वी के लिए चार वस्त्रों (चादरों) का विधान किया गया है। उसमें एक चादर दो हाथ की हो, दो चादरें तीन-तीन हाथ की हों, और एक चार हाथ की हो। साध्वी को उपाश्रय में रहते समय दो हाथ वाली चादर का उपयोग करना चाहिए, गोचरी एवं स्थंडिलभूमी-जङ्गल आदि जाते समय तीन-तीन हाथ वाली चादरों को क्रमशः काम में लेना चाहिए और अवशिष्ट चौथी (चार हाथ वाली) जिनालय एवं समावसरण में चादर को व्याख्यान के समय ओढ़ना चाहिए। इसका तात्पर्य इतना ही है कि आहार आदि के लिए स्थान से बाहर निकलते समय एवं व्याख्यान में पर्षदा के समने बैठते समय साध्वी अपने अधिकांश अङ्गों पाङ्गों को आवत करके बैठे, जिससे उन्हें देखकर किसी के मन में विकार भाव जागृत न हो। प्रस्तुत सूत्र से यह स्पष्ट होता है कि उस समय भारतीय शिल्पकला एवं वस्त्र उद्योग पर्याप्त उन्नति पर था। यन्त्रों के सहयोग के बिना ही विभिन्न तरह के सुन्दर, आकर्षक एवं मजबूत वस्त्र बनाए जाते थे। अंग्रेजों के भारत में आने के पूर्व ढाका में बनने वाली मलमल इतनी बारीक होती थी कि 20 गज की मलमल का पुरा थान एक बांस की नली में समाविष्ट Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 340 2-1-5-1-2 (476) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन किया जा सकता था। आगम में भी ऐसे वस्त्राभूषणों का उल्लेख मिलता है कि- जो वजन में हल्के और बहुमूल्य होते थे। इससे उस युग की शिल्प कला की उन्नति का स्पष्ट परिचय मिलता है। इस (वस्त्र के) विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... . I सूत्र // 2 // // 476 // से भि० परं अद्धजोयणमेराए वत्थ पडिया० नो अभिसंधारिज्जा गमणाए / / 476 // II संस्कृत-छाया : सः भि० परं अर्ध-योजनमर्यादायां वस्त्रप्रति० न अभिसन्धारयेत् गमनाय / / 476 // III सूत्रार्थ : साधु या साध्वी को वस्त्र की याचना करने के लिए आधे योजन से आगे जाने का विचार नहीं करना चाहिए। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. वस्त्र की गवेषणा के लिये आधे योजन के उपर जाने का मन न करें... V सूत्रसार: - प्रस्तुत सूत्र में वस्त्र ग्रहण करने के लिए क्षेत्र मर्यादा का उल्लेख किया गया है। साधु या साध्वी को आधे योजन से आगे के क्षेत्र में जाकर वस्त्र लाने का संकल्प भी नहीं करना चाहिए। जैसे आगम में साधु-साध्वी को आधे योजन से आगे का लाया हुआ आहार-पानी करने का निषेध किया गया है, उसी तरह प्रस्तुत सूत्र में क्षेत्र का अतिक्रान्त करके वस्त्र ग्रहण करने का भी निषेध किया गया है। वृत्तिकार ने केवल शब्दों का अर्थ मात्र किया है। यह नहीं बताया कि यह आदेश . सामान्य सूत्र से सम्बद्ध है या अभिग्रह विशेष से। . इस विषय पर और प्रकाश डालते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-5-1-3 (477) 341 कहतें हैं... I सूत्र // 3 // // 477 // से भि० से जं० अस्सिपडियाए एगं साहम्मियं समुद्दिस्स पाणाइं जहा पिंडेसणाए भाणियव्वं / एवं बहवे साहम्मिया एणं साहम्मिणिं बहवे साहम्मिणीओ बहवे समणमाहण० तहेव पुरिसंतरकडा जहा पिंडेसणाए // 477 // II. संस्कृत-छाया : स: भि० सः यत्० अस्वप्रतिज्ञया एकं साधर्मिकं समुद्दिश्य प्राणिनः, यथा पिण्डैषणायां (तथा) भणितव्यम्, एवं बहवः साधर्मिका: एकां साधर्मिकां, बहवः साधर्मिण्यः बहून् श्रमण-ब्राह्मण तथैव पुरुषान्तरकृता यथा पिण्डैषणायां // 477 // III सूत्रार्थ : संयमशील साधु या साध्वी को वस्त्र के विषय में यह जानना चाहिए कि- जिसके पास धन नहीं है ऐसा गृहस्थ कोइ साधु के निर्देश से एक या अनेक साधु या साध्वियों के लिए प्राण भूत आदि की हिंसा करके वस्त्र तैयार करे तो साधु-साध्वी को वह वस्त्र नहीं लेना चाहिए। यदि वह वस्त्र बहुत से शाक्य आदि श्रमण-ब्राह्मणों के लिए तैयार किया गया है और वह पुरुषान्तर हो गया हो तो साधु उसे ग्रहण कर सकता है। यह सारा प्रकरण सदोष एवं निर्दोष के विषय में पिण्डैषणा के प्रकरण की तरह समझना चाहिए। IV टीका-अनुवाद : यह दोनों सूत्र आधाकर्मिक-उद्देश से पिंडैषणा के सूत्रों की तरह जानीयेगा... अब उत्तरगुणों के विषय में कहतें हैं... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु-साध्वी को आधाकर्म आदि दोष युक्त वस्त्र ग्रहण नहीं करना चाहिए। यदि किसी व्यक्ति ने एक या अनेक साधुओं या एक और अनेक साध्वियों को उद्देश्य करके वस्त्र बनाया हो तो साधु-साध्वी को वह वस्त्र ग्रहण नहीं करना चाहिए। यदि वह वस्त्र किसी शाक्य आदि श्रमण या ब्राह्मणों के लिए बनाया गया हो, परन्तु पुरुषान्तर कृत नहीं हुआ हो तो वह वस्त्र भी स्वीकर न करे। किंतु यदि वह वस्त्र पुरुषान्तर कृत हो गया है तो साधु उसे ग्रहण कर सकता है। वस्त्र ग्रहण करने या न करने की सारी विधि आहार ग्रहण करने की विधि की तरह ही है। अतः सूत्रकार ने यह स्पष्ट कर दिया Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 342 2-1-5-1-4 (478) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन है कि इस प्रकरण को पिंडैषणा के प्रकरण की तरह समझना चाहिए। अर्थात् साधु को सदा . निर्दोष वस्त्र ही ग्रहण करना चाहिए। - अब उत्तर गुणों की शुद्धि को रखते हुए वस्त्र ग्रहण की मर्यादा का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र - // 4 // // 478 // से भि0 से ज० असंजए भिक्खुपडियाए कीयं वा धोयं वा रत्तं वा घटुं वा मटुं वा, संपधूमियं वा, तहप्पगारं वत्थं अपुरिसंतरकडं जाव नो० अह पु० पुरिसं० जाव पडिगाहिज्जा // 478 // II संस्कृत-छाया : स: भि० स: यत्० असंयत: भिक्षुप्रतिज्ञया कृतं वा धोतं वा रक्तं वा घृष्टं वा मृष्टं वा संप्रधूमितं वा, तथाप्रकारं वयं अपुरुषान्तरकृतं यावत् न० अथ पुनः० पुरुषान्तरण यावत् प्रतिगृह्णीयात् // 478 // . III सूत्रार्थ : संयमशील साधु या साध्वी को वस्त्र के विषय में यह जानना चाहिए कि यदि किसी गृहस्थ ने साधु के लिए वस्त्र खरीदा हो, धोया हो, रंगा हो, घिस कर साफ किया हो, शृंगारित किया हो या धूप आदि से सुगन्धित किया हो और वह पुरुषान्तरकृत नहीं हुआ हो तो साधु साध्वी उसे ग्रहण न करे। यदि वह पुरुषान्तर कृत हो गया हो तो साधु-साध्वी उसे ग्रहण कर सकते हैं। IV टीका-अनुवाद : साधुओं के लिये यदि गृहस्थ वस्त्र खरीद कर लावें या धोकर लावें तो वे अपुरुषांतर कृत होने से साधु उन वस्त्रादि को ग्रहण न करें... किंतु यदि वह गृहस्थ अन्य पुरुष के लिये स्वीकार करके साधु को दे तब साधु उन वस्त्रादि को ग्रहण करें यह यहां सारांश है... V सूत्रसार : . प्रस्तुत सूत्र में उत्तर गुण में लगने वाले दोषों से बचने का आदेश दिया गया है इस में बताया गया है कि जो वस्त्र साधु के लिए खरीदा गया हो, धोया गया हो, रङ्गा गया हो, अच्छी तरह से रगड़ कर साफ किया गया हो, शृङ्गारित किया गया हो या धूप आदि से सुवासित बनाया गया हो तो साधु को वैसा वस्त्र ग्रहण नहीं करना चाहिए। यदि इस तरह का वस्त्र Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-5-1-5 (479) 343 पुरुषान्तर कृत हो गया हो तो साधु उसे ग्रहण कर सकता है। इससे सपष्ट होता है कि जो वस्त्र मूल से साधु के लिए ही तैयार किया गया हो उसे साधु किसी भी स्थिति-परिस्थिति में स्वीकार न करे–चाहे वह पुरुषान्तर कृत हो या न हो, हर हालत में वह अकल्पनीय है। परन्तु, जो वस्त्र मूल से साधु के लिए नहीं बनाया गया है, परन्तु उसके तैयार होने के बाद साधु के निमित्त उसमें कुछ विशेष क्रियाएं की गई हैं। ऐसी स्थिति में साधु उसे तब तक स्वीकृत नहीं कर सकता, जब तक कि वह पुरुषान्तरकृत नहीं हो गया हो। यदि किसी व्यक्ति ने उसे अपने उपयोग में ले लिया हो, तो फिर साधु उसे ले भी सकता है। इस वस्त्र प्रकरण को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... सूत्र . // 5 // // 479 // से भिक्खू वा से जाइं पुण वत्थाई जाणिज्जा, विरूवरूवाइं महद्धणमुल्लाई तं0- आइणगाणि वा सहिणाणि वा सहिणकल्लाणाणि वा आयाणि वा कायाणि वा खोमियाणि वा दुगुल्लाणि वा पट्टाणि वा मलयाणि वा पण्णुण्णाणि वा अंसुयाणि वा चीणंसुयाणि वा देसरांगाणि वा अमिलाणि वा गज्जफलाणि वा फालियाणि वा कोयवाणि वा कंबलगाणि वा पावराणि वा अण्णयराणि वा तह० वत्थाई महद्धणमुल्लाइं लाभे संते नो पडिगाहिज्जा। से भि० आइण्णपाउरणाणि वत्थाणि जाणिज्जा, तं- उद्दाणि वा पेसाणि वा पेसलाणि वा किण्हमिगाईणगाणि वा नीलमिगाईणगाणि वा गोरमि० कणगाणि वा कणगकंताणि वा कणगपट्टाणि वा कणगखइयाणि वा कणगफुसियाणि वा वग्याणि वा विवग्याणि वा आभरणाणि वा आभरणविचित्ताणि वा अण्णयराणि तह० आईण पाउरणाणि वत्थाणि लाभे संते नो पडिगाहिज्जा || 479 // // संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा स: यानि पुनः वस्त्राणि जानीयात्- विरूपरूपाणि महाधनमूल्यानि तद्यथा आजिनानि वा श्लक्ष्णानि वा श्लक्ष्णकल्याणानि वा आजकानि वा कायकानि वा शौमिकानि वा दुकूलानि वा पट्टानि वा मलयानि वा वल्कलतन्तुनिष्पन्नानि प्रणुन्नानि वा अंशुकानि वा चीनांशुकानि वा देशरागाणि वा अमिलानि वा गज्जफलानि वा फालिकानि वा, कोयवानि वा, कम्बलकानि वा प्रावरणानि वा अन्यतराणि वा तथाo वखाणि महाधनमूल्यानि लाभे सति न प्रतिगृह्णीयात् / सः भिo आजिनप्रावरणीयानि वस्त्राणि जानीयात्, तद्यथा- उद्राणि वा पेसानि Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 344 2-1-5-1-5 (479) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन वा पेशलानि वा कृष्णमृगाजिनानि वा नीलमृगाजिनानि वा गौरमृगा० कनकानि वा, कनककान्तीनि वा कनकपट्टानि वा कनकखचितानि वा कनकस्पृष्टानि वा व्याघ्राणि वा विव्याघ्राणि वा आभरणानि वा आभरणविचित्राणि वा अन्यतराणि तथा० आजिन प्रावरणानि वस्त्राणि लाभे सति न प्रतिगृह्णीयात् // 479 // III सूत्रार्थ : संयमशील साधु अथवा साध्वी को महाधन से प्राप्त होने वाले नाना प्रकार के बहुमूल्य वस्त्रों के सम्बन्ध में परिज्ञान होना चाहिए जैसे कि- मुषकादि के चर्म से निषपन्न, अत्यन्त सूक्ष्म, वर्ण और सौन्दर्य से सुशोभित वस्त्र तथा देशविशेषोत्पन्न बकरी या बकरे के रोमों से बनाए गए वस्त्र एवं देशविशेषोत्पन्न इन्द्रनील वर्ण कपास से निर्मित, समान कपास से बने हुए और गौड़ देश की विशिष्ट प्रकार की कपास से बने हुए वस्त्र, पट्ट सूत्र-रेशम से, मलय . सूत्र से और वल्कल तन्तुओंसे बनाए गए वस्त्र तथा अंशुक और चीनांशुक, देशराज नामक देश के, अमल देश के तथा गजफल देश के और फलक तथा कोयल देश के बने हुए प्रधान वस्त्र अथवा ऊर्ण कम्बल तथा अन्य बहुमूल्य वस्त्र-कम्बल विशेष और अन्य इसी प्रकार के अन्य भी बहुमूल्य वस्त्र, प्राप्त होने पर भी विचारशील साधु उन्हें ग्रहण न करे। संयमशील साधु या साध्वी को चर्म एवं रोम से निष्पन्न, वस्त्रों के सम्बन्ध में भी परिज्ञान करना चाहिए। जैसे कि- सिन्धुदेश के मत्स्य के चर्म और रोमों से बने हुए, सिन्धु देश के सूक्ष्मचर्म वाले पशुओं के चर्म एवं रोमों से बने हुए तथा उस चर्म पर स्थित सूक्ष्म रोमों से बने हुए एवं कृष्ण, नील और श्वेत मृग के चर्म और रोमों से बने हुए तथा स्वर्णजल से सुशोभित, स्वर्ण के समान कांति और स्वर्ण रस के स्तबकों से विभूषित, स्वर्ण तारों से खचित और स्वर्ण चन्द्रिकाओं से स्पर्शित बहुमूल्य वस्त्र अथवा व्याघ्र या बूक के चर्म से बने हुए, सामान्य और विशेष प्रकार के आभरणों से सुशोभित तथा अन्यप्रकार के चर्म एवं रोमों से निष्पन्न वस्त्रों को मिलने पर भी संयमशील मुनि स्वीकार न करे। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. जब जाने कि- यह वस्त्रं बहोत सारे धन-मूल्यवाले है... जैसे कि- मूषक आदि के चर्म से बने आजिन... तथा श्लक्ष्ण याने सक्षम... तथा वर्ण एवं कांति से सुंदर ऐसे श्लक्ष्णकल्याण... तथा सूक्ष्म रोमवाले भेड़-बकरीयां के पक्ष्म-रुआंटी से बने हुए वस्त्र-आजक... तथा कोइक देश में इंद्रनील वर्णवाला कपास-रुड़ होती है, अतः उन रुइ से बने हुए वस्त्र-कायक... तथा सामान्य कपास से बनाया हुआ वस्त्र-क्षौमिक... तथा गौड देश के विशेष प्रकार के कपास से बनाये हुए वस्त्र-दुकूल... तथा पट्ट-सूत्र से बने वस्त्र-पट्ट... और मलयज सूत्र से बने वस्त्र... मलय... तथा वल्कल याने वृक्ष की छाल से बने तंतुओ के वस्त्र... Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-5-1-5 (479) 345 तथा अंशुक, चीनांशुक इत्यादि भिन्न भिन्न देशों में प्रसिद्ध नामवाले वस्त्र... कि- जो वस्त्र बहोत सारे धन-मूल्यवाले प्राप्त हो तो भी ऐहिक याने इस जन्म के एवं आमुष्मिक याने जन्मांतर के अपाय याने दुःख-उपद्रवों के भयसे साधु ग्रहण न करें... वह साधु या साध्वीजी म. जब जाने कि- यह वस्र अजिन याने चर्म से बने हुए है... जैसे कि- उद्र याने सिंधु देश की मच्छलीयां, उनके सूक्ष्म चर्म से बने वस्त्र... उद्र... तथा पेस याने सिंधु देश के हि सूक्ष्म चर्मवाले पशुओं के चर्म से बने हुए वस्त्र... तथा पेशल याने चर्म के सूक्ष्म पक्ष्म याने रुवांटी (रोम) से बने वस्त्र... तथा काले मृग के चर्म से बने हुए, नील मृग के चर्म से बने हुए, कौरमृग के चर्म से बने हुए वस्त्र, तथा कनक रसवाले, कनक की कांतिवाले तथा कनक याने सोने के पट्टेवाले तथा सुवर्णजडित चर्म- वस्त्र, तथा वाघ के चर्म से बने वस्त्र, तथा वाघ के चर्म के विभिन्न आभरणवाले वस्त्र तथा आभरणवाले वस्त्र, और आभरणो के विभिन्न प्रकार से विभूषित वस्त्र, ऐसे और भी चर्म से बने वस्त्र प्राप्त हो तो भी साधु ग्रहण न करें... .. अब वस्त्र के ग्रहण करने के अभिग्रहों के विषय में कहतें हैं... सूत्रसार : v प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु को देश या विदेश में बने हुए विशिष्ट रेशम, सूत, चर्म एवं रोमों के बहुमूल्य वस्त्रों को ग्रहण नहीं करना चाहिए। ऐसे कीमती वस्त्रों को देखकर चोरों के मन में दुर्भाव पैदा हो सकता है और साधु के मन में भी ममत्व भाव हो सकता है। चर्म एवं मुलायम रोमों के वस्त्र के लिए पशुओं की हिंसा भी होती है। अतः पूर्ण अहिंसक साधु के लिए ऐसे कीमती एवं महारम्भ से बने वस्त्र व्याह्य नहीं हो सकते। इसलिए भगवान ने साधु के लिए ऐसे वस्त्र ग्रहण करने का निषेध किया है। प्रस्तुत सूत्र से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय एवं सीमा के निकट के देशों में वस्त्र उद्योग काफी उन्नति पर था और उस समय आज के युग से भी अधिक सुन्दर और टिकाऊ वस्त्र बनता था। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि उस युग में भारत आज से अधिक खुशहाल था। उसका व्यापारिक व्यवसाय अधिक व्यापक था। चीन एवं उसके निकटवर्ती देशों से वस्त्र का आयात एवं निर्यात होता रहता था। इससे यह स्पष्ट जानकारी मिलती है कि उस युग में शिल्पकला विकास की चरम सीमा पर पहुंच चुकी थी और जनता का जीवनस्तर काफी उन्नत था। भारत में गरीबी. भुखमरी एवं वस्तुओं का अभाव कम था और अन्य देशों के साथ भारत के व्यापारिक सम्बन्ध भी काफी अच्छे थे। उस युग के भारतीय औद्योगिक, व्यवसायिक एवं व्यापारिक इतिहास की शोध करने वाले इतिहास वेत्ताओं के लिए प्रस्तुत सूत्र बहुत ही महत्वपूर्ण है। Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 346 2-1-5-1-6 (480) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन वस्त्र ग्रहण करते समय किए जाने वाले अभिग्रहों का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामीजी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 6 // // 480 // इच्चेइयाई आयतणाई उवाइकम्म, अह भिक्खू जाणिज्जा चउहिं पडिमाहिं वत्थं एसित्तए, तत्थ खलु इमा पढमा पडिमा, से भि०, उद्देसिय वत्थं जाइज्जा, तं- जंगियं वा जाव तूलकडं वा, तह० वत्थं सयं वा न जाइज्जा, परो० फासुयं पडि० पढमा पडिमा / अहावरा दुच्चा पडिमा- से भि० पेहाए वत्थं जाइज्जा- गाहावई वा० कम्मकरी वा से पुव्वामेव आलोइज्जा- आउसोत्ति वा दाहिसि मे इत्तो अण्णयरं वत्थं ? तहप्प० वत्थं सयं वा० परो० फासुयं एस० लाभे० पडि० दुच्चा पडिमा / अहावरा तच्चा पडिमा० से भिक्खू० से जं पुण० तं अंतरिज्जं वा उत्तरिज्जं वा तहप्पगारं वत्थं सयं० पडि० तच्चा पडिमा / अहावरा चउत्था पडिमा- से0 उज्झियधम्मियं वत्थं जाइज्जा- जं चऽण्णे बहवे समण० वणीमगा नावकंखंति तहप्प० उज्झिय० वत्थं सयं० परो० फासुयं जाव प० चउत्थी पडिमा। इच्चेइयाणं चउण्हं पडिमाणं जहा पिंडेसणाए, सिया णं एताए एसणाए एसमाणं परो वइज्जा आउसंतो समणा ! इज्जाहि तुमं मासेण वा दसराएण वा पंचराएण वा सुते सुततरे वा तो ते वयं अण्णयरं वत्थं दाहामो, एयप्पगारं निग्योसं सुच्चा नि० से पुव्वामेव आलोएज्जा-आउसोत्ति ! वा नो खलु मे कप्पड़ एयप्पगारं संगारं पडिसुणित्तए, अभिकंखसि मे दाउं इयाणिमेव दलयाहि, से नेवं वयंतं परो वइज्जा- आउ० स० ! अणुगच्छाहि तो ते वयं अण्ण वत्थं दाहामो। से पुत्वामेव आलोइज्जा- आउसोत्ति ! वा नो खलु मे कप्पड़ संगारवयणे पडिसुणित्तए० से सेवं वयंतं परो नेया वइज्जा- आउसोत्ति वा ! भइणित्ति वा ! आहरेयं वत्थं समणस्स दाहामो, अवियाइं वयं पच्छावि अप्पणौ सयट्ठाए पाणाई, समारंभ समुद्दिस्स जाव चेइस्सामो, एयप्पगारं णिग्योसं सुच्चा निसम्म तहप्पगारं वत्थं अफासुयं जाव नो पडिगाहिज्जा, सिया णं परो नेता वइज्जा- आउसोत्ति ! वा आहर एयं वत्थं सिणाणे वा आघंसित्ता वा प० समणस्स णं दाहामो, एयप्पगारं निग्योसं सुच्चा नि० से पुव्वामेव आउ० भ० ! मा एयं तुमं वत्थं सिणाणेण वा जाव पघंसाहि वा, अभि० एमेव दलयाहि, से सेवं वयंतस्स परो सिणाणेण वा पघंसित्ता दलइज्जा, तहप्प० वत्थं अफा नो पडिगाहिज्जा। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-5-1-6 (480) 347 * से णं परो नेता वइज्जा० भ० ! आहर एयं वत्थं सीओदगवियडेण वा उच्छोलेत्ता वा पहोलेत्ता वा समणस्स णं दाहामो० एय० निग्योसं तहेव नवरं मा एयं तुमं वत्थं सीओदग० उसि० उच्छोलेहि वा पहोलेहि वा, अभिकंखसि, सेसं तहेव जाव नो पडिगाहिज्जा, से णं परो ने० आ० भ० ! आहरेयं वत्थं कंदाणि वा जाव हरियाणि वा विसोहित्ता समणस्स णं दाहामो, एय० निग्योसं तहेव, नवरं मा एयाणि तुमं कंदाणि वा जाव विसोहेहि, नो खलु मे कप्पड़ एयप्पगारे वत्थे पडिग्गाहित्तए, से सेवं वयंतस्स परो जाव विसोहित्ता दलइज्जा, तहप्प० वत्थं अफासुयं नो प० / सिया से परो नेता वत्थं निसिरिज्जा, से पुटवा० आ० भ० ! तुमं चेव णं संतियं वत्थं अंतेअंतेणं पडिलेहिज्जिस्सामि, केवली बूया आo, वत्थंतेण बद्धे सिया कुंडले वा गुणे वा हिरण्णे वा सुवण्णे वा मणी वा जाव रयणावली वा पाणे वा बीए वा हरिए वा, अह भिक्खू णं पु० जं पुव्वामेव वत्थं अंतो अंतेण पडिलेहिज्जा // 480 / / II संस्कृत-छाया : इत्येतानि आयतनानि उपातिक्रम्य अथ भिक्षुः जानीयात् चतसृभिः प्रतिमाभिः वस्त्रं अन्वेष्टुम्, तत्र खलु प्रथमा प्रतिमा, स: भिक्षुः वा औद्देशिकं उद्दिष्टं वस्त्रं याचेत (याचिष्ये), तद्यथा- जङ्गमिकं वा यावत् तूलकृतं वा, तथाप्रकारं वस्त्रं स्वयं वा न याचेत, पर:० प्रासुकं प्रति० प्रथमा प्रतिमा। अथ अपरा द्वितीया प्रतिमा- सः भिक्षुः वा प्रेक्षितं वस्त्रं याचिष्ये, गृहपतिः वा कर्मकरी वा सः पूर्वमेव आलोकयेत्, हे आयुष्मन् ! वा ददासि मह्यं इत: अन्यतरं वस्त्रम् ? तथाप्रकारं वस्त्रं स्वयं वा० पर:० प्रासुकं एषः लाभे० प्रति० द्वितीया प्रतिमा / अथ अपरा तृतीया प्रतिमा- सः भिक्षुः वा सः यत् पुन: तं अन्तरीयं वा उत्तरीयं वा तथाप्रकारं वस्त्रं स्वयं० प्रति० तृतीया प्रतिमा। अथ अपरा चतुर्थी प्रतिमा- स:० उत्सृष्टधामिकं वखं याचिष्ये, यत् च अन्ये बहवः श्रमण वनीपकाः न अवकाङ्क्षन्ते, तथाप्रकारं० उज्झित० वस्त्रं स्वयं० पर:० प्रासुकं यावत् प्रति० चतुर्थी प्रतिमा। इत्येतासां चतसृणां प्रतिमानां यथा पिण्डैषणायां स्यात् एतया एषणया अन्वेषयन्तं परः वदेत्- हे आयुष्मन् ! श्रमण ! समागच्छ त्वं मासेन वा, तुभ्यं वयं अन्यतरं वस्त्रं दास्यामः, एतत्प्रकारं निर्घोषं श्रुत्वा निशम्य स: पूर्वमेव आलोकयेत्- हे आयुष्मन् ! वा०, न खलु मह्यं कल्पते एतत्प्रकारं शृङ्गारं प्रतिश्रोतुम्, अभिकाङ्क्षसे मह्यं दातुं, इदानीमेव Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 348 2-1-5-1-6 (480) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन देहि, तं एवं वदन्तं परः वदेत्- हे आयुष्मन् ! श्रमण !अनुगच्छ, ततः तुभ्यं वयं अन्यतरं वा वस्त्रं दास्यामः / स: पूर्वमेव आलोकयेत्, हे आयुष्मन् ! वा न खलु मह्यं कल्पते शृङ्गारवचनानि प्रतिश्रोतुम्० तं एवं वदन्तं पर: नेता वदेत्, हे आयुष्मन् ! वा हे भगिनि ! वा आहर एतत् वस्त्रं श्रमणाय दास्यामः, अपि च वयं पश्चादपि आत्मनः स्वार्थाय प्राणिनः, समारम्भं समुद्दिश्य यावत् चेतयिष्यामः (करिष्यामः), एतत्प्रकारं निर्घोषं श्रुत्वा निशम्य तथाप्रकार वस्त्रं अप्रासुकं यावत् न प्रतिगृह्णीयात् ! स्यात् परः नेता वदेत्- हे आयुष्मन् ! वा आहर एतत् वस्त्रं स्नानेन वा, आघर्षयित्वा वा प्रघर्षयित्वा वा श्रमणाय दास्यामः, एतत्प्रकारं निर्घोषं श्रुत्वा निशम्य सः पूर्वमेव० हे आयुष्मन् ! हे भगिनि ! मा एतत् त्वं वस्रं स्नानेन वा यावत् प्रघर्षय वा, अभि० एवमेव देहि, तस्मै एवं वदते परः स्नाने वा प्रघर्षयित्वा दद्यात्, तथाप्रकारं० वखं अप्रा० न प्रति०। सः परः नेता वदेत्० हे भगिनि ! आहर एतत् वस्त्रं शीतोदकविकटेन वा उत्क्षाल्य वा प्रक्षाल्य वा श्रमणाय दास्यामः, एतत्प्रकारं निर्घोषं श्रुत्वा निशम्य० तथैव नवरं मा एतत् त्वं वस्त्रं शीतोदक० उष्णोदक० उत्क्षालय वा प्रक्षालय वा, अभिकाङ्क्षसे, शेषं तथैव यावत् न प्रतिगृह्णीयात्। सः परः नेता हे आयुष्मन् हे भगिनि ! आहर एतत् वस्त्रं कन्दानि वा यावत् हरितानि वा विशोध्य श्रमणाय दास्यामः, एतत् निर्घोषं तथैव, नवरं मा एतानि त्वं कन्दानि वा यावत् विशोधय, न खलु मां कल्पते एतत्प्रकाराणि वस्त्राणि प्रतिग्रहीतुम्, तस्मै एवं वदते पर: यावत् (विशोधयित्वा) विशोध्य दद्यात्, तथाप्र० वखं अप्रासुकं न प्रतिगृह्णीयात् / स्यात् सः परः नेता वस्त्रं निसृजेत्, सः पूर्वमेव० हे आयुष्मन् ! हे भगिनि ! युष्माकं एव सत्कं वस्त्रं अन्तोपान्तेन प्रत्युपेक्षिष्ये, केवली ब्रूयात्-आदानमेतत्, वस्त्रान्तेन बद्धे स्यात् कुण्डलं वा गुणो वा हिरण्यं वा सुवर्णं वा मणी वा यावत् रत्नावली वा, प्राणिनः वा बीजानि वा हरितानि वा, अथ भिक्षूनां पूर्वोप० यत् पूर्वमेव वस्त्रं अन्तोपान्तेन प्रत्युपेक्षेत // 480 // III सूत्रार्थ : वखैषणा के इन पूर्वोक्त तथा वक्ष्यमाण दोषों को छोड़कर संयमशील साधु अथवा साध्वी इन चार प्रतिमाओं-अभिग्रह विशेषों से वस्त्र की गवेषणा करे, यथा-ऊन आदि के वस्त्रों का संकल्प कर उद्देश्य रख कर स्वयं वस्त्र की याचना करे या गृहस्थ ही बिना मांगे वस्त्र देवे तब यदि प्रासुक होगा तो लूंगा, यह प्रथम प्रतिमा है। दूसरी प्रतिमा- देख कर वख की Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री राजेन्द्र सबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 2-1-5-1-6 (480) 349 याचना करूंगा। तीसरी प्रतिमा-गृहस्थ का पहना हुआ वस्त्र लूंगा। चौथी प्रतिमा-उज्झित धर्मवाला वस्त्र लूंगा, जिसे अन्य शाक्यादि श्रमण न चाहते हों। इन प्रतिमाओं-अभिग्रहों को धारण करने वाला साधु अन्य साधुओं की निन्दा न करे तथा स्वयं अहंकार भी न करे, किन्तु जो जिनाज्ञा में चलने वाले हैं वे सब पूज्य हैं इस प्रकार की समाधि अर्थात् समभाव से विचरे। वस्त्र की गवेषणा करते हुए साधु को यदि कोई गृहस्थ कहे कि आयुष्मन् श्रमण ! अब तो तुम चले जाओ। किन्तु मासादि के अन्तर से अर्थात् एक मास या दस दिन अथवा पांच दिन आदि के अनन्तर आप यहां आना तब साधु उस गृहस्थ के प्रति कहे कि आयुष्मन् गृहस्थ ! मुझे यह प्रतिज्ञापूवृक वचन सुनना नहीं कल्पता। अतः यदि तुम देना चाहते हो तो अभी दे दो। इस पर यदि गृहस्थ कहे कि आयुष्मन् श्रमण ! अभी तुम जाओ, थोड़े समय के अनन्तर आकर वस्त्र ले जाना। तब भी मुनि यही कहे कि आयुष्मन् गृहस्थ ! मुझे यह संकेत पूर्वक वचन स्वीकार करना नहीं कल्पता, यदि तुम देना चाहते हो तो इसी समय दे दो। तब गृहस्थ ने किसी निजी पुरुष या बहिन आदि को बुलाकर कहा कि यह वस्त्र इस साधु को दे दो। हम पीछे अपने लिए प्राणियों का समारम्भ करके और बना लेंगे। गृहस्थ के इस प्रकार के शब्दों को सुनकर पश्चात्कर्म लगने से उस वस्त्र को अप्रासुक तथा अनेषणीय जान कर साधु ग्रहण न करे। और यदि घर का स्वामी अपने परिवार से कहे कि जाओ इस वस्र को जल से धोकर और सुगन्धित द्रव्यों से घर्षित करके साधु को दे दीजिए... तब साधु उसे ऐसा करने से मना करे। उसके मना करने-निषेध करने पर भी यदि गृहस्थ उक्त क्रिया करके वस्त्र देना चाहे तो साधु उस वस्त्र को कदापि ग्रहण न करे एवं यदि शीतल अथवा उष्ण जल से धोकर देना चाहे और रोकने पर भी न रूके तो साधु उस वस्त्र को भी स्वीकार न करे। इसी प्रकार यदि वस्त्र में कन्दमूल आदि वनस्पति बान्धी हुई हो या रखी पड़ी हो तब उन्हे अलग कर के देना चाहे तो भी न ले। और यदि गृहस्थ साधु को वस्त्र दे ही दे तो साधु बिना प्रतिलेखना किए, बिना अच्छी तरह देखे। उस वस्त्र को कदापि ग्रहण न करे. कारण कि केवली भगवान कहते हैं कि बिना प्रतिलेखना के वस्त्र का ग्रहण कर्मबन्धन का हेतु होता है, सम्भव है वस्त्र के किसी किनारे में कुण्डल, हार, चान्दी, सोना, मणि यावत् रत्नावली आदि बंधे हुए हो अथवा प्राणी बीज और हरी सब्जी आदि बंधी हुई हों। इसलिए तीर्थंकरादि ने पहले ही मुनियों को आज्ञा प्रदान की है कि साधु बिना प्रतिलेखना किए इन वस्त्रों को ग्रहण न करे। IV टीका-अनुवाद : इस प्रकार पूर्व कहे गये और आगे कहे जाएंगे ऐसे उन आयतनों का अतिक्रमण करके जब भिक्षु याने साधु चार प्रतिमाओं के द्वारा कहे जानेवाले अभिग्रहों के साथ वस्त्र की गवेषणा करना चाहे तब यह जाने कि- पूर्व से हि संकल्पित वस्त्र की याचना करुंगा... यह पहली प्रतिमा... तथा देखे गये वस्त्र की हि याचना करूंगा, अन्य की नहि, यह दुसरी प्रतिमा.... तथा Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 350 2-1-5-1-6 (480) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अंदर की और उपभोग कीया हुआ या बाहार की और गृहस्थ ने उपभोग कीया अर्थात् वापरे हुओ वस्त्र को हि ग्रहण करुंगा... यह तीसरी प्रतिमा... तथा गृहस्थ ने अंदर की और या बाहार की और वापरा हुआ, तथा त्याग करने के लिये निकाले हुए वस्त्र को हि ग्रहण करुंगा... यह चौथी प्रतिमा... यह चारों सूत्र का सारांश-अर्थ है... इन चार प्रतिमाओं का शेष विधि पिडैषणा की तरह जानीयेगा... __ अब सूत्रकार महर्षि कहतें हैं कि- जब साधु पूर्व कही गइ चार प्रतिमा में से कोई भी एक वटैषणा से वस्त्र की गवेषणा करनेवाले साधु को गृहस्थ कहे कि- हे आयुष्मन् श्रमण ! आप एक महिने के बाद, या दश दिन के बाद या पांच दिन के बाद आइयेगा, तब मैं आपको वस्त्र आदि दूंगा... किंतु साधु उस गृहस्थ के उन वचनों का स्वीकार न करें... इत्यादि... शेष सुगम है... यावत् अभी इस वख्त यदि देना चाहो तो दीजीयेगा... इस प्रकार कहनेवाले साधु को वह गृहस्थ कहे कि- हे श्रमण ! अभी आप जाइयेगा... और थोडे दिनों के बाद आप आओगे तब मैं आपको वस्त्र आदि दूंगा... साधु गृहस्थ के ऐसे इन वचनों का भी स्वीकार न करें... और कहे कि- यदि आप देना चाहो तो अभी दीजीयेगा... इस प्रकार फिर से बोलते हुए साधु को देखकर वह गृहस्थ घर का नायक अपने परिवार के बहिन आदि को बुलाकर कहे किवस्त्र लाओ, और कहे कि- अभी हि यह वस्त्र इन साधुओं को दे दीजीये... और हम अपने लिये अन्य वस्त्र प्राणीओं का उपर्मदन करके बनाएंगे... इत्यादि... किंतु ऐसे इस प्रकार के वस्त्र भी साधु पश्चात्कर्म दोष के भय से प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करें... तथा कदाचित् वह गृहस्थ ऐसा कहे कि- स्नान आदि से सुगंधि द्रव्य के द्वारा स्नान आदि से घर्षण आदि क्रिया करके आपको वस्त्र आदि दूंगा... यह बात सुनकर साधु म. निषेध करे और कहे कि- इस प्रकार के वस्त्र हमे नहि कल्पता... यदि निषेध करने पर भी उपरोक्त क्रिया करके वस्त्रादि दे तब साधु उन वस्त्रादि को ग्रहण न करें... इसी प्रकार जल आदि से वस्त्र धोना इत्यादि सूत्र भी स्वयं जानीयेगा.... तथा वस्त्रादि की याचना करने पर वह गृहस्थ कहे कि- कंदमूल-सब्जी आदि वस्त्र से दूर करके आपको वस्त्र दूंगा... इस स्थिति में भी साधु पूर्व की तरह निषेध करे और वस्त्रादि ग्रहण न करें... तथा वस्त्र की यचना करने पर वह गृहस्थ कदाचित् देवे तब वस्त्र दे रहे ऐसे उस गृहस्थ को साधु कहे कि- आपके इस वस्त्र का मैं अंदर-बाहार प्रत्युपेक्षण याने अवलोकन करुंगा... बिना अवलोकन कीये उस वस्त्रादि को साधु ग्रहण न करें... क्योंकि- केवली परमात्मा कहतें हैं कि- बिना प्रत्युपेक्षण कीये वस्त्रादि ग्रहण करने में कर्मबंध होता है... जैसे कि- उन वस्त्रादि में कभी (कदाचित्) कुंडल आदि सुवर्ण के आभूषण बंधे (रखे) हुए हो, या Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-5-1-6 (480) 351 कोई सचित्त वस्तु रखी हुइ हो... इस कारण से साधुओं को पूर्व के सूत्रों में कही गइ यह प्रतिज्ञा होती है कि- साधु वस्त्र की प्रत्युपेक्षणा करके हि ग्रहण करें... V सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में वस्त्र ग्रहण करने की चार प्रतिज्ञाओं का वर्णन किया गया है- 1. उद्दिष्ट, 2. प्रेक्षित, 3. परिभुक्त और 4. उत्सृष्ट धार्मिक। 1. अपने मन में पहले संकल्पित वस्त्र की याचना करना उद्दिष्ट प्रतिज्ञा है। 2. किसी गृहस्थ के यहां वस्त्र देख कर उस देखे हुए वस्त्र की ही याचना करना प्रेक्षित प्रतिज्ञा है। 3. गृहस्थ के अन्तर परिभोग या उत्तरीय परिभोग या उसके पहने हुए वस्त्र की याचना करना परिभुक्त प्रतिज्ञा है। 4. मैं वही वस्त्र ग्रहण करूंगा कि जो उत्सृष्ट धर्मवाला- फैंकने योग्य है। इस तरह के अभिग्रहों को धारण करके वस्त्र की याचना करने की विधि ठीक उसी तरह से बताई गई है, जैसे पिंडैषणा अध्ययन में आहार ग्रहण करने की विधि का उल्लेख किया गया है। इसमें दूसरी बात यह बताई गई है कि यदि कोई गृहस्थ वस्त्र की याचना करते समय साधु से यह कहे कि आप मास या 10-15 दिन के पश्चात आकर वस्त्र ले जाना, तो साधु उसकी इस बात को स्वीकार न करे। वह स्पष्ट कहे कि यदि आपकी वस्त्र देने की इच्छा हो तो अभी दे दो, अन्यथा कुछ दिन के बाद नहीं आऊंगा। इस निषेध के पीछे दो कारण हैंएक तो यह है कि यदि उस समय गृहस्थ के पास वस्त्र नहीं है तो वह साधु के लिए नया वस्त्र खरीद कर ला सकता है या उसके लिए और कोई सावध क्रिया कर सकता है। दूसरी बात यह है कि किसी कारणवश साधु निश्चित समय पर नहीं पहुंच सके तो उसे मृषावाद का दोष लगेगा। यदि किसी गृहस्थ के घर कुछ दिन में वस्त्र आने वाला हो तो साधु कुछ समय के बाद भी वहां जाकर वस्त्र ला सकता है। क्योंकि, उसमें उसके लिए कोई क्रिया नहीं की गई है। परन्तु, इस कार्य के लिए साधु को निश्चित समय के लिए बन्धना नहीं चाहिए। यदि उसे यह ज्ञात हो जाए कि कुछ समय बाद आने वाला वस्त्र निर्दोष है तो वह गृहस्थ से इतना ही कहे कि जैसा अवसर होगा देखा जाएगा। परन्तु, यह न कहे कि मैं अमुक समय पर आकर ले जाऊंगा। वह इतना कह सकता है कि यदि सम्भव हो सका तो मैं अमुक समय पर आने का प्रयत्न करुंगा। इस तरह साधु को सभी दोषों से रहित निर्दोष वस्त्र को अच्छी तरह देखकर ग्रहण करना चाहिए। ऐसा न हो कि उसके किसी कोने में कोई सचित्त या अचित्त वस्तु बन्धी हो या उस पर कोई सचित्त वस्तु लगी हो। अतः वस्त्र ग्रहण करने के पूर्व साधु को उसका सम्यक्तया अवलोकन कर लेना चाहिए। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 352 2-1-5-1-7 (481) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन इस विषय पर और अधिक विस्तार से विचार करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 7 // // 481 / / से भि० से जं असंड० ससंताणगं तहप्प० वत्थं अफा० नो पडि० / से भि० से जं अप्पंडं जाव असंताणगं अनलं अथिरं अधुवं अधारणिज्जं रोइज्जंतं न रुच्चड़, तह० अफा० नो पडि० / से भि० से जं0 अप्पंडं जाव असंताणगं अलं थिरं धुवं धारणिज्जं रोइज्जंतं रुच्चड़, तह० वत्थं फासु० पडि० / से भि० नो नवए मे वत्थेत्ति कट्ट नो बहुदेसिएण सिणाणेण वा जाव पघंसिज्जा। से भि० नो नवए मे वत्थेत्ति कट्ट नो बहुदे० सीओदगवियडेण वा जाव पहोइज्जा / से भिक्खू वा दुब्भिगंधे मे वत्थित्ति कट्ट नो बहु० सिणाणेण तहेव बहुसीओ० उस्सिं०' आलावओ || 481 // II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा सः यत् स-अण्डं० यावत् ससन्तानकं तथाप्रकारं० वस्त्रं अप्रासुकं० न प्रतिगृह्णीयात्। सः भिक्षुः वा सः यत् अल्पाण्डं यावत् असन्तानकं अनलं अस्थिरं अस्थिरं अध्रुवं अधारणीयं रोच्यमानं न रोचते, तथा० अप्रासुकं० न प्रति०। सः भिक्षुः वा सः यत् अल्पाण्डं यावत् असन्तानकं अलं स्थिरं ध्रुवं धारणीयं रोच्यमानं रोचते, तथा० वखं प्रासुकं प्रति०। स: भिक्षुः वा न नवं मम वखं इति कृत्वा न बहुदेश्येन स्नानेन वा यावत् प्रघर्षयेत् / सः भिक्षुः वा न नवं मम वसं इति कृत्वा न बहुदेश्येन शीतोदकविकटेन वा यावत् प्रक्षाल्येत। सः भिक्षुः वा दुरभिगन्धं मम वसं इति कृत्वा न बहुदेश्येन० स्वानेन तथैव बहुशीतोदकविकटेन वा उत्सिच्य० आलापकः // 481 / / III सूत्रार्थ : यदि कोई वस्त्र अण्डों एवं मकड़ी के जालों आदि से युक्त हो तो संयमनिष्ठ साधु-साध्वी को ऐसा अप्रासुक वस्त्र मिलने पर भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। यदि कोई वस्त्र अण्डों और मकड़ी से रहित है, परन्तु, जीर्ण-शीर्ण होने के कारण अभीष्ट कार्य की सिद्धि में असमर्थ है, या गृहस्थ ने उस वस्त्र को थोड़े काल के लिए देना स्वीकार किया है, अतः ऐसा वस्त्र जो पहनने के अयोग्य है और दाता उसे देने की पूरी अभिलाषा भी नहीं रखता और साधु को भी उपयुक्त प्रतीत नहीं होता हो तो साधु को ऐसे वस्त्र को अप्रासुक एवं अनेषणीय जानकर छोड़ देना . Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-5-1-7 (481) 353 चाहिए। यदि वस्त्र अण्डादि से रहित, मजबूत और धारण करने के योग्य है, दाता की देने की पूरी अभिलाषा है और साधु को भी अनुकूल प्रतीत होता है तो ऐसे वस्त्र को साधु प्रासुक जानकर ले सकता है। मेरे पास नवीन वस्त्र नहीं है, इस विचार से कोई साधु-साध्वी पुरातन वस्त्र को कुछ सुगन्धित द्रव्यों से आघर्षण-प्रघर्षण करके उसमें सुन्दरता लाने का प्रयत्न न करे। इस भावना को लेकर वे ठंडे (धोवन) या उष्ण पानी से विभूषा के लिए मलिन वस्त्र को धोने का प्रयत्न भी न करे। इसी प्रकार दुर्गन्धमय वस्त्र को भी सुगन्धयुक्त बनाने के लिए सुगन्धित द्रव्यों और जल आदि से धोने का प्रयत्न भी न करे। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. जब देखे कि- यह वस्त्र अण्डे आदि से युक्त है तब उन वस्त्र आदि को ग्रहण न करें... तथा वह साधु या साध्वीजी म. जब जाने कि- यह वस्त्र अंडे से रहित है यावत् संतानक याने मकडी के जाले आदि से रहित है, किंतु हीन याने न्यून आदि कारण से अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिये समर्थ (उपयुक्त) नहि है, तथा अस्थिर याने जीर्णशीर्ण है तथा अध्रुव याने थोडे समय के लिये वापरने की अनुज्ञा दी है, तथा अशुभ ऐसे काजल आदि के डाघ से कलंकित है... इत्यादि... अन्यत्र भी कहा है कि- वस्त्र में चार भाग देव संबंधित होतें हैं, दो भाग मनुष्य संबंधित होतें हैं तथा दो भाग असुर संबंधित होतें हैं और वस्त्र के मध्य भाग में राक्षस का वास होता है... अतः देव संबंधित भाग में उत्तम लाभ होता है, मनुष्य के भाग में मध्यम लाभ होता है, तथा असुर के भाग में ग्लानि-शोक होता है, और राक्षस के भाग में मरण कहा गया है ऐसा जानो... तथा लक्षण रहित उपधि (वस्त्रादि उपकरण) से ज्ञान-दर्शन एवं चारित्र का विनाश होता है.. इत्यादि... इस प्रकार ऐसे अयोग्य वस्त्र प्रशस्त याने सुंदर हो और गृहस्थ दे रहा हो तो भी वह वस्र साधु को कल्पता नहि है... अधुवं . लं; 39 अब अनल आदि चार पदों के सोलह भांगे-विकल्प होतें हैं... अनलम् अस्थिरं अधुवं अधारणीयम् अनलम् अस्थिरं धारणीयम् अनलम् अस्थिरं अधारणीयम् अनलम् अस्थिरं ध्रुवं . धारणीयम् अनलम् स्थिरं अधारणीयम् अनलम् स्थिरं धारणीयम् अनलम् स्थिरं ध्रुवं अधारणीयम् अनलम् स्थिरं धारणीयम् अधुवं अधुवं Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 354 2-1-5-1-7 (481) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अध्रुवं अधुवं अस्थिरं अस्थिरं अस्थिरं अस्थिरं अलम् अलम् अलम् अलम् अलम् अलम् अलम् अलम् अधारणीयम् धारणीयम् अधारणीयम् धारणीयम् अधारणीयम् धारणीयम् अधारणीयम् धारणीयम् स्थिरं अधुवं अध्रुवं स्थिरं स्थिरं स्थिरं 16. अब इन सोलह (16) विकल्पों में से पंद्रह (15) विकल्प अशुद्ध हैं, मात्र एक हि सोलहवा विकल्प शुद्ध कहा गया है... अतः इस सोलहवे विकल्प के अधिकार में यह सूत्र कहा गया हैं... वह इस प्रकार- वह साधु या साध्वीजी म. जब इस प्रकार के चार पदों से विशुद्ध वस्त्र है ऐसा जाने तब यदि वह वस्त्र प्राप्त हो तो उसे ग्रहण करें... तथा वह साधु या साध्वीजी म. जब ऐसा देखें कि- “मेरी पास नया वस्त्र नहि है" अतः यदि वह साधु उस अपने पुराने वस्त्र को जल से धोकर एवं सुगंधि द्रव्यों से सुवासित करने का प्रयत्न करे वह उचित नहि है... अतः पुराने वस्त्र को सुंदर बनाने का प्रयास न करें... __ तथा वह साधु एवं साध्वीजी म. जब देखे कि- मेरी पास नया वस्त्र नहि है, तब उस पुराने वस्त्र को शीत जल से बार बार न धोवें... यदि वह साधु गच्छनिर्गत (जिनकल्पवाले) है, तब वह साधु मल से मलीन वस्त्र को जल से धोवे नहि एवं सुगंधि द्रव्यों से उस वस्त्र को सुगंधित भी न करें... किंतु यदि वह साधु स्थविर कल्पवाला है तो लोकोपघात के भय से जयणा के साथ अचित्त जल से वस्त्र के मैल को दूर करे... इत्यादि.... अब धोये हुए वस्त्र को सुखाने की विधि का अधिकार कहतें हैं... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु को ऐसा वस्र स्वीकार नहीं करना चाहिए, जो अण्डे एवं मकड़ी के जालों या अन्य जीव-जन्तुओं से युक्त हो। इसके अतिरिक्त वह वस्त्र भी साधु के लिए अग्राह्य है, जो अण्डों आदि से युक्त तो नहीं है, परन्तु जीर्ण-शीर्ण होने के कारण पहनने के अयोग्य है और गृहस्थ भी उसे कुछ दिन के लिए ही देना चाहता है ओर साधु को भी वह पसन्द नहीं है। अतः जो वस्त्र अण्डों आदि से रहित हो, मजबूत हो, गृहस्थ पूरी अभिलाषा के साथ देना चाहता हो और साधु को भी पसन्द हो तो ऐसा कल्पनीय वस्त्र साधु ले सकता है। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी- हिन्दी-टीका 2-1-5-1-8 (482) 355 इसमें दूसरी बात यह बताई गई है कि यदि कोई वस्त्र मैला हो गया हो या दुर्गन्धमय हो तो साधु को विभूषा के लिए उसे पानी एवं सुगन्धित द्रव्यों से रगड़ कर सुन्दर एवं सुवासित बनाने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। वृत्तिकार ने इस पाठ को जिनकल्पी मुनि से सम्बद्ध माना है। उनका कहना है कि यदि जिनकल्पी मुनि के वस्त्र मैले होने के कारण दुर्गन्धमय हो गए हों तब भी उन्हें उस वस्त्र को पानी एवं सुगन्धित द्रव्यों से धोकर साफ एवं सुवासित नहीं करना चाहिए। ___'अधारणिज्ज' पद की व्याख्या करते हुए वृत्तिकार का कहना है कि लक्षणहीन उपधि को धारण करने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र का उपघात होता है। और ‘अनलं अस्थिरं अधुवं और अधारणीयं' इन चार पदों के 16 भंग बनते हैं, उनमें 15 भंग अशुद्ध माने गए हैं और अन्तिम भंग शुद्ध माना गया है। कुछ प्रतियों में 'रोइज्जत' के स्थान पर 'देइज्जंत' और कुछ प्रतियों में 'वइज्जतं' पाठ भी उपलब्ध होता है। वस्त्र प्रक्षालन करने के बाद उसे धूप में रखने के सम्बन्ध में उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र : // 8 // // 482 // से भिक्खू वा० अभिकंखिज्ज वत्थं आयावित्तए वा पयावित्तए वा० तहप्पगारं वत्थं नो अनंतरहियाए जाव पुढवीए संताणए आयाविज्ज वा पयाविज्ज वा० / से भिक्खू वा० अभिकंखिज्ज वत्थं आया० पया० तहप्प० वत्थं थूणंसि वा गिहेलुगंसि वा उसुयालंसि वा कामजलंसि वा अण्णयरे तहप्पगारे अंतलियखजाए दुब्बद्धे दुण्णिक्खित्ते अनिकंपे चलाचले नो आo नो प०। से भिक्खू वा० अभि० आयावित्तए वा तह० वत्थं कुकियंसि वा भित्तंसि वा सिलंसि वा लेखेंसि वा अण्णयरे वा तह० अंतलि0 जाव नो आयाविज्ज वा पयाविज्ज वा०। से भिक्खू० वत्थं आया० पया० तह० वत्थं खंधंसि वा मंचंसि वा पासायंसि वा अण्णयरे वा तह० अंतलि० नो आयाविज्ज वा पयाविज्ज वा०। से तमायाए एगंतमवक्कमिज्जा अहे झामथंडिल्लंसि वा जाव अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि वा थंडिल्लंसि पडिलेहिय, पमज्जिय, तओ संजयामेव वत्थं आयाविज्ज वा पयाविज्ज वा० एयं खलु० सया जइज्जासि तिबेमि // 482 // Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 356 2-1-5-1-8 (482) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० अभिकाङ्क्षत वस्त्रं आतापयितुं वा प्रतापयितुं वा० तथाप्रकारं वस्त्रं न अनन्तरहितायां यावत् पृथिव्यां सन्तानके आतापयेत् वा प्रतापयेत् वा० / सः भिक्षुः अभिकाक्षेत० वस्त्रं आतापयितुं वा प्रतापयितुं वा तथाप्रकारं वस्त्रं स्थूणे वा उम्बरे वा उदूखले वा कामजले (स्नानपीठे) वा अन्यतरे तथाप्रकारे अन्तरिक्षजाते दुर्बद्धे दुर्निक्षिप्ते अनिकम्पे चलाचले न आतापयेत् वा न प्रतापयेत् वा। सः भिक्षुः वा० अभिकाक्षेत० आतापयितुं वा प्रतापयितुं वा तथाप्रकारं वस्त्रं भित्तौ वा शिलायां वा लेष्ठौ वा अन्यतरे वा तथाप्रकारे० अंतरिक्षजाते. यावत् न आतापयेत् वा प्रतापयेत् वा० / से भिक्षुः० वस्त्रं आतापयितुं वा प्रतापयितुं वा तथाप्रकारं वस्त्रं स्कन्धे वा मथे वा प्रासादे वा अन्यतरे वा तथाप्रकारे अन्तरिक्षजाते न आतापयेत् वा न . प्रतापयेत् वा। सः तं आदाय एकान्तं अपक्रामेत् अपक्रम्य अध: दग्धस्थण्डिले वा यावत् अन्यतरे वा तथाप्रकारे स्थण्डिले प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्य तत: संयतः एव वस्त्रं आतापयेत् वा प्रतापयेत् वा एतत् खलु० सदा यतेथाः इति ब्रवीमि // 482 // : III सूत्रार्थ : संयमशील साधु या साध्वी यदि वस्त्र को धूप में सुखाना चाहे तो वह गीली जमीन पर यावत् अण्डों और जालों से युक्त जमीन पर न सुखावे तथा न वस्त्र को स्तंभ पर, घर के दरवाजे पर, ऊखल और स्नान पीठ (चौकी) पर सुखाए एवं इसी प्रकार के अन्य, भूमि से ऊंचे स्थान पर कि- जो दुर्बद्ध, दुनिक्षिप्त कंपनशील तथा चलाचल हों उन पर और घर की दीवार पर, नदी के तट पर, शिला और शिलाखण्ड पर, स्तम्भ पर, मंच पर, माल पर, तथा प्रासाद और हर्म्य-प्रासाद विशेष पर वस्त्र को न सुखावे। यदि सुखाना हो तो एकान्त स्थान में जाकर वहां अग्निदग्ध स्थंडिल यावत् इसी प्रकार के अन्य निर्दोष स्थान का प्रतिलेखन और प्रमार्जना करके यत्न पूर्वक सुखाए। यही साधु का समय-सम्पूर्ण आचार है; इस प्रकार मैं कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. अव्यवहित याने अंतर रहित भूमी पे वस्त्र न सुखावें... तथा यदि वह साधु वस्त्र को सुखाना चाहे तब चलित याने चलायमान हो ऐसे स्थूण आदि पे वस्त्र न सुखावें क्योंकि- वहां से वस्त्रों का गिरना संभवित है... तथा गिहेलुक याने उंबर, उसूयाल Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-5-1-8 (482) 357 याने उद्खल, कामजल याने स्नानपीठ... इत्यादि... तथा दिवार आदि पर भी गिरने-पड़ने के * भय से साधु वस्त्र न सुखायें... इसी प्रकार थंभा, मंच, महल आदि अंतरिक्ष में भी वस्त्र न सुखावें... किंतु निर्जीव-स्थंडिल भूमी की प्रमार्जना पडिलेहणा करके वस्त्र सुखावें... यह हि साधु का समय साधुपना है... यह बात पंचम गणधर श्री सुधर्मस्वामीजी अपने अंतेवासी शिष्य जंबू को कहते हैं... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि जो स्थान गीला हो, बीज, हरियाली एवं अण्डों आदि से युक्त हो तो साधु ऐसे स्थान पर वस्त्र न सुखाए। तथा स्तम्भ पर घर के दरवाजे पर एवं एसे अन्य ऊंचे स्थानों पर भी वस्त्र न सुखाए। क्योंकि हवा के झोंकों से ऐसे स्थानों पर से वस्त्र के गिरने से या उसके हिलने से वायुकायिक एवं अन्य जीवों की विराधना होने की सम्भावना है। इसलिए साधु को ऐसे ऊंचे स्थानों पर वस्त्र नहीं सुखाना चाहिए कि- जो अच्छी तरह बन्धा हआ नहीं है. भली-भांति आरोपित नहीं है. निश्चल नहीं है. तथा चलायमान है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जो अन्तरिक्ष का स्थान सम्यक्तया बन्धा हुआ, आरोपित, स्थिर द मार्ग में वहां पर साधु वस्त्र सुखा भी सकता है। प्रस्तुत सूत्र में मंच आदि स्थानों पर भी वस्त्र सुखाने का निषेध किया है। इसका उद्देश्य आचाराङ्ग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के पहले अध्ययन के ७वें उद्देशक में आहार विधि के प्रकरण में दिया गया उद्देश्य ही है। यदि मञ्च एवं मकान आदि की छत पर जाने का मार्ग प्रशस्त है ओर वहां किसी भी जीव की विराधना होने की सम्भावना नहीं है तो साधु मञ्च एवं मकान आदि की छत पर भी वस्त्र सुखा सकता है। वस्तुतः सूत्रकार का उद्देश्य यह है कि साधु को प्रासुक एवं निर्दोष भूमि पर ही वस्त्र सुखाने चाहिए, जिससे किसी भी प्राणी की हिंसा न हो। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें। || प्रथम चूलिकायां पञ्चमववैषणाध्ययने प्रथमः उद्देशकः समाप्तः // 卐卐 : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शगुंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छाया में शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 358 2-1-5-1-8 (482) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट -परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. “श्रमण" के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. भ. राजेन्द्र सं. 96.5 विक्रम सं. 2058. KILLIOMAR evera वल्यस्त Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-5-2-1 (483) 359 आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 1 अध्ययन - 5 उद्देशक - 2 // वस्त्रैषणा / पहेला उद्देशक कहा अब दुसरे उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं यह इन दोनों में परस्पर इस प्रकार संबंध है कि- पहले उद्देशक में वस्त्र ग्रहण की विधि कही, अब यहां दुसरे उद्देशक में वस्त्र धारण करने की विधि कहेंगे... इस संबंध में आये हुए इस दुसरे उद्देशक का यह प्रथम सूत्र है... I सूत्र // 483 // ___ से भिक्खू वा० अहेसणिज्जाइं वत्थाई जाइज्जा, अहापरिग्गहियाई वत्थाई धारिज्जा, नो धोइज्जा नो रएज्जा नो धोयरत्ताइं वत्थाई धारिज्जा, अपलिउंचमाणो गामंतरेसु० ओमचेलिए, एयं खलु वत्थधारिस्स सामग्गियं / से भिक्खू वा० गाहावडकुलं पविसिउकामे सव्वं चीवरमायाए गाहावइकुलं निक्खमिज्ज वा पविसिज्ज वा, एवं बहिय विहारभूमिं वा वियारभूमिं वा गामाणुगामं वा दूइज्जिज्जा, अह पुण० तिव्वदेसियं वा वासं वासमाणं पेहाए जहा पिंडेसणाए, नवरं सव्वं चीवरमायाए // 483 // II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा० अथ एषणीयानि वस्त्राणि याचेत, यथापरिगृहीतानि वस्राणि धारयेत्, न प्रक्षालयेत् न रञ्जयेत्, न धौतरक्तानि वस्राणि धारयेत्, अगोपयन् यामान्तरेषु० अवमचेलिकः एतत् खलु वस्त्रधारिणः सामग्यम् / _ सः भिक्षुः वा० गृहपतिकुलं प्रविष्टकामः सर्वं चीवरं (वस्त्र) आदाय गृहपतिकुलं निष्क्रामेत् वा प्रविशेत् वा, एवं बहिः विहारभूमिं वा विचारभूमिं वा ग्रामानुग्रामं वा गच्छेत्, अथ पुनः० तीव्रदेशिकां वा वर्षा वर्षन्तं प्रेक्ष्य यथा पिण्डै षणायां, नवरं सर्व चीवरमादाय / / 483 // III सूत्रार्थ : संयमशील साधु या साध्वी भगवान द्वारा दी गई आज्ञा के अनुरूप एषणीय और निर्दोष वस्त्र की याचना करे और मिलने पर उन्हें धारण करे। परन्तु, विभूषा के लिए वे उन्हें न धोए Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360 2-1-5-2-1 (483) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन और न रंगे तथा धोए हुए और रंगे हुए वस्त्रों को पहने भी नहीं। किन्तु, अल्प और असार (साधारण) वस्त्रों को धारण करके व्याम आदि में सुख पूर्वक विचरण करे। वस्त्रधारी मुनि का वस्त्र धारण करने सम्बन्धी यह सम्पूर्ण आचार है अर्थात् यही उसका भिक्षुभाव है। आहारादि के लिए जाने वाले संयमनिष्ठ साधु-साध्वी गृहस्थ के घर में जाते समय अपने सभी वस्त्र साथ में लेकर उपाश्रय से निकलें और गृहस्थ के घर में प्रवेश करें। इसी प्रकार वस्ती से बाहर, स्वाध्याय भूमि एवं जंगल आदि जाते समय तथा व्यामानुयाम विहार करते समय भी वे सभी वस्त्र लेकर विचरें। इसी प्रकार थोड़ी या अधिक वर्षा बरसती हुई देखकर साधु वैसा ही आचरण करे जैसा पिडैषणा अध्ययन में वर्णन किया गया है। केवल इतनी ही विशेषता है कि वह अपने सभी वस्त्र साथ लेकर जाए। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. परिकर्म याने संस्कार न करता पडे वैसे एषणीय वस्त्रों की याचना करे... और जैसे ग्रहण कीये हो वैसे हि पहनें... किंतु उन वस्त्रों में कुछ भी संस्कार न करें... जैसे कि- ग्रहण कीये हुए उन वस्त्रों को न धोवें... तथा रंगे भी नहि, तथा बकुश भाव से उन धोये एवं रंगे हुए वस्त्रों को न पहनें... यहां सारांश यह है कि- ऐसे अनेषणीय वस्त्रों को ग्रहण न करें... अतः प्रमाणोपेत सफेद वस्त्रों को पहनकर, हि एक गांव से अन्य गांव की और विहार करे... इस स्थिति में साधु को कुछ भी वस्त्रादि छुपाने की आवश्यकता नहि होती इस प्रकार साधु सुख-समाधि से विहार करे... तथा अवमचेलिक याने असार वस्त्रों को धारण करनेवाले उस साधु का यह हि साधुपना है... यह सूत्र जिनकल्पवाले साधुओं के लिये कहा है... तथा वस्त्रधारित्व विशेषण को लेकर गच्छवासी स्थविरकल्पवाले साधुओं के लिये भी यह सूत्र अविरुद्ध याने समुचित हि है और यह बात पिंडैषणा अध्ययन में कहे गये विधान मुताबिक जानीयेगा... किंतु वह जिनकल्पिक साधु सर्व उपधि-उपकरण वस्त्रादि लेकर हि विहार करे... इतना यहां विशेष जानीयेगा... अब प्रातिहारिक से उपहत वस्त्र की विधि कहतें हैं... V सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि आगम में वर्जित विधि के अनुसार साधु को निर्दोष एवं एषणीय वस्त्र जिस रूप में प्राप्त हुआ हो वह उसे उसी रूप में धारण करे। विभूषा की दृष्टि से साधु न तो उस वस्त्र को स्वयं धोए और न रंगे और यदि कोई गृहस्थ उसे धोकर या रंगकर दे तब भी वह उसे स्वीकार न करे। इससे यह स्पष्ट होता है कि साधु को विभूषा के लिए वस्त्र को धोना या रंगना नहीं चाहिए। क्योंकि, वह वस्त्र का उपयोग केवल लज्जा ढकने Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी- हिन्दी- टीका 2-1-5-2-2 (484) 361 एवं शीतादि से बचने के लिए करता है, न कि शारीरिक विभूषा के लिए। परन्तु, यदि वस्त्र पर गन्दगी लगी है या उसे देखकर किसी के मन में घृणा उत्पन्न होती है तो ऐसी स्थिति में वह उसे विवेक पूर्वक साफ करता है तो उसके लिए शास्त्रकार का निषेध नहीं है क्योंकि, अशुचियुक्त वस्त्र के कारण वह स्वाध्याय भी नहीं कर सकेगा। अतः उसका निवारण करना आवश्यक है। विभूषा के लिए वस्त्र धोने का निषेध करने के पीछे मुख्य उद्देश्य यह रहा है कि साधु स्वाध्याय एवं ध्यान के समय को वस्त्र धोने में समाप्त न करे। क्योंकि, साधु की साधना शरीर एवं वस्त्रों को सुन्दर बनाने के लिए नहीं, किंतु आत्मा को स्वच्छ एवं पूर्ण स्वतंत्र बनाने के लिए है। अतः उसे अपना पूरा समय आत्म साधना में ही लगाना चाहिए इस सूत्र में साधु को यह आदेश भी दिया गया है कि वह आहार के लिए गृहस्थ के घर में जाते हुए या स्वाध्याय भूमि में तथा जंगल के लिए जाते समय अपने सभी वस्त्र साथ लेकर जाए। इससे यह स्पष्ट होता है कि साधु के पास आवश्यकता के अनुसार बहुत ही थोड़े वस्त्र होते थे। और आगम में भी यह स्पष्ट कर दिया गया है कि साधु को स्वल्प एवं साधारण (असार) वस्त्र रखने चाहिए। इस पाठ से.यह भी ध्वनित होता है कि उस युग में शहर या गांव से बाहर एकान्त में स्वाध्याय करने की प्रणाली थी। क्योंकि एकान्त स्थान में ही चित्त की एकाग्रता बनी रहती है। यह भी बताया गया है कि साधु को शौच के लिए भी गांव या शहर से बाहर जाने का प्रयत्न करना चाहिए। बिना किसी विशेष कारण के उपाश्रय में शौच नहीं जाना चाहिए। . इस सम्बन्ध में कुछ और विशेष बातें बताते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 2 // // 484 // से एगइओ मुहत्तगं पाडिहारियं वत्थं जाइज्जा जाव एगाहेण वा दु० ति० चउ० पंचाहेण वा विप्पवसिय उवागच्छिज्जा, नो तह वत्थं अप्पणो गिहिज्जा नो अण्णमण्णस्स दिज्जा, नो पामिच्चं कुज्जा, नो वत्थेण वत्थपरिणामं करिज्जा, नो परं उवसंकमित्ता एवं वइज्जा- आउ० समणा ! अभिकंखसि वत्थं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ? थिरं वा संतं नो पलिच्छिंदिय परिविज्जा, तहप्पगारं वत्थं ससंधियं वत्थं तस्स चेव निसिरिज्जा, नो णं साइज्जिज्जा / से एगइओ एयप्पगारं निग्योसं सुच्चा नि० जे भयंतारो तहप्पगाराणि वत्थाणि ससंधियाणि मुहत्तगं जाव एगाहेण वा विप्पवसिय उवागच्छंति, तह० वत्थाणि नो अप्पणा गिण्हंति, नो अण्णमण्णस्स दलयंति, तं चेव जाव नो साइज्जंति, बहुवयणेण Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 362 2-1-5-2-2 (484) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन भाणियव्वं, से हंता ! अहमवि मुहत्तगं पाडिहारियं वत्थं जाइत्ता जाव एगाहेण वा . विप्पवसिय उवागच्छिस्सामि अवियाई एयं ममेव सिया, माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करिज्जा || 484 // II संस्कृत-छाया : स: एकाकिकः मुहूर्तकं प्रातिहारिकं वस्त्रं याचेत यावत् एकाहेन वा द्वि० त्रि० चतु० पञ्चाहेन वा उषित्वा, उपागच्छेत्, न तथा वस्त्रं आत्मना गृह्णीयात्, न अन्योऽन्यस्मै दद्यात्, न प्रामित्यं कुर्यात्, न वस्त्रेण वस्त्रपरिणामं कुर्यात्, न परं उपसङ्क्रम्य एवं वदेत्हे आयुष्मन् ! श्रमण ! अभिकाङ्क्षसि वस्त्रं धारयितुं वा परिहतुं वा ? स्थिरं वा सत् न परिच्छन्द्य परिष्ठापयेत्, तथाप्रकारं वस्त्रं ससन्धितं वस्त्रं तस्मै एव निसृजेत्, न स्वादयेत् / स: एकाकिकः एतत्प्रकारं निर्घोषं श्रुत्वा निशम्य ये भगवन्तः तथाप्रकाराणि वस्त्राणि ससन्धितानि मुहूर्तकं, यावत् एकाहेन वा०, उषित्वा, उपागच्छन्ति, तथा० वस्त्राणि न आत्मना गृहन्ति, न अन्योऽन्यस्मै ददते, तत् चैव यावत् न स्वादन्ते, बहुवचनेन प्रातिहारिकं वस्त्रं याचित्वा यावत् एकाहेन वा उषित्वा, उपागमिष्यामि, अपि च एतत् मम एव स्यात्, मातृस्थानं संस्पृशेत्, न एवं कुर्यात् // 484 / / III सूत्रार्थ : कोई एक साधु मुहूर्त आदि काल का उद्देश्य रख कर किसी अन्य साधु से प्रातिहारिक वस्त्र की याचना करके एक दिन, दो दिन, तीन दिन, चार दिन या पांच दिन तक किसी ग्रामादि में निवास कर वापिस आ जाए, और वह वस्त्र उपहत हो गया हो तो वह साधु ग्रहण न करे, न परस्पर देवे, न उधार करे और न अदला-बदली करे तथा न अन्य किसी के पास जाकर यह कहे कि आयुष्मन् श्रमण ! तुम इस वस्त्र को ले लो, तथा वस्त्र के दृढ़ होने पर उसे छिन्नभिन्न करके परठे भी नहीं, किन्तु उपहत वस्त्र उसी साधु को दे दे। कोई साध इस प्रकार के समाचार को सुन कर-अर्थात अमुक साधु अमुक साधु से कुछ समय के लिए वस्त्र मांग कर ले गया था और वह वस्त्र उपहत हो जाने पर उसने नहीं लिया अपितु उसी को दे दिया ऐसा सुनकर वह यह विचार करे कि यदि में भी मुहूर्त आदि का उद्देश्य रख कर प्रातिहारिक वस्त्र की याचना कर यावत् पांच दिन पर्यन्त किसी अन्य ग्रामादि में निवास कर फिर वहां पर आ जाऊंगा तो वह वस्त्र उपहत हो जाने से मेरा ही हो जाएगा, इस प्रकार के विचार के अनुसार यदि साधु प्रातिहारिक वस्त्र का ग्रहण करे तो उसे मातृस्थान का स्पर्श होता है अर्थात् माया के सथन का दोष लगता है। इसलिए साधु ऐसा न करे स्था... बहुत से साधुओं के सम्बन्ध में भी इसी तरह समझना चाहिए। Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-5-2-2 (484) 363 IV टीका-अनुवाद : वह जो कोइ साधु अन्य साधु के पास एक मुहूर्त आदि समय के लिये वापस देने के हिसाब से वस्त्र की याचना करे, और याचना करके अकेला हि यामांतर जावे, वहां वह साधु एक दिन यावत् पांच दिन तक रहकर वापस आवे तब वह वस्त्र उपहत याने दूषित हुआ या कुछ फट गया... अब वह वस्त्र पुनः वस्त्र के स्वामी साधु को दे, तब वह साधु उस वस्त्र का स्वीकार न करे. तथैव वह वस्त्र अन्य साध को भी न दे, तथा उधार भी न करें... किंत कहे कि- यह वस्त्र आप हि रखो, और कितनेक दिनों के बाद आप अन्य वस्त्र मुझे दीजीये... तब वह साधु उस वस्त्र को लेकर अदला-बदली न करे, और अन्य साधु को ऐसा भी न कहे कि- हे श्रमण ! आप इस वस्त्र को लेना या वापरना चाहते हो क्या ? यदि कोइ साधु एकेला हि जावे, उसको वह उपहत (फटा हुआ) वस्त्र दे तब यदि वह वस्त्र अच्छा (पहनने योग्य) हो तो टुकडे टुकडे करके परठे नहिं... तथाप्रकार के फटे हुए या तो सूइ-धागे से सांधे हुओ उस वस्त्र को यदि वस्त्र का स्वामी साधु स्वीकार न करे, किंतु वह फटा हुआ वस्त्र उसीको हि दे, या अन्य कोइ एकाकी जानेवाले अन्य साधु को दे.. इत्यादि... यदि वह कोई एकाकी साधु उपर कहे गये साधु के आचार को जानकर ऐसा सोचे कि- मैं भी वापस देने के हिसाब से मुहूर्त आदि समय के लिये वस्त्र की याचना करके अन्य जगह (गांव) एक दिन यावत् पांच दिन आदि के निवास के द्वारा वस्त्र को उपहत करूंगा, बाद में वह वस्त्र मुझे हि मिलेगा... इत्यादि... ऐसा करने पर वह साधु माया-स्थान के दोष को पाता है, अतः साधु को ऐसा माया-स्थान का सेवन नहि करना चाहिये. v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि यदि किसी साधु ने अपने अन्य किसी साधु से कुछ समय का निश्चय करके वस्त्र लिया हो और उतने समय तक वह ग्रामादि में विचरण करके वापिस लौट आया हो और उसका वह वस्त्र कहीं से फट गया हो या दूषित-मैला हो गया हो, जिसके कारण वह स्वीकार न कर रहा हो तो उस मुनि को वह वस्त्र अपने पास रख लेना चाहिए। और जिस मुनि ने वस्त्र दिया था उसे चाहिए कि वह या तो उस उपहत (फटे हुए या दूषित-मैले हुए) वस्त्र को ग्रहण कर ले। यदि वह उसे नहीं लेना चाहे तो फिर वह उसे अपने दूसरे साधुओं को न बांटे और मजबूत वस्त्र हो तो फाड़ कर परठे (फैंके) भी नहीं और उसके बदले में उससे वैसे ही नए वस्त्र को प्राप्त करने की अभिलाषा भी नहीं रखे। और उस लेने वाले मुनि को भी चाहिए कि यदि वह दाता मुनि उसे वापिस न ले तो वह वस्त्र किसी Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 364 2-1-5-2-3 (485) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अन्य मुनि को यदि उस वस्त्र की आवश्यकता हो तो उसे दे दे। अन्यथा स्वयं उसका उपभोग करे। यह नियम जैसे एक साधु के लिए है उसी तरह अनेक साधुओं के लिए भी यही विधि समझनी चाहिए। किसी साधु से ऐसा जानकर कि प्रातिहारिक रूप लिया हुआ वस्त्र थोड़ा सा फंट जाने पर या दूषित होने पर देने वाला मुनि वापिस नहीं लेता है, इस तरह वह वस्त्र लेने वाले मुनि का ही हो जाता है। इस भावना को मन में रख कर कोई भी साधु प्रातिहारिक वस्र ग्रहण न करे। यदि कोई साधु इस भावना से वस्र ग्रहण करता है, तो उसे माया का दोष लगता है। इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 3 // // 485 // से भि० नो वण्णमंताई वत्थाई विवण्णाई करिज्जा विवण्णाई न वण्णमंताई करिज्जा, अण्णं वा वत्थं लभिस्सामित्ति कट्ट नो अण्णमण्णस्स दिज्जा, नो पामिच्चं कुज्जा, नो वत्थेण वत्थपरिणामं कुज्जा, नो परं उवसंकमित्तु एवं वदेज्जा- आउसो० ! समभिकंखसि मे वत्थं धारित्तए वा परिहरित्तए वा ? थिरं वा संतं नो पलिच्छिंदिय, परिढविज्जा, जहा मेयं वत्थं पावगं परो मण्णह, परं च णं अदत्तहारी पडिपहे पेहाए तस्स वत्थस्स नियाणाय नो तेसिं भीओ उम्मग्गेणं गच्छिज्जा, जाव अप्पुस्सुए, तओ संजय मेव गामाणुगामं दूइज्जिज्जा। से भिक्खू वा० गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से विहं सिया, से जं पुण विहं जाणिज्जा इमंसि खलु विहंसि बहवे आमोसगा वत्थपडियाए संपिंडिया गच्छेज्जा, नो तेसिं भीओ उम्मेग्गेणं गच्छिज्जा जाव गामा० दूइज्जिज्जा। से भि० दूइज्जमाणे अंतरा से आमोसगा पडियागच्छेज्जा, ते णं आमोसगा एवं वदेज्जा- आउसं० ! आहरेयं वत्थं देहि निक्खिवाहि जहे रियाए नाणत्तं वत्थपडियाए, एयं खलु० सया जइज्जासि तिबेमि // 485 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० न वर्णवन्ति वस्त्राणि विवर्णानि कुर्यात्, विवर्णानि च न वर्णवन्ति कुर्यात्, अन्यं वा वस्त्रं लप्स्ये इति कृत्वा न अन्योऽन्यस्मै दद्यात्, न प्रामित्यं कुर्यात्, न वस्त्रेण वस्त्रपरिणामं कुर्यात्, न परं उपसङ्क्रम्य एवं वदेत्- हे आयुष्मन् श्रमण ! Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-5-2-3 (485) 365 समभिकाङ्क्षसि मम वस्त्रं धारयितुं वा परिहत्तुं वा ? स्थिरं वा सत् न परिच्छिन्द्य परिष्ठापयेत्, यथा मम इदं वस्त्रं पापकं परः मन्यते, परं च अदत्तहारी प्रतिपथि प्रेक्ष्य तस्य वस्रस्य निदानाय न तेभ्यः भीत: उन्मार्गेण गच्छेत्, यावत् अल्पोत्सुकः ततः संयत: एव ग्रामानुग्रामं गच्छेत्। स: भिक्षुः वा० ग्रामानुग्रामं गच्छन् अन्तरा तस्य अरण्यं स्यात्, सः यत् पुनः अरण्यं जानीयात्, अस्मिन् खलु अरण्ये बहवः आमोषका: वख-प्रतिज्ञया संपिण्डिताः गच्छेयुः, न तेभ्यः भीत: उन्मार्गेण गच्छेत् यावत् ग्रामा० गच्छेत् / सः भिक्षुः० गच्छन् अन्तरा तस्य आमोषकाः प्रत्यागच्छेयुः, ते आमोषकाः एवं वदेयु:- हे आयुष्मन् श्रमण ! आहर इदं वस्त्रं देहि, निक्षिप, यथा ईर्यायां नानात्वं वस्त्र-प्रतिज्ञया, एतत् खलु० सदा यतेत इति ब्रवीमि // 485 // III सूत्रार्थ : संयमशील साधु और साध्वी सुन्दरवर्णवाले वस्त्रों को विवर्ण-विगत वर्ण न करे तथा विवर्ण को वर्ण युक्त न करे। तथा मुझे अन्य सुन्दर वस्त्र मिल जाएगा ऐसा विचार कर के अपना पुराना वस्त्र किसी और को न दे। और न किसी से उधारा वस्त्र लेवे एवं अपने वस्त्र की परस्पर अदला-बदली भी न करे। तथा अन्य श्रमण के पास आकर इस प्रकार भी न कहे कि आयुष्मन् ! श्रमण ! तुम मेरे वस्त्र को ले लो, मेरे इस वस्त्र को जनता अच्छा नहीं समझती है तथैव उस दृढ वस्त्र को फाड करके फैंके भी नहीं तथा मार्ग में आते हए चोरों को देख कर उस वस्त्र की रक्षा के लिए चोरों से डरता हुआ उन्मार्ग से गमन न करे, किन्तु रागद्वेष से रहित होकर साधु यामानुयाम विहार करे-विचरे। यदि कभी विहार करते हुए मार्ग में अटवी आ जाए तो उसको उल्लंघन करते समय यदि बहुत से चोर एकत्र होकर सामने आ जाए तब भी उनसे डरता हुआ उन्मार्ग में न जाए। यदि वे चोर कहे कि आयुष्मन श्रमण ! यह वस्त्र उतार कर हमें दे दो, यहां रख दो ? तब साधु वस्त्र को भूमि पर रख दे, किन्तु उनके हाथ में न दे और उनसे करूणा पूर्वक उसकी याचना भी न करे। यदि याचना करनी हो तो धर्मोपदेश के द्वारा करे। यदि वे वस्त्र न दें तो नगरादि में जाकर उनके संबन्ध में किसी से कुछ न कहे। यही वस्खैषणा विषयक साधु और साध्वी का सम्पूर्ण आचार है, अतः ज्ञान, दर्शन और चारित्र तथा पांच समितियों से युक्त मुनि विवेकपूर्वक आत्म-साधना में संलग्न रहे। इस प्रकार में कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. चौर आदि के भय से अच्छे वस्त्रों को गंदे (मलीन) न करे... उत्सर्ग नियम से ऐसे वस्त्रों का स्वीकार हि न करें... अथवा तो स्वीकार कीये हुए उन वस्त्रों Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 366 2-1-5-2-3 (485) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन में कोइ संस्कार न करें यह यहां सारांश है... तथा गंदे वस्त्रों को अच्छे (साफ) न करें... इत्यादि सूत्र सुगम है... किंतु यहां विह पद से-अरण्य अटवी का मार्ग जानीयेगा... तथा मार्ग में यदि उस साधु को वस्त्र लेने की इच्छावाले चौर मीले... इत्यादि पूर्ववत् जानीयेगा... यावत् उस साधु का निर्दोष आचरण ही सच्चा साधुपना है... इति... V सूत्रसार : . प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि साधु उज्ज्वल या मलीन जैसा भी वस्त्र मिला है वह उसे उसी रूप में धारण करे। किन्तु, वह न तो चोर आदि के भय से उज्ज्वल वस्र को मलीन करे और न विभूषा के लिए मलीन वस्त्र को साफ करे। और नए वस्त्र को प्राप्त करने की अभिलाषा से साधु अपने पहले के वस्त्र को किसी अन्य साधु को न दे और न किसी से अदला-बदली करे तथा उस दृढ-मजबुत वस्त्र को फाड़ कर भी न फेंके। सूत्रकार ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि साधु को सदा निर्भय होकर विचरना चाहिए। यदि कभी अटवी पार करते समय चौर मिल जाएं तो उनसे अपने वस्त्र को बचाने की दृष्टि से साधु रास्ता छोड़ कर उन्मार्ग की ओर न जाए। यदि वे चोर साधु से वस्त्र मांगे तो साधु उस वस्त्र को जमीन पर रख दे, परन्तु उनके हाथ में न दे और उसे वापिस लेने के लिए उनके सामने गिड़गिड़ाहट भी न करे और न उसकी खुशामद ही करे। यदि अवसर देखे तो उन्हें धर्म का उपदेश देकर सन्मार्ग पर लाने का प्रयत्न करे। इससे यह स्पष्ट होता है कि वस्त्र केवल संयम साधना के लिए है, न कि ममत्व के रूप में है। अतः साधु को किसी भी स्थिति में उस वस्त्र पर ममत्वभाव नहीं रखना चाहिए। इससे साधु जीवन के निर्ममत्व एवं निर्भयत्व का स्पष्ट परिचय मिलता है। 'तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझनी चाहिए। . // प्रथमचूलिकायां पञ्चमवखैषणाध्ययने द्वितीयः उद्देशकः समाप्तः // // समाप्तं च पञ्चममध्ययनम् / / Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-5-2-3 (485) 367 : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शत्रुजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट -परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. "श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. // राजेन्द्र सं. ९६.म विक्रम सं. 2058. ilili/ITUNAM Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 368 2-1-6-1-1 (486) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 1 अध्ययन - 6 उद्देशक - 1 ___ पात्रैषणा // पांचवा अध्ययन कहने के बाद अब छठे अध्ययन का प्रारंभ करतें हैं... इसका यहां यह संबंध है कि- यहां प्रथम अध्ययन में पिंड की विधि कही... वह आहारादि पिंड वसति (उपाश्रय) में आकर हि विधि पूर्वक वापरना चाहिये... ऐसी बात दुसरे अध्ययन में कही है... तथा आहारादि की गवेषणा के लिये ईर्यासमिति की बात तीसरे अध्ययन में कही... तथा आहारादि पिंड की एषणा के लिये निकले हुए साधु को चाहिये कि भाषा-समिति से बात करें... यह बात चौथे अध्ययन में कही है... तथा आहारादि पिंड की गवेषणा पटल (पल्ले) के विना न करें, अतः पांचवे अध्ययन में वस्त्र की एषणा कही है... अब आहारादि पिंड ग्रहण हेतु पात्र चाहिये, अतः इस संबंध से आये हुए छठे अध्ययन में पात्र की एषणा कहते हैं.... पात्रैषणा अध्ययन के चार अनुयोग द्वार हैं उनमें नाम निष्पन्न निक्षेप में पिंडैषणा . अध्ययन है... इस नाम का निक्षेप और अर्थाधिकार पांचवे अध्ययन के प्रारंभ में हि नियुक्तिकार ने कहा है... अब सूत्रानुगम में अस्खलितादि गुण सहित सूत्र का उच्चार करें... वह सूत्र इस प्रकार I सत्र // 1 // // 486 // से भिक्खू वा० अभिकंखज्जा पायं एसित्तए, से जं पुण पायं जाणिज्जा, तं जहाअलाउयपायं वा दारुपायं वा मट्टियापायं वा तहप्पगारं पायं जे निग्गंथे तरुणे जाव थिरसंघयणे से एगं पायं धारिज्जा, नो बिइयं / से भि० परं अद्धजोयणमेराए नो अभिसंधारिज्जा गमणाए। से भि0 से जं० अस्सिं पडियाए एणं साहम्मियं समुद्दिस्स पाणाई, जहा पिंडेसणाए चत्तारि आलावगा, पंचमे बहवे समण० पगणिय तहेव / से भिक्खू वा० अस्संजए भिक्खू पडियाए बहवे समणमाहणे० वत्थेसणालावओ। से भिक्खू वा० से जाइं पुण पायाइं जाणिज्जा विरूवरूवाई महद्धणमुल्लाइं, तं०- अयपायाणि वा तउया० तंबपाया० सीसगपा० हिरण्णपा० सुवण्णपा० रीरिअपाया० हारपुड़पा० मणिकायकंसपाया० संखसिंगपा० दंतपा० चेलपा० सेलपा० चम्मपा० अण्णयराइं वा Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-6-1-1 (486) 369 तह० विरूवरूवाइं महद्धणमुल्लाइं पायाई अफासुयाई नो०। से भि0 से जाइं पुण पायाo विरूव० महद्धणबंधणाई, तं०- अयबंधणाणि वा जाव चम्मबंधणाणि वा, अण्णयराई तहप्प० महद्धणबंधणाई अफा0 नो प० / इच्चेयाई आयतणाई उवाइक्कम्म अह भिक्खू जाणिज्जा चउहि पडिमाहिं पायं एसित्तए, तत्थ खलु इमा पढमा पडिमा / से भिक्खू उद्दिसिय पायं जाएज्जा, तं जहा- अलाउयपायं वा तह० पायं सयं वा णं जाइज्जा जाव पडि० पढमा पडिमा / अहावरा० से० पेहाए पायं जाइज्जा, तं0- गाहावई वा कम्मकरिं वा से पुष्वामेव आलोइज्जा आउ० भ० ! दाहिसि मे इत्तो अण्णयरं पायं तं०- लाउयपायं वा तह० पायं सयं वा जाव पडि० दुच्चा पडिमा। अहा० से भि0 से जं पुण पायं जाणिज्जा संगइयं वा वेइयंतियं वा तहप्प० पायं सयं वा जाव पडि० तच्चा पडिमा। अहावरा चउत्था पडिमा- से भि0 उज्झियधम्मियं जाएज्जा जावऽण्णे बहवे समणा जाव नावकंखंति तह० जाएज्जा जाव पडि० चउत्था पडिमा / ‘इच्चेइयाणं चउण्हं पडिमाणं अण्णयरं पडिमं जहा पिंडेसणाए। से णं एयाए एसणाए एसमाणं पासित्ता परो वइज्जा, आउ० स० ! मुहत्तगं जाव अच्छाहि ताव अम्हे असणं वा उवकरेंसु वा उवक्खडेंसु वा, तो ते वयं आउसो० ! सपाणं सभोयणं पडिग्गहं दाहामो, तुच्छए पडिग्गहे दिण्णे समणस्स नो सुइ साह भवड़, से पुष्वामेव आलोइज्जाआउ० भइ० ! नो खलु मे कप्पड़ आहाकम्मिए असणे वा, भुत्तए वाo, मा उवकरेहि मा उवक्खडेहि, अभिकंखसि मे दाउं एमेव दलयाहि, से सेवं वयंतस्स परो असणं वा, उवकरित्ता उवक्खडित्ता सपाणं सभोयणं पडिग्गहगं दलइज्जा तह० पडिग्गहगं अफासुयं जाव नो पडिगाहिज्जा। सिया से परो उवणित्ता पडिग्गहगं निसिरिज्जा, से पुव्वामेव० आउ० भ० ! तुमं चेव णं संतियं पडिग्गहगं अंतोअंतेण पडिलेहिस्सामि, केवली आयाण, अंतो पडिग्गहगंसि पाणाणि वा बीया० हरि०, अह भिक्खूणं पु० जं पुव्वामेव पडिग्गहगं अंतोअंतेणं पडि० सअंडाइं सव्वे आलावगा भाणियव्वा जहा वत्थेसणाए, नाणत्तं तिल्लेण वा घय० नव० वसाए वा सिणाणादि जाव अण्णयरं वा तहप्पगा० थंडिलंसि पडिलेहिय, पमज्जिय, तओ० संजo आमज्जिज्जा, एवं खलु० सया जएज्जा तिबेमि // 486 // Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 370 2-1-6-1-1 (486) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा अभिकाङक्षेत पात्रं एषितुम्, सः यत् पुनः पात्रं जानीयात्, तद्यथाअलाबुपात्रं वा दारुपात्रं वा मृत्तिकापात्रं वा तथाप्रकारं पात्रं यः निर्ग्रन्थः तरुण: यावत् स्थिरसङ्घयणः सः एकं पात्रं धारयेत् न द्वितीयं / सः भिक्षुः० परं अर्धयोजनमर्यादायां पात्रप्रतिज्ञया न अभिसन्धारयेत् गमनाय / सः भिक्षुः० स: यत् एष्यत्-प्रतिज्ञया एकं साधर्मिकं समुद्दिश्य प्राणिनः वा यथा पिण्डैषणायां चत्वारः आलापकाः, पञ्चमे बहवः श्रमण प्रगण्य तथैव / सः भिक्षुः वा० असंयतः भिक्षुप्रतिज्ञया बहवः श्रमण-ब्राह्मण ववैषणालापकः / सः भिक्षुः वा० स: यानि पुनः पात्राणि जानीयात् विरूपरूपाणि महद्धनमूल्यानि तद्यथा- अयःपात्राणि वा अपुःपात्राणि वा ताम्र-पात्राणि वा सीसकपात्राणि वा हिरण्यपात्राणि वा सुवर्णपात्राणि वा रीरिकपात्राणि वा हारपुटपात्राणि वा मणिकाचकांस्यपात्राणि वा शलशृङ्गपात्राणि वा दन्तपात्राणि वा चेलपात्राणि वा शैलपात्राणि वा चर्मपात्राणि वा अन्यतराणि वा तथाप्रकाराणि विरूपरूपाणि महद्धनमूल्यानि पात्राणि अप्रासुकानि न० / सः भिक्षुः० स: यानि पुनः पात्राणि विरूपरूपाणि महद्धनमूल्यानि, तद्यथा- आयोबन्धनानि वा यावत् चर्मबन्धनानि वा अन्यतराणि तथाप्रकाराणि महद्धनबन्धनानि अप्रासुकानि न प्रतिगृह्णीयात् / इत्येतानि आयतनानि उपातिक्रम्य अथ भिक्षुः जानीयात् चतसृभिः प्रतिमाभिः पात्रं एषितुम्, तत्र खलु इयं प्रथमा प्रतिमा। स: भिक्षुः० उद्दिश्य पात्रं याचेत, तद्यथा- अलाबुपात्रं वा तथाप्रकारं पात्रं स्वयं वा याचेत यावत् प्रतिगृह्णीयात्० प्रथमा प्रतिमा / - अथाऽपरा० स:० प्रेक्ष्य पात्रं याचेत, तद्यथागृहपतिं वा कर्मकरी वा, स: पूर्वमेव आलोकयेत्, आयुष्यमति ! भगिनि ! दास्यसि मह्यं इत: अन्यतरत् पात्रं ? तद्यथाअलाबुपात्रं वा तथाप्रकारं पात्रं स्वयं वा यावत् प्रति० द्वितीया प्रतिमा / अथाऽपरा० स: भिक्षुः० सः यत् पुनः पात्रं जानीयात्- स्वाङ्गिकं वा वैजयन्तिकं वा तथाप्रकारं पात्रं स्वयं वा यावत् प्रतिगृह्णीयात्०, तृतीया प्रतिमा / अथाऽपरा चतुर्थी प्रतिमा- स: भिक्षुः० उज्झितधर्मिकं याचेत, यावत् अन्ये बहवः श्रमणाः यावत् न आकाङ्क्षन्ते, तथा० याचेत, यावत् प्रतिगृह्णीयात्० चतुर्थी प्रतिमा / इत्येतासां चतसृणां प्रतिमानां अन्यतरां प्रतिमां यथा पिण्डैषणायाम् / सः एतया Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-6-1-1 (486) 371 एषणया एष्यन्तं दृष्टवा परः वदेत्, आयुष्मन् ! श्रमण ! मुहूर्तकं यावत् आस्स्व, तावत् वयं अशनं वा उपकुर्मः वा उपस्कुर्मः, तत: तुभ्यं वयं हे आयुष्मन् ! सपानं सभोजनं पतद्ग्रहं दास्यामः, तुच्छके पतद्ग्रहे दत्ते श्रमणस्य न सुष्ठु साधु भवति, सः पूर्वमेव आलोकयेत्, हे आयुष्मति ! भगिनि ! न खलु मह्यं कल्पते आधाकर्मिकं अशनं वा, भोक्तुं वा०, मा उपकुरु मा उपस्कुरु, अभिकाङक्षसे मह्यं दातुं, एवमेव ददस्व, तस्मै सा एवं वदते परः अशनं वा, उपकृत्य उपस्कृत्य सपानं सभोजनं पतद्ग्रहं दद्यात् तथाप्रकारं० पतद्ग्रहं अप्रासुकं यावत् न प्रतिगृह्णीयात् / स्यात् सः परः उपनीय पतद्ग्रहं निसृजेत्, सः पूर्वमेव० हे आयुष्मति ! भगिनि ! तव एव सत्कं पतद्ग्रहं अन्त:बहिः प्रतिलेखिष्यामि, केवली ब्रूयात्- आदानमेतत्० अन्तः पतद्ग्रहे प्राणिनः वा बीजानि वा हरितानि वा० अथ भिक्षूणां पूर्वोप० यत् पूर्वमेव पतद्ग्रहं अन्त:बहिः पतद्ग्रहं० स-अण्डानि... सर्वे आलापका: भणितव्याः यथा वखैषणायाम् / नानात्वं तैलेन वा घृतेन वा नवनीतेन वा वसया वा स्नानादि यावत् अन्यतरत् वा तथाप्रकारं० स्थण्डिले प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्य ततः संयतः एव० आमृज्यात्, एवं खलु० सदा यतेल इति ब्रवीमि // 486 / / III सूत्रार्थ : संयम शील साधु या साध्वी जब कभी पात्र की गवेषणा करनी चाहें तो सब से पहले उन्हें यह जानना चाहिए कि तूंबे का पात्र, काष्ठ का पात्र, और मिट्टी का पात्र साधु ग्रहण कर सकता है। और उक्त प्रकार के पात्र को ग्रहण करने वाला साधु यदि तरूण है स्वस्थ है स्थिर संहनन वाला है तो वह एक ही पात्र धारण करे, दूसरा नहीं और वह साधु अर्द्धयोजन के उपरान्त पात्र लेने के लिए जाने का मन में संकल्प भी न करे। यदि किसी गृहस्थ ने एक साधु के लिए प्राणियों कि हिंसा करके पात्र बनाया हो तो साधु उसे ग्रहण न करे। इसी तरह अनेक साधु, एक साध्वी एवं अनेक साध्वियों के सम्बन्ध में उसी तरह जानना चाहिए जैसे कि पिण्डैषणा अध्ययन में वर्णन किया गया है। और शाक्यादि भिक्षुओं के लिए बनाए गए पात्र के सम्बन्ध में भी पिण्डैषणा अध्ययन के वर्णन की तरह समझना चाहिए। शेष वर्णन ववैषणा के आलापकों के समान समझना। अपितु जो पात्र नाना प्रकार के तथा बहुत मूल्य के हों-यथा लोहपात्र, अपुपात्र-कली का पात्र, ताम्रपात्र, सीसे, चान्दी और सोने का पात्र, पीतल का पात्र, लोह विशेष का पात्र, मणि, कांच और कांसे का पात्र एवं शंख और शृंग से बना हुआ पात्र, दांत का बना हुआ पात्र, पत्थर और चर्म का पात्र और इसी प्रकार के अधिक मूल्यवान अन्य पात्र को भी अप्रासुक तथा अनैषणीय जान कर साधु Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 372 2-1-6-1-1 (486) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन ग्रहण न करे। और यदि लकड़ी आदि के कल्पनीय पात्र पर लोह, स्वर्ण आदि के बहुमूल्य बन्धन लगे हों तब भी साधु उस पात्र को ग्रहण न करे। अतः साधु उक्त दोषों से रहित निर्दोष पात्र ही ग्रहण करे। - इसके अतिरिक्त चार प्रतिज्ञाओं के अनुसार पात्र ग्रहण करना चाहिए। 1. पात्र देख कर स्वयमेव याचना करूंगा। 2. साधु पात्र को देख कर गृहस्थ से कहे-आयुष्मन् गृहस्थ ! क्या तुम इन पात्रों में से अमुक पात्र मुझे दोगे। या वैसे पात्र बिना मांगे ही गृहस्थ दे दे तो मैं ग्रहण करूंगा। 3. जो पात्र गृहस्थ ने उपभोग में लिया हुआ है, वह ऐसे दो-तीन पात्र जिन में गृहस्थ ने खाद्यादि पदार्थ रखे हों वह पात्र ग्रहण करुंगा। 4. जिस पात्र को कोई भी नहीं चाहता, ऐसे उज्झितधर्मवाले पात्र को ग्रहण करूंगा। इन प्रतिज्ञाओं में से किसी एक का धारक मुनि किसी अन्य मुनि की निन्दा न करे। किन्तु यह विचार करता हुआ विचरे कि जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा का पालन करने वाले सभी मुनि आराधक है। पात्र की गवेषणा करते हुए साधु को देख कर यदि कोई गृहस्थ उसे कहे कि आयुष्मन् श्रमण ! इस समय तो तुम जाओ। एक मास के बाद आकर पात्र ले जाना, इत्यादि। इस विषय में शेष वर्णन वस्त्रैषणा के समान जानना। ___ यदि कोई गृहस्थ साधु को देख कर अपने कौटुम्बिक जनों में से किसी पुरुष या स्त्री को बुलाकर यह कहे कि यह पात्र लाओं उस पर तेल, घृत, नवनीत या वसा आदि लगाकर साधु को देवें। शेष स्नानादि शीत उदक तथा कन्द-मूल विषयक वर्णन ववैषणा अध्ययन के समान जानीयेगा। __ यदि कोई गृहस्थ साधु से इस प्रकार कहे कि आयुष्मन् श्रमण ! आप मुहूर्त पर्यन्त ठहरें। हम अभी अशनादि चतुर्विध आहार को उपस्कृत करके आपको जल और भोजन से पात्र भर कर देंगे। क्योंकि साधु को खाली पात्र देना अच्छा नहीं रहता। तब साध उनसे इस. प्रकार कहे कि आयुष्मन् गृहस्थ ! या भगिनि-बहिन ! मुझे आधाकर्मिक आहार-पानी ग्रहण करना नहीं कल्पता। अतः मेरे लिए आहारादि सामग्री को एकत्र और उपसंस्कृत मत करो। यदि तुम मुझे पात्र देने की अभिलाषा रखते हो तो उसे ऐसे ही दे दो। साधु के इस प्रकार कहने पर भी यदि गृहस्थ भोजन आदि बना कर उससे पात्र को भर कर दे तो साधु उसे अप्रासुक जानकर स्वीकार न करे। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-6-1-1 (486) 373 यदि कोई गृहस्थ उस पात्र पर नई क्रिया किए बिना ही लाकर दे तो साधु उसे कहे कि मैं तुम्हारे इस पात्र को चारों तरफ से भली-भांति प्रतिलेखना करके लूंगा। क्योंकि बिना प्रतिलेखना किए ही पात्र ग्रहण करने का केवली भगवान ने कर्मबंध का कारण बताया है। हो सकता है कि उस पात्र में पाणी बीज और हरी आदि हो, जिस से वह कर्मबन्ध का हेतु बन जाए। शेष वर्णन वस्त्रैषणा के समान जानना। केवल इतनी ही विशेषता है कि यदि वह पात्र तैल से, घृत से, नवनीत से और वसा या ऐसे ही किसी अन्य पदार्थ से स्निग्ध किया हुआ हो तो साधु स्थंडिल भूमि में जाकर वहां भूमि की प्रतिलेखना और प्रमार्जना करे। और तत्पश्चात् पात्र को धूली आदि से प्रमार्जित कर-मसल कर रूक्ष बना ले / यही साधु का समय आचार है। जो साधु ज्ञान दर्शन चारित्र से युक्त एवं पांच समितियों से समित है वह साधु के शुद्ध आचार को पालन करने का प्रयत्न करे। इस प्रकार मैं कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. पात्रकी गवेषणा करना चाहे तब वह यह जाने- देखे कितुंबडेके पात्र इत्यादि... तब जो साधु मजबूत-दृढ संघयण बलवाला हो वह उनमेंसे एक हि पात्र ग्रहण करे, एकसे अधिक नहि... यह बात (नियम) जिनकल्पवाले साधुओंके लिये है, और स्थविरकल्पवाले साधु तो मात्रक पात्रके सहित दो पात्र ग्रहण करें... यदि वह संघाटक साधुयुगल हो तब एक पात्रमें भोजन एवं दुसरे पात्रमें जल ग्रहण करें... और मात्रक पात्रमें तो आचार्य आदिके प्रायोग्य आहारादि हि ग्रहण करें... अथवा अशुद्ध आहारादि... . वह भिक्षु... इत्यादि सूत्र सुगम है... यावत् अधिक मूल्यवाले पात्र निर्दोष हो तो भी ग्रहण न करें... तथा अयोबंधनादि सूत्र भी सुगम है... तथा चार प्रतिमाओंके सूत्र भी ववैषणा की तरह जानीयेगा किंतु तीसरी प्रतिमामें दाताके खुदके पात्र कि- जो उपयोग कीया हुआ हो, या दो-तीन पात्रोंमें अनुक्रमसे उपयोग कीये हुए पात्रकी याचना करे... उपर कही गइ पात्रैषणाकी विधिसे पात्रकी गवेषणा करते हुए साधुको देखकर यदि कोइ गृहस्थ घरके महिला-बहिन आदिको कहे कि- इन पात्रोंको तैल आदिसे साफ करके साधुको दीजीये... इत्यादि सूत्र सुगम है... तथा वह गृहस्थ साधुको कहे कि- आपको देनेके लिये पात्र खाली नहि है अतः आप मुहूर्त (दो घडी) तक ठहरीये, तब तक मैं आहारादि बना करके पात्रमें भरकर देता हूं... इस प्रकार रसोड (आहारादि) बनानेवाले उस गृहस्थको साधु मना करे... यदि ना कहने पर भी वह गृहस्थ आहारादि बनावे तब साधु उस पात्रको ग्रहण न करें... Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 374 2-1-6-1-1 (486) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन . अब कल्पनीय बात कहते हैं कि- वह गृहस्थ किस प्रकारसे पात्र दे तो साधु ग्रहण . करे... जैसे कि- उस गृहस्थके द्वारा दीये जा रहे पात्रको साधु अंदर और बाहिर चक्षुसे देखे... इत्यादि सभी बातें वस्त्रकी तरह जानीयेगा... क्योंकि- उस साधुका साधुपना इस प्रकारसे हि सिद्ध होता है... इति... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु को तूम्बे, काष्ठ एवं मिट्टी का पात्र ही ग्रहण करना चाहिए। इसके अतिरिक्त साधु को लोह, ताम, स्वर्ण-चान्दी आदि धातु के तथा कांच के पात्र स्वीकार नहीं करने चाहिए। और साधु को अधिक मूल्यवान पात्र एवं काष्ठ आदि के पात्र भी जो कि धातु से संवेष्टित हों तो उन्हें भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। यदि काष्ठ आदि के पात्र पर कोई गृहस्थ तैल, घृत आदि स्निग्ध पदार्थ लगाकर दे या साधु के लिए आहार आदि तैयार करके उस आहार से पात्र भर कर देवे तब भी साधु को उस सदोष आहार आदि से युक्त पात्र को ग्रहण नहीं करना चहिए। साधु को सब तरह से निर्दोष एवं एषणीय पात्र को चारों ओर से भली-भांति देख कर ही ग्रहण करना चाहिए। इस सम्बन्ध में शेष वर्णन पिंडैषणा प्रकरण की तरह समझना चाहिए। प्रस्तुत सूत्र में यह भी स्पष्ट कर दिया है कि यदि साधु तरुण, नीरोग, दृढ़ संहनन वाला हो तो उसे एक ही पात्र रखना चाहिए। वृत्तिकारने प्रस्तुत पाठ को जिनकल्प से सम्बद्ध माना है। क्योंकि, स्थविरकल्प साधु के लिए तीन पात्र रखने का विधान है। हां, अभिग्रहनिष्ठ साधु अपनी शक्ति के अनुरूप अभिग्रह धारण कर सकता है। इसमें यह भी बताया गया है कि साधु पात्र ग्रहण करने के लिए आधे योजन से ऊपर न जाए। इसका तात्पर्य यह है कि साधु जिस स्थान में ठहरा हुआ हो उस समय वह पात्र लेने के लिए आधे योजन से ऊपर जाने का संकल्प न करे। __ आहार, वस्त्र आदि की तरह साधु-साध्वी को वह पात्र भी ग्रहण नहीं करना चाहिए जो उन साधु के लिए बनाया गया है। साधु को आधाकर्म आदि दोषों से रहित पात्र को स्वीकार करना चाहिए। 'तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझनी चाहिए। // प्रथमचूलिकायां षष्ठ-पात्रैषणाध्ययने प्रथमः उद्देशकः समाप्तः // Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-6-1-1 (486) 375 卐卐 : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शगुंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट -परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. “श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. // राजेन्द्र सं. 96. // विक्रम सं. 2058. Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 376 2-1-6-2-1 (487) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 1 अध्ययन - 6 उद्देशक - 2 म. पात्रैषणा इस दुसरे उद्देशक का अभिसंबंध इस प्रकार है कि- पहले उद्देशक में पात्र का निरीक्षण करने की बात कही है, अब यहां दुसरे उद्देशक में उस पात्र ग्रहण की शेष विधि कहतें हैं... इस संबंध से आये हुए दुसरे उद्देशक का यह पहला सूत्र है... I सूत्र // 1 // // 487 // से भिक्खू वा गाहावइकुलं पिंड० पविढे समाणे पुवामेव पेहाए पडिग्गहगं अवहट्ट पाणे पमज्जिय रयं तओ संजयामेव० गाहावइं० पिंड निक्ख० प० केवलीo आउ0 ! अंतो पडिग्गहगंसि पाणे वा बीए वा हरि० परियावज्जिज्जा, अह भिक्खूणं पुटवोव० चं पुत्वामेव पेहाए पडिग्गहं अवहट्ट पाणे पमज्जिय रयं, तओ संजयामेव० गाहावड़० निक्खमिज्ज वा // 487 / / II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा गृहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया प्रविष्टः सन् पूर्वमेव प्रेक्ष्य पतद्ग्रह अपहत्य प्राणिनः प्रमृज्य रजः ततः संयतः एव गृहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया निष्क्रामेत् वा प्रविशेत् वा, केवली ब्रूयात्- आदानमेतत् / हे आयुष्मन् ! अन्तः पतद्ग्रहे प्राणिन: वा बीजानि वा हरितानि वा पर्यापद्येत, अथ भिक्षूणां पूर्वोपदिष्टा० यत् पूर्वमेव प्रेक्ष्य पतद्ग्रहं अपहत्य प्राणिनः प्रमृज्य रजः, ततः संयतः एव गृहपतिकुलं निष्क्रामेत् वा प्रविशेद् वा // 487 // III सूत्रार्थ : गृहस्थ के घर में आहार पानी के लिए जाने से पहले संयमनिष्ठ साधु साध्वी अपने पात्र का प्रतिलेखन करे। यदि उसमें क्षुद्र जीव-जंतु आदि हों तो उन्हें बाहर निकाल कर एकान्त में छोड़ दे और रज आदि को प्रमार्जित कर दे। उसके बाद साधु आहार आदि के लिए उपाश्रय से बाहर निकले और गृहस्थ के घर में प्रवेश करे। क्योंकि भगवान का कहना है कि बिना प्रतिलेखना किए हुए पात्र को लेकर जाने से उसमें रहे हुए क्षुद्र जीव जन्तु एवं बीज आदि की विराधना हो सकती है। अतः साधु को आहार पानी के लिए जाने से पूर्व पात्र का / Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-6-1-1 (487) 377 सम्यक्तया प्रतिलेखन करके आहार हेतु जाना चाहिए, यही भगवान की आज्ञा है। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. आहारादि पिंड के लिये गृहस्थों के घर में प्रवेश करने के पहले हि पात्र की प्रतिलेखना करे... यदि उस पात्र में कोई जीव जंतु हो या रजःकण हो तो दूर करे... और संयमी होकर हि गृहस्थ के घर में प्रवेश करे और बाहार निकले... यह पात्र की विधि है... प्रश्न- यहां आहारादि ग्रहण करने के पूर्व हि पात्र की पडिलेहणा और प्रमार्जना करना ऐसी पात्र संबंधित विचारणा क्यों कही ? उत्तर- पात्रकी पडिलेहणा कीये बिना हि आहारादि पिंड ग्रहण करने में कर्मबंध होता है... क्योंकि- केवलज्ञानी परमात्मा ने कहा है कि- पडिलेहण कीये बिना पात्र में आहारादि प्रिंड ग्रहण करने में बर्मबंध स्वरुप आश्रव है... जैसे कि- उस पात्र में बेइंद्रियादि जीवजंतु हो, या गेहुँ बाजरी आदि बीज हो, या धूली रजःकण हो, और ऐसे पात्र में आहारादि पिंड ग्रहण करने में कर्मबंध की पूर्णतया संभावना है... इसीलिये साधुओं की पूर्व कही गइ प्रतिज्ञा है कि- पात्र की पडिलेहणा-प्रमार्जना करके जीवजंतु एवं धूली-रजःकण को दूर करके हि गृहस्थ के घर में प्रवेशादि करें... सूत्रसार : . प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु-साध्वी को आहार-पानी के लिए जाने से पहले अपने पात्र का सम्यक्तया प्रतिलेखन करना चाहिए। यद्यपि साधु सायंकाल में पात्र प्रमार्जित करके बांधता है और प्रातः उनका पुनः प्रतिलेखन कर लेता है, फिर भी आहार-पानी को जाते समय पुनः प्रतिलेखन करना अत्यावश्यक है। क्योंकि कभी-कभी कोई क्षुद्र जन्तु या रज (धूल) आदि पात्र में प्रविष्ट हो जातें है। अतः जीवों की रक्षा के लिए उसका प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन करना जरूरी है। यदि पात्र को न देखा जाए और वे क्षुद्र जन्तु उसमें रह जाएं तो उनकी विराधना हो सकती है। इस लिए बिना प्रमार्जन किए पात्र लेकर आहार को जाना कर्मबन्ध का कारण बताया गया है। अतः साधु को सदा विवेक पूर्वक पात्र का प्रतिलेखन करके ही गोचरी को जाना चाहिए। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 378 2-1-6-2-2 (488) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन I सूत्र // 2 // // 488 // से भिo जाव समाणे सिया से परो आहट्ट अंतो पडिग्गहगंसि सीओदगं परिभाइत्ता नीहट्ट दलइज्जा, तहप्प० पडिग्गहगं परहत्थंसि वा परपायंसि वा अफासुयं जाव नो पडि०, से य आहच्च पडिग्गहिए सिया खिप्पामेव उदगंसि साहरिज्जा, से पडिग्गहमायाए पाणं परिदृविज्जा, ससिणिद्धाए वा भूमीए नियमिज्जा। से० उदउल्लं वा ससिणिद्धं वा पडिग्गहं नो आमज्जिज्ज वा, अह पुण विगओदए मे पडिग्गहए छिण्णसिणेहे तह० पडिग्गहं तओ० संजयामेव० आमज्जिज्ज वा जाव पयाविज्ज वा। से भि० गाहा० पविसिउकामे पडिग्गहमायाए गाहा० पिंड० पविसिज्ज वा नि०, एवं बहिया वियारभूमी वा विहारभूमी वा गामा० दुइज्जिज्जा, तिव्वदेसियाए जहा बिइयाए वत्थेसणाए, नवरं इत्थ पडिग्गहे, एयं जलु तस्स० जं सव्वद्वेहिं सहिए सया जइज्जासि त्तिबेमि // 488 // II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा यावत् सन्, तस्य परः आहृत्य अन्त: पतद्ग्रहे शीतोदकं परिभाज्य निसार्य दद्यात्, तथाप्रकारं० पतद्ग्रहं परहस्ते वा परपात्रे वा अप्रासुकं यावत् न प्रतिगृह्णीयात् / सः च आहृत्य प्रतिगृहीतं स्यात्, क्षिप्रमेव उदके प्रक्षिपेत् / सः पतद्ग्रह आदाय पानं परिष्ठापयेत्, सस्निग्धायां वा भूमौ नियच्छेत्- प्रक्षिपेत् / स: भिक्षुः वा० उदकार्द्र वा सस्निग्धं वा पतद्ग्रहं न आमृज्यात् वा न प्रमृज्यात् वा० अथ पुन: विगतोदकं मम पात्रं छिन्नस्नेहं तथाप्रकारं० पतद्ग्रहं, ततः संयतः एव० अमृज्यात् वा यावत् प्रतापयेत् वा। से भिक्षुः वा० गृहपतिकुलं प्रवेष्टु कामः पतद्ग्रहं आदाय गृहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया प्रविशेत् वा निष्क्रामेत् वा, एवं बहिः विचारभूमी वा विहारभूमी वा ग्रामानुग्रामं गच्छेत् / तीव्रदेशीया यथा द्वितीयायां ववैषणायां, नवरं अत्र पदत्ग्रहे, एतत् खलु तस्य० यत् सर्वार्थ: सहित: सदा यतेत इति ब्रवीमि || 488 // III सूत्रार्थ : गृहस्थ के घर में गए हुए साधु या साध्वी ने जब पानी की याचना की और गृहस्थ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-6-1-2 (488) 379 घर के भीतर से सचित्त जल को किसी अन्य भाजन में डाल कर साधु को देने लगा हो तो इस प्रकार के जल को अप्रासुक जानकर साधु ग्रहण न करे। कदाचित्-असावधानी से वह जल ले लिया गया हो तो शीघ्र ही उस जल को वापिस कर दे। यदि गृहस्थ उसे वापिस न ले तो फिर वह उस जल युक्त पात्र को लेकर स्निग्ध भूमि में अथवा अन्य किसी योग्य स्थान में जल को परठ दे और पात्र को एकान्त स्थान में रख दे, किन्तु जब तक उस पात्र से जल के बिन्दु टपकते रहें या वह पात्र गीला रहे तब तक उसे धूप में न सुखावे / जब यह जान ले कि मेरा यह पात्र अब विगत जल और स्नेह से रहित हो गया है तब उसे पोंछ सकता है और धूप में भी सुखा सकता है। संयमशील साधु या साध्वी जब आहार लेने के लिए गृहस्थ के घर में जाए तो अपने पात्र साथ लेकर जाए। इसी तरह स्थंडिल भूमि और स्वाध्याय भूमि में जाते समय भी पात्र को साथ लेकर जाए और यामानुयाम विहार करते समय भी पात्र को साथ में ही रखे। और न्यूनाधिक वर्षा के समय की विधि का वर्णन वस्त्रैषणा अध्ययन के दूसरे उद्देशक के अनुसार समझना चाहिए। यही साधु या साध्वी का समय आचार है। प्रत्येक साधु साध्वी को इसके परिपालन करने का सदा प्रयत्न करना चाहिए। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. आहारादि पिंड के लिये गृहस्थ के घर में प्रवेश कर जल की याचना करे... उस वख्त कभी ऐसा हो कि- कोइ गृहस्थ अनजान में या दुश्मनता के कारण से तथा अनुकंपा से या विना सोचे समझे अपने घर के बरतन में रहा हुआ सचित्त जल उस साधु को देवे... तब वह साधु ऐसे उस सचित्त जल को अप्रासुक जानकर ग्रहण न करे... अथवा अनिच्छा से या अनुपयोग से सचित्त जलका ग्रहण हो गया हो, तो तत्काल उस गृहस्थदाता के बरतन में वापस लौटा दे... यदि वह गृहस्थ साधु को दे दीये गये उस जल को वापस लेना न चाहे तब वह साधु उस सचित्त जल को उस जल के समान जाति के जलवाले कूवे आदि में परिष्ठापन की विधि से परठ देवे... यदि वैसे जलवाले कुवे आदि प्राप्त न हो तब उस सचित्त जल को अन्य छायावाले गर्ता (खडे) आदि में परठ देवे... और यदि उस साधु के पास अन्य पात्र हो तो उस सचित्त जलवाले पात्रं को निर्जन स्थान में छोड देवे... तथा वह साधु उस सचित्त जलवाले पात्र को मांजे नहि याने साफ न करें, कपडे से पोंछे नहि... किंतु यदि वह पात्र सुख जावे तब पोंछ दे... तथा वह साधु किसी गृहस्थ के घर में आहार आदि के लिये जावे तो अपने पात्र को Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 380 2-1-6-2-2 (488) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन लेकर हि जावे... इत्यादि शेष सूत्र के पद सुगम है... यावत् साधु का साधुपना जैसे हो वैसा हि मुनि आचरण करे... सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- गृहस्थ के घर में पानी के लिए गए हुए साधुसाध्वी को कोई गृहस्थ सचित्त पानी देने का प्रयत्न करे तो वह उसे स्वीकार न करे। और यदि कभी असावधानी से ग्रहण कर लिया हो तो उसे अपने उपयोग में न ले किंतु वह उसे उसी समय वापिस कर दे, यदि गृहस्थ वापिस लेना स्वीकार न करे तो एकान्त स्थान में स्निग्ध भूमि पर परठ दे और उस पात्र को तब तक न पोंछे एवं न धूप में सुखाए जब तक उसमें पानी की बुन्दें टपकती हों या वह गीला हो। सचित्त पानी देने के सम्बन्ध में वृत्तिकार ने चार कारण बताए हैं- 1. गृहस्थ की अनभिज्ञता-वह यह न जानता हो कि साधु सचित्त पानी लेते हैं या नहीं, 2. शत्रुता- साधु को बदनाम करके उसे लोगों के सामने सदोष पानी ग्रहण करने वाला बताने की दृष्टि से, 3. अनुकम्पा- साधु को प्यास से व्याकुल देखकर दया भाव से और 4. विमर्षता- किसी अन्य जटिल विचार के कारण उसे ऐसा करने को विवश होना पड़ा हो। अतः यहां यह स्पष्ट है कि गृहस्थ चाहे जिस परिस्थिति एवं भावनावश सचित्त जल दे, परन्तु साधु को किसी भी परिस्थिति में सचित्त जल का उपयोग नहीं करना चाहिए। सचित्त जल को परठने के सम्बन्ध में वृत्तिकार का कहना है कि- यदि गृहस्थ उस सचित्त जल को वापिस लेना स्वीकार न करे तो साधु को उसे कूप आदि में समान जातीय जल में परठ देना चाहिए। यदि साधु के पास दूसरा पात्र हो तो उसे उस सचित्त जल युक्त पात्र को एकान्त में परठ (छोड़) देना चाहिए अथवा छाया युक्त स्निग्ध स्थान में विवेक पूर्वक परठ दे... वस्त्र आदि की तरह पात्र के सम्बन्ध में भी यह बताया गया है कि साधु जब भी आहार-पानी के लिए गृहस्थ के घर में जाए या शौच के लिए बाहर जाए या स्वाध्याय भूमि में जाए तो अपने पात्र को साथ लेकर जाए। इससे स्पष्ट होता है कि साधु को बिना पात्र के कहीं नहीं जाना चाहिए। इसका कारण यह है कि पात्र किसी भी समय काम में आ सकता है। अतः उपाश्रय से बाहर जाते समय पात्र को साथ रखना उपयुक्त प्रतीत होता है। / / प्रथमचूलिकायां षष्ठ-पात्रैषणाध्ययने द्वितीय: उद्देशकः समाप्तः // Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-6-1-2 (488) 381 // समाप्तं च षष्ठमध्ययनम् // 卐 :: प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शगुंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट -परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रविजयजी म. "श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. . राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058. Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 382 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 1 अध्ययन - 7 उद्देशक - 1 . अवग्रह प्रतिमा म छट्ठा अध्ययन कहा, अब सातवे अध्ययन का प्रारंभ कहतें हैं... यहां इसका यह अभिसंबंध है कि- पिंड, शय्या, वस्त्र एवं पात्र आदि अवग्रह याने वसति- उपाश्रय के होने पर हि होतें हैं... अतः वह वसति का अवग्रह कितने प्रकार का होता है ? इस संबंध से आये हुए इस सातवे अध्ययन के चार अनुयोग द्वार कहतें हैं... उनमें उपक्रम के अंतर्गत अर्थाधिकार इस प्रकार है... जैसे कि- साधु विशुद्ध याने निर्दोष वसति के अवग्रह का ग्रहण करे... अब नामनिष्पन्न निक्षेप के अधिकार में अवग्रहप्रतिमा यह नाम है... वहां अवग्रह पद के नाम - स्थापना - द्रव्य - क्षेत्र - काल एवं भाव निक्षेप होतें हैं... इन छह (E) निक्षेपों में से नाम एवं स्थापना निक्षेप सुगम है... अतः अब शेष द्रव्य आदि चार निक्षेपों का स्वरूप नियुक्ति की गाथा के द्वारा कहतें हैं.... नि. 319 1. द्रव्य अवग्रह, 2. क्षेत्र अवग्रह, 3. काल अवग्रह, और 4. भाव-अवग्रहः. अथवा सामान्य से अवग्रह के पांच प्रकार हैं... वे इस प्रकार- (1) लोक के मध्यभाग में रहे हुए आठ रुचक प्रदेश से दक्षिण दिशा के अवग्रह का स्वामी सौधर्मेन्द्र है... तथा (2) राजा का अवग्रह... जैसे कि- भरत क्षेत्र के स्वामी चक्रवर्ती आदि राजा का राज्य संबंधित अवग्रह... तथा (3) गांव-नगर के स्वामी (मुखी) का अवग्रह... जैसे कि- गांव या नगर के विभिन्न पाटक याने महोल्ला आदि सहित गांव-नगर का अवग्रह... तथा (4) शय्यातर याने घर-मकान का स्वामी-गृहस्थ का अवग्रह... तथा (5) साधर्मिक याने उस वसति-मकान या उपाश्रय में मासकल्प आदि कल्प से रहे हुए साधु का अवग्रह... और वह सवा योजन पर्यंत का होता है... इस प्रकार अवग्रह के पांच प्रकार हैं... अतः साधु वसति याने उपाश्रय का अवग्रह ग्रहण करने के वख्त उपरोक्त पांचों अवग्रह के नायक की अनुज्ञा प्राप्त करनी चाहिये... अब द्रव्यादि अवग्रह का स्वरूप कहतें हैं... नि. 320 द्रव्य अवग्रह के तीन प्रकार हैं... (1) सचित्त... जैसे कि- शिष्य आदि... (2) अचित्त द्रव्य . Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-7-1-1 (489) 383 अवग्रह जैसे कि- रजोहरणादि उपकरण... तथा (3) मिश्र याने रजोहरणादि सहित शिष्य आदि.. तथा क्षेत्र अवग्रह भी सचित्तादि तीन प्रकार से है... अथवा (1) गांव, (2) नगर, (3) अरण्य... तथा काल अवग्रह के दो भेद हैं... (1) ऋतुबद्ध याने चतुर्मास को छोडकर शेष काल... एवं (2) वर्षाकाल याने चतुर्मास काल.... अब भाव-अवग्रह का स्वरूप कहतें हैं... नि. 321 भाव-अवग्रह के दो प्रकार हैं... 1. मति अवग्रह... और 2. ग्रहण अवग्रह... अब मति अवग्रह के भी दो भेद हैं... 1. अर्थावग्रह, 2. व्यंजन अवग्रह... उनमें अर्थावग्रह के छह (6) प्रकार हैं... पांच इंद्रियां एवं मन... तथा व्यंजनावग्रह के चार प्रकार हैं... जैसे कि- चक्षु एवं मन के सिवाय शेष चार इंद्रियो का व्यंजनावग्रह... इस प्रकार मति-भावावग्रह के कुल दश (10) भेद हुए... . अब ग्रहण-भाव-अवग्रह का स्वरूप कहतें हैं... नि. 322 * परिग्रह के त्यागी ऐसे साधु को जब आहारादि पिंड, वसति-उपाश्रय, वस्त्र तथा पात्र ग्रहण करने का विचार-परिणाम हो तब ग्रहण भावावग्रह होता है... इस स्थिति में साधु विचार करे कि- हमे शुद्ध वसति आदि दीर्घकाल के लिये या अल्प काल के लिये किस प्रकार से प्राप्त हो... इस प्रकार सोच-विचार करके साधु अवग्रह हेतु यत्न करे... और पूर्व कहे गये देवेन्द्र आदि के पांच प्रकार के अवग्रह को भी इस ग्रहण भावावग्रह में भी समाविष्ट कीया गया है... इस प्रकार नाम निष्पन्न निक्षेप की बात कही, अब सूत्रानुगाम में सूत्र का शुद्ध उच्चार करें... I सूत्र // 1 // // 489 // समणे भविस्सामि अणगारे अकिंचणे अपुत्ते अपसू परदत्तभोई पावं कम्मं नो करिस्सामित्ति समुट्ठाए सव्वं भंते ! अदिण्णादाणं पच्चक्खामि, से अणुपविसित्ता गामं वा जाव रायहाणिं वा नेव सयं अदिण्णं गिण्हिज्जा, नेवऽण्णेहिं अदिण्णं गिहाविज्जा, Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 384 2-1-7-1-1 (489) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अदिण्णं गिण्हते वि अण्णे न समणुजाणिज्जा, जेहिं वि सद्धिं संपव्वइए तेसिं पि जाई छत्तगं वा जाव चम्मछेयणगं वा तेसिं पुव्वामेव उग्गहं अणणुण्णविय अपडिलेहिय अपमज्जिय नो उग्गिण्हिज्जा वा परिगिव्हिज्ज वा० // 489 // II संस्कृत-छाया : श्रमण: भविष्यामि अनगारः अकिञ्चन अपुत्रः अपशुः परदत्तभोजी पापं कर्म न करिष्यामि इति समुत्थाय सर्वं भदन्त ! अदत्तादानं प्रत्याख्यामि, स: अत:नुप्रविश्य ग्राम वा यावत् राजधानी वा नैव स्वयं अदत्तं गृहामि, नैवाऽन्यैः अदत्तं ग्राहयामि, अदत्तं गृह्णत: अपि अन्यान् न समनुजानामि यैः अपि सार्द्ध संप्रव्रजितः, तेषां यानि छत्रं वा यावत् चर्मच्छेदनकं वा तेषां पूर्वमेव अवग्रहं अननुज्ञाप्य अप्रत्युपेक्ष्य, अप्रमृज्य न अवग्रहिष्यामि वा परिग्रहिष्यामि वा, तेषां पूर्वमेव अवग्रहं याचित्वा अनुज्ञाप्य प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्य ततः संयतः एव अवगृह्णीयात् वा परिगृह्णीयात् वा // 489 // III सूत्रार्थ : दीक्षित होते समय दीक्षार्थी सोच-विचार पूर्वक कहता है कि मैं श्रमण-तपस्वी-तप करने वाला बनूंगा, जो घर से, परिग्रह से, पुत्रादि सम्बन्धियों से और द्विपद-चतुष्पद आदि पशुओं से रहित होकर गोचरी (भिक्षा) लाकर संयम का पालन करने वाला साधक बनूंगा, परन्तु कभी भी पापकर्म का आचरण नहीं करूंगा। हे भदन्त ! इस प्रकार की प्रतिज्ञा में आरूढ़ होकर आज मैं सर्वप्रकार के अदत्तादान का प्रत्याख्यान करता हूं। ग्राम, नगर, यावत् राजधानी में प्रविष्ट संयमशील साधु स्वयं अदत्त—बिना दिए हुए पदार्थों को ग्रहण न करे, न दूसरों से ग्रहण कराए और जो अदत्त ग्रहण करता है उसकी अनुमोदना (प्रशंसा) भी न करे। एवं वह मुनि जिनके पास दीक्षित हुआ है, या जिनके पास रह रहा है उनके छत्र यावत् चर्म छेदक आदि जो कोई उपकरण विशेष हैं, उनको बिना आज्ञा लिए तथा बिना प्रतिलेखना और प्रमार्जन किए व्यहण न करे। किन्तु पहले उनसे आज्ञा लेकर और उसके बाद उनका प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन करके उन पदार्थों को स्वीकार करे / अर्थात् बिना आज्ञा से वह कोई भी वस्तु ग्रहण न करे। IV टीका-अनुवाद : जो श्रम करे वह श्रमण... तपस्वी... साधु यह सन्मति से विचार करे कि- मैं श्रम करूं, कि- जिससे मैं श्रमण-तपस्वी हो शकुं... तथा अग याने वृक्ष उन वृक्ष से जो बने वह Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-7-1-1 (489) 385 अगार याने घर... यह अगार जिन्हें नहि हैं वे अनगार... अर्थात् घर की मायाजाल के त्यागी... तथा जिनके पास कुछ भी नहि है वे अकिंचन अर्थात् परिग्रह के त्यागी... तथा अपुत्र याने स्वजन-बंधु परिवार से रहित अर्थात् निर्मम = ममता रहित... तथा अपशु याने दो पाउंवाले दासदासी एवं चार पैरवाले गाय-घोडे आदि के त्यागी... इत्यादि विशेषणवाला जो साधु है वह परदत्तभोजी याने गृहस्थों के द्वारा दीये गये आहार आदि को वापरनेवाला वह साधु ऐसा सोचता है कि- मैं अब पाप-कर्म नहि करूंगा... इस प्रकार की प्रतिज्ञा करके वह मनुष्य श्रमणसाधु होता है... वह इस प्रकार- हे भगवन् ! मैं सभी प्रकार के अदत्त को ग्रहण करने का त्याग करता हुं अर्थात् अदत्तादान का पच्चक्खाण करता हुं... त्याग करता हुं... याने अन्य गृहस्थ आदि ने नहि दीये हुए तृण-तिनके मात्र का भी ग्रहण नहि करुंगा... इस विशेषण के द्वारा शाक्य, सरजस्क आदि अन्य मतवालों में सच्चा साधुपना है कि- क्या ? यह प्रश्न है... अब उपर कहे गये विशेषणवाला अकिंचन साधु गांव, नगर या राजधानी में प्रवेश करके स्वयं हि अदत्त व्यहण न करे, तथा अन्य के द्वारा भी अदत्त का ग्रहण न करवाये... तथा इसी हि प्रकार. यदि कोइ अदत्त ग्रहण करता हो तो उसकी अनुमोदना-प्रशंसा न करें... तथैव जिस साधुओं के साथ प्रवजित हुआ है अर्थात् श्रमणत्व का स्वीकार कीया है उनके जो जो उपकरणवस्तुएं हैं उन वस्तुओं को भी उनकी रजा-अनुमति के सिवा ग्रहण न करें... जैसे कि- छत्र याने वर्षाकल्पादि अथवा कुंकण देश आदि में अतिवृष्टि की संभावना से छत्र याने छत्री (बरसाती) आदि से लेकर यावत् चर्म छेदनक याने चप्पु-कैंची आदि कोइ भी वस्तु उन साधुओं की अनुमति-रजा के बिना एवं पडिलेहण किये बिना एक बार या बार बार ग्रहण न करें... किंतु यदि ऐसी कोई वस्तु की आवश्यकता हो तब ग्रहण करने के पूर्व हि उनकी अनुमति प्राप्त करें तथा चक्षु से पडिलेहण एवं रजोहरणादि से प्रमार्जना करके एक बार या बार बार ग्रहण करें इत्यादि... V सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में साधु के अस्तेय महाव्रत का वर्णन किया गया है। इसमें बताया गया है कि साधु किसी व्यक्ति की आज्ञा के बिना सामान्य एवं विशिष्ट कोई भी पदार्थ स्वीकार न करे। वह दीक्षित होते समय यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं घर, परिवार, धन-धान्य आदि का त्याग करके तप-साधना के तेजस्वी पथ पर आगे बढूंगा और साध्य-सिद्धि तक पहुंचने में सहायक होने वाले आवश्यक पदार्थों एवं उपकरणों को बिना आज्ञा के ग्रहण नहीं करूंगा। इस तरह साधक जीवन पर्यन्त के लिए चोरी का सर्वथा त्याग करके साधना पथ पर कदम रखता है। यहां तक कि वह अपने कुल-गण के साधुओं की कोई भी वस्तु को उनकी आज्ञा Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 386 2-1-7-1-2 (490) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन के बिना ग्रहण नहीं करता। यदि किसी साधु के छत्र, चर्मछेदनी आदि पदार्थ रखे हुए हैं और अन्य साधु को उनकी आवश्यकता है; तो वह उस साधु की आज्ञा के बिना उन्हें ग्रहण नहीं करेगा। प्रस्तुत अधिकार में छत्र का अर्थ है-वर्षा के समय सिर पर लिया जाने वाला ऊन का कम्बल। और स्थविरकल्पी मुनि विशेष कारण उपस्थित होने पर छत्र भी रख सकते हैं। वृत्तिकार ने भी अपवाद मार्ग में छत्र-छाता रखने की बात कही है। अतः छत्र शब्द से कम्बल और छा दोनों में से कोई भी वस्तु हो सकता है। इसी तरह साधु किसी कार्य के लिए गृहस्थ के घर से चर्मछेदनी या असिपुत्र (चाकू) आदि लाया हो और दूसरे साधु को इन वस्तुओं की या उसके पास में स्थित अन्य वस्तुओं में से किसी वस्तु की आवश्यकता हो तो वह उक्त मुनि की आज्ञा लेकर उस वस्तु को ग्रहण कर सकता है। इस तरह साधु स्तेय कर्म से पूर्णतः निवृत्त होकर साधना पथ में गति-प्रगति करता हुआ अपने लक्ष्य पर पहुंचने का प्रयत्न करता है। इस विषय को आगे बढ़ाते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... सूत्र // 2 // // 490 // से भिक्खू० आगंतारेसु वा अणुवीइ उग्गहं जाइज्जा, जे तत्थ ईसरे जे तत्थ समहिठ्ठए, ते उग्गहं अणुण्णविज्जा- कामं खलु आउसो० ! अहालंदं अहापरिण्णायं वसामो जाव आउसो जाव आउसंतस्स उग्गहे जाव साहम्मिया एइ तावं उग्गहं उग्गिहिस्सामो, तेण परं विहरिस्सामो / से किं पुण तत्थोग्गहंसि एवोग्गहियंसि जे तत्थ साहम्मिया संभोइया समणुण्णा उवागच्छिज्जा, जे तेण सयमेसित्तए असणे वा, तेण ते सहम्मिया, उवनिमंतिज्जा, नो चेव णं परवडियाए ओगिज्झिय, उवनि० // 490 // II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः० आगन्तागारेषु वा, अनुविचिन्त्य अक्ग्रहं याचेत, ये ता ईश्वराः, ये तत्र समधिष्ठातारः तेभ्यः अवग्रहं अनुज्ञापयेत्- कामं खलु हे आयुष्मन् ! यथालन्दं यथापरिज्ञातं वसामः, यावत् हे आयुष्मन् ! आयुष्मत: अवग्रहे यावन्तः साधर्मिका: एष्यन्ति तावन्तं अवग्रहं अवग्रहिष्यामः, तेन परं विहरिष्यामः / ___ सः किं पुनः तत्र अवग्रहे एव अवगृहीते ? ये तत्र साम्भोगिकाः समनोज्ञा: उपागच्छेयुः, ये तेन स्वयं एषितुं अशनं वा तेन ते साधर्मिकाः, उपनिमन्येरन्, न च Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-7-1-2 (490) 387 एवं परानीतं अवगृह्य, उपनिमायेत् // 490 / / III सूत्रार्थ : संयमशील साधु या साध्वी धर्मशाला आदि में जाकर सोच-विचार कर उचित स्थान की आज्ञा मांगे। उस स्थान का जो स्वामी या अधिष्ठाता / उससे आज्ञा मांगते हुए कहेआयुष्मन् गृहस्थ ! जिस प्रकार तुम्हारी इच्छा हो अर्थात् जितने समय के लिए जितने क्षेत्र में निवास करने की तुम आज्ञा दोगे उतने काल तक उतने ही क्षेत्र में हम निवास करेंगे, अन्य जितने भी साधर्मिक साधु आएंगे वे भी उतने काल तक उतने क्षेत्र में ठहरेंगे। उक्तकाल के बाद वे और हम विहार कर जाएंगे। इस प्रकार गृहस्थ की आज्ञा के अनुसार वहां निवसित साधु के पास यदि अन्य साधु कि- जो साधर्मिक हैं, समय सामाचारी वाले हैं और उद्यत विहार करने वाले हैं, वे यदि अतिथि के रूप में आजाएं तो वह साधु अपने द्वारा लाए हुए आहारादि ग्रहण हेतु उसे आमंत्रण करे, परन्तु अन्य के लाए हुए आहारादि के लिए उन्हें निमंत्रित न करे। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. धर्मशाला आदि में प्रवेश करके देखे कि- यह क्षेत्र साधुओं के वसति (निवास) के लिये योग्य है, तब उस क्षेत्र-वसति की याचना करे... वह इस प्रकारउस घर का जो स्वामी हो या उस घर का जो देखभाल करनेवाला हो उससे उस घर में रहने के लिये याचना करे... वह इस प्रकार- हे आयुष्मन् ! गृहपति ! आप जितने समय-काल के लिये एवं जितने क्षेत्र की अनुमति-आज्ञां दोगे उतने समय तक उतने क्षेत्र में हम रहेंगे... हे आयुष्मान् ! जितने समय के लिये आपके दीये हुए इस घर में हमारे जितने भी साधु आएंगे उतना हम अवग्रह करेंगे याने आपके घर में रहेंगे... बाद में हम सभी विहार करेंगे... अब अवग्रह ग्रहण करने के बाद की विधि कहतें हैं... वह इस प्रकार-वहां पर जो कोइ प्राघूर्णक साधु कि जो एक सामाचारी वाले हो, समनोज्ञ हो, उद्यतविहारी हो, ऐसे साधुजन विहार करते हुए पधारे तब वह साधु या साध्वीजी म. परलोक की शुभ कामना से उनके आहारादि हेतु स्वयं हि गवेषणा-शोध करे... यदि वे स्वयं हि आहारादि को गवेषणा हेतु साथ में आये हुए हो, तो वह साधु स्वयं हि जो आहारादि गवेषणा करके लाये हुए हो, उन आहारादि को ग्रहण करने के लिये उन साधुओं को निमंत्रण करे... जैसे कि- हे साधुजन ! मैंने लाये हुए इस आहारादि को आप ग्रहण करके मेरे उपर उपकार कीजीये... किंतु अन्य साधुने लाये हुए आहारादि के लिये वह साधु उनको निमंत्रण न करें, किंतु स्वयं खुदने हि लाये हुए आहारादि Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 388 2-1-7-1-3 (491) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन के लिये हि निमंत्रण करें... V सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में मकान ग्रहण करने सम्बन्धी अवग्रह का उल्लेख किया गया है। इसमें बताया गया है कि साधु अपने ठहरने योग्य निर्दोष एवं प्रासुक स्थान को देखकर उसके स्वामी या अधिष्ठाता से उस मकान में ठहरने की आज्ञा मांगे। आज्ञा मांगते समय साधु यह स्पष्ट कर दे कि आप जितने समय के लिए जितने क्षेत्र में ठहरने एवं उपयोग करने की आज्ञा देंगे उतने समय तक हम उतने ही क्षेत्र में ठहरेंगे। और यदि हमारे अन्य साधर्मिक साधु आएंगे तो वे भी उस अवधि तक उतने ही क्षेत्र में ठहरेंगे जितने क्षेत्र की आपने आज्ञा दी है। इससे स्पष्ट है कि कोई भी साधु बिना आज्ञा लिए किसी भी मकान में नहीं ठहरता है। उक्त मकान में स्थित साधु के पास यदि कोई साधर्मिक और समान सामाचारी वाला अन्य साधु अतिथि रूप में आ जाए तो वह अपने लाए हुए आहार-पानी का आमन्त्रण करके उनकी सेवा करे, परन्तु अन्य द्वारा लाए हए आहार-पानी का आमन्त्रण न करे। इससे दो बातें स्पष्ट होती हैं- एक तो यह है कि साधु को अपने अतिथि साधु की स्वयं सेवा करनी चाहिए। इससे पारस्परिक प्रेम-स्नेह में अभिवृद्धि होती है। दूसरी बात यह है कि- साधु का परस्पर एक माण्डले में बैठकर आहार-पानी करने का सम्बन्ध उसी साधु के साथ होता है कि- जो परस्पर साधर्मिक, साम्भोगिक और समान आचार-विचार वाला है। अब असांभोगिक साधु के साथ कैसा व्यवहार रखना चाहिए इसका वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 3 // // 491 // से आगंतारेसु वा जाव से किं पुण तत्थोग्गहंसि एवोग्गहियंसि जे तत्थ साहम्मिया अण्णसंभोइआ समणुण्णा उवागच्छिज्जा जे तेण सयमेसित्तए पीढे वा फलए वा सिज्जा वा संथारए वा तेण ते साहम्मिए अण्णसंभोइए समणुण्णे उवनिमंतिज्जा नो चेव णं परवडियाए ओगिज्झिय उवनिमंतिज्जा / से आगंतारेसु वा, जाव से किं पुण तत्थुग्गहंसि एवोग्गहियंसि जे तत्थ गाहावईण वा गाहा० पुत्ताण वा सूई वा पिप्पलए वा कण्हसोहणए वा नहच्छेयणए वा तं अप्पणो एगस्स अट्ठाए पाडिहारियं जाइत्ता नो अण्णमण्णस्स दिज्ज वा अणुपइज्ज वा सयं करणिज्जंति कटु, से तमायाए तत्थ गच्छिज्जा, पुव्वामेव उत्ताणए हत्थे कटु Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-7-1-3 (491) 389 भूमीए वा ठवित्ता इमं खलु, त्ति आलोइज्जा, नो चेव णं सयं पाणिणा परपाणिंसि पच्चप्पिणिज्जा // 491 // II संस्कृत-छाया : सः आगन्तागारेषु वा, यावत् सः किं तत्र अवग्रहे एव अवगृहीते ये तत्र साधर्मिका अन्यसाम्भोगिकाः समनोज्ञाः उपागच्छेयुः ये तेन स्वयं एषितुं पीठः वा फलक: वा शय्या वा संस्तारकः वा तेन ते साधर्मिकाः अन्यसाम्भोगिकाः समनोज्ञाः उपनिमन्त्र्येरन्, न च एव परानीतं अवगृह्य उपनिमन्त्रयेत्। सः आगन्तागारेषु वा यावत् सः किं पुनः तत्र अवग्रहे एव अवगृहीते ये तत्र गृहपतीनां वा गृहपतिपुत्राणां वा सूची वा पिष्पलकः वा कर्णशोधनकः वा नखच्छेदनक: वा तं आत्मनः एकस्य अर्थाय प्रातिहारिकं याचित्वा न अन्यान्यस्मै दद्यात् वा अनुप्रदद्यात् वा, स्वयं करणीयं इति कृत्वा, स: तं आदाय तत्र गच्छेत्, गत्वा पूवमेव उत्तानके हस्ते कृत्वा भूमौ वा स्थाप्य इमं खलु, इति आलोकयेत्, न च एव स्वयं पाणिना परपाणौ प्रत्यर्पयेत् // 491 // III सूत्रार्थ : आज्ञा प्राप्त कर धर्मशाला आदि में ठहरे हुए साधु के पास यदि उत्तम आचार वाले असंभोगी साधर्मी-साधु अतिथिरूप में आजाएं तो वह स्थानीय साधु अपने गवेषणा किए हुए पीढ़, फलक, शय्या-संस्तारक आदि के द्वारा असांभोगिक साधुओं को निमंत्रित करे, परन्तु दूसरे द्वारा गवेषित पीढ़, फलकादि द्वारा निमंत्रित न करे। - यदि कोई अन्य साधु गृहस्थ के पास से सूई, कैंची, कर्णशोधनिका और नखछेदक आदि उपकरण अपने प्रयोजन के लिये मांग कर लाया हो तो वह उन उपकरणों को अन्य भिक्षुओं को न दे। किन्तु अपना कार्य करके गृहस्थ के पास जाए और लम्बा हाथ करके उन उपकरणों को भूमि पर रख कर गृहस्थ से कहे कि यह तुम्हारा पदार्थ है, इसे संभाल लो, देख लो... परन्तु उन सूई आदि वस्तुओं को साधु अपने हाथ से गृहस्थ के हाथ में न रखे। IV टीका-अनुवाद : पूर्व के सूत्र की तरह यहां जानीयेगा, किंतु जो साधु असांभोगिक हैं उन्हें पीठ, फलक आदि के लिये निमंत्रण करें... क्योंकि- उन्हे यह पीठ आदि हि उपभोग में आ शकतें हैं... आहारादि नहिं... तथा वहां उस मकान में गृहस्थ से अवग्रह की अनुमति लेने के बाद जो मनुष्य Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 390 2-1-7-1-4 (492) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन उस घर के मालिक के संबंधित नहि है उसके पास से कभी सूइ आदि की आवशक्यता होने पर मात्र अपने खुद के लिये हि लेवे, वह सूइ आदि वस्तु अन्य साधुओं को न दे... किंतु कार्य पूर्ण होने पर उसी मनुष्य को वह सूई आदि वस्तु सूत्रोक्त विधि से वापस लौटा दे... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि गत सूत्र में कथित विधि से आज्ञा लेकर ठहरे हुए साधु के पास कोई असम्भोगिक एवं अन्य सामाचारी का पालन करने वाले साधु आ जाएं तो वह अपने लाए हुए शय्या-संथारे या पाट-तख्त आदि से उसका सत्कार-सन्मान करे अर्थात् उसे उनका आमन्त्रण करे, परन्तु अन्य के लाए हुए पाट आदि का उसे निमन्त्रण न करे। इससे स्पष्ट होता है कि- ऐसे उन यहां आए हुए साधर्मिक एवं चारित्रनिष्ठ साधक का- जिसके साथ आहार-पानी का संभोग नहीं है और जिसकी सामाचारी भी अपने समान नहीं है, शय्यासंस्तारक आदि से सम्मान करना चाहिए... आगम में बताया गया है कि भगवान पार्श्वनाथ एवं भगवान महावीर के साधुओं की सामाचारी भिन्न थी, उनका परस्पर साम्भोगिक सम्बन्ध भी नहीं था। फिर भी जब गौतमस्वामी केशी श्रमण के स्थान पर पहुंचे तब केशी श्रमण ने गौतमस्वामी का स्वागत किया और उन्हें निर्दोष एवं प्रासुक पलाल (घास) आदि का आसन लेने की प्रार्थना की। इससे पारस्परिक धर्म-स्नेह में अभिवृद्धि होती है और पारस्परिक मेलमिलाप एवं विचारों के आदान-प्रदान से चारित्र-जीवन का भी विकास होता है। अतः असम्भोगी साधु का शय्या आदि से सम्मान करना प्रत्येक साधु का कर्तव्य है। प्रस्तुत सूत्र के उत्तरार्ध में बताया गया है कि यदि साधु अपने प्रयोजन (कार्य) के लिए किसी गृहस्थ से सूई, कैंची, कान साफ करने का शस्त्र आदि लाया हो तो वह उसे अपने काम में ले, किन्तु अन्य साधु को न दे। और अपना कार्य पूरा होने पर उन वस्तुओं को गृहस्थ के घर जाकर हाथ लम्बा करके भूमि पर रख दे और उसे कहे कि यह अपने पदार्थ सम्भाल लो। परन्तु, वह साधु उन पदार्थों को उसके हाथ में न दे। इस विषय का विशेष स्पष्टीकरण करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 4 // // 492 // से भि० से जं0 उग्गहं जाणिज्जा अनंतरहियाए पुढवीए जाव स ससंताणए तह उग्गहं नो गिहिज्जा वा / से भि० से जं पुण उग्गहं थूणंसि वा, तह० अंतलिक्खजाए दुब्बद्धे जाव बो उगिव्हिज्जा वा / Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-7-1-4 (492) 391 से भि० से जं कुलियंसि वा, जाव नो उगिहिज्जा वा / से भि० खंधंसि वा, अण्णयरे वा तह० जाव नो उग्गहं उगिण्हिज्जा वा / से भि० से जं० पुण० ससागारियं० सखुडुपसुभत्तपाणं नो पण्णस्स निक्खमणपवेसे जाव धम्माणुओगचिंताए, सेवं नच्चा, तह उवस्सए ससागारिए० नो उवग्गहं उगिण्हिज्जा वा / ... से भि० से जं० गाहावडकुलस्स मज्झमझेण गंतुं पंथे पडिबद्धं वा नो पण्णस्स जाव सेवं नच्चा०। से भि० से जं० इह खलु गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा अण्णमण्णं अक्कोसंति वा तहेव तिल्लादि सिणाणादि सीओदग-वियडादि निगिणाइ वा जहा सिज्जाए आलावगा, नवरं उग्गहवत्तट्वया। से भि० से जं० आइण्णसंलियखे नो पण्णस्स० उगिण्हिज्ज वा, एयं खलु० // 492 // . II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा० स: यत् अवग्रहं जानीयात्- अनन्तरहितायां पृथिव्यां यावत् ससन्तानके तथा० अवग्रहं न गृह्णीयात् वा / सः भिक्षुः सः यत् पुनः अवग्रहं स्थूणायां वा, तथा० अन्तरिक्षजाते दुर्बद्धे यावत् न अवगृह्णीयात् वा // सः भिक्षुः० सः यत्० कुल्यके वा, यावत् न अवगृह्णीयात् वा / सः भितुः० स्कन्धे वा, अन्यतरे वा तथा० यावत् न अवग्रहं अवगृह्णीयात् वा / स: भिक्षुः० सः यत् पुनः० ससागारिकं० सक्षुद्रपशुभयतपानं न प्राज्ञस्य निष्क्रमण-प्रवेशे यावत् धर्मानुयोगचिन्तायां, सः एवं ज्ञात्वा तथा० उपाश्रये ससागारिके० न अवग्रहं अवगृह्णीयात् वा / सः भिक्षुः सः यत् गृहपतिकुलस्य मध्य-मध्येन गन्तुं पथि प्रतिबद्धं वा न प्राज्ञस्य यावत्। सः एवं ज्ञात्वा० / सः भिक्षुः० सः यत् इह खलु गृहपतिः वा यावत् कर्मकर्यः वा अन्योऽन्यं आक्रोशन्ति वा तथैव तैलादि स्नानादि शीतोदक-विकटादि नयादि वा यथा शय्यायां आलापकाः, नवरं अवग्रहवक्तव्यता... स: भिक्षुः० सः यत्० आकीर्णसंलिख्ये न प्राज्ञस्य० अवगृह्णीयात् वा, एतत् खलु० // 492 / / Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 392 2-1-7-1-4 (492) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन III सूत्रार्थ : संयम निष्ठ साधु-साध्वी को सचित्त पृथ्वी या जीव जन्तु युक्त स्थान में नहि ठहरना चाहिए और जो उपाश्रय भूमि से ऊंचा, स्तम्भ आदि के ऊपर एवं विषम हो उसमें भी नहि ठहरना चाहिये और जो उपाश्रय कच्ची भीत पर स्थित हो और अस्थिर हो उसकी भी साधु याचना न करे। जो उपाश्रय स्तम्भ आदि पर अवस्थित और इसी प्रकार के अन्य किसी विषम स्थान में हो तो उसकी आज्ञा भी नहीं लेनी चाहिये। जो उपाश्रय गृहस्थों से युक्त हो, अग्नि और जल से युक्त हो, एवं स्त्री, बालक और पशुओं से युक्त हो तथा उनके योग्य खान-पान की सामग्री से भरा हुआ हो तो बुद्धिमान साधु को ऐसे उपाश्रय में भी नहीं ठहरना चाहिए जिस उपाश्रय में जाने के मार्ग में स्त्रियें बैठी रहती हों या वे नाना प्रकार की शारीरिक चेष्टाये करती हों, ऐसे उपाश्रय में भी बुद्धिमान साधु ठहरने की आज्ञा न मांगे। जिस उपाश्रय में गृहपति यावत् उनकी दासिये परस्पर आक्रोश करती हों, या तैलादि की मालिश करती हों, स्नानादि करती हों या नग्न होकर बैठती हो इस प्रकार के उपाश्रय की भी साधु याचना न करे। और जो उपाश्रय चित्रों से आकीर्ण हो, वहां भी साधु न ठहरें... यह साधु और साध्वी का समय आचार है। इस प्रकार मैं कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : अवग्रहके विषयमें कि- जो अवग्रह सचित्त पृथ्वीकाय संबंधित हो, उस वसति के अवग्रहका ग्रहण न करें, तथा अंतरिक्ष याने आकाशमें रहे हुए उपाश्रय के अवग्रहका भी ग्रहण न करें इत्यादि... यहां यह सभी बातें इस उद्देशककी समाप्ति पर्यंत शय्या की तरह जानीयेगा... किंतु अवग्रहके नामसे कहीयेगा... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में साधु को कैसे मकान में ठहरना चाहिए इसका उल्लेख करते हुए शय्या अध्ययन में वर्णित बातों को दोहराया है। जैसे- जो उपाश्रय अस्थिर दीवार एवं स्तम्भ पर बना हुआ हो, विषम स्थान पर हो, स्त्रियों से व्याप्त हो, जिसके आने-जाने के मार्ग में स्त्रियां बैठी हों, परस्पर तेल की मालिश कर रही हों, या अस्त-व्यस्त ढङ्ग से बैठी हों, तो ऐसे स्थान में साधु को नहीं ठहरना चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि साधु को ऐसे स्थान में ठहरने का संकल्प नहीं करना चाहिए, कि- जहां जीवों की हिंसा एवं संयम की विराधना होती हो, तथैव . मन में विकार उत्पन्न होता हो और स्वाध्याय एवं ध्यान में विघ्न पड़ता हो। यह साधु का उत्सर्ग मार्ग है। परन्तु, यदि किसी गांव में संयम साधना के अनुकूल Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-7-1-4 (492) 393 - मकान नहीं मिल रहा हो तब साधु ऐक-दो दिन के लिए परिवार वाले मकान आदि में भी ठहर सकता है। यह अपवाद मार्ग है और ऐसी स्थिति में साधु को एक-दो दिन से अधिक ऐसे मकान में ठहरना नहीं कल्पता है। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'कुलियंसि एवं थूणंसि' का अर्थ कोष में कुड्य दीवार एवं स्तम्भ किया है। और 'धम्माणुओगचिंताए' का अर्थ है- साधु को उसी स्थान की याचना करनी चाहिए जिसमें धर्मानुयोग की भली-भांति आराधना हो सके अर्थात् जहां संयम में बिल्कुल दोष न लगे ऐसे स्थान में ठहरना चाहिए। || प्रथमचूलिकायां सप्तम-अवग्रहैषणाध्ययने प्रथमः उद्देशकः समाप्तः // 卐 : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांत के सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शश्रृंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छाया में शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट -परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. “श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. म राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058. 卐卐卐 Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 394 2-1-7-2-1 (493) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 1 अध्ययन - 7 उद्देशक - 2 . ___ अवग्रह प्रतिमा पहला उद्देशक कहा, अब दुसरे उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं, यहां परस्पर यह संबंध है कि- प्रथम उद्देशक में अवग्रह का स्वरुप कहा, अब इस दुसरे उद्देशक में अवग्रह संबंधित शेष विधि कहतें हैं... I सूत्र // 1 // // 493 // से आगंतारेसु वा. अणुवीड़ उग्गहं जाइज्जा, जे तत्थ ईसरे० ते उग्गहं अणुण्णविज्जा कामं खलु आउसो ! अहालंदं अहापरिण्णायं वसामो जाव आउसो ! जाव आउसंतस्स उग्गहे जाव साहम्मिआए ताव उग्गहं उग्गिहिस्सामो, तेण परं विहरिस्सामो०। से किं पुण तत्थ उग्गहंसि एवोग्गहियंसि जे तत्थ समणाण वा माहणाण वा० छत्तए जाव चम्म-च्छेदणए वा तं नो अंतोहिंतो बाहिं नीणिज्जा बहियाओ वा नो अंतो पविसिज्जा, सुत्तं वा नो पडि बोहिज्जा, नो तेसिं किंचिवि अप्पत्तियं पंडिणीयं करिज्जा / / 493 // II संस्कृत-छाया : स: आगन्तागारेषु वा, अनुविचिन्त्य अवग्रहं याचेत, यः तत्र ईश्वरः, तस्य अवग्रहं अनुज्ञापयेत्- कामं खलु आयुष्मन् ! यथालन्दं यथापरिज्ञातं वसामः यावत् हे आयुष्मन् ! यावत् आयुष्मतः अवग्रहे यावत् साधर्मिकाः तावत् अवग्रहं अवग्रहीष्यामः, तेन परं विहरिष्यामः। स: किं पुनः तत्र अवग्रहे एव अवगृहीते, यः तत्र श्रमणानां ब्राह्मणानांo छत्रक: वा यावत् चर्मच्छेदनकः वा, तं न अन्तर्गतात् बहिः नयेत्, बहिर्गतात् वा न अन्तः प्रविशयेत्, सुप्तं वा न प्रतिबोधयेत्, न तेषां किचिदपि अप्रीतिकं प्रत्यनीकतां कुर्यात् // 493 // III सूत्रार्थ : साध धर्मशाला आदि स्थानों में जाकर सोच-विचार कर अवग्रह की याचना करे। Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-7-2-1 (493) 395 उक्त स्थानों के स्वामी या अधिष्ठाता से याचना करते हुए कहे कि हे आयुष्मन् गृहस्थ ! हम यहां पर ठहरने की आज्ञा चाहते हैं आप हमें जितने समय तक और जितने क्षेत्र में ठहरने की आज्ञा देंगे उतने समय और उतने ही क्षेत्र में ठहरेंगे। हमारे जितने भी साधर्मी साधु यहां आएंगे वे भी इसी नियम का अनुसरण करेंगे। तुम्हारे द्वारा नियत की गई अवधि के बाद विहार कर जाएंगे। उक्त स्थान में ठहरने के लिए गृहस्थ की आज्ञा प्राप्त हो जाने पर साधु उस स्थान में प्रवेश करते समय यह ध्यान रखे कि यदि उन स्थानों में शाक्यादि श्रमण तथा ब्राह्मणों के छत्र यावत् चर्मछेदक आदि उपकरण पड़े हों तो वह उनको भीतर से बाहर न निकाले और बाहर से भीतर न रक्खे तथा सोये हुए किसी भी श्रमण आदि को जागृत न करे और उनके साथ किंचिन्मात्र भी अप्रीतिजनक कार्य न करे कि- जिस से उनके मन को आघात पहुंचे। . IV टीका-अनुवाद : - वह साधु या साध्वीजी म. आगन्तागारादि याने धर्मशाला आदि स्थान में कि- जहां अन्य ब्राह्मण-श्रमण आदि भी निवास करते हो, ऐसे सर्व सामान्य धर्मशालादि में कोई विशेष कारण होने पर यदि वहां कुछ समय रहने की आवश्यकता हो तब उस स्थान के स्वामी या रक्षक से पूर्व कही गइ विधि से अवग्रह की याचना करें... और वहां अवग्रह ग्रहण करने के बाद उस अवग्रह में यदि श्रमण या ब्राह्मण आदि के छत्र आदि उपकरण हो, एवं यदि वे उपकरण अंदर हो तो उन्हें बाहार न नीकालें, और यदि बाहार हो तो उनको अंदर न रखें... तथा सोये हुए श्रमण-ब्राह्मण आदि को जगावें भी नहि... और उनको मानसिक अप्रीति हो, मनःदुःख हो ऐसा कुछ भी न करें... यावत् उन श्रमण-ब्राह्मणो से प्रतिकूलता का त्याग करें... