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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-3-3-5 (465) 301 नो दिज्जा निविखविज्जा, नो वंदिय जाइज्जा, नो अंजलिं कट्ट जाइज्जा, नो कलुणपडियाए जाइज्जा, धम्मियाए जायणाए जाइज्जा, तुसिणीयभावेण वा ते णं आमोसगा सयं करणिज्जं ति कट्ट अक्कोसंति वा जाव उद्दविंति वा वत्थं वा अच्छिंदिज्ज वा जाव परिढविज्ज वा, तं नो गामसंसारियं कुज्जा, नो रायसंसारियं कुज्जा, नो परं उवसंकमित्तु बूया-आउसंतो ! गाहावई ! एए खलु आमोसगा उवगरण पडियाए सयं करणिज्जं ति कट्ठ अक्कोसंति वा जाव परिद्ववंति वा, एयप्पगारं मणं वा वायं वा नो पुरओ कट्ट विहरिज्जा, अप्पुस्सुए जाव समाहीए, तओ संजयामेव गामा० दूइ०। एयं खलु० सया जइ० तिबेमि // 45 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा ग्रामानुग्रामं गच्छन् अन्तरा तस्य आमोषका: संपिण्डिताः गच्छेयुः, ते एवं वदेयुः- हे आयुष्मन् श्रमण ! आहर एतत् वस्त्रं वा देहि, निक्षिप, तं न दद्यात्, निक्षिपेत्, न वन्दि त्वा (दीनं वा), याचेत, न अञ्जलीं कृत्वा याचेत, न करुण प्रतिज्ञया याचेत, धार्मिकया याचनया याचेत तूष्णीकभावेन वा ते आमोषकाः स्वयं करणीयं इति कृत्वा आक्रोशन्ति वा यावत् उपद्रवयन्ति, वा, वसं वा, आच्छिन्द्युः यावत् प्रतिष्ठापयेयुः वा, तं न ग्राम संसारणीयं कुर्यात्, न राजसंसारणीयं कुर्यात्, न परं उपसङ्क्रम्य ब्रूयात्हे आयुष्मन् ! गृहपते ! एते खलु आमोषका: उपकरणप्रतिज्ञया स्वकरणीयं इति कृत्वा आक्रोशन्ति वा यावत् अपद्रावयन्ति, वा, वसं वा, आच्छिन्द्यात् वा यावत् परिष्ठापयेत् वा, एतत् प्रकारं मन: वा वाचं वा न पुरतः कृत्वा विहरेत्, अल्पोत्सुकः यावत् समाधिना, ततः संयतः एव ग्रामानुग्रामं गच्छेत् / एतत् खलु० सदा यतेत इति ब्रवीमि // 465 // III सूत्रार्थ : संयमशील साधु अथवा साध्वी को यामानुयाम विहार करते हुए यदि मार्ग में बहुत से चोर मिलें और वे कहें कि- आयुष्मन् श्रमण ! यह वस्त्र, पात्र और कंबल आदि हमको दे दो या यहां पर रख दो। तो साधु वे वस्त्र, पात्रादि उनको न देवे, किन्तु भूमि पर रख दे, परन्तु उन्हें वापिस प्राप्त करने के लिए मुनि उनकी स्तुति करके, हाथ जोड़ कर या दीन वचन कह कर उन वस्त्रादि की याचना न करे अर्थात् उन्हें वापिस देने को न कहे। तथा यदि मांगना हो तो उन्हें धर्म का मार्ग समझाकर मांगे अथवा मौन रहे। वे चोर अपने चोर के कर्तव्य को जानकर साधु को मारे-पीटें या उसका वध करने का प्रयत्न करें और उसके वस्त्रादि को छीन लें, फाड़ डालें या फैंक दें तो भी वह भिक्षु ग्राम में जाकर लोगों से न कहे और न राजा से ही कहे एवं किसी अन्य गृहस्थ के पास जाकर भी यह न कहे कि आयुष्मन् गृहस्थ ! इन चोरों ने मेरे उपकरणादि को छीनने के लिए मझे मारा है और उपकरणादि को दूर फेंक दिया
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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