SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 577
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 538 2-4-2 (542) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन %3 एवं परिवर्तन शील है। परन्तु इसके साथ यह भी स्पष्ट है कि परिभ्रमण के कारण जीव के आत्म प्रदेशों में किसी तरह का अन्तर नहीं आता है। परंतु शरीर आदि की पर्याय एवं ज्ञानदर्शन की पर्याय परिवर्तित होती है, अतः इन परिवर्तनों के कारण आत्म द्रव्य स्वरूप से नहीं बदलता, अर्थात् जीव के असंख्यात प्रदेशों में किसी भी तरह की न्यूनाधिकता नहीं आती है। इस तरह संसार की अनित्यता के स्वरुप को सुन कर और उस पर गहराई से चिन्तन मनन करके विद्वान् एवं निर्भय मनुष्य संसार से ऊपर उठने का प्रयत्न करता है। फिर वह पारिवारिक स्नेह बन्धन में बंधा नहीं रहता है। वह मृत्यु के समय जबरदस्ती टूटने वाले स्नेह बन्धन को मरण के पहले हि स्वेच्छा से तोड़ देता है। वह अनासक्त भाव से पारिवारिक ममता का एवं सावध कर्मो का तथा समस्त परिग्रह का त्याग करके साधना के मार्ग पर कदम रख देता है। इस गाथा में आत्मा की द्रव्य रुप से नित्यता एवं योनि आदि पर्यायों या संसार की अनित्यता, अस्थिरता एवं परिवर्तनशीलता को स्पष्ट रुप से दिखाया गया है। और साथ में यह भी स्पष्ट कर दिया गया है। कि विद्वान एवं निर्भय मनुष्य ही इसके यथार्थ स्वरुप को समझकर सांसारिक संबंधों एवं साधनों का परित्याग कर सकता है। अब पर्वत अधिकार का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे के सूत्र से कहते है सूत्र // 2 // // 542 // तहागयं भिक्खुमणंतसंजयं अणेलिसं विण्णु चरंतमेसणं। तुदंति वायादि अभिद्दवं नरा सरेहिं संगामग यं व कुंजरं // 542 // संस्कृत-छाया : तथागतं भिक्षुमनन्तसंयतं अनीदृशं विज्ञं चरन्तमेषणाम् / तुदन्ति वाग्भिः अभिद्रवन्ति नराः शरैः सङ्ग्रामगतं इव कुञ्जरम् // 542 / / सूत्रार्थ : अनित्यादि भावनाओं से भावित, अनन्त जीवों की रक्षा करने वाले अनुपमसंयमी और III
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy