________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी-टीका 2-1-2-3-18 (438) 237 - D III सूत्रार्थ : इन चार प्रतिमाओं में से किसी एक प्रतिमा को धारण करके विचरने वाला साधु, अन्य प्रतिमाधारी साधुओं की अवहेलना निन्दा न करे। किन्तु, सब साधु जिनेन्द्र देव की आज्ञा में विचरते हैं ऐसा समझ कर परस्पर समाधिपूर्वक विचरण करे। IV टीका-अनुवाद : ____ इन चार प्रतिमाओं में से अन्यतर कोइ भी एक प्रतिमा का अभिग्रह करनेवाला साधु, अन्य प्रतिमा का अभिग्रह करनेवाले साधु की अवगणना-निंदा न करें, क्योंकि- वे सभी साधुजन जिनाज्ञा का आश्रय लेकर हि समाधि से रहतें हैं... अब प्रातिहारक संस्तारक प्रत्यर्पण की विधि कहतें हैं... V सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- भगवान की आज्ञा के अनुरूप आचरण करनेवाले सभी साधु समाधियुक्त एवं मोक्ष मार्ग के आराधक होने से वन्दनीय एवं पूजनीय हैं। अतः उक्त चारों प्रतिमाओं में से किसी एक प्रतिमा को धारण करनेवाले मुनि को अन्य प्रतिमा धारण करनेवाले मुनियों को अपने से तुच्छ समझकर गर्व नहीं करना चाहिए। क्योंकि- चारित्र-संयम चारित्रावरणीय कर्म के क्षयोपशम के अनुरूप ही ग्रहण किया जाता है। अतः प्रत्येक चारित्रनिष्ठ मुनि का सम्मान करना चाहिए और अपने अहंकार का त्याग करके सबके साथ प्रेम-स्नेह रखना चाहिए। इसे और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... सूत्र // 18 // // 438 // से भिक्खू वा० अभिकंखिज्जा संथारगं पच्चप्पिणित्तए, से जं पुण संथारगं जाणिज्जा, सअंडं जाव ससंताणयं, तहप्प० संथारगं नो पच्चप्पिणिज्जा || 438 // - II संस्कृत-छाया : स: भिक्षः वा अभिकाक्षेत संस्तारकं प्रत्यर्पयितुं, सः यत् पुनः संस्तारकं जानीयात् स-अण्डं यावत् ससन्तानकं, तथाप्रकारं संस्तारकं न प्रत्यर्पयेत् // 438 / / III सूत्रार्थ : साधु या साध्वी यदि प्रतिहारिक संस्तारक, गृहस्थ को वापिस देना चाहे तो वह