________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-3-14 (434) 233 1. उद्दिष्टा- फलहक याने पाट-पाटले में से कोई एक ग्रहण करुंगा... अन्य नहि // 1 // प्रेक्ष्या- पूर्व जो उद्दिष्ट कीया था उसको हि देखुंगा और बाद में ग्रहण करूंगा... अन्य नहि... यह दुसरी प्रतिमा... | // 2 // तस्यैव- और वह पाट-पाटले भी यदि शय्यातर के घर में हो, तो हि ग्रहण करुंगा, . किंतु यदि अन्य जगह से लाकर दे, तो वहां शयन (संथारा) नहिं करुंगा... || 3 || यथासंस्तृता- और वे फलहकादि याने पाट-पाटले यथासंस्तृत हि हो, तो ग्रहण करुंगा, अन्यथा नहि... यह चौथी प्रतिमा // 4 // इन चार प्रतिमा में से पहली दो प्रतिमाओं का ग्रहण जिनकल्पिक साधु नहि करतें, किंतु अंतिम दो प्रतिमाओं में से कोई भी एक प्रतिमा का अभिग्रह करतें हैं... तथा स्थविर कल्पवाले साधुओं को चारों प्रतिमा का अभिग्रह ग्रहण करना कल्पता है... इन चारों प्रतिमा का स्वरुप यथाक्रम से सूत्र के द्वारा कहतें हैं... जैसे कि- इक्कड आदि में से कोई भी एक प्रकार से संस्तारक ग्रहण करुंगा... इस प्रकार जिस मुनी को अभिग्रह हो, वह मुनी अन्य प्रकार के संस्तारक प्राप्त हो, तो भी ग्रहण न करें... इत्यादि शेष सुगम है... किंत- कठिन याने वंश, कट आदि... जंतुक याने तृण विशेष से तैयार होनावाला परक याने जिस तृण विशेष से होनेवाले पुष्प... मोरक याने मोर के पिंछे से बना हुआ, कूर्चक याने जिसके कूर्चक बनाये जाय वह... यह इस प्रकार के संस्तारक अनूपदेश में आदि भूमी को अंतरित (ढांकने के लिये) करने के लिये साधु को अनुज्ञा दी गइ है... अर्थात् ग्रहण करें... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में निर्दोष संस्तारक की गवेषणा के लिए उदिष्ट, प्रेक्ष्य, तस्यैव और यथासंस्तृत चार प्रकार के अभिग्रह का उल्लेख किया गया है। प्रस्तुत प्रसंग में सूत्रकार को संस्तारक से तृण, घास-फूस आदि बिछौना ही अभिप्रेत है। अतः यदि साधु-साध्वी को बिछाने के लिए तृण आदि की आवशक्यकता पड़े तो, उन्हें ग्रहण करने के लिए वह साधु या साध्वी जिस प्रकार का तृण या घास ग्रहण करना हो उसका नाम लेकर उसकी गवेषणा करे। अर्थात् तृण आदि की याचना के लिए जाने से पूर्व यह उद्देश्य बना ले कि मुझे अमुक प्रकार के तृण का संस्तारक ग्रहण करना है। जैसे- इक्कड़ आदि के तुण, जिनका तृण, जिनका नाम मूलार्थ में दिया गया है। इस तरह उस समय एवं आज भी साधु-साध्वी विभिन्न तरह के तृण एवं घास फूस के बिछौने का प्रयोग करते हैं। अतः संस्तारक संबन्धी पहली प्रतिमा (अभिग्रह) है कि साधु यह निश्चय करके गवेषणा करे कि मुझे संस्तारक के लिए अमुक तरह का तृण ग्रहण करना है। इस तरह साधु किसी भी एक प्रकार के तृण का नाम निश्चित करके उसकी याचना करता