________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-2-1 (406) 189 IV टीका-अनुवाद : कितनेक गृहस्थ शुचि-पवित्रता के आचरणवाले होतें हैं कि- जो भागवतादि के भक्त हैं, अथवा चंदन अगुरु कुंकुम कपूरादि के आसेवन करनेवाले भोगी होतें हैं... अब स्नान नहि. करनेवाले और प्रसंगानुसार कायिक के समाचरण से साधु के देह से वैसी गंध दुर्गंध देखकर उन गृहस्थों को वह साधु अनुकूल (मान्य) नहि लगता, एवं उनके देह की गंध से विपरीत गंधवाले साधु उनको प्रतिलोम लगता है... इस स्थिति में वे गृहस्थ साधु के निमित्त से वहां गोचरी एवं स्वाध्याय भूमि में स्नानादि करे... यदि पहले स्नान कीया हो तो साधु के समीप जाने के कारण से पुनः स्नानादि करतें हैं... अथवा बाद में करने योग्य कार्य पहले करतें हैं.. इस प्रकार जाने-आने की क्रिया से साधुओं को अधिकरण (दोष) की संभावना होती है... अथवा तो वे गृहस्थ साधुओं के कारण से भोजन का काल हो जाने पर भी भोजन न करें... इस स्थिति में अंतराय या मनःदुःख आदि की संभावना है, अथवा वे साधुजन गृहस्थों के कारण से जो प्रतिलेखनादि पहले करने योग्य कार्य को बाद में करे, अथवा इससे विपरीत काल बित जाने पर करे, अथवा न करे... इस लिये साधुओं को पूर्व कही गइ यह प्रतिज्ञा है कि- तथाप्रकार के उपाश्रय में स्थान शय्या निषधादि न करे... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में गृहस्थ एवं साधु जीवन के रहन-सहन का अन्तर बताते हुए कहा है कि कुछ गृहस्थ शुद्धि वाले होते हैं। वे स्नान आदि से अपने शरीर को शुद्ध बनाने में ही व्यस्त रहते हैं। और साधु सदा आत्मशुद्धि में संलग्न रहता है। वह ज्ञान रूपी सागर की अनन्त गहराई में डुबकिएं लगाता रहता है। वह गृहस्थों की तरह स्नान आदि नहीं करता और यदि कभी उसके शरीर पर घाव आदि हो जाता है तो वह औषध के रूप में अपने मत्र का प्रयोग करके उस घाव को ठीक कर लेता है। इस तरह उसका आचरण गृहस्थ से भिन्न होता है। इसलिए अधिक शौच का ध्यान रखने वाला गृहस्थ मुनि के जीवन को देखकर उससे घृणा कर सकता है। और इस कारण वह गृहस्थ साधु के कारण अपनी क्रियाओं को आगे-पीछे कर सकता है और साधु भी गृहस्थों के संकोच से अपनी आवश्यक क्रियाओं को यथासमय करने में असमर्थ हो जाता है। इस तरह गृहस्थ के कारण साधु की साधना में अन्तराय पड़ती है और साधु के कारण गृहस्थ के दैनिक कार्यो में विघ्न होता है, इससे दोनों के मन में चिन्ता एवं एक-दूसरे के प्रति कुछ बुरे भाव भी आ सकते है। अतः मुनि को गृहस्थ के साथ नहीं ठहरना चाहिए। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'मोय समायारे' का पाठ भी विचारणीय है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ कायिक मूत्र माना है। परन्तु, वृत्तिकार ने उसके आचरण करने के विशिष्ट कारण का