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________________ 230 2-1-2-3-13 (433) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन स: भिक्षुः वा सः यत् पुनः संस्तारकं जानीयात् अल्पाण्डं यावत् अल्प सन्तानकं लघुकं प्रातिहारिकं यथाबद्धं, तथाप्रकारं संस्तारकं लाभे सति प्रतिगृह्णीयात् / / 433 / / III सूत्रार्थ : जो साधु या साध्वी फलक आदि संस्तारक की गवेषणा करनी चाहे तो वह संस्तारक के सम्बन्ध में यह जाने कि जो संस्तारक अण्डों से यावत् मकड़ी के जालों से युक्त है, ऐसे संस्तारक को मिलने पर भी ग्रहण न करे। ___ इसी प्रकार जो संस्तारक अण्डों और जाले आदि से तो रहित है, किन्तु भारी है, ऐसे संस्तारक का भी मिलने पर ग्रहण न करे। जो संस्तारक अण्डों से रहित एवं लधु भी है किन्तु गृहस्थ उसे देकर फिर वापिस लेना नहीं चाहता है, तो ऐसा संस्तारक भी मिलने पर स्वीकार न करे। इसी तरह जो संस्तारक अण्डादि से रहित है, लघु है और गृहस्थ ने उसे वापिस लेना भी स्वीकार कर लिया है परन्तु उसके बन्धन शिथिल हैं तो ऐसा संस्तारक भी स्वीकार न करे। जो संस्तारक अण्डों आदि से रहित है, लघु है, गृहस्थ ने वापिस लेना भी स्वीकार कर लिया है और उसके बन्धन भी सुदृढ़ हैं, तो ऐसे संस्तारक को मिलने पर साधु ग्रहण कर ले। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. जब फलकादि (लकड़ी की पाट) आदि की शोध करना चाहे, तब देखे कि- यह पाट-पाटले क्षुद्र जंतुओं के अंडेवाले तो नहि है न ? यदि अंडेवाले हो तो संयमविराधना का दोष लगता है..... दुसरे सूत्र में- यदि वे पाट-पाटले वजन में भारी हो तो उठाने करने में आत्मविराधनादि दोष लगने की संभावना है... तीसरे सूत्र में- यदि वहां कोई रखेवाल-चोकीदार न हो तो उसके परित्याग आदि दोष लगतें है... चौथे सूत्र में- यदि वे पाट-पाटले अबद्ध हो तो उनको बांधना आदि पलिमंथ दोष होतें हैं... पांचवा सूत्र- यदि वे पाट-पाटले अंडे के अभाववाले हो यावत् करोडीये (मकडी) के
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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