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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-4-1-1 (466) 305 के कर्ण याने कान में प्रवेश करके “यह शब्द है" ऐसी जो बुद्धि याने समझ (ज्ञान) उत्पन्न हो वह भाव जात... किंतु यहां इन छह में से द्रव्यभाषा-जात का अधिकार है... यहां द्रव्य की प्रधान विवक्षा के द्वारा हि भाव की सिद्धि होती है... क्योंकि- द्रव्य की विशिष्ट अवस्था हि भाव है... अतः भाव-भाषा-जात का भी यहां अधिकार है... अब उद्देशार्थाधिकार के लिये कहतें हैं इस चौथे अध्ययन के दो उद्देशक हैं... यद्यपि दो उद्देशकों में वचन-भाषा को विशुद्धि करनेवाले हैं... तो भी परस्पर इतना विशेष है कि- पहले उद्देशक में वचन की विभक्ति याने एकवचन आदि सोलह प्रकार के वचन विभाग है, उनमें कैसे वचन बोलने चाहिये और कैसे वचन न बोलें इत्यादि वर्णन कीया जाएगा... तथा दुसरे उद्देशक में कहेंगे कि- जिस वचन से क्रोध आदि की उत्पत्ति न हो ऐसे वचन (भाषा) बोलने चाहिये.... अब सूत्रानुगम में अस्खलित आदि गुण सहित सूत्र का उच्चार करना चाहिये और प्रथम उद्देशक का यह प्रथम सूत्र है... / सूत्र // 1 // // 466 || से भिक्खू वा, इमाई वयायाराई सुच्चा निसम्म इमाइं अणायाराई अणारियपुव्वाइं जाणिज्जा- जे कोहा वा वायं विउंजंति, जे माणा वा० जे मायाए वाo जे लोभा वा वायं विउंजंति, जाणओ वा फरुसं वयंति, अजाणओ वा फ० सव्वं चेयं सावज्जं वज्जिज्जा विवेगमायाए, धुवं चेयं जाणिज्जा, अधुवं चेयं जाणिज्जा, असणं वा लभिय नो लभिय, भुंजिय नो भुंजिय, अदुवा आगओ अदुवा नो आगओ, अदुवा एइ अदुवा नो एइ, अदुवा एहिड़ अदुवा नो एहिड़, इत्थ वि आगए इत्थ वि नो आगए, इत्थ वि एइ, इत्थ वि नो एति, इत्थ वि एहिति इत्थ वि नो एहिति। अणुवीड़ निट्ठाभासी समियाए संजए भासं भासिज्जा, तं जहा- एगवयणं 1. दुवयणं, 2. 3. बहुवयणं, 4. इत्थिवयणं, 5. पुरिसवयणं, 6. नपुंसगवयणं, 7. अज्झत्थवयणं, 8. उवणीयवयणं, 9. अवणीयवयणं, 10. उवणीय-अवणीयवयणं, 11. अवणीय-उवणीयवयणं, 12. तीयवयणं, 13. पडुप्पण्णवयणं, 14. अणागयवयणं, 15. पच्चक्खवयणं, 16. परुक्खवयणं... से एवगयणं वइस्सामीति एगवयणं वइज्जा जाव परुक्खवयणं वइस्सामीति परुक्खवयणं वइज्जा, इत्थी वेस, पुरिसो वेस, नपुंसगं वेस, एयं वा चेयं अण्णं वा चेयं अणुवीड़ निट्ठाभासी समियाए संजए भासं भासिज्जा, इच्चेयाई आययणाइं उवातिकम्म, इह भिक्खू जाणिज्जा चत्तारि भासज्जायाई, तं जहा-१. सच्चमेगं पढमं भासज्जायं... 2. बीयं मोसं, 3. तईयं सच्चामोसं... 4. जं नेव सच्चं नेव मोसं नेव
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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