________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-4-1 (541) 537 ___ व्युत्सृजेत् विज्ञ: अगारबन्धनं, __ अभीरुः आरम्भपीरग्रहं त्यजेत् // 541 // III सूत्रार्थ : सर्व श्रेष्ठ जिन प्रवचन में यह कहा गया है कि आत्मा, मनुष्य आदि जिन योनियों में जन्म लेते है, वे स्थान अनित्य है। ऐसा सुनकर एवं उस पर हार्दिक चिन्तन करके समस्त भयों से निर्भय बना हुआ विद्वान पारिवारिक स्नेह बन्धन का, समस्त सावध कर्म एवं परिग्रह का त्याग कर दे। IV टीका-अनुवाद : जीव जहां रहता है वह आवास... आवास याने मनुष्यादि जन्म अथवा शरीर... अब यह मनुष्यादि जन्म या शरीर अनित्य ही है... क्योंकि- मनुष्य आदि चारों गतिओं में जीव कर्मानुसार जहां कहीं उत्पन्न होता है वहां उसकी स्थिति अनित्य ही होती है कारण किआयुष्य की सीमा निश्चित ही है... यह बात जिनेश्वरों के सिद्धांत-जिनागम सूत्रों में जिस प्रकार कही गई है, उस प्रकार गंभीरता से देखें... कि- जीवन अनित्य किस प्रकार से है... इत्यादि... अतः जिनागम को सुनकर प्राज्ञ पुरुष पुत्र-स्त्री परिवार धन-धान्यादि स्वरूप गृहस्थावास का त्याग करे... और इहलोक परलोकादि सातों प्रकार के भयों से मुक्त होकर तथा बाइस परिसह एवं देवादि से होने वाले उपसर्गों से घबराये बिना संयम मार्ग में स्थिर होकर आरंभ याने पापाचरण तथा बाह्य एवं अभ्यंतर परिग्रह का त्याग करें... यह अनित्य-अधिकार हुआ... - अब आगे के सूत्र से पर्यंत-अधिकार का स्वरूप कहेंगे..... सूत्रसार: प्रस्तुत गाथा में अनित्यता के स्वरुप का वर्णन किया गया है। भगवान ने अपने प्रवचन में यह स्पष्ट कर दिया है कि संसार में जीवों के उत्पन्न होने की जितनी भी योनिया हैं, वे अनित्य हैं। क्योंकि अपने कृत कर्म के अनुसार जीव उन योनियों में जन्म ग्रहण करता है और अपने उस भव के आयु कर्म के समाप्त होते ही उस योनि के प्राप्त शरीर को छोड़ देता है। इस तरह समस्त योनिया कर्म जन्य हैं, इस कारण वे अनित्य हैं। जब तक जीव संसार में परिभ्रमण करता रहता है, तब तक वह अपने कृत कर्म के अनुसार एक योनि से दूसरी योनि में परिभ्रमण करता रहता है। इससे योनि की अनित्यता स्पष्ट हो जाती है। परन्तु इससे जीव के अस्तित्व का नाश नहीं होता इसलिए जीव का सर्वथा अभाव नहीं कहा जा सकता। यह ठीक है कि संसार अनित्य है, संसार में स्थित जीव एक योनि से दूसरी योनि में भटकता रहता है। इससे हम निसंदेह कह सकते हैं कि संसार असत् नहीं, किन्तु अनित्य