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________________ 238 2-1-2-3-19 (439) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन संस्तारक अण्डों यावत् मकडी के जाले आदि से युक्त नहीं होना चाहिए। यदि वह इन से युक्त है तो वह उसे गृहस्थ को वापिस न करे। IV टीका-अनुवाद : वह साधु यदि प्रातिहारिक संस्तारक का प्रत्यर्पण करना चाहे, तब यह देखे किवह संस्तारक गृहकोकिल याने गिरोली के अंडेवाला तो नहि है न ? हां ! यदि ऐसा हो तब वह पडिलेहण के योग्य न होने से उसका प्रत्यर्पण नहि करना चाहिये... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु को अपनी निश्रा में स्थित प्रत्येक वस्तु की प्रतिलेखना करते रहना चाहिए। चाहे वह वस्तु गृहस्थ को वापिस लौटाने की भी क्यों न हो, फिर भी जब तक साधु के पास है, तब तक प्रतिदिन नियत समय पर उसका प्रतिलेखन करना चाहिए। जिससे उस में जीव-जन्तु की उत्पत्ति न हो। और उसे वापिस लौटाते समय भी प्रतिलेखन करके लौटानी चाहिए। यदि कभी संस्तारक पर किसी पक्षी ने अंडे दे दिए हों या मकड़ी ने जाले बना लिए हों तो वह संस्तारक गृहस्थ को वापिस नहीं देना चाहिए। क्योंकि, गृहस्थ उसे शुद्ध बनाने का प्रयत्न करेगा और परिणामस्वरूप उन जीवों की घात हो जाएगी। इस तरह साधु के प्रथम महाव्रत में दोष लगेगा, अतः उन जीवों की रक्षा के लिए ऐसे संस्तारक को वापिस नहीं लौटाना चाहिए। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 19 // // 439 // से भिक्खू० अभिकंखिज्जा संथारगं० से जं० अप्पंडं० तहप्पगारं० संथारगं पडिलेहिय पमज्जिय आयाविय विहुणिय तओ संजयामेव पच्चप्पिणिज्जा // 429 // II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः० अभिकाक्षेत संस्तारकं० सः यत् अल्पाण्डं वा० तथाप्रकारं० संस्तारकं प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्य आतापयित्वा विधूय तत: संयतः एव प्रत्यर्पयेत् // 439 // III सूत्रार्थ : अण्डे एवं मकड़ी के जाले आदि से रहित जिस संस्तारक को साधु-साध्वी वापिस लौटाना चाहे, तो वह उसका प्रतिलेखन करके, रजोहरण से प्रमार्जित करके, सूर्य की धूप
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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