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________________ 304 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 1 .. ____ अध्ययन - 4 उद्देशक - 1 卐 भाषा-जातम् // तीसरा अध्ययन कहा, अब चौथे अध्ययन का प्रारंभ करतें हैं... यहां परस्पर यह संबंध है कि- पिंड की विशुद्धि के लिये गमन (जाने की) विधि कही अब वहां मार्ग में चलते चलते कौन सी बाते बोलना और कोन सी बातें न बोलना इत्यादि कहेंगे... अतः इस प्रकार के संबंध से आये हुए इस चौथे अध्ययन का चार अनुयोग द्वार होतें हैं... उनमें निक्षेप नियुक्ति-अनुगम में भाषा-जात शब्दों का निक्षेपार्थ स्वयं नियुक्तिकार हि कहतें हैं... नि. 316 जिस प्रकार वाक्यशुद्धि अध्ययन में वाक्य के निक्षेप कीये है, उसी प्रकार भाषा के भी निक्षेप करने चाहिये... “जात" शब्द का छह निक्षेप इस प्रकार होतें है... 1. नाम जात, 2. स्थापना जात, 3. द्रव्य जात, 4. क्षेत्र जात, 5. काल जात, 6. भाव जात... उनमें नाम एवं स्थापना सुगम है... तथा द्रव्य जात के दो भेद हैं... 1. आगम से द्रव्य जात 2. नो आगम से द्रव्य जात... उनमें तद्व्यतिरिक्त नो आगम से द्रव्य जात के चार भेद होतें है 1. उत्पत्ति द्रव्य जात, 2. पर्यवजात, 3. अंतर जात, 4. ग्रहण जात... उनमें उत्पत्ति जात याने जो द्रव्य भाषा-वर्गणा के है, उन्हें काययोग के द्वारा ग्रहण करके वाणी-भाषा स्वरुप परिणाम उत्पन्न होना... अर्थात् जो द्रव्य भाषा स्वरुप उत्पन्न हुए वह उत्पत्ति-जात-द्रव्य नो आगम से... तथा (2) पर्यवजात याने वाणी-भाषा स्वरुप उत्पन्न हुए भाषा-द्रव्य से विश्रेणि में जो भाषा-वर्गणा के पुद्गल हैं, वे, उत्पन्न हुए भाषा-द्रव्य के पराघातसे भाषा-पर्यायत्व रुप उत्पन्न होते है... तथा (3) अंतरजात याने अंतराल मार्ग में हि समश्रेणि में रहे हुए भाषा-वर्गणा के पुद्गल उत्पन्न हुए भाषा द्रव्य से मिश्रित होकर भाषा-परिणाम को पातें हैं वे अंतरजात... तथा (4) ग्रहण जात याने समश्रेणि या विश्रेणिमें जो कोइ भाषा-वर्गणा के पुद्गल हैं, वे भाषा-परिणाम पाकर कर्ण-कान के छिद्र में प्रवेश करते हैं और पंचेंद्रिय जीव उन्हें ग्रहण करतें हैं वे यहणजात... इस प्रकार द्रव्य जात कहा, अब क्षेत्रादि जात का प्रसंग है, किंतु सुगम होने के कारण से नियुक्तिकार ने उनकी व्याख्या नहि की है... किंतु टीकाकार संक्षेप में उनका स्वरुप कहतें हैं... क्षेत्रजात याने जिस क्षेत्र में भाषा-जात का वर्णन कीया जाय वह क्षेत्र या जितने प्रमाण क्षेत्र में भाषा-जात फैल कर रहे या स्पर्श करके रहे वह क्षेत्र जात... इसी प्रकार काल-जात जानीयेगा... तथा भावजात याने उत्पत्ति-पर्यव-अंतर एवं ग्रहण जात द्रव्य जब श्रोता (सुननेवाले)
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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