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________________ 188 2-1-2-2-1 (406) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन %3 आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 1 . अध्ययन - 2 उद्देशक - 2 // शय्यैषणा / प्रथम उद्देशक कहा, अब द्वितीय उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं... इसका परस्पर संबंध इस प्रकार है कि- यहां पहले उद्देशक में गृहस्थों के निवासवाले उपाश्रय में रहने से होनेवाले दोष कहे हैं, अब यहां दुसरे उद्देशक में भी तथाविध वसति के संभवित दोष विशेष प्रकार से कहतें हैं... I सूत्र // 1 // // 406 // गाहावई नामेगे सुइसमायारा भवंति, से भिक्खू य असिणाणए मोयसमायारे ते तग्गंधे दुग्गंधे पडिकूले पडिलोमे यावि भवड, जं पुव्वं कम्मं तं पच्छाकम्म, जं पच्छाकम्म तं पुरेकम्म, तं भिक्खुपडियाए वट्टमाणा करिज्जा वा, नो करिज्जा वा, अह भिक्खूणं पुव्वो० जं तहप्पगारे उव० नो ठाणं० // 406 // II संस्कृत-छाया : ___ गृहपतयः नाम एके शुचिसमाचाराः भवन्तिः सः भिक्षुः च अस्नानतया कायिकसमाचारः, सः तद्गन्धः प्रतिकूल: प्रतिलोमः च अपि भवति / यत् पूर्वं कर्म तत् पश्चात् कर्म, यत् पधात् कर्म तत् पुरःकर्म, तत् भिक्षुप्रतिज्ञया वत्तमानाः कुर्यात् वा, न कुर्यात् वा। अथ भिक्षूनां पूर्वोप० यत् तथाप्रकारे उपा० न स्थानं // 406 // III सूत्रार्थ : - कई एक गृहस्थ शुचि धर्म वाले होते हैं, और साधु स्नानादि नहीं करते और विशेष कारण उपस्थित होने पर मोक का आचरण भी कर लेते हैं। अतः उनके वस्त्रों से आने वाली दुर्गन्ध गृहस्थ के लिए प्रतिकूल होती है। इस लिए वह गृहस्थ जो कार्य पहले करना है उसे पीछे करता है और जो कार्य पीछे करना है उसे पहले करने लगते हैं और भिक्षु के कारण भोजनादि क्रियाएं समय पर करें, या न करें। इसी प्रकार भिक्षु भी प्रत्युपेक्षणादि क्रियाएं समय पर नहीं कर सकेगा, अथवा सर्वथा ही नहीं करेगा। इसलिए तीर्थंकरादि ने भिक्षुओं को पहले ही यह उपदेश दिया है कि वे इस प्रकार के उपाश्रय में न ठहरें।
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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