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________________ 302 2-1-3-3-5 (465) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन है। ऐसे विचारों को साधु मन में भी न लाए और न वचन से उन्हें अभिव्यक्त करे। किन्तु राग-द्वेष से रहित हो कर समभाव से समाधि में रहकर ग्रामानुयाम विचरे। यही मुनि का 'यथार्थ साधुत्व-साधु भाव है। इस प्रकार मैं कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : वह साधु जब एक गांव से दूसरे गांव में जा रहे हो तब मार्ग में यदि कोइ चौर वस्त्रादि उपकरण मांगे, तब वे वस्त्रादि उन्हें न दें... यदि वे बल से लुटने की कोशीश करे तब साधु व वस्त्रादि भूमी के उपर फेंक दें... किंतु इस परिस्थिति में लुटे हुए उपकरणों की याचना दीन भाव से न करें, किंतु गच्छगत याने स्थविर कल्पवाला साधु चौरों को धर्मकथा कहने के द्वारा वस्त्रादि की याचना करें, या मौन रहकर हि उपेक्षा करें... तथा वे चौर यह अपना कर्तव्य है ऐसा मानकर इस प्रकार करे... जैसे कि- वाणी से आक्रोश करे... तथा दंड याने लकडी से ताडन (मार मारें) करें या इस जीवन का अंत करे याने मार डाले, अथवा वस्त्रादि लुट लेवें... इतने में साधु वहिं वस्त्रादि का त्याग करें... तथा उन लेंटेरों की वह लुटने की चेष्टा (बात) गांव में किसी को न कहें... तथा राजकुलादि में भी न कहें, तथा अन्य गृहस्थ के पास जाकर भी वह साधु चौरों की चेष्टा न कहें, एवं इस प्रकार का मन एवं वाणी का संकल्प भी न करें... किंतु अन्य क्षेत्र की और विहार करें... क्योंकि- ऐसा आचरण करने में हि उस साधु का साधुपना है... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में भी अनंतरोक्त सूत्र की तरह साधु की निर्भयता एवं सहिष्णुता पर प्रकाश डाला गया है। इसमें बताया गया है कि विहार करते समय यदि रास्ते में कोई चोर मिल जाए और वह मुनि से कहे कि तू अपने उपकरण हमें दे दे या जमीन पर रख दे। तो मुनि शम भाव से अपने वस्त्र पात्र आदि जमीन पर रख दे। परन्तु, उन्हें वापिस प्राप्त करने के लिए उन चोरों से याचना न करे, न उनके सामने दीन वचन ही बोले / यदि बोलना उचित समझे तो उन्हें धर्म का मार्ग दिखाकर उन्हें पापकर्मो से बचाए, अन्यथा मौन रहे। इसके अतिरिक्त यदि कोई चोर साधु से वस्त्र आदि ग्रहण करने के लिए उसे मारे-पीटे या उसका वध करने का प्रयत्न भी करे या उसके सभी उपकरण भी छीन ले या उन्हें तोड़-फोड़ कर दूर फैंक दे, तब भी मुनि उस पर राग-द्वेष न करता हुआ समभाव से गांव में आ जाए। गांव में आकर भी वह यह बात किसी भी गृहस्थ, अधिकारी या राजा आदि से न कहे। और न इस सम्बन्ध में किसी तरह का मानसिक चिन्तन ही करे। वह मुनि मन, वचन और काया से उस से (चोर से) किसी भी तरह का प्रतिशोध लेने का प्रयत्न न करे। इस सूत्र में साधुता के महान् उज्जवल रूप को चित्रित किया गया है। अपना अपकार
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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