________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-6-2 (366) 89 देखें... तथा अन्य को भी न दिखावें... क्योंकि- वैसा देखने से गृहस्थ की चोरी गइ एवं न मिलनेवाली वस्तु के विषय में गृहस्थ को साधु के उपर शंका हो... तथा वह साधु गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर अंगुली से गृहपति की ओर दिखाकर के, तथा अंगुली को चलाकर, या भय दिखाकर तर्जना करके अथवा गृहस्थ को वचन के द्वारा खुश करके याचना न करे... यदि गृहपति कुछ भी आहारादि न दे तब भी कठोर वचन न बोले... वह इस प्रकारतुम तो यक्ष हो, क्योंकि- दूसरों के घर को संभालते हो, अतः आपसे दान की बात कैसे हो ? आपकी बात ही अच्छी है, अनुष्ठान याने आचरण अच्छा नही है... कहा भी है कि- "नास्ति' ऐसे दो अक्षरों का उच्चारण जो लोग करतें हैं वे भविष्यकाल में “देहि" एसे अक्षरों को बोलेंगे... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- गृहस्थ के घर में प्रविष्ट मुनि को चञ्चलता एवं चपलता का त्याग करके स्थिर दृष्टि से खड़े रहना चाहिए। इसमें बताया गया है कि- मुनि को गृहस्थ के द्वार की शाखा को पकड़कर खड़ा नहीं होना चाहिए। क्योंकि- यदि वह जीर्ण है तो गिर जाएगी, इससे मुनि को भी चोट लगेगी, उसके संयम की विराधना होगी और अन्य प्राणियों की भी हिंसा होगी। यदि जीर्ण तो नहीं है, परन्तु कमजोर है तो आगे-पीछे हो जाएगी, इस तरह उसको पकड़कर खड़े होने से अनेक तरह के दोष लगने की सम्भावना है। इसी तरह मुनि को उस स्थान पर भी खड़े नहीं रहना चाहिए जहां बर्तनों को धो कर पानी गिराया जाता है तथा स्नानघर, शौचालय या पेशाबघर है। क्योंकि- ऐसे स्थानों पर खड़े रहने से प्रवचन की जुगुप्सा-घृणा होने की सम्भावना है। और स्नानघर आदि के सामने खड़े होने से गृहस्थों के मन में अनेक तरह की शंकाएं पैदा हो सकती है। इसी प्रकार झरोखां, नव निर्मित दीवारों या दीवारों की सन्धि की ओर देखने से साधु के सभ्य व्यवहार में दोष लगता है। भिक्षा ग्रहण करते समय अंगुली आदि से संकेतकर पदार्थ लेने से साधु की रस लोलुपता प्रकट होती है और तर्जना एवं प्रशंसा द्वारा भिक्षा लेने से साधु के अभिमान एवं दीन भाव का प्रदर्शन होता है। अतः साधु को भिक्षा ग्रहण करते समय किसी भी तरह की शारीरिक चेष्टाएं एवं संकेत नहीं करने चाहिएं। इसके अतिरिक्त यदि कोई गृहस्थ साधु को भिक्षा देने से इन्कार करे, तब साध उस पर क्रोध करें और न उन्हें कट एवं कठोर वचन कहें। साध का यह कर्तव्य है कि- वह विना कुछ कहे एवं मन में भी किसी तरह की दुर्भावना लाए बिना तथा संक्लेश का संवेदन किए बिना शान्त भाव से गृहस्थ के घर से बाहर आ जाएं।