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________________ 228 2-1-2-3-12 (432) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० स: यत् पुन: उपाश्रयं आकीर्णसंलेख्यं० न प्रज्ञस्य० // 432 // III सूत्रार्थ : जो उपाश्रय स्त्री पुरुष आदि के चित्रों से सज्जित हो तो उस उपाश्रय में प्रज्ञावान साधु को नहीं ठहरना चाहिए और वहां पर स्वाध्याय अथवा ध्यानादि भी नहीं करना चाहिए। IV टीका-अनुवाद : सुगम है, किंतु ऐसे उपाश्रय में विभिन्न चित्रों के दर्शन से स्वाध्यायादि में हानि होती . है... क्योंकि- तथाप्रकार के चित्रों में स्त्री आदि के दर्शन से, पूर्व गृहस्थावस्था में जो कोइ कामक्रीडा की हुइ हो, उसका स्मरण एवं कौतुक आदि होने की संभावनाएं हैं.... अब फलकादि संस्तारक के विषय में कहतें हैं... सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु को चित्रों से आकीर्ण उपाश्रय में नहीं ठहरना चाहिए। इसमें चित्र मात्र का उल्लेख किया गया है। यहां स्त्रियों एवं पुरुषों आदि के चित्र का भेद नहीं किया गया है। इससे यह ध्वनित होता है कि केवल चित्र का अवलोकन करने मात्र से ही विकार की जागृति नहीं होती। यदि स्त्री का चित्र देखते साधु का मन साधना के नियम को तोड़कर वासना की ओर प्रवहमान होने लगे तो फिर कोई भी साधु संयम में स्थिर नहीं रह सकेगा। क्योंकि, व्याख्यान सुनने एवं दर्शन के लिए आने वाली बहिनों को प्रत्यक्ष रूप से देखकर तथा आहार-पानी के समय भी उन्हें देखकर या उनसे बातें करके तो वह न मालूम कहां जा गिरेगा। संयम का नाश केवल स्त्री के चित्र या शरीर को देखने मात्र से नहीं होता, अपितु विकारी भाव से स्त्रियों को देखने पर संयम का विनाश होता है। ___ इससे यह प्रश्न पैदा होता है कि- फिर सूत्रकार ने चित्रों से युक्त मकान में ठहरने का निषेध क्यों किया ? इसका समाधान यह है कि चित्र केवल विकृति के ही साधन नहीं हैं, उनका और रूप में भी प्रभाव पड़ता है। यदि केवल विकार उत्पन्न होने की दृष्टि से ही निषेध किया जाता हो तब यह उल्लेख अवश्य किया जाता कि- साधु को स्त्री के चित्रों से चित्रित उपाश्रय में तथा साध्वी को पुरुषों के चित्र युक्त उपाश्रय में नहीं ठहरना चाहिए। परन्तु, प्रस्तुत सूत्र में तो केवल स्त्री-पुरुष के चित्र ही नहीं, अपितु पशु-पक्षी एवं नदी, पर्वत, जंगल आदि के प्राकृतिक चित्रों से युक्त उपाश्रय में भी ठहरने का निषेध किया है। जबकि पशुपक्षी एवं प्रकृति सन्बन्धी चित्रों को देखकर विकार भाव जागत नहीं होते हैं। फिर भी इसका
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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