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________________ 236 2-1-2-3-17 (437) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन III सूत्रार्थ : चतुर्थी प्रतिमा में यह अभिग्रह होता है कि- उपाश्रय में संस्तारक पहले से ही बिछा हुआ हो, या पत्थर की शिला या काष्ठ का तख्त बिछा हुआ हो तो वह उस पर शयन कर सकता है। यदि वहां कोई भी संस्तारक बिछा हुआ न मिले तो पूर्व कथित आसनों के द्वारा रात्रि व्यतीत करे यह चौथी प्रतिमा है। IV टीका-अनुवाद : यह भी सुगम हि है, किंतु इस चौथी प्रतिमा में यह विशेष है कि- यदि शिला आदि संस्तारक यथासंस्तृत हि शयन योग्य प्राप्त हो तो ग्रहण करके शयन करे, अन्यथा याने यदि ऐसा संस्तारक प्राप्त न हो तो शयन न करें... सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में चतुर्थी प्रतिमा के सम्बन्ध में यह बताया गया है कि- उक्त प्रतिमा को स्वीकार करने वाला मुनि जिस उपाश्रय में ठहरे उस उपाश्रय में प्रासुक एवं निर्दोष तृण आदि पहले से बिछे हुए हों या पत्थर की शिला या लड़की का तख्त बिछा हुआ हो तो वह उस पर शयन कर सकता है, अन्यथा तृतीय प्रतिमा में उल्लिखित आसनों के द्वारा रात्रि को आध्यात्मिक चिन्तन करते हुए व्यतीत करता है, परन्तु स्वयं संस्तारक बिछाकर शयन नहीं कर सकता है। इससे स्पष्ट होता है कि- अन्तिम की दोनों प्रतिमाएं ध्यान एवं स्वाध्याय आदि की दृष्टि से रखी गई है। वृत्तिकार का भी यही मन्तव्य है। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'कट्ठसिलं' पद का तात्पर्य काष्ठ के तख्त से ही है। संस्तारक सम्बन्धी प्रतिमाओं के विषय का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं सूत्र // 17 // // 437 / / इच्चेइयाणं चउण्हं पडिमाणं अण्णयरं पडिमं पडिवज्जमाणे तं चेव जाव अण्णोऽण्णसमाहीए, एवं च णं विहरंति // 437 / / II संस्कृत-छाया : इति एतासां चतसृणां प्रतिमानां अन्यतरां प्रतिमा प्रतिपद्यमानः तं च एव यावत् अन्योऽन्य-समाधिना, एवं च विहरन्ति // 437 //
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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