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________________ 2-1-1-6-2 (366) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा यावत् न गृहपतिकुलस्य वा द्वारघाखां अवलम्ब्य अवलम्ब्य तिष्ठेत्, न गृह उदक प्रतिष्ठापनमात्रके तिष्ठेत्, न गृह आचमनोदकप्रवाहभूमौ तिष्ठेत्, न गृह स्नानस्य वा वर्चसः वा संलोके सप्रतिद्वारे तिष्ठेत्, न आलोकं वा थिग्गलं वा सन्धिं वा उदकभवनं वा भुजां प्रगृह्य प्रगृह्य अङ्गुल्य वा उद्दिश्य उद्दिश्य वा, उन्नम्य उन्नम्य वा अवनम्य अवनम्य वा निध्यापयेत्, न गृहपतिं अङ्गुल्या उद्दिश्य उद्दिश्य याचेत, न गृह अङ्गुल्या चालयित्वा चालयित्वा याचेत, न गृह, अङ्गुल्या तर्जयित्वा तर्जयित्वा याचेत, न गृह, कण्डूयनं कृत्वा याचेत, न गृहपतिं वन्दित्वा याचेत, न वचनं परुष वदेत् / / 366 | III सूत्रार्थ : भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर में गये साधु और साध्वी को गृहस्थ के घर का बारसाख का सहारा लेकर खडा नहीं रहना चाहिए। गृहस्थ के घर का पानी फेंकने के मार्ग पर अथवा आचमन के स्थान पर अथवा गृहस्थ के घर का जहां स्नानगृह या शौचस्थान हो उस मार्ग पर खड़े नहीं रहे, और गृहस्थ के घर की खिडकियों को या चोर कृत खात को एवं जलगृह को हाथ के स्पर्श से या अंगुली से संकेत करके, स्वयं नीचे झुककर या ऊंचा मुख करके मुनि अवलोकन करें और गृहस्थ के पास अंगुली से बतलाकर याचना करें। अंगुली से उसको धमकाना नहीं चाहिए। गृहस्थ की प्रशंसा करके भी याचना करें। यदि गृहस्थ देवे तब कठोर वचन भी न कहें / / 366 // IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. आहारादि के लिये गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर गृहस्थ के घर के बारसाख का आलंबन लेकर खडे न रहें... क्योंकि- यदि वह जीर्ण हो तो गिर जाय, एवं ठीक से रखा न हो तो टेढामेढा हो जाय, ऐसा होने से संयम एवं आत्मविराधना हो... तथा बरतन धोने के बाद मलीन जल को फेंकने के स्थान के मार्ग में खडा न रहें... क्योंकि- ऐसी स्थिति में जिनशासन की निंदा हो, तथा इसी प्रकार हाथ धोने के स्थान पर खडे न रहें... तथा स्नान एवं मलत्याग (संडास) के द्वार दिखे ऐसे स्थान में खड़े न रहें... यहां सारांश यह है कि- जहां खडे रहने से गृहस्थों के स्नान एवं मलत्याग की क्रिया नजर में न आवे वहां खडे रहें... अन्यथा साधु के उपर गृहस्थ को द्वेष हो... तथा गवाक्षादि आलोक या गिरे हुए थोडे भाग को पुनः संस्कारित किये हुए थिग्गल... चौर ने किया हुआ छिद्र याँ भित्ति (दीवार) के संधान... तथा जलगृह याने "पाणीयारुं" इन सभी स्थानों को बार बार हाथ (भुजा) फेलाकर तथा अंगुली से निर्देश करके, अंगुली उंची करके, अंगुली नीची करके, न
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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