________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-3-3-5 (465) 303 करने वाले व्यक्ति का कभी बुरा नहीं चाहना एवं उसे कष्ट में डालने का प्रयत्न नहीं करना, यह आत्मा की महानता को प्रकट करता है। यह आत्मा के विकास की उत्कृष्ट श्रेणी है जहां पर पहुंच कर मानव अपने वधक-शत्रु के प्रति भी द्वेष भाव नहीं रखता। वह मुनि मारने एवं सेवा करने वाले दोनों पर समभाव रखता है, दोनों को मित्र समझता है और दोनों का हित चाहता है। यही साधुचर्या आत्मा से परमात्मा पद को प्राप्त करने की या साधक से सिद्ध बनने की श्रेणी है। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें। // प्रथमचूलिकायां तृतीय-ईर्याध्ययने तृतीयः उद्देशकः समाप्तः // || समाप्तं तृतीयमध्ययनम् // 卐卐卐 : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य थधुंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन . श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट -परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. "श्रमण' के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः" वीर निर्वाण सं. 2528. // राजेन्द्र सं. ९६.卐 विक्रम सं. 2058.