________________ 232 2-1-2-3-14 (434) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन संथारगं एसित्तए, तत्थ खलु इमा पढमा पडिमा / भिक्खू वा उद्दिसिय संथारगं जाइज्जा, तं जहा-इक्कडं वा कढिणं वा जंतुयं वा, परगं वा मोरगं वा तणगं वा सोरगं वा कुसं वा कुच्चगं वा पिप्पलगं वा पलालगं वा, से पुत्वामेव ओलोइज्जा- आउसो ! त्ति वा भ० दाहिसि मे इत्तो अण्णयरं संथारगं ? तह० संथारगं सयं वा णं जाइज्जा परो वा देज्जा, फासुयं एसणिज्जं जाव पडि० पढमा पडिमा // 1 // // 434 / / II संस्कृत-छाया : इत्येतानि आयतनाननि उपातिक्रम्य-अथ भिक्षुः जानीयात् आभिः चतसृभिः प्रतिमाभिः संस्तारकं एषयितुं, तत्र खलु इयं प्रथमा प्रतिमा। भिक्षुः वा उद्दिश्य संस्तारकं याचेत, तदयथा- इक्कडं वा कठिनं वा जन्तुकं वा परकं वा मोरकं वा तृणकं वा सौरकं वा, कुशं वा कूर्चकं वा पिष्पलकं वा पलालकं वा सः पूर्वमेव आलोकयेत्-हे आयुष्मन् ! वा भ० दास्यसि मह्यं इतः अन्यतरत् संस्तारकं ? तथा० संस्तारकं स्वयं वा याचेत परः वा दद्यात्, प्रासुकं एषणीयं यावत् प्रतिगृह्णीयात्, प्रथमा प्रतिमा // 1 // || 434 // III सूत्रार्थ : साधु या साध्वी को वसती और संस्तारक सम्बन्धि दोषों को छोड़कर इन चार प्रतिज्ञाओं से संस्तारक की गवेषणा करनी चाहिए इन चार प्रतिज्ञाओं में से पहली प्रतिज्ञा यह है- साधु तृण आदि का नाम ले लेकर याचना करे। जैसे-इक्कड़-तृण विशेष, कठिन बांस से उत्पन्न हुआ तृण विशेष, तृण विशेष, तृण विशेषोत्पन्न, पुष्पादि के गुन्थन से निष्पन्न, मयूर पिच्छ से निष्पन्न-संस्तारक, दूब, कुशादि से निर्मित संस्तारक पिप्पल और शाली आदि के पलाल आदि को देखकर साधु कहे कि हे आयुष्मन् गृहस्थ ! अथवा भगिनि ! बहन ! क्या तुम मुझे इन संस्तारकों में से किसी एक संस्तारक को देओगी ? इस प्रकार के प्रासुक और निर्दोष संस्तारक की स्वयं याचना करे अथवा गृहस्थ ही बिना याचना किए दे तो साधु उसे ग्रहण कर सकता है। यह प्रथम अभिग्रह की विधि है। IV टीका-अनुवाद : इत्यादि पूर्व कहे गये आयतन याने उपाश्रय दोष रहित होने पर या आगे कहे जानेवाले दोषों का निवारण करके वसति और संस्तारक का ग्रहण करें... वह भाव-साधु विशिष्ट किसूत्रोक्त अभिग्रह स्वरुप चार प्रतिमाओ के माध्यम से संस्तारक की अन्वेषणा (शोध) करें... वे इस प्रकार-१. उद्दिष्टा, 2. प्रेक्ष्या, 3. तस्य एव, 4. यथासंस्तृता... ..