________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-3-13 (433) 229 निषेध किया गया है। इसका मुख्य उद्देश्य यह है कि उपाश्रय में चित्रित चित्र चाहे स्त्री-पुरुष कें हों या अन्य किन्हीं प्राणियों एवं प्रकतिक द्रश्यों के हों, साध उन्हें देखने में व्यस्त हो जाएगा और उसका स्वाध्याय एवं ध्यान का समय चक्षुइन्द्रिय के पोषण में लग लाएगा। इस तरह उसकी ज्ञान और ध्यान की साधना में विघ्न पड़ेगा और यदि उन चित्रों में आसक्ति उत्पन्न हो गई तो मन में विकृत भाव भी उत्पन्न हो सकते हैं। ज्ञान-दर्शन की साधना के प्रवाह को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए साधु को ऐसे स्थानों में ठहरने का निषेध किया गया है। छेद सूत्रों में भी ऐसे स्थानों में ठहरने का निषेध किया गया है। मकान में ठहरने मे बाद तख्त आदि की आवश्यकता होती है, अतः साधु को कैसा तख्त ग्रहण करना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... - I सूत्र // 13 // // 433 // से भिक्खू वा० अभिकंखिज्जा संथारगं एसित्तए, से जं, संथारगं जाणिज्जा सअंड जाव ससंताणयं, तहप्पगारं संथारं लाभे संते नो पडि०॥ से भिक्खू वा० से जं० अप्पंडं जाव संताणगरुयं तहप्पगारं नो पडि० // से भिक्खू वा० अप्पंडं लहुयं अपाडिहारियं तह० नो पडि० // से भिक्खू वा० अप्पंडं वा जाव अप्पसंताणगं लहुअं पाडिहारियं नो अहाबद्धं तहप्पगारं लाभे संते नो पडिगाहिज्जा // से भिक्खू वा से जं पुण० संथारगं जाणिज्जा अप्पंडं जाव संताणगं लहुअं पाडिहारिअं अहाबद्धं, तहप्पगारं संथारगं लाभे संते पडिगाहिज्जा / II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० अभिकाङ्क्षत संस्तारकं एषयितुं सः यत् संस्तारकं जानीयात् स-अण्डं यावत् ससन्तानकं, तथाप्रकारं संस्तारकं लाभे सति न प्रतिगृह्णीयात् // सः भिक्षुः वा० सः यत् अल्पाण्डं यावत् संतानकगरुकं तथाप्रकारं न प्रति० // सः भितुः वा0 अल्पाण्डं लघुकं अप्रातिहारिकं तथाप्रकारं० न प्रति० // स: भिक्षुः वा० अल्पाण्डं यावत् अल्पसन्तानकं लघुकं प्रातिहारिकं, न यथाबद्धं, तथाप्रकारं लाभे सति न प्रतिगृह्णीयात् //