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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-3-14 (434) 231 जाले न हो, वजन में हलुवे हो, चौकीदार भी हो, और अवबद्ध याने बंधे हुए हो, तो सभी दोषों से मुक्त होने के कारण से वह साधु उन संस्तारक-पाट-पाटले को ग्रहण करें... इस प्रकार पांचों सूत्रो का यह समुदाय अर्थ जानीयेगा... अब संस्तारक के विषय में अभिग्रह विशेष कहतें हैं... V सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में संस्तारक-तख्त, पाट आदि के ग्रहण करने की विधि बताई गई है। इसमें बताया गया है कि जो तख्त अण्डे एवं जीव-जन्तुओंसे युक्त हो भारी हो जिसे गृहस्थ ने वापिस लेने से इन्कार कर दिया हो तथा जिसके बन्धन शिथिल (ढीले) हों, वह तख्त ग्रहण नहीं करना चाहिए। यहां निर्दिष्ट चार या इनमें से कोई भी एक कारण उपस्थित हो तो साधुसाध्वी को वेसा तख्त ग्रहण नहीं करना चाहिए। परन्तु, जो तख्त इन चारों कारणों से रहित हो वही तख्त साधु ग्रहण कर सकता है। इसका कारण यह है कि- अण्डे आदि से युक्त तख्त ग्रहण करने से जीवों की हिंसा होगी, अतः संयम की विराधना होगी। और भारी तख्त उठाकर लाने से शरीर को संक्लेश होगा, कभी अधिक बोझ के कारण रास्ते में पैर के इधर-उधर पड़ने से पैर आदि में चोट आ सकती है, इस तरह आत्म विराधना होगी। यदि गृहस्थ उस तख्त को वापिस नहीं लेता है तो फिर साधु के सामने यह प्रश्न उपस्थित होगा कि वह उसे कहां रखे। क्योंकि- उसे उठाकर तो वह विहार कर नहीं सकता और एक व्यक्ति के यहां से ली हुई वस्तु दूसरे के यहां रख भी नहीं सकता, और यदि वह उसे यों ही त्याग देता है तो उसे परित्याग करने का * दोष लगता है। और शिथिल बन्धन वाला तख्त लेने से उसे पलिमंथ दोष लगेगा। क्योंकियदि उसकी कोई कील निकल गई या वह कहीं से टूट या तो, साधु को स्वाध्याय में व्याघात होगा। अतः साधु को इन सब दोषों से मुक्त तख्त ही ग्रहण करना चाहिए। ___ जो तख्त अण्डे, जाले आदि से रहित हो, वजन में हल्का हो, साधु की आवश्यकता - पूरी होने पर गृहस्थ उसे वापिस लेने के लिए कह चुका हो और जिसके बंधन मजबूत हों, वही तख्त साधु-साध्वी को ग्रहण करना चाहिए। संस्तारक ग्रहण करने के लिए किए जाने वाले अभिग्रहों का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... सूत्र // 14 // // 434 // इच्चेयाई आयतणाई उवाइफ्कम्म-अह भिक्खू जाणिज्जा- इमाइं चउहिं पडिमाहिं
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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