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि गृहस्थ की आज्ञा प्राप्त करके उसके मकान में ठहरते समय साधु को कोई ऐसा आचरण नहीं करना चाहिए जिससे उस गृहस्थ या उसके मकान में ठहरे हुए अन्य शक्यादि मत के भिक्षुओं के मन को किसी तरह का आघात पहुंचे या उनके मन में साधु के प्रति दुर्भाव एवं अप्रीति पैदा हो। यदि उस मकान में पहले कोई श्रमण-ब्राह्मण ठहरे हुए हों और वहां उनके छत्र, चामर आदि उपकरण पड़े हों तो साधु उन उपकरणों को बाहर से भीतर या भीतर से बाहर न रखे और यदि वे सोये हुए हों तो साधु उन्हें जागृत न करे और उनके साथ किसी तरह का असभ्य एवं अशिष्ट व्यवहार न करे। क्योंकि साधु का जीवन स्व और पर के कल्याण के लिए है। वह अपने हित के साथ-साथ अन्य प्राणियों को भी सन्मार्ग दिखाकर उनकी आत्मा का हित करने का प्रयत्न करता है। अतः उसे प्रत्येक मानव एवं प्राणी के साथ बर्ताव करते समय अपनी साधुता को नहीं छोड़ना Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 396 2-1-7-2-2 (494) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन चाहिए। उसकी साधुता प्रत्येक मानव एवं जीवजंतु के साथ- चाहे वह किसी भी देश, जाति एवं धर्म का क्यों न हो, आत्मीयता का, शिष्टता का एवं मधुरता का व्यवहार करने में हैं। इस लिए साधु को वसति-स्थान में ठहरते समय इस बात की ओर विशेष लक्ष्य रखना चाहिए कि अपने जीवन-व्यवहार से मकान मालिक एवं वहां स्थित या अन्य आने-जाने वाले श्रमणब्राह्मणादि व्यक्तियों के मन को किसी तरह का संक्लेश न पहुंचे। . यदि आम के बगीचे में ठहरे हुए साधु को आम आदि ग्रहण करना हो तो वह उन्हें कैसे ग्रहण करे, इसका उल्लेख सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे के सूत्र से कहतें हैं... I सूत्र // 2 // // 494 // से भिक्खू० अभिकंखिज्जा अंबवणं उवागच्छित्तए जे तत्थ ईसरे उग्गहं अणुजाणाविज्जा- कामं खलु जाव० विहरिस्सामो, से किं पुण० एवोग्गहियंसि अह भिक्खू इच्छिज्जा अंबं भुत्तए वा, से जं पुण अंबं जाणिज्जा सअंडं ससंताणं तह० अंबं अफा० नो पडिगिण्हिज्जा० / से भि0 से जं० अप्पंडं अप्पसंताणगं अतिरिच्छछिण्णं अव्वोच्छिण्णं अफासुयं जाव नो पडिगाहिज्जा / से भि0 से जं० अप्पंडं वा जाव असंताणगं तिरिच्छच्छिण्णं वुच्छिण्णं फा० पडि० / से भि० अंबभित्तगं वा अंबपेसियं वा अंबचोयगं वा अंब-सालगं वा अंबडालगं वा भत्तए वा पायए वा. से जं० अंबभित्तगं वा सअंडं अफा० नो पडिगिव्हिज्जा। से भिक्खू वा से जं0 अंबं वा अंबभित्तगं वा, अप्पंडं0 अतिरिच्छछिण्णं अफा० नो पडिगिव्हिज्जा। से जं० अंबडालगं वा अप्पंडं तिरिच्छछिण्णं वुच्छिण्णं फासुयं पडिगिहिज्जा। से भि० अभिकंखिज्जा उच्छुवणं उवागच्छित्तए, जे तत्थ ईसरे जाव उग्गहंसि / अह भिक्खू इच्छिज्जा उच्छु भुत्तए वा पायए वाo, से जं0 उच्छु जाणिज्जा सऊंडं जाव नो पडि० अतिरिच्छछिण्णं, तहेव तिरिच्छछिण्णे वि तहेव० / से भि० अभिकंखि० अंतरुच्छुयं वा जाव डालगं वा सअंडं० नो पडि०। . से भि० से जं0 अंतरुच्छुयं वा० अप्पंडं वा० जाव पडि० अतिरिच्छछिण्णं तहेव। से भि० ल्हसणवणं उवागच्छित्तए, तहेव तिण्णि वि आलावगा, नवरं लहसुणं / से भिo लहसुणं वा ल्हसुणकंदं वा ल्हसुणचोयगं वा ल्हसुणनालगं वा भुत्तए वा , से जं० लसुणं वा जाव लसुणबीयं वा सअंडं जाव नो पडि० / एवं अतिरिच्छछिण्णे वि, तिरिच्छछिण्णे जाव पडि० // 494 // Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-7-2-2 (494) 397 II संस्कृत-छाया : सः भिक्षु:० अभिकाङ्क्षेत आम्रवनं उपागन्तुं, यः तत्र ईश्वरः, अवग्रहं अनुज्ञापयेत्- कामं खलु यावत् विहरिष्यामः / से किं पुन:० एव अवगृहीते ? अथ भिक्षुः इच्छेत् आनं भोक्तुं वा पातुं वा, सः यत् पुनः आनं जानीयात् स-अण्डं वा जाव ससन्तानकं तथा० आमं अप्रासुकं न प्रतिगृह्णीयात् / स: भिक्षुः० सः यत्० अल्पाण्डं अल्पसन्तानकं अतिर्यग्-छिन्नं अव्युच्छिन्नं अप्रासुकं यावत् न प्रतिगृह्णीयात् / सः भिक्षुः० सः यत्० अल्पाण्डं वा यावत् असन्तानकं तिर्यग्-छिन्नं व्युच्छिन्नं प्रासुकं प्रतिगृह्णीयात् / सः भिक्षुः० आमार्द्ध वा आमफाली वा आमछल्ली वा आमरसं वा आम्रश्लक्ष्णखण्डानि वा भोक्तुं वा पातुं वा, सः यत् आमार्द्ध वा स-अण्डं (साण्ड) अप्रासुकं न प्रति० / - स: भिक्षुः वा स: यत्० आनं वा आमार्द्ध वा अल्पाण्डं0 अतिर्यग्-छिन्नं अप्रासुकं न प्रति० / सः यत्० आम्रश्लक्ष्णखण्डानि वा अल्पाण्डं तिर्यग्छिन्नं व्युच्छिन्नं प्रासुकं प्रतिगृह्णीयात् स: भिक्षुः० अभिकाक्षेत इक्षुवनं उपागन्तुं, यः तत्र ईश्वरः यावत् अवग्रहे। अथ भिक्षुः इच्छेत् इधुं भोक्तुं वा पातुं वा०, सः यत् इतुं जानीयात् स-अण्डं यावत् न प्रतिगृह्णीयात् / अतिर्यग्-छिन्नं तथैव, तिर्यग्-छिन्नेऽपि तथैव, / स: भिक्षुः० अभिकाक्षेत इक्षुपर्वमध्यं वा इक्षुगण्डिकां वा इक्षुच्छल्ली वा इक्षुरसं वा इक्षुश्लक्ष्णखण्डानि वा भोक्तुं वा पातुं वा० सः यत् पुनः० इक्षुपर्वमध्यं वा यावत् श्लक्ष्णखण्डानि वा स-अण्डं० न प्रतिगृह्णीयात्। स: भिक्षुः० सः यत् इक्षुपर्वमध्यं वा० अल्पाण्डं वा० यावत् प्रतिगृह्णीयात्। अतिर्यछिन्नं तथैव। ___स: भिक्षुः० लशुनवनं उपागन्तुं, तथैव अयः अपि आलापकाः, नवरं लशुनम् / सः भिक्षुः० लशुनं वा लशुनकन्द वा लशुनछल्ली वा लशुननालकं वा भोक्तुं वा पातुं वा, सः यत्० लशुनं वा यावत् लशुनबीजं वा स-अण्डं यावत् न प्रतिगृह्णीयात् / एवं III सूत्रार्थ : यदि कोई संयम निष्ठ साधु या साध्वी आम के वन में ठहरना चाहे तो वह उस बगीचे के स्वामी या अधिष्ठाता से उसके लिए याचना करते हुए कहे कि हे आयुष्मन् गृहस्थ ! मैं यहां Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 398 2-1-7-2-2 (494) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन पर ठहरना चाहता हूं। जितने समय के लिए आप आज्ञा देंगे उतने समय ठहर कर बाद में विहार कर दूंगा। इस तरह बागवान की आज्ञा प्राप्त होने पर वह वहां ठहरे। यदि वहां स्थित साधु को आमफल खाने की इच्छा हो कैसे आमफल को ग्रहण करना चाहिए ? इसके सम्बन्ध में बताया गया है कि वह आमफल अंडादि से युक्त हो तो वह साधु उसे ग्रहण न करे। अंडादि से रहित होने परन्तु यदि उसका तिरछा छेदन न हुआ हो तथा उसके अनेक खण्ड भी न किए गए हों तो भी उसे साधु स्वीकार न करे। परन्तु यदि वह आमफल अंडादि से रहित हो, तिरछा छेदन किया हुआ हो और खंड 2 किया हुआ हो तो अचित्त एवं प्रासुक होने से साधु उसे ग्रहण कर सकता है। परन्तु आम का आधा भाग, उसकी फाड़ी, उसकी छाल और उसका रस एवं उसके किए गए सूक्ष्म खंड यदि अंडादि से युक्त हों या अंडादि से रहित होने पर भी तिरछे कटे हुए न हों और खंड 2 न किए गए हों तो साधु उसे भी ग्रहण न करे। यदि उनका तिरछा छेदन किया गया है, और अनेक खंड किए गए हैं तब उसे अचित्त और प्रासुक जानकर साधु ग्रहण कर ले। यदि कोई साधु या साध्वी इक्षु वन में ठहरना चाहे और वन पालक की आज्ञा लेकर वहां ठहरने पर यदि वह इक्षु (गन्ना) खाना चाहे तो पहले यह देख ले कि जो इक्षु अंडादि से युक्त है और तिरछा कटा हुआ नहीं है तो वह उसे ग्रहण करना न चाहे / यदि अंडादि से रहित और तिरछा छेदन किया हुआ हो तब उन्हे अचित्त और प्रासुक जानकर प्राप्त होने पर ग्रहण कर ले। इसका शेष वर्णन आम के समान ही जानना चाहिए। यदि साधु इक्षु के पर्व का मध्य भाग, इक्षुगंडिका, इक्षुत्वचा-छाल, इक्षुरस और इक्षु के सूक्ष्म खंड आदि को खाना-पीना चाहे तो वह अंडादि से युक्त या अंडादि से रहित होने पर भी तिरछा कटा हुआ न हो तथा वह खंड-खंड भी न किया गया हो तो साधु उसे ग्रहण न करे। इसी प्रकार लशुन के सम्बन्ध में भी तीनों आलापक समझने चहिए। रि IV टीका-अनुवाद : ___ वह साधु या साध्वीजी म. कभी आम (आम) के बगीचे में उसके स्वामी या रक्षक आदि के पास अवग्रह की याचना करके ठहरे, तब वहां यदि होने पर कारण (प्रयोजन) उपस्थित आम-फल खाने-पीने की इच्छा करे... किंतु यदि वे आमफल अंडे (जीव-जंतु) सहित या मकडी के जाले सहित हो तो अप्रासुक (अकल्पनीय) जानकर उन आम्रफलों को ग्रहण न करें... किंतु यदि वह साधु देखे कि- यह आमफल अंडे रहित हैं या मकडी के जाले से रहित है, परंतु तिरच्छे छेदे (काटे) हुए नहि है, तथा अखंडित हैं अतः अप्रासुक हैं ऐसा जानने पर उन आमफलों को ग्रहण न करें... और यदि वह साधु देखे कि- यह आमफल अंडे रहित हैं Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-7-2-3 (495) 399 यावत् मकडी के जाले से रहित है और तिरच्छे छेदे हुए हैं तथा बीज-गोटली नीकाली हुए है, अतः प्रासुक-कल्पनीय हैं इस स्थिति में यदि कारण उपस्थित हो तो उन आमफलों को प्राप्त होने पर ग्रहण करें... इसी प्रकार आमफल के अवयव संबंधित तीन सूत्रका भावार्थ जानीयेगा... किंतु- आमभित्तयं याने आम का आधा टुकडा, आमपेशी याने आम के छोटे टुकडे, आमचोयग याने आम की छाल, आम्सालग याने आम का रस, और आम्रडालग याने आम के छोटे छोटे . (बहोत हि छोटे) टुकडे इत्यादि... इसी प्रकार इक्षु याने सेलडी (गन्ने) के भी तीनों सूत्र के भावार्थ जानीयेगा... किंतु अंतरुच्छुयं का अर्थ है सेलडी के पर्वमध्य भाग... इसी प्रकार लशुन के भी तीनों सूत्र के भावार्थ को जानीयेगा... आमफल आदि सूत्र के विशेष भावार्थ के लिये नीशीथ सूत्र के सोलहवा (16) उद्देशक का भावार्थ जानना आवश्यक है... अब अवग्रह के विशेष अभिग्रह कहतें हैं... V सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में आम फल, इक्षु खण्ड आदि के ग्रहण एवं त्याग करने के सम्बन्ध में वर्णन किया गया है। आम आदि पदार्थ किस रूप में साधु के लिए ग्राह्य एवं अग्राह्य हैं, इसका नयसापेक्ष वर्णन किया गया है। और इसका सम्बन्ध केवल पक्व आम आदि से हे, न कि अर्ध पक्व या अपक्व फलों से। पक्व आम आदि फल भी यदि अण्डों आदि से युक्त हों, तिरछे एवं खण्ड-खण्ड में कटे हुए न हों तो साधु उन्हें ग्रहण न करे और यदि वे अण्डे आदि से रहित हों, तिरछे एवं खण्ड-खण्ड में कटे हुए हों तो साधु उन्हें ग्रहण कर सकता है। उस पक्व आम-फल के तिर्यक् एवं खण्ड-खण्ड में कटे हुए होने का उल्लेख उसे अचित्त एवं प्रासुक सिद्धि करने के लिए है। निशीथ सूत्र में यह भी स्पष्ट किया गया है कि यदि साधु सचित्त आम एवं सचित्त इक्षु ग्रहण करता है तो उसे चातुर्मासिक प्रायश्चित आता है। इससे स्पष्ट होता है कि साधु अचित्त एवं प्रासुक आम आदि ग्रहण कर सकता है। यदि वह पक्व आम-फल जीव-जन्तु से रहित हो और तिर्यक् कटा हुआ हो तो साधु के लिए अग्राह्य नहीं है... ___ अब अवग्रह के अभिग्रह के सम्बन्ध में सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 3 // // 495 // . से भिक्खू० आगंतारेसु वा जावोग्गहियंसि जे तत्थ गाहावईण वा गाहा० पुत्ताण वा इच्चेताई आयतणाई उवाइक्कम्म अह भिक्खू जाणिज्जा, इमाहिं सत्तहिं Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 400 2-1-7-2-3 (495) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन पडिमाहिं उठगहं उग्गिणिहत्तए, तत्थ खलु इमा पढमा पडिमा / से आगंतारेसु वा अणुवीड़ उग्गहं जाइज्जा, जाव विहरिस्सामो, पढमा पडिमा। अहावरा० जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-अहं च खलु अण्णेसिं भिक्खूणं अट्ठाए उग्गहं उग्गिहिस्सामि, अण्णेसिं भिक्खूणं उग्गहे उग्गहिए उवल्लिस्सामि, दुच्चा पडिमा। . अहावरा० जस्स णं भि० अहं च उग्गिहिस्सामि, अण्णेसिं च उग्गहे उग्गहिए नो उवल्लिस्सामि, तच्चा पडिमा / अहावरा० जस्स णं भि० अहं च० नो उग्गहं उग्गिहिस्सामि, अण्णेसिं च उग्गहे उग्गहिए उवल्लिस्सामि, चउत्था पडिमा / अहावरा० जस्स णं अहं च खलु अप्पणो अट्ठाए उग्गहं च उग्गिहिस्सामि, नो दुण्हं, नो तिण्हं, नो चउण्हं नो पंचण्हं, पंचमा पडिमा। अहावरा० से भिक्खू० जस्स एव उग्गहे उवल्लिइज्जा से तत्थ अहासमण्णागए इक्कडे वा जाव पलाले, तस्स लाभे संवसिज्जा, तस्स अलाभे उक्कुडुओ वा नेसज्जिओ वा विहरिज्जा, छट्ठा पडिमा / अहावरा० स० जे भिक्खू० अहासंथऽमेव उग्गहं जाइज्जा, तं जहा- पुढविसिलं वा कट्ठसिलं वा, अहासंथडमेव, तस्स लाभे संते० तस्स अलाभे उक्कुडुओ वा नेसज्जिओ वा विहरिज्जा, सत्तमा पडिमा। इच्चेयासिं सत्तण्हं पडिमाणं अण्णयरं जहा पिंडेसणाए // 495 // II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः० आगन्तागारेषु वा यावत् अवगृहीते ये तत्र गृहस्थानां वा गृहस्थपुत्राणां वा इत्येतानि आयतनानि उपातिक्रम्य अथ भिक्षुः जानीयात्, आभिः सप्तभिः प्रतिमाभिः अवग्रहं अवग्रहीतुं, ता खलु इयं प्रथमा प्रतिमा / सः आगन्तागारेषु वा अनुविचिन्त्य अवग्रहं याचेत, यावत् विहरिष्यामः प्रथमा प्रतिमा। अथाऽपरा० यस्य भिक्षोः एवं भवति- अहं च खलु अन्येषां भिक्षूणां अर्थाय अवग्रहं अवग्रहीष्ये अन्येषां भिक्षूणां अवग्रहे अवगृहीते सति उपालयिष्ये, द्वितीया प्रतिमा / अथाऽपरा० यस्य भिक्षोः० अहं च० अवगृहीष्यामि, अन्येषां च अवग्रहे अवगृहीते Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-7-2-3 (495) 401 सति न उपालयिष्ये, तृतीया प्रतिमा / अथापरा० यस्य भिक्षो:० अहं च० अवग्रहं अवगृहीष्यामि, अन्येषां च अवग्रहे अवगृहीते सति उपालयिष्ये, चतुर्थी प्रतिमा / अथापरा० यस्य० अहं च खलु आत्मनः अर्थाय अवग्रहं च अवगृहीष्यामि० नो द्वयोः, न प्रयाणां, न चतुर्णां न पथानां, पञ्चमी प्रतिमा / - अथाऽपरा० स: भिक्षुः० यस्य एव अवग्रहे उपालीनीयात्, सः तत्र यथासमन्वागते इक्कडः उत्कटः वा पलाल: वा, तस्य लाभे संवसेत्, तस्य अलाभे उत्कुटुकः वा (नैषधिक:) निषण्ण: वा विहरेत्, षष्ठी प्रतिमा / अथाऽपरा० सप्तमी० स: भिक्षुः० यथासंस्तृतमेव अवग्रहं याचेत, तद्-यथापृथिवीशिलां वा काष्ठशिलां वा यथासंस्तृतामेव, तस्याः लाभे सति० तस्याः अलाभे सति उत्कुटुकः वा निषण्णः वा विहरेत्, सप्तमी प्रतिमा।। इत्येतासां सप्तानां प्रतिमानां अन्यतरां यथा पिण्डैषणायाम् // 495 // III सूत्रार्थ : संयमशील साधु या साध्वी धर्मशाला आदि में गृहस्थ और गृहस्थों के पुत्र आदि से प्राप्त निर्दोष स्थान में भी वक्ष्यमाण सात प्रतिमाओं के द्वारा अवग्रह की याचना करके वहां पर ठहरे। 1. . . 'धर्मशाला आदि स्थानों की परिस्थिति को देख कर यावन्मात्र काल के लिए वहां के स्वामी की आज्ञा हो तावन्मात्र काल वहां ठहरुंगा, यह पहली प्रतिमा है। D में अन्य भिक्षुओं के लिए उपाश्रय की आज्ञा मागूंगा और उनके लिए याचना किए गए उपाश्रय में ठहरुंगा यह दूसरी प्रतिमा है। कोई साधु इस प्रकार से अभिग्रह करता है कि मैं अन्य भिक्षुओं के लिए तो अवग्रह की याचना करुंगा, परन्तु उनके याचना किए गए स्थानों में नहीं ठहरूंगा। यह तीसरी प्रतिमा का स्वरूप है। कोई साधु इस प्रकार से अभिग्रह करता है- में अन्य भिक्षुओं के लिए अवग्रह की याचना कहीं करूंगा, परन्तु उनके याचना किए हुए स्थानों में ठहरुंगा। यह चौथी प्रतिमा है। Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 402 2-1-7-2-3 (495) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन कोई साधु यह अभिग्रह धारण करता है कि मैं केवल अपने लिए ही अवग्रह की याचना करुंगा, किन्तु अन्य दो, तीन, चार और पांच साधुओं के लिए याचना नहीं करूंगा। यह पांचवीं प्रतिमा है। कोई साधु यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं जिस स्थान की याचना करुंगा उस स्थान पर यदि तृण विशेष-संस्तारक आदि मिल जायेंगे तो उन पर आसन करुंगा, अन्यथा उत्कटुक आसन आदि के द्वारा रात्रि व्यतीत करूंगा यह छठी प्रतिमा है। जिस स्थान की आज्ञा ली हो यदि उसी स्थान पर पृथ्वी शिला, काष्ठ शिला तथा पलाल आदि बिछा हुआ हो तब वहां आसन करुंगा, अन्यथा उत्कुट्रक आदि आसन द्वारा रात्रि व्यतीत करुंगा, यह सातवीं प्रतिमा है। इन सात प्रतिमाओं में से यदि कोई साधु कोई एक स्वीकार करे तब वह साधु अन्य प्रतिमाधारी साधुओं की निन्दा न करे। अभिमान एवं गर्व को छोड़कर अन्य साधुओं को भी समभाव से देखे। शेष वर्णनपिंडैषणा अध्ययनवत् जानना चाहिए। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. आगंतागार याने धर्मशाला आदि, में अवग्रह ग्रहण करने के बाद वहां जो घर के स्वामी या उनके पुत्र आदि के घर हो, और अधिक अवग्रह की आवश्यकता हो, तो साधु उनसे अन्य अवयह की याचना करें... साधु सात भिक्षु-अवग्रहप्रतिमाओ के द्वारा अवग्रह की याचना करें... उनमें प्रथमा प्रतिमा इस प्रकार हैं... 1. वह साधु पहले से हि सोच-विचारकर निश्चित करे कि- मुझे इस प्रकार का उपाश्रयवसति धर्मशालादि में अवग्रह प्राप्त होगा तो ग्रहण करुंगा, किंतु अन्य प्रकार की वसति को ग्रहण नहि करूंगा... यह प्रथम अवग्रह प्रतिमा हुइ... अन्य साधुओं के लिये अवग्रह की याचना करुंगा, और उन साधुओं के लिये ग्रहण कीये हुए अवग्रह में हि निवास करुंगा... यह दुसरी अवग्रह प्रतिमा... यहां पहली अवग्रह-प्रतिमा सामान्य से कही गइ है, जब कि- यह दुसरी अवग्रह प्रतिमा गच्छ में रहे हुए सांभोगिक और असांभोगिक उद्युक्त विहारी साधुओं के लिये कही गई है, क्योंकि- वे एक-दूसरों के लिये अवग्रह की याचना करतें हैं... 3. अब तीसरी अवग्रह-प्रतिमा इस प्रकार है कि- यथालंदिक-साधु जो होते हैं वे अन्य के लिये अवग्रहकी याचना करतें हैं, किंतु अन्य साधुओं ने ग्रहण कीये हुए अपग्रह में वे नहि निवास करतें... क्योंकि- वे यथालंदिक साधु आचार्य से सूत्र एवं अर्थ की Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-7-2-3 (495) 403 - इच्छा रखतें हैं, अतः आचार्यजी के लिये अवग्रह की याचना करते हैं... अब चौथी अवग्रह-प्रतिमा- जो साधु गच्छमें रहकर उद्यत विहारी हैं वे जिनकल्प आदि के लिये परिकर्म करतें हैं वे अन्य साधुओं के लिये अवग्रह की याचना नहि करतें किंतु अन्य साधुओं ने ग्रहण कीये हुए अवग्रह-वसति में उनके साथ निवास करतें अब पांचवी अवग्रह-प्रतिमा जिनकल्पवाले साधुओं के लिये कही है, वह इस प्रकारवे जिनकल्पवाले साधु अपने खुद के लिये अवग्रह की याचना करतें हैं किंतु अन्य दो, तीन, चार, पांच साधुओं के लिये नहिं... अब छट्ठी अवग्रह-प्रतिमा जिनकल्पवाले आदि साधुओं के लिये होती है... वह इस प्रकार जिनकल्पवाले साधु जिस गृहस्थ से अवग्रह ग्रहण करतें हैं उनके पास से हि सादडी, संथारा आदि ग्रहण करतें हैं... यदि उसी गृहस्थ के पास से सादडी-संथारा आदि प्राप्त न हो, तब उत्कट आसन से हि बैठे या खडे खडे हि रात्री बीतावे... अब सातवी अवग्रह प्रतिमा... यह पूर्व की तरह है, किंतु जैसे भी हो वैसे हि संथाराशिला- पाट आदि ग्रहण करते हैं... अन्य प्रकार के नहिं... शेष आत्मोत्कर्ष आदि का त्याग इत्यादि सभी बात पिंडेषणा की तरह जानीयेगा... सूत्रसार : . प्रस्तुत सूत्र में अवग्रह से सम्बद्ध सात प्रतिमाओं का वर्णन किया गया है। पहली प्रतिमा में बताया गया है कि साधु सूत्र में वर्णित विधि के अनुसार मकान की याचना करे और वह गृहस्थ जितने काल तक जितने क्षेत्र में ठहरने की आज्ञा दे तब तक उतने ही क्षेत्र में ठहरे। दूसरी प्रतिमा यह है कि मैं अन्य साधुओं के लिए मकान की याचना करुंगा तथा उनके लिये याचना किए गए मकान में ठहरूंगा। तीसरी प्रतिमा में वह यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं अन्य साधु के लिए मकान की याचना करुंगा, परन्तु अन्य के याचना किये हुए अवग्रह में नहि रहुंगा... पांचवीं प्रतिमा में वह केवल अपने लिए ही मकान की याचना करता है, अन्य के लिए नहीं। छठी प्रतिमा में वह यह प्रतिज्ञा करता है कि जिसके मकान में ठहरूंगा उससे हि घास आदि संस्तारक ग्रहण करूंगा, अन्यथा उकडू आदि आसन करके रात व्यतीत करूंगा और सातवीं प्रतिमा में वह साधु उन्हीं तख्त; शिलापट एवं घास आदि को काम में लेता है, जो पहले से उस मकान में बिछे हुए हों। इसमें प्रथम प्रतिमा सामान्य साधुओं के लिए हैं। दूसरी प्रतिमा का अधिकारी मुनि Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 404 2-1-7-2-4 (496) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन गच्छ में रहने वाले साम्भोगिक एवं उत्कट संयम निष्ठ असाम्भोगिक साधुओं के साथ प्रेम भाव रखने वाला होता है। तीसरी प्रतिमा उन साधुओं के लिए है जो आचार्य आदि के पास रहकर अध्ययन करना चाहते हैं। चौथी प्रतिमा उनके लिए है, जो गच्छ में रहते हुए जिनकल्पी बनने का अभ्यास कर रहे हैं। पांचवीं, छठी और सातवीं प्रतिमा केवल जिनकल्पी मुनि से सम्बद्ध हैं। ये भेद वृत्तिकार ने किए हैं। मलपाठ में किसी कल्प विशेष का स्पष्ट संकेत नहीं किया गया है। वहां तो इतना ही उल्लेख किया गया है कि मुनि इन सात प्रतिमाओं को ग्रहण करते हैं, सामान्य रूप से प्रत्येक साधु अपनी शक्ति सामार्थ्य एवं मर्यादानुसार अभिग्रह ग्रहण कर सकता है। सूत्रकार का सारांश उल्लेख यह है कि स्थान सम्बन्धी समस्त दोषों का त्याग करके साधु को निर्दोष अवग्रह की याचना करनी चाहिए। पिण्डैषणा आदि अध्ययनों की तरह इसमें भी यह स्पष्ट कर दिया गया है कि अभियह ग्रहण करने वाले मुनि को अन्य साधुओं को घृणा एवं तिरस्कार की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए। ' परन्तु सब का समान रूप से आदर करते हुए यह कहना चाहिए कि भगवान की आज्ञा के अनुरूप आचरण करने वाले सभी साधु मोक्ष मार्ग के पथिक हैं। __ अब अवग्रह के भेदों का वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... सूत्र // 4 // // 496 // सुयं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं- इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं पंचविहे उग्गहे पण्णते, तं जहा० देविंद-उग्गहे 1, रायउग्गहे 2, गाहावइ उग्गहे 3, सागारिय उग्गहे 4, साहम्मिय० 5, एवं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं / / 496 // II संस्कृत-छाया : श्रुतं मया आयुष्मता भगवता एवं आख्यातम्- इह खलु स्थविरैः भगवद्भिः पञ्चविधः अवग्रहः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- देवेन्द्र-अवग्रह : 1, राज-अवग्रहः 2, ग्रहपतिअवग्रहः 3, सागारिक-अवग्रहः 4, साधर्मिक-अवग्रहः 5, एवं खलु तस्य भिक्षो: भिक्षुण्याः वा सामग्यम् // 496 // III सूत्रार्थ : हे आयुष्मन्-शिष्य ! मैने भगवान से इस प्रकार सुना है कि इस जिन प्रवचन में पूज्य स्थविरों ने पांच प्रकार का अवग्रह प्रतिपादन किया है 1. देवेन्द्र अवग्रह, 2. राज अवग्रह, 3. गृहपति अवग्रह, 4. सागारिक अवग्रह और 5. साधर्मिक अवग्रह। इस प्रकार यह साधु Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-7-2-4 (496) 405 और साध्वी का समय-संपूर्ण पंचाचार है। IV टीका-अनुवाद : आयुष्मान् भगवान्ने जो कहा है वह मैंने (सुधर्मस्वामी ने) सुना है, वह इस प्रकारस्थविर साधु-भगवंतोंने पांच प्रकारका अवग्रह कहा है... वह इस प्रकार- देवेंद्रका अवग्रह, राजाका अवग्रह, गृहपतिका (गांवके मुखीका) अवग्रह, गृहस्थ (घरके मालिक) का अवग्रह और साधर्मिक-साधुओंका अवग्रह... इत्यादि... और यह हि उन साधु और साध्वीजीओंका सच्या साधुपना (साधुत्व) है इत्यादि... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में पांच प्रकार के अवग्रह का वर्णन किया गया है- 1. देवेन्द्र अवग्रह, 2. राज अवग्रह, 3. गृहपति अवग्रह, 4. सागारिक अवग्रह और 5. साधर्मिक अवग्रह / दक्षिण भरत क्षेत्र में विचरने वाले मुनियों को प्रथम देवलोक के सुधर्मेन्द्र की आज्ञा ग्रहण करना देवेन्द्र अवग्रह कहलाता है। इससे यह स्पष्ट कर दिया गया है कि तिर्यक् लोक पर भी देवों का आधिपत्य है। आगम में बताया गया है कि साधु जङ्गल में या अन्य स्थान में जहां कोई व्यक्ति * न हो वहां देवेन्द्र की आज्ञा लेकर तृण, काष्ठ आदि ग्रहण कर सकता है। आज भी साधु बाहर शौच के लिए बैठते समय या विहार के समय में रास्ते में किसी वृक्ष के नीचे विश्राम करना हो तो देवेन्द्र (शकेन्द्र) की आज्ञा लेकर बैठते हैं। इस तरह साधु कोई भी वस्तु बिना आज्ञा के ग्रहण नहीं करते। भरत क्षेत्र के 6 खण्डों पर चक्रवर्ती का शासन होता है। अतः उसकी आज्ञा से उन देशों में विचरना यह राज अवग्रह कहलाता हैं... तथा उस युग में एक देश अनेक भागों में विभक्त था, जैसे आज भारत कई प्रान्तों में बँटा हुआ है, परन्तु, इस समय सब प्रान्त केन्द्र से सम्बद्ध होने से वह अखण्ड कहलाता है। परन्तु, उस समय उन विभागों के स्वतन्ना शासक थे, अतः उन विभिन्न देशों में विचरते समय उनकी आज्ञा लेना गृहपति अवग्रह कहलाता है। जिस व्यक्ति के मकान में ठहरना हो उसकी आज्ञा ग्रहण करना सागारिक अवग्रह कहलाता है। अगार का अर्थ है- घर, अतः अपने घर या मकान पर आधिपत्य रखने वाले को सागारिक कहते हैं। और इसे शय्यातर अवग्रह भी कहते हैं। क्योंकि, साधु जिससे मकान की आज्ञा ग्रहण करता है, उसे आगमिक भाषा में शय्यातर भी कहते हैं। जिस मकान में पहले से साधु ठहरे हों तब आगंतुक साधु उनकी आज्ञा से वहां ठहरता है, यह साधर्मिक अवयह है। अपने साम्भोगिक साधुओं की किसी वस्तु को ग्रहण करना हो तो भी साधु को उनकी आज्ञा लेकर ही ग्रहण करना चाहिए। इस तरह साधु को बिना Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 406 2-1-7-2-4 (496) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आज्ञा के सामान्य एवं विशेष कोई भी पदार्थ ग्रहण करना नहीं कल्पता है। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'थेरेहिं भगवंतेहि' पद में भगवान को ज्ञान स्वरूप मानकर उनके लिए स्थविर शब्द का प्रयोग किया गया है, जो सर्वथा उपयुक्त है। और 'सामग्गियं' शब्द से साधु के समय आचार की ओर निर्देश किया गया है। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें। // प्रथमचूलिकायां सप्तम-अवग्रहप्रतिमाध्ययने द्वितीय: उद्देशकः समाप्तः // // समाप्तं सप्तममध्ययनम् // आचाराङ्गस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धे समाप्ता चेयं प्रथमा चूलिका // .. 卐卐卐 : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शगुंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. “श्रमण" के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058. 圖圖圖 Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-2-1-1-1 (497) 407 आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 2 ___ सप्त-सप्तिका अध्ययन - 1 सप्तैककः प्रथमः # स्थानम् // सातवां अध्ययन कहा, और इस सातवे अध्ययन के सूत्रार्थ कहने के साथ ही प्रथम चूडा = चूलिका समाप्त हुई... अब दूसरी चूडा-चूलिका कहतें हैं... यहां परस्पर यह अभिसंबंध है... यहां पहली चूलिका में वसति का अवग्रह कहा, अब किस प्रकार के उपाश्रय-स्थान में कहां काउस्सग्ग करना, कहां स्वाध्याय करना, एवं कहां स्थंडिल-मात्रा (वडीनीति-लघुनीति) आदि करना... इत्यादि बातें कहने के लिये यह दूसरी चूलिका कहतें हैं... और इस दूसरी चूलिका में भी सात अध्ययन हैं, वह इस प्रकार. इस द्वितीय चूलिका में उद्देशक रहित ही सात अध्ययन हैं और उनमें पहला स्थान नाम का अध्ययन है अतः इस संबंध से आये हुए इस प्रथम अध्ययन के उपक्रमादि चार अनुयोग द्वार होते हैं, उनमें उपक्रम के अंतर्गत अर्थाधिकार इस प्रकार है... कि- साधु किस प्रकार के स्थान-वसति में निवास करें... और नाम निष्पन्न निक्षेप में "स्थान" यह नाम है... और उसके नामादि भेद से चार निक्षेप होतें हैं... 1. नाम स्थान, 2. स्थापना स्थान, 3. द्रव्य स्थान, एवं 4. भाव स्थान... इन चारों में से यहां द्रव्य स्थान का अधिकार है... अतः साधु उर्ध्व याने उंचे स्थान में निवास करें... और दूसरे अध्ययन का नाम निशीधिका है, उसके छह (E) निक्षेप होतें हैं किंतु वे छह निक्षेप दूसरे अध्ययन के अवसर में ही कहेंगे... अभी शुद्ध उच्चारण के साथ सूत्र उच्चारण करने के लिये यह पहला सूत्र है.... I सूत्र // 1 // // 497 // से भिक्खू वा० अभिकंखेज्जा ठाणं ठाइत्तए, से अणुपविसिज्जा गामं वा जाव रायहाणिं वा, से जं पुण ठाणं जाणिज्जा, सअंडं वा जाव0 मक्कडासंताणयं, तं तह० ठाणं अफासुयं अणेसणिज्जं0 लाभे संते नो पडि०, एवं सिज्जागमेण नेयत्वं जाव उदयपसूयाइंति / इच्चेयाई आयतणाइं उवाइक्कम्म अह भिक्खू इच्छिज्जा चउहिं पडिमाहिं ठाणं ठाइत्तए, तत्थिमा पढमा पडिमा अचित्तं खलु उवसज्जिज्जा अवलंबिज्जा काएण विप्परिकम्माइं सवियारं ठाणं ठाइस्सामि, पढमा पडिमा। अहावरा दुच्चा पडिमा- अचित्तं खलु उवसज्जेज्जा अवलंबिज्जा काएण विप्परिकम्माइ नो सवियारं ठाणं ठाइस्सामि, दुच्चा पडिमा। Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408 2-2-1-1-1 (497) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अहावरा तच्चा पडिमा- अचित्तं खलु उवसज्जेज्जा अवलंबिज्जा नो काएण विप्परिकम्माइ, नो सवियारं ठाणं ठाइस्सामित्ति, तच्चा पडिमा / अहावरा चउत्था पडिमा- अचित्तं खलु उवसज्जेज्जा नो अवलंबिज्जा काएण नो परिकम्माइ, नो सवियारं ठाणं ठाइस्सामित्ति वोसहकाए वोस?केसमंसुलोमनहे संनिरुद्धं वा ठाणं ठाइस्सामिति चउत्था पडिमा / ___ इच्चेयासिं चउण्हं पडिमाणं जाव पग्गहियतरायं विहरिज्जा, नो किंचिवि वइज्जा, एयं खलु तस्स जाव जइज्जासि तिबेमि || 497 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० अभिकाङ्क्षत स्थानं स्थातुम्, सः अनुप्रविशेत् ग्रामं वा यावत् राजधानी वा, सः यत् पुन: स्थानं जानीयात्- स-अण्डं वा जाव मर्कटसन्तानकं वा, तत् तथा० स्थानं अप्रासुकं अनेषणीयं० लाभे सति न प्रति० एवं शय्यागमेन नेतव्यम् यावत् उदकप्रसूतानि इति / इत्येतानि आयतनानि उपातिक्रम्य अथ भिक्षुः इच्छेत् चतसृभिः प्रतिमाभिः स्थानं स्थातुम् / तत्र इयं प्रथमा प्रतिमा- अचित्तं खलु उपाश्रयिष्यामि अवलम्बयिष्यामि, कायेन विपरिक्रमिष्यामि सविचारं स्थानं स्थास्यामि इति प्रथमा प्रतिमा। अथाऽपरा द्वित्तीया प्रतिमा- अचित्तं खलु उपाश्रयष्यिामि अवलम्बयिष्ये कायेन विपरिक्रमिष्यामि, न सविचारं स्थानं स्थास्यामि इति द्वितीया प्रतिमा। . अथाऽपरा तृतीया प्रतिमा- अचित्तं खलु उपाश्रयिष्यामि अवलम्बयिष्ये न कायेन विपरिक्रमिष्यामि न सविचारं स्थानं स्थास्यामि इति तृतीया प्रतिमा। ' अथाऽपरा चतुर्थी प्रतिमा- अचित्तं खलु उपाश्रयिष्यामि न अवलम्बयिष्ये कायेन न परिक्रमिष्यामि, न सविचारं स्थानं स्थास्यामि इति व्युत्सृष्टकायः व्युत्सृष्टकेशश्मश्रुलोमनखः सन्निरुद्धं वा स्थानं स्थास्यामि इति चतुर्थी प्रतिमा। इत्येतासां चतसृणां प्रतिमानां यावत् प्रगृहीताऽन्यतरां विहरेत्, न किश्चिदपि वदेत्, एतत् खलु तस्य० यावत् यतेत इति ब्रवीमि // 497 // . III सूत्रार्थ : किसी गांव या शहर में ठहरने का इच्छुक साधु या साध्वी पहले व्यामादि में जाकर उस स्थान को देखे, यदि वह स्थान मकड़ी आदि के जालों से या अण्डे आदि से युक्त हो Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-2-1-1-1 (497) 409 तब उसके मिलने पर भी उसे अप्रासुक और अनेषणीय जान कर ग्रहण न करे। शेष वर्णन शय्या अध्ययन के समान जानना चाहिए। साधु को सदोष स्थान का छोड़ कर स्थान की गवेषणा करनी चाहिये और उसे उक्त स्थान में चार प्रतिमाओं के द्वारा बैठे बैठे या खड़े होकर कायोत्सर्गादि क्रियाएं करनी चाहिए। मैं अपने कायोत्सर्ग के समय अचित्त स्थान में रहूंगा, और अचित्त भीत आदि का सहारा लूंगा, तथा हस्त पादादि का संकोचन प्रासारण भी करूंगा एवं थोडे पगले चलने रूप मर्यादित भूमि में भ्रमण भी करूंगा। मैं कायोत्सर्ग के समय अचित्त स्थान में ठहरूंगा, अचित्त भीत आदि का आश्रय भी लूंगा, तथा हस्त पाद आदि का संकोचन प्रसारण भी करूंगा किन्तु आसपास कहिं भी भ्रमण नहीं करूंगा। 3. मैं कायोत्सर्ग के समय अचित्त स्थान में रहूंगा, अचित्त भीत आदि का सहारा भी लूंगा, परन्तु हस्तपादादि का संकोच प्रसारण एवं भ्रमण नहीं करूंगा। मैं कायोत्सर्ग के समय अचित्त स्थान में ठहरुंगा, परन्तु भीत आदि का अवलम्बन नहीं लूंगा तथा हस्त पाद आदि का संचालन और भ्रमण आदि कार्य भी नहीं करूंगा, परन्तु एक स्थान में स्थित होकर कायोत्सर्ग के द्वारा शरीर का सम्यकतया निरोध करूंगा और अभी मैं परिमित काल के लिये शरीर के ममत्व का परित्याग कर चुका हूं अतः उक्त समय में यदि कोई मेरे केश, श्मश्रू और नख आदिका उत्पाटन करेगा तब भी मैं अपने ध्यान को नहीं तोडूंगा। इन पूर्वोक्त चार प्रतिमाओं में से किसी एक प्रतिमा का धारक साधु अन्य किसी भी साधु की-अवहेलना न करे किन्तु सभी साधुओं के प्रति सौम्य-भाव रखता हुआ विचरे / यही संयमशील साधु का समय आचार है, इस प्रकार मैं कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : वह पूर्व कहा गया साधु जब स्थान याने वसति में रहना चाहे तब वह साधु गांवनगर आदि में प्रवेश करके ठहरने के स्थान की गवेषणा-शोध करे... यदि वह स्थान (मकान) अंडे से युक्त हो यावत् मकडी के जाले से युक्त हो तब ऐसा स्थान अप्रासुक मानकर प्राप्त होने पर भी व्यहण न करें... इसी प्रकार अन्य सूत्रों का भावार्थ शय्या की तरह जानियेगा... यावत् जल से अंकुरित हुए कंद हो तो भी ऐसे स्थान का ग्रहण न करें... अब अवग्रह-प्रतिमा के विषय में कहतें हैं... पूर्व कहे गये एवं अब कहे जानेवाले जो Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 410 2-2-1-1-1 (497) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन भवन-वसति कर्मबंध के कारण हो ऐसे उन स्थानों का त्याग करके साधु अभिग्रह स्वरुप चार प्रतिमाओं के द्वारा प्राप्त निर्दोष स्थान में रहना चाहे... उनमें पहली प्रतिमा इस प्रकार है... जैसे कि- कोइ साधु ऐसा अभियह करे कि- में अचित्त स्थान में ही निवास करुंगा तथा अचित्त कुड्यादि (दिवारादि) का शरीर से अवलंबन करुंगा... तथा हाथ एवं पैर आदि का आकुंचन एवं प्रसारण स्वरुप स्पंदन याने हिलचाल करुंगा तथा उसी स्थान में ही सविचार याने मर्यादित जगह में पैर आदिसे आवागमन करूंगा... यह पहली प्रतिमा है... दूसरी अवग्रह प्रतिमा... हाथ एवं पैर आदि का थोडा आकुंचन एवं प्रसारण आदि क्रिया करूंगा किंतु आवागमन नही करुंगा... तीसरी प्रतिमा- हाथ-पैर आदि का संकोचन एवं प्रसारण करुंगा किंतु दीवार का आलंबन नहिं लंगा एवं पैर से आवागमन नही करुंगा... चौथी अवग्रह प्रतिमा- हाथ-पैर का संकोचन, प्रसारण तथा दीवार का आलंबन एवं पैर आदि से आवागमन इत्यादि कुछ भी नही करुंगा... इसी प्रकार परिमित-मर्यादित समय पर्यंत काया का व्युत्सर्ग (त्याग) करनेवाला वह साधु केश श्मश्रु लोम एवं नख का विसर्जन (त्याग) करके अवग्रह किये हुए स्थान में रहूंगा... इत्यादि प्रतिज्ञा करके कायोत्सर्ग में रहा हुआ वह साधु मेरु पर्वत की तरह निष्प्रकंप याने स्थिर खडा रहे... तथा यदि कोई प्राणी केश आदि को उखेडे (खींचे) तो भी उसी स्थान से ध्यान भंग करके अन्य जगह नही जाऊंगा किंतु उसी स्थान में मेरुपर्वत की तरह निश्चल खडा रहूंगा... ऐसी प्रतिज्ञा करके वह साधु काउस्सग्ग ध्यान करे और वहां यदि कोइ केश आदि खींचे तो भी उस स्थान से चलायमान न होवे... इन चारों प्रतिमा में से कोई भी एक प्रतिमा का अभिग्रह करके काउस्सग्ग ध्यान में रहा हुआ साधु उसी स्थान में रहे हुए किंतु अवग्रह प्रतिमा की प्रतिज्ञा नही किये हुए अन्य साधु की निंदा न करें तथा अपने आपका उत्कर्ष (अभिमान) भी करें तथा इस विषय में ऐसा अन्य भी कुछ भी न बोलें... इति याने इस प्रकार हे जंबू ! मैं (सुधर्मस्वामी) तुम्हें कहता हूं... कि- जो मैंने श्री वर्धमान स्वामीजी के मुखारविंद से सुना है... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में कायोत्सर्ग की विधि का उल्लेख किया गया है स्थान के संबन्ध में पूर्व सूत्रों में बताई गई विधि को फिर से दुहराया गया है कि साधु को अण्डे एवं जालों आदि से रहित निर्दोष स्थान में ठहरना चाहिए और उसके साथ वसति-अवग्रह ग्रहण के चार अभिग्रहों का भी वर्णन किया गया है। Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-2-1-1-1 (497) 411 %3 यह स्पष्ट है कि साधु की साधना मन, वचन और काया योग का सर्वथा निरोध करने के लिए है। परन्तु, यह कार्य इतना सुगम नहीं है कि साधु शीघ्रता से इसे सिद्ध कर सके। अतः उस स्थिति तक पहुंचने के लिए कायोत्सर्ग एक महत्वपूर्ण साधन है। इसके द्वारा साधक सीमित समय के लिए अपने योगों को रोकने का प्रयास करता है। इसमें भी सभी साधकों की शक्ति का ध्यान रखा गया है, जिससे प्रत्येक साधक सुगमता के साथ अपने लक्ष्य स्थान तक पहुंचने में सफल हो सके। इसके लिए कायोत्सर्ग करने वाले साधकों के लिए वसति के चार अभियह बताए गए हैं। पहले अभिग्रह में साधक अचित्त भूमि पर खड़ा होकर कायोत्सर्ग करता है, आवश्यकता पड़ने पर वह अचित्त दीवार का सहारा भी ले सकता है, हाथ-पैर आदिका संकुचन एवं प्रसारण भी कर सकता है और थोड़ी देर के लिए कुछ कदम चल भी सकता है। दूसरे अभिग्रह में साधक अचित्त भूमि पर खड़ा हुआ साधक आवश्यकता पड़ने पर अचित्त दीवार का सहारा लेता है, हाथ-पैर आदि का संकुचन-प्रसारण भी कर लेता है, परन्तु वह अपने स्थान से क्षण मात्र के लिए भी चलता नहीं है। वह अपनी शारीरिक गति को रोक लेता है। तीसरे अभिग्रह में वह हाथ-पैर आदि के संकुचन-प्रसारण आदि को रोक कर स्थिर मन से खड़े रहने का प्रयत्न करता है और आवश्यकता पड़ने पर केवल अचित्त दीवार का सहारा लेता है। चौथे अभिग्रह में साधक अपनी कायोत्सर्ग साधना की चरम-सीम पर पहुंच जाता है। वह सीमित काल के लिए बिना किसी सहारे के एवं बिना हाथ-पैर आदि का संचालन किए अचित्त भूमि पर स्थिर मन से खड़ा रहता है। वह इस क्रिया के समय अपने शरीर से सर्वथा ममत्व हटा लेता है। यदि कोई डांस-मच्छर उसे काटता है या कोइ क्रुद्ध व्यक्ति उसके बाल, दाढ़ी नख आदि उखाड़ता है या उसे किसी तरह का कष्ट देता है, तब भी वह अपने कायोत्सर्ग से, आत्म चिन्तन से विचलित नहीं होता है। उस समय उसके योग आत्म-चिन्तन में इतने मग्न हो जाते हैं कि उसे अपने शरीर पर होने वाली क्रियाओं का पता भी नहीं चलता है। वह उस समय अपने ध्यान को, चिन्तन को, अध्यवसाय को बाहर से हटा कर आत्मा के अन्दर केन्द्रित कर लेता है। अतः उस समय उसकी समस्त साधना आत्म हित के लिए होती है और निश्चय दृष्टि से उतने समय के लिए वह एक तरह से संसार से मुक्त होकर आत्म सुखों में रमण करने लगता है और अनन्त आत्म आनन्द का अनुभव करने लगता है। प्रस्तुत सूत्र में 'संनिरुद्धं' और 'वोसट्ठकाए' दो पद योग साधना के मूल हैं। जिनके आधार पर उत्तर काल में अनेक योग ग्रन्थों का निर्माण हुआ है। Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 412 2-2-1-1-1 (497) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझनी चाहिए। // द्वितीयश्रुतस्कन्धे सप्तसप्तिकामिध द्वितीय चूलिकायां प्रथमः सप्तैककः समाप्तः // : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शत्रुजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. "श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययन से विश्व के सभी जीव पंचाचार की दिव्य सुवास को प्राप्त करके परमपद की पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. // राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058. Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-2-2-2-1 (498) 413 आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 2 अध्ययन - 2 सप्तैकक: - 2 // निषीधिका प्रथम सप्तैकक (अध्ययन) के बाद अब दूसरा अध्ययन कहतें हैं... यहां परस्पर यह अभिसंबंध है कि- प्रथम अध्ययन में स्थान की बात कही, अब वह स्थान कैसा हो तो स्वाध्याय के योग्य हो ? और उस स्वाध्याय-भूमि में क्या करना चाहिये और क्या न करें इत्यादि बात के संबंध से यह दूसरा निषीधिका नाम का अध्ययन आया है... इसके उपक्रमादि चार अनुयोग द्वार है... उनमें भी नाम निष्पन्न निक्षेप में निषीधिका यह नाम है, उसके नाम-स्थापना-द्रव्यक्षेत्र-काल एवं भाव ऐसे छह (6) निक्षेप होतें हैं... उनमें नाम एवं स्थापना निक्षेप सुगम है... अब नोआगम से द्रव्य निषीधिका के तीन भेद हैं 1. ज्ञ शरीर, 2. भव्य शरीर, 3. तद्व्यतिरिक्त... उनमें भी जो प्रच्छन्न द्रव्य वह नोआगम से तद्व्यतिरिक्त द्रव्य निषीधिका है... . तथा क्षेत्र निषीधिका-ब्रह्मदेवलोक के रिष्ट नाम के विमान के पास में रही हुई कृष्णराजी... या जिस क्षेत्र में निषीधिका का व्याख्यान किया जाय वह क्षेत्रनिषीधिका है... तथा कृष्णराजी जिस काल में हो या जिस काल में निषीधिका का व्याख्यान किया जाय वह काल निषीधिका है... तथा नोआगम से भाव निषीधिका यह निषीधिका नाम का अध्ययन ही है, क्योंकियह अध्ययन आगम-ग्रंथ के एक भाग स्वरुप है... नाम निष्पन्न निक्षेप पूर्ण हुआ, अब सूत्रानुगम में आये हुए सूत्र का शुद्ध उच्चारण करना चाहिये- और वह सूत्र इस प्रकार है... I सूत्र // 1 // // 498 // से भिक्खू वा, अभिकंखिज्जा निसीहियं फासुयं गमणाए, से पुण निसीहियं जाणिज्जा- सअंडं तह० अफासुयं० नो चेइस्सामि / से भिक्खू० अभिकंखेज्जा निसीहियं गमणाए, से पुण निसीहियं० अप्पपाणं Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 414 2-2-2-2-1 (498) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अप्पबीयं जाव संताणयं तह निसीहियं फासुयं चेइस्सामि, एवं सिज्जागमेणं नेयव्वं जाव उदयप्पसूयाइं। जे तत्थ दुवग्गा तिवग्गा चउवग्गा पंचवग्गा वा अभिसंधारिंति निसीहियं गमणाए, ते नो अण्णमण्णस्स कायं आलिंगिज्ज वा विलिंगिज्ज वा चुंबिज्ज वा दंतेहिं वा नहेहिं वा अच्छिंदिज्ज वा वुच्छिंदिज्ज वा० एयं खलु० जं सव्वटेहिं सहिए समिए सया जएज्जा, सेयमिणं मण्णिज्जासि तिबेमि // 498 / / II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० अभिकाक्षेत निषीधिकां प्रासुकां गन्तुम्, सः पुनः निषीधिकां जानीयात्- स- अण्डां तथा० अप्रासुकां न चेतयिष्यामि / स: भिक्षुः० अभिकाङ्क्षत निषीधिकां गन्तुम्, सः पुनः निषीधिकां अल्पप्राणां अल्पबीजां यावत् अल्पसन्तानकां, तथा० निषीधिकां प्रासुकां चेतयिष्यामि, एवं शय्यागमेन नेतव्यं, यावत् उदकप्रसूतानि / ये तत्र द्विवर्गाः त्रिवर्गाः चतुर्वग्गाः पञ्चवर्गाः वा अभिसन्धारयन्ति निषीधिकां गन्तुम्, ते न अन्योऽन्यस्य कायं आलिङ्गयेयुः वा विलिङ्गयेयुः चुम्बयेयुः वा. दन्तैः वा नखैः वा आच्छिन्दयेयुः वा विच्छिन्दयेयुः वा० एतत् खलु० यत् सवर्थिः सहितः समितः सदा यतेत, श्रेयः इदं मन्येत इति ब्रवीमि // 498 // III सूत्रार्थ : जो साधु या साध्वी प्रासुक अर्थात् निर्दोष स्वाध्याय भूमि में जाना चाहे तब वह स्वाध्याय भूमि को देखे और स्वाध्याय भूमि अण्डे आदि से युक्त हो तो इस प्रकार की अप्रासुक, अनेषणीय स्वाध्याय भूमि को जान कर कहे कि मैं इसमें नहीं ठहरुंगा। यदि स्वाध्याय भूमि में प्राणी, बीज यावत् जाला आदि नहीं है तो उसे प्रासुक एवं एषणीय जान कर कहे कि मैं यहां पर ठहरुंगा। शेष वर्णन शय्या अध्ययन के अनुसार जानना चाहिए। जैसे जहां पर उदक से उत्पन्न हुए कन्दादिक हों वहां पर भी न ठहरे। उस स्वाध्याय भूमि में गए हुए दो, तीन, चार, पांच साधु परस्पर शरीर का आलिंगन न करें, न विशेष रुप से शरीर का आलिंगन करे, न मुख चुम्बन करें, दान्तों से या नंखों Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-2-2-2-1 (498) 415 से शरीर का छेदन भी न करें, और जिस क्रिया या चेष्टा से मोह उत्पन्न होता हो इस तरह की क्रियाएं भी न करें। यही साधु और साध्वी का समय आचार है। जो साधु साधना के यथार्थ स्वरूप को जानता है, पांच समितियों से युक्त हे और इस का पालन करने में सदा प्रयत्न शील है, वह यह माने कि इस आचार का पालन करना ही मेरे लिए कल्याण प्रद है। इस प्रकार मैं कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : वह भाव साधु यदि उपहत याने अकल्पनीय वसति से अन्य वसति याने स्वाध्याय भूमि में जाना चाहे, और यदि वह स्वाध्याय भूमि भी अंडों से युक्त हो यावत् मकडी के जाले से युक्त हो तो वह स्वाध्यायभूमि अप्रासुक जानकर ग्रहण न करें... .. किंतु वह साधु अंडों से रहित हो ऐसी स्वाध्याय भूमि का ग्रहण करें... इसी प्रकार अन्य सूत्रों का भावार्थ शय्या-सूत्रकी तरह जानीयेगा... यावत् जहां जल से उत्पन्न हुए कंद आदि हो ऐसी स्वाध्याय भूमि का ग्रहण न करें... अब स्वाध्याय भूमि में गये हुए साधुओं के विषय में कहतें हैं... कि- स्वाध्याय भूमि में गये हुए साधु दो या तीन या चार या पांच हो तो वे साधु परस्पर एक-दूसरे के शरीर का स्पर्श न करें तथा अनेक प्रकार से मोह का उदय हो ऐसे प्रकार से बार बार एक-दूसरे के शरीर को न छुए... तथा कंदर्प याने काम विकारवाली विविध क्रियाएं भी न करें, क्योंकिइस प्रकार के पंचाचार के नियमों के पालन से ही तो साधु का साघुपना होता है... और वह साधु भवांतर में सद्गति के सभी साधनों से युक्त है, तथा पांच समितिवाला वह साधु जीवन पर्यंत संयमानुष्ठान में प्रयत्न करता रहता है, और यह साधुपना ही श्रेयः याने कल्याणक है ऐसा उस साधु का मानना-समझना है... इति-ब्रवीमि पूर्ववत्... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में स्वाध्याय के स्थान एवं स्वाध्याय के समय चित्तवृत्ति को संयत रखने का वर्णन किया गया है। यह हम देख चुके हैं कि आत्मा को सर्व बन्धनों से मुक्त करने के लिए कायोत्सर्ग एक महान् साधन है। परन्तु, उस साधन को स्वीकार करने के लिए आत्मा एवं शरीर के स्वरूप तथा सम्बन्ध को जानना भी आवश्यक है और उसके लिए सर्वोत्तम साधन स्वाध्याय है। स्वाध्याय शब्द स्व+अध्याय के संयोग से बना है। स्व का अर्थ आत्मा और Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 416 2-2-2-2-1 (498) . श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अध्याय का अर्थ है अध्ययन या बोध करना / अतः स्वाध्याय का अर्थ हुआ अपनी आत्मा का अध्ययन करना या आत्मा के स्वरूप को पहचानना / अर्थात्, जो ज्ञान, जो चिन्तन-मनन आत्मा के स्वरूप को स्पष्ट करने में सहायक होता है, उसे स्वाध्याय कहते है। यह स्पष्ट है कि चिन्तन के लिए एकान्त एवं निर्दोष स्थान चाहिए। क्योंकि यदि स्थान सदोष है, उसमें कई प्राणियों को पीड़ा पहुंचने की संभावना है तो चित्तवृत्ति शान्त नहीं रह सकती। जहां दूसरे प्राणियों को कष्ट होता हो वहां आत्मा पूर्ण शान्ति का अनुभव नहीं कर सकता है। इसलिए हिंसा को शान्ति केलिए बाधक माना गया है और साधक को हिंसा से सर्वथा बचकर रहने का आदेश दिया गया है। हिंसा की तरह बाह्य कोलाहल भी मन को एकाय नहीं रहने देता। इसलिए तत्त्ववेत्ताओं ने साधक को निर्दोष एवं शान्त एकान्त स्थान में स्वाध्याय करने का आदेश दिया गया है। एकान्तता जैसे योगों का निरोध करने के लिए सहायक है, वैसे भोगों की वृत्ति को उच्छृखल बनाने में भी उसका सहयोग करता है। योगी और भोगी, वैरागी और रागी दोनों को एकान्त स्थान की आवश्यकता रहती है। एकान्त स्थान में ही मन साधना की ओर भलीभांति प्रवृत्त हो सकता है और विषय विकारों की अभिलाषाओं को पूरा करने के लिए भी मनुष्य एकांत स्थान ढूंढता है। क्योंकि लोगों के सामने उसे अपनी वासना को तृप्त करने में लज्जा अनुभव होती है। इसी दृष्टि से प्रस्तुत सूत्र में साधक को यह शिक्षा दी गई है कि वह उस एकांत-शांत स्थान का उपयोग मोह कर्म को बढ़ाने में न करे। उसे अपने साथी साधकों के साथ पारस्परिक शारीरिक आलिंगन आदि कुचेष्टांएं नहीं करनी चाहिए। और न अपने नाखून एवं दान्तों से किसी के शरीर का स्पर्श करना चाहिए जिससे कि वासना की जागृति हो। साधु को उस एकांत स्थान में योगों की प्रवृत्ति को उच्छृखल बनाने की चेष्टा न करते हुए योगों को अन्य समस्त प्रवृत्तियों से हटा कर आत्मा की ओर मोड़ने का प्रयत्न करना चाहिए। इस दृष्टि से प्रस्तुत अध्ययन मुनियों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। इससे यह स्पष्ट होता है कि साधक को अपने योगों को अन्य प्रवृत्तियों से हटाकर आत्म साधना की ओर लगाना चाहिए, और इसके लिए उसे सर्वथा निर्दोष, प्रासुक एवं शान्तएकान्त स्थान में स्वाध्याय करना चाहिए। 'त्तिबेमि' का अर्थ पूर्ववत् समझें। // द्वितीयश्रुतस्कन्धे द्वितीयचूलिकायां द्वितीयसप्तैकः समाप्तः || Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2-2-2-2-1 (498) 417 श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐卐 : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य थधुंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट -परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. “श्रमण" के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययन से विश्व के सभी जीव पंचाचार की दिव्य सुवास को प्राप्त करके परमपद की पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058. Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 418 2-2-3-3-1 (499) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 2 अध्ययन - 3 सप्तैककः - 3 7 उच्चार-प्रस्रवण // अब तृतीय सप्तैकक स्वरुप अध्ययन करतें हैं, यहां परस्पर इस प्रकार अभिसंबंध है कि- दूसरे अध्ययन में निषीधिका का स्वरुप कहा, अब उस निषीधिका में किस प्रकार की भूमि के उपर उच्चारादि याने स्थंडिल-मात्रा करें इत्यादि अधिकार इस तृतीय सप्तैकक अध्ययन में कहेंगे... अब इस अध्ययन के नाम निष्पन्न निक्षेप के अधिकार में उच्चार-प्रस्रवण यह नाम है... अतः इस नाम की निरुक्ति स्वरुप अर्थ नियुक्तिकार श्री भद्रबाहुस्वामीजी नियुक्ति की गाथा के द्वारा कहतें हैं। शरीर में से जो विष्ठा-मल उत् याने प्रबलता के साथ चार याने बाहर निकलता है वह उच्चार याने मल-विष्टा विसर्जन... तथा प्रकर्ष से जो टपकता है, झरता है वह प्रश्रवण याने मात्रु = लघुनीति (पेसाब)... तो अब साधु किस प्रकार से उच्चार एवं प्रश्रवण का त्याग करे कि- जिस क्रिया से साधु की शुद्धि हो, और अतिचार-दोष भी न हो... ? यह बात आगे की गाथा से कहतें हैं... छह (6) जीवनिकाय की रक्षा करने में उद्युक्त याने तत्पर ऐसा अप्रमत्त साधु आगे कहे जानेवाले सूत्र के अनुसार स्थंडिल याने निर्जीव भूमि के ऊपर उच्चार एवं प्रश्रवण याने मलमूत्र का त्याग करे... अब नियुक्ति-अनुगम के बाद सूत्रानुगम में सूत्र का उच्चार शुद्ध प्रकार से करना चाहिये... और वह सूत्र यह रहा... .. I सूत्र // 1 // // 499 // से भिक्खू० उच्चार-पासवण किरियाए उब्बाहिज्जमाणे सयस्स पायपुंछणस्स असईए तओ पच्छा साहम्मियं जाइज्जा। से भिक्खू० से जं पुण थंडिल्लं जाणेज्जा सअंडं० तह० थंडिल्लंसि नो उच्चार-पासवणं वोसिरिज्जा। ___ से भि० जं पुण थंडिल्लं0 अप्पपाणं जाव संताणयं, तह० थंडि० उच्चा० वोसिरिज्जा। से भिक्खू० से जं० अस्सिंपडियाए एणं साहम्मियं समुद्दिस्स वा अस्सिं० बहवे साहम्मिया समु० अस्सिं० एणं साहम्मिणिं समु० अस्सिंपडियाए० बहवे साहम्मिणीओ समु० अस्सिंo बहवे समण पगणिय समु० पाणाई, जाव उद्देसियं चेएइ, Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-2-3-3-8 (499) 419 तह थंडिल्ले पुरिसंतरकडं जाव बहियानीहडं वा अनीहडं वा अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडि० उच्चारं नो वोसिरिज्जा० / से भिक्खू० से जं0 बहवे समणमाहण० कि० वणीo अतिही समुद्दिस्स पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई जाव उद्देसियं चेएइ, तह० थंडिल्लं पुरिसंतरगडं जाव बहिया अनीहडं अण्णयरंसि वा तह० थंडिल्लंसि नो उच्चार-पासवण अह पुण एवं जाणिज्जाअपुरिसंतरगडं जाव बहिया नीहडं अण्णयरंसि वा तहप्पगारं० थंडिल्लंसि उच्चारण वोसिरिज्जा। से० जं० अस्सिंपडियाए कयं वा कारियं वा पामिच्चियं वा छण्णं वा घटुं वा मटुं वा लित्तं वा संमटुं वा संपधूवियं वा अण्णयरंसि वा तह० थंडिल्लंसि० नो उच्चार। से भि0 से जं पुण थंडि० जाणिज्जा, इह खलु गाहावई वा गाहा० पुत्ता वा कंदाणि वा जाव हरियाणि वा अंतराओ वा बाहिं नीहरंति, बहियाओ वा अंतो साहरंति अण्णयरंसि वा तह० थंडिल्लंसि नो उच्चार० / से भि0 से जं पुण० जाणेज्जा-खंधंसि वा पीढंसि वा मंचंसि वा मालंसि वा अटुंसि वा पासायंसि वा अण्णयरंसि वा० थंडिo नो उच्चा०। . से भि0 से जं पुण० अणंतरहियाए पुढवीए, ससिद्धिाए पुढवीए, ससरक्खाए पुढवीए, मट्टियाए मक्कडाए चित्ताए सिलाए चित्तमंताए लेलुयाए कोलावासंसि वा दारुयंसि वा जीवपट्टियंसि वा जाव मक्कडासंताणयंसि अण्ण तह० थंडि० नो उच्चा० // 499 // II. संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० उच्चार-प्रश्रवण-क्रियायां उद्बाध्यमान: स्वकीयस्य पादपुग्छनस्य असतः, ततः तथात् साधर्मिकं याचेत। सः भिक्षुः० स: यत् पुनः० स्थण्डिलं जानीयात्स-अण्ड० तथा० स्थण्डिले न उच्चारप्रश्रवणं व्युत्सृजेत् / सः भिक्षुः० यत् पुनः स्थण्डिलं अल्पप्राणिनं ? यावत् अल्पसन्तानकं तथा० स्थण्डिले उच्चार० व्युत्सृजेत् / सः भिक्षुः सः यत् अस्वप्रतिज्ञया एकं साधर्मिकं समुद्दिश्य वा अस्वप्रतिज्ञया बहून् साधर्मिकान् समुद्दिश्य, अस्वप्रतिज्ञया एकां साधर्मिकां समुद्दिश्य, अरवप्रतिज्ञया बहूः साधर्मिकाः समुद्दिश्य, अरवप्रतिज्ञया बडून् श्रमणब्राह्मण प्रगणय्य प्रगणय्य समुद्दिश्य, प्राणिनः, यावत् औद्देशिकं चेतयति, तथा० स्थण्डिलं पुरुषान्तरकृतं यावत् बहिः नीतं वा अनीतं वा0 अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारे स्थण्डिले उच्चारं न व्युत्सृजेत्। Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 420 2-2-3-3-1 (499) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन स: भिक्षुः० स: यत् बहून् श्रमण-ब्राह्मण-कृपण-वनीपक-अतिथीन् समुद्दिश्य प्राणिनः भूतानि जीवान् सत्त्वान् यावत् औदेशिकं चेतयति, तथा० स्थण्डिलं पुरुषान्तरकृतं यावत् बहिः नीतः अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारे स्थण्डिले न उच्चारप्रश्रवण / अथ पुनः एवं जानीयात्- अपुरुषान्तरकृतं यावत् बहिः नीतं अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारे स्थण्डिले उच्चार० व्युत्सृजेत् / स:० यत्० अस्वप्रतिज्ञया कृतं वा कारितं वा प्रामित्यं वा छन्नं वा घृष्टं वा मृष्टं वा लिप्तं वा संमृष्टं वा सम्प्रधूपितं वा अन्यतरस्मिन् तथा० स्थण्डिले० न उच्चारप्रश्रवण स: भिक्षुः० सः यत् पुनः स्थण्डिलं जानीयात्- इह खलु गृहपतिः वा गृहपतिपुत्रा: वा कन्दानि वा यावत् हरितानि वा अभ्यन्तरतः वा बहिः निष्काशयन्ति, बहिः वा अभ्यन्तरे समाहरन्ति अन्यतरस्मिन् वा तथा० स्थण्डिले न उच्चार / स: भिक्षु:० स: यत् पुनः० जानीयात्- स्कन्धे वा पीठे वा मधे वा माले वा अट्टे वा प्रासादे वा अन्यतरे / वा० स्थण्डिले० न उच्चार०। सः भिक्षुः० सः यत् पुन:० अनन्तरहितायां पृथिव्यां सस्निग्धायां पृथिव्यां सरजस्कायां पृथिव्यां मृत्तिकायां मर्कटायां चित्तवत्यां शिलायां चित्तवति लेष्टौ घुणावासे वा दारुके वा जीवप्रतिष्ठिते वा यावत् मर्कट-सन्तानके अन्य० तथा० स्थण्डिले न उच्चार० // 499 // III सूत्रार्थ : साधु या साध्वी उच्चार प्रश्रवण मलमूत्र की बाधा हो तो स्वकीय पात्र में उससे निवृत्त होकर मूत्रादि को परठ दे। यदि स्वकीय पात्र न हो तो अन्य साधर्मी साधु से पात्र की याचना करके उसमें अपनी बाधा का निवारण करके परठ दे, कितु मल-मूत्र का कभी भी निरोध न करे। परन्तु अण्डादि जीवों से युक्त स्थान पर मल मूत्रादि न परठे न त्यागे। जो भूमि द्वीन्द्रियादि जीवों से रहित है, उस भूमि पर मल-मूत्र का त्याग करे। यदि किसी गृहस्थ ने एक साधु या बहुत से साधुओं का उद्देश रखकर स्थण्डिल बनाया हो अथवा एक साध्वी या बहुत सी साध्वियों का उद्देश्य रखकर स्थण्डिल बनाया हो अथवा बहुत से श्रमण ब्राह्मण, कृपण, भिखारी एवं गरीबों को गिन गिन कर उनके लिए प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों की हिंसा करके स्थण्डिल भूमि को तैयार किया हो तो इस प्रकार का स्थण्डिल पुरुषान्तर कृत हो या अपुरुषान्तर कृत हो किसी अन्य के द्वारा भोगा गया हो या न भोगा गया हो, उसमें साधु-साध्वी मलमूत्र का परित्याग न करे। यदि किसी गृहस्थ ने श्रमण, ब्राह्मण, कृपण, वनीपक-भिखारी, अतिथियों का निमित्त Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-2-3-3-1 (499) 421 रखकर प्राणी, भूत, जीव, सत्त्वों की हिंसा करके स्थण्डिल बनाया हो तो इस प्रकार का स्थण्डिल, जब तक वह अपुरुषान्तर कृत है अर्थात् किसी के भोगने में नहीं आया है तब तक इस प्रकार के स्थण्डिल में मल मूत्र का परित्याग न करे। यदि इस प्रकार जान ले कि यह पुरुषान्तर कृत है या अन्य के द्वारा भोगा हुआ है तो इस प्रकार के स्थण्डिल में मल मूत्र का त्याग कर सकता है। ___ यदि साधु या साध्वी इस प्रकार जान ले कि गृहस्थ ने साधु की प्रतिज्ञा से स्थण्डिल बनाया या बनवाया है, उधार लिया है, उस पर छत डाली है- उसे सम किया है और संवारा है तथा धूप से सुगंधित किया है तो इस प्रकार के स्थण्डिल में मल मूत्र का त्याग न करे। यदि साधु इस प्रकार जाने कि गृहपति या उसके पुत्र कन्द मूल और हरि आदि पदार्थों को भीतर से बाहर और बाहर से भीतर ले जाते या रखते हैं, तो इस प्रकार के स्थण्डिल में मल मूत्रादि न परठे। यदि साधु इसप्रकार जाने कि यह स्थण्डिल भूमि स्तम्भ पर है, पीठ पर है, मंच पर है, ऊपरी मंजिल पर है तथा अटारी और प्रासाद पर है अथवा इसी प्रकार के किसी अन्य विषम स्थान पर है तो इस प्रकार की स्थण्डिल भूमि पर मल मूत्र का परित्याग न करे। तथा सचित्त पृथ्वी पर, स्निग्ध-गीली पृथ्वी पर, सचित्त रज से युक्त पृथ्वी पर, जहां पर सचित्त मिट्टी मसली गई हो ऐसी पृथ्वी पर, सचित्त शिला पर, सचित्तशिला खंड पर, घुण युक्त काष्ठ पर, द्वीन्द्रियादि जीव युक्त काष्ठ पर, यावत् मकड़ी के जाला आदि से युक्त भूमि पर मल मूत्रादि न परठे। IV. टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. जब कभी उच्चार एवं प्रश्रवण याने मल-मूत्र विसर्जन करने के लिये अतिशय पीडित हो तब अपने मात्रक आदि में उच्चारादि करें... यदि अपने आपके मात्रक आदि न हो तब अपने साधर्मिक- साधु के पास पडिलेहण किये हुए मात्रक आदि की याचना करें... इस बात से यह सारांश प्राप्त हुआ कि- साधु मल-मूत्र के वेग को रोके नही... इत्यादि... किंतु बात यह है कि- साधु उच्चार एवं प्रश्रवण याने मल-मूत्र की शंका (बाधा) होने के पहले ही स्थंडिल भूमि में जावें... किंतु यदि वह स्थंडिल भूमी अंडों आदि से युक्त हो तो अप्रासुक ऐसी उस स्थंडिलभूमि में उच्चारादि न करें... यदि वह स्थंडिल भूमि अंडों आदि से रहित प्रासुक हो तो वहां उच्चारादि करें... तथा वह साधु जब जाने कि- यह स्थंडिल-भूमि एक या अनेक साधुओं के लिये है, Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 422 2-2-3-3-1 (499) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन तब श्रमण आदि की गिनती करके स्थंडिल करें... किंतु यदि वह स्थंडिलभूमि अन्य पुरुष ने स्वीकृत की हो या स्वीकृत न की हो तब यदि मूलगुण को दूषित करनेवाला औद्देशिक दोष हो तो उच्चारादि न करें... तथा वह साधु अन्य पुरुष ने स्वीकृत न की हो ऐसी स्थंडिल भूमि में उच्चारादि न करें किंतु यदि अन्य पुरुष ने स्वीकृत की हो तब उस स्थंडिलभूमि में उच्चारादि मल-मूत्र का त्याग करें... तथा वह साधु, साधु के लिये क्रीत (खरीदी) इत्यादि उत्तरगुण से अशुद्ध स्थंडिलभूमि में मल-मूत्र का त्याग न करें... तथा वह साधु यदि उस स्थंडिलभूमि से गृहस्थ-लोग कंद आदि बाहर निकालते हो या उस स्थंडिल भूमि में कंद आदि लाकर रखते हो तब उस स्थंडिल भूमि में साधु उच्चारादि याने मल-मूत्र का त्याग न करें... तथा वह साधु स्कंध आदि स्वरुप स्थंडिलभूमि में उच्चारादि न करें, यदि वह साधु ऐसा जाने कि- यह स्थंडिल भूमि उपर से सचित्त है, तब उस स्थंडिलभूमि में साधु उच्चारादि याने मल-मूत्र का त्याग न करें... शेष सुगम है... कोलावास का अर्थ है घुणावास... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में उच्चार-प्रश्रवण का त्याग करने की विधि बताई गई है। मल और मूत्र को क्रमशः उच्चार और प्रश्रवण कहते है। साधु को कभी भी इनका निरोध नहीं करना चाहिए। क्योंकि इनके निरोध से शरीर में अनेक व्यधिया एवं भयंकर रोग उत्पन्न हो सकते हैं, जिनके कारण आध्यात्मिक साधना में रुकावट पड़ सकती है। इसलिए साधु को यह आदेश दिया गया है कि वह अपने मल मूत्र का त्याग करने के पात्र में उसकी बाधा को निबारण करले। यदि किसी समय उसके पास अपना पात्र नहीं है तो उसे चाहिए कि अपने साधर्मिक साधु से उसकी याचना करले। परन्तु, मल-मूत्र को रोक कर न रखे। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि साधु को मल-मूत्र का त्याग करने के लिए एक अलग पात्र रखना चाहिए, जिसे मात्रक या समाधि भी कहते है। साधु को ऐसे स्थान पर मल मूत्र का त्याग नहीं करना चाहिए, जो हरियाली से, बीजों से, निगोद काय से, क्षुद्र जीव-जन्तुओं से युक्त हो या सचित हो, गीला हो, सचित्त मिट्टी वाला हो तथा सचित शिला एवं शिला खण्ड पर हो। इसके अतिरिक्त साधु को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जो मल-मूत्र त्यागने का स्थान एक या अनेक साधु-साध्वियों को उद्देश्य में रखकर तथा श्रमण-ब्राह्मणों के साथ भी जैन श्रमणों को लक्ष्य में रखकर बनाया गया हो तो उस स्थान में भी मल-मूत्र का त्याग नहीं करना चाहिए—चाहे वह स्थान पुरुषान्तरकृत भी क्यों न हो। Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-2-3-3-2 (500) 423 यदि वह स्थान केवल अन्य मत के श्रमण-ब्राह्मणों के लिए बनाया गया है तो पुरुषान्तरकृत होने पर साधु उस स्थान में मल-मूत्र का त्याग कर सकता है। ___ जो स्थान अन्तरिक्ष में हो अर्थात् मंच, स्तंभ आदि पर हो तो ऐसे स्थानों पर भी मलमूत्र का त्याग नहीं करना चाहिए। मार्ग की विषमता के कारण ही ऐसे स्थानों पर परठने का निषेध किया गया है, जैसे कि पूर्व अध्ययनों में ऐसे स्थानों पर हाथ-पैर आदि धोने एवं वस्त्र आदि सुखाने का निषेध किया गया है। किंतु यदि ऊपर के स्थानों पर जाने का मार्ग प्रशस्त हो, जीवों की विराधना न होती हो तो साधु उन स्थानों का उपभोग भी कर सकता जिस स्थान से कन्द-मूल आदि भीतर से बाहर एवं बाहर से भीतर लाए जा रहे हों तो ऐसे स्थान पर भी साधु को मल-मूत्र का त्याग नहीं करना चाहिए। इसका कारण यह है कि संभवतः यह क्रिया भूमि को परठने योग्य बनाने के लिए की जा रही हो, अतः साधु ' को ऐसे स्थान का भी परठने के लिए उपयोग नहीं करना चाहिए। जिस स्थान पर साधु के उद्देश्य से कोई विशेष क्रियाएं की गई हों, जैसे- स्थान को सम बनाया गया हों, छायादार बनाया गया हो, सुवासित बनाया गया हो, तो जब तक यह भूमि पुरुषान्तर न हो जाएं तब तक साधु को उनका उपयोग नहीं करना चाहिए। इससे यह स्पष्ट होता है कि साधु को सचित्त, जीव जन्तु एवं हरियाली युक्त तथा सदोष भूमि पर मल-मूत्र का त्याग नहीं करना चाहिए। उसे सदा अचित्त जीव जन्तु आदि से रहित, निर्दोष एवं प्रासुक भूमि पर ही मल-मूत्र का त्याग करना चाहिए। - इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 2 // // 500 // से भिक्खू० से जं० जाणेज्जा- इह खलु गाहावई वा गाहावइपुत्ता वा कंदाणि वा जाव बीयाणि वा परिसाडिंसु वा परिसाडिंति वा परिसाडिस्संति वा अण्ण तह० नो उच्चार। से भि0 से जं० इह खलु गाहावई वा गा० पुत्ता वा सालीणि वा वीहीणि वा मुग्गाणि वा मासाणि वा कुलत्थाणि वा जवाणि वा जवजवाणि वा पडरिंसु वा पड़रिंति वा परिस्संति वा अण्णयरंसि वा तह० थंडिल नो उच्चार० / से भि०, जं० आमोयाणि वा घासाणि वा भिलुयाणि वा विज्जलयाणि वा Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 424 2-2-3-3-2 (500) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन खाणुयाणि वा कडयाणि वा पगडाणि वा दरीणि वा पदुग्गाणि वा समाणि वा अण्णयरंसि तह० नो उच्चार० से भिक्खू० से जं० पुण थंडिल्ले जाणिज्जा- माणुसरंधणाणि वा महिसकरणाणि वा वसहक० वा अस्सक० कुक्कुडक० मक्कडक० गयक० लावयक० चडयक० तित्तिरक० कवोयक० कविंजलकरणाणि वा अण्णयरंसि वा तह० नो उच्चार। से भि० से जं० जाणे० वेहाणसट्ठाणेसु वा गिद्धपट्टा० वा तरुपडणट्ठाणेसु वा मेरुपडणट्ठा० विसभक्खणयट्ठा० अगणिपडणट्ठा० अण्णयरंसि वा तह० नो उच्चार० / से भि० से जं० आरामाणि वा उज्जाणाणि वा वणाणि वा वणखंडाणि वा देवकुलाणि वा सभाणि वा पवाणि वा अण्ण तह० नो उच्चार० / से भिक्खू० से जं पुण जा0 अट्टालयाणि वा चरियाणि वा दाराणि वा गोपुराणि वा अण्णयरंसि वा तह० थंडि० नो उच्चार०। से भि० से जं० जाणे० तिगाणि वा चउक्काणि वा चच्चराणि वा चउम्मुहाणि वा अण्णयरंसि वा तह० नो उच्चार० / से भि० से जं० जाणे० इंगालदाहेसु वा खारदाहेसु वा मडयदाहेसु वा मडयथूभियासु वा मडयचेइएसु वा अण्णयरंसि वा तह० थंडिल नो उच्चार० / / से जं जाणे० नइयायतणेसु वा पंकाययणेसु वा ओघाययणेसु वा सेयणवहंसि वा अण्णयरंसि वा तह० थंडि० नो उच्चार / से भि0 से जं जाणं० नवियासु वा मट्टियखाणिआसु नवियासु गोप्पहेलियासु वा गवाणीसु वा खाणीसु वा अण्णयरंसि वा तह० थंडिo नो उच्चारण से जं जा0 डागवच्चंसि वा सागव० मूलग० हत्थंकरवच्चंसि वा अण्णयरंसि वा तहं नो उ0 वो०। से भि0 से जं0 असणवणंसि वा सणव० धायइव० केयइवणंसि वा अंबव० असोगव० नागव० पुण्णागव० चुल्लगव० अण्णयरेसु तह० पत्तोवेएसु वा पुप्फोवेएसु फलोवेएसु वा बीओवेएसु वा हरिओवेएसु वा नो उच्चार० वोसिरिज्जा || 500 // II संस्कृत-छाया : से भिक्षुः० सः यत् जानीयात्- इह खलु गृहपतिः वा गृहपतिपुत्राः वा कन्दानि Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 2-2-3-3-2 (500) 425 पाठ वा यावत् बीजानि वा परिचाटितवन्तः वा परिशाटयन्ति वा परिशाटयिष्यन्ति वा अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारे स्थण्डिले न उच्चारप्रश्रवणं व्युत्सृजेत् / स: भिक्षुः० स: यत् इह खलु गृहपतिः वा गृहपतिपुत्रा वा शालीन् वा व्रीहीन् वा मुद्गान् वा माषान् वा कुलत्थानि वा यवान् वा यवयवान् वा उप्तवन्तः वा वपन्ति वा वपिष्यन्ति वा अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारे स्थण्डिले न उच्चार० / सः भिक्षुः वा यत्० आमोकानि वा घासाः वा भिलुकानि वा विजलानि वा स्थाणव: वा कडवाणि वा प्रगतः वा दरी वा प्रदुर्गाणि वा समानि वा विषमाणि वा अन्यतरस्मिन् तथाप्रकारे न उच्चार-प्रश्रवणं व्युत्सृजेत्। स: भिक्षु:० सः यत् पुनः स्थण्डिलं जानीयात् - मानुषरन्धनानि वा महिषकरणानि वा वृषभकरणानि वा अश्वकरणानि वा कुर्कुटकरणानि वा मर्कटकरणानि वा गजकरणानि वा लावककरणानि वा चटककरणानि वा तित्तरिककरणानि वा नि वा कपिञ्जलकरणानि वा अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारे स्थण्डिले न उच्चार। सः भिक्षुः वा सः यत् पुनः जानीयात्- वैहानसस्थानेषु वा गृद्धपृष्ठस्थानेषु वा तरुपतनस्थानेषु वा मेरुपतनस्थानेषु वा विषभक्षणस्थानेषु वा अग्निपतनस्थानेषु वा अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारे स्थण्डिले न उच्चारप्रश्रवणं व्युत्सृजेत्। सः भिक्षुः० सः यत् आरामेषु वा उद्यानेषु वा वनेषु वा वनखण्डेषु वा देवकुलेषु वा सभासु वा प्रपासु वा अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारे स्थण्डिले न उच्चारप्रश्रवणं व्युत्सृजेत् / सः भिक्षुः वा० स: यत् पुन: जानीयात्- अट्टालिकेषु वा चरिकेषु वा द्वारेषु वा गोपुरेषु वा अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारे स्थण्डिले न उच्चारप्रश्रवणं व्युत्सृजेत्। सः भिक्षुः वा० सः यत् जानीयात्- त्रिकेषु वा चतुष्केषु वा चत्वरेषु वा चतुर्मुखेषु वा अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारे स्थण्डिले न उच्चार० / सः भिक्षुः वा० स: यत् जानीयात्- अङ्गारदाहेषु वा क्षारदाहेषु वा मृतकदाहेषु वा मृतकस्तूपिकासु वा मृतकचैत्येषु वा अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारे स्थण्डिले न उच्चारप्रश्रवणं व्युत्सृजेत् / स: यत् पुन: जानीयात्- नदी-आयतनेषु वा पङ्कायतनेषु वा ओघायतनेषु वा सेचनपथि वा अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारे स्थण्डिले न उच्चार० / स: भिक्षुः वा० सः यत् पुनः जानीयात्- नवासु वा मृत्तिकाखनिषु वा नवासु Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 426 2-2-3-3-2 (500) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन वा गोप्रहेल्यासु वा गवादनीषु वा खनीषु वा अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारे स्थण्डिले न उच्चारप्रश्रवणं व्युत्सृजेत्। सः यत् पुनः जानीयात्- डालवर्चसि वा शाकवर्चसि वा मूलकवर्चसि वा हस्तङ्करवसि वा अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारे स्थण्डिले न उच्चारप्रश्रवणं व्युत्सृजेत्। स: भिक्षुः वा० सः यत्० अशनवने वा शणवने वा धातकीवने वा केतकीवने वा आम्रवणे वा अशोकवने वा नागवने वा पुन्नागवने वा चुल्लगवने वा अन्यतरेषु वा तथाप्रकारेषु स्थण्डिलेषु वा पत्रोपेतेषु वा पुष्पोपेतेषु वा फलोपेतेषु वा बीजोपेतेषु वा हरितोपेतेषु वा न उच्चारप्रश्रवणं व्युत्सृजेत् // 500 / / III सूत्रार्थ : संयमशील साधु या साध्वी स्थण्डिल के सम्बन्ध में यह जाने कि जिस स्थान पर गृहस्थ और गृहस्थ के पुत्रों ने कन्दमूल यावत् बीज आदि रखे हुए है, या रख रहे हैं या रखेंगे। तो साधु इस प्रकार के स्थानों में मल-मूत्रादि का त्याग न करे। इसीप्रकार गृहस्थ लोगों ने जिस स्थान पर शाली, ब्रीही, मूंग, उड़द, कुलत्थ, यव और ज्वार आदि बीजे हुए हैं, बीज रहे हैं और बीजेंगे, ऐसे स्थानों पर भी साधु मल-मूत्रादि का त्याग न करे। जहां कहिं कचरे के ढेर हों, भूमि फटी हुई हो, भूमि पर रेखाएं पड़ी हुई हो, कीचड़ हो, इक्षु के दण्ड हों, खड़े हों, गुफायें हों, कोट की भित्ति आदि हो, सम-विषम स्थान हो तो ऐसे स्थानों पर भी साधु मलमूत्र का त्याग न करे। इसी प्रकार जहां पर चूल्हे हों तथा भैंस, बैल, घोड़ा, कुक्कुड़, बन्दर, हाथी, लावक (पक्षी), चटक, तितर, कपोत और कपिंजल (पक्षी विशेष) आदि के रहने के स्थान हों या इनके लिए जहां पर कोई क्रियाएं या कुछ कार्य किए जाते हों ऐसे स्थानों पर भी मल-मूत्र का त्याग न करे। फांसी देने के स्थान, गीध पक्षी के समक्ष पड़कर मरने के स्थान, वृक्ष पर से गिर कर मरने के स्थान, पर्वत पर चढ़कर वहां से गिर कर मरने के स्थान, विष भक्षण करने के स्थान, अग्नि में जल कर मरने के स्थान, इस प्रकार के स्थानों पर भी मल-मूत्र का त्याग न करे। तथा जहां पर बाग-उद्यान, वन, वनखंड, देवकुल, सभा और प्रपा-पानी पिलाने के स्थान 'परब' आदि हों तो ऐसे स्थानों पर भी मल-मत्रादि न परठे। कोट की अटारी, राजमार्ग, द्वार, नगर का बड़ा द्वार इन स्थानों पर मल-मूत्रादि का विसर्जन न करे। नगर में जहां पर तीन मार्ग मिलते हों या बहुत से मार्ग मिलते हों, या जो स्थान चतुर्मुख हों ऐसे स्थानों पर भी मल-मूत्र का त्याग न करे। Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी- टीका 2-2-3-3-2 (500) 427 इसीप्रकार जहां काष्ठ जलाकर कोयले बनाए जाते हों, क्षार बनाई जाती हो, मृतक जलाए जाते हों, एवं मृतक स्तूप और मृतक चैत्य मृतक मन्दिर हों, ऐसे स्थानों पर भी मल मूत्र को न परठे। नदी के तीर्थ स्थानों (तट) पर, नदी के तीर्थ रुप कर्दम स्थानों पर एवं जल के प्रवाह रुप पूज्य स्थानों में तथा खेत और उद्यान को जल देने वाली नालियों में मल मंत्र का परित्याग न करे। मिट्टी की नई खदानों में, नई गोचर भूमि में, सामान्य गौओं के चरने के स्थानों और खदानों में, मल मूत्रादि का परित्याग न करें। डाल प्रधान शाक के खेतों में, पत्र प्रधान शाक के खेतों में, और मूली गाजर आदि के खेतों में तथा हस्तंकर नामक वनस्पति के क्षेत्र में, इस प्रकार के स्थानों मे भी मल-मूत्र को न त्यागे / बीयक के वन में, शणी के वन में, धातकी (वृक्ष विशेष) के वन में, केतकी के वन में, आम वृक्ष के वन में, अशोक वृक्ष के वन में, नाग और पुन्नाग वृक्ष के वन में, चूलक वृक्ष के वन में और इसी प्रकार के अन्य पत्र, पुष्प, फलों, तथा बीज और हरी वनस्पति से युक्त वन में मल मूत्र को न त्यागे। IV. -- टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. जब जाने कि- इस स्थंडिल-भूमि में गृहपति या गृहपति के पुत्र आदि कंद, बीज आदि रखते थे, रख रहे हैं, और रखते रहेंगे तब ऐसी उस स्थंडिलभूमि में साधु इहलोक के एवं परलोक के अपाय के भय से उच्चारादि याने मल-मूत्रादि न करें... तथा जिस स्थंडिल भूमि में गृहपति आदि लोग शाली (चावल) आदि बोते थे, बो रहे हैं, और बोते रहेंगे तब ऐसी उस स्थंडिल भूमि में साधु उच्चारादि याने मल-मूत्रादि न करें... तथा वह साधु म. जब ऐसा जाने कि- इस स्थंडिलभूमि में कचरे का ढेर या तृणघास या छोटे छोटे तृण या कादव-कीच्चड या लकडी के खीले, गन्ने के डंडे, या गहरे खड़े, या गुफाएं या किल्ले की दीवार इत्यादि स्वरूप वह स्थंडिल भूमि समतल हो या विषमतल हो तब आत्मविराधना एवं संयम विराधना के भय से साधु उस स्थंडिल भूमि में उच्चारादि (मलमूत्र) न करें... तथा वह साधु या साध्वीजी म. जब जाने कि- इस स्थंडिल भूमि में मनुष्यों के रसोई बनाने के चूल्हे हैं या भैंस आदि को बांधने के खीले हैं, तब ऐसी स्थंडिल भूमि में लोक विरुद्ध एवं जिनशासन की हीलना-निंदा का दोष न हो इस कारण से वहां उच्चारादि (मल-मूत्र) न करें... तथा वह साधु देखे-जाने कि- इस स्थंडिल भूमि में मनुष्य को लटकाने का स्थान है, या गीध आदि के भक्षण के लिये लोही-खून आदि से शरीर के उपर विलेपन करके मरने Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428 2-2-3-3-2 (500) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन के इच्छावाले मनुष्य जहां गृद्धपृष्ठ मरण की भांति रहतें हो, या तो जहां मरने के इच्छावाले मनुष्य वृक्ष के उपर चढकर गिर पडतें हैं, या तो पर्वत के शिखर उपर चढकर आत्मघात स्वरुप खीण में कूद पडतें हैं अथवा विष का भक्षण करे या अग्निस्नान करतें हैं ऐसे स्थान में साधु उच्चारादि न करें... तथा जहां देवमंदिर आदि हो वहां भी साधु उच्चारादि (मल-मूत्र) न करें... एवं देवमंदिर संबंधित अट्टालक याने ओटले जहां हो, ऐसी भूमि में भी साधु उच्चारादि न करें... तथा त्रिक याने तीन रास्ते, चतुष्क याने चार रास्ते और चत्वर याने चोराहा इत्यादि स्थानो में भी उच्चारादि (मल-मूत्र आदि) का विसर्जन न करें... तथा वह साधु या साध्वीजी म. जहां अंगारे जलाये जाते हो या मृतकों का दाह स्थानश्मशान आदि भूमि में भी उच्चारादि मल-मूत्र न करें... तथा नदी के तीर्थस्थानो में कि- जहां लोग पुण्य के लिये स्नान करते हैं... तथा पंक याने कादव के स्थान में कि- जहां लोग धर्मपुण्य के लिये आलोटतें हैं... तथा जल का प्रवाह स्थान कि- जो लोक में पूज्य माना गया है... अथवा तालाब के जल में प्रवेश करने का मार्ग... अथवा खेत में जल ले जानेवाली नीक आदि स्थानों में साधु मल-मूत्रादि का त्याग न करें... तथा वह साधु या साध्वीजी म. नई मिट्टी की खदान में तथा गाय-आदि पशुओं के नये गोचर स्थान में या सामान्य से गोचर भूमि में उच्चारादि न करें.... तथा डाल-प्रधान शाकवाले खेत में या पत्तेवाली सब्जी के खेत में तथा मूल-प्रधान सब्जी के खेत आदि भूमि में साधु उच्चारादि न करें... तथा गेहूं, चने आदि अनाज के खेतों में भी उच्चारादि न करें तथा पत्र, पुष्प, एवं फल आदिवाले खेत-भूमि में भी साधु उच्चारादि मल-मूत्र न करें.... अब कहां उच्चारादि (मल-मूत्र) करना चाहिये यह बात अब आगे के सूत्र से कहेंगे... सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में सार्वजनिक उपयोगी एवं धर्म स्थानों पर मल-मूत्र के त्याग करने का निषेध किया गया है। साधु को शाली (चावल), गेहूं आदि के खेत में, पशुशाला में, भोजनालय / में आम आदि के बगीचों में, प्याऊ में, देव स्थानों पर, नदी पर, कुएँ आदि स्थानों पर मलमूत्र का त्याग नहीं करना चाहिए। व्यवहारिक दृष्टि से भी यह कार्य अच्छा नहीं लगता है और उनके रक्षक के मन में क्रोध के कारण अनिष्ट होने की ही संभावना रहती है। देवालय, नदी, सरोवर आदि स्थानों को कुछ लोग पूज्य मानते हैं, जहां केवल नदी के पानी को ही नहीं, किंतु उसके कीचड़ को भी पवित्र मानते हैं। इसलिए ऐसे स्थानों पर साधु को मल-मूत्र का त्याग नहीं करना चाहिए। Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-2-3-3-3 (501) 429 कूड़े-कर्कट के ढेर, खडे एवं फटी हुई जमीन पर भी न परठे। क्योंकि, वहां परठने से अनेक जीवों की हिंसा होने की संभावना है। इसके अतिरिक्त साधु को ऐसे स्थानों पर भी मल-मूत्र का त्याग नहीं करना चाहिए, जहां लोगों को फांसी दी जाती हो या अन्य तरह से वध किया जाता हो। क्योंकि, उनके मन में घृणा पैदा होने से संघर्ष हो सकता है। इस सूत्र से यह स्पष्ट होता है कि साधु सभ्यता एवं स्वच्छता का पूरा ख्याल रखते थे। गांव एवं शहर की स्वच्छता नष्ट न हो तथा साधु के प्रति किसी के मन में घृणा की भावना पैदा न हो इसका भी परठते समय ध्यान रखा जाता था। इससे यह सिद्ध होता है कि साधु अपने साधना के लिए किसी भी प्राणी का अहित नही करता। वह प्रत्येक प्राणी की रक्षा एवं समाधि करने का प्रयत्न करता है। मल-मूत्र के त्याग के सम्बन्ध में कुछ और आवश्यक बातें बताते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 3 // // 501 // से भि० सयपाययं वा परपाययं वा गहाय से तमायाए एगंतमवक्कमे अणावायंसि असंलोयंसि अप्पपाणंसि जाव मक्कडासंताणयंसि अहारामंसि वा उवस्सयंसि तओ संजयामेव उच्चारपासवणं वोसिरिज्जा, से तमायाए एगंतमवक्कमे अणाबाहंसि जाव संताणयंसि अहारामंसि वा झामथंडिल्लंसि वा अण्णयरंसि वा तह० थडिल्लंसि अचित्तंसि तओ संजयामेव उच्चारपासवणं वोसिरिज्जा, एयं खलु तस्स० सया जइज्जासि त्तिबेमि // 501 // II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा० स्वपात्रकं वा परपात्रकं वा गृहीत्वा, सः तमादाय एकान्तं अपक्रामेत् अनापाते असंलोके अल्पप्राणिनि यावत् मर्कटासन्तानके अध: आरामे वा उपाश्रये वा तत: संयतः एव उच्चारप्रश्रवणं व्युत्सृजेत्, स: तमादाय एकान्तमपक्रामेत् अनाबाधे यावत् असन्तानके अध: आरामे वा दग्धस्थण्डिले वा अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारे स्थण्डिले अचित्ते, ततः संयतः एव उच्चार-प्रश्रवणं व्युत्सृजेत्, एतत् खलु तस्य० सदा यतेत इति ब्रवीमि // 501 // III सूत्रार्थ : संयमशील साधु या साध्वी स्वपात्र अथवा परपात्र को लेकर बगीचे या उपाश्रय के एकान्त स्थान में जाए और जहां पर न कोई देखता हो और न कोई आता जाता हो तथा Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 430 2-2-3-3-3 (501) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन जहां पर द्वीन्द्रियादि जीव जन्तु एवं मकड़ी आदि के जाले भी न हों, ऐसी अचित्त भूमि पर बैठकर साधु उच्चार प्रश्रवण का परिष्ठापन करे, उसके पश्चात् वह उस पात्र को लेकर एकान्त स्थान में जाए जहां पर न कोई आता जाता हो और न कोई देखता हो, जहां पर किसी जीव की हिंसा न होती हो यावत् जल आदि न हो, उद्यान-बाग की अचित्त भूमि में अथवा अग्नि से दग्ध हुए स्थंडिल में, इसी प्रकार के अन्य अचित्त स्थंडिल में-जहां पर किसी भी जीव की विराधना न होती हो, साधु मल मूत्र का परित्याग करे। इस प्रकार साधु और साध्वी का समय आचार वर्णित हुआ है जो कि ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप अर्थों में और पांचों समितियों से युक्त है और साधु इन के पालन में सदैव प्रयत्नशील रहता है। इस प्रकार में कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. अपना या दूसरे साधु का समाधिस्थान स्वरुप पात्र लेकर .. ऐसी निर्जीव स्थंडिल भूमि में जावे कि- जहां कोई मनुष्य आवे नहि एवं देखे भी नही... ऐसी अनापात-असंलोक स्थंडिल भूमी में जाकर मल-मूत्र का विसर्जन याने त्याग करे... शेष सूत्र का अर्थ सुगम है... अतः पूर्ववत् जाने... इस प्रकार की आचरणा से ही साधु का सच्चा साधुपना . होता है... इति... ब्रवीमि... पूर्ववत्... V सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में बताया है कि साधु को एकान्त एवं निर्दोष और निर्वद्य भूमि पर मल मूत्र का त्याग करना चाहिए। जिस स्थान पर कोई व्यक्ति आता-जाता हो या देखता हो तो ऐसे स्थान पर मल-मूत्र नहीं करना चाहिए। क्योंकि, इससे साधु निस्संकोच भाव से मलमूत्र का त्याग नहीं कर सकेगा, उसको इस क्रिया में कुछ रुकावट पड़ेगी, जिससे कई तरह के रोग उत्पन्न हो सकते हैं। और देखने वाले व्यक्ति के मन में भी यह भाव उत्पन्न हो सकता है कि- यह साधु कितना असभ्य है कि लोगों के आवागमन के मार्ग में ही मलमूत्र का त्याग करने बैठ गया है। अतः साधु को सब तरह की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर एकान्त स्थान में ही मल-मूत्र का त्याग करना चाहिए। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें। // द्वितीयश्रुतस्कन्धे द्वितीयचूलिकायां तृतीयः सप्तैककः समाप्तः // 卐卐卐 Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-2-3-3-3 (501) 431 : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शचुंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट -परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. “श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययन से विश्व के सभी जीव पंचाचार की दिव्य सुवास को प्राप्त करके परमपद की पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058. Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 432 2-2-4-1-1 (502) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 2 अध्ययन - 4 सप्तकक: - 4 सप्तैकक... शब्द... ' तीसरे सप्तैकक (अध्ययन) के बाद अब चौथे अध्ययन का प्रारंभ करतें हैं... यहां परस्पर यह अभिसंबंध है कि- यहां पहले अध्ययन में स्थान, दूसरे अध्ययन में स्वाध्यायभूमि तथा तीसरे अध्ययन में उच्चारादि की विधि कही... अब इस प्रकार की स्थिति में रहा हुआ साधु यदि अनुकूल या प्रतिकूल शब्द सुने तब वह साधु राग एवं द्वेष न करें... इस संबंध से आये हुए इस चौथे अध्ययन के नाम निक्षेप में "शब्द-सप्तैकक" ऐसा यह अध्ययन का नाम है... "शब्द" नाम के चार निक्षेप होतें हैं... नाम, स्थापना द्रव्य एवं भाव... इनमें नाम एवं स्थापना निक्षेप सुगम है अतः द्रव्य-शब्द निक्षेप का स्वरुप स्वयं ही नियुक्तिकार महर्षिश्री भद्रबाहुस्वामीजी कहतें हैं... __ नोआगम से द्रव्य शब्द याने शब्द स्वरुप को पाये हुए भाषा-वर्गणा के पुद्गल स्कंध कि- जो शब्द स्वरुप को पाये हुए है... तथा भाव-शब्द आगम से शब्द में उपयुक्त ऐसा साधु और नोआगम से अहिंसा आदि लक्षणवाले गुण... क्योंकि- वह साधु हिंसा- मृषावाद आदि की विरति स्वरुप गुणो से प्रशंसनीय होता है.. और कीर्ति भी फैलती है... जिस प्रकार चौतीस अतिशय से युक्त एवं चार मूल अतिशय स्वरुप संपदाओं से युक्त ऐसे अरिहंत परमात्मा इस विश्व में “अर्हन्' ऐसे शब्द से प्रख्यात हैं... ___अब नियुक्ति अनुगम के बाद सूत्रानुगम में सूत्र का शुद्ध उच्चार से कथन करना चाहिये और वह प्रथम सूत्र इस प्रकार है... I सूत्र // 1 // // 502 // से भिक्खू वा० मुइंगसहाणि वा नंदीसहाणि वा झल्लरीस० अण्णयराणि वा तह० विरूवरूवाइं सद्दाई वितताई कण्णसोयपडियाए नो अभिसंधारिज्जा गमणाए। से भि0 अहवेगइयाई सदाइं सुणेड, तं०- वीणासदाणि वा विपंचीस० पिप्पीसगस० तूणयसद्दाणि वा पणय स० तुंबवीणियसद्दाणि वा ढंकुणसद्दाई वा अण्णयराइं तह० विरूवरूवाई सद्दाई वितताई कण्णसोयपडियाए नो अभिसंधारिज्जा गमणाए। से भि0 अहवेगइयाई सद्दाइं सुणेड़, तं० ताल-सदाणि वा कंसतालसद्दाणि वा Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-2-4-1-1 (502) 433 लत्तियस० गोधियस० किरिकिरियास० अण्णयरा० तह० विरुव० सद्दागि कण्ण गमणाए। से भिo अहवेग० तं०- संखसहाणि वा वेणुस० वंसस० खरमुहिस० परिपिरियास० अण्णय तह० विरुव० सद्दाइं झुसिराइं कण्ण० // 502 // // संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा० मृदङ्गशब्दान् वा नन्दीशब्दान् वा झल्लरीशब्दान् वा अन्यतरान् वा तथाविधान् विरूपरूपान् शब्दान् विततान् कर्णश्रवणप्रतिज्ञया न अभिसन्धारयेत् गमनाय। स: भिक्षुः वा० अथवा एकान् शब्दान् शृणोति, तद्यथा- वीणाशब्दान् वा विपधीशब्दान् वा पिप्पीसक शब्दान् वा तूणक शब्दान् वा पणक शब्दान् वा तुम्बवीणाशब्दान् वा ढङ्कुणशब्दान् वा अन्यतरान् तथाप्रकारान् विरूपरूपान् शब्दान् विततान् कर्णश्रोतप्रतिज्ञया न अभिसन्धारयेत् गमनाय / स: भिक्षुः वा अथवा एकान् शब्दान् शृणोति, तद्यथा- तालशब्दान् वा कंसतालशब्दान् वा लत्तिका (कंशिका) शब्दान् वा गोहिकशब्दान् वा किरिकिरिकाशब्दान् वा अन्यतरान् तथाप्रकारान् विरूपरूपान् शब्दान् कर्ण० गमनाय / स: भिक्षुः वा० अथवा एकान् शब्दान् शृणोति, तद्यथा-शखशब्दान् वा वेणुशब्दान् वा वंश शब्दान् वा खरमुखीशब्दान् वा परिपिरिकाशब्दान् वा अन्यतरान् तथाविधान् विरूपसपान् शब्दान् शुषिरान् कर्णश्रवणप्रतिज्ञया न अभिसन्धारयेत् गमनाय / / 502 // III सूत्रार्थ : संयमशील साधु या साध्वी मृदंग के शब्द, नन्दी के शब्द और झल्लरी के शब्द, तथा इसी प्रकार के अन्य वितत शब्दोंको सुनने के लिए किसी भी स्थान पर जाने का मन में संकल्प भी न करे। इसी प्रकार वीणा के शब्द, विपञ्ची के शबद, वद्धीसक्क के शब्द तूनक और ढोल के शब्द, तुम्ब वीणा के शब्द, ढुंकण के शब्द इत्यादि शब्दों को एवं ताल शब्द, कंशताल शब्द, कांसी का शब्द, गोधी का शब्द, किरिकिरीका शब्द तथा शंख शब्द, वेण शब्द, खरमुखी शब्द और परिपिरिका के शब्द इत्यादि नाना प्रकार के शब्दों को सुनने के लिए भी साधु न जावे यहां तात्पर्य यह है कि इन उपरोक्त शब्दों को सुनने की भावना से साधु Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 434 2-2-4-1-2 (503) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन कभी भी एक स्थान से दूसरे स्थान को न जाए। IV टीका-अनुवाद : वह साधु कि- जिसका स्वरुप पूर्व में कहा गया है ऐसा वह साधु यदि वितत, तत, घन एवं शुषिर स्वरुप चार प्रकार के वाजिंत्रो के शब्द सुने तब उन शब्दों को सुनने की प्रतिज्ञा याने इच्छा न करें... अथवा उन शब्दों को सुनने के लिये वहां न जावें... उनमें वितत वाजिंत्र हैं मृदंग, नंदी, झल्लरी आदि... तथा तत वाजिंत्र है वीणा विपंची वद्धीसक आदि... तंत्री... वाद्य... वीणा आदि के प्रभेद तंत्री के संख्या से जानें... तथा घन-वाजिंत्र-हाथ की ताली तथा कंसताल आदि प्रसिद्ध हि है... परंतु लित्तिका याने कंशिका, गोहिका याने भाणड कि- जो बगल में या हाथ में रखकर बजाये जानेवाला वाद्य-वाजिंत्र तथा किरिकिरिया याने वंशा आदि के कंबा से बनाया गया वाजिंत्र... तथा शुषिर वाद्य- इस प्रकार के हैं... शंख, वेणु-बंशरी इत्यादि परंतु खरमुखी याने तोहाडिका और पिरिपिरिया याने कोलियक पुट से बंधा हुआ वंश आदि की नलिका... यह इस चार सूत्रों का समुदित अर्थ है... सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में वाद्ययंत्रों से निकलने वाले मनोज्ञ एवं मधुर शब्दों को श्रवण करने का निषेध किया गया है। इसमें चार प्रकार के वाद्ययंत्रों का उल्लेख किया गया है-१. वितत, 2. तत, 3. घन और 4. सुषिर। मृदंग, नन्दी, झाल्लर आदि के शब्द 'वितत' कहलाते हैं, वीणा, विपंची आदि वाद्य यंत्रों के शब्दों को 'तत' संज्ञा दी गई है, हस्तताल, कंस ताल आदि शब्दों को 'घन' कहा जाता है और शंख, वेणु आदि के शब्द 'सुषिर' कहलाते हैं। इस प्रकार सभी तरह के वाद्ययंत्रों से प्रस्फुटित शब्दों को सुनने के लिए साधु प्रयत्न न करे। सूत्रकार ने यहां तक निषेध किया है कि साधु को इन शब्दों को सुनने के लिए मन में संकल्प भी नहीं करना चाहिए। क्योंकि ये शब्द मोह एवं विकार भाव को जागृत करने वाले है। अतः साधु को इन से सदा बचकर रहना चाहिए। शब्द के विषय में कुछ और बातों का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं। I सूत्र // 2 // // 503 // से भि० अहावेग तं० वप्पाणि वा फलिहाणि वा जाव सराणि वा सागराणि वा. सरसरपंतियाणि वा अण्ण तह० विरुव० सद्दाई कण्ण। से भि० अहावेग० तं० कच्छाणि वा वूमाणि वा गहणाणि वा वणाणि वा Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-2-4-1-2 (503) 435 वणदुग्गाणि वा पव्वयाणि वा पव्वयदुग्गाणि वा अण्ण०। अहा० तं० गामाणि वा नगराणि वा निगमाणि वा रायहाणाणि वा आसमपट्टणसंनिवेसाणि वा अण्ण० तह० नो अभि० से भि० अहावेग० आरामाणि वा उज्जाणाणि वा वणाणि वा वणखण्डाणि वा देवकुलाणि समाणि वा पवाणि वा अण्णय० तहा० सद्दाइं नो अभि० / से भिo अहावेग0 अट्टाणि वा अट्टालयाणि वा चरियाणि वा दाराणि वा गोपुराणि वा अण्ण तह० सद्दाइं नो अभि०। से भिo अहावे० तं जहा- तियाणि वा चउक्काणि वा चच्चराणि वा चउम्मुहाणि वा अण्ण० तह० सद्दाइं नो अभि०। से भि० अहावेग० तं जहा- महिसकरणट्ठाणाणि वा वसभक० अस्सक० हत्थिक० जाव कविंजलकरणट्ठा० अण्ण तह० नो अभि० / से भि0 अहावे० तं० महिसजुद्धाणि वा जाव कविंजलजु० अण्ण० तह० नो अभि०। से भि० अहावे तं० जुहियठाणाणि वा हयजू० गयजू० अण्ण तह० नो अभिo // 503 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः० अथ एकक:० तद्यथा- वप्रान्. वा परिखाः वा यावत् सरांसि वा सागरान् वा सर: सर:- पङ्क्ती : वा अन्यतरान् तथारूपान् विरूपरूपान् शब्दान् फर्णश्रवणप्रतिज्ञया न अभिसन्धारयेत् गमनाय / - सः भिक्षुः वा० अथ एकक :0 तद्यथा कच्छानि वा नूमानि वा गहनानि वा वनानि वा वनदुर्गाणि वा पर्वतान् वा पर्वतदुर्गाणि वा अन्यतरा०। अथ वा एकक:० ग्रामान् वा नगराणि वा निगमान् वा राजधानी: वा आश्रमपट्टसन्निवेशान् वा अन्यतरान् तथाप्रकारान् वा शब्दान् कर्णश्रवणप्रतिज्ञया न अभिसन्धारयेत् गमनाय / सः भिक्षुः वा० अथ वा एकक:० आरामान् वा उद्यानानि वा वनानि वा वनखण्डानि वा देवकुलानि वा सभाः वा प्रपाः वा अन्यतरान् तथाविधान् शब्दान् कर्णश्रवणप्रतिज्ञया न अभिसन्धारयेत् गमनाय / सः भिक्षुः वा० अथ वा एकक: तद्यथा-अट्टानि वा अट्टालकानि वा चरिकानि वा द्वाराणि वा गोपुराणि वा अन्य० तथा० शब्दान् कर्णश्रवणप्रतिज्ञया न अभिसन्धारयेत् गमनाय। Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 436 2-2-4-1-2 (503) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन % 3D स: भिक्षुः वा0 अथ वा एकक:० तद्यथा-त्रिकाणि वा चतुष्काणि वा चर्चराणि वा चतुर्मुखानि वा अन्य० तथा० शब्दान् न अभि० / .. स: भिक्षुः वा० अथ वा एक क:० तद्यथा- महिषकरणस्थानानि वा वृषभकरणस्थानानि वा अश्वकरणस्थानानि वा हस्तिकरणस्थानानि वा यावत् कपिजलकरणस्थानानि वा अन्य० तथा० न अभिं० / स: भिक्षुः वा० अथ वा एकक:० तद्यथा महिषयुद्धानि वा यावत् कपिञ्जलयुद्धानि वा अन्य० तथा० न अभि०। स: भिक्षुः वा० अथ वा एकक:० तद्यथा- यूथस्थानानि वा हययूथस्थानानि वा गजयूथस्थानानि वा अन्य० तथा० न अभिसन्धारयेत् गमनाय || 503 // III सूत्रार्थ : संयमशील साधु या साध्वी को कभी कई तरह के शब्दों सुनाई दे तब उन्हे खेत के क्यारों में खाई यावत् सरोवर, समुद्र और सरोवर की पंक्तियां इत्यादि स्थानों में होने वाले शब्दों को सुनने के लिए जाने का मन में संकल्प नहीं करना चाहिए। तथा साधु जल-बहुल प्रदेश, वनस्पति समूह, वृक्षों के सघन प्रदेश, वन, पर्वत और विषम पर्वत इत्यादि स्थानों में होने वाले शब्दों को सुनने के लिए जाने का भी संकल्प न करे। इसी भांति याम, नगर, निगम, राजधानी, आश्रम, पतन और सन्निवेश आदि स्थानों में होने वाले शब्दों को सुनने के लिए जाने का भी मन में संकल्प न करे। तथा आराम, उद्यान, वन, वन-खण्ड, देवकुल, सभा और प्रपा (जल पिलाने का स्थान) आदि स्थानों में होने वाले शब्दों को सुनने की प्रतिज्ञा से वहां जाने के लिए मनमें विचार न करे। एवं अट्टारी, प्रकार, प्रकार के ऊपर की फिरनी और नगर के मध्य का आठ हाथ प्रमाण राजमार्ग, द्वार तथा नगर में प्रवेश करने का बड़ा द्वार इत्यादि स्थानों में होने वाले शब्दों को सुनने के लिए भी जाने का मन में भाव न लाए। इसी तरह नगर में त्रिपथ, चतुष्पथ, बहुपथ और चतुर्मुख मार्ग, इत्यादि स्थानों में होने वाले शब्दों को सुनने के लिए जाने का भी मन में विचार न करे। इसी भांति भैंसशाला, वृषभशाला, घुड़शाला हस्तीशाला और कपिंजल पक्षी के ठहरने के स्थान आदि पर होने वाले शब्दों को सुनने के लिए भी जाने का विचार न करे। तथा वर-वधू के मिलने का स्थान (विवाह-वेदिका) घोडों के यूथ का स्थान, हाथी-यूथ का स्थान यावत् कपिंजल का स्थान इत्यादि स्थानों के शब्दों को सुनने के लिए भी जाने का विचार न करे। टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. कभी एक समय कोड शब्दों को सुने- जैसे कि- वप्र याने IV टीका Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-2-4-1-3 (504) 437 किल्ला या फूल छोड के क्यारे की पाली आदि स्वरुप वर्णन करनेवाले शब्द... अथवा वप्र आदि में हो रहे गीत-नृत्य आदि नाचगान को देखने-सुनने की इच्छा से वहां वप्र-किल्ला आदि में साधु न जावें... इत्यादि शेष सभी सूत्रो के भावार्थ में भी जानें... तथा वह साधु या साध्वीजी म. जहां यूथ याने वर-वधू युगल क्रीडा करतें हो ऐसे वेदिका आदि स्थान में न जावें... अर्थात् वहां हो रहे नाच-गान देखने-सुनने की इच्छा से वहां न जावें... इसी प्रकार घोडे के युगल, हाथी के युगल आदि के स्थान में देखने सुनने के लिये साधु वहां न जावें... v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु को खेतों में, जंगल में, घरों में या विवाह आदि उत्सव के समय होने वाले गीतों को या पशुशालाओं एवं अन्य प्रसंगों पर होने वाले मधुर एवं मनोज्ञ गीतों को सुनने के लिए उन स्थानों पर जाने का संकल्प नहीं करना चाहिए। ये सब तरह के सांसारिक गीत मोह पैदा करने वाले हैं, इनके सुनने से मन में विकार भाव जागृत हो सकता है। अतः संयमनिष्ठ साधु-साध्वी को इनका श्रवण करने के लिए किसी भी स्थान पर जाने का संकल्प भी नहीं करना चाहिए। इस सूत्र से यह स्पष्ट होता है कि उस युग में विवाहोत्सव मनाने की परम्परा थी और वर-वधू के मिलन के समय राग-रंग को बढ़ाने वाले गीत भी गाए जाते थे। प्रस्तुत सूत्र से उस युग की सभ्यता का स्पष्ट परिज्ञान होता है और विभिन्न उत्सवों एवं उन पर गीत आदि गाने की परम्परा का भी परिचय मिलता है। उस युग में भी जनता अपने मनोविनोद के लिए विशिष्ट अवसरों पर गीत आदि गाकर अपना मनोविनोद करती थी। अतः साधु को इन गीतों को सुनने के लिए जाना तो दूर रहा, परन्तु उनके सुनने की अभिलाषा भी नहीं करनी चाहिए। ___ इस सम्बन्ध में कुछ और बातें बताते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहते हैं.... I सूत्र // 3 // // 504 // से भिक्खू वा० जाव सुणेइ, तं जहा-अक्खाइयठाणाणि वा माणुम्माणियद्वाणाणि वा महताऽऽहयनट्ट गीयवाइयतंतीतलतालतुडियपड्डुप्पवाइयट्ठाणाणि वा अण्ण तह० सद्दाइं नो अभिसं० / से भि० जाव सुणेड़, तं०- कलहाणि वा डिंबाणि वा डमराणि वा दोरज्जाणि Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 438 2-2-4-1-3 (504) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन वा वेररज्जाणि वा विरुद्धरज्जाणि वा अण्ण० तह० सद्दाई नो० / से भि० जाव सुणेड़, खुड्डियं दारियं परिभुत्तमंडियं अलंकियं निव्वुज्झमाणिं पेहाए एगं वा पुरिसं वहाए नीणिज्जमाणं पेहाए अण्णयराणि वा तह० नो अभि० / से भि० अण्णयराइं विरुव० महासवाई एवं जाणिज्जा, तं जहा- बहुसगडाणि वा बहुरहाणि वा बहुमिलक्खूणि वा बहुपच्चंताणि वा अण्ण० तह० विरुव० महासवाई कण्णसोयपडियाए नो अभिसंधारिज्जा गमणाए। से भि० अण्णयराइं विरुव० महूस्सवाइं एवं जाणिज्जा, तं जहा- इत्थीणि वा पुरिसाणि वा थेराणि वा डहराणि वा मज्झिमाणि वा आभरणविभूसियाणि वा गायंताणि वा वायंताणि वा नच्चंताणि वा हसंताणि वा रसंताणि वा मोहंताणि वा विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं परिभुजंताणि वा परिभायंताणि वा विछड्डियमाणाणि वा विगोवयमाणाणि वा अण्णय० तह० विरुव० मह० कण्णसोय० / से भिक्खू० नो इहलोडएहिं सद्देहिं नो परलोडएहिं सद्देहिं नो सुएहिं सदेहि, नो असुएहिं स० नो दिटेहिं स० नो अदिटेहिं स० नो कंतेहिं सद्देहिं सज्जिज्जा, नो गिज्झिज्जा, नो मुज्झिज्जा, नो अज्झोववज्जिज्जा, एयं खलु० जाव जएजासि तिबेमि // 504 // II संस्कृत-छाया : सः भिक्षु:० यावत् शृणोति, तद्यथा- आख्यायिकास्थानानि वा मानोन्मानस्थानानि वा महता आहतनृत्यगीतवादितन्त्रीतलतालत्रुटित- प्रत्युत्पन्नानि स्थानानि वा अन्य० तथा० शब्दान् कर्णश्रवणप्रतिज्ञया न अभिसन्धारयेत् गमनाय / स: भिक्षुः वा० यावत् शृणोति, तद्यथा- कलहानि वा डिम्बानि वा डमराणि वा द्विराज्यानि वा वैर-राज्यानि वा विरुद्धराज्यानि वा अन्य० तथा० शब्दान् न०। सः भिक्षुः० यावत् शृणोति- क्षुल्लिकां दारिकां परिभुयतमण्डितां अलङ्कृतां नीयमानां प्रेक्ष्य एकं वा पुरुषं वधाय नीयमानं प्रेक्ष्य अन्य० वा तथा० शब्दान् कर्णश्रवणप्रतिज्ञया न अभिसन्धारयेत् गमनाय।। स: भिक्षुः वा० अन्यतरान् विरूपरूपान् महाश्रवान् एवं जानीयात्, तद्यथाबहुशकटानि वा बहुरथानि वा बहुम्लेच्छानि वा बहुप्रात्यन्तिकानि वा अन्य० तथा० विरूपरूपान् महाश्रवान् कर्णश्रवणप्रतिज्ञया न अभिसन्धारयेत् गमनाय। Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-2-4-1-3 (504) 439 स: भिक्षुः वा० अन्यतरान् विरूपरूपान् महोत्सवान् एवं जानीयात्, तद्यथास्त्री: वा पुरुषान् वा स्थविरान् वा बालान् वा मध्यमान् वा आभरणविभूषितान् वा गायत: वा वादयत: वा नृत्यत: वा हसत: वा रममाणान् मुह्यतो वा विपुलं अशनं पानं खादिम स्वादिमं परिभुज्जानान् वा परिभाजयतः वा विक्षिपत: वा विगोपयतः वा अन्य० तथा० विरूपरूपान् महोत्सवान् कर्णश्रवणप्रतिज्ञया न अभिo सः भिक्षुः० न इहलौकिकैः शब्दैः, न परलौकिकैः शब्दैः, न श्रुतैः शब्दैः, न अश्रुतैः शब्दैः, न दृष्टैः शब्दः, न अदृष्टैः शब्दैः, न कान्तैः शब्दैः सज्येत न गृद्धयेत न मुह्येत, न अध्युपपद्येत, एतत् खलु० यावत् यतेत इति ब्रवीमि // 504 // III सूत्रार्थ : संयमशील साधु या साध्वी कथा करने के स्थानों, महोत्सव के स्थानों जहां पर बहुत परिमाण में नृत्य, गीत, वादित्र, तंत्री, वीणा, तल-ताल, त्रुटित, ढोल इत्यादि वाघ बजते हों तो उन स्थानों में होने वाले शब्दों को सुनने के लिए जाने का मन में विचार नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार कुलह के स्थान, अपने राज्य के विरोधी स्थान, पर राज्य के विरोधी स्थान, दो राज्यों के परस्पर विरोध के स्थान, वैर के स्थान और वहां पर राजा के विरुद्ध वार्तालाप होता हो इत्यादि स्थानों में होने वाले शब्दों को सुनने के लिए भी जाने का मन में संकल्प न करे। ___ यदि किसी वस्त्राभूषणों से शृंगारित और परिवार से घिरी हुई छोटी बालिका को अश्वादि पर बिठा कर ले जाया जा रहा हो तो उसे देखकर तथा किसी एक अपराधी पुरुष को वध के लिए वध्यभूमि में ले जाते हुए देखकर साधु उन स्थानों में होने वाले शब्दों को सुनने की भावना से उन स्थानों पर जाने का मन में विचार न करे। . जो महा आश्रव के स्थान हैं— जहां पर बहुत से शकट, बहुत से रथ, बहुत से म्लेच्छ, बहुत से प्रान्तीय लोग एकत्रित हुए हों तो साधु साध्वी वहां पर उनके शब्दों को सुनने की प्रतिज्ञा से जाने का मन में संकल्प भी न करे। जिन स्थानों में महोत्सव हो रहे हों, स्त्री, पुरुष, बालक, वृद्ध और युवा आभरणों से विभूषित होकर गीत गाते हों, वाद्य बजाते हों, नाचते और हंसते हों, एवं आपस में खेलते और रतिक्रीड़ा करते हों, तथा विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम पदार्थों को खाते हों, परस्पर बांटते हों, गिराते हों, तथा अपनी प्रसिद्धि करते हों तो ऐसे महोत्सवों के स्थानों पर होने वाले शब्दों को सुनने के लिए साधु वहां पर जाने का कभी भी संकल्प न करे। Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 440 2-2-4-1-3 (504) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन वह साधु या साध्वी स्वजाति के शब्दों और परजाति के शब्दों में आसक्त न बने, एवं श्रुत या अश्रुत तथा दृष्ट या अदृष्ट शब्दों और प्रिय शब्दों में आसक्त न बने। उनकी आकांक्षा न करे और उनमें मूर्छित भी न होवे / यही साधु और साध्वी का सम्पूर्ण आचार है और इसी के पालन में उसे सदा संलग्न रहना चाहिए। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. जब देखे कि- यह कथानक कहने का स्थान है, या मान एवं उन्मान याने प्रस्थक एवं नाराच आदि का स्थान है अथवा अश्व आदि के वेग की परीक्षा करनेका स्थान है, या उनके वर्णन-स्वरुप निवेदनका स्थान है... तथा बडे आवाजके साथ या महान् आडंबर के साथ जहां नृत्य-गीत-वाजिंत्र-तंत्री-तल-ताल एवं त्रुटित आदि के साथ नाचगान हो रहा हो ऐसे स्थान हो, तथा सभा या सभा के वर्णन हो रहे स्थान में... उनको देखनेसुनने के लिये साधु वहां न जावें... तथा कलह-झगडे जहां हो रहे हो ऐसे स्थान में भी साधु उनको दखने-सुनने के लिये न जावें... तथा वह साधु या साध्वीजी म. जहां किशोरी कन्या को अलंकारों से अलंकृत करके अश्व-घोडे आदि के उपर बैठाकर परिवार के लोग गीत-नृत्य के साथ मार्ग में ले जा रहें हो, या किसी पुरुष को वध के स्थान में सुभट-सिपाही ले जा रहें हो तब उन्हें देखने-सुनने की इच्छा से साधु वहां न जावें... तथा महान् (बडे) आश्रव याने पाप-कर्मबंध के स्थान जैसे कि- बहुत सारे बैल-गाडी पा रथ या म्लेच्छ लोग या अधम-चांडाल कुल के लोग इकट्ठे हुए हो वहां देखने-सुनने के लिये साधु न जावें... तथा महोत्सव हो रहा हो ऐसे स्थान में बहुत सारे स्त्री-पुरुष-वृद्ध एवं बालक तथा मध्यम उमवाले लोग अलंकारों से अलंकृत होकर नाच-गान कर रहे हो तब उन्हे देखने-सुनने की इच्छा से साधु वहां न जावें... अब सभी सूत्रों के भावार्थ का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहतें हैं कि- इस लोक में एवं परलोक में होनेवाले अपाय (दुःख) से डरनेवाले साधु एवं साध्वीजी म. मनुष्य आदि ने किये हुए एवं पशु-पक्षियों ने किये हुए शब्द-नाच-गान तथा साक्षात् सुने हुए या नही सुने हुए... तथा साक्षात् दिखे या न दिखे ऐसे नाच-गानके प्रति राग-अनुराग न करें... तथा उनमें आसक्त न होवें... मोह न पावें... या उसके प्रति अतिशय आसक्ति भाव न रखें... क्योंकिऐसा जीवन जीने से ही साधु का साघुपना संपूर्ण होता है... शेष शब्दों-वाक्यों के अर्थ पूर्ववत् जानना चाहिए। Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-2-4-1-3 (504) 441 यहां सभी जगह ज्ञानियों ने निम्न प्रकार के दोष देखे गये है जैसे कि- अजितेन्द्रियत्व, स्वाध्याय की हानी, तथा राग एवं द्वेष की संभावना... इसी प्रकार अन्य भी इस लोक के एवं परलोक के दुःख के कारणभूत होनेवाले दोषों का साधु स्वयं ही अपनी बुद्धि से चिंतनविचारणा करें... इत्यादि... v. सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि साधु को जहां बहुत से लोग एकत्रित होकर गाते-बजाते हों, नृत्य करते हों, रतिक्रीड़ा करते हों, हंसी-मजाक करते हों, रथ एवं घोड़ो की दौड़ कराते हों, बालिका को श्रृङ्गारित करके अश्व पर उसकी सवारी निकालते हों, किसी अपराधी को फांसी देते समय गधे पर बिठाकर उसकी सवारी निकाल रहे हों और इन अवसरों पर वे शब्द कर रहे हों उन्हें सुनने के लिए साधु को उक्त स्थानों पर जाने का संकल्प नहीं करना चाहिए। और जहां पर अपने देश के राजा के विरोध में, या अन्य देश के राजा के विरोध में या दो देशों के राजाओं के पारस्परिक संघर्ष के सम्बन्ध में बातें होती हों, तो साधु को ऐसे स्थानों में जाकर उनके शब्द सुनने का भी संकल्प नहीं करना चाहिए। क्योंकि इन सब कार्यो से मनमें राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है, चित्त अशांत रहता है और स्वाध्याय एवं ध्यान में विघ्न पड़ता है। अतः संयमनिष्ठ साधक को श्रोत्र इन्द्रिय को अपने वश में रखने का प्रयत्न करना चाहिए। उसे इन सब असंयम के परिपोषक शब्दों को सुनने का त्याग कर, अपनी साधना में संलग्न रहना चाहिए। इस अध्ययन में यह पूर्णतया स्पष्ट कर दिया गया है कि साधु को राग-द्वेष बढ़ाने वाले किसी भी शब्द को सुनने की अभिलाषा नहीं रखनी चाहिए। साधु का जीवन अपनी साधना को मूर्त रुप देना है, साध्य को सिद्ध करना है। अतः उसे अपने लक्ष्य के सिवाय अन्य विषयों पर ध्यान नहीं देना चाहिए। राग-द्वेष पैदा करने वाले प्रेम-स्नेह एवं विग्रह, कलह आदि के शब्दों की ओर उसे अपने मन को बिल्कुल नहीं लगाना चाहिए। यही उसकी साधुता है और यही उसका श्रेष्ठ आचार है। // द्वितीयश्रुतस्कन्धे द्वितीयचूलिकायां चतुर्थः सप्तैककः समाप्तः // % % % Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 442 2-2-4-1-3 (504) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शगुंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट -परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. “श्रमण" के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्व के सभी जीव पंचाचार की दिव्य सुवास को प्राप्त करके परमपद की पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058. Poppe Orao Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-2-4-5-1 (505) 443 आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 2 अध्ययन - 5 सप्तैककः - 5 . 卐 रूप... // अब पांचवी रूप नाम की सप्तैकक कहतें हैं... चौथी सप्तैकक के बाद पांचवी सप्तैकक का प्रारंभ करतें हैं... यहां परस्पर अभिसंबंध इस प्रकार है... चौथे अध्ययन में श्रवणेंद्रिय के विषय में राग एवं द्वेष न करने का विधान किया, अब इस पांचवे अध्यन में चक्षुरिंद्रिय के विषय में राग एवं द्वेष न करने का विधान करतें हैं... इस संबंध से आये हुए इस अध्ययन का नाम है... "रूप" अतः इस रूप पद के नाम-स्थापना द्रव्य एवं भाव निक्षेप होतें हैं. उनमें नाम एवं स्थापना सुगम है... अब द्रव्य एवं भाव निक्षेप का स्वरुप नियुक्ति की गाथा से कहतें नो आगम से तद्व्यतिरिक्त द्रव्य निक्षेप रूप परिमंडल आदि पांच संस्थान स्वरुप है... तथा भाव रूप निक्षेप के दो भेद है... 1. वर्ण से 2. स्वभाव से... उनमें वर्ण से भावरूपसंपूर्ण पांच वर्ण... तथा स्वभाव से भावरूप- आत्मा में रहे हुए क्रोधादि के कारण से भकूटी, ललाट एवं आंखो के विकार के साथ निष्ठुर कठोर वचन आदि का उच्चारण और इससे विपरीत प्रकार का रूप आत्मा की प्रसन्नता में रहता है... अन्यत्र भी कहा है कि- रुष्ट- क्रोधवाले मनुष्य की दृष्टि कठोर होती है, और प्रसन्न चित्तवाले की दृष्टि सफेद कमल की तरह उज्जवल होती है... तथा दुःखी मनुष्य की दृष्टि म्लान-ग्लानि से भरपूर होती है... और अन्य स्थान में जाने की इच्छावाले की दृष्टि उत्सुक याने उतावली होती है... अब सूत्रानुगम में सूत्र का शुद्ध उच्चारण करना चाहिये... और वह सूत्र इस प्रकार है.. I सूत्र // 1 // // 505 // से भि० अहावेगइयाई रुवाइं पासइ, तं० गंथिमाणि वा वेढिमाणि वा पूरीमाणि वा संघाइमाणि वा कट्ठकम्माणि वा पोत्थकम्माणि वा चित्तकम्माणि वा मणिकम्माणि वा दंतकम्माणि वा पत्तछिज्जकम्माणि वा विविहाणि वा वेढिमाई अण्णयराइं तह० विरूवरूवाइं चक्खुदंसणपडियाए नो अभिसंधारिज्ज गमणाए, एवं नायव्वं जहा सद्दपडिमा सव्वा वाइत्तवज्जा रुवपडिमावि // 505 // Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 444 2-2-4-5-1 (505) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा० अथ वा एककानि रूपाणि पश्यति, तद्यथा- ग्रथितानि वा वेष्टिमानि वा पूरिमाणि वा संघातिमानि वा काष्ठकर्माणि वा पुस्तककर्माणि वा चित्रकर्माणि वा मणिकर्माणि वा दन्तकर्माणि वा पत्रच्छेद्यकर्माणि वा विविधानि वा वेष्टिमानि अन्यतराणि वा तथा० विरूपसपाणि चक्षुर्दर्शनप्रतिज्ञया न अभिसन्धारयेत् गमनाय, एवं ज्ञातव्यं यथाशब्दप्रतिमा सर्वा वादिवर्जा रूपप्रतिमा अपि // 505 // III सूत्रार्थ : साधु या साध्वी फूलों से निष्पन्न स्वस्तिकादि, वस्त्रों से निष्पन्न पुत्तलिकादि, पुरिम निष्पन्न पुरुषाकृति और संघात निष्पन्न चोलकादि, इसी प्रकार काष्ठ से निर्मित पदार्थ, पुस्तके, चित्र, मणियों से, हाथी दांत से, पत्रों से तथा बहुत से पदार्थो से निर्मित सुन्दर एवं कुरूप पदार्थों के विविध रुपों को देखने के लिए जाने का मन से संकल्प भी न करे। शेष वर्णन शब्द अध्ययन की तरह जानना चाहिए। केवल वाद्ययन्त्र को छोड़कर अन्य वर्णन शब्द प्रतिज्ञा के समान ही रूप-प्रतिमा में भी जानना चाहिए। ऐसा मैं कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : वह भाव-साधु या भाव साध्वीजी म. कभी पर्यटन याने आवागमन करते वख्त जब विभिन्न प्रकार के कितनेक रूप देखे... जैसे कि- ग्रथित याने पुष्प आदि से बनाये हुए स्वस्तिक आदि तथा वेष्टिम याने वस्त्र आदि से बनाये हुए पुतले ढींगला-ढींगली आदि... पुरिम याने जो कुछ अंदर भर कर पुरुष आदि की आकृति बनाइ हो, तथा संघातिम याने चोलक आदि... काष्ठकर्म याने रथ आदि... पुस्तकर्म याने लेप्य आदि... चित्रकर्म याने चित्रकला... मणिकर्म याने विभिन्न मणि-माणेक आदि से बनाये हुए स्वस्तिक आदि... तथा दंतकर्म याने हाथी आदि के दांत से बनाये हुए पुतले-प्रतिमादि... पत्रच्छेद्यकर्म याने वृक्ष के पत्ते के उपर विभिन्न आकृति आदि... इत्यादि विविध प्रकार के रूप को देखने की इच्छा से साधु वहां न जावें... अर्थात् इन रूप-चित्रों को देखने लिये जाने का मन याने इच्छा भी न करें... इसी प्रकार शब्द-सप्तैकक के सूत्र का भावार्थ चार प्रकार के वाजिंत्र से रहित शेष सभी सत्रों का भावार्थ यहां रूप-प्रतिमा में भी समझे... किंतु शब्द की जगह रूप शब्द का प्रयोग करें... और यहां दोष भी पूर्ववत् जानना चाहिए। Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-2-4-5-1 (505) 445 v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में रूप-सौन्दर्य को देखने का निषेध किया गया है। इस में बताया गया है कि चार कारणों से वस्तु या मनुष्य के सौंदर्य में अभिवृद्धि होती है- 1. फूलों को गूंथकर उनसे माला गुलदस्ता आदि बनाने से पुष्पों का सौन्दर्य एवं उन्हें धारण करने वाले व्यक्ति की सुन्दरता भी बढ़ जाती है। 2. वस्त्र आदि से आवत्त व्यक्ति भी सुन्दर प्रतीत होती है। विविध प्रकार की पोशाक भी सौन्दर्य को बढ़ाने का एक साधन है। 3. विविध सांचों में ढालने से आभूषणों का सौन्दर्य चमक उठता है और उन्हें पहनकर स्त्री-पुरुष भी विशेष सुन्दर प्रतीत होने लगते हैं। 4. वस्त्रों की सिलाई करने से उनकी सुन्दरता बढ़ जाती है और विविध फॅशनों से सिलाई किए हुए वस्त्र मनुष्य की सुन्दरता को और अधिक चमका देते हैं। इससे यह स्पष्ट हो गया है कि विविध संस्कारों से पदार्थों के सौन्दर्य में अभिवृद्धि हो जाती है। साधारण सी लकड़ी एवं पत्थर पर चित्रकारी करने से वह असाधारण प्रतीत होने लगती है। उसे देखकर मनुष्य का मन मोहित हो उठता है। इसी तरह हाथी दांत, कागज, मणि आदि पर किया गया विविध कार्य एवं चित्रकला आदि के द्वारा अनेक वस्तुओं को देखने योग्य बना दिया जाता है और कलाकृतियां उस समय के लिए ही नहीं, बल्कि जब तक वे रहती हैं तब तक मनुष्य के मन को आकर्षित किए बिना नहीं रहती हैं। इससे उस युग की शिल्प की एक झांकी मिलती है, जो उस समय विकास के शिखर पर पहुंच चुकी थी उस समय मशीनों के अभाव में भी मानव वास्तु-कला एवं शिल्पकला में आज से अधिक उन्नति कर चुका था। इन सब कलाओं एवं सुन्दर आकृतियों तथा दर्शनीय स्थानों को देखने के लिए जाने का निषेध करने का तात्पर्य यह है कि साध का जीवन आत्म-साधना के लिए है. आत्मा को कर्म बन्धनों से मुक्त करने के लिए है। अतः यदि वह इन सुन्दर पदार्थों को देखने के लिए इधर उधर जाएगा या दृष्टि दौड़ाएगा तो उससे चक्षु इन्द्रिय का विषय होगा, मन में रागद्वेष या मोह की उत्पत्ति होगी और स्वाध्याय एवं ध्यान की साधना में विघ्न पड़ेगा। अतः संयम निष्ठ साधु को सदा अध्यात्म चिन्तन में संलग्न रहना चाहिए। उसे अपने मन एवं दृष्टि को इधर-उधर नहीं दौड़ाना चाहिए। चक्षु इन्द्रिय पर विजय प्राप्त करना हि संयम-साधना का मूल उद्देश्य है। अतः साधु को विविध वस्तुओं एवं विविध स्थान के सौन्दर्य को देखने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। // द्वितीयश्रुतस्कन्धे द्वितीयचूलिकायां पञ्चमः सप्तैकफ: समाप्तः // 卐卐 Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 446 2-2-4-5-1 (505) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शगुंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. "श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी / हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययन से विश्व के सभी जीव पंचाचार की दिव्य सुवास को प्राप्त करके परमपद की पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. // राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058. 2280 NIO BE FullVERTIME Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 447 श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 2 अध्ययन - 6 सप्तैककः - 6 म परक्रिया... // अब परक्रिया नामका छट्ठा सप्तैकक-अध्ययन कहतें हैं... पांचवे अध्ययन के बाद इस छडे अध्ययन का परस्पर अभिसंबंध इस प्रकार है... पांचवे अध्ययन में राग एवं द्वेष की उत्पत्ति के निमित्तों का निषेध कहा गया है, अब यहां छठे अध्ययन में भी अन्य प्रकार से वही बात कहतें हैं... अतः इस संबंध से आये हुए इस छठे अध्ययन का नाम “परक्रिया' ऐसा आदान पद है, उनमें “पर” शब्द का छह (6) निक्षेप आधी गाथा से कहतें हैं... नाम-पर, स्थापना-पर, द्रव्य-पर, क्षेत्र-पर, काल-पर, एवं भाव-पर... उनमें नाम एवं स्थापना सुगम है... अब द्रव्य-क्षेत्र-काल एवं भाव-परके प्रत्येक निक्षेप के 6-6 उत्तर भेद होतें हैं... वह इस प्रकार- तत्-पर-१ / अन्य-पर-२ | आदेश-पर-3 | क्रम-पर-४ / बहुपर-५ / एवं प्रधान-पर-६ / इनमें द्रव्यतत्पर याने तद्-रूपता से रहा हुआ जो पर याने अन्य वह तत्पर... जैसे कि- परमाणु का पर परमाणु है... 1. तथा अन्य पर याने अन्य रूप जो पर याने अन्य हो वह अन्यपर... जैसे कि- परमाणु से द्वयणुक त्र्यणुक आदि भिन्न (अन्य) है... इसी प्रकार द्वयणुक से एकाणुकत्र्यणुकादि... 2.. तथा आदेश पर याने जो आदेश-आज्ञा किया जाय वह आदेश.. अब जो कोइ कर्मकर याने सेवक किसी भी क्रिया में नियुक्त किया जाय वह ऐसा जो पर है वह आदेश पर... 3. तथा क्रमपर द्रव्यादि चार प्रकार से होते हे... उनमें द्रव्य से क्रमपर याने एकप्रदेशी द्रव्य से द्विप्रदेशी द्रव्य... इसी प्रकार द्वयणुक से त्र्यणुक... तथा क्षेत्र से क्रम पर याने एक प्रदेशावगाढ से द्विप्रदेशावगाढ इत्यादि... तथा काल से क्रम-पर याने एक समय स्थितिवाले से द्विसमयस्थितिवाला इत्यादि... तथा भाव से क्रम पर याने एकगुणकृष्ण से द्विगुणकृष्ण इत्यादि... 4. तथा बहुपर याने बहुत्व से जो पर है वह बहुपर... अर्थात् जिससे बहु वह उससे बहुपर है... जैसे कि- जीव सभीसे थोडे... पुद्गल अनंतगुण अनंतगुण समय Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 448 2-2-6-6-1 (506) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन द्रव्य प्रदेश पर्याय विशेषाधिक अनंतगुण अनंतगुण... जीव सभी से थोडे है... उनसे पुद्गल अनंतगुण अधिक है... इत्यादि... 5. तथा प्रधान-पर याने जो प्रधानत्व से पर है... जैसे कि- द्विपद (दो पैरवालों) में तीर्थंकर प्रभु... चतुष्पद में सिंह आदि.. तथा अपद में अर्जुनसुवर्ण याने सफेद सोना तथा पनस आदि फल... 6. इसी प्रकार क्षेत्र-काल एवं भावपर भी जानीयेगा... तत्पर आदि छह प्रकार से क्षेत्रादि की प्रधानता से पूर्ववत् अपने आपकी बुद्धि से स्वयं जानीयेगा... सामान्य से जंबूद्वीप क्षेत्र से पुष्करादि क्षेत्र पर है.. तथा कालपर याने प्रावृट् (वर्षा) काल से शरत्काल पर है... तथा भावपर याने औदयिक भाव से औपशमिकादि भाव पर है... अब सूत्रानुगम में सूत्र का शुद्ध उच्चारण करें और वह सूत्र यह है... I सूत्र // 1 // // 506 // परकिरियं अज्झत्थियं संसेसिअं नो तं सायए नो तं नियमे, सिय से परो पाए आमज्जिज्ज वा पमज्जिज्ज वा नो तं सायए नो तं नियमे / से सिया परो पायाई संबाहिज्ज वा पलिमद्दिज्ज वा नो तं सायए नो तं नियमे। ___ से सिया परो पायाई फुसिज्ज वा रइज्ज वा नो तं सायए नो तं नियमे। से सिया परो पायाई तिल्लेण वा घयेण वा वसाए वा मक्खिज्ज वा अब्भिंगिज्ज वा नो तं / से सिया परो पायाई लुद्धेण वा कक्केण वा चुण्णेण वा वण्णेण वा उल्लोढिज्ज वा उव्वलिज्ज वा नो तं / से सिया परो पायाई सीओदगवियडेण वा उच्छोलिज्ज वा पहोलिज्ज वा नो तं०। से सिया परो पायाई अण्णयरेण विलेवणजाएण आलिंपिज्ज वा विलिंपिज्ज वा नो तं० / से सिया परो पायाइं अण्णयरेण धूवणजाएण धूविज्ज वा पधूविज्ज वा नो तं० / से सिया परो पायाओ आणुयं वा कंटयं वा नीहरिज्ज वा विसोहिज्ज वा नो तं० / से सिया परो पायाओ पूयं वा सोणियं वा नीहरिज्ज वा विसोहिज्ज वा नो तं० / से सिया परो कायं आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा नो तं सायए नो तं नियमे। से सिया परो कायं लोट्टेण वा संवाहिज्ज वा पलिमदिज्ज वा नो तं० / Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-2-6-6-1 (506) 449 से सिया परो कायं तिल्लेण वा घयेण वा वसाए वा मक्खिज्ज वा अब्भंगिज्ज वा नो तं० / से सिया परो कायं लुद्धेण वा उल्लोढिज्ज वा उव्वलिज्ज वा नो तं० / से सिया परो कार्य सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलिज्ज वा पहोलिज्ज वा नो तं० / से सिया परो कायं अण्णयरेण विलेवणजाएण आलिंपिज्ज वा नो तं० / से० कायं अण्णयरेण धूवणजाएण धूविज्ज वा पधूविज्ज वा नो तं० / / से० कायंसि वणं आमज्जिज्ज वा नो तं० / से वणं संवाहिज्ज वा पलिमदिज्ज वा नो तं० / से वणं तिल्लेण वा घयेण वा वसाए वा मक्खिज्ज वा अब्भंगिज्ज वा नो तं० / से० वणं लुद्धेण वा, उल्लोढिज्ज वा उव्वलेज्ज वा नो तं० / से सिया परो कायंसि वणं सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलिज्ज वा पहोलिज्ज वा नो तं० / से0 सिया परो वणं वा गंडं वा अरई वा पुलयं वा भगंदलं वा अण्णयरेण वा सत्थजाएणं अच्छिंदिज्ज वा विच्छिंदिज्ज वा नो तं० / से सिया परो अण्ण० जाएण आच्छिंदिता वा विच्छिंदित्ता वा पूर्व वा सोणियं वा नीहरिग्ज वा विसोहिज्ज वा नो तं०, / से० कायंसि गंडं वा अरई वा पुलइयं वा भगंदलं वा आमज्जिज्ज वा पमज्जिज्ज वा नो तं० / से० गंडं वा संवाहिज्जा वा पलिमदिज्ज वा नो तं० / से० कायं० गंडं वा तिल्लेण वा मक्खिज्ज वा नो तं० / से गंडं वा लुद्धेण वा उल्लोढिज्ज वा उव्वलिज्ज वा नो तं० / से गंडं वा, सीओदग०, उच्छोलिज्ज वा पहोलिज्ज वा नो तं० / से0 गंडं वा४ अण्णयरेण सत्थजाएणं आच्छिंदिज्ज वा वि० अण्ण सत्थ० अच्छिंदित्ता वा पूयं वा सोणियं वा नीहरिज्ज वा विसोहिज्ज वा० नो तं सायए, / से सिया परो कायंसि सेयं वा जल्लं वा नीहरिज्ज वा विसोहिज्ज वा० नो तं० / से सिया परो अच्छिमलं वा कण्णमलं वा दंतमलं वा नहमलं वा नीहरिज्ज वा विसोहिज्ज वा नो तं० / ___ से सिया परो दीहाइं वालाई दीहाइं वा रोमाइं दीहाई वा भमुहाई, दीहाइं वा कक्खरोमाइं, दीहाई वा बत्थिरोमाई कप्पिज्ज वा संठविज्ज वा नो तं० / से सिया परो सीसाओ लिक्खं वा जूयं वा नीहरिज्ज वा विसोहिज्ज वा नो तं० / Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 450 2-2-6-6-1 (506) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन से सिया परो अंकंसि वा पलियंकंसि वा तुयट्टावित्ता पायाई आमज्जिज्ज वा पमज्जिज्ज वा। एवं हिट्ठिमो गमो पायाइ भावियव्यो। से सिया परो अंकंसि वा तुयट्टावित्ता हारं वा अद्धहारं वा उरत्थं वा गेवेयं वा मउडं वा पालंबं वा सुवण्णसुत्तं वा आविहिज्ज वा पिणहिज्ज वा नो तं० / से० परो आरामंसि वा उज्जाणंसि वा नीहरित्ता वा पविसित्ता वा पायाई आमज्जिज्ज वा पमज्जिज्ज वा नो तं साइए। एवं नेयव्वा अण्णमण्णकिरिया वि // 50 // II संस्कृत-छाया : परक्रियां आध्याल्मिकीं सांश्लेषिकी न तां स्वादयेत् न तां नियमयेत्, स्यात् तस्य परः पादौ आमृज्यात् वा प्रमृज्यात् वा न तां आस्वादयेत् न तां नियमयेत् / तस्य स्यात् परः पादौ संवाहयेत् वा परिमर्दयेत् वा न तां आस्वादयेत् न तां नियमयेत्। तस्य स्यात् परः पादौ संस्पर्शयेत् वा रज्जयेत् वा न तां आस्वादयेत् न तां नियमयेत् / सः स्यात् परः पादौ तैलेन वा घृतेन वा वसया वा मक्षयेत् वा अभ्यञ्जयेत् वा न तां० / तस्य स्यात् परः पदौ लोध्रेण वा कल्केण वा चूर्णेन वा वर्णेन वा उल्लोलयेत् वा उद्वर्तयत् वा नो तां / तस्य स्यात् परः पादौ शीतोदकविकटेन वा उष्णोदकविकटेन वा उच्छोलयेत् वा प्रधावयेत् वा न तां० / तस्य स्यात् परः पादौ अन्यतरेण वा विलेपनजातेन आलिम्पयेत् वा विलिम्पयेत् वा नो ताम् / सः स्यात् परः पादौ अन्यतरेण वा धूपजातेन धूपयेत् वा प्रधूपयेत् वा न तां०, / तस्य स्यात् परः पादौ खाणुकं वा कण्टकं वा निहरेत वा विशोधयेत वा न तां० / तस्य स्यात परः पादौ पूयं वा शोणितं वा निहरेत् वा विशोधयेत् वा न तां० / तस्य स्यात् परः कायं आमृज्यात् वा प्रमृज्यात् वा, न तां स्वादयेत् न तां नियमयेत् / तस्य स्यात् परः कायं लोध्रेण वा संवाहयेत् वा परिमर्दयेत् वा न तां० / तस्य स्यात् परः कायं तैलेन वा घृतेन वा वसया वा म्रक्षयेत् वा अभ्यञ्जयेत् वा न तां० / सः स्यात् परः कायं लोध्रेण वा, उल्लोलयेत् वा उद्वर्तयेत् वा न तां० / तस्य स्यात् परः कायं शीतोदकविकटेन वा उष्णोदकविकटेन वा उच्छोलयेद् वा प्रधावयेत् वा. न तां० / तस्य स्यात् पर: कायं शीतोदकविकटेन वा उष्णोदकविकटेन वा उच्छोलयेद् वा प्रधावयेत् वा न तां० / तस्य स्यात् परः कायं अन्यतरेण विलेपनजातेन आलिम्पयेत् वा विलिम्पयेत् वा न तां० / सः स्यात् परः कायं अन्यतरेण धूपनजातेन धूपयेत् वा Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-2-6-6-1 (506) 451 प्रधूपयेत् वा न तां० / तस्य स्यात् परः काये व्रणं आमृज्यात् वा प्रमृज्यात् वा न तां० / सः स्यात् परः काये व्रणं संवाहयेत् वा परिमर्दयेत् वा न तां० / तस्य स्यात् परः काये व्रणं तैलेन वा धृतेन वा वसया वा मक्षयेत् वा अभ्याञ्जयेत् वा न तां० / सः स्यात् पर: काये व्रणं लोध्रेण वा, उल्लोलयेत् वा उद्वर्तयेत् वा नो तां० / तस्य स्यात् परः काये व्रणं शीतोदकविकटेन वा उष्णोदकविकटेन वा उच्छोलयेत् वा प्रधावयेत् वा न तां० / तस्य स्यात् परः काये व्रणं वा गण्डं वा अरतिं वा पुलकं वा भगन्दरं वा अन्यतरेण वा शखजातेन आच्छिन्द्यात् वा विच्छिन्द्यात् वा न तां० / तस्यं स्यात् परः अन्य० जातेन आच्छिन्द्य वा विच्छिन्द्य वा पूर्व वा शोणितं वा निहरेत् वा विशोधयेत् वा अरतिं वा पुलकितं वा भगन्दरं वा आमृज्यात् वा प्रमृज्यात् वा न तां० / तस्यं स्यात् परः काये गण्डं वा संवाहयेत् वा परिमर्दयेत् वा न तां० / तस्य स्यात् पर: काये गण्डं वा तैलेन वा3 प्रक्षयेत् वा अभ्यञ्जयेत् वा न तां०२ / तस्य स्यात् परः काये गण्डं वा लोध्रेण वा. उल्लोलयेत् वा उद्वर्तयेत् वा न तां० / तस्य स्यात् पर: काये गण्डं वा, शीतोदकविकटेन वा उष्णोदकविकटेन वा उच्छोलयेत् वा प्रधावयेत् वा न तां० / तस्य स्यात् परः काये गण्डं वा अन्यतरेण वा शस्त्रजातेन आच्छिन्दयेत् वा विच्छिन्दयेत् वा अन्य० शस्त्र० आच्छिन्द्य वा विच्छिन्द्य वा पूर्व वा शोणितं वा निहरेत् वा विशोधयेत् वा न तां स्वादयेत् / तस्य स्यात् परः काये स्वेदं वा जल्लं वा निहरेत् वा विशोधयेत् वा न तां० / तस्य स्यात् पर: काये अक्षि-मलं वा कर्णमलं वा दन्तमलं वा नखमलं वा निहरेत् वा न तां० / तस्य स्यात् पर: काये दीर्घा: वाला: वा दीर्घानि रोमाणि वा दीर्घ श्ववौ वा दीर्घाणि कक्षा-रोमाणि वा दीर्घाणि बस्तिरोमाणि वा कृन्तेत् वा संस्थापयेत् वा न तां० / तस्य स्यात् परः काये शीर्षत: लिक्षां वा यूकां वा निहरेत् वा विशोधयेत् वा न तां स्वादयेत् वा न तां नियमयेत् वा। तस्य स्यात् परः अङ्के वा पल्यङके वा स्वापयित्व पादौ आमृज्यात् वा प्रमृज्यात् वा। एवं अधस्तनः गमः पादादौ भणितव्यः / तस्य स्यात् पर: काये अङ्के वा त्वक्वतयित्वा (स्वापयित्वा) हारं वा अर्द्धहारं Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 452 2-2-6-6-1 (506) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन वा उरस्थं वा अवेयकं वा मुकुट वा प्रालम्बनकं वा सुवर्णसूत्रं वा आबध्नीयात् वा पिधापयेत वा न तां० / तस्य स्यात् परः आरामे वा उद्याने निहत्य वा प्रविश्य वा पादौ आमृज्यात् वा प्रमृज्यात् न तां स्वादयेत् वा न तां नियमयेत् वा एवं नेतव्या अन्योऽन्यक्रिया अपि // 506 // III सूत्रार्थ : यदि कोई गृहस्थ मुनि के शरीर पर कर्मबन्धन स्वरुप क्रिया करे तो मुनि उसको मन से न चाहे और न वचन से तथा काया से उसे करावे / जैसे—कोई गृहस्थ मुनि के चरणों को साफ कर, प्रमार्जित करे, आर्मदन या संमर्दन करे- तैल से, घृत से या वसा (औषधिविशेष) से मालिश करे। एवं लोघ्र से, कर्क से, चूर्ण से या वर्ण से उद्वर्तन करे या निर्मल शीतल जल से, उष्ण जल से प्रक्षालन करे या इसी प्रकार विविध प्रकार के विलेपनों से आलेपन और विलेपन करे। धूप विशेष से धूपित और प्रधूपित करे, मुनि के पैर में लगे हुए कंटक आदि को निकाले और शल्य को शुद्ध करे तथा पैरों से पीप और रुधिर को निकाल कर शुद्ध करे तो मुनि गृहस्थ से उक्त क्रियाएं कदापि न चाहे एवं न कराए। इसी तरह यदि कोई गृहस्थ साधु के शरीर में उत्पन्न हुए व्रण-सामान्य. फोडा, गंड, अर्श, पुलक और भगंदर आदि व्रणों को शस्त्रादि के द्वारा छेदन करके पूय और रुधिर को निकाले तथा उसको साफ करे एवं जितनी भी क्रियाएं चरणों के सम्बन्ध में कही गई हैं वे सब क्रियाएं व्रण आदि में करे, तथा साधु के शरीर पर से स्वेद और मल युक्त प्रस्वेद को दूर करे, एवं आंख, कान, दांत और नखों के मल को दूर करे तथा शिर के लम्बे केशों, और शरीर पर के दीर्घ रोमों को अथवा बस्ति (गुदा आदि गृह्य प्रदेश) गत दीर्घ रोमों को कतरे अथवा संवारे, तथा सिर में पड़ी हुई लीखों और जूंओं को निकाले। इसी प्रकार साधु को गोद में या पलंग पर बिठा कर या लिटाकर उसके चरणों को प्रमार्जन आदि करे, तथा गोद में या पलंग पर बिठा कर हार (18 लडीका) अर्द्धहार (9 लडीका) छाती पर पहननेवाले आभूषण (गहने) गले में डालने के आभूषणों एवं मुकुट, माला और सुवर्ण के सूत्र आदि को पहनाये, तथा आराम और उद्यान में ले जाकर चरण प्रमार्जनादि पूर्वोक्त सभी क्रियाएं करे, तो मुनि उन सब क्रियाओं को न तो मन से चाहे और न वाणी अथवा शरीर द्वारा उन्हें करवाने का आदेश-प्रयत्न करे। तथा इसी प्रकार साधु भी परस्पर में पूर्वोक्त क्रियाओं का आचरण . न करें। Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-2-6-6-1 (506) 453 IV टीका-अनुवाद : पर याने अपने आप के आत्मा से भिन्न ऐसे अन्य की क्रिया मन, वचन एवं काया के व्यापार स्वरुप जो क्रिया वह परक्रिया तथा आत्मा में होनेवाली जो क्रिया वह आध्यात्मिकी क्रिया तथा सांश्लेषिकी याने कर्म के संश्लेष उदय से होनेवाली क्रिया... ऐसी उन क्रियाओं को साधु आस्वादे नही अर्थात् चाहे नही... तथा मन से अभिलाषा भी न करे अर्थात् वाणी से वचन के द्वारा परक्रिया करावें भी नहि... तथा काया से भी परक्रिया साधु न करे, न करावे... अब विशेष प्रकार से परक्रिया के विषय में कहतें हैं... जैसे कि- शरीर की सेवा नहि करने वाले उस साधु के रज-धूलीवाले पैरों को कोइ श्रद्धालु श्रावक-गृहस्थ धर्म-बुद्धि से कपडे के टुकडे के द्वारा साफ करे बार बार साफ करे तब उस परक्रिया का साधु आस्वाद-मजा न ले और उस परक्रिया करने के लिये अन्य को न कहे... इसी प्रकार पैरों की मालीस करनेवाले या पग-चंपी करनेवाले को या पैरों को सहलाने वाले को या तैल आदि से मर्दन करनेवाले को या लोध्र आदि से पैरों का उद्वर्तन करनेवाले को या ठंडे जल आदि से पैरों को धोनेवाले को या कोई भी सुगंधि द्रव्य से विलेपन करनेवाले को या विशिष्ट धूप से धूपित करनेवाले को या पैरमें से कांटे को बाहार निकालनेवाले को इसी प्रकार लोहि (खून) आदि निकालनेवाले को साध मन से न चाहे वचन से ऐसा न करावे एवं काया से ऐसा न करे, न करावे। - इसी प्रकार शरीर के व्रण (घाव) आदि संबंधित सूत्र के भावार्थ को स्वयं ही जानें.. तथा बगीचे में प्रवेश एवं बाहार निकलने के वख्त पैर प्रमार्जन के सूत्र का भावार्थ भी पूर्ववत् स्वयं ही जान लें... इसी प्रकार संक्षेप रुचिवाले सत्रकार महाराज अतिदेश याने सुचन करतें हैं कि- उत्तर सप्तक में भी पूर्ववत् सूत्रार्थ तुल्य होने से स्वयं ही जानें... वह इस प्रकार- पूर्वोक्त रज-धूली प्रमार्जनादि परक्रिया प्रतिक्रिया न करने की प्रतिज्ञावाले साधु परस्पर याने एक साधु अन्य साध की ऐसी परक्रिया न करें... इसी प्रकार अन्योऽन्यक्रिया-सप्लैकक का भावार्थ स्वयं ही समझना चाहिए... V सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में परक्रिया के सम्बन्ध में विस्तार से वर्णन किया गया है। इस में बताया गया है कि यदि कोई गृहस्थ साधु के पैर आदि का प्रमार्जन करके उसे गर्म या ठण्डे पानी से धोए और उस पर तैल, घृत आदि स्निग्ध पदार्थों की मालिश करे या उसके घाव आदि को साफ करे या बवासीर आदि की विशेष रुप से शल्य चिकित्सा आदि करे, या कोई गृहस्थ साधु को अपनी गोद में या पलंग पर बैठाकर मालिश कर उसे आभूषणों से सुसज्जित करे, या उसके सिर के बाल, रोम, नख एवं गुप्तांगों पर बढ़े हुए बालों को देखकर उन्हें साफ करे, तो साधु उक्त क्रियाओ को न मन से चाहे और न वाणी एवं काया से उनके करने की Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454 2-2-6-6-1 (506) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन प्रेरणा दे। वह उक्त क्रियाओं के लिए स्पष्ट इन्कार कर दे। __यह सूत्र विशेष रुप से जिन कल्पी मुनि से संबद्ध है, जो रोग आदि के उत्पन्न होने पर भी औषध का सेवन नहीं करते। स्थविर कल्पी मुनि निरवद्य एवं निर्दोष औषध ले सकते हैं। परन्तु साधु को बिना किसी विशिष्ट कारण के गृहस्थ से तैल आदि का मर्दन नहीं करवाना चाहिए। और इसी दृष्टि से सूत्रकार ने गृहस्थ के द्वारा चरण स्पर्श आदि का निषेध किया है। यह निषेध भक्ति की दृष्टि से नहीं, बल्कि तैल आदि की मालिश करने की अपेक्षा से किया गया है। यदि कोई गृहस्थ श्रद्धा एवं भक्तिवश साधु का चरण स्पर्श करे तो इसके लिए भगवान ने निषेध नहीं किया है। उपासकदशांग सूत्र में बताया गया है कि जब गौतम आनन्द श्रावक को दर्शन देने गए तो आनन्द ने उनके चरणों का स्पर्श किया था। इससे स्पष्ट होता है कि यदि कोई गृहस्थ वैयावृत्य करने या पैर आदि प्रक्षालन करने के लिए पैरों का स्पर्श करे तो साधु उसके लिए इन्कार करदे। यह वैयावृत्य करवाने का प्रकरण जिनकल्पी एवं स्थविर कल्पी सभी मुनियों से सम्बन्धित है अर्थात् किसी भी मुनि को गृहस्थ से पैर आदि की मालिश नहीं करवानी चाहिए और गृहस्थ से उनका प्रक्षालन भी नहीं करवाना चाहिए। इसी तरह यदि कोई गृहस्थ साधु को अपनी गोद में या पलंग पर बैठाकर उसे आभूषण आदि से सजाए या उसके सिर के बाल, रोम, नख आदि को साफ करे तो साध ऐसी क्रियाएं न करवाए। इस पाठ से यह स्पष्ट होता है कि यह जिनकल्पी मनि के प्रकरण का है. और वह केवल मुखवत्रिका और रजोहरण लिए हुए है। क्योंकि इस पाठ में बताया गया है कि कोई गृहस्थ मुनि के सिर के, कुक्षि के तथा गुप्तांगों के बढ़े हुए बाल देखकर उन्हे साफ करना चाहे तो साधु-ऐसा न करने दे। इससे यह भी सिद्ध होता है कि सर्वथा नग्न रहनेवाले . जिनकल्पी मुनि भी मुखवस्त्रिका और रजोहरण रखते थे अतः यदि कोई गृहस्थ कुक्षि आदि के बाल साफ करे तो साधु उससे साफ न कराए। इससे यह स्पष्ट होता है कि साधु को गृहस्थ से पैर दबाने आदि की क्रियाएं नहीं करवानी चाहिए। क्योंकि यह कर्म बन्ध का कारण है, इसलिए साधु मन, वचन और शरीर से इनका आसेवन न करे। और बिना किसी विशेष कारण के परस्पर में भी उक्त क्रियाएं न करे। क्योंकि दूसरे साधु के शरीर आदि का स्पर्श करने से मन में विकार भाव जागृत हो सकता है और स्वाध्याय का महत्वपूर्ण समय यों ही नष्ट हो जाता है। अतः साधु को परस्पर में मालिश आदि करने में समय नहीं लगाना चाहिए। परन्तु विशेष परिस्थिति में साधु अपने साधर्मिक साधु की मालिश आदि कर सकता है, उसके घावों को भी साफ कर सकता है। अर्थात्, यह पाठ उत्सर्ग मार्ग से संबद्ध है और उत्सर्ग मार्ग में साधु को परस्पर उपरोक्त क्रियाएं नहीं करनी चाहिए। Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-2-6-6-2 (507) 455 इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि श्री सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहते हैं.... - I सूत्र // 2 // // 507 // से सिया परो सुद्धेणं वा असुद्धेणं वा वइबलेण वा तेइच्छं आउट्टे, से० असुद्धेणं वड़बलेणं तेइच्छं आउट्टे। से सिया परो गिलाणस्स सचित्ताणि वा कंदाणि वा मूलाणि वा तयाणि वा हरियाणि वा खणित्तु कड्ढित्तु वा कड्ढावित्तु वा तेइच्छं आउट्टाविज्ज नो तं सायए,, फडवेयणा पाणभूय जीव सत्ता वेयणं वेइंति, एयं खलु० समिए सया जए सेयमिणं मण्णिज्जासि तिबेमि || 507 // II संस्कृत-छाया : तस्य स्यात् परः शुद्धेन अशुद्धेन वा वाग्बलेन वा चिकित्सां कर्तुं अभिलषेत्, तस्य स्यात् परः अशुद्धेन वाग्बलेन चिकित्सां कर्तुं अभिलषेत्। तस्य स्यात् परः ग्लानस्य चिकित्सायै सचितानि वा कन्दानि वा मूलानि वा त्वच: वा हरितानि वा खनित्वा कृष्ट्वा कर्षयित्वा वा चिकित्सां कर्तुं अभिलषेत्, न तां स्वादयेत् न तां नियमयेत् / कटुवेदना: प्राणि-भूत-जीव-सत्त्वा: वेदनां वेदयन्ति, एतत् खलु० समितः सदा यतेत, श्रेयः इदं मन्येत इति ब्रवीमि // 507 // III सूत्रार्थ : यदि कोई सद्गृहस्थ शुद्ध अथवा अशुद्ध मंत्रबल से साधु की चिकित्सा करनी चाहे, इसी प्रकार किसी रोगी साधु को कन्द मूल आदि सचित्त वृक्ष, छाल और हरी वनस्पति का अवहनन करके चिकित्सा करनी चाहे तो साधु उसकी इस क्रिया को न तो मन से चाहे और न वाणी तथा शरीर से ऐसी सावध चिकित्सा कराए। किन्तु उस समय इस अनुप्रेक्षा से आत्मा को सान्त्वना देने का यत्न करे कि प्रत्येक प्राणी अपने पूर्व जन्म के लिए हुए अशुभ कर्मों के फलस्वरुप कटुकवेदना का उपभोग करते हैं। अतः मुझे भी स्वकृत अशुभकर्म के फलस्वरुप इस रोग जन्य वेदना को शान्ति पूर्वक सहन करना चाहिए। मेरे लिए यही कल्याणकारी है और इस प्रकार का चिन्तन करते हुए समभाव से वेदना को सहन करने में ही मुनिभाव का संरक्षण है। इस प्रकार मैं कहता हूं। Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 456 2-2-6-6-2 (507) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन IV टीका-अनुवाद : वह कोइ श्रद्धालु गृहस्थ उस साधु की शुद्ध या अशुद्ध मंत्र तंत्रादि बल से रोग के शमन के लिये चिकित्सा करना चाहे... तथा वह गृहस्थ ग्लान (बिमार) साधु की चिकित्सा के लिये सचित्त कंद-मूल आदि स्वयं ही खोदकर या अन्य के द्वारा खुदवा कर चिकित्सा करना चाहे तब वह साधु उस परक्रिया का आस्वाद याने आनंद मन से भी व्यक्त न करे या उस परक्रिया के लिये अन्य को न कहे... क्योंकि- इस विश्व में पूर्वकृत कर्मो के फलों को याने सुख-दुःख को सभी संसारी जीव भुगततें हैं... क्योंकि- अन्य जीवों को शारीरिक एवं मानसिक वेदना-पीडा उत्पन्न करके कर्मविपाक से होनेवाली कटु वेदनावाले सभी संसारी प्राणी भूत जीव एवं सत्त्व हैं... अर्थात् किये हुए पापकर्मो की पीड़ा को सभी जीव भुगततें हैं... अन्यत्र भी कहा है कि- हे जीव ! यह कर्म के फल स्वरुप वेदना-पीडा पुनः भी सहन करना ही पडेगा, क्योंकि- किये हुए कर्मो का फल भुगते बिना छुटकारा नही है, अतः ऐसा जानकर जो जो कर्मफल स्वरुप दुःख पीडा आवें उन्हें समभाव से भुगत लें... क्योंकि- ऐसी समझ तुझे अन्य-भवों में कहां प्राप्त होगी ? सत् एवं असत् का विवेक अभी तुझे प्राप्त हुआ है अतः यहां मुनि जीवन में पूर्वकृत कर्मों के कटुफलों को समभाव से सहन करें... शेष सभी सूत्रों का अर्थ सुगम है अतः स्वयं हि समझ लीजीयेगा... सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि यदि कोई गृहस्थ शुद्ध या अशुद्ध मंत्र से या सचित्त वस्तुओं से चिकित्सा करे तो साधु उसकी अभिलाषा न रखे और न उसके लिए वाणी एवं शरीर से आज्ञा भी न दे। जिस मंत्र आदि की साधना या प्रयोग के लिए पशु-पक्षी की हिंसा आदि सावध क्रिया करनी पड़े उसे अशुद्ध मंत्र कहते हैं। और जिसकी साधना एवं प्रयोग के लिए सावध अनुष्ठान न करना पड़े उसे शुद्ध मंत्र कहते हैं परन्तु साधु उभय प्रकार की मंत्र चिकित्सा न करे और न अपने स्वास्थ्यलाभ के लिए सचित्त औषधियों का ही उपयोग करे। वह साधु प्रत्येक स्थिति में अपनी आत्मशक्ति को बढ़ाने का प्रयत्न करे। वेदनीय कर्म के उदय से उदित हुए रोगों को समभाव पूर्वक सहन करे। वह यह सोचे कि पूर्व में बन्धे हुए अशुभ कर्म के उदय से रोग ने मुझे आकर घेर लिया है। इस वेदना का कर्ता मैं ही हूं। जैसे मैंने हंसते हुए इन कर्मो का बंध किया है उसी तरह हंसते हुए इनका वेदन करुंगा। परन्तु इनकी उपशान्ति के लिए किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं दूंगा और न तंत्र-मंत्र का सहार ही लूंगा। वृत्तिकार ने यही कहा है कि हे साधक, तुझे यह दुख समभाव पूर्वक सहन करना चाहिए। क्योंकि बन्धे हुए कर्म समय पर अपना फल दिए बिना नष्ट नहीं होते हैं। और इन Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-2-6-6-2 (507) 457 सब कर्मो का कर्ता भी तू ही है। अतः उसके फलस्वरूप प्राप्त होने वाले सुख-दुख को समभाव पूर्वक सहन करना चाहिए। क्योंकि सदसद् का ऐसा विवेक तुझे अन्यत्र कहीं प्राप्त नहीं होना है। इसलिए विवेक पूर्वक तुम्हे वेदना को समभाव से सहन करना चाहिए। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें। // द्वितीयश्रुतस्कन्धे द्वितीयचूलिकायां षष्ठः सप्तैककः समाप्तः || 卐 : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शश्रृंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट -परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. "श्रमण" के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययन से विश्व के सभी जीव पंचाचार की दिव्य सुवास को प्राप्त करके परमपद की पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. // राजेन्द्र सं. 96. ॐ विक्रम सं. 2058. 卐'' Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 458 2-2-7-7-1 (508) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 2 अध्ययन - 7 सप्तैककः - 7 - अन्योऽन्यक्रिया ) अब अन्योन्यक्रिया नाम का सातवा अध्ययन (सप्तैकक) कहतें हैं... यहां छठे अध्ययन के बाद सातवे अध्ययन का यह अभिसंबंध है कि- छठे अध्ययन में सामान्य से परक्रिया का निषेध किया था, अब यहां सातवे अध्ययन में गच्छ से निकलकर जिनकल्प आदि स्वीकारनेवाले साधुओं के लिये अन्योन्यक्रिया का निषेध कहना है... अतः इस संबंध से आये हुए इस सातवे अध्ययन के नाम निक्षेप में “अन्योन्यक्रिया" यह नाम है... उनमें "अन्य" पद के निक्षेप के लिये नियुक्तिकार गाथा के उत्तरार्ध से कहतें हैं... नि. 328 अन्य पद के नाम-स्थापना-द्रव्य-क्षेत्र-काल एवं भाव यह छह (6) निक्षेप होतें हैं... उनमें नाम एवं स्थापना सुगम है... अब द्रव्य-अन्य के तीन भेद है 1. तदन्यत् 2. अन्यान्यत् 3. आदेश्यान्यत यह तीनों द्रव्य-पर की तरह जानें... ___ यहां स्थविरकल्पवाले साधु परक्रिया एवं अन्योन्यक्रिया में जयणा करें और गच्छनिर्गत जिनकल्पादि साधु को यह परक्रिया एवं अन्योन्यक्रिया. त्याज्य कही है... जो साधु यतमान याने स्थविरकल्पवाले हैं, वे यतना-जयणा से अन्योन्यक्रिया करें और जो निष्प्रतिकर्म-जिनकल्पादि साधु हैं वे अन्योन्यक्रिया का त्याग करतें हैं... ' - अब सूत्रानुगम में सूत्र इस प्रकार है... I सूत्र // 1 // // 508 // से भिक्खू वा, अण्णमण्ण किरियं अज्झत्थियं संसेइयं नो तं सायए / से अण्णमण्णं पाए आमज्जिज्ज वा० नो तं० / सेसं तं चेव, एयं खलु० जइज्जासि तिबेमि // 508 // II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा अन्योन्यक्रियां आध्यात्मिकीं सांश्लेषिकीं न तां स्वादयेत् / सः Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-2-7-7-1 (508) 459 अन्योन्यं पादौ आमृज्यात् वा० न तां० शेषं तं चैव, एतत् खलु० यतेत इति ब्रवीमि // 508 // III सूत्रार्थ : वह साधु या साध्वी परस्पर अपनी आत्मा के विषय में की हुई क्रिया जो कि कर्म बन्धन का कारण है, उसको न मन से चाहे, न वचन से कहे, और न काया से कराए। जैसे कि परस्पर चरणों का प्रमार्जन आदि करना। शेष वर्णन त्रयोदशवें अध्ययन छठे सप्तैकक के समान जानना चाहिए। यह साधु का संपूर्ण आचार है, उसे सदा सर्वदा संयम को परिपालन में प्रयत्नशील रहना चाहिए। इस प्रकार मैं कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : अन्योन्य याने परस्पर की पैर आदि के प्रमार्जनादि क्रिया पूर्वोक्त सभी प्रकार की क्रिया तथा आध्यात्मिकी एवं सांश्लेषिकी आदि क्रिया साधु स्वयं न करे न करावे तथा मन से भी ऐसी क्रियाओं को न चाहे... इत्यादि बातें पूर्ववत् जानना चाहिए... V सूत्रसार : . प्रस्तुत सूत्र में पारस्परिक क्रिया का निषेध किया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि एक साधु दूसरे साधु को यह न कहे कि तू मेरे पैर आदि की मालिश कर और में तेरे पैर की मालिश करूं। परन्तु, इसका यह अर्थ नहीं है कि साधु किसी साधु की बीमारी आदि की अवस्था में गुरु आदि की आज्ञा से उसकी सेवा भी नहीं करे। यह निषेध केवल बिना कारण ऐसी क्रियाएं करने के लिए किया गया है। जिससे जीवन में आरामतलबी एवं प्रमाद न बढ़े और स्वाध्याय का समय केवल शरीर को सजाने एवं संवारने में ही पूरा न हो जाए। इससे स्पष्ट होता है कि विशेष कारण उपस्थित होने पर की जाने वाली सेवा-शुश्रूषा का निषेध नहीं किया गया है। क्योंकि आगम में वैयावृत्य करने से मिलने वाले फल का निर्देश करते हुए बताया है कि यदि वैयावृत्य करते हुए उत्कृष्ट भावना आ जाए तो आत्मा तीर्थकर गोत्र कर्म का बन्ध करता है। इस प्रकार वैयावृत्य से महानिर्जरा का होना भी बताया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि राग-द्वेष से ऊपर उठकर बिना स्वार्थ से की जाने वाली सेवा-शुश्रूषा का सुत्रकार ने निषेध नहीं किया है। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझे। // द्वितीयश्रुतस्कन्धे द्वितीयचूलिकायां सप्तमः सप्तैककः समाप्तः // Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 460 2-2-7-7-1 (508) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शगुंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. "श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययन से विश्व के सभी जीव पंचाचार की दिव्य सुवास को प्राप्त करके परमपद की पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. // राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058. Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री. राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 3 // भावना... दूसरी चूलिका पूर्ण हुई अब तीसरी चूलिका का प्रारंभ करतें हैं यहां परस्पर यह अभिसंबंध है कि- यहां इस आचारांग सूत्र में आरंभ से ही श्री वर्धमानस्वामीजी ने जो कुछ अर्थ कहा था वह प्रस्तुत किया... अब उपकारी ऐसे उन श्री वर्धमान स्वामीजी के संबंध में कुछ संक्षिप्त परिचय तथा पांच महाव्रत युक्त ऐसे साधु एवं साध्वीजी म. ही आहारादि पिंड एवं शय्या वस्त्र-पात्र-वसति आदि का ग्रहण करे... अन्य नही... अतः उन महाव्रतों के परिपालन के लिये भावना कहनी चाहिये... इस संबंध से यहां यह तीसरी चूलिका आई है... इस भावना नाम की तीसरी चूलिका के चार अनुयोग द्वार हैं उनमें उपक्रम के अंतर्गत यह अर्थाधिकार है कि- अप्रशस्त भावना के त्याग के साथ प्रशस्त भावना कहनी चाहिये... नाम-निष्पन्न निक्षेप में भावना यह नाम है... और इस भावना के नामादि चार निक्षेप होतें हैं... उनमें नाम एवं स्थापना निक्षेप सुगम है अतः द्रव्य निक्षेप का स्वरुप कहतें हैं... नि. 330 नो आगम से तद्व्यरिक्त द्रव्य भावना याने गंधांग स्वरुप जाइके पुष्पों से तिलादि द्रव्यों में की जानेवाली वासना वह भावना है, तथा जो शीत से भावित है वह शीतसहिष्णु और उष्ण से भावित है वह उष्णसहिष्ण... होता है... तथा आदि पद से-व्यायाम से अभ्यस्त देह है वह व्यायामसहिष्णु- इत्यादि अन्य द्रव्य से या द्रव्य की जो भावना वह द्रव्य भावना... तथा भाव विषयक जो भावना वह भाव-भावना... यह प्रशस्त एवं अप्रशस्त भेद से दो प्रकार की है... उनमें अप्रशस्त भाव-भावना इस प्रकार जानना चाहिए... नि. 338 जैसे कि- कोई मनुष्य प्राणि-वधादि कार्यों में जब सर्व प्रथम प्रवृत्त होता है तब साशंक होता है... और बाद में बार बार प्राणिवधादि करने पर वह निःशंक होकर पापाचरण करता है... अन्य अन्यत्र भी कहा है कि- कोई भी मनुष्य सर्व प्रथम जीव हिंसा करता है तब उसे जीव के प्रति दया-करुणा होती है और वह खुद अपराध कर रहा है ऐसा महसूस करता है, और दुबारा जब जीवहिंसा करता है तब वह दया-करुणा भूल जाता है, और तीसरी बार वह निःशंक Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 462 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन होकर निर्दयता के साथ जीव हिंसा करता है और उसके बाद सतत जीवहिंसा के कार्य में लगा रहता है... नि. 332 प्रशस्त भावना के अधिकार में दर्शन ज्ञान चारित्र तपश्चर्या एवं वैराग्य आदि भावों में होनेवाली प्रशस्त भावना का स्वरुप अब क्रमशः लक्षण के साथ कहतें हैं... नि. 333 दर्शन भावना इस प्रकार है... तीर्थकर भगवंतो के प्रवचन स्वरुप द्वादशांगी-गणिपिटक का, तथा प्रावचनी याने युगप्रधान ऐसे आचार्यादि का, तथा अतिशय-ऋद्धिवाले केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी अवधिज्ञानी चौदपूर्वधर दशपूर्वधर आदि का, तथा आमर्पोषध्यादि ऋद्धि को प्राप्त करने वाले का जो सन्मुख गमन स्वरुप स्वागत करना, दर्शन करना, गुणों की प्रशंसा करना तथा सुगंधिचूर्ण आदि से पूजा करना एवं स्तोत्र के द्वारा स्तवना करना, इत्यादि स्वरुप प्रशस्त दर्शन भावना है... इस दर्शन भावना से आत्मा को निरंतर भावित करने से आत्मा में सम्यग्दर्शन की प्राप्ति एवं विशुद्धि होती है... नि. 334-334 तथा तीर्थंकर परमात्माओं की जन्मभूमि में, एवं दीक्षा-भूमि, विहारभूमि, केवलज्ञानभूमि तथा निर्वाण-भूमि में, अशाश्वत जिनालय तथा देवलोक के विमान-भवनों में मेरुपर्वत के उपर, नंदीश्वरद्वीप आदि में तथा भौम याने पाताल-लोक के भवनों में जो कोइ शाश्वत जिनालय हैं उन्हें मैं वंदन करता हूं... इसी प्रकार अष्टापद तीर्थ, उज्जयंत याने गिरनार तीर्थ, तथा दशार्णगिरि के ऊपर रहा हआ गजाग्रपद तीर्थ, तक्षशिला में धर्मचक्र एवं अहिच्छत्रा में पार्श्वनाथ प्रभु का धरणेन्द्र ने किया हुआ महिमावाला स्थान, तथा जहां वजस्वामीजी ने पादपोपगमन अनशन किया था वह रथावत नाम का पर्वत, तथा जहां वर्धमान स्वामीजी कार्योत्सर्ग ध्यान में रहे थे वहां चमरेन्द्र के आगमनवाला स्थान... इत्यादि पवित्र तीर्थ-स्थानों में जाना, और वंदन, पूजन एवं गुण-स्तवना करनेवाले जीव में सम्यग् दर्शन की शुद्धि होती है.... नि. 338-330 प्रवचन याने द्वादशांगी के परमार्थ को जाननेवालों ने यह गुण निष्पन्न अर्थ निकाला है कि- बीजगणित आदि गणित के विषय में यह पारंगत है, तथा अष्टांग निमित्तशास्त्र में यह परगामी है, तथा दृष्टिवाद में कहे गये विभिन्न प्रकार के द्रव्यसंयोग या उनके हेतु (कारण) को जानते हैं... तथा देव भी चलायमान न कर सके ऐसी सम्यग्दर्शन = दृष्टिवाले तथा अवितथ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 463 याने सत्य (सच्चे) ज्ञानवाले कि- वे जो कहतें हैं वैसा ही वह होता है... इत्यादि गुणवाले प्रावचनिक याने आचार्य आदि की प्रशंसा करनेवाले की दर्शन विशुद्धि होती है... इसी प्रकार आचार्य आदि के अन्य गुणों की भी प्रशंसा करनेवाले तथा पूर्वकालीन महर्षियों के नाम का स्मरण करनेवाले तथा उन महर्षियों की सेवा-पूजा देवेन्द्र एवं नरेन्द्र आदिने की है ऐसा कहनेवाले तथा प्राचीनकाल के तीर्थों की पूजा करनेवाले इत्यादि उचित क्रियाओं को करनेवाले शुभ वासना से वासित होते हैं, अतः उनकी दर्शनविशुद्धि होती है... इस प्रकार प्रशस्त दर्शन-भावना जानें! अब प्रशस्त ज्ञान-भावना का स्वरुप कहतें हैं... ज्ञानकी जो भावना वह ज्ञानभावना... जैसे कि- जिनेश्वरों ने कही गयी यह द्वादशांगी स्वरुप प्रवचन-श्रुतज्ञान विश्व के सभी पदार्थों का जैसा है वैसा यथावस्ति स्वरुप को प्रगट करता है... इस प्रशस्त ज्ञान-भावना से मोक्ष का प्रधान-मुख्य अंग स्वरुप अधिगम सम्यग्दर्शन प्रगट होता है... क्योंकि- तत्त्वों के स्वरुप की श्रद्धा को ही सम्यग्दर्शन कहतें हैं... और जीव अजीव आदि नव पदार्थ ही तत्त्व है... अतः सम्यग्ज्ञान की कामनावाले पुण्यात्मा ही उन नव पदार्थ (तत्त्वों) को अच्छी तरह से जानने का प्रयत्न करतें हैं... . नव तत्त्व का विज्ञान यहां जिन प्रवचन में उपलब्ध है... तथा परमार्थ स्वरुप मोक्ष नाम का कार्य भी जिन प्रवचन में उपलब्ध है... तथा क्रिया की सिद्धि में सम्यग्दर्शन ज्ञान एवं चारित्र हि मुख्य उपकारक है और सम्यग्दर्शनादि के अनुष्ठान को करनेवाला साधु ही कारक है और मोक्ष की प्राप्ति स्वरुप क्रियासिद्धि भी यहां जिनप्रवचन में है... वह इस प्रकार- जैसे कि- आत्मा के साथ कर्मो का बंधन और आत्मा से कर्मो की मुक्ति... यह बात केवल जिनप्रवचन में ही है. अन्य शाक्य आदि मतो में नही है... इत्यादि प्रकार की भावना-विचार करनेवाले को ज्ञान भावना होती है... तथा आठ प्रकार के कर्म-पुद्गलों से संसारी सभी जीवों के आत्म-प्रदेश बंधे हुए हैं, क्योंकि- कर्मबंध के कारण मिथ्यात्व, अविरति प्रमाद कषाय और योग हैं अतः इन कारणों से कर्मो का बंध करके संसारी-जीव चारों गतिओं में जन्म पाकर साता-असाता आदि का अनुभव करता है... यह सभी बातें यहां जिनप्रवचन में ही कही गई है... अथवा अन्य भी जो कुछ अच्छी बात है, वह भी इस जिनप्रवचन में ही कही गइ है... इत्यादि भावना को ज्ञानभावना कहतें हें... तथा विचित्र प्रकार का यह संसार-प्रपंच भी यहां जिनागम सूत्र में जिनेश्वरों ने कहा है.... तथा मेरा ज्ञान विशिष्ट प्रकार का हो ऐसी ज्ञानभावना करनी चाहिये... श्रुतज्ञान का अभ्यास करना चाहिये... और आदि-पद से एकाग्रता-प्रणिधान आदि गुण प्राप्त होते हैं... और ज्ञानभावना में यह भी चिंतन करना चाहिये कि- अज्ञानी जीव लाखों जन्मों में असह्य दुःख Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 464 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन भुगतने के बाद भी जो कर्मक्षय का लाभ नही प्राप्त करता, उन कर्मो का क्षय ज्ञानी पुरुष ज्ञानभावना से दो घडी (मुहूर्त) मात्र काल में करता है... तथा इन कारणों से भी ज्ञान का अभ्यास करना चाहिये... जैसे कि- ज्ञानका संग्रह हो, कर्मो की निर्जरा हो, ज्ञान की परंपरा चलती रहे, और स्वाध्याय होता रहे... तथा ज्ञानभावना से ही मनुष्य सदा गुरुकुल-वास में निवास कर सकता है... अन्यत्र भी कहा है कि- जो धन्य पुरुष जीवन पर्यंत गुरुकुलवास में रहता है वह ज्ञान का पात्र होता है और सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्चारित्र में स्थिरता प्राप्त होती है... इत्यादि ज्ञानभावना है... अब चारित्र-भावना का स्वरुप कहतें हैं... सुंदर ऐसा अहिंसा स्वरुप धर्म... इस जिन-प्रवचन में जिस प्रकार का सत्य है वैसा सत्य और कहिं नही है... चोरी का त्याग यहां जिनप्रवचन में बहुत ही अच्छी प्रकार से हो सकता है... नव-वाड स्वरुप ब्रह्मचर्य भी यहां ही है... परिग्रह का त्याग भी श्रेष्ठ प्रकार से होता है... इसी प्रकार बारह भेदवाला अच्छा तप (तपश्चर्या) भी इस जिनप्रवचन में ही हो सकता है... . अब वैराग्य-भावना का स्वरुप कहतें हैं... 1. सांसारिक सुखों के प्रति कंटाला-उद्वेग... इसी प्रकार कर्मो के बंध के कारण स्वरुप मद्य आदि प्रमादों का त्याग यह अप्रमादभावना है... तथा एकाग्रभावना इस प्रकार है... जैसे कि- ज्ञान एवं दर्शन से युक्त ऐसा यह मेरा आत्मा शाश्वत-नित्य है... जब कि- शेष सभी शरीर आदि पदार्थ आत्मा से सर्वथा भिन्न है किंतु संयोग संबंध से आत्मा से जुड़े हुए हैं... इत्यादि जो भावनाएं हैं वे चारित्र-भावना कही गई है... अब तपोभावना कहतें हैं... नि. 343 कौन सी विगइ के त्याग से मेरा यह दिन तपश्चर्या वाला बना रहे ? अथवा कौन से तप को करने के लिये में समर्थ हुं ? तथा मेरा ऐसा वह कौन सा तप है और किन-किन द्रव्यादि में वह तपश्चर्या निर्दोष रुप से पूर्ण हो ? इत्यादि प्रकार से तपोभावना चिंतन करना चाहिये... जैसे कि-द्रव्य से- वाल-चने आदि द्रव्य... Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 2-3-1 (509) 465 क्षेत्र से-शीत-रुक्ष आदि क्षेत्र काल से- शीत-उष्ण आदि काल भाव से- मैं अभी ग्लान हूं अतः इस प्रकार का तप कर सकता हूं... इत्यादि प्रकार से द्रव्यादि का चिंतन करके यथाशक्ति तप करना चाहिये... क्योंकितत्त्वार्थाधिगम सूत्र का यह वचन है कि- यथाशक्ति त्याग-तपश्चर्या करनी चाहिये... नि. 344 तथा अनशनादि तपश्चर्या में बल-वीर्य के अनुसार उत्साह करना चाहिये और ग्रहण कीये गये तपोधर्म का निरतिचार पालन करना चाहिये... कहा भी है कि- तीर्थकर-पुरुष भी गृहवास का त्याग करने के बाद अनगार होने पर चार ज्ञानवाले होतें हैं देवता भी उनका आदर-सत्कार पूजा करतें हैं और निश्चित ही मुक्ति पानेवाले हैं तो भी बलवीर्य के अनुसार सभी प्रकार के पुरुषार्थ के साथ तपश्चर्या में उद्यम करतें हैं... तो फिर अन्य शेष मनुष्यों के लिये तो कहना ही क्या ? अर्थात् अन्य शेष मनुष्यों को तो कर्मो से मुक्ति पाने के लिये अवश्यमेव यथाशक्ति तपश्चर्या करनी ही चाहिये... इत्यादि प्रकार से तपोभावना करनी चाहिये। इसी प्रकार पांच इंद्रियां एवं मन के निग्रह स्वरुप संयम में तथा तपश्चर्या के निर्वाह में समर्थ ऐसे वज्रऋषभनाराच आदि संघयण के विषय में भी भावना-चिंतन करना चाहिये... अब वैराग्यभावना अनित्यत्वादि भावना स्वरुप है... वह इस प्रकार- 1. अनित्यता, 2. अशरणता, 3. संसारभावना, 4. एकत्व, 5. अन्यत्व, 6. अशुचिभावना, 7. आश्रव, 8. संवर, 9. निर्जराभावना, 10. लोकस्वरुप, 11. धर्मस्वाख्यात एवं धर्मतत्त्वचिंतन तथा 12. बोधिदुर्लभभावना... इत्यादि भावनाएं अनेक प्रकारसे कही गइ है किंतु यहां प्रस्तुत ग्रंथ में तो चारित्रभावना का ही अधिकार है अंब नियुक्ति-अनुगम के बाद सूत्रानुगम में सूत्र का शुद्ध उच्चारण करना चाहिये... I सूत्र // 1 // // 509 // तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे पंच हत्थुत्तरे यावि होत्था-तं जहा- हत्थुत्तराहिं चुए, चइत्ता गल्भं वक्कंते, हत्थुत्तराहिं गब्भाओ गल्भं साहरिए, Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 466 2-3-1 (509) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन हत्थुत्तराहिं जाए, हत्थुत्तराहिं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए, हत्थुत्तराहिं कसिणे पडिपुण्णे अव्याघाए निरावरणे अणंते अणुत्तरे केवलवरणाणदसणे समुप्पण्णे, साइणा भगवं परिणिव्वुए // 509 // II संस्कृत-छाया : तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणः भगवान् महावीरः पञ्च-हस्तोत्तरे चाऽपि अभवत्, तद्यथा- हस्तोत्तरे च्युतः, च्युत्वा गर्भे व्युत्क्रान्त:, हस्तोत्तरे गर्भात् गर्भ आहृतः, हस्तोत्तरे जातः, हस्तोत्तरे मुण्डः भूत्वा अगारात् अनगारतां प्रवजितः, हस्तोत्तरे कृत्स्नं प्रतिपूर्ण अव्याघातं निरावरणं अनन्तं अनुत्तरं केवलवर ज्ञान-दर्शनं समुत्पन्नम्, स्वातौ च भगवान् परिनिर्वृत्तः // 509 // III सूत्रार्थ : उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के पांच कल्याणक उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में हुए। जैसे कि- भगवान उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में देवलोक से च्यव कर गर्भ में उत्पन्न . हुए, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में ही गर्भ से गर्भान्तर में संहरण किए गए। उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में ही भगवान ने जन्म लिया। उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में ही भगवान मुंडित होकर सागार से अनगार-साधु बने और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में ही भगवान ने. अनन्त, प्रधान, नियाघात, निरावरण, कृत्स्न, प्रतिपूर्ण केवल ज्ञान और केवल दर्शन को प्राप्त किया और स्वाति नक्षत्र में भगवान मोक्ष पधारे। IV टीका-अनुवाद : सूत्रार्थ पाठसिद्ध होने से टीका नहि है...... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि भगवान महावीर के पांच कल्याणक उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में हुए और एक स्वाति नक्षत्र में हुआ। भगवान का गर्भ में आना, गर्भ का गर्भान्तर में संहरण, जन्म, दीक्षा एवं केवल ज्ञान की प्राप्ति ये पांचों कार्य उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में हुए और स्वाति नक्षत्र में निर्वाण पद प्राप्त किया। इससे कल्याणक सिद्ध होते हैं, परन्तु वस्तुतः देखा जाए तो कल्याणक 5 ही हुए है। गर्भ संहरण को नक्षत्र साम्य की दृष्टि से साथ में गिन लिया गया है। परन्तु, इसे कल्याणक नहीं कह सकते। यह तो एक आश्चर्य जनक घटना है। यदि इसके उल्लेख मात्र से इसे कल्याणक माना जाए तो फिर भगवान ऋषभदेव के भी 6 कल्याणक मानने पड़ेंगे। क्योंकि, आगम में लिखा है कि भगवान के पांच कार्य उत्तराषाढ़ा Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-2 (510) 467 नक्षत्र में और एक अभिजित नक्षत्र में हुआ। परन्तु इतना उल्लेख मिलने पर भी उनके 5 कल्याणक माने जाते हैं। क्योंकि ऐसे प्रसंग बात को कल्याणक नहीं माना जाता है। केवल नक्षत्र की समानता के कारण उसका साथ में उल्लेख कर दिया जाता है। प्रस्तुत सूत्र में 'उस काल और समय में' इन दो शब्दों का प्रयोग किया गया है। इसमें 'काल' चौथे आरे का बोधक है और समय' जिस समय भगवान गर्भ आदि में आए उस समय का संसूचक है। काल से पूरे युग का और समय से वर्तमान काल का परिज्ञान होता भग-संपन्न व्यक्ति को भगवान कहा गया है। भग शब्द के 14 अर्थ होते हैं१. अर्क, 2. ज्ञान, 3. महात्मा, 4. यश, 5. वैराग्य, 6. मुक्ति, 7. रुप, 8. वीर्य (शक्ति ), 9. प्रयत्न, 10. इच्छा, 11. श्री, 12. धर्म, 13. ऐश्वर्य और 14. योनि। इनमें प्रथम और अन्तिम (अर्क और योनि) दो अर्थो को छोड़कर शेष सभी अर्थ भगवान में संघटित होते हैं। 'हत्थुत्तरे' शब्द का अर्थ है जिस नक्षत्र के आगे हस्त नक्षत्र है उसे 'हत्थुत्तरे' नक्षत्र कहते हैं। गणना करने से उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र ही आता है। इस विषय को विस्तार से स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे का सूत्र कहते हैं...... I सूत्र // 2 // // 510 // समणे भगवं महावीरे इमाइ ओसप्पिणीए सुसमसुसमाए समाए वीइक्कंताए, सुसमाए समाए वीइक्कंताए, सुसमदुस्समाए समाए वीइक्कंताए, दूसमसुसमाए समाए बहु वीइक्कंताए पण्णहत्तरीए वासेहिं मासेहि य अद्धनवमेहिं सेसेहिं जे से गिम्हाणं चउत्थे मासे अट्ठमे पक्खे आसाढ सुद्धे तस्स णं आसाढ सुद्धस्स छट्ठीपक्खेणं हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं महाविजयसिद्धत्थ पुप्फुत्तरवरपुंडरीय दिशासोवत्थियवद्धमाणाओ महाविमाणाओ वीसं सागरोवमाइं आउयं पालइत्ता आउक्खएणं भवक्खएणं चुए, चइत्ता इह खलु जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे दाहिणड्ढभरहे दाहिणमाहणकुंडपुरसंनिवेसंमि उसभदत्तस्स माहणस्स कोडालसगोतस्स देवानंदाए माहणीए जालंधरसगुत्ताए सीहब्भवभूएणं अप्पाणेणं कुच्छिंसि गब्भं वक्कते। समणे भगवं महावीरे तिण्णाणोवगए यावि हुत्था चइस्सामित्ति जागइ चुएमित्ति जाणइ चयमाणे ण जाणड, सुहमे णं से काले पण्णत्ते। तओ णं समणे भगवं महावीरे हियाणुकंपएणं देवेणं जीयमेयंति कट्ट जे से वासाणं Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 468 2-3-2 (510) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन तच्चे मासे पंचमे पक्खे आसोयबहुले तस्स णं आसोयबहुलस्स तेरसीपक्खेणं हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं बासीहिं राइदिएहिं वइक्कंतेहिं तेसीइमस्स राइंदियस्स परियाए वट्टमाणे दाहिणमाहणकुंडपुरसंनिवेसाओ उत्तर खत्तिय कुंडपुरसंनिवेसंसि नायाणं खत्तियाणं सिद्धत्थस्स खत्तियस्स कासवगुत्तस्स तिसलाए खत्तियाणीए वासिट्ठसगुत्ताए असुभाणं पुग्गलाणं अवहारं करित्ता सुभाणं पुग्गलाणं पक्खेवं करित्ता कुच्छिंसि गब्भं साहरड़, जे वि य से तिसलाए खत्तियाणीए कुच्छिंसि गब्भे तंपि य दाहिणमाहणकुंडपुरसंनिवेसंसि उसभ० कोडाल० देवा० जालंधरायणगुत्ताए कुच्छिंसि गब्भं साहरइ। समणे भगवं महावीरे तिण्णाणोवगए यावि होत्था, साहरिज्जिस्सामित्ति जाणइ, साहरिज्जमाणे न याणड, साहरिएमित्ति जाणइ समाणाउसो ! / तेणं कालेणं तेणं समएणं तिसलाए खत्तियाणीए अहऽण्णया कयाइ नवण्हं समाणं बहुपडिपुण्णाणं अद्धट्ठमाण राइंदियाणं वीइक्कंताणं जे से गिम्हाणं पढमे मासे दुच्चे पक्खे चित्तसुद्धे तस्स णं चित्तसुद्धस्स तेरसीपक्खेणं हत्थु० जोग० समणं भगवं महावीरं अरोग्गा अरोग्गं पसूया। / जण्णं राइं तिसलाख० समणं० महावीरं अरोगा अरोग पसूया, तण्णं राई भवणवड़वाणमंतरजोइसियविमाणवासि देवेहिं देवीहि य उवयंतेहिं उप्पयंतेहिं य एगे महं दिव्वे देवुज्जोए देवसण्णिवाए देवकहक्कहए उप्पिंजलगभूए यावि हुत्था। जण्णं रयणिं० तिसलाख० समणं पसूया तण्णं रयणिं बहवे देवा य देवीओ य एगं महं अमयवासं च 1. गंधवासं च 2. चुण्णवासं च 3. पुप्पवासं च 4. हिरण्णवासं च 5. रयणवासं च 6. वासिंसु, जण्णं रयणं तिसलाख० समणं पसूया तण्णं रयणिं भवणवइवाणमंतरजोइसियविमाणवासिणो देवा य देवीओ य समणस्स भगवओ महावीरस्स सूइकम्माई तित्थयराभिसेयं च करिंसु / जओ णं पभिड भगवं महावीरे तिसलाए ख० कुच्छिंसि गब्भं आगए तओ णं पभिड तं कुलं विपुलेणं हिरण्णेणं सुवण्णेणं धणेणं धण्णेणं माणिक्केणं मुत्तिएणं संखसिलप्पवालेणं आईव अईव परिवड्ढड। तओ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अम्मापियरो एयमढे जाणित्ता निव्वत्तदसाहंसि वुक्कंतंसि सुडभूयंसि विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडाविंति, उवक्खडावित्ता मित्तणाइसयणसंबंधिवग्गं उवणिमंतिंति, मित्त० उवणिमंतित्ता बहवे समणमाहणकिवणवणीमगाहिं भिच्छुडगपंडरगाईण विच्छड्डंति विग्गोविंति विस्साणिति Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 2-3-2 (510) 469 दायारेसु दाणं परिभाइंति, विच्छड्डित्ता विग्गो० विस्साणित्ता दाया० परिभाइत्ता “मित्तणाइ० भुंजाविंति, मित्तणाइ० भुंजावित्ता मित्त० वग्गेण इयमेयारुवं नामधिज्जं कारविंति। जओ णं पभिड़ इमे कुमारे तिसला० खत्ति० कुच्छिंसि गब्भे आहूए तओ णं पभिड़ इमं कुलं विपुलेण हिरण्णेणं० संखसिलप्पवालेणं अतीव अतीव परिवड्ढड़, ता होउ णं कुमारे वद्धमाणे, तओ णं समणे भगवं महावीरे पंचधाइपरिवुडे, तं जहा- खीरधाईए 1. मज्जणधाईए 2. मंडणधाईए 3. खेलावणधाईए, 4. अंकधाईए 5. अंकाओ अंकं साहरिज्जमाणे रम्मे मणिकुट्टिमतले गिरिकंदरसमुल्लीणे विव चंपयपायवे अहाणुपुदीए संवड्ढड। तओ णं समणे भगवं महावीरे विण्णायपरिणयविणियत्तबालभावे अप्पुस्सुयाई उरालाई माणुस्सगाई पंचलक्खणाई कामभोगाई सद्दफरिसरसरुवगंधाइं परियारेमाणे एवं च णं विहरइ // 510 // . II संस्कृत-छाया : * श्रमणः भगवान् महावीरः अस्यां अवसर्पिण्यां सुषमसुषमायां समायां व्यतिक्रान्तायां; सुषमायां समायां व्यतिक्रान्तायां सुषमदुःषमायां समायां व्यतिक्रान्तायां दुःषमसुषमयां समायां बहुव्यतिक्रान्तायां पञ्चसप्तति-वर्षेषु मासेषु च अद्धनवमेषु शेषेषु यः असौ ग्रीष्मस्य चतुर्थः मासः अष्टमः पक्ष: आषाढशुद्धः, तस्य आषाढ शुद्धस्य षष्ठी-पक्षण (दिवसेण) हस्तोत्तराभि:नक्षत्रेण योगं उपागतेन महाविजय सिद्धार्थपुष्पोत्तरवरपुण्डरीकदिक्-स्वस्तिक-वर्द्धमानात् महाविमानात् विंशतिसागरोपमाणि आयुष्कं पालयित्वा आयुःक्षयेण स्थितिक्षयेण भवक्षयेण च्युतः, च्युत्वा इह खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे दक्षिणार्धभरते दक्षिणब्राह्मणकुण्डपुरसंनिवेशे ऋषभदत्तस्य ब्राह्मणस्य कोडालगोत्रस्य देवानन्दायाः ब्राह्मण्या: जालन्धरगोत्रायाः सिंहोद्भवभूतेन आत्मना कुक्षौ गर्भे व्युत्क्रान्तः / श्रमण: भगवान् महावीर: त्रिज्ञानोपगतः च अपि अभवत्, च्योष्ये इति जानाति, च्युतः अस्मि इति जानाति, च्यवमानः इति न जानाति, सूक्ष्म सः काल, प्रज्ञप्तः / ततः श्रमणः भगवान् महावीरः हितानुकम्पकेन देवेन जीतं एतत् इति कृत्वा यः सः वर्षाणां तृतीयः मासः, पञ्चमः पक्ष: अश्विन-कृष्णः, तस्य अश्विन कृष्णस्य त्रयोदशी- . पक्षेण हस्तोत्तराभिः नक्षत्रेण योगमुपागतेन द्वयशीति-रात्रिंदिवसेषु व्यतिक्रान्तेषु यशीतितमस्य रात्रिंदिवसस्य पर्याये वर्तमाने सति दक्षिणब्राह्मणकुण्डपुरसंनिवेशात् Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 470 2-3-2 (510) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन उत्तरक्षत्रियकुण्डपुरसंनिवेशे ज्ञातानां क्षत्रियाणां सिद्धार्थस्य क्षत्रियस्य काश्यपगोत्रस्य त्रिशलायाः क्षत्रियाण्याः वाशिष्ठगोत्रायाः अशुभानां पुद्गलानां अपहारं कृत्वा शुभानां पुद्गलानां प्रक्षेपं कृत्वा कुक्षौ गर्भ: समाहरति, यः अपि च तस्याः त्रिशलाया: क्षत्रियाण्याः कुक्षौ गर्भः, तं अपि च दक्षिण ब्राह्मणकुण्डपुरसंनिवेशे ऋषभदत्तस्य कोडालगोत्रस्य देवानन्दायाः ब्राह्मण्या: जालन्धरगोत्रायाः कुक्षौ गर्भ समाहरति (मुञ्चति)। श्रमणः भगवान् महावीरः त्रिज्ञानोपगतः च अपि अभवत्, समाहरिष्ये इति जानाति, समाह्रियमाणः न जानाति, समाहृतः अस्मि इति च जानाति श्रमणायुष्मान् / तस्मिन् काले तस्मिन् समये त्रिशलायाः क्षत्रियाण्याः अथ अन्यदा कदाचित् नवसु मासेषु बहुप्रतिपूर्णेषु अर्धाष्टमरात्रिंदिवसेषु व्यतिक्रान्तेषु सत्सु, यः सः ग्रीष्मस्य प्रथमः मासः, द्वितीय: पक्षः, चैत्रशुद्धः, तस्य चैत्रशुक्लस्य त्रयोदशी-पक्षेण हस्तोत्तराभिः नक्षत्रेण योगमुपागतेन श्रमणं भगवन्तं महावीरं आरोग्या (त्रिशला क्षत्रियाणी) अरोगं प्रसूता। यस्यां रात्रौ त्रिशला क्षत्रियाणी श्रमणं भगवन्तं महावीरं अरोगा (त्रिशला) अरोगं पुत्रं प्रसूता, तस्यां रात्रौ भवनपतिवानव्यन्तरज्योतिष्क-(वैमानिक) विमानवासिदेवैः देवीभिश्च अवपतद्भिः देवसन्निपात: देवकहकहकः उत्पिजलकभूतश्च अपि अभवत् / यस्यां रात्रौ (रजन्यां) त्रिथला क्षत्रियाणी श्रमणं भगवन्तं महावीरं प्रसूता, तस्यां रजन्यां बहवः देवाः च देव्यश्च एकं महत् अमृतवर्षं च गन्धवर्षं च, चूर्णवर्षं च, पुष्पवर्ष च, हिरण्यवर्षं च रत्नवर्षं च अवर्षयन् / यस्यां रजन्यां त्रिशला क्षत्रियाणी श्रमणं भगवन्तं महावीरं प्रसूता तस्यां रजन्यां भवनपति-वानव्यन्तर-ज्योतिष्क-विमानवासिनः देवाश्च देव्यश्च श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य सूतिकर्माणि तीर्थकराभिषेकं च अकार्षुः / यतः प्रभृति भगवान् महावीर: त्रिशलायाः क्षत्रियाण्याः कुक्षौ गर्भ-स्वरूपेण आगतः, ततः प्रभृति तत् कुलं विपुलेन हिरण्येन सुवर्णेन धनेन धान्येन माणिक्येन मौक्तिकेन शंखशिला-प्रवालेन अतीव अतीव परिवर्धते। ततः श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अम्बा-पितरौ एतदर्थं ज्ञात्वा निवृत्तदशाहे व्युत्क्रान्ते शुचीभूते सति विपुलं अशन-पान-खादिम-स्वादिमं उपस्कारयन्ति, उपस्कार्य मित्र ज्ञाति स्वजन सम्बन्धिवर्ग उपनिमन्त्रयन्ति, मित्रज्ञातिस्वजनसम्बन्धिवर्ग उपनिमन्य बहून् श्रमण-ब्राह्मण-कृपण-वनीपकान् भिक्षोण्डुक-पण्डरकादीन् विच्छर्दयन्ति विगोपयन्ति विश्राणयन्ति, दातृषु दानं परिभाजयन्ति, विच्छर्य वियोप्य विश्राण्य दातृषु परिभाज्य मित्रज्ञातिस्वजनसम्बन्धिवर्ग भोजयन्ति, मित्रज्ञाति० वर्ग Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-2 (510) 471 भोजयित्वा मित्रज्ञाति० वर्गेण इदमेतत्-रुपं नामधेयं कारयन्ति / यत: प्रभृति अयं कुमारः तिशलाया: क्षत्रियाण्याः कुक्षौ गर्भ: आहुतः, ततः प्रभृति इदं कुलं विपुलेन हिरण्येन सुवर्णेन धनेन धान्येन माणिक्येन मौक्तिकेन शङ्ख शिलाप्रवालेन अतीव अतीव परिवर्धते, तस्मात् भवतु कुमारः वर्धमानः / . ततः श्रमणः भगवान् महावीरः पधधात्रीपरिवृतः, तद्यथा-क्षीरधाम्या 1. मज्जनधाच्या 2. मण्डनधात्र्या 3. क्रीडनधात्र्या 4. अङ्कधाञ्या 5. अङ्काद्अङ्क समाहियमाण: रम्ये मणिकुट्टिमतले गिरिकन्दरसलीनः इव चम्पकपादप: यथानुपुर्व्या संवर्धते। ततः श्रमणः भगवान् महावीरः विज्ञातपरिणतः विनिवृत्तबाल्यभावः अल्पौत्सुक्यान् उदारान् मानुष्यकान् पचलक्षणान. कामभोगान् शब्द-स्पर्श-रस-रुपगन्धान् परिचरन् एवं च विहरति // 510 / / III सूत्रार्थ : श्रमण भगवान महावीर इस अवसर्पिणी काल के सुषम-सुषम नामक आरक, सुषम आरक, सषम-दुषम आरक के व्यतीत होने पर और दुषम-सुषम आरक के बहु व्यतिक्रान्त होने पर, केवल 75 वर्ष, साढ़े आठ मास शेष रहने पर ग्रीष्म ऋतु के चौथे मास, आठवें पक्ष आषाढ़ शुक्ला षष्ठी की रात्री को उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर, महाविजय सिद्धार्थ, पुष्पोत्तर वर पुण्डरीक, दिक्रस्वस्तिक, वर्धमान नाम के महाविमान से वीस सागरोपम की आयु को पूरी करके देवायु, देवस्थिति और देव भव का क्षय करके, इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र के दक्षिणार्द्ध भारत के दक्षिण ब्राह्मण कुन्ड पुर सन्निवेश में कुडाल गोत्रीय ऋषभदत्त ब्राह्मण की जलन्धरगोत्रीय देवानन्दा नाम की ब्राह्मणी की कुक्षि में सिंह की तरह गर्भ रुप में उत्पन्न हुए। श्रमण भगवान महावीर तीन ज्ञान (मतिज्ञान श्रुतज्ञान और अवधि ज्ञान) से युक्त थे वे यह जानते थे कि मैं स्वर्ग से च्यवकर मनुष्य लोक में जाऊंगा, मैं वहां से च्यव कर अब गर्भ में आ गया हूं। परन्तु वे च्यवन समय को नहीं जानते थे। क्योंकि वह समय अत्यन्त सूक्ष्म होता है। देवानन्दा ब्राह्मणी के गर्भ में आने के बाद श्रमण भगवान महावीर के हित और अनुकंपा करने वाले देवने, यह जीत आचार है। ऐसा कहकर वर्षाकाल के तीसरे मास, पांचवें पक्ष अर्थात्-आश्विन कृष्णा त्रयोदशी के दिन उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर 82 रात्रिदिन के व्यतीत होने और 83 वें दिन की रात को दक्षिण ब्राह्मण कुण्ड Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 472 2-3-2 (510) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन पुर संनिवेश से, उत्तर क्षत्रिय कुण्ड पुर सन्निवेश में ज्ञातवंशीय क्षत्रियों में प्रसिद्ध काश्यपगोत्री सिद्धार्थ राजा की वासिष्ठ गोत्र वाली पत्नी त्रिशला महाराणी के अशुभपुद्गलों को दूर करके उनके स्थान में शुभ पुद्गलों का प्रक्षेपण करके उसकी कुक्षि में गर्भ को रखा, और जो त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षी में गर्भ था उसको दक्षिण ब्राह्मण कुण्डपुर सन्निवेश में जाकर कोडालगोत्रीय ऋषभ दत्त ब्राह्मण की जालन्धर गोत्रवाली देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षी में स्थापित किया। हे आयुष्मन् श्रमणो ! श्रमण भगवान महावीर स्वामी गर्भावास में तीन ज्ञान, मति श्रुत अवधि-से युक्त थे। मैं इस स्थान से संहरण किया जाऊंगा, और मैं संहृत किया जा चुका हूं। यह सब जानते थे। किंतु संहरण काल नहि जानतें थे..... उस काल और उस समय में त्रिशला क्षत्रियाणी ने जब नव मास साढ़े सात अहोरात्र के व्यतीत होने पर ग्रीष्म ऋतु के प्रथम मास के द्वितीय पक्ष में अर्थात् चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर श्रमण भगवान महावीर को सुख पूर्वक जन्म दिया। जिस रात्रि में रोग रहित त्रिशला क्षत्रियाणी ने रोग रहित श्रमण भगवान महावीर को जन्म दिया उस रात्रि में भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों और देवियों के स्वर्ग से आने और मेरुपर्वत पर जाने से एक महान तथा प्रधान देवोद्योत और देव सन्निपात के कारण महान कोलाहल और मध्य एवं उर्ध्व लोक में उद्योत हो रहा था।' जिस रात्रि में त्रिशला क्षत्रियाणी ने श्रमण भगवान महावीर को जन्म दिया, उसी रात्रि में बहुत से देव और देवियों ने अमृत, सुगन्धित पदार्थ, चूर्ण, चान्दी, स्वर्ण और रत्नों की बहुत भारी वर्षा की। जिस रात्रि में त्रिशला क्षत्रियाणी ने श्रमण भगवान महावीर को जन्म दिया, उसी रात्रि में भवन पति, वाणव्यन्तर ज्योतिषी और वैमानिक देव और देवियों ने श्रमण भगवान महावीर का शुचि कर्म और तीर्थंकराभिषेक किया। जिस रात को श्रमण भगवान महावीर त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्ष में आए उसी समय से उस ज्ञातवंशीय क्षत्रिय कुल में हिरण्यचांदी, स्वर्ण, धन, धान्य, माणिक, मोती, शंखशिला और प्रवालादि की अभिवृद्धि होने लगी। श्रमण भगवान महावीर के जन्म के ग्यारहवें दिन शुद्धि हो जाने पर उनके माता पिता ने विपुल अशन, पान, खादिम, और स्वादिम पदार्थ बनवाए और अपने मित्र, ज्ञाति, स्वजन और सम्बन्धि वर्ग को निमंत्रित किया और बहुत से शाक्यादि श्रमण, ब्राह्मण, कृपण, वनीपक तथा अन्य तापसादि भिक्षुओं को भोजनादि, पदार्थ दिए अपने Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-2 (510) 473 मित्र, ज्ञाति, स्वजन और सम्बन्धि वर्ग को प्रेमपूर्वक भोजन कराया। भोजन आदि कार्यो से - निवृत्त होने के पश्चात् उनके सामने कुमार के नामकरण का प्रस्ताव रखते हुए सिद्धार्थ ने बताया कि यह बालक जिस दिन से त्रिशलादेवी की कुक्षि में गर्भ रुप से आया है तब से हमारे कुल में हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, माणिक, मोती, शंख, शिला और प्रवालादि पदार्थो की अत्याधिक वृद्धि हो रही है। अतः इस कुमार का गुण सम्पन्न ‘वर्धमान' नाम रखते है। जन्म के बाद भगवान महावीर का पांच धाय माताओं के द्वारा लालन-पालन होने लगा। दूध पिलाने वाली धाय माता, स्नान करानेवाली धाय माता, वस्त्रालंकार पहनाने वाली धाय माता, क्रीडा करानेवाली और गोद खिलाने वाली धाय माता, इन 5 धाय माताओं की गोद में तथा मणिमंडित रमणीय आंगन प्रदेश में खेलने लगे और पर्वत गुफा में स्थित चम्पक वृक्ष की तरह विघ्न बाधाओं से रहित होकर यथाक्रम बढ़ने लगे। उसके पश्चात् ज्ञान-विज्ञान संपन्न भगवान महावीर बाल भाव को त्याग कर युवावस्था में प्रविष्ट हुए और मनुष्य सम्बन्धि उदार शब्द, स्पर्श, रस, रुप और गन्धादि से युक्त पांच प्रकार के काम भोगों का उदासीन भाव से उपभोग करते हुए विचरने लगे। IV टीका-अनुवाद : सूत्रार्थ पाठ सिद्ध होने से टीका नहि है...... सूत्रसार: इस सूत्र में बताया गया है कि भगवान महावीर अवसर्पिणी काल के चतुर्थ आरक के 75 वर्ष साढ़े आठ महीने शेष रहने पर ऋषभदत्त ब्राह्मण की पत्नी देवानन्दा की कुक्षि में आएं। यहां काल चक्र के सम्बन्ध में कुछ उल्लेख किया गया है। यह हम देखते हैं कि काल (समय) सदा अपनी गति से चलता है। और समय के साथ इस क्षेत्र में (भरत क्षेत्र में) परिस्थितियों एवं प्रकृति में भी कुछ परिवर्तन आता है। कभी प्रकृति में विकास होता है, तो कभी ह्रास होता है। जिस काल में प्रकृति उत्थान से ह्रास की ओर गतिशील होती है उस काल को अवसर्पिणी काल कहते हैं और जिसमें प्रकृति ह्रास से उन्नति की ओर बढ़ती है उसे उत्सर्पिणी काल कहते हैं। प्रत्येक काल चक्र में एक उत्सर्पिणी और एक अवसर्पिणी काल होता है और वे प्रत्येक 6-6 आरक में विभक्त है और 10 कोटा-कोटी (10 करोड़ x एक करोड़) सागरोपम का होता है। इस तरह पूरा काल चक्र 20 कोटा कोटी सागरोपम का होता है। भगवान महावीर अवसर्पिणी कालचक्र के चौथे आरे के—जो 42 हजार वर्ष कम एक कोटा कोटी सागर का है, 75 वर्ष 8 // महीने शेष रहने पर प्राणत नामक 10 वें स्वर्ग के-महाविजय, सिद्धार्थ वर पुण्डरीक, दिक्स्वस्तिक और वर्द्धमान नामक विमान से, अपने Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 474 2-3-2 (510) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आयुष्य को पूरा करके भारतवर्ष के दक्षिण ब्राह्मण कुण्डपुर में ऋषभदत्त ब्राह्मण की पत्नी देवानन्दा की कुक्षि में उत्पन्न हुए। प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि भगवान महावीर गर्भ में आए उस समय तीन ज्ञान से युक्त थे-१. मतिज्ञान, 2. श्रुत ज्ञान और 3. अवधि ज्ञान / मति और श्रुत ज्ञान मन और इन्द्रियों की सहायता से पदार्थों का ज्ञान कराता है। परन्तु, अवधि ज्ञान में मन और इन्द्रियों के बिना सहयोग के ही आत्मा मर्यादित क्षेत्र में स्थित रुपी पदार्थों को जान और देख सकता है। भगवान महावीर को भी स्वर्ग में एवं जिस समय गर्भ में आए तब से लेकर गृहस्थ अवस्था में रहे तब तक तीन ज्ञान थे। वे स्वर्ग के आयुष्य को पूरा करके मनुष्य लोक में आने के समय को जानते थे और गर्भ में आने के बाद भी वे इस बात को जानते थे कि मैं स्वर्ग से यहां आ गया हूँ। परन्तु जिस समय वे स्वर्ग से च्युत हो रहे थे उस समय को नहीं जान रहे थे। क्योंकि यह काल बहुत ही सूक्ष्म होता है, ऋज़ गति में एक समय लगता है और वक्रगति में आत्मा जघन्य दो और उत्कृष्ट 4 समय में अपने स्थान पर पहुंच जाता है और इतने सूक्ष्म समय में छद्यस्थ के ज्ञान का उपयोग नहीं लगता। अतः च्यवन के समय वे अपने ज्ञान का। उपयोग नहीं लगा सकते थे। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान गर्भ काल में तीन ज्ञान से युक्त थे। प्रस्तुत सूत्र में भगवान महावीर के गर्भ को स्थानान्तर में रखने का वर्णन किया गया है। 82 दिन तक भगवान महावीर देवानन्दा के गर्भ में रहे थे। उसके बाद ब्राह्मण कुल को तीर्थंकरों के जन्म योग्य न जानकर इन्द्र की आज्ञा से भगवान महावीर के एक हितचिन्तक देव ने उन्हें देवानन्दा के गर्भ से निकाल कर त्रिशला के गर्भ में रख दिया। यह घटना आश्चर्यजनक अवश्य है, परन्तु असम्भव नहीं है। आज भी हम देखते हैं कि वैज्ञानिक आप्रेशन के द्वारा गर्भ का परिवर्तन करते हैं और इस क्रिया में गर्भ का नाश नहीं होता है। एक गर्भ स्थान से स्थानान्तरित किए जाने पर भी उसका विकास रुकता नही: है। और भगवान महावीर के गर्भ का परिवर्तन करने का वर्णन आगमों में अनेक जगह मिलता है। भगवती सूत्र में देवानन्दा ब्राह्मणी के सम्बन्ध में गौतम के द्वारा पूछे गए प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि यह मेरी माता है। इसके अतिरिक्त कल्प सूत्र में गर्भ संहारण के संबन्ध में विस्तार से वर्णन किया गया है। और कल्प सूत्र में वर्णित वीर वाचना (महावीर के चरित्र) का आधार आचारांग का प्रस्तुत अध्ययन ही है। कल्प सूत्र के कई पाठ आचाराङ्ग के पाठ से अक्षरशः मिलते हैं। और विषय का साम्य तो प्रायः सर्वत्र मिलता ही है। इस से ऐसा प्रतीत होता है कि आचारांग के प्रस्तुत अध्ययन का कल्प सूत्र में कुछ विस्तार से वर्णन किया गया है। और समवायांग सूत्र में उत्तम पुरुषों का वर्णन प्रारम्भ करते Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 2-3-2 (510) 475 हुए कल्प सूत्र का उल्लेख किया गया है, इससे कल्पसूत्र की रचना का आधार आगम ही 'प्रतीत होते है। इस तरह हम कह सकते हैं कि आगमों में अनेक स्थलों पर गर्भ संहरण का उल्लेख प्राप्त होने के कारण इस घटना को घटित होने में सन्देह को अवकाश नहीं है... प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि भगवान महावीर गर्भावास में मतिश्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानों से युक्त थे। वे अपने अवधिज्ञान से यह जानते थे कि मेरे गर्भ का संहरण किया जाएगा और त्रिशला की कुक्षि में रखने के बाद भी जानते थे कि मुझे देवानन्दा की कुक्षि से यहां लाया गया है इस तरह वे अपने गर्भ संहरण के सम्बन्ध में हुई समस्त क्रियाओं को जानते थे। किंतु संहरण काल को नहि जानते थें। इस प्रसंग पर यह प्रश्न हो सकता है कि गर्भ का संहरण करते समय गर्भ को कोई कष्ट तो नहीं होता ? आगम में इसका स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि इस क्रिया से गर्भ को कोई कष्ट नहीं हुआ। यह क्रिया देव द्वारा निष्पन्न हुई थी, इसलिए गर्भस्थ जीव को बिल्कुल त्रास नहीं पहुंचा। उसे सुख पूर्वक एक गर्भ से दूसरे गर्भ में स्थानान्तरित कर दिया गया। प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि ग्रीष्म ऋतु के प्रथम मास और द्वितीय पक्ष अर्थात् चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में त्रिशला महाराणी ने बिना किसी प्रकार की पीड़ा के, सुख पूर्वक बाधा-पीड़ा से रहित पुत्र को जन्म दिया। भगवान के जन्म के समय माता एवं पुत्र को कोई कष्ट नहीं हुआ। दोनों स्वस्थ, नीरोग एवं प्रसन्न थे। ___ प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि भगवान के जन्म से भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक चारों जाति के देवों के मन में हर्ष एवं उल्लास छा गया और वे प्रसन्नता पूर्वक भगवान का जन्मोत्सव मनाने को आने लगे। उन देव देवियों के रत्न-जडित विमानों की ज्योति एवं मधुर ध्वनि से वह रात्रि ज्योतिर्मय हो गई और चारों ओर मधुर ध्वनि सुनाई देने लगी। प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि भगवान महावीर के जन्म पर हर्ष विभोर होकर देवो ने अमृत, सुवासित पदार्थ, पुष्प, चांदी, स्वर्ण एवं रत्नों आदि की वर्षा की। उन्होंने उस क्षेत्र को सुवासित एवं रत्नमय बना दिया। महान् आत्माओं के प्रबल पुण्य से यह सब संभव हो सकता है। प्रस्तुत सूत्र में भगवान के जन्मोत्सव का उल्लेख किया गया है। भगवान का जन्म होने पर 56 दिशा कुमारियों ने भगवान का शुचि कर्म किया और 64 इन्द्रों ने भगवान को मेरु पर्वत के पाण्डुक वन में ले जाकर उनका जन्म अभिषेक किया। इसका विस्तृत वर्णन जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में किया गया है और उसी के आधार पर कल्पसूत्र में भी उल्लेख किया Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 476 2-3-2 (510) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन गया है। प्रस्तुत सूत्र में तो केवल प्रासंगिक संकेत रुप से उल्लेख किया गया है। कुछ प्रतियों में "सूइकम्माई' के स्थान पर “कोतुगभूति कम्माई' पाठ उपलब्ध होता है। जिसका अर्थ है-देव-देवियों ने विभिन्न मांगलिक कार्य किए। प्रस्तुत सूत्र में भगवान महावीर के नामकरण का उल्लेख किया गया है। भगवान के जन्म के दस दिन के पश्चात शुद्धि कर्म किया गया और अपने स्नेही-स्वजनों को बुलाकर उन्हें भोजन कराया और अनेक श्रमण-ब्राह्मणों एवं भिक्षुओं को भी यथेष्ट भोजन दिया गया। उसके बाद सिद्धार्थ राजा ने ज्ञातिजनों को यह बताया कि इस बालक के गर्भ में आते ही हमारे कुल में धन-धान्य आदि की वृद्धि होती रही है। अतः इसका नाम 'वर्द्धमान' रखते हैं। प्रस्तुत सूत्र में केवल गुण संपन्न नाम देने का उल्लेख किया गया है। परन्तु नाम करण की परम्परा का अनुयोगद्वार सूत्र में विस्तार से विवेचन किया गया है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि नाम संस्कार की परम्परा बहुत प्राचीन काल से चली आ रही है। भगवान महावीर के माता-पिता भगवान पार्श्वनाथ के श्रावक थे। फिर भी उन्होंने अन्य मत के श्रमण भिक्षुओं आदि को बुलाकर दान दिया। इससे स्पष्ट होता है कि आगम में गृहस्थ के लिए अनुकम्पा दान आदि निषेध नहीं किया गया है। गृहस्थ का द्वार बिना किसी भेद भाव के सब के लिए खुला रहता है। वह प्रत्येक प्राणी के प्रति दया एवं स्नेह भाव रखता है। प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि भगवान सुख पूर्वक बढ़ने लगे। उनके लालनपालन के लिए 5 धाय माताएं रखी हुई थीं। दूध पिलाने वाली, स्नान कराने वाली, वस्त्रालंकार पहनाने वाली, क्रीड़ा कराने वाली और गोद में खिलाने वाली, इन विभिन्न धाय माताओं की गोद में आमोद-प्रमोद से खेलते हुए भगवान ने बाल भाव का त्याग कर यौवन वय में कदम रखा। भगवान ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न थे। अतः प्राप्त भोगों में भी वे आसक्त नहीं हुए। वे शब्द, रस स्पर्श आदि भोगों का उदासीन भाव से उपभोग करते थे। इस कारण वे संक्लिष्ट कर्मो का बन्धन नहीं करते थे। क्योंकि भोगों के साथ जितनी अधिक आसक्ति होती है, कर्म बन्धन भी उतना ही प्रगाढ़ होता है। भगवान उदासीन भाव से रहते थे, अतः उन का कर्म बन्धन भी शिथिल ही होता था। . अब भगवान के गुण निष्पन्न नाम एवं उनके परिवार का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे का सूत्र कहते हैं... Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-3 (511) 477 I सूत्र || 3 || // 511 // समणे भगवं महावीरे कासवगुत्ते, तस्स णं इमे तिण्णि नामधिज्जा एवमाहिज्जंति, तं जहा- अम्मापिउसंति वद्धमाणे 1. सहसंमुइए समणे 2. भीमं भयभेरवं उरालं अचलयं परीसहसहत्तिकट्ठ देवेहिं से नामं कयं समणे भवगं महावीरे 3. / समणस्स णं भगवओ महावीरस्स पिया कासवगुत्तेणं, तस्स णं तिण्णि नाम० तं० सिद्धत्थेड़ वा, सिज्जंसेड़ वा, जसंसेइ वा। समणस्स णं० अम्मा वासिट्ठस्सगुत्ता, तीसे णं तिण्णि नाम० तं०-तिसलाइ वा विदेहदिण्णाइ वा, पियकारिणीइ वा। समणस्स णं भग० पित्तिअए सुपासे कासवगुत्तेणं, समण जिढे भाया नंदिवद्धणे कासवगुत्तेणं, समणस्स णं जेट्ठा भइणी सुदंसणा कासवगुत्तेणं, समणस्स णं भग० भज्जा जसोया कोडिण्णागुत्तेणं। . समणस्स णं धूया कासवगुत्तेणं, तीसे णं दो नामधिज्जा० अणुज्जाइ वा पियदंसणाइ वा। समणस्स णं भग० णत्तूई कोसियागुत्तेणं तीसे णं दो नाम० सेसवईड वा जसवईइ वा // 511 / / / II संस्कृत-छाया : श्रमण: भगवान् महावीरः काश्यपगोत्रः, तस्य इमानि श्रीणि नामधेयानि एवं आख्यायन्ते, तद्यथा-अम्बा-पितृसत्कं वर्द्धमानः 1, सहसमुदितं श्रमणः 2, भीमं भयभैरवं उदारं अचलं परीषहसहः इति कृत्वा देवैः तस्य नाम कृतं श्रमणः भगवान् महावीरः 3. श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य पिता काश्यपगोत्रेण, तस्य त्रीणि नामधेयानि, तद्यथा सिद्धार्थः इति वा श्रेयांसः इति वा यशस्वी इति वा। श्रमणस्य० अम्बा वाशिष्ठगोत्रा, तस्याः त्रीणि नामधेयानि, तद्यथा-त्रिशला इति वा विदेहदिन्ना इति वा प्रियकारिणी इति वा। श्रमणस्य० पितृव्यः सुपार्थः, काश्यपगोत्रेण, श्रमणस्य० ज्येष्ठ-भ्राता नन्दिवर्धन: Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 478 2-3-3 (511) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन काश्यपगोत्रेण, श्रमणस्य० ज्येष्ठा-भगिनी सुदर्शना काश्यपगोत्रेण, श्रमणस्य० दुहिता काश्यपगोत्रेण, तस्याः द्वे नामधेये, तद्यथा-अनोद्या इति वा प्रियदर्शना इति वा / श्रमणस्य० नप्तृकी (दोहित्री) कौशिकगोत्रेण, तस्याः द्वे नामधेये, तद्यथा शेषवती इति वा यशस्वती इति वा // 511 // III सुत्रार्थ : काश्यपगोत्रीय श्रमण भगवान् महावीर के इस प्रकार से तीन नाम कहे गये हैंमाता पिता का दिया हुआ वर्द्धमान, स्वाभाविक समभाव होने से श्रमण और अत्यन्त भयोत्पादक परीषहों के समय अचल रहने एवं उन्हें समभाव पूर्वक सहन करने से देवों के द्वारा प्रतिष्ठित महावीर। श्रमण भगवान महावीर के काश्यपगोत्रीय पिता के सिद्धार्थ, श्रेयांस और यशस्वी ये तीन नाम थे। श्रमण भगवान महावीर की वासिष्ठ गोत्र वाली माता के त्रिशला, विदेहदत्ता और प्रियकारिणी ये तीन नाम थे / श्रमण भगवान महावीर के पितृव्य-पिता के भाई का नाम सुपार्श्व था, श्रमण भगवान महावीर स्वामी के काश्यपगोत्री ज्येष्ठ भ्राता का नाम नन्दीवर्द्धन था। भगवान की ज्येष्ठ भगिनी का नाम सुदर्शना था। भगवान की भार्या (कि कौडिन्य गोत्रवाली थी) का नाम यशोदा था। भगवान की पुत्री के अनोजा और प्रियदर्शना ये दो नाम कहे जाते हैं तथा श्रमण भगवान महावीर की दौहित्री (कौशिक गोत्र था) शेषवती और यशवती ये दो नाम थे। IV टीका-अनुवाद : सुत्रार्थ पाठसिद्ध होने से टीका नहिं है..... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में भगवान के नाम एवं परिवार का परिचय दिया गया है। भगवान के वर्द्धमान, श्रमण और महावीर इन तीन नामों का उल्लेख किया गया है वर्द्धमान नाम मातापिता द्वारा दिया गया था। और दीक्षा ग्रहण करने के बाद भगवान की समभाव पूर्वक तपश्चर्या करने की प्रवृत्ति थी, उससे उन्हें श्रमण कहा गया और देवों द्वारा दिए गए घोर परीषहों में भी वे आत्म चिन्तन से विचलित नहीं हुए तथा उन्हें समभाव पूर्वक सहते रहे, इससे उन्हें महावीर कहा गया। आगमों एवं जन साधारण में उनका यही नाम अधिक प्रचलित रहा है। और आज भी वे महावीर के नाम से संसार में विख्यात है। भगवान महावीर के पिता के तीन नाम थे-सिद्धार्थ, श्रेयांस और यशस्वी। उनकी माता के त्रिशला, विदेहदत्ता और प्रियकारिणी ये तीन नाम थे। उनके पिता के भाई का नाम सुपार्श्व था और उनके बड़े भाई का नाम नंदीवर्द्धन था। उनके सुदर्शना नाम की एक ज्येष्ठ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी-टीका 2-3-4 (512) 479 बहन थी। उनकी पत्नी का नाम यशोदा था। उनकी पुत्री के अनोजा और प्रियदर्शना ये दो नाम थे, जिसका विवाह जमाली के साथ किया गया है। उनके एक दौहित्री भी थी, जिसके शेषवती और यशवती ये दो नाम थे। इस तरह से भगवान महावीर का विशाल परिवार था। ___ अब उनके माता-पिता के सम्बन्ध में कुछ बातों का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे के सूत्र से कहते है 1 सूत्र // 4 // // 512 // समणस्स णं, अम्मापियरो पासावच्चिज्जा समणोवासगा यावि हुत्था, ते णं बहूई वासाइं समणोवासगपरियागं पालइत्ता छण्हं जीवनिकायाणं सारक्खणनिमित्तं आलोइत्ता निंदित्ता गरिहित्ता पडिक्कमित्ता अहारिहं उत्तरगुणपायच्छित्ताइं पडिवज्जित्ता कुससंथारगं दुरूहित्ता भत्तं पच्चक्खायंति, भत्तं पच्चक्खाइत्ता अपच्छिमाए मारणंतियाए संलेहणाए झुसियसरीरा कालमासे कालं किच्चा तं सरीरं विप्पजहित्ता अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववण्णा, तओ णं आउखएगं भव० ठि० चुए, चइत्ता महाविदेहे वासे चरमेणं उस्सासेणं सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिणिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति // 512 // II संस्कृत-छाया : श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अम्बापितरौ पाश्र्थापत्ये श्रमणोपासको चाऽपि अभवेताम्, तौ च बहूनि वर्षाणि श्रमणोपासकपर्यायं पालयित्वा षण्णां जीवनिकायानां संरक्षणनिमित्तं आलोच्य, निन्दित्वा गर्हित्वा प्रतिक्रम्य यथार्ह उत्तरगुणप्रायश्चित्तानि प्रतिपद्यं कुशसंस्तारकं दूरुह्य भक्तं प्रत्याख्यातः, भक्तं प्रत्याख्याय अपश्चिमया मारणान्तिकया संलेखनया क्षीणशरीरौ कालमासे कालं कृत्वा तत् शरीरं विप्रहाय अच्युते कल्पे देवतया उत्पन्नौ, ततश्च आयुःक्षयेण भवक्षयेण स्थितिक्षयेण च्युतः, च्यवित्वा महाविदेहे वर्षे चरमेण उच्छ्वासेन सेत्स्यतः भोत्स्यत, मोक्ष्यतः परिनिर्वास्यतः सर्वदुःखानां अन्तं करिष्यतः // 512 // III सूत्रार्थ : श्रमण भगवान महावीर स्वामी के माता पिता भगवान पार्श्वनाथ के साधुओं के श्रमणोपासक-श्रावक थे। उन्होंने बहुत वर्षो तक श्रावक धर्म का पालन करके 6 (षट्) जीवनिकाय की रक्षा के निमित्त आलोचना करके, आत्म-निन्दा और आत्मगहीं करके पापों से प्रतिक्रमण कर के-पीछे हटकर के, मूल और उत्तर गुणों की शुद्धि के लिए प्रायश्चित ग्रहण करके, कुशा के आसन पर बैठकर, भक्त प्रत्याख्यान नामक अनशन को स्वीकार किया। Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 480 2-3-4 (512) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन और अन्तिम मरिणान्तिक शारीरिक संलेखना द्वारा शरीर को सूखाकर अपनी आयु पूरी करके उस औदारिक शरीर को छोड़ कर अच्यत नामक 12 वे देबलोक में देव स्वरूप से उत्पन्न हुए। तदनन्तर वहां से देव सम्बन्धि आयु, भव और स्थिति को क्षय करके वहां से च्यवकर महाविदेह क्षेत्र में चरम श्वासोच्छ्वास द्वारा सिद्ध-बुद्ध मुक्त एवं परिनिर्वृत होंगे और सर्वप्रकार के दुःखों का अन्त करेंगे। IV टीका-अनुवाद : सूत्रार्थ पाठसिध्ध होने से टीका नहि है..... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि भगवान महावीर के माता-पिता जैन श्रावक थे, वे भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के उपासक थे। इससे स्पष्ट होता है कि- भगवान महावीर के पूर्व भी जैन धर्म का अस्तित्व था। अतः भगवान महावीर जैनधर्मक संस्थापक नहीं, प्रत्युत जैन धर्म के पुनरूद्धारक थे, अनादि काल से प्रवहमान धार्मिक प्रवाह को प्रगति देने वाले थे। उनका कुल जैनधर्म से संस्कारित था। अतः भगवान के माता-पिता के लिए 'पार्श्वपत्य' शब्द का प्रयोग किया गया है। 'अपत्य' शब्द शिष्य एवं सन्तान दोनों के लिए प्रयुक्त होता रहा है। महाराज सिद्धार्थ एवं महाराणी त्रिशला श्रावक धर्म की आराधना करते हुए अन्तिम समय में विधि पूर्वक आलोचना एवं अनशन ग्रहण करके 12 वें स्वर्ग में गए और वहां से महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर मोक्ष जाएंगे। इससे स्पष्ट है कि साधु एवं श्रावक दोनों मोक्ष मार्ग के पथिक हैं। चतुर्थ गुणस्थान का स्पर्श करने के बाद यह निश्चित हो जाता है कि वह आत्मा अवश्य ही मोक्ष को प्राप्त करेगा। यह ठीक है कि सम्यक्त्व एवं श्रावकत्व की साधना से ऊपर उठकर ही आत्मा निर्वाण पद को पा सकती है। श्रावक की साधना में मुक्ति प्राप्त नहीं होती। क्योंकि, उक्त साधना में आत्मा पंचम गुणस्थान से आगे नहीं बढ़ती और समस्त कर्म बन्धनों एवं कर्म-जन्य संयोगो से सर्वथा मुक्त होने के लिए १४वें गुणस्थान को स्पर्श करना आवश्यक है। और उस स्थान तक साधुत्व की साधना करके ही पहुंचा जा सकता है। अतः भगवान के माता-पिता यहां के आयुष्य को पूरा करके 12 वें स्वर्ग में गए, वहां से महाविदेह क्षेत्र में मनुष्य भव करके दीक्षा ग्रहण करेंगे और श्रमणत्व की साधना करके समस्त कर्म बन्धनों को तोड़ कर सिद्ध-बुद्ध एवं मुक्त बनेंगे। कल्पसूत्र की सुबोधिका वृत्ति में लिखा है कि आवश्यक नियुक्ति में बताया है कि भगवान के माता-पिता चौथे स्वर्ग में गए और आचारांग में 12 वां स्वर्ग बताया गया है। यदि Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 2-3-5 (513) 481 नियुक्तिकार ने चौथे स्वर्ग का उल्लेख चतुर्थ जाति के (वैमानिक) देवों के रुप में किया है, तब तो आचारांग से विपरीत नहीं कहा जा सकता। क्योंकि 12 वां स्वर्ग वैमानिक देवों में ही समाविष्ट हो जाता है आगम में स्पष्ट रुप से 12 वें स्वर्ग का उल्लेख किया गया है। अतः आगम का कथन ही प्रामाणिक माना जा सकता है। . अब भगवान के दीक्षा महोत्सव का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे के सूत्र से कहते है सूत्र // 5 // // 513 // तेणं कालेणं समणे भ० नाये नायपुत्ते नायकुलनिव्वत्ते विदेहे विदेहदिण्णे विदेहजच्चे विदेह सूमाले तीसं वासाई विदेहंसित्ति कटु अगारमज्झे वसित्ता अम्मापिऊहिं कालगएहिं देवलोगमणुपत्तेहिं समत्तपइण्णे चिच्चा हिरण्णं चिच्चा सुवण्णं चिच्चा बलं चिच्चा वाहणं चिच्चा धणकणगरयणसंतसारसावइज्जं विच्छडित्ता विग्गोवित्ता विस्साणित्ता दायारेसु णं दाइत्ता परिभाइत्ता संवच्छरं दलइत्ता जे से हेमंताणं पढमे मासे पढमे पक्खे मग्गसिरबहुने, तस्स णं मग्गसिरबहुलस्स दसमीपक्खेणं हत्थुत्तरा जोग० अभिणिक्खमणाभिप्पाए यावि हुत्था // 513 // II संस्कृत-छाया : तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणः भगवान् महावीरः ज्ञातः ज्ञातपुत्रः ज्ञातकुलनिवृत्तः विदेहः विदेहदत्त: विदेहजात्य: विदेहसुकुमाल: त्रिंशत् वर्षाणि विदेहे इति कृत्वा अगारमध्ये उषित्वा अम्बा-पित्रोः कालगतयोः देवलोकमनुप्राप्तयोः सतो: समाप्तप्रतिज्ञः त्यक्त्वा हिरण्यं त्यक्त्वा सुवर्णं त्यक्त्वा बलं त्यक्त्वा वाहनं त्यक्त्वा धनकनक-रत्न-सत्सारस्वापतेयं विच्छर्घ विगोप्य विश्राण्य दातृषु दानं दत्वा परिभाज्य संवत्सरं दत्त्वा च यः असौ हेमन्तस्य प्रथम: मास: प्रथमः पक्षः मृगशीर्षकृष्ण-बहुल:, तस्य च मृगशीर्षबहुलस्य दशमी-पक्षेण हस्तोत्तराभिः योगमुपागतेन अभिनिष्क्रमणाभिप्रायः च अभवत // 593 // III सूत्रार्थ : उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर प्रसिद्ध ज्ञात पुत्र, ज्ञात कुल में चन्द्रमा के समान, वज्रऋषभनाराच संहनन के धारक, त्रिशला देवी के पुत्र, त्रिशला माता के अंगजात, घर में सुकुमाल अवस्था में रहने वाले तीस वर्ष तक घर में निवास करके माता पिता के देव लोक हो जाने पर अपनी ली हुई प्रतिज्ञा के पूर्ण हो जाने से हिरण्य, स्वर्ण, बल और वाहन, धन-धान्य, रत्न आदि प्राप्त वैभव को त्यागकर, याचकों को यथेष्ट दान देकर तथा Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 482 2-3-6 (514) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अपने सम्बन्धियों में यथायोग्य विभाग करके एक वर्ष पर्यन्त दान देकर हेमन्त ऋतु के प्रथम . मास, प्रथम पक्ष अर्थात् मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी के दिन उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर भगवान ने दीक्षा ग्रहण करने का अभिप्राय प्रकट किया। IV टीका-अनुवाद : सूत्रार्थ पाठसिद्ध होने से टीका नहि है...... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में भगवान के दीक्षा संबंधी संकल्प का वर्णन किया गया है। इसमें बताया गया है कि भगवान के माता पिता का स्वर्गवास हो जाने पर भगवान ने सम्पूर्ण वैभव का त्याग करके दीक्षित होने का विचार प्रकट किया। जिस समय भगवान गर्भ में आए थे, उस . . समय उन्होंने यह सोचकर अपने शरीर को स्थिर कर लिया कि मेरे हलन-चलन करने से माता को कष्ट न हो। परन्तु इस क्रिया का माता के मन पर विपरीत प्रभाव पड़ा। गर्भ का हलन-चलन बन्द हो जाने से उसे यह सन्देह होने लगा कि कहीं मेरा गर्भ नष्ट तो नहीं हो गया है। और परिणाम स्वरुप माता का दःख और बढ़ गया और उसे दुःखित देखकर सारा परिवार शोक में डूब गया। अपने अवधि ज्ञान से माता की इस दुखित अवस्था को देखकर भगवान ने हलन चलन शुरु कर दी और साथ में यह प्रतिज्ञा भी ले ली कि जब तक मातापिता जीवित रहेंगे, तब तक मैं दीक्षा नहीं लूंगा। वे अपने लिए अपनी माता को जरा भी कष्ट देना नहीं चाहते थे। अब माता-पिता के स्वर्गवास होने पर उनकी प्रतिज्ञा पूरी हो गई, अतः वे अपने साधना पथ पर गतिशील होने के लिए तैयार हो गए। कुछ प्रतियों में 'नाय कुल निव्वते' के स्थान पर 'नायकुलचन्दे' पाठ भी उपलब्ध होता है। और प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'विदेहदिन्ने' आदि पदों का वृत्तिकार ने यह अर्थ किया है कि वज्र ऋषभ नाराच संहनन और समचौरस संस्थान से जिसका देह शोभायमान है उसे विदेह कहते हैं और भगवान की माता का नाम विदेहदत्ता था, अतः इस दृष्टि से भगवान को विदेह दिन्न भी कहते हैं। 'विच्छड्डिता'-आदि पदों का कल्प सूत्र की वृत्ति में विस्तार से वर्णन किया गया है। अब भगवान द्वारा दिए गए सांवत्सरिक दान का वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें है...... I सूत्र // 6 // // 514 // संवच्छरेण होहिड अभिणिक्खमणं तु जिणवरिंदस्स / तो अत्थ संपयाणं पवत्तई Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-7/10 (515/518) 483 पुटवसूराओ || 514 // II संस्कृत-छाया : संवत्सरेण भविष्यति अभिनिष्क्रमणं तु जिनवरेन्द्रस्य तस्मात् अर्थसम्पदा प्रवर्तते पूर्वे सूर्यात् // 514 // I सूत्र // 7 // // 515 // एगा हिरण्णकोडी अद्वेव अणूणगा सयसहस्सा। सूरोदयमाईयं दिज्जइ जा पायरासुत्ति // 515 // II संस्कृत-छाया : एका हिरण्यकोटी अष्टैव अन्यूनानि शतसहस्राणि / सूर्योदयादौ दीयते या प्रातराश इति // 515 // I सूत्र // 8 // // 516 // __ तिण्णेव य कोडिसया अट्ठासीइं च हंति कोडीओ। असिइं च सयसहस्सा एवं संवच्छरे दिण्णं // 516 // II संस्कृत-छाया : श्रीणि एव कोटि-शतानि अष्टाशीतिः च भवन्ति कोटयः / अशीतिं च शतसहस्राणि एतत् संवत्सरे दत्तं // 516 // I सूत्र // 9 // // 517 / / वेसमणकुंडधारी देवा लोगंतिया महिड्ढिया। बोहंति य तित्थयरं पण्णरससु कम्मभूमीसु // 517 // II संस्कृत-छाया : वैश्रमण-कुण्डधारिणः देवाः लोकान्तिका: महर्द्धिका: / बोधयन्ति च तीर्थकरं पञ्चदशसु कर्मभूमीषु // 517 // सूत्र // 10 // // 518 // बंभंभि य कप्पंमि बोद्धव्वा कण्हराडणो मज्झे। लोगंतिया विमाणा अट्ठस वत्था असंखिज्जा // 598 / / Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 484 2-3-11 (519) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन II संस्कृत-छाया : बाह्ये च कल्पे बोधव्याः कृष्णराज्याः मध्ये / लोकान्तिका: विमाना: अष्टसु विस्तारा असङ्ख्येयाः // 518 // सूत्र // 11 // // 519 // एए देवनिकाया भगवं बोहिंति जिनवरं वीरं / सव्वजगज्जीवहियं अरिहा ! तित्थं पवत्तेहि / / 519 // II संस्कृत-छाया : एए देवनिकायाः भगवन्तं बोधयन्ति जिनवरं वीरम् / सर्वजगज्जीवहितं हे अर्हन् ! तीर्थ प्रवर्तय // 519 // III सूत्रार्थ : श्री जिनेश्वर भगवान दीक्षा लेने से एक वर्ष पहले सांवत्सरिक दान वर्षीदान देना आरम्भ कर देते हैं, और वे प्रतिदिन सूर्योदय से लेकर एक पहर दिन चढ़ने तक दान देते है। ___एक करोड़ आठ लाख मुद्रा का दान सूर्योदय से लेकर एक पहर पर्यन्त दिया जाता कुण्डल के धारक वैश्रमण देव और महाऋद्धि वाले लोकांतिक देव 15 कर्म भूमि में होने वाले तीर्थंकर भगवान को प्रतिबोधित करते हैं। ब्रह्मकल्प में कृष्णराजि के मध्य में आठ प्रकार के लौकान्तिक विमान असंख्यात योजन के विस्तार वाले होते हैं..... यह सब देवों का समूह जिनेश्वर भगवान महावीर को बोध देने के लिए सविनय निवेदन करते हैं कि हे अर्हन देव ! आप जगत् वासी जीवों के हितकारी तीर्थ-धर्म रुप तीर्थ की स्थापना करें। IV टीका-अनुवाद : सूत्रार्थ पाठसिद्ध होने से टीका नहि है.... V सूत्रसार: पहली तीन गाथाओं में यह बताया गया है कि भगवान एक वर्ष तक प्रतिदिन सूर्योदय Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-11 (519) 485 से लेकर एक पहर तक एक करोड़, आठ लाख स्वर्ण मुद्रा का दान करते हैं। उन्होंने एक " वर्ष में 388 क्रोड 80 लाख स्वर्ण मुद्रा का दान दिया था। ____ इससे यह स्पष्ट होता है कि केवल साधु को दिया जाने वाला आहार-पानी वस्त्र-पात्र आदि का दान ही महत्वपूर्ण नहीं, बल्कि अनुकम्पा दान भी अपना महत्व रखता है। भगवान द्वारा दिया गया दान इस बात को स्पष्ट करता है कि अनुकम्पादान भी पुण्य बन्ध एवं आत्म विकास का साधन है। इससे आत्मा की दया एवं अहिंसक भावना का विकास होता है और यह विकास आत्मा के लिए अहितकर नहीं हो सकता। आगमों में भी अनेक स्थलों पर अनुकम्पा दान का उल्लेख मिलता है। तुंगिया नगरी के श्रावकों की धर्म भावना एवं उदारता का उल्लेख करते हए उनके लिए 'अभंगद्वारे' का विशेषण दिया गया है। अर्थात उनके घर के दरवाजे अतिथियों के लिए सदा खुले रहते थे। इससे स्पष्ट होता है कि वे बिना किसी सांप्रदायिक एवं जातीय भेद भाव के अपने द्वार पर आने वाले प्रत्येक याचक को यथाशक्ति दान देते थे। अतः तीर्थंकरों के द्वारा दिए जाने वाले दान को केवल प्रशंसा प्राप्त करने के लिए दिया जाने वाला दान कहना उचित प्रतीत नहीं होता। क्योंकि, महापुरुष कभी भी प्रशंसा के भूखे नहीं होते। वे जो कुछ भी करते हैं, दया एवं त्याग भाव से प्रेरित होकर ही करते हैं। अतः भगवान के दान से उनकी उदारता, जगत्वत्सलता एवं अनुकम्पा दान के महत्व का उज्जवल आदर्श हमारे सामने उपस्थित होता है, जो प्रत्येक धर्म-निष्ठ सद्गृहस्थ के लिए अनुकरणीय है। . चौथी गाथा में दो बातों का उल्लेख किया गया है-१. भगवान एक वर्ष में जितना दान करते हैं, उस धन की व्यवस्था वैश्रमण देव करते हैं। उनके आदेश से उनकी आज्ञा में रहने वाले लोकपाल देव उनके कोष को भर देते हैं। यह परंपरा अनादि काल से चली आ रही है। प्रत्येक तीर्थंकर के लिए ऐसा किया जाता है। 2. प्रत्येक तीर्थंकर भगवान के हृदय में जब दीक्षा लेने की भावना पैदा होती है, तब लौकान्तिक देव अपनी परंपरा के अनुसार आकर उन्हें धर्म तीर्थ की स्थापना करने के लिए प्रार्थना करते हैं। कुछ प्रतियों में 'वेसमण कुण्डधारी' के स्थान पर 'वेसमण कुण्डलधरा' पाठ भी उपलब्ध होता है। पांचवीं गाथा में लोकान्तिक देवों के निवास स्थान का उल्लेख किया गया है। अरुणोदधि समुद्र से उठकर तमस्काय ब्रह्म (५वें) देवलोक तक गई है और उस में नव तरह की कृष्ण राजिएं हैं वे ही नव लौकान्तिक देवों के विमान माने गए है। उन्हीं विमानों में लौकान्तिक देवों की उत्पत्ति होती है। ब्रह्म देवलोक के समीप होने से उन्हें लौकान्तिक कहते हैं। कुछ आचार्यों का अभिमत है कि लोक संसार का अन्त करने वाले अर्थात् एक भव करके Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 486 2-3-12 (520) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन मोक्ष जाने वाले होने के कारण इन्हें लौकान्तिक कहते हैं। ये नव प्रकार के होत हैं- 1. सारश्वत, 2. आदित्य, 3. वह्नि, 4. वरुण, 5. गर्दतोय, 6. त्रुटित, 7. अव्याबाध, 8. आगनेय और 9. अरिष्ट। छठी गाथा में यह बताया गया है कि लौकान्तिक देव अपने आवश्यक आचार का पालन करने के लिए तीर्थंकर भगवान को तीर्थ की स्थापना करने की प्रार्थना करते हैं। यह तो स्पष्ट है कि गृहस्थ अवस्था मे भी भगवान तीन ज्ञान से युक्त होते हैं और अपने दीक्षा काल को भली-भांति जानते हैं। अतः उन्हें सावधान करने की आवश्यकता ही नहीं है। फिर भी जो लौकान्तिक देव उन्हें प्रार्थना करते हैं, वह केवल अपनी परम्परा-कल्प का पालन करने के लिए ही ऐसा करते हैं। साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका चारों को तीर्थ कहा गया है और इस चतुर्विध संघ . रुप तीर्थ की स्थापना करने के कारण ही भगवान को तीर्थकर कहते हैं। इसके आगे का वर्णन सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे के सूत्र से कहते है I सूत्र // 12 // // 520 // तओ णं समणस्स भ० महा० अभिणिक्खमणाभिप्पायं जाणित्ता भवणवइवाण जोइ० विमाणवासिणो देवा य देवीओ य सएहिं सएहिं सवेहिं सएहिं, नेवत्थेहिं, सएहिं, चिंधेहिं सव्वड्ढीए सव्वजुईए सव्वबलसमुदएण सयाई सयाइं जाणविमाणाई दुरुहंति, सयाइं० दुरूहित्ता अहाबायराइं पुग्गलाई परिसाइंति, परिसाडित्ता अहासुहमाई परियाइंति, परियाइत्ता उड्ढे उप्पयंति, उड्ढं उप्पड़त्ता ताए उक्किट्ठाए सिग्घाए चवलाए तुरियाए देवगईए, अहे णं ओवयमाणा, तिरिएणं असंखिज्जाइं दीवसमुद्दाई वीइक्क ममाणा, जेणेव जंबुद्दीवे दीवे तेणेव उवागच्छंति, उवगच्छित्ता जेणेव उत्तरखत्तियकुंडपुरसंनिवेसे तेणेव उवागच्छंति, उत्तरखत्तियकुंडपुरसंनिवेसस्स उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए, तेणेव झत्ति वेगेण ओवइया, तओ णं सक्के: देविंदे देवराया सणियं जाणविमाणं पट्टवेति, सणियं जाणविमाणं पट्टवेत्ता, सणियं जाणविमाणाओ पच्चोरुहइ, सणियं एगंतमवक्कमइ, एगंतमवक्कमित्ता महया वेउव्विएणं समुग्घाएणं समोहणइ, समोहणित्ता एगं महं णाणामणि कणगरयणभत्तिचित्तं सुभं चारु कंतरुवं देवच्छंदयं विउव्वइ / तस्स णं देवच्छंदयस्स बहुमज्झदेसभाए एकं महं सपायपीढं णाणामणि कणयरणयभत्तिचित्तं सुभं चारु कंतरूवं सीहासणं विउव्वड, विउव्वित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छड़, समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता समणं भगवं महावीरं गहाय जेणेव देवच्छंदए तेणेव उवागच्छड़, सणियं पुरत्थाभिमुहं सीहासणे Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-12 (520) 487 निसीयांवेइ, सणियं निसीयावित्ता सयपाग-सहस्सपागेहिं तिल्लेहिं अभंगेइ, गंधकासाईएहिं उल्लोलेइ, सुद्धोदएण मज्जावेड़, जस्स णं मुल्लं सयसहस्सेणं तिपडोलतित्तिएणं साहिएणं सीतेण गोसीसरत्तचंदणेणं अणुलिंपड़, ईसिं निस्सासवायवोज्झं वरणयरपट्टणुग्गयं कुसलनरपसंसियं अस्सलालापेलवं छेयारियकणगखइयंतकम्मं हंसलक्खणं पट्टजुयलं नियंसावेइ, हारं अद्धहारं उरत्थं नेवत्थं एगावलिं पालंबसुत्तं पट्टमउडरयणमालाउ आविंधावेड, आविंधावित्ता गंथिमवेढिमपूरिमसंघाइमेणं मल्लेणं कप्पक्खमिव समलंकरेड़, समलंकरित्ता दुच्चंपि महया वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहणइ, एगं महं चंदप्पहं सिवियं सहस्सवाहिणियं विउव्वति, तं जहा-ईहामिग-उसभ-तुरग-नर-मकर-विहग-वानर-कुंजर-रुर-सरभचमर-सद्दूल-सीह-वणलयभत्तिचित्तलय-विज्जाहरमिहणजुयलजंत-जो गजुत्तं अच्चीसहस्समालिणीयं सुनिरूवियं मिसिमिसिंतसवगसहस्सकलियं ईसिं भिसमाणं भिडिभसमाणं चक्खुल्लोयणलेसं मुत्ताहलमुत्ताजालंतरोवियं तवणीयपवरलंबूसपलंबंतमुत्तदामं हारद्धहार-भूसणसमोणयं अहियपिच्छणिज्जं पउमलयभत्तिचित्तं असोगलयभत्तिचित्तं कुंदलयभत्तिचित्तं णाणालयभत्तिचित्तं विरइयं सुभं चारुकंतरूवं नाणामणिपंचवण्णघंटापडायपडिमंडियग्गसिहरं पासाईयं दरिसणिज्जं सुरूवं // 520 // . II संस्कृत-छाया : ततश्च श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अभिनिष्क्रमणाभिप्रायं ज्ञात्वा भवनपतिवानव्यन्तर-ज्योतिष्क-विमानवासिनः देवाश्च देव्यश्च स्वकैः स्वकैः सपैः, स्वकैः स्वकैः नेपथ्यैः, स्वकैः स्वकैः चिद्वैः, सर्वद्धर्या सर्वद्युत्या सर्वबलसमुदयेन स्वकानि स्वकानि यान-विमानानि दूरुहन्ति, (आरोहन्ति) आरुह्य यथाबादराणि पुद्गलानि परिशाटयन्ति, परिशाट्य यथासूक्ष्माणि पुद्गलानि पर्याददते, पर्यादाय ऊर्ध्वं उत्पतन्ति, ऊर्य उत्पत्य तया उत्कृष्टया शीघ्रया चपलया त्वरितया देवगत्या अधश्च अवपतन्त: अवपतन्त: तिर्यग्असङ्ख्यान् द्वीपसमुद्रान् व्यतिक्रम्यमाना: व्यतिक्रम्यमानाः यौव जम्बूद्वीपः द्वीपः तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागम्य यौव उत्तरक्षत्रिय कुण्डपुरसंनिवेशस्य उत्तर-पूर्व दिग्भागे, तत्रैव झगिति वेगेन अवपतिताः / ततश्च शक्र: देवेन्द्र देवराजा शैनः शनैः यानविमानं प्रस्थापयति, शनैः शनैः यानविमानं प्रस्थाप्य शनैः शनैः यानविमानात् प्रत्यावतरति (प्रत्यारोहति), शनैः शनैः एकान्तं अपळामति, एकान्तं अपक्रम्य महता वैक्रियेण = वैकुर्विकेन समुद्घातेन समवहन्ति , एकं महत् नानामणिकनकरत्नभक्तिचित्रं शुभं कान्तरूपं देवच्छन्दकं विकुरुते, तस्य च देवच्छन्दकस्य बहुमध्यदेशभागे एकं महत् सपादपीठं नानामणिकनकरत्नभक्तिचित्रं शुभं चारू कान्तरूपं सिंहासनं विकुरुते, Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 2-3-12 (520) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन विकुळ = विकृत्य यत्रैव श्रमण: भगवान् महावीरः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रि: आदक्षिणां प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा च श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति च, वन्दित्वा नमस्कृत्य च श्रमणं भगवन्तं महावीरं गृहीत्वा यौव देवच्छन्दकः तत्रैव उपागच्छति, शनैः शनैः पूर्वाभिमुखं सिंहासने निषादयति, शनैः शनैः निषाद्य च शतपाकसहसपाकैः तैलै: अभ्यङ्गयति, गन्धकाषायिकैः उल्लोलयति, उल्लोल्य च शुद्धोदकेन मज्जयति, मज्जयित्वा, यस्य च मूल्यं शतसहस्रेण त्रिपटोलतिक्तिकेन साधिकेन शीतेन गोशीर्ष-रक्तचन्दनेन अनुलिम्पति, अनुलिम्य च ईषत् नि:श्वासवात वाह्य वरनगरपट्टणोद्गतं कुशलनरप्रशंसितं अश्वलालापेलवं छेकाचार्यकनकखचितान्त:कर्म हंसलक्षणं पट्टयुगलं परिधापयति परिधाप्य च हारं अर्द्धहारं उरस्थं नैपथ्यं एकावली प्रालम्बसूत्रं पट्टमुकुटरत्नमाला आबन्धापयति, आबन्धाप्य च ग्रन्थिम = वेष्टिम-पूरिमसङ्घातेन माल्येन कल्पवृक्षं इव समलङ्करोति, समलङ्कृत्य च द्वितीयं अपि महता वैक्रिय समुद्घातेन समवहन्ति, समवहत्य च एकां महतीं चन्द्रप्रभा शिबिकां सहसवाहनिकां विकरुते, तद्यथा ईहामृग-वृषभ-तुरग-नर-मकर-विहग-वानरकुञ्जर-रुरु-शरभ-चमर-शार्दूल-सिंह-वनलताभक्तिचित्रलता-विद्याधरभिथुनयुगलयन्त्रयोगयुक्तां अर्चिःसहस्त्रमालिनीयां सुनिरुपणीयां मिसीमिसन्तरूपकसहस्रकलितां ईषद्भिसमानां भिभिसमानां चक्षुर्लोचनलोकनीयां मुक्ताफल-मुक्ताजालान्तरोपितां तपनीयप्रवर-लम्बूसकप्रलम्बमुक्तादामां हाराऽर्धहारभूषण-समन्वितां (समवनतां) अधिकदर्शनीयां पद्मलताभक्तिचित्रां अशोकलताभक्तिचित्रां कुन्दलताभक्तिचित्रां नानालताभक्तिचित्रां विरचितां शुभां चारुकान्तरूपां नानामणिपञ्चवर्ण-घण्टा-पताकाप्रतिमण्डिताग्रशिखरां प्रसादीयां दर्शनीयां सुरूपाम् // 520 // III सूत्रार्थ : तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर स्वामी के दीक्षा लेने के अभिप्राय को जानकर भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देव और देवियां अपने अपने रुप, वेष और चिन्हों से युक्त होकर तथा अपनी 2 सर्वप्रकार की ऋद्धि, धुति और बल समुदाय से युक्त होकर अपने 2 विमानों पर चढ़ते हैं और उनमें चढ़कर बादर पुद्गलों को छोड़कर सूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण करके ऊंचे होकर उत्कृष्ट, शीघ्र, चपल, त्वरित और दिव्य प्रधान देवगति से नीचे उतरते हुए तिर्यक् लोक में स्थित असंख्यात द्वीप समुद्रों को उल्लंघन करते हुए जहां पर जम्बूद्वीप नामक द्वीप है वहां पर आते हैं। जम्बूद्वीप में भी उत्तर क्षत्रिय कुण्डपुर सन्निवेश में आकर उसके ईशान कोण में जो स्थान है वहां पर बड़ी शीघ्रता से उतरते हैं। तत् पश्चात् शक्र देवों का इन्द्र देवराज शनैः 2 अपने विमान को स्थापित करता है. फिर शनैः 2 विमान से नीचे उतरता है और एकान्त मे जाकर वैक्रिय समुद्घात करता है। . Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-12 (520) 489 - उससे नाना प्रकार की मणियों तथा कनक, रत्नादि से जटित एक बहुत बड़े कान्त मनोहर -रुप वाले देवछंदक का निर्माण करता है। उस देवछन्दक के मध्य भाग में नानाविध मणि, कनक, रत्नादि से खचित, शुभ, चारु और कान्तरुप एक विस्तृत पादपीठ युक्त सिंहासन का निर्माण किया। उसके पश्चात् जहां पर श्रमण भगवान महावीर थे वहां वह आया और आकर भगवान को वन्दन-नमस्कार किया और श्रमण भगवान महावीर को लेकर देवछन्दक के पास आया और धीरे 2 भगवान को उस देवछन्दक में स्थित सिंहासन पर बैठाया और उनका मुख पूर्व दिशा की ओर रखा। शतपाक और सहस्त्र पाक तैलों से उनके शरीर की मालिश की और सुगन्धित द्रव्य से शरीर का उद्वतन करके शुद्ध निमल जल से भगवान को स्नान करा, उसके बाद एक लाख की कीमत वाले विशिष्ट गोशीर्ष चन्दनादि का उनके शरीर पर अनुलेपन किया, उसके बाद भगवान को नासिका की वायु से हिलने वाले, तथा विशिष्ट नगरों में निर्मित, प्रतिष्ठित व्यक्तियों द्वारा प्रशंसित और कुशल कारीगरों के द्वारा स्वर्णतार से विभूषित, हंस के समान श्वेत, वस्त्र युगल को पहनाया। फिर हार, अर्द्धहार पहनाए तथा एकावली हार, लटकती हुई मालायें, कटि सूत्र, मुकुट और रत्नों की मालायें पहनाई। तदनन्तर ग्रन्थिम, वेष्टिम, पुरिम और संघातिम इम चार प्रकार की पूष्प मालाओं से कल्पवृक्ष की भान्ति भगवान को अलंकृत किया। इस प्रकार अलंकृत करने के पश्चात् इन्द्र ने पुनः वैक्रियसमुद्घात किया और उससे चन्द्रप्रभा नाम की एक विराट् सहस्र वाहिनी शिविका (पालकी) का निर्माण किया। यह शिविका ईहामृग, वृषभ, अश्व, मगरमच्छ, पक्षी, बन्दर, हाथी, रुरु, शरभ, चमरी, शार्दूल और सिंह आदि जीवों तथा वनलताओं एवं अनेक विद्याधरों के युगल, यंत्र योग आदि से चित्रित थी। सूर्य ज्योति के समान तेजवाली, तथा रमणीय जगमगाती हुई, हजारों चित्रों से युक्त और देदीप्यमान होने के कारण मनुष्य उसकी ओर देख नहीं सकता था, वह स्वर्णमय शिविका मोतियों के हारों से सुशोभित थी। उस पर मोतियों की सुंदर मालायें झूल रही थी तथा पद्मलता, अशोकलता, कुन्दलता एवं नाना प्रकार के अन्य वन लताओं से चित्रित थी। पांच प्रकार के वर्णोवाली मणियों, घंटियों और ध्वजा पताकाओं से उसका शिखर भाग सुशोभित हो रहा था इस प्रकार वह शिबिका दर्शनीय और परम सुन्दर थी। IV टीका-अनुवाद : सूत्रार्थ पाठ सिद्ध होने से टीका नहि हैं... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि भगवान के दीक्षामहोत्सव में सम्मिलित होने के लिए चारों जाति के देव क्षत्रिय कुंड ग्राम में एकत्रित होते हैं। यह स्पष्ट है कि देव अपने Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 490 2-3-13/14 (521/522) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन मूल रुप में मर्त्यलोक में नहीं आते। वे उत्तर वैक्रिय करके मनुष्यलोक में आते हैं और उत्तर वेक्रिय में वे 16 प्रकार के विशिष्ट रत्नों के सूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण करते हैं। प्रस्तुत सूत्र में भगवान की दीक्षा के पूर्व शक्रेन्द्र द्वारा की गई प्रवृत्ति का दिग्दर्शन कराया गया है। शक्रेन्द्र ने उत्तर वैक्रिय करके एक देवछन्दक बनाया और उस पर सिंहासन बनाकर भगवान को बैठाया और शतपाक एवं सहस्रपाक (सौ एवं हजार विशिष्ट औषधियों एवं जड़ी-बूटियों से बनाया गया) तैल से भगवान के शरीर की मालिश की, सुगन्धित द्रव्यों से उबटन किया और उसके बाद स्वच्छ, निर्मल एवं सुवासित जल से भगवान को स्नान कराया। उसके पश्चात् भगवान को बहुमूल्य एवं श्रेष्ठ श्वेत वस्त्र युगल पहनाया। और विविध आभूषणों से विभूषित करके हजार व्यक्तियों द्वारा उठाई जाने वाली शक्रेन्द्र द्वारा बनाई गई विशाल शिविका (पालकी) पर भगवान को बैठाया। उस तरह शक्रेन्द्र ने अपनी भक्ति एवं श्रद्धा को अभिव्यक्त किया। इससे यह स्पष्ट होता है कि महान पुरुषों की सेवा के लिए मनुष्य तो क्या ? देव भी सदा उपस्थित रहते हैं। कुछ प्रतियों में 'मज्जावेइ' के पश्चात ‘गन्धकासाएहि गायाइं लूहेइ लूहित्ता' पाठ भी उपलब्ध होता है और यह शुद्ध एवं प्रामाणिक प्रतीत होता है। इसी तरह 'मुल्लं सयसहस्सेणं तिपडोल तित्तिएणं' के स्थान पर ‘पलययसहस्सेणं तिपलो लाभितएणं' पाठ भी उपलब्ध होता है। इस विषय में कुछ और बातों का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे के सूत्र से कहते है I सूत्र // 13 // // 521 // सीया उवणीया जिणवरस्स जरमरणविप्पमुक्कस्स। ओसत्तमल्लदामा जलथलयदिव्वकुसुमेहिं // 521 // संस्कृत-छाया : शिबिका उपनीता जिनवरस्य जन्मजरा-विप्रमुक्तस्य। अवसक्तमाल्यदामा जलस्थलजदिव्यकुसेमैः // 521 // सूत्र // 14 // // 522 // सिबियाइ मज्झयारे दिव्वं वररयणसवचिंचड़यं। सीहासणं महरिहं सपायपीढं जिणवरस्स // 522 // Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-15/18 (523/526) 491 संस्कृत-छाया : शिबिकायां मध्यभागे दिव्यं वररत्नरूपप्रतिबिम्बितम् / सिंहासनं महार्ह सपादपीठं जिनवरस्य || 522 // सूत्र // 15 // // 523 // आलइयमालमउडो भासुरबुंदी वराभरणधारी। खोमिय वत्थनियत्थो जस्स य मुल्लं सयसहस्सं // 523 // संस्कृत-छाया : अलङ्कृतमालामुकुटः भासुरथरीरो वराभरणधारी। परिहितक्षौमिकवस्त्रः यस्य च मूल्यं शतसहसम् // 523 / / सूत्र // 16 // // 524 / / छडेण उभत्तेणं अज्झवसाणेण सुंदरेण जिणो। लेसाहिं विसुज्झंतो आराहइ उत्तमं सीयं // 524 / / संस्कृत-छाया : षष्ठेन तु भक्तेन अध्यवसानेन सुन्दरेण जिनः। लेश्याभि: विशुद्धयमान: आरोहति उत्तमां शिबिलाम् // 524 / / I * सूत्र // 17 // // 525 // सीहासणे निविट्ठो सक्कीसाणा य दोहि पासेहिं / वीयति चामराहिं मणिरयणविचित्तदंडाहिं // 525 // संस्कृत-छाया : सिंहासने निविष्टः शक्रेशानौ च द्वाभ्यां पार्धाभ्याम् / वीजयतः चामरैः मणिरत्नविचित्रदण्डैः // 525 // सूत्र // 18 // // 526 // पुट्विं उक्खिता माणुसेहिं साहट्ट रोमकूवेहिं। पच्छा वहंति देवा सुरअसुरा गरुलनागिंदा // 526 // Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 492 2-3-19/22 (527/530) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन संस्कृत-छाया : पूर्वं उत्क्षिप्ता मानुषैः संहृष्ट रोमकूपैः / पथात् वहन्ति देवा सुरासुराः गरुडनागेन्द्राः // 526 // सूत्र // 19 // // 527 // पुरओ सुरा वहंति असुरा पुण दाहिणंमि पासंमि। अवरा वहंति गरुला नागा पुण उत्तरे पासे || 527 // I संस्कृत-छाया : पुरतः सुराः वहन्ति असुराः पुनः दक्षिणे पार्थे / अपरत: वहन्ति गरुडा: नागाः पुनः उत्तरे पार्धे // 527 / / सूत्र // 20 // // 528 // वणखंडं व कुसुमियं पउमसरो वा जहा सरयकाले। सोहइ कुसुमभरेणं इय गयणयलं सुरगणेहिं / / 528 // संस्कृत-छाया : वनखण्डं इव कुसुमितं पद्मसरः वा यथा शरत्काले शोभते कुसुमभरेण इति गगनतलं सुरगणैः // 528 // I सूत्र // 21 // // 529 // सिद्धत्थवणं व जहा कणयारवणं व चंपयवणं वा। सोहइ कुसुमभरेणं इय गयणयलं सुरगणेहिं // 529 // संस्कृत-छाया : सिद्धार्थवनं वा यथा कर्णिकारवनं वा चम्पकवनं वा। शोभते कुसुमभरेण इति गगनतलं सुरगणैः // 529 // सूत्र // 22 // // 530 // वरपडहभेरिझल्लरि संख सयसहस्सिएहिं तूरेहिं। गयणयले धरणियले तूरनिनाओ परमरम्मो || 530 / / II Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-23 (531) 493 II संस्कृत-छाया : वरपटह भेरि-झल्लरी शङ्खशतसहसैः तूर्यैः / गगनतले धरणीतले तूर्यनिनाद: परमरम्यः // 530 / / सूत्र // 23 // // 531 // तत-विततं घणझुषिरं आउज्जं चउव्विहं बहुविहीयं / वाइंति तत्थ देवा बहूहिं आणट्टगसएहिं // 531 // II संस्कृत-छाया : तत-विततं धन-झुषिरं आतोयं चतुर्विधं बहुविधं वा वादयन्ति तत्र देवाः बहुभिः आनर्तकशतैः // 531 // III सूत्रार्थ : जरा मरण से विप्रमुक्त जिनवर के लिए शिविका लाई गई, जो कि जल और स्थल पर पैदा होने वाले श्रेष्ठ फूलों और वैक्रिय लब्धि से निर्मित पुष्प मालाओं से अलंकृत थी। - उस शिविका के मध्य में प्रधान रत्नों से अलंकृत यथा योग्य पाद पीठिकादि से युक्त, जिनेन्द्र देव के लिए सिंहासन का निर्माण किया गया था। जिनेन्द्र भगवान महावीर एक लाख रुपए की कीमत वाले क्षौम युगल (कास) के वस्त्र को धारण किए हुए थे और आभूषणों, मालाओं तथा मुकुट से अलंकृत थे। उस समय प्रशस्त अध्यवसाय एवं लेश्याओं से युक्त भगवान षष्ठ भक्त (बेले) की तपश्चर्या ग्रहण करके उस शिविका-पालकी में बैठे। जब श्रमण भगवान महावीर शिविका पर आरुढ़ हुए तो शकेन्द्र और इशानेन्द्र शिविका के दोनों तरफ खड़े होकर मणियों से जटित डंडे वाली चामरों को भगवान के ऊपर झुलाने लगे। सब से पहले मनुष्यों ने हर्ष एवं उल्लास के साथ भगवान की शिविका उठाई। उसके पश्चात् देव, सुर, असुर, गरुड़ और नागेन्द्र आदि देवों ने उसे उठाया। शिविका को पूर्व दिशा से सुर-वैमानिक देव उठाते हैं, दक्षिण से असुर कुमार, पश्चम से गरुड़ कुमार और उत्तर दिशा से नाग कुमार उठाते है। Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 494 2-3-24 (532) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन उस समय देवों के आगमन से आकाश मंडल वैसा ही सुशोभित हो रहा था जैसे खिले हुए पुष्पों से युक्त उद्यान या शरद् ऋतु में कमलों से भरा हुआ पद्म सरोवर शोभित होता जिस प्रकार से सरसों, कचनार तथा चम्पक वन फूलों से सुहावना प्रतीत होता है, उसी तरह उस समय आकाश मंडल देवों से सुशोभित हो रहा था। उस समय पटह, भेरी, झांझ शंख आदि श्रेष्ठ वादित्रों से गुंजायमान आकाश एवं भूभाग बड़ा ही मनोहर एवं रमणीय प्रतीत हो रहा था। उस समय देव तत, वितत, घन और झुषिर इत्यादि अनेक तरह के बाजे बजा रहे थे तथा विभिन्न प्रकार के नृत्य कर रहे थे एवं बमी सबद्ध नाटक दिखा रहे थे। IV टीका-अनुवाद सूत्रार्थ पाठ सिद्ध होने से टीका नहि है... सूत्रसार: प्रस्तुत गाथाओं में यह अभिव्यक्त किया गया है कि भगवान देव निर्मित सहस्त्र वाहिका शिविका में बैठे और देवों एवं मनुष्यों ने उस शिविका को उठाया। शकेन्द्र और ईशानेन्द्र उस शिविका के दोनों ओर खड़े थे और भगवान के ऊपर रत्न एवं मणियों से विभूषित डंडों से युक्त चामर झुला रहे थे। उस समय देव एवं मनुष्य सभी के चहेरों पर उल्लास एवं हर्ष परिलक्षित हो रहा था और आज सब अपने आपको धन्य मान रहे थे। जिस समय भगवान शिविका में बैठकर जा रहे थे, उस समय, किन्नर, गन्धर्व आदि बड़े हर्ष के साथ बाजे बजा रहे थे और विभिन्न प्रकार के नृत्य कर रहे थे। सारा वातावरण हर्ष एवं उल्लास से भरा हुआ था। इतने हर्ष एवं आनन्द के वातावरण में भी भगवान प्रशस्त अध्यवसायों के साथ शान्त बैठे हुए थे। उस समय भगवान ने षष्ठ भक्त-बेले का तप स्वीकार कर रखा था। अब भगवान की दीक्षा से संबंधित विषय का वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे के सूत्र से कहते है I सूत्र // 24 // // 532 // तेणं कालेणं तेणं समएणं जे से हेमंताणं पढमे मासे पढमे पक्खे मग्गसिरबहुले, तस्स णं मग्गसिरबहुलस्स दसमीपखेणं सुव्वएणं दिवसेणं विजएणं मुहुत्तेणं हत्थुत्तरा Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी-टीका 2-3-24 (532) 495 नक्खत्तेणं जोगोवगएणं पाईणगामिणीए छायाए बिइयाए पोरिसीए छट्टेण भत्तेणं अपाणएणं एगसाडगमायाए चंदप्पमाए सिबियाए सहस्सवाहिणियाए सदेवमणुयासुराए परिसाए समणिज्जमाणे उत्तरखत्तियकुण्डपुरसंनिवेसस्स मज्झंमज्झेणं णिगच्छड, णिगच्छित्ता जेणेव णायखंडे उज्जाणे, तेणेव उवागच्छड़, उवागच्छित्ता ईसिं रयणिप्पमाणं अच्छोप्पेणं भूमिभाएणं सणियं सणियं चंदप्पभं सिबियं सहस्सवाहिणिं ठवेड, ठवित्ता सणियं सणियं चंदप्पभाओ सीयाओ सहस्सवाहिणीओ पच्चोयरइ, पच्चोयरित्ता सणियं सणियं पुरत्थाभिमुहे सीहासणे निसीयइ आभरणालंकारं ओमुअइ, तओ णं वेसमणे देवे जाणुवायपडिओ भगवओ महावीरस्स हंसलक्खणेणं पडेणं आभरणालंकारे पडिच्छड़। तओ णं समणे भगवं महावीरे दाहिणेणं दाहिणं वामेणं वामं पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, तओ णं सक्के देविंदे देवराजा समणस्स भगवओ महावीरस्स जाणुवायपडिए वइरामएणं थालेण केसाइं पडिच्छड़, पडिच्छित्ता "अणुजाणेसि भंतेत्ति" कट्ट खीरोयसायरं साहरइ। तओ ण समणे० जाव लोयं करित्ता सिद्धाणं नमुक्कारं करेड़, करित्ता सव्वं मे अकरणिज्जं पावकम्मत्तिकट्ठ सामाइयं चरित्तं पडिवज्जड़, पडिवज्जित्ता देवपरिसं च मणुयपरिसं च आलिक्वचित्तभूयमिव ठवेइ // 532 / / II संस्कृत-छाया : तस्मिन् काले तस्मिन् समये य: असौ हेमन्तस्य प्रथमः मासः प्रथमः पक्षः. मृगशीर्षबहुल: तस्य च मृगशीर्षबहुलस्य दशमी-पक्षे सुव्रते दिवसे विजये मुहूर्ते हस्तोत्तरा-नक्षत्रेण योगोपगतेन प्रचीनगामिन्यां छायायां द्वितीयायां पौरुष्यां षष्ठेन भक्तेन अपानकेन एक शाटकमादाय चन्द्रप्रभायां शिबिकायां सहसवाहिन्यां सदेवमनुजासुरया परिषंदा समन्वीयमानः उत्तरक्षत्रियकुण्डपुरसंनिवेशस्य मध्यंमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य च यत्रैव ज्ञातखण्डं उद्यानं तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य च ईषत् रत्निप्रमाण अस्पर्शन भूमीभागेन शनैः शनैः चन्द्रप्रभां शिबिकां सहसवाहिनीं स्थापयति, स्थापयित्वा च शनैः शनैः चन्द्रप्रभायाः शिबिकायाः सहसवाहिन्याः प्रत्यवरतरति, प्रत्यवतीर्य च शनैः शनैः पूर्वाभिमुखः सिंहासने निषीदति, आभरणालङ्कारं अवमुथति, ततः वैश्रमण: देवः जानुपादपतितः भगवतः महावीरस्य हंसलक्षणेन पटेन आभरणालङ्कारान् प्रतीच्छति, ततच श्रमणः भगवान् महावीरः दक्षिणेन दक्षिणं वामेन वामं पञ्चमुष्टिकं लोचं करोति, ततच शक्रः देवेन्द्रः देवराजः श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य जानुपादपतितः वज्रमयेन स्थालेन केशान् प्रतीच्छति, तत: अनुजानीहि भदन्त ! इति कृत्वा क्षीरोदसागरे प्रक्षिपति। ततश्च श्रमणः भगवान् महावीरः लोचं कृत्वा सिद्धेभ्य: नमस्कारं करोति, कृत्वा सर्वं मया अकरणीयं पापकर्म इति कृत्वा सामायिकं चारित्रं प्रतिपद्यते, प्रतिपद्य च Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 496 2-3-24 (532) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन देवपरिषदं च मनुजपरिषदं च आलेख्यचित्रभूतं इव स्थापयति // 532 / / III सूत्रार्थ : उस काल और उस समय में जब हेमन्त ऋतु का प्रथम मास प्रथमपक्ष अर्थात् मार्गशीर्ष मास का कृष्ण पक्ष था, उसकी दशमी तिथि के व्रत दिवस विजय मुहूर्त में उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग आने पर पूर्वगामिनी छाया और द्वितीय प्रहर के बीतने पर निर्जल-बिना पानी के दो उपवासों के साथ एक मात्र देवदूष्य वस्त्र को लेकर चन्द्रप्रभा नामकी सहस्र वाहिनी शिविका में बैठे। उसमें बैठकर वे देव मनुष्य तथा असुर कुमारों की परिषद् के साथ उत्तर क्षत्रिय कुण्डपुर सन्निवेश के मध्य 2 में से होते हुए जहां ज्ञात खण्ड नामक उद्यान था वहां पर आते हैं। वहां आकर देव थोड़ी सी-हाथ प्रमाण ऊंची भूमि पर भगवान की शिविका को ठहरा देते हैं। तब भगवान उसमें से शनैः 2 नीचे उतरते हैं और पूर्वाभिमुख होकर सिंहासन पर बैठ जाते हैं। उसके पश्चात् भगवान अपने आभरणालंकारों को उतारते हैं। तब वैश्रमण देव भक्ति पूर्वक भगवान के चरणों में बैठकर उनके आभरण और अलंकारों को हंस के समान श्वेत वस्त्र में ग्रहण करता है। तत् पश्चात् भगवान ने दाहिने हाथ से दक्षिण की ओर के केशों का और वाम कर से बायें पासे के केशों का पांच मुष्टिक लोच किया, तब देवराज शक्रेन्द्र श्रमण भगवान महावीर के चरणों में गिर कर घुटनों को नीचे टेक कर वज मय थाल में उन केशों को ग्रहण करता है और हे भगवन्- आपकी आज्ञा है, ऐसा कहकर उन केशों को क्षीरोदधि-क्षीर समुद्र में प्रवाहित कर देता है। इसके पश्चात् भगवान सिद्धों को नमस्कार करके सर्वप्रकार के सावद्यकर्म का परित्याग करते हुए सामायिक चारित्र ग्रहण करते हैं। उस समय देव और मनुष्य दोनों दीवार पर लिखे हुए चित्र की भांति अवस्थित हो गए, अर्थात् चित्रवत् निश्चेष्ट हो गए। IV टीका-अनुवाद : सूत्रार्थ पाठसिद्ध होने से टीका नहि है.... सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में भगवान की दीक्षा के सम्बनध में वर्णन किया गया है। जब भगवान की शिविका ज्ञात खण्ड बगीचे में पहुंची तो भगवान उससे नीचे उतर गए और एक वृक्ष के नीचे पूर्व दिशा की ओर मुंह करके सिंहासन पर बैठ गए और क्रमशः अपने सभी वस्त्राभूषणों को उतार कर वैश्रमण देव को देने लगे। सभी आभूषणों को उतारने के पश्चात् मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी को तृतीय पहर के समय विजय मुहूर्त में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का चन्द्रमा के साथ योग होने पर भगवान ने स्वयं पञ्च मुष्टि लुंचन करके सिद्ध भगवान को नमस्कार करते हुए. Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-25/26 (533/534) 497 सामायिक चारित्र ग्रहण किया। समस्त सावध योगों का त्याग करके भगवान ने साधना के पथ पर कदम रखा। उस समय भगवान ने केवल देवदूष्य वस्त्र स्वीकार किया। भगवान के केशों को शक्रेन्द्र ने ग्रहण किया और उन्हें क्षीरोदधि समुद्र में विसर्जित कर दिया। - इस पाठ से यह स्पष्ट होता है कि उस युग में भी दिवस, मुहूर्त एवं नक्षत्र आदि देखने की परम्परा थी। और पंच मुष्टि लोच एवं अलंकारों आदि के उतारने का उल्लेख करके भगवान की सहिष्णुता, त्याग एवं तप भावना को दिखाया गया है। कुछ प्रतियों में 'जन्नु वाय पडियाए' के स्थान पर 'भत्तुव्वाय पडियाए' पाठ उपलब्ध होता है। भगवान की दीक्षा के समय वातावरण को शान्त बनाए रखने के लिए इन्द्र के द्वारा सभी वादियों को बन्द करने का आदेश देने का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे के सूत्र से कहते हैI सूत्र // 25 // // 533 || दिव्यो मणुस्सघोसो तुरियनिनाओ य सरकवयणेणं। खिप्पामेव निलुक्को जाहे पडिवज्जइ चरित्तं // 533 || // संस्कृत-छाया : दिव्यः मनुष्यघोषः तूर्यनिनादः च शक्रवचनेन / क्षिप्रमेव निलुप्तः यदा प्रतिपद्यते चारित्रम् // 533 / / सूत्र // 26 // // 534 // पडिवज्जित्तु धरित्तं अहोनिसं सव्वपाणभूयहियं / साहट्ट लोमपुलया सव्वे देवा निसामिति // 534 // संस्कृत-छाया : प्रतिपद्य चारित्रं अहर्निशं सर्व-प्राणिभूतहितम्। . संहत्य लोमपुलकाः सर्वे देवाः निशामयन्ति // 534 // सूत्रार्थ : जिस समय भगवान सामायिक चारित्र ग्रहण करने लगे, उस समय शक्रेन्द्र की आज्ञा से सभी वादिंत्रों आदि से होने वाले शब्द बन्द कर दिए गए। Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 498 2-3-27 (535) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन सामायिक चारित्र ग्रहण करके भगवान रात-दिन सब प्राणियों के हित में संलग्न हुए / अर्थात वे सभी प्राणियों की रक्षा करने लगे। सभी देवों ने हर्षित भाव से यह सुना कि भगवान ने संयम स्वीकार कर लिया है। IV टीका-अनुवाद : सूत्रार्थ पाठसिद्ध होने से टीका नहि है..... सूत्रसार : प्रस्तुत उभय गाथाओं में यह अभिव्यक्त किया गया है कि जिस समय भगवान सामायिक चारित्र ग्रहण करने लगे उस समय शकेन्द्र ने सभी प्रकार के वादिंत्रों को बन्द करने का आदेश दिया और उसके आदेश से सभी देव एवं मानव शान्त चित्त से भगवान के चारित्र / ग्रहण करने के उद्देश्य को सुनने लगे। इस में यह स्पष्ट बताया गया है कि चारित्र सर्व प्राणियों का हितकारक है, प्राणिमात्र के प्रति मैत्रीभाव को अभिव्यक्त करने तथा प्राणिमात्र की रक्षा करने के उद्देश्य से ही साधक साधना के या साधुत्व के पथ पर कदम रखता है। समस्त सावध योगों का त्याग करके संयम स्वीकार करते ही भगवान को चतुर्थ मनः पर्यव ज्ञान हो गया, इस का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे के सूत्र से कहते है I सूत्र // 27 // // 535 // तओ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स सामाइयं खओवसमियं चरित्तं पडिवण्णस्स मणपज्जवनाणे नामं नाणे समुप्पण्णे अड्ढाइज्जेहिं दीवेहिं दोहि य समुद्देहिं सण्णीणं पंचिंदियाणं पज्जत्ताणं वियत्तमाणसाणं मणोगयाई भावाइं जाणइ। तओ णं समये भगवं महावीरे पटवइए समाणे मित्तनाइ-सयणसंबंधिवग्गं पडिविसज्जेड़, पडिविसज्जित्ता इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हडू, तं जहा-बारस वरिसाइं वोसट्ठकाए चियत्तदेहे जे केइ उवस्सग्गा समुप्पज्जंति, तं जहा-दिव्वा वा माणुस्सा वा तेरिच्छिया वा, ते सत्वे उवस्सग्गे समुप्पण्णे समाणे सम्मं सहिस्सामि खमिस्सामि अहिआसइस्सामि। तओ णं समणे भगवं महावीरे इमं एयासवं अभिग्गहं अभिगिण्हित्ता वोसिद्धचत्तदेहे दिवसे मुहत्तसेसे कुमारग्गामं समणुपत्ते। तओ णं समणे भगवं महावीरे दोसट्ठचत्तदेहे अणुत्तरेणं आलएणं अणुत्तरेणं विहारेणं एवं संजमेणं पग्गहेणं संवरेणं तवेणं बंभचेरवासेणं खंतीए मुत्तीए समिईए गुत्तीए Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-27 (535) 499 तुट्ठीए ठाणेणं भावेमाणे विहरड़, एवं वा विहरमाणस्स जे केइ उवस्सग्गा समुप्पज्जंतिदिव्वा वा माणुस्सा वा तिरिच्छिया वा, ते सव्वे उवसग्गे समुप्पण्णे समाणे अणाउले अटवहिए अदीणमाणसे तिविह-मण-वयण-कायगुत्ते सम्म सहइ खमइ तितिक्खड़ अहियासेड़। . तओ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स एएणं विहारेणं विहरमाणस्स बारस वासा वीइक्कंता तेरसमस्स य वासस्स परियाए वट्टमाणस्स जे से गिम्हाणं दुच्चे मासे . चउत्थे पक्खे वइसाहसुद्धे, तस्स णं वेसाहसुद्धस्स दसमीपक्रोणं सुव्वएणं दिवसेणं विजएणं मुहुत्तेणं हत्थुत्तराहिं णक्खत्तेणं जोगोवएणं पाईणगामिणीए छायाए वियत्ताए पोरिसीए जंभियगामस्स नगरस्स बहिया नईए उज्जुवालियाए उत्तरकुले सामागस्स गाहावइस्स कट्ठकरणंसि उड्ढं जाणू अहो सिरस्स झाणकोट्ठोवगयस्स वेयावत्तस्स चेइयस्स उत्तरपुरच्छिमे दिसीभागे सालरुक्खस्स अदूरसामंते उफ्फुड्डुयस्स गोदोहियाए आयावणाए आयावेमाणस्स छद्रेणं भत्तेणं अपाणएणं सुक्कज्झाणंतरियाए वट्टमाणस्स निव्वाणे कसिणे पडिपुण्णे अव्वाहए निरावरणे अणंते अणुत्तरे केवलवरणाणदसणे समुप्पण्णे। से भगवं अरहं जिणे केवली सव्वण्णू सव्वभावदरिसी सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स पज्जाए जाणड, तं जहा-आगड़ गई ठिइं चवणं उववायं भुत्तं पीयं कडं पडिसेवियं आविकम्मं रहोकम्म लवियं कहियं मणोमाणसियं सव्वलोए सव्वजीवाणं सव्वभावाई जाणमाणे पासमाणे एवं च णं विहरइ। जण्णं दिवसं समणस्स भगवओ महावीरस्स णिव्वाणे कसिणे जाव समुप्पण्णे तण्णं दिवसं भवणवइवाणमंतर जोइसियविमाणवासिदेवेहि य देवीहि य उवयंतेहिं जाव उप्पिंजलगभूए यावि हुत्था, तओ णं समणे भगवं महावीरे उप्पण्णवरणाणदंसणधरे अप्पाणं च लोगं च अभिसमिक्खपुव्वं देवाणं धम्ममाइक्खड़, ततो पच्छा माणुस्साणं। तओ णं समणे भगवं महावीरे उप्पण्णवरणाणदंसणधरे गोयमाईणं समणाणं पंचमहत्वयाई सभावणाई छज्जीवनिकाया आतिक्खति भासह पसवेड, तं जहापुढवीकाए जाव तसकाए || 535 // II संस्कृत-छाया : ततश्च श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य सामायिकं क्षायोपथमिकं चारित्रं प्रतिपद्यमानस्य मनःपर्यवज्ञानं नाम ज्ञानं समुत्पन्नम्, अर्धतृतीयेषु द्वीपेषु द्वयोः च समुद्रयोः सज्ञिनां पचेन्द्रियाणां पर्याप्तानां व्यक्त मनसां मनोगतान् भावान् जानाति। ततश्च श्रमणः भगवान् महावीरः प्रव्रजितः सन् मित्र ज्ञातिस्वजनसम्बन्धिवर्ग Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 500 2-3-27 (535) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन प्रतिविसर्जयति, प्रतिविसर्म्य इमं एतद्रूपं अभिग्रहं अभिगृह्णाति, तद्यथा-द्वादश वर्षाणि व्युत्सृष्टकाय: त्यक्तदेहः ये केचित् उपसर्गाः समुत्पद्यन्ते, तदयथा-दिव्याः वा मानुष्याः वा तैरिश्चिका: वा, तान् सर्वान् उपसर्गान् समुत्पन्नान् सतः सम्यग् सहिष्ये क्षमिष्ये अध्यास्ये ततश्च श्रमणः भगवान् महावीरः इमं एतद्रूपं अभिग्रहं अभिगृह्य व्युत्सृष्टत्यक्तदेहः दिवसे मुहूर्तशेषे कुमारग्रामं समनुप्राप्तः / ततश्च श्रमणः भगवान् महावीरः व्युत्सृष्टत्यक्तदेहः अनुत्तरेण आलयेन अनुत्तरेण विहारेण एवं संयमेन प्रग्रहेण संवरेण तपसा ब्रह्मचर्यवासेन क्षान्त्या मुक्त्या समित्या गुप्त्या तुष्ट्या स्थानेन क्रमेण सुचरितफलनिर्वाणमुक्तिमार्गेण आत्मानं भावयन् विहरति / एवं वा विहरत: ये केचित् उपसर्गाः समुत्पद्यन्ते, दिव्याः वा मानुष्याः वा तैरिश्चिकाः वा, तान् सर्वान् उपसर्गान् समुत्पन्नान् सत: अनाकुल: अव्यथित: अदीनमना: त्रिविधमनो वचनकायगुप्तः सम्यक सहते क्षमते तितिक्षते अध्यास्ते। ततश्च श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य एतेन विहारेण विहरतः द्वादश वर्षाः व्यतिक्रान्ता: अयोदशमस्य च वर्षस्य पर्याये वर्तमानस्य यः असौ ग्रीष्मस्य द्वितीय: मास: चतुर्थः पक्षः वैशाखशुक्लः, तस्य च वैशाखशुक्लस्य दशमी-पक्षे सुव्रते दिवसे विजये मुहूर्ते हस्तोत्तराभिः नक्षत्रेण योगोपगतेन प्राचीनगामिन्यां छायायां व्यक्तायां पौरुष्यां जृम्भिकग्रामस्य नगरस्य बहिस्तात् नद्याः ऋजुवालुकाया: उत्तरकुले श्यामकस्य गृहपतेः काष्ठकरणे ऊध्वं जानु-अधः शिरस: ध्यानकोष्ठोपगतस्य व्यवृत्तस्य चैत्यस्य उत्तरपूर्वे दिग्भागे शालवृक्षस्य अदूरपार्धे उत्कुटुकस्य गोदोहिकया आतापनया आतापयत: षष्ठेन भक्तेन अपानकेन शुक्लध्यानान्तरिकायां वर्तमानस्य निर्वाणे कृत्स्ने प्रतिपूर्णे अव्याहते निरावरणे अनन्ते अनुत्तरे केवलवरज्ञानदर्शने समुत्पन्ने। स: भगवान् अर्हन् जिन: केवली सर्वज्ञः सर्वभावदर्शी सदेवमनुजासुरस्य लोकस्य पर्यायान् जानाति, तद्यथा-आगतिं गतिं स्थितिं च्यवनं उपपातं भुक्तं पीतं कृतं प्रतिसेवितं आवि:कर्म रहःकर्म लपितं कथितं मनोमानसिकं सर्वलोके सर्वजीवानां सर्वभावान् जानन् पश्यन् च एवं विहरति / यस्मिन् दिवसे श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य निर्वाणे कृत्स्ने यावत् केवलवरज्ञानदर्शने समुत्पन्ने, तस्मिन् दिवसे भवनपतिवानव्यन्तर-ज्योतिष्क-विमानवासिदेवैः च देवीभिश्च उत्पतद्भिः यावत् आकाश: उत्पिञ्जलकभूतश्च अपि अभवत्। ततश्च श्रमण: भगवान् महावीरः उत्पन्नवरज्ञानदर्शनधरः आत्मानं च लोकं च . अभिसमीक्ष्य पूर्वं देवानां धर्ममाख्याति, ततः पश्चात् मनुष्याणाम् / ततश्च श्रमणः भगवान् महावीरः उत्पन्नवरज्ञानदानधरः गौतमादीनां श्रमणानां Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-27 (535) 501 पच महाव्रतानि सभावनानि षड्जीवनिकायान् आख्याति भाषते प्रसपयति, तद्यथा -पृथ्वीकाय: यावत् प्रसकाय: / / 535 // III सूत्रार्थ : क्षायोपशमिक सामायिक चारित्र ग्रहण करते ही श्रमण भगवान महावीर को मनः पर्याय ज्ञान उत्पन्न हुआ। जिसके द्वारा वे अढाई द्वीप, दो समुद्रों में स्थित संज्ञीपर्याप्त पञ्चेन्द्रिय जीवों के मनोगत भावों को स्पष्ट जानने लगे। श्रमण भगवान महावीर ने प्रव्रजित होने के पश्चात् अपने मित्र ज्ञाति और स्वजन सम्बन्धि वर्ग को विसर्जित किया और उन सभी के चले जाने के बाद भगवान ने इस प्रकार का अभिग्रह प्रतिज्ञा धारण किया कि मैं आज से लेकर बारह वर्ष तक अपने शरीर पर ममत्व नहीं रखूगा और देव, मनुष्य और तिर्यंच सम्बन्धि जो भी उपसर्ग उत्पन्न होंगे, उन सभी उपसर्गों को समभाव पूर्वक सहन करुंगा, सदा क्षमा भाव रखूगा, और स्थिरता पूर्वक उन कष्टों पर विजय प्राप्त करुंगा अर्थात् उनको सहन करने में किसी प्रकार से खिन्न एवं अप्रसन्न नहीं होऊंगा। . / शरीर पर से ममत्व त्याग के अभिग्रह से युक्त श्रमण भगवान महावीर-जिस दिन दीक्षा ग्रहण की, उसी दिन शाम को एक मुहूर्त (48 मिनट) दिन रहते कुमार ग्राम पहुंचे। तदनन्तर शरीर के ममत्व और संस्कार का परित्याग करने वाले श्रमण भगवान महावीर अनुपम वसती के सेवन से, अनुपम विहार से, एवं अनुपम संयम, संवर, तप, ब्रह्मचर्य, क्षमा, निर्लोभता, समिति, गुप्ति, सन्तोष, कायोत्सर्गादि स्थान और अनुपम क्रियानुष्ठान से तथा सच्चरित के फलरुप निर्वाण और मुक्ति मार्ग-ज्ञान दर्शन-चारित्र के सेवन से युक्त होकर आत्मा को भावित करते हुए विचरते हैं। इस प्रकार विचरते हुए श्रमण भगवान महावीर को देव, मनुष्य और तिर्यंच सम्बन्धि जो कोई भी उपसर्ग प्राप्त हुए वे उन सब उपसर्गों को खेद रहित, बिना दीनता के समभावपूर्वक सहन करते रहे। और वे मन वचन तथा काया से गुप्त होकर उन उपसर्गों को भली भान्ति सहन करते और उपसर्ग दाताओं को क्षमा करते तथा सहिष्णुता और स्थिर भावों से उन पर विजय प्राप्त करते थे। श्रमण भगवान् महावीर को इस प्रकार के विहार से विचरते हुए बारह वर्ष व्यतीत हो गए / तेरहवें वर्ष के मध्य में ग्रीष्म ऋतु के दूसरे मास और चौथे पक्ष में अर्थात् वैशाख शुक्ला दशमी के दिन सुव्रत नामक दिवस के विजय मुहूर्त में, उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग आने पर दिन के पिछले पहर, जुम्भक नामक नगर के बाहर ऋजुवालिका Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 502 2-3-27 (535) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन नदी के उत्तर तट पर, श्यामाक गृहपति के क्षेत्र में वैयावृत्य नामक यक्ष मन्दिर के ईशान कोण में शाल वृक्ष के कुछ दूरी पर ऊंचे घुटने और नीचा सिर कर के ध्यान रुप कोष्ट में प्रविष्ट हुए तथा उत्कटुक और गोदोहिक आसन से सूर्य की आतापना लेते हुए, निर्जल छट्ठ भक्त तप युक्त शुक्ल ध्यान करते हुए भगवान को निर्दोष, सम्पूर्ण, प्रतिपूर्ण, निव्याघात, निरावरण, अनंत, अनुत्तर, सर्वप्रधान केवल ज्ञान और केवल दर्शन उत्पन्न हुआ। वे भगवान अर्हत्, जिन, केवली, सर्वज्ञ, सर्वभावदर्शी, देव, मनुष्य और असुरकुमार तथा लोक के सभी पर्यायों को जानते हैं, जैसे कि- जीवों की आगति, गति, स्थिति, च्यवन, उत्पाद तथा उनके द्वारा खाए-पीए पदार्थों एवं उनके द्वारा सेवित प्रकट एवं गुप्त सभी क्रियाओं को तथा अन्तर रहस्यों को एवं मानसिक चिन्तन को प्रत्यक्ष रुप से जानते हुए देखते हैं। वे सम्पूर्ण लोक में स्थित सर्व जीवों के सर्व भावों को तथा समस्त पुद्गलों-परमाणुओं को जानते देखते हुए विचरते हैं। जिस दिन श्रमण भगवान महावीर स्वामी को केवल ज्ञान और केवल दर्शन उत्पन्न हआ उसी दिन भवनपति. वाण व्यन्तर- ज्योतिषी और वैमानिक देवों के आने से आकाश आकीर्ण हो रहा था और वहां का सारा आकाश प्रदेश जगमगा रहा था। तदनन्तर उत्पन्न प्रधान ज्ञान और दर्शन के धारक श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने केवल ज्ञान द्वारा अपनी आत्मा तथा लोक को भली भांति देखकर पहले देवों को ओर पश्चात् मनुष्यों को धर्म का उपदेश दिया। तत् पश्चात् केवल ज्ञान और दर्शन के धारक श्रमण भगवान महावीर ने गौतमादि श्रमणों को भावना सहित पांच महाव्रतों और पृथिवी आदि षट् जीव निकाय के स्वरुप का सामान्य प्रकार से तथा विशेष प्रकार से अर्द्धमागधी भाषा में प्रतिपादन किया। IV टीका-अनुवाद : सुत्रार्थ पाठसिद्ध होने से टीका नहिं हैं..... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में मनः पयार्य ज्ञान का वर्णन किया गया है। इस ज्ञान से व्यक्ति ढाई द्वीप और दो समुद्रों में स्थित पर्याप्त संज्ञी पधेन्द्रिय जीवों को मनोगत भावों को जान सकता है जिस समय भगवान ने सामायिक चारित्र स्वीकार किया उसी समय उन्हें यह ज्ञान प्राप्त हो गया और वे मन वाले प्राणियों के मानसिक भावों को देखकर जानने लगे। इससे यह स्पष्ट हो गया कि मनःपर्याय ज्ञान क्षेत्र एवं विषय की दृष्टि से ससीम है Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-27 (535) 503 और इससे उन्हीं प्राणियों के मानसिक भावों को जाना जा सकता है, जिन के मन है। क्योंकि - मन वाले प्राणी ही स्पष्ट रूप से मानसिक चिन्तन कर सकते हैं। अतः उनके चिन्तन से मनोवर्गणा के पुद्गलों के बनते हुए आकारों के द्वारा उनके बारे में चिन्तन कर सकते हैं। अतः उनके चिन्तन से मनोवर्गणा के पुद्गलों के बनते हुए आकारों के द्वारा उनके चिन्तन का, उनके मानसिक विचारों का स्पष्ट परिचय मिल जाता है। इस में दूसरी बात यह बताई गई है कि सामायिक चारित्र की प्राप्ति क्षयोपशम भाव में हुई है। इससे स्पष्ट होता है कि आध्यात्मिक साधना का ग्रहण क्षायोपशमिक भाव में ही किया जा सकता है, औदयिक भाव में नहीं। क्योंकि सम्यग्ज्ञान पूर्वक की गई आध्यात्मिक क्रियाएं ही सम्यग् होती हैं और सम्यग्ज्ञान क्षयोपशम भाव में ही प्राप्त होता है। अतः सामायिक चारित्र को क्षायोपशमिक भाव में माना गया है। प्रस्तुत सूत्र में भगवान महावीर की महान साधना एवं सहिष्णुता का उल्लेख किया गया है। भगवान ने दीक्षा ग्रहण करते ही अपने शरीर पर से सर्वथा आसक्ति हटा दी। उन्होंने यह प्रतिज्ञा ग्रहण की कि मै 12 वर्ष तक अर्थात् सर्वज्ञता प्राप्त नहीं होने तक देव-दानव, मानव और तिर्यश्च-पशु पक्षी एवं क्षुद्र जन्तुओं द्वारा होने वाले किसी भी परीषह का, उपसर्ग का प्रतिकार नहीं करूंगा, आने वाले समस्त कष्टों को समभाव पूर्वक सहन करुंगा, सब प्रणियों के प्रति क्षमा एवं मैत्री भाव रखूगा। अपने को कष्ट देने वाले किसी भी प्राणी के अहित का संकल्प नहीं करूंगा। वस्तुतः यह भावना उनकी उत्कट साधना एवं महान् शक्ति की परिचायक है। इसी विशिष्ट शक्ति के कारण आप वर्द्धमान एवं श्रमणत्व से आगे बढ़कर महावीर बने। भगवान की महावीरता प्राणियों को दण्डे से दबाने में नहीं, प्रत्युत महान् कष्टों को समभाव पूर्वक सहने, दुःखों की संतप्त दोपहरी में भी शान्त एवं अटल भाव से आत्म चिन्तन में संलग्न रहने, आततायियों को भी मित्र समझकर उन्हें क्षमा करने तथा राग-द्वेष एवं कषाय रुप आध्यात्मिक शत्रुओं का नाश करने में थी। इस प्रकार अनेक उपसर्गों को समभाव पूर्वक सहन करते हुए भगवान महावीर विहार करते हैं, उनकी विहारचर्चा का उल्लेख सूत्रकार आगे के सूत्र से करते है। इसमें यह बताया गया है कि भगवान ने जिस दिन दीक्षा ग्रहण की उसी दिन पहला विहार कुमार याम की ओर किया और सूर्यास्त से एक मुहूर्त (48 मिनट) पहले कुमार याम पहुंच गए। विहार के समय भगवान की क्या वृत्ति थी, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार आगे कहते हैं। Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2-3-27 (535) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन __ प्रस्तुत सूत्र में भगवान महावीर की महान् एवं विशुद्ध साधना का उल्लेख किया गया है। वे सदा निर्दोष, प्रासुक एवं एषणीय स्थानों में ठहरते थे और वे ईर्या के सभी दोषों से निवृत्त होकर सदा अप्रमत्त भाव से विहार करते थे और उत्कृष्ट तप, संयम, समिति-गुप्ति, क्षमा, स्वाध्याय-कायोत्सर्ग आदि से आत्मा को शुद्ध बनाते हए विचर रहे थे। कहने का तात्पर्य यह कि भगवान महावीर का प्रत्येक क्षण आत्मा को राग-द्वेष एवं कर्म बन्धनों से सर्वथा मुक्तउन्मुक्त बनाने में लगता था। भगवान की सहिष्णुता का उल्लेख करते हुए सूत्रकार आगे कहते हैं। प्रस्तुत सूत्र में भगवान की सहिष्णुता, क्षमा एवं आध्यात्मिक साधना के विकास का वर्णन किया गया हैं। वे सदा समभाव पूर्वक विचरते थे। कभी भी कष्टों से विचलित नहीं हुए और न भयंकर वेदना देने वाले व्यक्ति के प्रति उन्होंने द्वेष भाव रखा वे क्षमा के अवतार प्रत्येक प्राणी को तन, मन और वचन से क्षमा ही करते रहे। वह अभय का देवता सब प्राणियों को अभय दान देता रहा। यही भगवान महावीर की साधना थी कि दुःख देने वाले के प्रति द्वेष मत रखो, सब के प्रति मैत्री भाव रखो, सब को क्षमा दो और आने वाले प्रत्येक दुःख सुख को समभाव पूर्वक सहन करो। इस महान् साधना एवं घोर तपश्चर्या के द्वारा राग-द्वेष एवं चार घातिक कर्मों का क्षय करके भगवान ने केवल ज्ञान, केवल दर्शन को प्राप्त किया। इसका उल्लेख सूत्रकार आगे करते हैं। प्रस्तुत सूत्र में बताया है कि साधना के बारह वर्ष कुछ महीने बीतने पर वैशाख शुक्ला 10 को जृम्भक ग्राम के बाहर, ऋजुवालिका नदी के तट पर, श्यामाक गृहपति के क्षेत्र (खेत) में, जहां जीर्ण व्यन्तरायतन था, दिन के चतुर्थ पहर में, सुव्रत नामक दिन, विंजय मुहूर्त एवं उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का चन्द्र के साथ योग होने पर उक्कडु और गोदुह आसन से शुक्ल ध्यान में संलग्न भगवान ने राग-द्वेष एवं ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इस चार घातिक कर्मों का सर्वथा क्षय करके केवल, ज्ञान, केवल दर्शन को प्राप्त किया। प्रस्तुत प्रसंग में मुहूर्त आदि के वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि उस समय लौकिक पंचांग की ज्योतिष गणना को स्वीकार किया जाता था। ग्राम, नदी आदि के नाम के साथ * देश (प्रान्त) के नाम का उल्लेख कर दिया जाता तो वर्तमान में उस स्थान का पता लगाने में कठिनाई नहीं होती और इससे लोगों में स्थान सम्बन्धी भ्रान्तियां नही फैलतीं और ऐतिहासिकों में विभिन्न मतभेद पैदा नहीं होता। परन्तु इसमें देश का नामोल्लेख नहीं होने से यह पाठ विद्वानों के लिए चिन्तनीय एवं विचारणीय है। Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-27 (535) 505 केवल ज्ञान के सामर्थ्य का वर्णन सूत्रकार आगे करते हैं। इसमें बताया गया है कि भगवान समस्त लोकालोक को तथा लोक में स्थित समस्त जीवों को, उनकी पर्यायों को, संसारी जीवों के प्रत्येक प्रकट एवं गुप्त कार्यो तथा विचारों को तथा अनन्त-अनन्त परमाणुओं एवं उनसे निर्मित पुद्गलों एवं उनकी पर्यायों को जानते-देखते है। लोक के साथ-साथ अलोक में स्थित अनन्त आकाश प्रदेशों को भी वे जानते देखते हैं। केवल ज्ञान एवं केवल दर्शन संपन्न महावीर को अर्हन्त, जिन सर्वज्ञ, सर्वदर्शी आदि कहते हैं। केवल ज्ञान का अर्थ है- वह ज्ञान जो पदार्थों की जानकारी के लिए पूर्ववर्ती मति, श्रुत, अवधि एवं मनः पर्याय चारों ज्ञानो में से किसी की अपेक्षा नहीं रखता है। वह केवल अर्थात् अकेला ही रहता है, और किसी अन्य ज्ञान की सहायता के बिना ही समस्त पदार्थों के समस्त भावों को जानता देखता है। प्रस्तुत सूत्र में सर्वज्ञ और सर्वदर्शी शब्द का प्रयोग किया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि सर्वज्ञ को पहले समय में ज्ञान होता है और दूसरे समय दर्शन होता है। जब कि छास्थ को प्रथम समय में दर्शन और द्वितीय समय ज्ञान होता है। इस पर जम्बद्वीप प्रज्ञप्ति में विस्तार से विचार किया गया है और वृत्तिकार ने उस पर विशेष रुप से प्रकाश डाला है। भगवान को केवल ज्ञान होने के बाद देवों ने उसका महोत्सव मनाया, उसका उल्लेख सूत्रकार आगे करते हैं। प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि जब भगवान को केवल ज्ञान, केवल दर्शन प्राप्त हुआ तो उनके द्वारा होने वाले अनन्त उपकार का स्मरण करके तथा उस महावीर प्रभु के चरणों में अपनी श्रद्धा अर्पण करने के लिए भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देव वहां आए और उन्होंने कैवल्य महोत्सव मनाया। अब भगवान द्वारा दी गई धर्मदेशना (उपदेश) का वर्णन सूत्रकार आगे करते हैं। प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि भगवान ने अपनी सेवा में उपस्थित चारों जाति के देवों को धर्मोपदेश दिया। उसके बाद उन्होंने जनता (मनुष्यों) को धर्मोपदेश दिया। इससे दो बातें स्पष्ट होती है, एक तो यह कि महापुरुष अपने पास आने वाले देव, मानव आदि प्रत्येक को धर्मोपदेश देकर सन्मार्ग बताते हैं, उन्हें समस्त बन्धनों से मुक्त होने की राह बताते हैं। दूसरी बात यह है कि तीर्थंकर पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के बाद ही उपदेश देते हैं। वे जब संपूर्ण पदार्थो के यथार्थ स्वरुप को जानते-देखने लगते हैं, तभी वे प्रवचन करते हैं। जिससे उनके प्रवचन में विरोध एवं विपरीतता को अवकाश नहीं रहता और उसमें यथार्थता होने के कारण जनता के हृदय पर भी उसका असर होता है। Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 506 2-3-28 (536) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन स्थानांग सूत्र में बताया गया है कि भगवान के प्रथम प्रवचन में केवल देव ही उपस्थित थे, उस समय कोई मानव वहां उपस्थित नहीं था। और देव त्याग, व्रत, नियम आदि को स्वीकार नहीं कर सकते। इस कारण भगवान का प्रथम प्रवचन व्रत स्वीकार करने की (आचार की) अपेक्षा से असफल रहा था। इसलिए इस घटना को आगम में अन्य आश्चर्यकारी घटनाओं के साथ आश्चर्य जनक माना गया है। अब मानव को दिए गए धर्मोपदेश के संबन्ध में सूत्रकार आगे कहते हैं। प्रस्तुत सूत्र में भगवान द्वारा दिए गए उपदेश का वर्णन किया गया है। इसमें बताया गया है कि देवों को उपदेश देने के बाद भगवान ने गौतम आदि गणधरों, साधु-साध्वियों एवं श्रावक श्राविकाओं के सामने 5 महाव्रत एवं उसकी 25 भावनाओं तथा षट्जीवनिकाय आदि का उपदेश दिया। इससे यह स्पष्ट होता है कि भगवान को सर्वज्ञता प्राप्त होने के बाद इन्द्रभूति गौतम आदि विद्वान उनके पास आए और विचार-चर्चा करने के बाद भगवान के शिष्य बन गए। अतः उन्हें एवं अन्य जिज्ञासु मनुष्यों को मोक्ष का यथार्थ मार्ग बताने के लिए संयम साधना के स्वरूप को बताना आवश्यक था। जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति में भगवान ऋषभदेव के सम्बन्ध में कहा गया है कि भगवान ऋषभदेव कहते हैं कि जैसे यह संयम साधना या मोक्ष मार्ग मेरे लिए हितप्रद, सुखप्रद, एवं सर्व दुखों का नाशक है, उसी तरह जगत के समस्त प्राणियों के लिए भी अनन्त सुख-शान्ति का द्वार खोलने वाला है। अतः सभी तीर्थंकर जगत के सभी प्राणियों की रक्षा रुप दया के लिए उपदेश देते है। उनका यही उद्देश्य रहता है सभी प्राणी साधना के यथार्थ स्वरुप को समझकर उस पर चलने का प्रयत्न करे / इसी दृष्टि से भगवान महावीर गौतम आदि सभी साधु साध्वियों एवं अन्य मनुष्यों के सामने उपदेश देते हैं और साधना के प्रशस्त पथ का-जिस पर चलकर आत्मा अनन्त शान्ति को पा सके, प्रसार एवं प्रचार करने के लिए चतुर्विध संघ स्वरूप तीर्थ-साध, साध्वी, श्रावक और श्राविका की स्थापना करते हैं। प्रत्येक तीर्थंकर सर्वज्ञ बनने के बाद तीर्थ की स्थापना करते हैं, इसे संघ भी कहते हैं। जिसके द्वारा विश्व में धर्म का, अहिंसा का शान्ति का प्रचार किया जा सके। ___ इस तरह साधना के मार्ग का यथार्थ रुप बताते हुए भगवान महावीर प्रथम महाव्रत के सम्बन्ध में सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे के सूत्र से कहते है I सूत्र // 28 // // 536 // पढमं भंते ! महव्वयं पच्चक्खामि, सव्वं पाणाइवायं, से सुहमं वा बायरं वा तसं वा थावरं वा, नेव सयं पाणाइवायं करिज्जा, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणसा वयसा Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %3 श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-28 (538) 507 कायसा, तस्स भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि, तस्सिमाओ .पंच भावणाओ भवंति। तत्थिमा पढमा भावणा-ईरियासमिए से णिग्गंथे नो अणईरियासमिएति, केवली बूया० अणईरियासमिए से णिग्गंथे पाणाइं भूयाइं जीवाइं सत्ताइं अभिहणिज्ज वा वत्तिज्ज वा परियाविज्ज वा लेसिज्ज वा उद्दविज्ज वा, ईरियासमिए से णिग्गंथे, नो ईरियाअसमिएत्ति पढमा भावणा। अहावरा दुच्चा भावणा-मणं परियावइ से णिग्गंथे, जे य मणे पावए सावज्जे सकिरिए अण्हयकरे छेयकरे भेयकरे अहिगरणिए पाउसिए पारियाविए पाणाइवाइए भूओवघाइए, तहप्पगारं मणं नो पधारिज्जा गमणाए, मणं परिजाणड से णिग्गंथे, जे य मणे अपावएत्ति दुच्चा भावणा। अहावरा तच्चा भावणा-वइं परिजाणड से णिग्गंथे, जा य वई पाविया सावज्जा सकिरिया जाव भूओवघाइया तहप्पगारं वइं नो उच्चारिज्जा, जे वई परिजाणड से णिग्गंथे, जावं वई अपावियत्ति तच्चा भावणा। अहावरा चउत्था भावणा-आयणभंडमत्त-निक्खेवणासमिए से णिग्गंथे, नो अणायाणभंड- मत्तनिक्खेवणासमिए, केवली बूयाo- आयाणभंड-मत्तनिक्खेवणाअसमिए से णिग्गंथे पाणाइं भूयाई जीवाइं सत्ताई अभिहणिज्जा वा जाव उद्दविज्ज वा, तम्हा आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए से णिग्गंथे, नो आयाणभंडमत्तनिक्खेवणाअसमिएत्ति चउत्था भावणा। अहावरा पंचमा भावणा-आलोइयपाणभोयण-भोई से णिग्गंथे, नो अणालोइयपाणभोयणभोई, केवली बूया० अणालोयपाणभोयणभोई से णिग्गंथे पाणाणि वा, अभिहणिज्ज वा जाव उद्दविज्ज वा, तम्हा आलोइयपाणभोयणभोई से णिग्गंथे, नो अणालोइय-पाणभोयणभोइत्ति पंचमा भावणा। एयावता महव्वए सम्म काएणं फासिए पालिए तीरिए किट्टिए अवट्ठिए आणाए आराहिए यावि भवइ, पढमे भंते ! महव्वए पाणाइवायाओ वेरमणं // 536 // II संस्कृत-छाया : प्रथमं भदन्त ! महाव्रतं प्रत्याख्यामि, सर्वं प्राणातिपातं, तत् च सूक्ष्म वा बादरं वा असं वा स्थावरं वा, नैव स्वयं प्राणातिपातं करोमि , यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वचसा कायेन, (तं) तस्य हे भदन्त ! प्रतिक्रमामि निन्दामि गहें आत्मानं च Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 508 2-3-28 (538) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन %3 व्युत्सृजामि। तस्य इमाः पच-भावनाः भवन्ति, तत्र इयं प्रथमा भावना-ईर्यासमितः सः निर्ग्रन्थः, न अनीर्यासमितः इति, केवली ब्रूयात् आदानमेतत्- अनीर्यासमितः सः निग्रन्थः प्राणिनः भूतानि जीवान् सत्त्वान् अभिहन्यात् वा वर्तयेत् वा परितापयेत् वा श्लेषयेत् वा अपद्रावयेत् वा, ईर्यासमित: स: निन्थः , न अनीर्यासमितः इति प्रथमा भावना। अथाऽपरा द्वितीया भावना-मनः परिजानाति सः निर्ग्रन्थः / यत् च मन: पावकं सावधं सक्रिय आश्रवकरं छेदकरं भेदकरं अधिकरणकं प्राद्वेषिकं पारितापिकं प्राणातिपातिकं भूतोपघातिकं च तथाप्रकारं मनः न प्रधारयेत् गमनाय / य: मनः परिजानाति सः निर्ग्रन्थः / यत् च मन: अपापकं इति द्वितीया भावना। अथाऽपरा तृतीया भावना-वाचं परिजानाति स: निर्ग्रन्थः, या च वाक् पापिका सावद्या सक्रिया यावत् भूतोपघातिका, तथाप्रकारां वाचं न उच्चारयेत्, य: वाचं परिजानाति सः निर्ग्रन्थः, या च वाक् अपापिका इति तृतीया भावना। अथाऽपरा चतुर्थी भावना-आदानभाण्डमात्र-निक्षेपणा-समितः सः निर्ग्रन्थः, न अनादानभाण्ड-मात्रनिक्षेपणासमितः, के वली ब्रूयात् आदानमेतत् - आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणाऽसमितः सः निर्ग्रन्थः प्राणिनः भूतानि जीवान् सत्त्वान् अभिहन्याद् वा यावत् अपद्रावयेत् वा, तस्मात् आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणा-समितः सः निर्ग्रन्थः, न आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणाऽसमित: इति चतुर्थी भावना। अथाऽपरा पथमी भावना-आलोकितपान-भोजनभोजी सः निर्ग्रन्थः, न अनालोकितपान-भोजनभोजी, केवली ब्रूयात् आदानमेतत्, अनालोकितपानभोजनभोजी सः निन्थ, प्राणिनः, अभिहन्याद् वा यावत् अपद्रावयेत् वा, तस्मात् आलोकितपानभोजनभोजी स: निर्ग्रन्थः, न अनालोकितपानभोजनभोजी इति पञ्चमी भावना। एतावता महाव्रतं सम्यक् कायेन स्पर्शितं पालितं तीर्ण कीर्तितं अवस्थितं आज्ञया आराधितं च अपि भवति, प्रथमं भदन्त ! महाव्रतं प्राणातिपातात् विरमणम् // 536 // III सत्रार्थ : हे भगवन् में प्रथम महाव्रत में प्राणतिपात से सर्वथा निवृत होता, हूं, मैं सूक्ष्म, बादर, अस-स्थावर समस्त जीवों का न तो स्वयं प्राणातिपास-हनन करूंगा, न दूसरों से कराऊंगा, Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-28 (536) 509 और न उनका हनन करने वालों की अनुमोदना करुंगा। हे भगवन् ! मैं यावज्जीव अर्थात् जीवनपर्यन्त के लिए तीन करण और तीन योग से- मनसे वचन से और काया से इस पाप से प्रतिक्रमण करता हूं, पीछे हटता हूं, आत्म साक्षी से इस पाप की निन्दा करता हूं और गुरु साक्षी से गर्हणा करता हूं। तथा अपनी आत्मा को हिंसा के पाप से पृथक करता हूं। . प्रथम महाव्रत की 5 भावनाएं होती है उनमें से पहली भावना यह है—नियन्थ ईर्या समिति से युक्त होता है, न कि उससे रहित। भगवान कहते हैं कि ईर्या समिति का अभाव कर्म आने का द्वार है। क्योंकि इससे रहित निर्ग्रन्थ प्राणी, भूत, जीव और सत्व की हिंसा करता है उन्हें एक स्थान से स्थानान्तरित करता है, परिताप देता है, भूमि से संश्लिष्ट करता है और जीवन से रहित करता है। इसलिए निर्ग्रन्थ को ईर्या समिति युक्त होकर संयम का आराधन करना चाहिए, यह प्रथम भावना है। अब दूसरी भावना को कहते हैं- जो मन को पापों से हटाता है वह नियन्थ है। साधु ऐसे मन (विचारों) को धारण न करे कि- जो पापकारी, सावधकारी, क्रिया युक्त, आश्रव करने वाला, छेदन तथा भेदन करने वाला, कलहकारी, द्वेषकारी, परितापकारी, प्राणों का अतिपात करने वाला और जीवों का उपघातक है। जो अपने मनको पाप से हटाता है वह निय॑न्ध है, यह दूसरी भावना है। अब तीसरी भावना का स्वरुप कहते हैं- जो साधक सदोष वाणी-वचन का त्यागी है, वह निर्यन्थ है। जो वचन पापमय, सावद्य और सक्रिय यावत् भूतों-जीवों का उपघातक, विनाशक हो, साधु उस वचन का उच्चारण न करे। जो वाणी के दोषों को जानकर उन्हें छोड़ता है और पाप रहित निर्दोष वचन का उच्चारण करता है उसे निर्ग्रन्थ कहते हैं। यह तीसरी भावना है। अब चतुर्थ भावना को कहते हैं- जो आदान भाण्डमात्र निक्षेपणा समिति से युक्त होता है वह निम्रन्थ है। अतः साधु आदान भाण्डमात्र निक्षेपणा समिति से रहित न हो, क्योंकि केवली भगवान कहते हैं कि जो इससे रहित होता है, वह निर्ग्रन्थ प्राणी भूत, जीव, और सत्वों का हिंसक होता है यावत् उनको प्राणों से रहित करने वाला होता है। अतः जो साधु इस समिति से युक्त है वह नियन्थ है। यह चौथी भावना है। __अब पांचवी भावना को कहते हैं-जो साधु विवेक पूर्वक आलोकित आहार-पानी करता है वह निय॑न्थ है और जो साधु अनालोकित आहार पानी करता है, वह नियन्थ प्राणि आदि जीवों की हिंसा करता है, उन्हें प्राणों से पृथक् करता है। इसलिए देखे गये आहार पानी करने वाला ही नियन्थ होता है यह पांचवीं भावना है। Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5102-3-28 (536) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन साधक द्वारा स्वीकृत प्राणातिपात (हिंसा) के त्याग रुप प्रथम महाव्रत को इस प्रकार काया से स्पर्शित करके उसका पालन किया जाता है, इस प्रकार प्रथम महाव्रत में साधु प्राणातिपात से निवृत्त होता है। IV टीका-अनुवाद : वह काल और वह समय याने दुःषमसुषम नाम का अवसर्पिणी काल का चौथा आरा... इस चौथे आरे के प्रान्त भाग के विशिष्ट काल-समय में भगवान् महावीर प्रभु हुए थे... इत्यादि... श्री वर्धमान (महावीर) स्वामीजी का च्यवन-कल्याणक याने प्राणत-देवलोक से अवतरण... याने देवानंद की कुक्षी में आगमन... उसके बाद शकेंद्र के आदेश से देवानंद की कुक्षी में से त्रिशलाजी की कुक्षी में संहरण... हस्तोतरा याने उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में चन्द्रमा का शुभ योग हुआ था उस समय भगवान् महावीर प्रभुजी का देवलोक से च्यवन, देवानंदा की कुक्षी में से त्रिशलाजी की कुक्षी में संक्रमण, तथा जन्म, दीक्षा एवं केवलज्ञान कल्याणक हुआ था... तीन ज्ञानवाले महावीर प्रभुजी का जीव च्यवन होगा यह बात जानतें थे और च्यवन हुआ यह बात भी जानते थे किंतु च्यवनकाल नही जानते थे, क्योंकि- च्यवनकाल बहुत ही सूक्ष्म काल है... इत्यादि... यावत् आरोग्यवाली त्रिशलादेवी ने आरोग्यवाले महावीर-पुत्र को जन्म दिया... इत्यादि... तथा जन्माभिषेक... बाल्यकाल... यौवनकाल... दीक्षाकाल और केवलज्ञान की प्राप्ति इत्यादि सूत्र से कही गई है... शेष सूत्र के पद सुगम है... अब प्राप्त-केवलज्ञानवाले श्री महावीर प्रभुजी, इंद्रभूति गौतम आदि शिष्यों को प्राणातिपातविरमणादि पांच महाव्रत एवं प्रत्येक महाव्रतों की पांच पांच भावनाएं जो कही थी, उनकी अब क्रमशः व्याख्या करतें हैं... अब प्रथम महाव्रत की पांच भावनाएं इस प्रकार हैं... ईर्यासमितिवाला साधु याने गमनागमन चलने के वख्त साधु साढे तीन हाथ (युग) प्रमाण भूमि को देखते हुए ईर्यासमिति में उपयोगवाला होकर चले... किंतु ईर्यासमिति के सिवा न चले, क्योंकि- केवलज्ञानी प्रभु कहतें हैं कि- ईर्यासमिति के उपयोग बिना चलने से वह साधु प्राणी, जीव, भूत और सत्त्वों को पैरों-पाउ से अभिहत करता है, दूसरी और गिराता है, पीडा उत्पन्न करता है यावत् जीवित का विनाश करता है, अतः साधु ईयर्यासमितिवाला होकर ही चले... Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 2-3-28 (538) 511 दूसरी भावना इस प्रकार है कि- साधु मन से दुर्व्यानवाला न हो, क्योंकि- जो मन पापवाला हो, सावध क्रियावाला हो, कर्मो का आश्रव करनेवाला हो, या छेदन-भेदनादि अधिकरणवाला हो, या कलह करनेवाला हो, या बहुत सारे दोषों से दूषित होने से प्राणी भूत जीव और सत्त्वों को पीडा उत्पन्न करता है अतः साधु मन से समाधिवाला होना चाहिये... 3. अब तीसरी भावना इस प्रकार है कि- साधु दुष्ट-वाणीवाला न हो... क्योंकि- दुष्टवाणी जीवों को अपकार करनेवाली होती है... अतः साधु वाणी-वचन में भाषासमितिवाला होना चाहिये... अब चौथी भावना... साधु वस्त्र एवं पात्र आदि उपकरणों को लेने और रखने में आदाननिक्षेप समितिवाला होना चाहिये... अब पांचवी भावना... साधु आहारादि जो कुछ संयम यात्रा के लिये ग्रहण करे वह आहारादि चक्षु से दिखाई दे उसी प्रकार के होने चाहिये... यदि ऐसा उपयोग न रखा तो साधु को अनेक दोष लगने की संभावना है... इस प्रकार पांच भावनाओं के द्वारा पहले महाव्रत को साधु स्पर्श करे, पाले, आचरण करे एवं कीर्तन = प्रशंसा करे, और प्रभु की आज्ञा से प्रथम महाव्रत में स्थिर होकर आराधे... V सूत्रसार : [ में प्रथम महाव्रत का वर्णन किया गया है। इस महावत को स्वीकार करते समय साधक गुरु के सामने हिंसा से सर्वथा निवृत्त होने की प्रतिज्ञा करता है। वह जीवन पर्यन्त के लिए सूक्ष्म या बादर (स्थूल), अस या स्थावर किसी भी प्राणी की मन, वचन और काया से किसी भी तरह की हिंसा नहीं करता, न अन्य प्राणी से हिंसा करवाता है और हिंसा करने वाले प्राणी का अनुमोदन-समर्थन भी न करे...... प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'प्राणातिपात' का अर्थ है, प्राणों का नाश करना। क्योंकि, प्रत्येक प्राणी में स्थित आत्मा का अस्तित्व सदा काल बना रहता है। अतः प्राणी की हिंसा का अर्थ है, उसके दश द्रव्य प्राणों का नाश करना। और इन दश द्रव्य प्राणों की अपेक्षा से ही संसारी जीव को प्राणी कहा जाता है। क्योंकि, वे संसारी जीव पांच इंद्रिय तीन बल एवं उच्छ्वास तथा आयुष्य आदि दश प्राणों को धारण किए हुए है। महाव्रतों का निर्दोष परिपालन करने के लिए उनकी भावनाओं की विभावना करना आवश्यक है। इसलिए प्रथम महाव्रतों की भावनाओं का उल्लेख सूत्रकार आगे कहते हैं। Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 512 2-3-28 (536) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन प्रस्तुत सूत्र में पहले महाव्रत की पांच भावना का उल्लेख किया गया है। भावना साधक की साधना को शुद्ध रखने के लिए होती है। प्रथम महाव्रत की प्रथम भावना ईयर्यासमिति से संबद्ध है। इस में बताया गया है कि साधु को विवेक एवं यत्न पूर्वक चलना चाहिए। यदि यह विवेक पूर्वक ईर्या समिति का पालन करते हुए चलता है, तो पाप कर्म का बन्ध नहीं करता है। और ईर्यासमिति के अभाव में यदि अविवेक से गति करता है तो पाप कर्म का बन्ध करता है। अतः साधक को ईर्या समिति के परिपालन में सदा सावधान रहना चाहिए। इससे वह प्रथम महाव्रत का सम्यक्तया परिपालन कर सकता है। ईर्या समिति गति से संबद्ध है। अतः चलने-फिरने में विवेक एवं यत्ना रखना साधु के लिए आवश्यक है। अब सूत्रकार द्वितीय भावना के संबन्ध में कहते हैं। प्रस्तुत सूत्र में मन शुद्धि का वर्णन किया गया है। पहले महाव्रत को निर्दोष एवं शुद्ध . बनाए रखने के लिए मन को शुद्ध रखना आवश्यक है। मन के बुरे संकल्प विकल्पों से हिंसा को प्रोत्साहन मिलता है और उसके कारण साधक की प्रवृत्ति में अनेक दोष उत्पन्न होते हैं। क्योंकि कर्म बन्ध का मुख्य आधार मन (परिणाम) है क्रिया से कर्मण वर्गणा के पुद्गल आते हैं, परन्तु उनका बन्ध परिणामों की शुद्धता एवं अशुद्धता या तीव्रता एवं मन्दता पर आधारित है। अन्य दार्शनिकों एवं विचारकों ने भी मन को बन्धन एवं मुक्ति का कारण माना है। बुरे मन से आत्मा पाप कर्मो का संग्रह करके संसार में परिभ्रमण करता है और शभ संकल्प एवं मानसिक शुभ चिन्तन से अशुभ कर्म बन्धनों को तोड़ कर आत्मा मुक्ति की ओर बढ़ती है। अतः साधक को सदा मानसिक संकल्प एवं चिन्तन को शुद्ध बनाए रखना चाहिए। क्योंकि, वाचिक एवं कायिक प्रवृत्ति को विशुद्ध बनाए रखने के लिए मन के चिन्तन को विशेष शुद्ध बनाए रखना आवश्यक है। मानसिक चिन्तन जितना अधिक शुद्ध होगा, प्रवृत्ति उतनी ही अधिक निर्दोष होगी। अतः मानसिक चिन्तन की शुद्धता के बाद वचन शुद्धि का उल्लेख सूत्रकार तीसरी भावना में करते है। प्रस्तुत सूत्र में वाणी की निर्दोषता का वर्णन किया गया है। इसमें स्पष्ट कर दिया गया है कि सावध, सदोष एवं पापकारी भाषा का प्रयोग करने वाला व्यक्ति निर्ग्रन्थ नहीं हो सकता। क्योंकि सदोष एवं पापयुक्त भाषा से जीव हिंसा को प्रोत्साहन मिलता है। अतः साधु को अपने वचन का प्रयोग करते समय भाषा की निर्दोषता पर पूरा ध्यान रखना चाहिए। उसे कर्कश, कठोर, व्यक्ति-व्यक्ति में छेद-भेद एवं फूट डालने वाले, हास्यकारी, निश्चयकारी, अन्य प्राणियों के मन में कष्ट, वेदना एवं पीड़ा देने वाली, सावद्य एवं पापमय भाषा का कभी भी प्रयोग नहीं करना चाहिए। प्रथम महाव्रत की शुद्धि के लिए भाषा की शुद्धता एवं निर्दोषता Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-28 (536) 513 का परिपालन करना आवश्यक है। अब चौथी भावना का विश्लेषण सूत्रकार आगे करते हैं। प्रस्तुत सूत्र में शारीरिक क्रिया की शुद्धि का उल्लेख किया गया है। साधु को मन, वचन की शुद्धि के साथ शारीरिक प्रवृत्ति को भी सदा शुद्ध रखना चाहिए। उसे अपनी साधना में आवश्यक भंडोपकरण आदि ग्रहण करना पड़े या कहीं रखने एवं उठाने की आवश्यकता पड़े तो उसे यह कार्य विवेक एवं यत्न पूर्वक करना चाहिए। अयतना से कार्य करने वाला साधु प्रथम महाव्रत को शुद्ध नहीं रख सकता और वह पाप कर्म बन्ध करता है। क्योंकि अविवक से जीवों की हिंसा का होना संभव है और जीव हिंसा पाप बन्धन का कारण है तथा इससे प्रथम महाव्रत का भी खण्डन होता है। अतः साधु को प्रत्येक उपकरण विवेक से उठाना एवं रखना चाहिए। अब पांचवीं भावना का उल्लेख सूत्रकार आगे करते हैं। प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि साधु को बिना देखे खाने-पीने के पदार्थों का उपयोग नहीं करना चाहिए। आहार को जाने के पूर्व मुनि को अपने पात्र भी भलीभांति देख लेने चाहिएं और उसके बाद प्रत्येक खाद्य एवं पेय पदार्थ सम्यक्तया देख कर ही ग्रहण करना चाहिए और उन्हें देख कर ही खाना पीना चाहिए। बिना देखे पदार्थ लेने एवं खाने से जीवों की हिंसा होने एवं रोग आदि उत्पन्न होने की संभावना होती है। अतः साधु को इस में पूरा विवेक रखना चाहिए। ये पांचों भावनाएं प्रथम महाव्रत को शुद्ध एवं निर्दोष रखने के लिये आवश्यक है। इनके सम्यक् आराधन से साधक अपनी साधना में तेजस्विता ला सकता है। अब प्रथम महाव्रत का उपसंहार सूत्रकार आगे के सूत्र से करते हैं। प्रस्तुत सूत्र में यह अभिव्यक्त किया गया है कि प्रत्येक महाव्रत का महत्व उसके परिपालन करने में है। प्रथम महाव्रत का सम्यक्तया आचरण करने से ही आत्मा का विकास हो सकता है। जब तक महाव्रत जीवन में साकार रुप ग्रहण नहीं करता तब तक साधक की साधना में तेजस्विता नहीं आ सकती। इसलिए साधक को चाहिए कि वह आगम में दिए गये आदेश के अनुसार प्रथम महाव्रत को आचरण में उतारकर जीवन पर्यन्त उसका परिपालन करे, उसक सम्यक्तया आराधन करे। अब द्वितीय महाव्रत का उल्लेख सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सुत्र कहते है Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 514 2-3-29 (537) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन I सूत्र // 29 // // 537 // अहावरं दुच्चं महव्वयं पच्चक्खामि, सव्वं मुसावायं वइदोसं, से कोहा वा लोहा वा भया वा हासा वा, नेव सयं मुसं भासिज्जा, नेवण्णेणं मुसं भासाविज्जा, अण्णं पि मुसं भासंतं न समणुमण्णिज्जा, तिविहं तिविहेणं मनसा वयसा कायसा, तस्स भंते ! पडिक्कमामि जाव वोसिरामि, तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति। तथिमा पढमा भावणा-अणुवीइभासी से णिग्गंथे, नो अणणुवीइभासी, केवली बूया०-अणणुवीइभासी से णिग्गंथे समावज्जिज्ज मोसं वयणाए, अणुवीइभासी से णिग्गंथे, नो अणणुवीइभासित्ति पढमा भावणा। अहावरा दुच्चा भावणा-कोहं परियाणइ से णिग्गंथे नो कोहणे सिया, केवली बूया० कोहप्पते कोहत्तं समावइज्जा मोसं वयणाए, कोहं परियाणइ से णिग्गंथे, न य कोहणे सियत्ति दुच्चा भावणा। अहावरा तच्चा भावणा-लोभं परियाणइ से णिग्गंथे, नो य लोभणे सिया, केवली बूया० लोभपत्ते लोभी समावइज्जा मोसं वयणाए, लोभं परियाणइ से णिग्गंथे, नो य लोभणए सियत्ति तच्चा भावणा। अहावरा चउत्था भावणा-भयं परियाणइ से णिग्गंथे, नो भयभीरुए सिया, केवली बूया० भयपत्ते भीरू समावइज्जा मोसं वयणाए, भयं परियाणड से णिग्गंथे, नो भयभीरुए सिया, इइ चउत्था भावणा। अहावरा पंचमा भावणा-हासं परियाणड से णिग्गंथे, नो य हासणए सिया: केवली बूया० हासपत्ते हासी समावइज्जा मोसं वयणाए, हासे परियाणइ से णिग्गंथे, नो हासणए सियत्ति पंचमी भावणा। एतावता दोच्चे महव्वए सम्म काएण फासिए जाव आणाए आराहिए यावि भवइ, दुच्चे भंते ! महव्वए ! // 537 / / II संस्कृत-छाया : अथाऽपरं द्वितीयं महाव्रतं प्रत्याख्यामि, सर्वं मृषावाद वाग्दोष, सः क्रोधात् वा लोभाद् वा भयात् वा हास्यात् वा, नैव स्वयं मृषां भाषेत, नैव अन्येन मृषां भाषयेत्, अन्यमपि मृषां भाषमाणं न समनुमन्येत, त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वचसा कायेन, तस्य हे भदन्त ! प्रतिक्रामामि यावत् व्युत्सृजामि, तस्य इमाः पच भावनाः भवन्ति। Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-29 (537) 515 तत्र इयं प्रथमा भावना-अनुविचिन्त्यभाषी स: निर्ग्रन्थः, न अननुविचिन्त्यभाषी, केवली ब्रूयात्-अननुविचिन्त्यभाषी स: निर्गन्थ: समापद्येत मृषा-वचनं, अनुविचिन्त्यभाषी स: निग्रन्थः, न अननुविचिन्त्यभाषी इति प्रथमा भावना। अथाऽपरा द्वितीया भावना-क्रोधं परिजानाति स: निन्थः, न क्रोधन: स्यात्, केवली ब्रूयात्०-क्रोधप्राप्तः क्रोधत्वं समापयेत मृषावचनम्, क्रोधं परिजानाति सः निर्ग्रन्थः, न च क्रोधन: स्यात् इति द्वितीया भावना। " अथाऽपरा तृतीया भावना-लोभं परिजानाति सः निर्ग्रन्थः, न च लोभन: स्यात्, केवली ब्रूयात्0- लोभप्राप्त: लोभी समापद्येत मृषावचनम्, लोभं परिजानाति स: निर्ग्रन्थः, न च लोभन: स्यात् इति तृतीया भावना। अथाऽपरा चतुर्थी भावना-भयं परिजानाति स: निर्ग्रन्थः, न च भयभीरुकः स्यात्, केवली ब्रूयात्० भयप्राप्त: भीरुः समापद्येत मृषावचनम्, भयं परिजानाति स: निर्ग्रन्थः, न भयभीरूका स्यात्, इति चतुर्थी भावना / ___ अथाऽपरा अचमी भावना-हास्यं परिजानाति सः निर्ग्रन्थः, न च हसनक: स्यात्, केवली ब्रूयात् हास्यप्राप्तः हासी समापद्येत मृषावचनम्, हास्यं परिजानाति स: निर्ग्रन्थः, न हसनक: स्यात् इति पञ्चमी भावना। एतावता द्वितीयं महाव्रतं सम्यक् कायेन स्पर्शितं यावत् आज्ञया आराधितं च अपि भवति, द्वितीयं हे भदन्त ! महाव्रतम् // 537 / / III सूत्रार्थ : इस द्वितीय महाव्रत में साधक यह प्रतिज्ञा करता है कि- हे भगवन् ! मैं आज से मृषावाद और सदोष वचन का सर्वथा परित्याग करता हूं। अतः साधु क्रोध से, लोभ से, भय से. और हास्य से न स्वयं झठ बोलता है न अन्य व्यक्ति को असत्य बोलने की प्रेरणा देता है और न मृषा भाषण करने वालों का अनुमोदन करता है इस तरह साधक तीन करण एवं तीन योग से मृषावाद का त्याग करके यह प्रतिज्ञा करता है कि हे भगवन् ! “मैं मृषावाद से पीछे हटता हूं, आत्म साक्षी से उसकी निन्दा करता हूं और गुरु साक्षी से उसकी गर्हणा करता हूं और अपनी आत्मा को मृषावाद से सर्वथा पृथक् करता हूं।" इस द्वितीय महाव्रत की ये पांच भावनाएं है उन पांच भावनाओं में से प्रथम भावना यह है जो विचार पूर्वक भाषण करता है वह निर्ग्रन्थ है, बिना विचारे भाषण करने वाला निम्रन्थ नहीं है। केवली भगवान कहते हैं कि बिना Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 516 2-3-29 (537) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन विचारे बोलने वाले निर्ग्रन्थ को मृषा भाषण की संप्राप्ति होती है अर्थात् मिथ्या भाषण का दोष . लगता है अतः विचार पूर्वक बोलने वाला साधक ही निर्ग्रन्थ कहा जा सकता है। द्वितीय महावत की दूसरी भावना यह है कि जो साधक क्रोध के कटु फल को जानकर उसका परित्याग करता है, वह निन्थ है। केवली भगवान का कहना है कि क्रोध एवं आवेश के वश व्यक्ति असत्य वचन का प्रयोग कर देता है। अतः क्रोध से निवृत्त साधक ही निर्यन्थ होता है। तीसरी भावना यह है कि लोभ का परित्याग करने वाला साधक निर्ग्रन्थ होता है। लोभ के वश होकर भी व्यक्ति झूठ बोल देता है, अतः साधक को लोभ नहीं करना चाहिए। चौथी भावना यह है कि भय का सर्वथा परित्याग करने वाला व्यक्ति निर्ग्रन्थ कहलाता है। भय से युक्त व्यक्ति अपने बचाव के लिए झूठ बोल देता है। अतः मुनि को सदा पूर्णतः / भय से रहित रहना चाहिए। इस प्रकार दूसरे महाव्रत को सम्यक् प्रकार से काया से स्पर्शितकर यावत् आज्ञा पूर्वक आराधित करने से हे भदन्त ! यह दूसरा महाव्रत होता है। अर्थात् उक्त महाव्रत की सम्यक्तया अराधना होती है। IV टीका-अनुवाद : अब दूसरे महाव्रत की पांच भावना कहतें हैं... साधु सोच-विचारकर ही बोले, बिना सोचे विचारे बोलने से अनेक दोष लगते हैं... प्रथम भावना... 2. दूसरी भावना- साधु क्रोध का हमेशा त्याग करे, क्योंकि- क्रोधी मनुष्य झूठ भी बोले... ___ तीसरी भावना - साधु लोभ न करे, क्योंकि- लोभ भी मृषावाद का कारण होता है... चौथी भावना- साधु भय का भी त्याग करे... क्योंकि- भय से भी झूठ बोला जाता 5. पांचवी भावना- साधु हास्य का भी त्याग करे.. इस प्रकार पांच भावनाओं से ही दुसरे महाव्रत की अच्छी तरह से आज्ञानुसार आराधना हो सकती है... Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 2-3-29 (537) 517 V सूत्रसार : ___ प्रस्तुत सूत्र में दूसरे महाव्रत का वर्णन किया गया है। असत्य आत्मा के लिए पतन का कारण है। उससे आत्मा में अनेक दोष आते हैं और पाप कर्म का बन्ध होता है। इसलिए साधक असत्य वचन का सर्वथा त्याग करता है और उसके साथ उसके कारणों का भी त्याग करता है। इसमें बताया गया है कि व्यक्ति क्रोध, मान, माया और लोभ के वश होकर झूठ बोलता है। अतः साधक को इन काषायों का त्याग कर देना चाहिए। और यदि कर्मोदय से कभी कषाय का उदय हो रहा हो तो मौन ग्रहण करके पहले कषाय को उपशान्त करना चाहिए, उसके बाद भाषा का प्रयोग करना चाहिए। इससे स्पष्ट होता है कि जो साधक असत्य भाषा का सर्वथा त्याग नहीं करता, वह निर्ग्रन्थ नहीं कहा जा सकता। वस्तुतः असत्य से पूर्णतः निवृत्त साधक ही निर्ग्रन्थ कहा जा सकता है। उक्त, महाव्रत की भावनाओंका उल्लेख सूत्रकार आगे करते हैं। प्रथम महाव्रत की तरह द्वितीय महाव्रत की भी 5 भावनाएं हैं- 1. विवेक विचार से बोलना, 2. क्रोध के वश, 3. लोभ के वश, 4. भय के वश और 5. हास्य के वश असत्य नहीं बोलना चाहिए। भाषा बोलने के पूर्व विवेक रखना प्रत्येक व्यक्ति के लिए हितकर है। परन्तु असत्य का सर्वथा त्याग करने वाले साधक के लिए यह अनिवार्य है कि वह विवेक पूर्वक एवं भाषा की सदोषता तथा निर्दोषता का विचार करके बोले। वह सदा इस बात का ख्याल रखे कि किसी भी तरह असत्य एवं सदोष भाषा का प्रयोग न होने पाए। यह भी स्पष्ट है कि क्रोध और लोभ के वश भी व्यक्ति झूठ बोल सकता है। उस समय उसे बोलने का विवेक नहीं रहता है। इसी तरह भय भी मनुष्य के विवेक को विलुप्त कर देता है। भय से छुटकारा पाने के लिए भी असत्य का सहारा ले लेता है। अतः साधु को इन सब दोषों से मुक्त रहना चाहिए। उसे क्रोध, लोभ एवं भय आदि विकारों से उन्मुक्त होकर विचरना चाहिए। हम देखते हैं कि हंसी-मजाक के वश भी लोग झूठ बोलते हैं। अतः साधक को हास्य से भी दूर रहना चाहिए। हंसी-मजाक से एक तो जीवन की गम्भीरता नष्ट होती है। दूसरे में वह लोगों की दृष्टि में छिछला सा व्यक्ति प्रतीत होता है। स्वाध्याय एवं ध्यान का समय भी व्यर्थ ही नष्ट होता है और साथ में असत्य का भी प्रयोग हो जाता है। इसलिए साधक को हंसी मजाक का परित्याग करके सदा आत्म साधना में संलग्न रहना चाहिए। अब द्वितीय महाव्रत का उपसंहार सूत्रकार आगे कहते हैं। Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 518 2-3-30 (538) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन प्रस्तुत सूत्र में यही बताया गया है कि द्वितीय महाव्रत का महत्व उसके आराधन में हैं। आगम में दिए गए आदेश के अनुसार मन-वचन-काया से उसका आचरण करना ही दूसरे महाव्रत का परिपालन करना है। अतः वचन के बताए गए समस्त दोषों का परित्याग करके दूसरे महाव्रत का पालन करने वाला साधक ही वास्तव में निर्ग्रन्थ एवं आराधक कहलाता है। अब सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी तीसरे महाव्रत के संबंध में आगे का सूत्र कहते I सूत्र // 30 // // 538 // अहावरं तच्चं भंते ! महव्वयं पच्चक्खामि सव्वं अदिण्णादाणं, से गामे वा नगरे वा रणे वा अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा, नेव सयं अदिण्णं गिण्हिज्जा, नेवण्णोहिं अदिण्णं गिहाविजा अदिण्णं अण्णंपि गिण्हतं न समणुजाणिज्जा, जावज्जीवाए जाव वोसिरामि। तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति। तत्थिमा पढमा भावणा-अणुवीड़ मिउग्गहं जाई से णिग्गंथे, नो अणणुवीइ मिउग्गहं जाइ से णिग्गंथे, केवली बूयाo- अणणुवीड़ मिउग्गहं जाई से णिग्गंथे अदिण्णं गिण्हिज्जा, अणुवीइ मिउग्गहं जाई से णिग्गंथे, नो अणणुवीइ मिउग्गहं जाइत्ति पढमा भावणा। ___ अहावरा दुच्चा भावणा-अणुण्णविय पाण-भोयणभोई से णिग्गंथे, नो अणणुण्णविअ पाणभोयणभोई, केवली बूया0- अणणुण्णवियपाणभोयणभोई से णिग्गंथे अदिण्णं भुंजिज्जा, तम्हा अणुण्णवियपाणभोयणभोई से णिग्गंथे, नो अणणुण्णविय पाणभोयणभोईत्ति दुच्चा भायणा / अहावरा तच्चा भावणा-णिग्गंथेणं उग्गहंसि उग्गहियंसि एतावताव उग्गहणसीलए सिया, केवली बूयाo- णिग्गंथेणं उग्गहंसि अणुग्गहियंसि एतावता अणुग्गहणसीले अदिण्णं ओगिण्हिज्जा, णिग्गंथेणं उग्गहं उग्गहियंसि एतावताव उग्गहण सीलएत्ति तच्चा भावणा। अहावरा चउत्था भावणा-णिग्गंथेणं उग्गहसि उग्गहियंसि अभिक्खणं अभिक्खणं उग्गहणसीलए सिया, के वली बूयाo- णिग्गंथेण उग्गहंसि उग्ग० अभिक्खणं, अणुग्गहणसीले अदिण्णं गिण्हिज्जा, णिग्गंथे उग्गहंसि उग्गहियंसि एतावताव उग्गहणसीइएत्ति चउत्था भावणा। Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-30 (538) 519 "अहावरा पंचमा भावणा-अणुवीड मिउग्गहजाई से णिग्गंथे साहम्मिएस, नो अणणुवीड मिउग्गहजाई, केवली बूया०- अणणुवीइ मिउग्गहजाई से णिग्गंथे साहम्मिएसु अदिण्णं ओगिहिज्जा, अणुवीड़ मिउग्गहजाई से णिग्गंथे साहम्मिएसु, नो अणणुवीइ मिउग्गहजाई, इइ पंचमी भावणा। ___एतावया तच्चे महव्वए सम्म० जाव आणाए आराहए यावि भवड, तच्चं भंते ! महव्वयं // 538 // II संस्कृत-छाया : अथाऽपरं तृतीयं भदन्त ! महाव्रतं प्रत्याख्यामि, सर्वं अदत्तादानम्, तत् ग्रामे वा नगरे वा अरण्ये वा, अल्पं वा बहु वा अणु वा स्थूलं वा चित्तवद् वा अचित्तवद् वा, नैव स्वयं अदत्तं गृह्णीयाम् नैव अन्यैः अदत्तं ग्राहयेत्, अदत्तं अन्यं अपि गृहन्तं न समनुजानीयात्, यावज्जीवं यावत् व्युत्सृजामि। तस्य इमाः पञ्च भावनाः भवन्ति। तत्र. इयं प्रथमा भावना-अनुविचिन्त्य मितावग्रहयाची सः निन्थः, ब अननुविचिन्त्य मितावग्रहयाची सः निर्ग्रन्थः, केवली ब्रूयात्०- अननुविचिन्त्य मितावग्रहयाची निर्ग्रन्थः अदत्तं गृह्णीयात्, अनुविचिन्त्य मितावग्रहयाची सः निर्ग्रन्थः, न अननुविचिन्त्य मितावग्रहयाची इति प्रथमा भावना / ___अथाऽपरा द्वितीया भावना-अनुज्ञाप्य पानभोजनभोजी सः निर्ग्रन्थः, न अननुज्ञाप्य पानभोजनभोजी, केवली ब्रूयात्०- अननुज्ञाप्य पानभोजनभोजी स: निर्ग्रन्थः अदत्तं भुञ्जीत, तस्मात् अनुज्ञाप्य पानभोजनभोजी सः निर्ग्रन्थः, न अननुज्ञाप्य पानभोजनभोजी इति द्वितीया भावना। अथाऽपरा तृतीया भावना-निर्ग्रन्थेन अवग्रहे अवगृहीते एतावता अवग्रहणशील: स्यात्, केवली ब्रूयात्०- निर्ग्रन्थेन अवग्रहे अनवगृहीते एतावता अनवग्रहणशीलः अदत्तं अवगृह्णीयात्, निन्थेन अवग्रहं अवगृहीते एतावता अवग्रहणशीलः इति तृतीया भावना / अथाऽपरा चतुर्थी भावना-निर्ग्रन्थेन अवग्रहे अवगृहीते अभीक्ष्णं अभीक्ष्णं अवग्रहणशील: स्यात्, केवली ब्रूयात्०- निन्थेन अवग्रहे अवगृहीते अभीक्ष्णं अभीक्ष्णं अनवग्रहणशीलः अदत्तं गृह्णीयात्, निर्ग्रन्थः अवग्रहे अवगृहीते अभीक्ष्णं अभीक्ष्णं अवग्रहशीलः इति चतुर्थी भावना / अथाऽपरा पञ्चमी भावना-अनुविचिन्त्य मितावग्रहयाची सः निर्ग्रन्थ, साधर्मिकेषु, न अननुविचिन्त्य मितावग्रहयाची, केवली ब्रूयात्- अननुविचिन्त्य मितावग्रहयाची स: Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 520 2-3-30 (538) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन निर्ग्रन्थः साधर्मिकेषु अदत्तं अवगृह्णीयात्, अनुविचिन्त्य मितावग्रहयाची सः निर्ग्रन्थः साधर्मिकेषु, न अननुविचिन्त्य मितावग्रहयाची इति पञ्चमी भावना। एतावता तृतीयं महाव्रतं सम्यक्० यावत् आज्ञया आराधितं च अपि भवति, तृतीयं भदन्त ! महाव्रतम् // 538 // III सूत्रार्थ : हे भगवन् ! मैं तृतीय महाव्रत के विषय में सर्वप्रकार से अदत्तादान का प्रत्याख्यान करता हूं। वह अदत्तादान चोरी से ग्रहण किया जाने वाला पदार्थ चाहे व्याम में, नगर में अरण्यअटवी में हो, स्वल्प हो, बहुत हो, स्थूल हो, अणु हो या एवं सचित अथवा अचित हो उसे न तो स्वयं ग्रहण करुंगा, न दूसरों से ग्रहण कराऊंगा और न ग्रहण करने वाले व्यक्ति का अनुमोदन करूंगा, मैं जीवन पर्यन्त के लिए इस महाव्रत को तीन करण और तीन योग से / ग्रहण करता हूं। और इस अदत्तादान (चौर्य कर्म) के पाप से मैं अपनी आत्मा को सर्वथा पृथक करता हूं। इस तीसरे महाव्रत की ये पांच भावनाएं हैं उन पांच भावनाओं में से प्रथम भावना यह है जो विचार कर मर्यादा पूर्वक अवग्रह की याचना करने वाला है, वह निर्ग्रन्थ है, न कि बिना विचार किए मितावग्रह की याचना करने वाला। केवली भगवान कहते हैं कि बिना विचार किये अवग्रह की याचना करने वाला निम्रन्थ अदत्त को ग्रहण करता है। इसलिए निर्ग्रन्थ को विचार पूर्वक ही अवग्रह की याचना करनी चाहिए। अब दूसरी भावना को कहते हैं-गुरुजनों की आज्ञा लेकर आहार पानी करने वाला निर्ग्रन्थ होता है, न कि बिना आज्ञा के आहार-पानी करने वाला। केवली भगवान कहते हैं कि जो निर्ग्रन्थ गुरु आदि की आज्ञा प्राप्त किये बिना आहार-पानी आदि करता है वह अदत्तादान का भोगने वाला होता है। इसलिए आज्ञा पूर्वक, आहार-पानी करने वाला ही निर्ग्रन्थ होता है। अब तृतीय भावना का स्वरुप कहते हैं—निर्ग्रन्थ-साधु क्षेत्र और काल के प्रमाण पूर्वक अवग्रह की याचना करने वाला होता है। केवली भगवान कहते हैं कि जो साधु मर्यादा पूर्वक अवग्रह की याचना करने वाला नहीं होता वह अदत्तादान को सेवन करने वाला होता है, अतः प्रमाण पूर्वक अवग्रह का ग्रहण करना यह तीसरी भावना है। अब चौथी भावना को कहते हैं—निग्रन्थ अवग्रह को बार बार ग्रहण करने वाला हो। . Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-30 (538) 521 केवली भंगवान कहते हैं कि निर्यन्थ बार 2 अवग्रह के ग्रहण करने वाला हो यदि वह ऐसा * न होगा तो उसको अदत्तादान का दोष लगेगा। अतः जो बार 2 मर्यादा पूर्वक अवग्रह को याचना करने वाला होता है, वही इस व्रत की आराधना करने वाला होता है। पांचवीं भावना यह है कि जो साधक साधर्मिकों से भी विचार पूर्वक मर्यादा पूर्वक अवग्रह की याचना करता है वह निर्ग्रन्थ है, न कि बिना विचारे आज्ञा लेने वाला। केवली भगवान कहते हैं कि साधर्मियों से भी विचार कर मर्यादा पूर्वक आज्ञा लेने वाला निर्ग्रन्थ ही तृतीय महाव्रत की आराधना कर सकता है। यदि वह उनसे विचार पूर्वक ही अवग्रह की आज्ञा नहीं लेता है तो उसे अदत्तादान का दोष लगता है। इसलिए मुनि को सदा विचार पूर्वक ही आज्ञा लेनी चाहिए। इस प्रकार साधु सम्यग् रुप से तीसरे महाव्रत का आराधन किया करे। शिष्य यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं जीवन पर्यन्त के लिए अदत्तादान से निवृत होता हूं। IV टीका-अनुवाद : तीसरे महाव्रत की प्रथम भावना इस प्रकार है... सोच-विचारकर अवग्रह की याचना करें... आचार्य आदि की अनुज्ञा लेकर भोजनादि करें... अवग्रह को ग्रहण करते समय साधु परिमित याने जरुरत जितना ही अवग्रह ग्रहण करें... बार बार अवग्रह का परिमाण करें. साधर्मिक से भी परिमित अवग्रह सोच-विचारकर ही ग्रहण करें... इस प्रकार प्रभु की आज्ञा अनुसार तीसरे महाव्रत की आराधना की जाती है... // 538 // सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में स्तेय (चौर्य कर्म) के त्याग का उल्लेख किया गया है। चोरी आत्मा को पतन की ओर ले जाती है। इस कार्य को करने वाला व्यक्ति साधना में संलग्न होकर आत्म शान्ति को नहीं प्राप्त कर सकता। क्योंकि इससे मन सदा अनेक संकल्प विकल्पों में उलझा रहता है। अतः साधक को कभी भी अदत्त ग्रहण नहीं करना चाहिए चाहे वह पदार्थ साधारण हो या मूल्यवान हो, छोटा हो बड़ा हो कैसा भी क्यों न हो, साधु को आज्ञा के बिना कोई भी पदार्थ ग्रहण नहीं करना चाहिए। वह न स्वयं चोरी करे, न दूसरे व्यक्ति को चोरी Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 522 2-3-30 (538) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन करने के लिए कहे और न चोरी करने वाले का समर्थन करे। इस तरह वह सर्वथा इस पाप से निवृत्त होकर संयम में संलग्न रहे। इस महाव्रत की भावनाओं का उल्लेख सूत्रकार आगे करते हैं। प्रस्तुत सूत्र में तृतीय महाव्रत की 5 भावनाओं का उल्लेख किया गया है। पहले और दूसरे महाव्रत की तरह तीसरे महाव्रत की भी पांच भावनाएं होती हैं- 1. साधु किसी भी आवश्यक एवं कल्पनीय वस्तु को बिना आज्ञा ग्रहण न करे। 2. प्रत्येक वस्तु को ग्रहण करने जाने के पूर्व गुरु की आज्ञा ग्रहण करना, 3. क्षेत्र और काल की मर्यादा को ध्यान में रखकर वसति-अवग्रह ग्रहण करने जाना, 4. बार बार अवग्रह की आज्ञा ग्रहण करना और 5. साधर्मिक साधु की कोई वस्तु या अवग्रह-वसति ग्रहण करनी हो तो उसकी (साधर्मिक की) आज्ञा लेना। इस तरह साधु को बिना आज्ञा के कोई भी पदार्थ एवं अवग्रह-वसति नहीं ग्रहण करना चाहिए। इससे स्पष्ट होता है कि साधु अपनी आवश्यकता के अनुसार कल्पनीय वस्तु की याचना कर सकता है। परन्तु, इसके लिए यह आवश्यक है कि वह अपने गुरु या साथ के बड़े साधु की आज्ञा लेकर ही उस वस्तु को ग्रहण करने के लिए जाए। इसी तरह वस्तु ग्रहण करने जाते समय क्षेत्र एवं काल का भी अवश्य ध्यान रखे। आहार, पानी, वस्त्र-पात्र आदि को ग्रहण करने के लिए अर्ध योजन से ऊपर न जाए। इस तरह जिस समय घरों में आहार पानी का समय न हो, उस समय आहार पानी के लिए नहीं जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त साधु को जितनी बार वस्तु को ग्रहण करने के लिए जाना हो उतनी ही बार गुरु की आज्ञा लेकर जाना चाहिए और किसी अपने साथी मुनि की वस्तु व्यहण करनी हो तो उसके लिए उसकी आज्ञा ग्रहण करनी चाहिए। इस तरह जो विवेक पूर्वक वस्तु को ग्रहण करता है, वह नियन्थ कहलाता है। इसके विपरीत आचरण को अदत्तादान कहा गया है। अतः मुनि को सदा विवेक पूर्वक सोच विचार कर ही वस्तु ग्रहण करनी चाहिए। बिना आज्ञा के उसे कभी भी कोई पदार्थ एवं अवग्रह-वसति ग्रहण नहीं करना चाहिए। अब तृतीय महाव्रत का उपसंहार सूत्रकार आगे कहते हैं। प्रस्तुत सूत्र में यही बताया गया है कि इस तरह विवेक पूर्वक आचरण करके ही साधक तीसरे महाव्रत का परिपालन कर सकता है। . अब चतुर्थ महाव्रत का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे के सूत्र से कहते है Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका . 2-3-31 (539) 523 - I सूत्र // 31 // // 539 // अहावरं चउत्थं महव्वयं पच्चक्खामि, सव्वं मेहुणं, से दिव्वं वा माणुस्सं वा तिरिक्खजोणियं वा, नेव सयं मेहुणं गच्छेज्जा तं चेवं अदिण्णादाणवत्तव्वया भाणियव्वा जाव वोसिरामि, तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति। तत्थिमा पढमा भावणा-नो णिग्गंथे अभिक्खणं अभिक्खणं इत्थीणं कहं कहित्तए सिया, केवली बूयाo- णिग्गंथे णं अभिक्खणं इत्थीणं कहं कहेमाणे संति भेया संति विभंगा संति केवली-पण्णत्ताओ धम्माओ भंसिज्जा, नो णिग्गंथे णं अभिक्खणं इत्थीणं कहं कहित्तए सियत्ति पढमा भावणा। अहावरा दुच्चा भावणा-नो णिग्गंथे इत्थीणं मणोहराई मणोहराइं इंदियाई आलोइत्तए णिज्झाइत्तए सिया, केवली बूया०- णिग्गंथे णं इत्थीणं मणोहराई, इंदियाई आलोएमाण णिज्झाएमाणे संति भेया संति विभंगा जाव धम्माओ भंसिज्जा, नो णिग्गंथे णं इत्थीणं मणोहराई, इंदियाई आलोइत्तए णिज्झाइत्तए सियत्ति दुच्चा भावणा। अहावरा तच्चा भावणा-नो णिग्गंथे इत्थीणं पुटवरयाई पुष्वकीलियाई सुमरित्तए सिया, केवली बूयाo- णिग्गंथे णं इत्थीणं पुव्वरयाई पुव्वकीलियाई सरमाणे संति भेया जाव भंसिज्जा, नो णिग्गंथे णं इत्थीणं पुव्वरयाई पुव्वकीलियाई सरित्तए सियत्ति तच्चा भावणा। अहावरा चउत्था भावणा-नाइमत्तपाणभोयण-भोई से णिग्गंथे, न पणीयरसभोई से णिग्गंथे, केवली बूयाo- अइमत्तपाणभोयणभोई से णिग्गंथे, पणीयरसभोयणभोई से णिग्गंथे संति भेया जाव भंसिज्जा, नाइमत्तपाणभोयणभोई से णिग्गंथे, नो पणीयरसभोयणभोइत्ति चउत्था भावणा। अहावरा पंचमा भावणा- नो णिग्गंथे इत्थीपसुपंडगसंसत्ताई सयणासणाई सेवित्तए सिया, केवली बूयाo- णिग्गंथेणं इत्थीपसुपंडगसंसत्ताई सयणासणाई सेवेमाणे संति भेया जाव भंसिज्जा, नो णिग्गंथे इत्थीपसुपंडगसंसत्ताइं सयणासणाई सेवित्तए सियत्ति पंचमा भावणा। एतावया चउत्थे महव्वए सम्मं काएण फासेड़ जाव आराहिए यावि भवइ, चउत्थं भंते ! महत्वयं // 539 // II संस्कृत-छाया : अथाऽपरं चतुर्थं महाव्रतं प्रत्याख्यामि, सर्वं मैथुनम्, तत् दिव्यं वा मानुष्यं वा Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 524 2-3-31 (539) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन %3 तिर्यग्योनिकं वा, नैव स्वयं मैथुनं गच्छेत्, तत् च एवं अदत्तादानवक्तव्यता भणितव्या यात् व्युत्सृजामि। तस्य इमाः पच भावनाः भवन्ति। तत्र इयं प्रथमा भावना न निन्थ: अभीक्ष्णं अभीक्ष्णं स्त्रीषु कथां कथयिता स्यात्, केवली ब्रूयात्०- निर्ग्रन्थः अभीक्ष्णं अभीक्ष्णं खीषु कथां कथयन् शान्तिभेदाः शान्तिविभङ्गाः शान्तिकेवलिप्रज्ञप्तात् धर्मात् भ्रश्येत्, न निन्थ: अभीक्ष्णं अभीक्ष्णं स्त्रीषु कथां कथयिता स्यात् इति प्रथमा भावना। . ___ अथाऽपरा द्वितीया भावना-न निर्ग्रन्थः स्त्रीणां मनोहराणि मनोहराणि इन्द्रियाणि आलोकयिता निर्ध्याता स्यात्, केवली ब्रूयात्०- निर्ग्रन्थः स्त्रीणां मनोहराणि इन्द्रियाणि आलोकयन् निायन् शान्तिभेदा शान्तिविभङ्गाः यावत् धर्मात् अश्येत्, न निर्ग्रन्थः स्त्रीणां मनोहराणि, इन्द्रियाणि आलोकयिता निर्ध्याता स्यात् इति द्वितीया भावना / ___ अथाऽपरा तृतीया भावना- न निर्ग्रन्थः स्त्रीषु पूर्वारतानि पूर्वक्रीडितानि स्मरन् स्यात्, केवली ब्रूयात्०- निर्ग्रन्थः स्त्रीषु पूर्वरतानि पूर्वक्रीडितानि स्मरन् शान्तिभेदा: यावत् अश्येत्, न निर्ग्रन्थः स्त्रीषु पूर्वरतानि पूर्वक्रीडितानि स्मरन् स्यात् इति तृतीया भावना। अथाऽपरा चतुर्थी भावना- न अतिमात्र- पानभोजनभोंजी सः निर्ग्रन्थः, न प्रणीतरसभोजनभोजी स: निर्ग्रन्थ: स्यात्, केवली ब्रूयात्०- अतिमात्रपानभोजनभोजी स: निन्थः, प्रणीतरस- भोजनभोजी सः निर्ग्रन्थः, शान्तिभेदाः यावत् अश्येत्, न अतिमात्रपानभोजनभोजी स: निर्ग्रन्थः, न प्रणीतरसभोजनभोजी स: निर्ग्रन्थ: स्यात् इति चतुर्थी भावना। ___ अथाऽपरा पचमी भावना-न निर्ग्रन्थः स्त्रीपशुपण्डकसंसयतानि शयनासनानि सेवमानः स्यात्, केवली ब्रूयात्- निर्ग्रन्थः स्त्रीपशुपण्डक- संसक्तानि शयनासनानि सेवमानः शान्तिभेदाः यावत् अश्येत्, सः निर्ग्रन्थः न स्त्रीपशुपण्डक- संसक्तानि शयनासनानि सेवमानः स्यात् इति पञ्चमी भावना। एतावता चतुर्थं महाव्रतं सम्यक् कायेन स्पर्शितं यावत् आराधितं च अपि भवति, चतुर्थं भदन्त ! महाव्रतम् // 539 // III सूत्रार्थ : अब चतुर्थ महाव्रत के विषय में कहते हैं-हे मगवन् ! में देव, मनुष्य और तिर्यंच सम्बन्धी सर्वप्रकार के मैथुन का तीन करण और तीन योग से प्रत्याख्यान करता हूं, शेष Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-31 (539) 525 वर्णन अदत्तादान के समान जानना चाहिए। साधक गुरु के सामने यह प्रतिज्ञा करता हैं कि मै मैथुन से अपनी आत्मा को सर्वथा पृथक करता हूं, चतुर्थ महाव्रत की ये पांच भावनाएं हैं उन पांच भावनाओं में से प्रथम भावना इस प्रकार है-निर्यन्थ साधु बार-बार स्त्रियों को काम जनक कथा न कहे। केवली भगवान कहते हैं कि बार-बार स्त्रियों को कथा कहने वाला साधु शान्ति रुप चारित्र और ब्रह्मचर्य का भंग करने वाला होता है तथा शान्ति रुप केवली प्ररुपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। अतः साधु को स्त्रियों के साथ बार 2 कथा नहीं करनी चाहिए यह प्रथम भावना है। अब चतुर्थ महाव्रत की दूसरी भावना कहते हैं-निर्ग्रन्थ साधु काम-राग से स्त्रियों की मनोहर-तथा मनोरम इन्द्रियों को सामान्य अथवा विशेष रुप से न देखे। केवली भगवान कहते हैं- जो निय॑न्थ—साधु स्त्रियों की मनोहर-मनको लुभाने वाली इन्द्रियों को आसक्ति पूर्वक देखता है वह चारित्र और ब्रह्मचर्य का भंग करता हुआ सर्वज्ञ प्रणीत धर्म से भी भ्रष्ट हो जाता है। अतः निर्ग्रन्थ-साधु को स्त्रियों की मनोहर इन्द्रियों को काम दृष्टि से कदापि नहीं देखना चाहिए। यह दूसरी भावना का स्वरुप है। - अब तीसरी भावना का स्वरुप कहते हैं-निर्ग्रन्थ-साधु स्त्रियों के साथ गृहस्थावस्था में पूर्वकाल में की गई पूर्व रति और क्रीडा-काम क्रीडा का स्मरण न करे। केवली भगवान कहते हैं कि- जो निम्रन्थ साध स्त्रियों के साथ की गई पूर्वकालीन रति और क्रीडा आदि का स्मरण करता है वह शान्तिरुप चारित्र का भेद करता हुआ यावत् सर्वज्ञ प्रणीत धर्म से भी भ्रष्ट हो जाता है। इसलिए संयमशील मुनि को पूर्वकाल में गृहस्थावस्था में की हुई रति और क्रीडा आदि का स्मरण नहीं करना चाहिए। यह तीसरी भावना का स्वरुप है। - अब चतुर्थ भावना का स्वरुप वर्णन करते हैं-वह निर्ग्रन्थ साधु प्रमाण से अधिक आहार-पानी तथा प्रणीत रस प्रकाम भोजन न करे। क्योंकि केवली भगवान कहते हैं कि इस प्रकार के आहार-पानी एवं प्रणीत-रस प्रकाम भोजन से निर्ग्रन्थ साधु चारित्र का विघातक होता है और धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। अतः निर्यन्थ को अति मात्रा में आहार पानी और सरस आहार नहीं करना चाहिए। पांचवीं भावना का स्वरुप इस प्रकार है-निर्ग्रन्थ-साधु स्त्री, पशु और नपुंसक आदि से युक्त शय्या-वसति और आसन आदि का सेवन न करे, केवली भगवान कहते हैं कि ऐसा करने से वह ब्रह्मचर्य का विघातक होता है और केवली भाषित धर्म से पतित हो जाता है। इसलिए निर्ग्रन्थ-साधु स्त्री, पशु पंडक आदि से संसक्त-शयनासनादि का सेवन न करे। यह Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 526 2-3-31 (539) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन पांचवीं भावना कही गई है। इस तरह सम्यक्तया काया से स्पर्श करने से सर्वथा मैथुन से निवृत्ति रुप चतुर्थ महाव्रत का आराधन एवं पालन होता है। टीका-अनुवाद : 3. चौथे महाव्रत की पांच भावना इस प्रकार है... स्त्री संबंधित कथा साधु न कहे... स्त्रियों के मनोहर इंद्रिय याने अंगोपांगों को साधु कामराग की दृष्टि से न देखे... पूर्व काल में स्त्रियों के साथ की हुई कामक्रीडाओं का स्मरण साधु न करें..... साधु प्रमाण से अधिक एवं सरस-प्रणीत भोजन न करें... स्त्री पशु एवं नपुंसको से रहित वसति = उपाश्रय में ही साधु निवास करे... इत्यादि... . // 539 // 5. सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में वर्णन किया गया है। भोग की प्रवृत्ति से मोह कर्म को उत्तेजना मिलती है। इससे आत्मा कर्मबन्ध से आबद्ध होता है और संसार में परिभ्रमण करता है। अतः साधु को अब्रह्मचर्य अर्थात् विषय-भोग से सर्वथा निवृत्त होना चाहिए। मैथुन कर्म का सर्वथा परित्याग करने वाला व्यक्ति ही निर्ग्रन्थ कहला सकता है। क्योंकि इसका त्याग करके वह मोह कर्म की गांठ से छूटने का, मुक्त होने का प्रयत्न करता है। इसलिए साधक न तो स्वयं विषय-भोग का सेवन करे, न दूसरे व्यक्ति को विषय-भोग की ओर प्रवृत्त करे और उस ओर प्रवृत्त व्यक्ति का समर्थन भी न करे। इस तरह साधु प्रतिज्ञा करता है कि- हे भगवन् ! में गुरु एवं आत्मा साक्षी से मैथुन का त्याग-प्रत्याख्यान करता हूं एवं पूर्वकाल में किये हुए मैथुन की निन्दा एवं गर्हणा करता हूं। अब चौथे महाव्रत की भावनाओं का उल्लेख सूत्रकार आगे करते हैं। प्रस्तुत सूत्र में चतुर्थ महाव्रत की 5 भावनाओं का उल्लेख किया गया है- 1. स्त्रियों की काम विषयक कथा नहीं करना, 2. विकार दृष्टि से स्त्रियों के अंग-प्रत्यंगों का अवलोकन . नहीं करना, 3. पूर्व में भोगे हुए विषय-भोगों का स्मरण नहीं करना, 4. प्रमाण से अधिक तथा सरस आहार का आसेवन नहीं करना और 5. स्त्री, पशु एवं नपुंसक से युक्त स्थान में नहीं रहना। Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-31 (539) 527 स्त्रियों की काम विषयक कथा करने से मन में विकार भाव की जागृति होना संभव है और उससे उसका मन एवं विचार संयम-साधना से विपरीत मार्ग की ओर भटक सकता है। और परिणाम स्वरुप वह साधक कभी भी चारित्र से गिर सकता है। इसलिए साधक को कभी काम विकार से संबद्ध स्त्रियों की कथा नहीं करनी चाहिए। __ स्त्रियों के रुप एवं शृंगार का अवलोकन करने की भावना से उनके अंगों को नहीं देखना चाहिए। क्योंकि, मन में रही हुई आसक्ति से काम-वासना के उदित होने को खतरा बना रहता है। अतः साधक को कभी भी अपनी दृष्टि को विकृत नहीं होने देना चाहिए और उसे आसक्त भाव से किसी स्त्री के अंग-प्रत्यंगों का अवलोकन नहीं करना चाहिए। साधु को पूर्व में भोगे गए भोगों का भी चिन्तन-स्मरण नहीं करना चाहिए। क्योंकि, इससे मन की परिणति में विकृति आती है और उससे उपशान्त विकारों को जागृत होने का अवसर भी मिल सकता है। इसी तरह साधक को श्रृङ्गार रस से युक्त या वासना को उद्दीप्त करने वाले उपन्यास, नाटक आदि का भी अध्ययन, श्रवण एवं मनन नहीं करना चाहिए। ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए साधु को सदा प्रमाण से अधिक एवं सरस तथा प्रकाम भोजन भी नहीं करना चाहिए। क्योंकि प्रतिदिन अधिक आहार करने से तथा प्रकाम आहार करने से शरीर में आलस्य की वृद्धि होगी, आराम करने की भावना जागृत होगी, स्वाध्याय एवं ध्यान से मन हटेगा। इससे उसकी भावना में विकृति भी आ जाएगी। अतः इन दोषों से बचने के लिए साधु को सदा सरस आहार नहीं करना चाहिए तथा प्रमाण से भी अधिक भोजन नहीं करना चाहिए। सादे एवं प्रमाण युक्त भोजन से वह ब्रह्मचर्य का भी ठीक 2 परिपालन * कर सकेगा और साथ में प्रायः बिमारियों से भी बचा रहेगा और आलस्य भी कम आएगा जिससे .. वह निर्बाध रुप से स्वाध्याय एव ध्यान आदि साधना में संलग्न रह सकेगा। यह उत्सर्ग सूत्र है और ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए ही सरस आहार का निषेध किया गया है। अपवाद मार्ग में अर्थात् साधना के मार्ग में कभी आवश्यकता होने पर साधु गुर्वाज्ञा से प्रमाणोपेत सरस आहार स्वीकार भी कर सकता है। जैसे-अरिष्ट नेमिनाथ के 6 शिष्यों ने महाराणी देवकी के घर से सिंह केसरी मोदक ग्रहण किए थे। काली आदि महाराणियों ने अपने तप की प्रथम परिपाटी में पारणे में प्रमाणोपेत विगय (दूध, दही आदि) ग्रहण की थी। भगवान महावीर ने एक महीने की तपस्या के पारणे के दिन परमान्न-क्षीर का आहार ग्रहण किया था। और आशातना के विषय का वर्णन करते हुए आगम में बताया गया है कि यदि शिष्य गुरु के साथ आहार करने बैठे तो वह सरस आहार को शीघ्रता से न खाए। और छेद सूत्रों में यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि यदि साधु शरीर को पुष्ट करने की दृष्टि से घी, दूध आदि विगय का सेवन करता है तो उसे प्रायश्चित आता है। इससे स्पष्ट होता है कि Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 528 2-3-32 (540) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अपवाद मार्ग में साधु सरस आहार ग्रहण कर सकता है। परन्तु उत्सर्ग मार्ग में ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए उसे सरस आहार नहीं करना चाहिए। ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए साधु को स्त्री, पशु एवं नपुंसक से रहित मकान में ठहरना चाहिए। क्योंकि स्त्री आदि का अधिक संसर्ग रहने से मन में विकारों की जागृति होना संभव है। इससे उसकी साधना का मार्ग अवरुद्ध हो जाएगा। अतः साधु को इनसे रहित स्थान में ही ठहरना चाहिए। इस तरह चौथे महाव्रत के सम्बन्ध में दिए गए आदेशों का आचरण करना तथा उनका सम्यक्तया परिपालन करना ही चौथे महाव्रत की आराधना करना है और इस तरह उसका परिपालन करने वाला निर्ग्रन्थ-साधु ही आत्मा का विकास कर सकता है। ___ अब पांचवें महाव्रत का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहते हैं..... I सूत्र // 32 // // 540 // अहावरं पंचमं भंते ! महव्वयं सव्वं परिग्गहं पच्चक्खामि, से अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा, नेव सयं परिग्गहं गिण्हिज्जा, नेवण्णेहिं परिग्गहं गिण्हाविज्जा, अण्णं पि परिग्गहं गिण्हतं न समणुजांणिज्जा, जाव वोसिरामि, तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति। तत्थिमा पढमा भावणा- सोयओऽणं जीवे मणुण्णाऽमणुण्णाई सद्दाइं सुणेड़, मणुण्णामणुण्णेहिं सद्देहिं नो सज्जिज्जा नो रज्जिज्जा नो गिज्झिज्जा नो मुज्झिज्जा नो अज्झोववज्जिज्जा नो विणिघायमावज्जेज्जा, के वली बूया- णिग्गंथे णं मणुण्णामणुण्णेहिं सद्देहिं सज्जमाणे रज्जमाणे जाव विणिघायमावज्जमाणे संतिभेया संतिविभंगा संति केवलीपण्णत्ताओ धम्माओ भंसिज्जा, न सयका न सोउं सद्दा सोतविसयमागया। रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए // सोयओ जीवे मणुण्णामणुण्णाइं सद्दाइं सुणेड़ इइ पढमा भावणा। अहावरा दुच्चा भावणा-चक्खूओ जीवे मणुण्णामणुण्णाई रूवाइं पासइ, मणुण्णामणुण्णेहिं रूवेहिं सज्जमाणे जाव विणिघायमावज्जमाणे संतिभेया जाव भंसिज्जा, न सक्का रुवमटुं चक्खुविसयमागयं / रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए / चक्खूओ जीवे मणुण्णामणुण्णाई रुवाइं पासइ इइ दुच्चा भावणा।। अहावरा तच्चा भावणा-घाणओ जीवे मणुण्णामणुण्णाई गंधाई अग्घायड़, Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-32 (540) 529 मणुण्णामणुण्णेहिं गंधेहिं नो सज्जिज्जा, नो रज्जिज्जा, जाव नो विणिघायमावज्जिज्जा, केवली बूया०- मणुण्णामणुण्णेहिं गंधेहिं सज्जमाणे जाव विणिघायमावज्जमाणे संतिभेया जाव भंसिज्जा, न सक्का गंधमग्घाउं नासाविसयमागयं / रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए / / घाणओ जीवे मणुण्णामणुण्णाई गंधाई अग्घायइत्ति तच्चा भावणा। अहावरा चउत्था भावणा-जिब्भाओ जीवे मणुण्णामणुण्णाइं रसाइं अस्साएइ, मणुण्णामणुण्णेहिं रसेहिं नो सज्जिज्जा जाव नो विणिघायमावज्जिज्जा, केवली बूयाoणिग्गंथेणं मणुण्णामणुण्णेहिं रसेहिं सज्जमाणे जाव विणिघायमावज्जमाणे संतिभेया जाव भंसिज्जा, न सक्का रसमस्साउं जीहाविसयमागयं / रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए / जीहाओ जीवे मणुण्णामणुण्णाई रसाइं अस्साएइत्ति चउत्था भावणा। अहावरा पंचमा भावणा-फासओ जीवे मणुण्णामणुण्णाई फासाइं पडिसेवेड, मणुण्णामणुण्णेहिं फासेहिं नो सज्जिज्जा जाव नो विणिघायमावज्जिज्जा, केवली बूयाणिग्गंथे णं मणुण्णामणुण्णेहिं फासेहिं सज्जमाणे जाव विणिघायमावज्जमाणे संतिभेया संतिविभंगा संतिके वलीपण्णत्ताओ धम्माओ भंसिज्जा, न सक्का फासमवेएउं फासविसयमागयं / रागदोसा उ जे तत्थ ते भिक्खू परिवज्जए / फासओ जीवे मणुण्णामणुण्णाई फासाइं पडिसंवेएति इइ पंचमा भावणा। एतावता पंचमे महव्वए सम्म अवट्ठिए आणाए आराहिए यावि भवड़, पंचमं भंते ! महव्वयं / इच्चेएहिं पंचमहव्वएहिं पणवीसाहि य भावणाहिं संपण्णे अणगारे अहासुयं अहाकप्पं अहामग्गं सम्मं काएण फासित्ता पालित्ता तीरित्ता किट्टित्ता आणाए आराहिता यावि भवइ / / 540 // II संस्कृत-छाया : अथापरं पञ्चमं भदन्त ! महाव्रतं सर्वं परिग्रहं प्रत्याख्यामि, तत् अल्पं वा बह वा अणु वा स्थूलं वा चित्तमद् वा अचित्तमद् वा, नैव स्वयं परिग्रहं गृह्णीयात्, नैवाऽन्यैः परिग्रहं ग्राहयेत्, अन्यमपि परिग्रहं गृह्णन्तं न समनुजानीयात् यावत् व्युत्सृजामि / तस्य इमाः पञ्च भावनाः भवन्ति। तत्र इयं प्रथमा भावना-श्रोत: जीवः मनोज्ञाऽमनोज्ञान् शब्दान् शृणोति, मनोज्ञामनोज्ञेषु शब्देषु न सज्येत न रज्येत न गृध्येत न अध्युपपद्येत, न विनिघातमापद्येत, केवली बूयात्०- निर्ग्रन्थः मनोज्ञामनोज्ञेषु शब्देषु सज्यमानः रज्यमानः गृह्यमानः मुह्यमानः अध्युपपद्यमान: यावत् विनिघातमापद्यमानः शान्तिभेदाः शान्तिविभङ्गाः Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 530 2-3-32 (540) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन शान्तिकेवलिप्रज्ञप्तात् धर्मात् भ्रश्येत् / न शक्याः न श्रोतुं शब्दाः श्रोत्रविषयमागताः। रागद्वेषाः तु ये तत्र, तान् भिक्षुः परिवर्जयेत् // श्रोत्रतः जीव: मनोज्ञामनोज्ञान् शब्दान् शृणोति इति प्रथमा भावना। अथाऽपरा द्वितीया भावना-चक्षुषः जीव: मनोज्ञामनोज्ञानि रूपाणि पश्यति, मनोज्ञामनोज्ञेषु रूपेषु सज्यमान: यावत् विनिघातमापद्यमानः शान्तिभेदा: यावत् अश्येत् / न शक्यं रुपमद्रष्टुं चक्षुर्विषयमागतम् / रागद्वेषाः तु ये तत्र, तान् भिक्षुः परिवर्जयेत्॥ चक्षुषः जीव: मनोज्ञामनोज्ञानि सपाणि पश्यति इति द्वितीया भावना / अथाऽपरा तृतीया भावना-घ्राणतः जीव: मनोज्ञामनोज्ञान् गन्धान् आजिघ्रति, मनोज्ञामनोज्ञेषु गन्धेषु न सज्येत न रज्येत यावत् न विनिघातमापद्येत, केवली ब्रूयात्मनोज्ञामनोज्ञेषु गन्धेषु सज्यमान: यावत् विनिघातमापद्यमानः शान्तिभेदाः यावत् भ्रश्येत्। न शक्यं गन्धमाघ्रातुं घ्राणविषयमागतम् / रागद्वेषा: तु ये तत्र, तान् भिक्षुः परिवर्जयेत् / / घ्राणत: जीवः मनोज्ञामनोज्ञान् गन्धान् आजिघ्रति इति तृतीया भावना। अथाऽपरा चतुर्थी भावना-जिह्वातः जीव: मनोज्ञामनोज्ञान् रसान् आस्वादयति, मनोज्ञामनोज्ञेषु रसेषु न सज्येत यावत् न विनिघातमापद्येत, केवली ब्रूयात्मनोज्ञामनोज्ञेषु रसेषु सज्यमान: यावत् विनिघातमापद्यमानः शान्तिभेदा: यावत् अश्येत् / न थक्यं रसमारवादयितुं जिह्वाविषयमागतम् / रागद्वेषाः तु ये तत्. तान् भिक्षुः परिवर्जयेत् // जिह्वातः जीव: मनोज्ञामनोज्ञान् रसान् आस्वादयति इति चतुर्थी भावना। अथाऽपरा पचमी भावना-स्पर्शत: जीव: मनोज्ञामनोज्ञान् स्पर्शान् प्रतिसेवते, मनोज्ञामनोज्ञेषु स्पर्शेषु न सज्येत यावत् न विनिघातमापयेत, केवली ब्रूयात्- निर्ग्रन्थ: मनोज्ञामनोज्ञेषु स्पर्थेषु सज्यमान: यावत् विनिघातमापद्यमानः शान्तिभेदाः शान्तिविभङ्गाः शान्तिकेवलिप्रज्ञप्तात् धर्मात् प्रश्येत् / न शक्यः स्पर्थ: अवेदितुं स्पर्थविषयमागतः / रागद्वेषाः तु ये तत्र तान् भितः परिवर्जयेत् // स्पर्शत: जीव: मनोज्ञामनोज्ञान् स्पर्शान् प्रतिसंवेदयति, इति पञ्चमी भावना / एतावता पञ्चमे महाव्रते सम्यग् अवस्थितः आज्ञया आराधितं च अपि भवति / पञ्चमं भदन्त ! महाव्रतम् / इति एतैः पञ्चमहाव्रतैः पञ्चविंशत्या च भावनाभिः सम्पन्न: अनगारः यथाश्रुतं यथाकल्पं यथामार्ग सम्यक् कायेन स्पृष्ट्वा पालयित्वा तीर्वा कीर्तयित्वा आज्ञया आराधिताः च अपि भवन्ति / / 540 // III सूत्रार्थ : हे भगवन् ! पांचवें महाव्रत के विषय में सर्व प्रकार के परिग्रह का परित्याग करता Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-32 (540) 531 हूं। मैं अल्प, बहुत, सूक्ष्म, स्थूल तथा सचित्त और अचित्त किसी भी प्रकार के परिग्रह को न स्वयं ग्रहण करुंगा, न दूसरों से ग्रहण कराऊंगा और न ग्रहण करने वालों का अनुमोदन करुंगा। मैं अपनी आत्मा को परिग्रह से सर्वथा पृथक् करता हूं। इस पंचम महाव्रत की ये पांच भावनाएं हैं___उन पांच भावनाओं में से प्रथम भावना यह है- श्रोत्र से यह जीव प्रिय तथा अप्रिय शब्दों को सुनता है, परन्तु वह प्रिय तथा अप्रिय शब्दों में आसक्त न हो, राग भाव न करे, गृद्ध न हो, मूर्छित न हो, तथा अत्यन्त आसक्ति एवं राग द्वेष न करे, केवली भगवान कहते हैं कि साधु मनोज्ञा मनोज्ञ शब्दों में आसक्त होता हुआ, राग करता हुआ यावत् विद्वेष करता हुआ शान्ति भेद एवं शान्ति विभंग करता है और केवली भाषित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है तथा श्रोत्र विषय में आए हुए शब्द ऐसे नहीं जो सुने न जावें किन्तु उनके सुनने पर जो राग द्वेष की उत्पत्ति होती है, उसका भिक्षु परित्याग कर दे। अतः जीव के श्रोत्रेन्द्रिय के विषय में आए हुए प्रिय और अप्रिय शब्दों में साधु राग द्वेष न करे। यह प्रथम भावना कही गई है। चक्षु के द्वारा यह जीव प्रिय तथा अप्रिय रुपों को देखता है, प्रिय सुन्दर रुपों में आसक्त होता हुआ यावत् द्वेष करता हुआ शान्ति भेद यावत् धर्म से पतित हो जाता है। तथा चक्षु के विषय में आया हुआ रुप अदृष्ट नहीं रह सकता अर्थात् वह अवश्य दिखाई देगा, परन्तु उसको देखने से उत्पन्न होने वाले राग; द्वेष का भिक्षु परित्याग कर दे। इस तरह चक्षु के द्वारा देखे जाने वाले प्रिय और अप्रिय रुपों पर साधु-श्रमणो को राग-द्वेष नहीं करना चाहिए, यह द्वितीय भावना है। तीसरी भावना यह है-नासिका के द्वारा जीव प्रिय तथा अप्रिय गंधों को सूंघता है, परन्तु प्रिय तथा अप्रिय गंधों को सूंघता हुआ उनमें राग-द्वेष न करें, क्योंकि केवली भगवान कहते हैं कि प्रिय तथा अप्रिय गंधों में राग द्वेष करता हुआ साधु शांति का भेदन करता हुआ धर्म से भ्रष्ट होजाता है। तथा ऐसा भी नहीं होता कि नासिका के सन्निधान में आए हुए गंध के परमाणु पुद्गल सूंघे न जा सके। परन्तु इसका तात्पर्य इतना ही है कि साधु उनमें राग द्वेष न करे। चतुर्थ भावना इस प्रकार वर्णन की गई है-जीव जिह्वा से प्रिय तथा अप्रिय रसों का आस्वाद ज्ञान होता है किन्तु उनमें राग-द्वेष न करे। केवली भगवान कहते हैं प्रिय तथा अप्रिय रसों में आसक्त एवं राग-द्वेष करने वाला निर्ग्रन्थ शान्ति भेद और धर्म से पतित हो जाता है। तथा जिह्वा को प्राप्त हुआ रस अनास्वादित नहीं रह सकता किन्तु उसमें जो राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है उसका भिक्षु परित्याग कर दे। और जिह्वा से आस्वादित होने वाले प्रिय तथा अप्रिय रसों में राग-द्वेष से रहित होना यह चतुर्थ भावना है। Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 532 2-3-32 (540) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अब पांचवीं भावना को कहते हैं- यह जीव स्पर्शेन्द्रिय के द्वारा प्रिय और अप्रिय स्पर्शों का अनुभव ज्ञान-संवेदन करता है, किन्तु प्रिय स्पर्श में राग और अप्रिय स्पर्श में द्वेष न करे। केवली भगवान कहते हैं कि साधु प्रिय स्पर्श में राग और अप्रिय में द्वेष करता हुआ शान्ति भेद, शान्ति विभंग करता हुआ शान्तिरुप केवली भाषित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। स्पर्शेन्द्रिय के सन्निधान में आए हुए स्पर्श के पुद्गल बिना स्पर्शित हुए-बिना अनुभव किए नहीं रह सकते, किन्तु वहां पर जो राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है साधु उसको सर्वथा छोड़ दे। स्पर्शेन्द्रिय के द्वारा जीव प्रिय तथा अप्रिय स्पर्शों का अनुभव करता है, परंतु उनमें राग और द्वेष का न करना यह पांचवीं भावना कही गई है। __ इस प्रकार यह पांचवां महाव्रत सम्यक् प्रकार से काया द्वारा स्पर्श किया हुआ, पालन किया हुआ, तीर पहुंचाया हुआ, कीर्तन किया हुआ अवस्थित रखा हुआ और आज्ञा पूर्वक आराधन किया हुआ होता है। इस पांचवें महाव्रत में सर्व प्रकार के परिग्रह का त्याग किया जाता है। IV टीका-अनुवाद : पांचवे महाव्रत की भावनाएं इस प्रकार हैं... श्रोत्र याने कान के विषय में आये हुए अच्छे या बुरे शब्दों को सुनकर साधु उसमें गृद्धि याने राग और द्वेष न करे... इसी प्रकार चक्षु के विषय में आये हुए रूप को देखकर साधु राग एवं द्वेष न करे... नासिका के विषय में आये हुए गंध के प्रति भी साधु राग एवं द्वेष न करे... जीभ के विषय में भी साधु राग-द्वेष न करे... स्पर्श के विषय में भी साध राग-द्वेष न करे... शेष सूत्र के सभी पद सुगम है... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में साधक को परिग्रह से निवृत्त होने का आदेश दिया गया है। परिग्रह से आत्मा में अशान्ति बढ़ती है। क्योंकि, रात दिन परिग्रह को बढ़ाने एवं सुरक्षा करने की चिन्ता बनी रहती है। जिससे साधक निश्चिन्त मन से स्वाध्याय आदि की साधना भी नहीं कर सकता है। इसलिए भगवान ने साधक को परिग्रह से सर्वथा मुक्त रहने का आदेश दिया है। साधु को थोड़ा या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल किसी भी तरह का परिग्रह नहीं रखना चाहिए। Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-32 (540) 533 इसके साथ आगम में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि साधु साधना में सहायक उपकरणों को स्वीकार कर सकता है। वस्त्र का परित्याग करने वाले जिन कल्पी मुनि भी कम से कम मुखवत्रिका, और रजोवहरण ये दो उपकरण अवश्य रखते हैं। वर्तमान में दिगम्बर मुनि भी मोर पिच्छी और कमण्डल तो रखते ही हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि संयम में सहायक होने वाले पदार्थों को रखना या ग्रहण करना परियह नहीं है। परन्तु उन पर ममता, मूर्छ एवं आसक्ति रखना परिग्रह है। आगम में स्पष्ट कहा गया है कि संयम एवं आध्यात्मिक साधना में तेजस्विता लाने वाले उपकरण (वस्त्र-पात्र आदि) परिग्रह नहीं है। किन्तु उन पर मूर्छा एवं आसक्ति करना परिग्रह है। तत्वार्थ सूत्र में भी वस्त्र रखने को परिग्रह नहीं कहा है। उन्होंने भी आगम में अभिव्यक्त मूर्छा, या ममत्व को ही परिग्रह माना है। वस्त्र एवं पात्र ही क्यों, यदि अपने शरीर पर भी ममत्व है, तो वह भी परिग्रह का कारण बन जायगा। अतः साधक को मूर्छा ममता एवं आसक्ति का सर्वथा त्याग करके संयमोपकरणों से संयम साधना में संलग्न रहना चाहिए। अब पंचम महाव्रत की भावनाओं का उल्लेख करते हुए सूत्रकार आगे कहते हैं। इस सूत्र में पांचवें महाव्रत की पांच भावनाएं बताई गई है- 1. प्रिय और अप्रिय शब्द, 2. रुप, 3. गन्ध, 4. रस और 5. स्पर्श पर राग द्वेष न करे। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि साधक कान, आंख, नाक आदि बन्द करके चले। उसे अपनी इन्द्रियों को बन्द करने की आवश्यकता नहीं है। शब्द कान में पड़ते रहें, इसमें कोई आपत्ति नहीं है। परन्तु, उन प्रिय या अप्रिय शब्दों के ऊपर राग-द्वेष नहीं करना चाहिए। मधुर एवं कर्ण प्रिय गीतों को सुनने या इसी तरह दूसरे व्यक्ति की निन्दा-चुगली सुनने के लिए उस ओर ध्यान नहीं देना चाहिए। इससे स्वाध्याय का अमूल्य समय नष्ट होता है एवं मन में रागद्वेष की भावना भी उत्पन्न हो सकती है। अतः साधक को किसी भी तरह के शब्दों पर राग-द्वेष नहीं करना चाहिए। इसी तरह अपनी आंखों के सामने आने वाले सुन्दर एवं कुत्सित रुप पर भी रागद्वेष नहीं करना चाहिए। उसे सुंदर, सुहावने दृश्यों एवं लावण्यमयी स्त्रियों आदि के रुप को देखकर उस पर मुग्ध एवं आसक्त नहीं होना चाहिए और न घृणित दृश्यों को देखकर नाकभौं सिकोड़ना चाहिए। साधक को सदा राग-द्वेष से ऊपर उठकर तटस्थ रहना चाहिए। इसी तरह वायु के साथ पदार्थों में से आने वाली सुगन्ध एवं दुर्गन्ध के समय भी साधु को मध्यस्थ भाव रखना चाहिए। सुवासित पदार्थों में राग भाव नहीं रखना चाहिए और न दुर्गन्धमय पदार्थों पर द्वेष भाव / साधक को सदा राग-द्वेष से ऊपर उठकर संयम साधना में संलग्न रहना चाहिए। Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5342-3-32 (540) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन इसी प्रकार साधक को रसों में आसक्त नहीं होना चाहिए। स्वादिष्ट या अस्वादिष्ट जैसा भी निर्दोष आहार प्राप्त हो उसे समभाव पूर्वक वापरना चाहिए। साधु को सुस्वादु एवं रस युक्त आहार पर राग भाव नहीं रखना चाहिए और न नीरस आहार पर द्वेष / साधक को कभी भी स्वाद के वशीभूत नहीं होना चाहिए। साधक को अनेक तरह के प्रिय-अप्रिय, अनुकूल-प्रतिकूल स्पर्श होते रहते हैं। परन्तु उसे किसी भी स्पर्श पर राग-द्वेष नहीं करना चाहिए। न मनोज्ञ स्पर्श पर राग भाव रखना चाहिए और न अमनोज्ञ स्पर्श पर द्वेष भाव / यही साधक की साधना का वास्तविक स्वरुप इस तरह साधक जब इन आदेशों को आचरण में उतारता है, उन्हें जीवन में साकार रुप देता है, तभी अपरिग्रह महाव्रत की आराधना कर पाता है। इस प्रकार इस अध्ययन में वर्णित 5 महाव्रत एवं 25 भावनाओं का सम्यक्तया परिपालन करने वाला साधक ही आराधक होता है और वह क्रमशः आत्मा का विकास करता हुआ कर्म बन्धनों से मुक्त होता हुआ, एक दिन अपने साध्य को पूर्णतया सिद्ध कर लेता प्रस्तुत भावना अध्ययन में भगवान महावीर के जीवन पर प्रकाश डाला गया है। भगवान महावीर के जीवन एवं साधना से संबद्ध होने के कारण प्रस्बुत अध्ययन में भावनाओं का उल्लेख किया गया है। ऐसे प्रश्न व्याकरण सूत्र के पांचवें संवर द्वार में भावनाओं का विशेष रुप से वर्णन किया गया है। यहां केवल दिग्दर्शन कराया गया है। प्रस्तुत अध्ययन भगवान महावीर के जीवन एवं साधना से संबंधित होने के कारण प्रत्येक साधक के लिए मननीय एवं चिन्तनीय है। इससे साधक की साधना में तेजस्विता आएगी और उसे अपने पथ पर बढ़ने में बल मिलेगा। अतः प्रत्येक साधक को इसका गहराई से अध्ययन करके भगवान महावीर की साधना को जीवन में साकार रुप देने का प्रयत्न करना चाहिए। संक्षेप में महाव्रतों एवं उनकी भावनाओं का महत्व संयम जीवन में आचरण करने से है। उनका सम्यक्तया आचरण करके ही साधक सर्व प्रकार के कर्मबन्धनों से मुक्त-उन्मुक्त हो सकता है। // द्वितीयश्रुतस्कन्धे भावना-नाम-तृतीया चूलिका समाप्तः // 卐y Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-32 (540) 535 : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शझुंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट -परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. "श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययन से विश्व के सभी जीव पंचाचार की दिव्य सुवास को प्राप्त करके परमपद की पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. // राजेन्द्र सं. 96. विक्रम सं. 2058. Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 536 2-4-1 (541) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 4 ___ विमुक्ति // भावना अध्ययन स्वरूप तीसरी चूलिका कही, अब चौथी चूलिका विमुक्ति-अध्ययन कहतें हैं... यहां परस्पर इस प्रकार संबंध है कि- तीसरी चूलिका में महाव्रतों की पच्चीस भावनाएं कही है, अब इस चौथी चुलिका में भी अनित्य भावना कहतें हैं... इस संबंध से आइ हुई इस चौथी चूलिका = विमुक्ति-अध्ययन के चार अनुयोग द्वार होते हैं... उनमें उपक्रम के अंतर्गत अर्थाधिकार कहतें हैं... इस अध्ययन में 1. अनित्यत्व अधिकार, 2. पर्वत अधिकार, 3. रूप्य अधिकार, 4. भुजगत्वक् अधिकार, 5. समुद्र अधिकार यह पांच अधिकार है, उनका स्वरुप सूत्र से ही कहेंगे... नामनिष्पन्न निक्षेप में "विमुक्ति" नाम के नाम आदि निक्षेप उत्तराध्ययन में रहे हुए विमोक्ष अध्ययन की तरह जानना चाहिए... नि. 346 जो मोक्ष है वह हि विमुक्ति है.. अतः विमुक्ति नाम का मोक्ष की तरह निक्षेप होतें हैं... यहां ग्रंथ में भाव-विमुक्ति का अधिकार है और वह भाव विमुक्ति देश एवं सर्व के भेद से दो प्रकार से है... उनमें देश से विमुक्ति साधु से लेकर भवस्थ केवलज्ञानी पर्यंत के जीव... और सर्व विमुक्ति = सिद्धात्माओं के जीव... क्योंकि- सिद्धात्माओं के आठों कर्मो का विनाश हो गया है... अब सूत्रानुगम में संहिता की पद्धति से सूत्र का शुद्ध उच्चारण करना चाहिये... सूत्र // 1 // // 541 // अणिच्चमावासमुर्विति जंतुणो अलोयए सुच्चमिणं अणुत्तरं। विउसिरे विष्णु अगारबंधणं अभीरू आरंभ-परिग्गहं चए // 541 / / // संस्कृत-छाया : अनित्यमावासमुपयान्ति जन्तवः, प्रलोकयेत् सत्यमिदं अनुत्तरम् / Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-4-1 (541) 537 ___ व्युत्सृजेत् विज्ञ: अगारबन्धनं, __ अभीरुः आरम्भपीरग्रहं त्यजेत् // 541 // III सूत्रार्थ : सर्व श्रेष्ठ जिन प्रवचन में यह कहा गया है कि आत्मा, मनुष्य आदि जिन योनियों में जन्म लेते है, वे स्थान अनित्य है। ऐसा सुनकर एवं उस पर हार्दिक चिन्तन करके समस्त भयों से निर्भय बना हुआ विद्वान पारिवारिक स्नेह बन्धन का, समस्त सावध कर्म एवं परिग्रह का त्याग कर दे। IV टीका-अनुवाद : जीव जहां रहता है वह आवास... आवास याने मनुष्यादि जन्म अथवा शरीर... अब यह मनुष्यादि जन्म या शरीर अनित्य ही है... क्योंकि- मनुष्य आदि चारों गतिओं में जीव कर्मानुसार जहां कहीं उत्पन्न होता है वहां उसकी स्थिति अनित्य ही होती है कारण किआयुष्य की सीमा निश्चित ही है... यह बात जिनेश्वरों के सिद्धांत-जिनागम सूत्रों में जिस प्रकार कही गई है, उस प्रकार गंभीरता से देखें... कि- जीवन अनित्य किस प्रकार से है... इत्यादि... अतः जिनागम को सुनकर प्राज्ञ पुरुष पुत्र-स्त्री परिवार धन-धान्यादि स्वरूप गृहस्थावास का त्याग करे... और इहलोक परलोकादि सातों प्रकार के भयों से मुक्त होकर तथा बाइस परिसह एवं देवादि से होने वाले उपसर्गों से घबराये बिना संयम मार्ग में स्थिर होकर आरंभ याने पापाचरण तथा बाह्य एवं अभ्यंतर परिग्रह का त्याग करें... यह अनित्य-अधिकार हुआ... - अब आगे के सूत्र से पर्यंत-अधिकार का स्वरूप कहेंगे..... सूत्रसार: प्रस्तुत गाथा में अनित्यता के स्वरुप का वर्णन किया गया है। भगवान ने अपने प्रवचन में यह स्पष्ट कर दिया है कि संसार में जीवों के उत्पन्न होने की जितनी भी योनिया हैं, वे अनित्य हैं। क्योंकि अपने कृत कर्म के अनुसार जीव उन योनियों में जन्म ग्रहण करता है और अपने उस भव के आयु कर्म के समाप्त होते ही उस योनि के प्राप्त शरीर को छोड़ देता है। इस तरह समस्त योनिया कर्म जन्य हैं, इस कारण वे अनित्य हैं। जब तक जीव संसार में परिभ्रमण करता रहता है, तब तक वह अपने कृत कर्म के अनुसार एक योनि से दूसरी योनि में परिभ्रमण करता रहता है। इससे योनि की अनित्यता स्पष्ट हो जाती है। परन्तु इससे जीव के अस्तित्व का नाश नहीं होता इसलिए जीव का सर्वथा अभाव नहीं कहा जा सकता। यह ठीक है कि संसार अनित्य है, संसार में स्थित जीव एक योनि से दूसरी योनि में भटकता रहता है। इससे हम निसंदेह कह सकते हैं कि संसार असत् नहीं, किन्तु अनित्य Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 538 2-4-2 (542) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन %3 एवं परिवर्तन शील है। परन्तु इसके साथ यह भी स्पष्ट है कि परिभ्रमण के कारण जीव के आत्म प्रदेशों में किसी तरह का अन्तर नहीं आता है। परंतु शरीर आदि की पर्याय एवं ज्ञानदर्शन की पर्याय परिवर्तित होती है, अतः इन परिवर्तनों के कारण आत्म द्रव्य स्वरूप से नहीं बदलता, अर्थात् जीव के असंख्यात प्रदेशों में किसी भी तरह की न्यूनाधिकता नहीं आती है। इस तरह संसार की अनित्यता के स्वरुप को सुन कर और उस पर गहराई से चिन्तन मनन करके विद्वान् एवं निर्भय मनुष्य संसार से ऊपर उठने का प्रयत्न करता है। फिर वह पारिवारिक स्नेह बन्धन में बंधा नहीं रहता है। वह मृत्यु के समय जबरदस्ती टूटने वाले स्नेह बन्धन को मरण के पहले हि स्वेच्छा से तोड़ देता है। वह अनासक्त भाव से पारिवारिक ममता का एवं सावध कर्मो का तथा समस्त परिग्रह का त्याग करके साधना के मार्ग पर कदम रख देता है। इस गाथा में आत्मा की द्रव्य रुप से नित्यता एवं योनि आदि पर्यायों या संसार की अनित्यता, अस्थिरता एवं परिवर्तनशीलता को स्पष्ट रुप से दिखाया गया है। और साथ में यह भी स्पष्ट कर दिया गया है। कि विद्वान एवं निर्भय मनुष्य ही इसके यथार्थ स्वरुप को समझकर सांसारिक संबंधों एवं साधनों का परित्याग कर सकता है। अब पर्वत अधिकार का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे के सूत्र से कहते है सूत्र // 2 // // 542 // तहागयं भिक्खुमणंतसंजयं अणेलिसं विण्णु चरंतमेसणं। तुदंति वायादि अभिद्दवं नरा सरेहिं संगामग यं व कुंजरं // 542 // संस्कृत-छाया : तथागतं भिक्षुमनन्तसंयतं अनीदृशं विज्ञं चरन्तमेषणाम् / तुदन्ति वाग्भिः अभिद्रवन्ति नराः शरैः सङ्ग्रामगतं इव कुञ्जरम् // 542 / / सूत्रार्थ : अनित्यादि भावनाओं से भावित, अनन्त जीवों की रक्षा करने वाले अनुपमसंयमी और III Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-4-2 (542) 539 जिनागामानुसार शुद्ध आहार की, वेषणा करने वाले भिक्षु को देखकर कतिपय अनार्य व्यक्ति साधु पर असभ्य वचनों एवं पत्थर आदि का इस तरह प्रहार करते हैं, जैसे संग्राम में अग्रेसर रहे हुए हाथी पर बाणों की वर्षा करते है। IV टीका-अनुवाद : अनित्य भावना से गृहस्थावास का त्याग करनेवाले एवं साधारण वनस्पति स्वरूप निगोद के अनंत जीवों की विराधना से विरत ऐसे संयत साधु, कि- जिन्होंने जिनागम के सार का श्रवण करके असाधारण विद्वता याने गीतार्थता प्राप्त की है ऐसे वे मुनिवर एषणासमिति के बयालीस (42) दोषों का त्याग करतें हैं... किंतु ऐसे मुनिवरों को, अपने पापकर्मों से आर्तध्यानवाले मिथ्यादृष्टि लोग असभ्य प्रलाप याने अनुचित बातों से दुःखी करतें हैं... और पत्थर, लकडी आदि के प्रहारों से उपद्रव करतें हैं... जिस प्रकार रणभूमि के अग्रिम भाग में रहे हुए हाथी के ऊपर दुश्मन सेना बाणों की वर्षा करती है... इस पर्वताधिकार में और भी बात कहतें हैं... v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में साधु की सहिष्णुता एवं समभाव वृत्ति का उल्लेख किया गया है। इसमें बताया गया है जैसे युद्ध के समय रणभूमि में अग्रभाग में रहे हुए हाथी पर शस्त्रों एवं बाणों का प्रहार करते हैं और वह हाथी उन प्रहारों को सहता हुआ उन पर विजय प्राप्त करता हे, उसी प्रकार यदि कोई असभ्य, अशिष्ट या अनार्य पुरुष किसी साधु के साथ अशिष्टता का व्यवहार करे, उसे अभद्र गालिया दे या उस पर पत्थर आदि फैंके तो साधु समभाव पूर्वक उस वेदना को सहता हुआ राग-द्वेष पर विजय प्राप्त करे। उस समय साधु उत्तेजित न हो और न आवेश में आकर उनके साथ वैसा ही व्यवहार करे और न उन्हें श्राप-अभिशाप दे। क्योंकि, इससे उसकी आत्मा में राग-द्वेष की प्रवृत्ति बढ़ेगी और परस्पर वैर भाव में अभिवृद्धि होगी और कर्म बन्ध होगा। अतः साधु अपनी प्रवृत्ति को राग-द्वेष की ओर न बढ़ने दे। उस समय वह क्षमा एवं शान्ति के द्वारा राग-द्वेष एवं कषायों पर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न करे। आर्तध्यानी वे दुष्ट एवं असभ्य व्यक्ति साधु के साथ दुर्व्यवहार कर रहे हैं और इस दुर्व्यवहार के द्वारा वे मनुष्य कर्मबन्ध करके संसार परिभ्रमण बढ़ा रहे हैं। साधु राग-द्वेष के इस भयंकर परिणाम को जानकर आत्मा के इन अंतरंग शत्रुओं को दबाने का, नष्ट करने का प्रयत्न करे। इसका तात्पर्य यह है कि साधु को हर हालत में, प्रत्येक परिस्थिति में अपनी अहिंसा वृत्ति का परित्याग नहीं करना चाहिए किन्तु सदा समभाव एवं निर्भयता पूर्वक प्रत्येक प्राणी को क्षमा करते हुए राग-द्वेष पर विजय पाने का प्रयत्न करना चाहिए। Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 540 2-4-3 (543) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन साधु को और भी ऐसे हि परिषहों के उत्पन्न होने पर भी पर्वत की तरह अचल, अटल एवं निष्कंप रहना चाहिए, इसका उल्लेख सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहते है I सूत्र // 3 // // 543 // तहप्पगारेहिं जणेहिं हीलिए ससद्दफासा फरुसा उईरिया। तितिक्खए नाणी अदुट्ठचेयसा गिरिव्व वाएण न संपवेयए // 543 // II संस्कृत-छाया : तथा प्रकारैः जनैः हीलितः __सथब्द-स्पर्शान् परुषान् उदीरितान् / तितिक्षते ज्ञानी अदुष्टचेतसा ___गिरिः इव वातेन न संप्रवेपते // 543 // III सूत्रार्थ : असंस्कृत एवं असभ्य पुरुषों द्वारा आक्रोशादि शब्दों से या शीतादि स्पर्शों से पीडित या व्यथित किया हुआ ज्ञानयुक्त मुनि उन परीषहोपसर्गों को शान्ति पूर्वक सहन करे। जिस प्रकार वायु के प्रबल वेग से भी पर्वत कम्पायमान नहीं होता, ठीक उसी प्रकार संयम शील मुनि भी इन परीषहों से कम्पित-विचलित न हो अर्थात् अपने संयम व्रत में दृढ़ रहे। IV टीका-अनुवाद : अनार्य जैसे मिथ्यादृष्टि लोगों ने मुनिवरों को जो कठोर अपमान जनक शब्दों तथा शीतगर्मी आदि दुःखो देने के लिये किये गये कठोर स्पर्शों को मुनिवर समभाव से सहन करें... यहां ज्ञानी गीतार्थ मुनिराज ऐसा चिंतन करे कि- यह सब कुछ पूर्व किये हुए कर्मो का ही फल है... इत्यादि सोचकर मुनिराज अपने चित्त को कलुषित नही होने दें... जिस प्रकार प्रचंड पवन से मेरु पर्वत कंपित नही होता, उसी प्रकार मुनिराज भी परीषह एवं उपसर्गो के समय में समाधि भाव से चलित नहीं होतें... अब पांच श्लोक से रुप्य दृष्टांत-अधिकार कहतें हैं... Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-4-4 (544) 541 सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा में पूर्व गाथा की बात दोहराई गई है। इसमें यह बताया गया है कि जैसे प्रचण्ड वायु के वेग से भी पर्वत कंपायमान नहीं होता, उसी तरह ज्ञान संपन्न मुनि असभ्य एवं असंस्कृत व्यक्तियों द्वारा दिए गए परीषहों-कष्टों से कम्पित नहीं होता, अपनी समभाव की साधना से विचलित नहीं होता। वह कष्टों के भयंकर तफानों में भी अचल. अटल एवं स्थिर भाव से अपनी आत्म साधना में संलग्न रहता है। वह उन परीषहों को अपने पूर्व कृत कर्म का फल जानकर समभाव पूर्वक उन्हें सहन करता है और उन कर्मो को या कर्म बन्ध के कारण राग-द्वेष और कषायों को क्षय करने का प्रयत्न करता है। प्रस्तुत गाथा में प्रयुक्त ‘नाणी अदुट्ठचेयसा' पद का अर्थ यह है कि ज्ञानी उन कष्टों को पूर्व कृत कर्म का फल समझकर उसे समभाव पूर्वक सहन करता है। वृत्तिकार ने भी इसी बात को स्वीकार किया है। साधु की सब प्राणियों के प्रति रही हुई समभाव की भावना का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे के सूत्र से कहते है सूत्र // 4 // // 544 // उवेहमाणे कुसलेहिं संवसे, * अकंतदुक्खी तस-थावरा दुही। अलूसए सव्वसहे महामुणी अहा हि से सुस्समणे समाहिए // 544 / / संस्कृत-छाया : उपेक्षमाणः कुशलैः संवसेत्, ___ अकान्तदुःखिनः स स्थावरान् दु:खिनः / अलूषयन् सर्वंसहः महामुनिः तथा हि असौ सुश्रमण: समाख्यातः // 544 // III सूत्रार्थ : परीषहोपसर्गों को सहन करता हुआ अथवा मध्यस्थ भाव का अवलम्बन करता हुआ वह मुनि गीतार्थ मुनियों के साथ रहे सब प्राणियों को दुःख अप्रिय लगता है ऐसा जानकर त्रस और स्थविर जीवों को दुःखी देख कर उन्हें किसी प्रकार का परिताप न देता हुआ पृथ्वी की भांति सर्व प्रकार के परीषहोपसर्गों को सहन करने वाला महामुनि-लोकवर्ति पदार्थों के Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 542 2-4-4 (544) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन - स्वरुप का ज्ञाता होता है। अतः उसे सुश्रमण-श्रेष्ठश्रमण कहा गया है। IV टीका-अनुवाद : परीषह एवं उपसर्गों को समभाव से सहन करनेवाले तथा इष्ट एवं अनिष्ट पदार्थों में उपेक्षाभाव रखनेवाले अर्थात् मध्यस्थ भाववाले श्रमण गीतार्थों के साथ रहें... क्योंकि- इस विश्व में अस एवं स्थावर सभी जीव दुःख याने असाता को नही चाहतें, अतः उन जीवों को दुःखकष्ट-परिताप नही देनेवाला श्रमण आश्रव द्वारों को स्थगित (बंध) करके पृथ्वी की तरह जो परीषह एवं उपसर्गों का कष्ट आवे उन्हें सहन करते हैं... यह महामुनि तीनों जगत के स्वभाव को यथार्थ प्रकार से जानता है अतः वह महामुनि सुश्रमण स्वरूप से प्रसिद्धि पातें ही है... V सूत्रसार: प्रस्तुत गाथा में बताया गया है कि मुनि संसार के यथार्थ स्वरुप का ज्ञाता एवं दृष्टा है। अतः वह कष्टों एवं परीषहों से विचलित नहीं होता है। क्योंकि- वह यह भी जानता है कि प्रत्येक प्राणी को सुख प्रिय लगता है, दुःख अप्रिय लगता है और संसार में स्थित एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि प्राणी दुखों से संत्रस्त हैं, इसलिए वह किसी भी प्राणी को संक्लेश एवं परिताप नहीं देता। वह अन्य प्राणियों से मिलने वाले दुःखों को समभाव पूर्वक सहन करता है, परन्तु अपनी तरफ से किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं देता। वह अन्य प्राणियों से मिलने वाले दुःखों को समभाव पूर्वक सहन करता है, परन्तु अपनी तरफ से किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं देता। यह उसको साधुता का उज्जवल आदर्श है। और इस विशिष्ट साधना के द्वारा वह अपनी आत्मा का विकास करता हुआ अन्य प्राणियों को कर्म बन्धन से मुक्त करने में सहायक बनता है। इससे यह स्पष्ट हो गया कि साधु को सदा मध्यस्थभाव रखना चाहिए। दुष्ट एवं असभ्य व्यक्तियों पर भी क्रोध नहीं करना चाहिए और उसे सदा गीतार्थ एवं विशिष्ट ज्ञानियों के साथ रहना चाहिए। क्योंकि, अज्ञ के संसर्ग से समय एवं शक्ति का दुरुपयोग होने की सम्भावना बनी रहती है। अतः साधक को ज्ञानी पुरुषों के सहवास में रहना चाहिए, उनके साथ रहकर वह अपनी साधना को आगे बढ़ा सकता है। इससे उसके ज्ञान में भी विकास होगा और ज्ञानवान एवं चिन्तनशील साधक लोक के यथार्थ स्वरुप को जानकर कर्म बन्धन से मुक्त हो सकता है। अतः साधक को गीतार्थ मुनियों के साथ में रहकर अपनी साधना को आगे बढ़ाने का प्रयत्न करना चाहिए। __ इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे के सूत्र से कहते है Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-4-5 (545) 543 सूत्र // 5 // // 545 // विऊ नए धम्मपयं अणुत्तरं, विणीयतण्हस्स मुणिस्स ज्ञायओ। समाहियस्सऽग्गिसिहा व तेयसा तवो य पण्णा य जसो य वड्ढड़ // 545 // II संस्कृत-छाया : विद्वान् नतः धर्मपदं अनुत्तरं विनीततृष्णस्य मुनेः ध्यायतः। समाहितस्य अग्निशिखावत् तेजसा __ तपश्च प्रज्ञा च यशश्च वर्धते // 545 // III सूत्रार्थ : क्षमा मार्दवादि दश प्रकार के श्रेष्ठ यति-श्रमण धर्म में प्रवृत्ति करने वाला विनयवान एवं ज्ञान संपन्न मुनि-जो तृष्णा रहित होकर धर्म ध्यान में संलग्न है और चारित्र को परिपालन करने में सावधान है, उसके तप, प्रज्ञा और यश अग्नि शिखा के तेज की भांति वृद्धि को प्राप्त होते हैं। IV. टीका-अनुवाद : क्षेत्र-काल आदि को जाननेवाले विद्वान् एवं नम ऐसा वह मुनि अनुत्तर याने श्रेष्ठ ऐसे क्षमादि धर्मपदों की उपासना से तृष्णा से रहित होता हुआ समाधि के साथ धर्मध्यान लीन होता है, और जलते हुए अग्नि की शिखा = ज्वाला की तरह वह मुनि तपश्चर्या प्रज्ञा, यशः एवं देहकांति - तेज से वृद्धि पाता है... v सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा में संयम से होने वाले लाभ का उल्लेख किया गया है। क्षमा, मार्दव आदि दश धर्मों से युक्त एवं तृष्णा से रहित होकर धर्म ध्यान में संलग्न विनय संपन्न मुनि की तपश्चर्या, प्रज्ञा एवं यश-प्रसिद्धि आदि में अभिवृद्धि होती है। वह निधूम अग्नि शिखा की तरह तेजस्वी एवं प्रकाश-युक्त बन जाता है। उसकी साधना में तेजस्विता आ जाती है। इससे स्पष्ट होता है कि क्षमा, मार्दव आदि से आत्मा के ऊपर लगा हुआ कर्म मैल दूर होता है और परिणाम स्वरुप उसकी उज्जवलता, ज्योतिर्मयता और तेजस्विता प्रकट हो जाती है। Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 544 2-4-6 (546) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन इस विषय में कुछ और बातों का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे . के सूत्र से कहते है I सूत्र // 6 // . // 546 // दिसो दिसंऽनंतजिणेण ताइणा महव्वया खेमपया पवेड्या। महागुरू णिस्सयरा उईरिया तमेव तेउत्ति दिसं पगासगा // 546 // II संस्कृत-छाया : दिशोदिशं अनन्तजिनेन ताइना महाव्रतानि क्षेमपदानि प्रवेदितानि / महागुरूणि निस्वकराणि उदीरितानि तमः इव तेजः इतित्रिदिशं प्रकाशकानि // 546 // III सूत्रार्थ : षट्काय के रक्षक, अनन्त ज्ञान वाले जिनेन्द्र भगवान ने एकेन्द्रियादि भाव दिशाओं में रहने वाले जीवों के हित के लिए तथा उन्हें अनादि काल से आबद्ध कर्म बन्धन से छुडाने वाले महाव्रत प्रकट किए हैं। जिस प्रकार तेज तीनों दिशाओं के अन्धकार को नष्ट कर प्रकाश करता है, उसी प्रकार महाव्रत रुप तेज से अन्धकार रुप कर्म समूह नष्ट हो जाता है और ज्ञानवान आत्मा तीनों लोक में प्रकाश करने वाला बन जाता है। IV टीका-अनुवाद : दिशा याने एकेन्द्रियादि अट्ठारह (18) भावदिशाओं में जीवों की सुरक्षा के लिये अनंत जिनेश्वर परमात्माओं ने कल्याणकर महाव्रतों का कथन किया है... यह महाव्रत आत्मा में अनादिकाल से संचित हुए कर्मो को दूर करने में समर्थ हैं... जिस प्रकार तेज याने प्रकाश अंधकार को दूर करके ऊपर नीचे एवं तिर्यक् ऐसी तीनों दिशाओं में प्रकाश करता है, ठीक वैसे ही यह महाव्रत कर्म-अंधकार को दूर करके तीनों दिशाओं को प्रकाशित करता है... अब मूल गुण के बाद उत्तरगुण कहतें हैं... सूत्रसार: प्रस्तुत गाथा में महाव्रतों के महत्व का उल्लेख किया गया है। इसमें बताया गया है Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 2-4-6 (546) 545 कि एकेन्द्रियादि आदि भाव दिशाओं में स्थित जगत के जीवों के हित के लिए भगवान ने महाव्रतों का उपदेश दिया है। जिसका आचरण करके आत्मा अनादि काल से लगे हुए कर्म बन्धनों को तोड़कर पूर्णतया मुक्त हो सकता है। क्योंकि भगवान का प्रवचन प्रकाशमय है, ज्योतिर्मय है। इससे समस्त अज्ञान अन्धकार नष्ट हो जाता है, जिस अज्ञान अन्धकार में आत्मा अनादि काल से भटकता रहा है, उससे छूटने का मार्ग मिल जाता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सर्वज्ञों का उपदेश प्राणी जगत के हितार्थ होता है। इसमें यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि संसार में आत्मा एवं कर्म संबन्ध भी अनादि है। परन्तु, यह अनादिता एक कर्म या एक गति की अपेक्षा नहीं बल्कि कर्म प्रवाह की अपेक्षा से है। बन्धने वाला प्रत्येक कर्म अपनी स्थिति के अनुसार फल देकर आत्मा से पृथक् हो जाता है, परन्तु साथ में अन्य कर्म बन्धते रहते हैं। इस तरह आत्मा पहले के बांधे हुए कर्मों को यथा समय भोग कर क्षय करता है और फिर नए कर्मों का बन्ध करता रहता है। इस प्रकार कर्मों का प्रवाह अनादि काल से चला आ रहा है। इस बात को इससे स्पष्ट कर दिया गया है कि महाव्रतों का आचरण करके साधु उस प्रवाह को सर्वथा नष्ट कर सकता है। यदि एक ही कर्म अनादि काल से चला आता हो तो उसे नष्ट करना असंभव था। परन्तु एक कर्म अनादि नहीं है। व्यक्ति की दृष्टि से वह सादि है, अर्थात् अमुक समय में बन्धा है और अपने उदय काल पर फल देकर क्षय हो जाता है। इस तरह कर्म व्यक्ति की दृष्टि से सादि है, परन्तु समष्टी-प्रवाह की अपेक्षा से अनादि है। क्योंकि संसार में स्थित जीव एक के बाद दूसरी, तीसरी-कर्म प्रकृतियों का बन्ध करता रहता है। इस कारण कर्मों को नष्ट भी किया जा सकता है और उसे नष्ट करने का साधन है—महाव्रत। क्योंकि, राग-द्वेष, कषाय एवं हिंसा आदि प्रवृत्तियों से कर्म का बन्ध होता है और महाव्रत इन प्रवृत्तियों के-आश्रव के द्वार को रोकने एवं पूर्व बन्धे कर्मों को क्षय करने का महान् साधन है। इस तरह संवर के द्वारा आत्मा जब अभिनव कर्म प्रवाह के स्रोत का आना बन्द कर देता है और पुरातन कर्म को तप, स्वाध्याय एवं ध्यान आदि साधना से सर्वथा क्षय कर देता है, तब वह कर्म बन्धन से सर्वथा मुक्त उन्मुक्त हो जाता है। अतः, महाव्रत की साधना आत्मा को कर्म बन्धन से मुक्त करती है और इसका उपदेश सर्वज्ञ पुरुष देते हैं। क्योंकि वे राग-द्वेष से मुक्त हैं और अपने निरावरण ज्ञान के द्वारा समस्त पदार्थों को सम्यक्तया देखते जानते हैं। अतः उनका उपदेश तेज-अग्नि की तरह प्रकाशमान है और प्रत्येक आत्मा को प्रकाशमान बनने की प्रेरणा देता है। महाव्रतों को शुद्ध रखने के लिए उत्तर गुणों में सावधानी रखने का आदेश देते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 546 2-4-7 (547) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन I सूत्र // 7 // // 547 // सिएहिं भिक्खू असिए परिव्वए असज्जमित्थीसु चइज्ज पूयणं / अनिस्सिओ लोगमिणं तहा परं न मिज्जड कामगुणेहिं पंडिए // 547 / / II संस्कृत-छाया : सितैः भिक्षुः असितः परिव्रजेत् असज्जन् स्त्रीषु त्यजेत् पूजनम् / अनिश्रितः इहलोके तथा परे - न मीयेत् कामगुणैः पण्डितः // 547 // III सूत्रार्थ : साधु कर्मपाश में बन्धे हुए गृहस्थों या अन्य तीर्थियों के सम्पर्क से रहित होकर तथा स्त्रियों के संसर्ग का भी त्याग करके विचरे और वह, पूजा सत्कार आदि की अभिलाषा न करे, और इह लोक तथा परलोक के सुख की कामना भी न रखे। वह मनोज्ञ शब्दादि के विषय में भी प्रतिबद्ध न होवे। इस तरह उनके कटुविपाक को जानने के कारण वह मुनि, पंडित कहलाता है। IV टीका-अनुवाद : घर की मायाजाल से बद्ध या राग-द्वेषादि से बद्ध ऐसे गृहस्थ तथा अन्य मतवाले कुतीर्थिकों के साथ जो अबद्ध है ऐसा मुनि-साधु संयमाचरणशील होता है, तथा जो साधु स्त्रीजनों के साथ संग याने परिचय न रखे वह पूजा के पात्र होता है, तथा साधु सत्कार-सन्मान के अभिलाषी न हो... तथा इस जन्म में या परलोक (स्वर्गादि) में जो साधु संबद्ध याने अनुरागी नही है ऐसे विद्वान साधु-मुनिराज मनोज्ञ (अच्छे) कामगुण स्वरूप शब्दादि विषयों में लीन आसक्त नही होते हैं... किंतु उन शब्दादि विषयों के कटुक विपाक को देखनेवाले होतें हैं... सूत्रसार: प्रस्तुत गाथा में बताया गया है कि साधु को राग-द्वेष से युक्त एवं कर्म पाश में आबद्ध गृहस्थ एवं अन्य तीर्थयों का संसर्ग नहीं करना चाहिए और उसे स्त्रियों के संसर्ग का भी त्याग कर देना चाहिए। उसे पूजा-प्रतिष्ठा एवं ऐहिक या पारलौकिक सुखों की अभिलाषा भी नहीं रखनी चाहिए। परन्तु इन सब से मुक्त-उन्मुक्त होकर संयम साधना में संलग्न रहना चाहिए। Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-4-8 (548) 547 क्योंकि गृहस्थ एवं अन्य मत के भिक्षुओं के सम्पर्क से उसके मन में राग-द्वेष की भावना जागृत हो सकती है और आध्यात्मिक साधना पर संशय हो सकता है। दूसरे में उसका स्वाध्याय एवं चिन्तन करने का अमूल्य समय (जिसके द्वारा वह आत्मा के ऊपर पड़े हुए कर्म आवरण को अनावृत्त करता हुआ आध्यात्मिक साधना के पथ पर आगे बढ़ता है) व्यर्थ की बातों में नष्ट होगा। और कभी साधु की उत्कृष्ट साधना को देखकर अन्यमत के भिक्षु के मन में ईर्ष्या की भावना जाग उठी तो वह साधु को शारीरिक कष्ट भी पहुंचा सकता है। इस तरह उनका संसर्ग आत्म साधना में बाधक होने के कारण त्याज्य बताया गया है। इसी तरह स्त्रियों के संसर्ग से भी विषय वासना उद्दीप्त हो सकती है और मान-पूजा प्रतिष्ठा की भावना एवं ऐहिक तथा पारलौकिक सुखों की अभिलाषा भी पतन का कारण है। क्योंकि इसके वशीभूत आत्मा अनेक तरह के अच्छे बुरे कर्म करता है। इसलिए साधक को इन सब के कटु परिणामों को जानकर इनसे मुक्त रहना चाहिए। जो साधक इनके विषाक्त एवं दुख परिणामों को सम्यक्तया समझकर इनसे सर्वथा पृथक रहता है, वही श्रमण वास्तव में पंडित है, ज्ञानी है और वही साधक कर्म बन्धन से मुक्त हो सकता है। एक अन्य उदाहरण के द्वारा इस विषय को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं.... सूत्र // 8 // // 548 // II तहा विमुक्कस्स परिणचारिणो धिईमओ दुक्खखमस्स भिक्खुणो। विसुज्झइ जं सि मलं पुरे कडं, समीरियं रुप्पमलं व जोडणा || 548 // संस्कृत-छाया : तथा विमुक्तस्य परिज्ञचारिणः धृतिमतः दुःखक्षमस्य भिक्षोः। विशुद्धयति यत् तस्य मलं पुराकृतं समीरितं रूप्यमलं इव ज्योतिषा || 548 // सूत्रार्थ : III जिस तरह अग्नि चांदी के मैल को जलाकर उसे शुद्ध बना देती है, उसी प्रकार सभी संसगों से रहित ज्ञान पूर्वक क्रिया करने वाला, धैर्यवान एवं सहिष्णु साधक अपनी साधना Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 548 2-4-8 (548) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन से आत्मा पर लगे हुए कर्ममल को दूर करके आत्मा को निरावरण बना लेता है। IV टीका-अनुवाद : वह साधु मूलगुण पांच महाव्रत एवं उत्तर गुण समिति-गुप्ति को धारण करनेवाला होने से निःसंग है, तथा अच्छे बुरे का विवेक करनेवाला वह साधु परिज्ञाचारी है अर्थात् ज्ञान पूर्वक ही क्रियानुष्ठान करनेवाला है... तथा जिस मुनिराज को संयमाचरण में धृति याने समाधि है ऐसा वह साधु उदीरणा से उदय में आये हुए असाता कर्मो को समभाव से सहन करता है... जिस प्रकार रोगवाला मनुष्य उस रोग को दूर करने के लिये वैद्य एवं औषधादि को ढूंढता है, उसी प्रकार मुमुक्षु साधु पूर्वजन्म में बांधे हुए कर्मो को समभाव से सहन करके विशुद्ध होता है... जैसे कि- अग्नि के द्वारा सोने-चांदी का मल दूर होता है... अब भुजंगत्वक् का अधिकार कहतें हैं... भुजंग त्वक् याने सापकी कांचली... सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में कर्ममल को हटाने के साधनों का उल्लेख किया गया है। कर्मबन्ध का कारण राग-द्वेष है। अतः इसका परिज्ञान रखने वाला साधक ही सम्यक् साधना के द्वारा उसे हटा सकता है। जैसे चांदी पर लगे हुए मैल को अग्नि द्वारा नष्ट किया जा सकता है। उसी प्रकार कर्म के मैल को ज्ञान पूर्वक क्रिया करके ही हटाया जा सकता है। उसके लिए साधक को धैर्य के साथ सहिष्णुता रखना भी आवश्यक है। क्योंकि अधीरता, आतुरता, अस्थिरता एवं असहिष्णुता अथवा परीषह एवं दुःखों के समय हाय-त्राय एवं विविध संकल्पविकल्प आदि की प्रवृत्ति कर्म बन्ध का कारण है। इससे आत्मा कर्म बन्धन से सर्वथा मुक्त नहीं हो सकती है। उसके लिए संयम-साधना आवश्यक है। और साधक को साधना के समय आने वाले कष्टों को भी धैर्य एवं समभाव पूर्वक सहन करना चाहिए। क्योंकि इससे कर्मों की निर्जरा होती है। जैसे चान्दी आग में तप कर शुद्ध होती है, उसी तरह तप एवं परीषहों की आग में तपकर साधक की आत्मा भी शुद्ध बन जाती है। इससे यह स्पष्ट हो गया है कि ज्ञानपूर्वक की गई क्रिया ही आत्म विकास मे सहायक होती है और साधना के साथ धैर्य एवं सहिष्णुता का होना भी आवश्यक है। अब सर्पत्वग् का उदाहरण देते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे के सूत्र से . कहते है Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-4-9 (549) 549 // 9 // // 549 // से हु परिणा-समयंमि वट्टइ निरासंसे उवरय मेहुणा चरे। भुयंगमे जुण्णतयं जहा चए . विमुच्चड़ से दुहसिज्ज माहणे // 549 // II संस्कृत-छाया : सः खलु परिज्ञासमये वर्तते निराशंसः उपरतः मैथुनात् चरेत् / भुजङ्गमः जीर्णत्वक् (कचुकं) यथा त्यजेत्, विमुञ्चति सः दुःखशच्चात: ब्राह्मणः // 549 // III सूत्रार्थ : जिस प्रकार सर्प अपनी जीर्ण त्वचा-कांचली को त्याग कर उससे पृथक् हो जाता है, उसी तरह महाव्रतों से युक्त, शास्त्रोक्त क्रियाओं का परिपालक, मैथुन से सर्वथा निवृत्त एवं इह लोक-परलोक के सुख की अभिलाषा से रहित मुनि नरकादि दुःख रुप शय्या से अर्थात् कर्म बन्धनों से सर्वथा मुक्त हो जाता है। IV टीका-अनुवाद : . मूल एवं उत्तर गुणों को धारण करनेवाला वह मुनि-साधु पिंडैषणा अध्ययन में कहे गये संयमानुष्ठान में उपयुक्त होकर जिनागमों के सूत्र एवं अर्थ को जानता है तथा आश्रव द्वारों का त्याग करके संवर मार्ग में आगे ही आगे बढता रहता है... वह साधु इसलोक के एवं परलोक के भौतिक फलों की आशंसा नही रखता... तथा मैथुनभाव याने कामक्रीडा का त्यागी तथा उपलक्षण से अन्य महाव्रत परिग्रहादि का भी त्यागी, ऐसा वह साधु नरकादि गति स्वरूप दुःखशय्या से मुक्त होता है... जिस प्रकार सर्प अपनी पुरानी त्वक् याने चमडी (कांचली) का त्याग करने निर्मल होता है... इसी प्रकार मुनि भी नरकादि भावों से मुक्त होता है... अब समुद्राधिकार का स्वरूप कहतें हैं... सूत्रसार: प्रस्तुत गाथा में सर्प का उदाहरण देकर बताया गया है कि जिस प्रकार सर्प अपनी त्वचा-कांचली का त्याग करने के बाद शीघ्रगामी एवं हल्का हो जाता है। उसी तरह साधक Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 550 2-4-10 (550) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन भी सावध कार्यों, विषय-विकारों एवं भौतिक सुखों की अभिलाषा का त्याग करके निर्मल, पवित्र एवं शीघ्र गति से मोक्ष की ओर बढ़ने की योग्यता प्राप्त कर लेता है। क्योंकि सावध कार्य एवं विषय विकार आदि कर्म बन्ध के कारण हैं। इससे आत्मा कर्मो से बोझिल बनती है और फल स्वरुप उसकी ऊपर उठने की गति अवरुद्ध हो जाती है। अतः इस गाथा में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि साधक को आगम में बताए गए महाव्रतों एवं अन्य क्रियाओं का पालन करना चाहिए। इससे आत्मा पर पड़ा हुआ कर्मों का बोझिल आवरण दूर हो जाता है। जिससे आत्मा में अपने आपको सर्वथा अनावृत्त करने की महान् शक्ति प्रकट हो जाती अब समुद्र का उदाहरण देते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहते हैसूत्र // 10 // // 550 // जमाह ओहं सलिलं अपारयं महासमुदं व भुयाहि दुत्तरं / . अहे य णं परिजाणाहि पंडिए से हु मुणी अंतकडेत्ति वुच्चइ // 550 // II संस्कृत-छाया : यं आहुः ओघ सलिलं अपारगं ____महासमुद्रं इव भुजाभ्यां दुस्तरम् / अथ च एतं परिजानीहि पण्डितः सः खलु मुनिः अन्यकृत् ऊच्यते // 550 // III सूत्रार्थ : महासमुद्र की भांति संसार रुपी समुद्र को पार करना दुष्कर है, हे शिष्य ! तू इस संसार के स्वरुप का ज्ञ-परिज्ञा से जान कर प्रत्याख्यान परिज्ञा से उसका त्याग कर दे। इस प्रकार त्याग करने वाला पण्डित मुनि कर्मों का अन्त करने वाला कहलाता है। IV टीका-अनुवाद : तीर्थंकर एवं गणधरादिने संसार समुद्र को दो भुजा से तैरना दुष्कर कहा है, क्योंकिइसे संसार स्वरूप समुद्र में आश्रृव तुल्य जल के अनेक प्रवाह संसार-समुद्र में आ रहे हैं... और मिथ्यात्व आदि स्वरूप जल अपार है, इस कारण से संसार-समुद्र को दुस्तर कहा है... अतः इस संसार-समुद्र को ज्ञ-परिज्ञा से जानकर एवं प्रत्याख्यान परिज्ञा से आश्रव द्वारों का Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 2-4-11 (551) 551 निग्रह करनेवाला सद् एवं असद् का विवेकी विद्वान् मुनि ही संसार-समुद्र को तैरकर मोक्षनगर * में पहुंचता है... v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में समुद्र का उदाहरण देकर संसार के स्वरुप को स्पष्ट किया गया है। समुद्र में अपरिमित जल है, अनेक नदियां आकर मिलती है। इसलिए उसे भुजाओं से तैर कर पार करना कठिन है। उसी तरह यह संसार भी समुद्र के तुल्य कहा गया है..... I सूत्र // 11 // // 559 // जहा हि बद्धं इह माणवेहिं __जहा य तेसिं तु विमुक्ख आहिए। अहा तहा बन्ध-विमुक्ख जे विऊ ... से ह मुणी अंतकडेत्ति वुच्चइ // 559 // II संस्कृत-छाया : यथा हि बद्धं इह मानवैः यथा च तेषां तु विमोक्ष: आख्यातः / यथा तथा बन्ध-विमोक्षयोः यः वेत्ता सः खलु मुनिः अन्तकृदिति उच्यते // 559 // III सूत्रार्थ : जिस प्रकार मनुष्य यहां कर्म बांधते हैं और जिस प्रकार उन कर्मो का विनाश होता है इत्यादि बाते सूत्र में कही गइ है अतः जो मुनि यथार्थ रूप से कर्मो के बंध एवं मोक्ष का स्वरूप जानता है वह हि मुनि-श्रमण संसार का अंतकृत् कहा गया है.... IV टीका-अनुवाद : ___ जिस प्रकार इस संसार में मिथ्यात्व आदि हेतुओं से प्रकृति-स्थित आदि स्वरूप बांधे हुए कर्मो से मनुष्य संसार में भटकता है... इत्यादि तथा जिस प्रकार सम्यग्दर्शन, ज्ञान एवं मोक्ष को अच्छी तरह से जानने वाला ही मुनि कर्मो का विनाश करता है... Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 552 2-4-12 (552) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन सूत्र // 12 // // 552 / / इमंमि लोए परए य दोसु वि न विज्जड़ बंधन जस्स किंचिवि। . से ह निरालंबणमप्पइडिए कलंकलीभावपहं विमुच्चड़ // 552 // संस्कृत-छाया : अस्मिन् लोके परत्र च द्वयोरपि न विद्यते बन्धनं यस्य किचिदपि / सः खलु निरालम्बनमप्रतिष्ठित: कलङ्कलीभावपथात् विमुच्यते // 552 // III सूत्रार्थ : जिस साधु को इस लोक में एवं परलोक के विषय में बंधन नहि है अर्थात् दोनों लोक .. के बंधनों से जो साधु मुक्त है वह हि मुनि-श्रमण विषय-कषाय स्वरूप संसार से मुक्त होकर मोक्षपद प्राप्त करता है. IV टीका-अनुवाद : जिस साधुको इस लोक में एवं परलोक में कोई भी बंधन-प्रतिबंध नही है, वह साधु इस जन्म एवं जन्मांतर की आशासे रहित होकर कही भी प्रतिबद्ध नही होता अर्थात् अशरीरी ऐसे वे साधु महात्मा कलंकलीभाव स्वरूप संसार की परिभ्रमणा से मुक्त होकर सिद्ध शिला के ऊपर सिद्ध स्वरूपी होकर विराजमान होता है... इति पंचम गणधर श्री सुधर्मस्वामीजी अपने शिष्य जंबूस्वामीजी को कहतें हैं कि- चौवीसवे तीर्थंकर श्री वर्धमानस्वामीजी के मुखारविंद से जो मैनें सुना है वह मैं तुम्हे कहता हूं... Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी- टीका 553 उपसंहार आचारांगसूत्रके चार अनुयोग द्वारके अंतर्गत उपक्रम निक्षेप एवं अनुगम स्वरूप तीन द्वार पूर्ण हुआ... अब चौथे द्वार के प्रसंगमें नय का स्वरूप कहतें हैं... ' नयके मुख्य दो भेद है... 1. ज्ञान नय एवं 2. क्रियानय... यहां ज्ञाननय का स्वरूप इस प्रकार है... जैसे कि- ज्ञान हि इस जन्म एवं जन्मांतरमें प्राप्तव्य परमार्थको प्राप्त करने में समर्थ है... अन्यत्र भी कहा है कि- ग्रहण योग्य संवरका आदर करता है एवं त्याग योग्य आश्रवोंका त्याग करता है अतः ज्ञान हि प्रधान है... अतः ज्ञान के लिये हि उद्यम करना चाहिये. अब क्रियानय का स्वरूप कहतें हैं... क्रिया हि सफल है, अकेला ज्ञान पुरुषको फल नहि देता... जैसे कि- स्त्री एवं भक्ष्य आहारादिके भोग-फलको जाननेवाला पुरुष क्रियाके बिना मात्र ज्ञानसे सुख प्राप्त नहि करता... अन्यत्र भी कहा है कि- शास्त्रोंको पढनेके बाद भी मनुष्य यदि क्रियाका आदर नहि करता तब वह विद्वान नहि कहा जाता किंतु मूर्ख हि कहा गया है... जैसे कि- रोगवाला मनुष्य औषधके ज्ञान मात्रसे हि आरोग्य नहि करता किंतु औषधका सेवन करने पर हि आरोग्यको पाता है... इसीलिये कहा है कि- ग्राह्य एवं ग्राहकको जाननेके बाद क्रियाका भी अभ्यास करना चाहिये... इस प्रकार यह क्रियानय है... इस प्रकार ज्ञान एवं क्रियाका अभिसंधान याने समन्वय करके हि परमार्थ स्वरूप यह सुत्र कहा है कि"ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः' अर्थात् ज्ञान एवं क्रियाके समन्वयसे हि जीव का मोक्ष होता है... आगम सूत्रमें भी कहा है कि- सभी नयोंका विभिन्न प्रकार का विवेचन सुनकर जो साधु चरण-करण अनुष्ठानमें स्थिर हुआ है वह हि साधु सर्वनयोंसे विशुद्ध माना गया है... चरण याने क्रिया तथा गुण याने ज्ञान अर्थात् क्रिया एवं ज्ञानवाला साधु हि मोक्षपदको पानेके लिये समर्थ होता है... यह यहां सारांश है... .. अब शीलांकाचार्यजी कहतें हैं कि- आचारांगसूत्र की व्याख्या स्वरूप यह संस्कृत टीका बनानेमें मैंने जो कुछ मोक्षमार्गके हेतुभूत पुन्य प्राप्त कीया हो, तो अब इस पुन्यकर्मसे यह संपूर्ण लोक याने जगत्के सभी जीव अशुभ कर्मोका विनाश करके मोक्षमार्गमें तत्पर बने ऐसी मै शुभ मंगल कामना करता हूं... अब ग्रंथके अंतमें नियुक्तिकी तीन गाथा का अर्थ इस प्रकार है.. ज्ञान एवं क्रियासे संपन्न ऐसे इस आचारांग सूत्रकी चौथी चूलिकाकी यह नियुक्ति यहां पूर्ण हुइ... अब पांचवी चूलिका निशीष सूत्रकी नियुक्ति कहुंगा... Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 554 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन नियुक्ति 348 आचारांग सूत्र में प्रथम श्रुतस्कंधके नव अध्ययनमें अनुक्रमसे सात छह चार चार पांच आठ आठ एवं चार उद्देशक हैं... अध्ययन - 1 उद्देशक - 7 अध्ययन - 2 उद्देशक - 6 अध्ययन - 3 उद्देशक - 4 अध्ययन - 4 उद्देशक - 4 अध्ययन - 5 उद्देशक - 5 अध्ययन -6 उद्देशक - 8 अध्ययन - 7 उद्देशक - - अध्ययन - 8 उद्देशक - 8 अध्ययन - 9 उद्देशक - 4 प्रथम श्रुतस्कंधमें कुल - 46 उद्देशक नियुक्ति 349 आचारांग सूत्रके दुसरे श्रुतस्कंधमें सोलह अध्ययन हैं... . अध्ययन - 1 उद्देशक - 11 अध्ययन - 2 उद्देशक - अध्ययन - 3 उद्देशक - अध्ययन - 4 उद्देशक - 2 अध्ययन - 5 उद्देशक - 2 अध्ययन -6 उद्देशक - 2 अध्ययन - 7 उद्देशक - 2 यह पहली सात अध्ययनकी सप्तकिका हुइ, दुसरे सात अध्ययनकी दुसरी सप्तकिका में सातों अध्ययनके उद्देशक नहि है... अतः 8 से 14 अध्ययन हुए तथा (15) पंद्रहवे अध्ययन स्वरूप तीसरी चूलिका एवं (16) सोलहवे अध्ययन स्वरूप चौथी चूलिका है... इन चूलिकाओंमें भी उद्देशक नहि है... अध्ययन - 8-14 द्वितीय चूलिका सप्तसप्तैकिका अध्ययन - 15 तृतीय चूलिका भावना अध्ययन अध्ययन - 16 चतुर्थ चूलिका विमुक्ति अध्ययन 卐卐卐 Www Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 555 राजेन्द्र सुबोधनी “आहोरी' हिन्दी-टीकाया: लेखन-कर्ता ज्योतिषाचार्य ___श्री जयप्रभविजयजित् “श्रमण' : प्रशस्ति : सुधर्मस्वामिनः पट्टे सप्तषष्टितमे शुभे। सुधर्मस्वामी श्रीमद् विजयराजेन्द्र - सूरीश्वरः समभवत् // 1 // राजेन्द्रसूरि विद्वद्वर्योऽस्ति तच्छिष्य: श्रीयतीन्द्रसूरीश्वरः / "श्रमण" "श्रमण' इत्युपनाम्नाऽस्ति तच्छिष्यश्च जयप्रभः // 2 // जयप्रभः "दादावाडी'ति सुस्थाने जावरा-नगरेऽन्यदा / दादावाडी स्फु रितं चेतसि श्रेयस्करं आगमचिन्तनम् // 3 // जावरा. म.प्र. "हिन्दी''ति राष्ट्रभाषायां सटीकश्चेत् जिनागमः / राष्ट्रभाषा लभ्यते क्रियते वा चेत् तदा स्यादुपकारकः // 4 // “हिन्दी" साम्प्रतकालीनाः जीवाः दु:षमारानुभावतः / मन्दमेधाविनः सन्ति तथाऽपि मुक्तिकाक्षिणः / / 5 / / अतस्तदुपकाराय देवगुरुप्रसादतः मोहनखेडा-तीर्थ मोहनखेटके तीर्थे विजया-दशमी-दिने // 6 ॥आसो सुद-१० नि रस-बाण-शून्य-नेत्रतमेऽब्दके / वि.सं. 2056 प्रारब्धोऽयमनुवादः स्वपरहितकाम्यया // 7 // युग्मम् / अविन च तत्रैव गुरुसप्तमी-पर्वणि / पोष सुद-७ सप्तविंशतिमासाऽन्ते परिपूर्णोऽभवत् शुभः // 8 // वि.सं. 2058 आहोर-ग्राम-वास्तव्यैः श्राद्धैः श्रद्धालुभिः जनैः / सम्मील्य दत्तद्रव्येण ग्रन्थः प्रकाश्यते महान् // 9 // तेम “आहोरी"ति सञ्ज्ञा टीकाया: दीयते मुदा / “आटोरी" श्रूयतां पठ्यतां भव्यैः गम्यतां मुक्ति-धाम च // 10 // सम्पादितश्च ग्रन्थोऽयं “हरिया" गोत्रजन्मना / "हरिया" विदुष्या साधनादेव्या प्रदत्तसहयोगतः // 11 // रमेशचंद्र सात्मजेन निमेषेण ऋषभेणाऽभयेन च / विज्ञ-रमेशचन्द्रेण लीलाधरात्मजेन भोः ! // 12 // युग्मम् Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 556 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन ग्रन्थप्रकाशने चाऽत्र वक्तावरमलात्मजः / “मुथा' आहोर-ग्राम-वास्तव्य: “मुथा" श्री शान्तिलालजित् // 13 // शांतिलालजी मन्त्री च योऽस्ति भूपेन्द्र-सूरि साहित्य-मण्डले / आर्थिकव्यवस्थां तेन कृता सद्गुरुसे विना // 14 // युग्मम् ग्रन्थमुद्रणकार्यं च “दीप-ओफ्सेट' स्वामिना / नीलेश-सहयोगेन हितेशेन कृतं मुदा // 15 // पाटण अक्षराणां विनिवेशः देवनागरी-लिपिषु / उ. गुजरात "मून-कम्प्यूटर" स्वामि-मनोजेन कृतः हृदा // 16 // युग्मम् आचाराङ्गाऽभिधे ग्रन्थे भावानुवादकर्मणि / आचारांगसूत्र चेत् क्षति: स्यात् तदा भोः ! भो: ! शुद्धीकुर्वन्तु सजनाः // 17 // "आहोरी' नाम-टीकायाः लेखनकार्यकुर्वता / अर्जितं चेत् मया पुण्यं सुखीस्युः तेन जन्तवः // 18 // ग्रन्थेऽत्र यैः सहयोगः प्रदत्तोऽस्ति सुसजनैः / तान् तान् कृतज्ञभावेन स्मराम्यहं जयप्रभः // 19 / / : अन्तिम-मङ्गल : जप्त वर्धमानाद्याः अर्हन्तः परमेश्वराः / जयन्तु गुरु-राजेन्द्र-सूरीश्वरा: गुरुवराः // 20 // जयन्तु गुरुदेवाः हे ! श्रीयतीन्द्रसूरीश्वराः ! / जयन्तु साधवः ! साध्व्य: ! श्रावका: ! श्राविकाश भो: ! // 21 // सर्वेऽपि सुखिनः सन्तु सर्वे सन्तु निरामयाः / सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत् // 22 // : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शगुंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट -परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 557 शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. “श्रमण" के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययन से विश्व के सभी जीव पंचाचार की दिव्य सुवास को प्राप्त करके परमपद की पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" . वीर निर्वाण सं. 2528. राजेन्द्र सं. 96. ॐ विक्रम सं. 2058. // प्रथमं अङ्गसूत्रं आचाराङ्गं परिसमाप्तम् / / ROOM SSR UNE Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 558 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन - श्री आचाराङ्गे द्वितीय-श्रुतस्कन्धस्य नियुक्तिः नि.२८८ (चूलिका-१ अध्ययन-१ पिण्डैषणा) दव्वोगाहण आएस काल कमगणणसंचए भावे। अग्गं भावे उ पहाणबहुय उवगारओ तिविहं // नि.२८९ उवयारेण उ पगयं आयारस्सेव उवरिमाइं तु / रुक्खस्स य पव्वयस्स य जह अग्गाई तहेयाई॥ नि.२९० थेरेहिऽणुग्गहट्ठा सीसहि होउ पागडत्थं च / आयाराओ अत्थो आयारंगेसु पविभत्तो॥ नि.२९१ बिइअस्स य पंचमए अट्ठमगस्स बिइयंमि उद्देसे। भणिओ पिंडो सिज्जा वत्थं पाउग्गहो चेव // नि.२९२ पंचमगस्स चउत्थे इरिया वण्णिज्जई समासेणं। छट्ठस्स य पंचमए भासज्जायं वियाणाहि। नि.२९3 सत्तिक्कगाणि सत्तवि निज्जूढाई महापरिन्नाओ। सत्थपरिन्ना भावण निज्जूढा उ धुय विमुत्ती॥ नि.२९४ आयारपकप्पो पुण पच्चक्खाणरंस तइयवत्थूओ। आयारनामधिजा वीसइमा पाहुडच्छेया / / नि.२९५ अव्वोगडो उ भणिओ सत्थपरिन्नाय दंडनिक्लेवो। सो पुण विभज्जमाणो तहा तहा होइ नायव्वो॥ नि.२९६ एगविहो पुण सो संजमुत्ति अज्झत्थबाहिरो यदुहा। मणवयणकाय तिविहो चउव्विहो चाउजामो उ॥ Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 559 नि.२९७ पंच य महव्वयाइं तु पंचहा राइभोअणे छट्ठा। सीलंगसहस्साणि य आयारस्सप्पविभागा॥ नि.२९८ आइक्खिउं विभइउं विन्नाउं चेव सुहतर होइ। एएण कारणेणं महव्वया पंच पन्नत्ता / / नि.२९९ तेसिं च रक्खगट्ठा य भावणा पंच पंच इक्कियके। ता सत्थपरिन्नाए एसो अभिंतरो होई॥ नि.300 जावोग्गहपडिमाओ पढमा सत्तिक्कगा बिइअचूला / भावण विमुत्ति आयारपक्कप्पा तिन्नि इअ पंच // नि.3०९ (चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा) व्वे खित्ते काले भावे सिज्जा य जा तहिं पगयं / केरिसिया सिज्जा खलु संजयजोगत्ति नायव्वा / / नि.30२ तिविहा य दव्वसिज्जा सचित्ताऽचित्त मीसगा चेव / खित्तंमि जंमि खित्ते काले जा जंमि कालंमि / / नि.303 उक्कलकलिंग गोअम वग्गुमई चेव होइ नायव्वा / एयं तु उदाहरणं नायव्वं दव्वसिज्जाए / नि.30४ दुविहा य भावसिज्जा कायगए छव्विहे य भावंमि / भावे जो जत्थ जया सुहदुहगब्भाइसिज्जासु // नि.3०५ सव्वेवि य सिज्जविसोहिकारगा तहवि अत्थि उ विसेसो। उद्देसे वुच्छामि समासओ किंचि / / Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 560 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन - नि.308 उग्गमदोसा पढमिल्लुयंमि संपत्तपञ्चवाया य 1 / बीयंमि सोअवाई बहुविहसिज्जाविवेगो 2 य॥ नि.30७ तइए जयंतछलणा सज्झायस्सऽणुवरोहि जइयव्वं / समविसमाईएसु य समणेणं निज्जरवाए 3 / / नि.3०८ (चूलिका-१ अध्ययन-3 ईर्या) नाम 1 ठवणाइरिया 2 दव्वे 2 खित्ते 4 य काल 5 भावे 6 य। एसो खलु इरियाए निक्खेवो छव्विहो होइ॥ नि.30९ दव्वइरियाओ तिविहा सचित्ताचित्तमीसगा चेव / खित्तंमि जंमि खित्ते काले कालो जहिं होइ॥ नि.३१० भावरियाओ दुविहा चरणरिया चेव संजमरिया य। समणस्स कहं गमणं निहोसं होड़ परिसुद्धं // .. नि.३११ भावइरियाओ दुविहा चरणरिया चेव संजमरिया य / समणस्स कहं गमणं निद्दोस होइ परिसुद्धं // नि.3१२ चउकारणपरिसुद्धं अहवावि (हु) होज कारणजाए। आलंबणजयणाए काले मग्गे य जइयव्वं // नि.383 सव्वेवि ईरियविसोहिकारगा तहवि अत्थि उ विसेसो। उद्देसे उद्देसे वुच्छामि जहक्कम किंचि / / नि.3१४ पढमे उवागमण निग्गमो य अद्धाण नावजयणा य। बिड़ए आरूढ छलणं जंघासंतार पुच्छा य॥ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 561 नि.३१५ तइयंमि अदायणया अप्पडिबंधो य होइ उवहिंमि। वजेयव्वं च सया संसारियरायगिहगमणं // नि.३१६ (चूलिका-१ अध्ययन-४ भाषा-जातम्) जह वकं तह भासा जाए छक्कं च होइ नायव्वं / उप्पत्तीए 1 तह पज्जवं 2 तरे 3 जायगहणे 4 य॥ नि.३१७ सव्वेऽवि य वयणविसोहिकारा तहवि अत्थि उ विसेसो। वयणविभत्ती पढमे उप्पत्ती वजणा बीए / नि.3१८. (चूलिका-१ अध्ययन-५/६ वस्त्र/पात्र) पढमे गहणं बीए धरणं पगयं तु दव्ववत्थेणं / एमेव होइ पायं भावे पायं तु गुणधारी॥ नि.३१९ (चूलिका-१ अध्ययन-७ अवग्रह-प्रतिमा) दव्वे खित्ते काले भावेऽवि य उग्गहो चउद्धा उ। देविंद 1 रायउग्गह 2 गिहवइ 3 सागारिय 4 साहम्मी / / नि.3२० दव्वुग्गहो उ तिविहो सचित्ताचित्तमीसओ चेव। खित्तुग्गहोऽवि तिविहो दुविहो कालुग्गहो हो / नि.३२१ मउग्गहो य गहणुग्गहो य भावुग्गहो दुहा होड़। इंदिय नोइंदिय अत्थवंजणे उग्गहो दसहा // नि.3२२ गहणुग्गहम्मि अपरिग्गहस्स समणस्स गहणपरिणामो। कहपाडिहारियाऽपाडिहारिए होड़ ? जइयव्वं / नि.3२3 (चूलिका-२ अध्ययन-१/२ स्थान/निषीधिका) सत्तिक्कगाणि इक्कस्सरगाणि पुव्व भणियं तहिं ठाणं। उद्धट्टाणे पगयं निसीहियाए तहिं छकं / / Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 562 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन नि.3२४ (चूलिका-२ अध्ययन-3 उच्चार-प्रसवण) उच्चवड सरीराओ उच्चारो पसवइत्ति पासवणं / तं कह आयरमाणस्स होड़ सोही न अइयारो॥ नि.3२५ मुनिना छकायदयावरेण सुत्तभणियंमि ओगासे। उच्चारविउस्सग्गो कायव्वो अप्पमत्तेणं॥ नि.3२६ (चूलिका-२ अध्ययन-४ शब्द) दव्वं संठाणाई भावो वन्नकसिणं स भावो य। दव्वं सद्दपरिणयं भावो उ गुणा य कित्ती य॥ नि.3२७ (चूलिका-२ अध्ययन-५ रूप) दव्वं संठाणाई भावो वन्न कसिणं सभावो य / दव्वं सवपरिणयं भावो उ गुणा य कित्ती य॥ नि.३२८ (चूलिका-२ अध्ययन-६/७ परक्रिया/अन्योऽन्यक्रिया) (गाथार्द्धम्) छकं परइक्किकं तर दन्न 2 माएस 3 कम 4 बहु 5 पहाणे / अन्ने छकं गाथद्धं तं पुण तदन्नमाएसओ चेव // . नि.3२९ जयमाणस्स परो जं करेड़ जयणाए तत्थ अहिगारो। निप्पडिकम्मस्स उ अन्नमन्त्रकरणं अजुत्तं तु / / नि.330 (चूलिका-3 भावना) दव्वं गंधंगतिलाइएसु सीउण्हविसहणाईसु। भावंमि होइ दुविहा पसत्थ तह अप्पसत्था य॥ नि.338 पाणिवहमुसावाए अंदत्तमेहुणपरिग्गहे चेव। कोहे माणे माया लोभे य हवंति अपसत्था / नि.33२ दसणनाणचरिते तववेरग्गे य होइ उ पसत्था / जा य जहा ता य तहा लक्खण वच्छं सलक्खणओ। Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 563 नि.333 तित्थगराण भगवओ पवयणपावयणिअइसइड्ढीणं। अभिगमणनमणदरिसणकित्तणसंपूअणा थुणणा // नि.33४ जम्माभिसेयनिक्खमणचरणनाणुप्पया न निव्वाणे। दियलोअभवणमंदरनंदीसरभोमनगरेसुं॥ नि.33५ अट्ठावयमुज्जिंते गयग्गपयए य धम्मचक्के य / पासरहावत्तनगं चमरूप्पायं च वंदामि / / नि.338 गणियं निमित्त जुत्ती संदिट्ठी अवितहं इमं नाणं / ड्रय एगंतमुवगया गुणपच्चइया इमे अत्था / नि.33७ . गुणमाहप्पं इसिनामकित्तणं सुरनरिंदपूया य। पोराणचेइयाणि य इय एसा दंसणे होइ॥ नि.33८ तत्तं जीवाजीवा नायव्वा जाणणा इहं दिट्ठा। इह कज्जकरणकारगसिद्धी इह बंधमुक्खो य॥ नि.33९ बद्धो य बंधहेऊ बंधणबंधप्फलं सुकहियं तु। संसारपवंचोऽवि य इहयं कहिओ जिनवरेहिं / / नि.३४० नाणं भविस्सई एवमाइया वायणाइयाओ य। सज्झाए आउत्तो गुरुकुलवासो य इय नाणे॥ नि.३४९ साहुमहिंसाधम्मो सच्चमदत्तविरई य बंभं च / साह परिग्गहविरई साह तवो बारसंगो य॥ Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 564 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन %3 नि.3४२ वेरग्गमप्पमाओ एगत्ता (ग्गे) भावणा य परिसंगं / इय चरणमणुगयाओ भणिया इत्तो तवो वुच्छं॥ नि.3४३ किह मे हविजऽवंझो दिवसो ? किं वा पहू तवं काउं। को इह दव्वे जोगो खित्ते काले समयभावे॥ नि.३४४ उच्छाहपालणाए इति तवे संजमे य संघयणे। वेरग्गेऽनिधाई होइ चरित्ते इहं पगयं / / नि.3४५ (चूलिका-४ विमुक्ति) अनिच्चे पव्वए रूप्पे भुयगस्स तहा महासमुद्दे य / एए खलु अहिगारा अज्झयणंमि विमुत्तीए / नि.३४६ जो चेव होड़ मुक्खो सा उ विमुत्ति पगयं तु भावेणं। देसविमुक्का साहू सव्वविमुक्का भवे सिद्धा॥ नि.३४७ आयारस्स भगवओ चउत्थचूलाइ एस निज्जुत्ती। पंचमचूलनिसीहं तस्स य उवरिं भणीहामि // नि.३४८ सत्तहिं छहिं चउचउहि य पंचहि अट्ठट्टचउहि नायव्वा। उद्देसएहिं पढमे सुयखंधे नव य अज्झयणा // नि.३४९ इक्कारस तिति दोदो दोदो उद्देसएहिं नायव्वा / सत्त य अट्ठ य नवमा इक्कसरा हुति अज्झयणा / / इतिश्रीआचारङ्गनियुक्तिः Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 565 नि.३५० (अध्ययन-७ महापरिज्ञा) पाहण्णे महसद्दो परिमाणे चेव होइ नायव्वो। पाहण्णे परिमाणे य छव्विहो होइ निक्खेवो / नि.३५१ दव्वे खेत्ते काले भावंमि य होंति या पहाणा उ। तेसि महासद्दो खलु पाहण्णेणं तु निप्फन्नो // नि.३५२ . दव्वे खेत्ते काले भावंमि य जे भवे महंता उ। तेसु महासद्दो खलु पमाणओ होंति निप्फन्नो॥ नि.343 दव्वे खेत्ते काले भावपरिण्णा य होइ बोद्धव्वा / जाणाणओ पच्चक्खणओ य दुविहा पुणेक्केका // नि.३६४ .. भावपरिण्णा दुविहा मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य। मूलगुणे पंचविहा दुविहा पुण उत्तरगुणेसु // नि.3५५ पाहण्णेण उ पगयं परिणाए य तह य दुविहाए। परिणाणेसु पहाणे महापरिणा तओ होड़ // नि.३५६ देवीणं मणुईणं तिरिक्खजोणीगयाण इत्थीणं / तिविहेण परिच्चाओ महापरिण्णाए निजुत्ती / / अविवृता नियुक्तिरेषा महापरिज्ञायाः, अविवृता इत्यत्रोपन्यस्ताः / // प्रथमं अङ्गसूत्रं आचाराङ्गं परिसमाप्तम् / / % % Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 566 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन (45 आगम मूल तथा विवरण के श्लोक प्रमाणदर्शक कोष्टक) मुनिश्री दीपरत्नसागरजी म. द्वारा संकलित सटीक "आगमसुत्ताणि" से साभार उद्धृत... मूल क्रमांक आगमसूत्रनाम श्लोक प्रमाण वृत्ति-कर्ता श्लोकप्रमाण वृत्ति 12000 | आचारांग सूत्रकृतांग स्थानांग 12850 14250 3575 समवायांग | भगवती ज्ञाताधर्मकथा 18616 2554 | शीलाङ्काचार्य 2100 शीलाङ्काचार्य 3700 अभयदेवसूरि 1667 | अभयदेवसूरि 15751 | अभयदेवसूरि 5450 | अभयदेवसूरि 812 | अभयदेवसूरि 900 अभयदेवसूरि 192 | अभयदेवसरि 1300 अभयदेवसूरि 1250 | अभयदेवसूरि 3800 उपासकदशा 800 400 100 10 5630 900 wII 0 1167 | ----- 3125 I 3700 | अन्तकृद्दशा अनुतरोपपातिकदशा प्रश्नव्याकरण | विपाकश्रुत औपपातिक 13 राजप्रश्नीय जीवाजीवाभिगम | प्रज्ञापना 16 सूर्यप्रज्ञप्ति 17 चन्द्रप्रज्ञप्ति 18 जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति १९थी निरयावलिका 14000 '16000 MI | | 2120] मलयगिरि 4700 | मलयगिरि 7787 | मलयगिरि 2296 | मलयगिरि 2300 मलयगिरि 4454 | शान्तिचन्द्र उपाध्याय 1100 | चन्द्रसूरि 9000 9100 18000 600 | (पञ्च उपाङ्ग) चतुःशरण 24 (?) 200 25 आतुर प्रत्याख्यान (?) 150 80 विजयविमलयगणि 100 गुणरत्नसूरि (अवचूरि) 176 | आनन्दसागरसूरि (संस्कृतछाया) 215 | आनन्दसागरसूरि (संस्कृतछाया) 176 26 महाप्रत्याख्यान 27 भक्तपरिज्ञा 215 Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 567 मूल क्रमांक आगमसूत्रनाम श्लोक प्रमाण वृत्ति वृत्ति-कर्ता श्लोकप्रमाण (?) 500 28 तन्दुल वैचारिक 29 |संस्तारक 110 1560 105 30 गच्छाचार 31 | गणिविद्या 32 | देवेन्द्रस्तव 33 मरणसमाधि 34 | निशीथ 375 837 28000 500 विजयविमलगणि 155] गुणरत्न सूरि (अवचूरि) 175 विजयविमलगणि ___105| आनन्दसागरसूरि (संस्कृतछाया) 375| आनन्दसागरसूरि (संस्कृतछाया) 837 | आनन्दसागरसूरि (संस्कृतछाया) 821| जिनदासगणि (चूर्णि) सङ्घदासगणि (भाष्य) 473 | मलयगिरि+क्षेमकीर्ति सङ्घदासगणि (भाष्य) 303] मलयगिरि | सङ्घदासगणि (भाष्य) 896 - ? - (चूर्णि) 130 सिद्धसेनगणि (चूर्णि) 7500 35 बृहत्कल्प 42600 7600 36 व्यवहार 34000 6400 2225 37 | दशाश्रुतस्कन्ध 38 जीतकल्प 39 महानिशीथ 1000 4548 22000 (?) 7500 7000 40 आवश्यक 41 | ओघनियुक्ति पिण्डनियुक्ति दशवैकालिक 43 | उत्तराध्ययन 44 | नन्दी 45 अनुयोगद्वार 130 हरिभद्रसूरि | नि.१3५५ | द्रोणाचार्य नि.८3५ मलयगिरि 835| हरिभद्रसूरि ___ 2000 शांतिसूरि 700 मलयगिरि / 2000 मलधारी हेमचन्द्रसूरि 7000 16000 7732 5900 कुवासनापाशविनाशनाय, नमोऽस्तु तस्मै तव (जिन) शासनाय / // जैनं जयति शासनम् // Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 568 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन (वर्तमान काले 45 आगम में उपलब्ध नियुक्तिः) क्रमांक नियुक्ति . श्लोक प्रमाण नियुक्ति श्लोक प्रमाण आचारांग 2500 | 1355 | 450 | आवश्यक 265 | ओघनियुक्ति पिण्डनियुक्ति दशवैकालिक 835 सूत्रकृतांग बृहत्कल्पसूत्र | व्यवहारसूत्र दशाश्रुतस्कन्ध | 500 6| 180 | उत्तराध्ययन 700 वर्तमान काले 45 आगम में उपलब्ध भाष्य श्लोक प्रमाण क्रमांक भाष्य गाथाप्रमाण क्रमांक भाष्य | निशीथ 483 बृहत्कल्प 322 व्यवहार 75006 / आवश्यक 7600 ओघनियुक्ति 6400 / 8 / पिण्डनियुक्ति 3185 दशवैकालिक 3125 10 उत्तराध्ययन 46 63 | पञ्चकल्प जीतकल्प श्लोक प्रमाण 2225 ( वर्तमान काले 45 आगम में उपलब्ध चूर्णि: ) क्रमांक चूर्णि श्लोक प्रमाण क्रमांक चूर्णि | 1 |आचारांग | 8300| 9 | दशाश्रुतस्कन्ध सूत्रकृतांग 9900 10 पञ्चकल्प भगवती 3114 11 जीतकल्प जीवाभिगम 1500 12 आवश्यक जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति 1879 | 13 | दशवैकालिक निशीथ 28000 / 14 / उत्तराध्ययन बृहत्कल्प 16000 नन्दीसूत्र | व्यवहार 1200 | 16 अनुयोगद्वार 3275 1000 18500 7000 5850 1500 2265 Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आचाराङ्ग सूत्रम् श्री राजेन्द्र सुबोधनी “आहोरी हिन्दी टीका द्वितीय वाचना:- उडीसा, श्रमण भगवान् महावीर निर्वाण के 300 वर्ष पश्चात् तृतीय वाचना :- मथुरा, श्रमण भगवान् महावीर निर्वाण के 827 वर्ष पश्चात् प्रथम वाचना :- पाटलीपुत्र, श्रमण भगवान् महावीर निर्वाण के 160 वर्ष पश्चात् चतुर्थ वाचना :- वल्लभीपुर में पंचम वाचना:- वल्लभीपुर में भगवान तृतीय वाचना के समकालीन महावीर के निर्वाण के 980 वर्ष बाद -: प्रकाशक :श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिन्दी टीका, श्रीभूपेन्द्रसूरि साहित्य समिति मंत्री शान्तिलाल वक्तावरमलजी मुथा मु. पो. आहोर, वाया जवाईबाँध, जालोर (राज.)