________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-3-12 (432) 227 III सूत्रार्थ : जिस उपाश्रय-वस्ती में गृहपति यावत् उसकी स्त्रियें और दासिएं आदि नग्न अवस्था में खड़ी हैं, और नग्न होकर मैथुनधर्म विषय परस्पर वार्तालाप करती हैं, अथवा कोई रहस्यमय अकार्य के लिए गुप्तमंत्रणा-गुप्त विचार करती हैं तो बुद्धिमान साधु को ऐसे उपाश्रय में नहीं ठहरना चाहिए और उसमें कायोत्सर्गादि भी नहीं करना चाहिए। IV टीका-अनुवाद : जहां पडौसी की स्त्रीयां कपडे उतारकर नग्न बैठी हो, या नग्न होकर गुप्त रीति से मैथुनक्रीडा विषयक कुछ रहस्य याने रात्रि में कीये हुए संभोग-क्रीडा की परस्पर बातें करतें हो, अथवा अन्य रहस्य याने अनुचित कार्य संबंधित मंत्रणा याने बात-चित करतें हों, तो ऐसे उपाश्रय में साधु स्थानादि न करें, क्योंकि- वहां स्वाध्यायादि में हानि होती है, और चित्त विक्षोभ याने काम विकार के विकल्प इत्यादि दोष होने की संभावना होती है... V सूत्रसार, प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि जिस मकान में स्त्री-पुरुष नग्न होकर आमोदप्रमोद में व्यस्त हों, विषय-भोग सम्बन्धी वार्तालाप करते हों, रात्रि में मैथुन सेवन के लिए परस्पर प्रार्थना करते हों या किसी रहस्यमय कार्य के लिए गप्त मन्त्रणा कर रहे हों, तो विवेक सम्पन्न साधु को ऐसे स्थान में नहीं ठहरना चाहिए। क्योंकि इससे साधु के स्वाध्याय, ध्यान एवं चिन्तन-मनन में विघ्न पड़ेगा और उसके मन में भी विकार भावना जागृत हो सकती है। इसलिए साधु को सदा ऐसे स्थानों से बचकर ही रहना चाहिए। प्रस्तुत सूत्र से यह स्पष्ट होता है कि जब मानव मन में विषय-वासना की आग प्रज्वलित होती है तो उस समय वह अपना सारा विवेक भूल जाता है। उस समय उसे वस्त्रों का त्याग करने में भी हिचक नहीं होती और अश्लील शब्दों पर तो उसका जरा भी प्रतिबन्ध नहीं रहता है। इसलिए साधु-साध्वियों को ऐसे अश्लील वातावरण से सदा दूर रहना चाहिए। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 12 // // 432 / / से भिक्खू वा, से जं पुण उव० आइण्णसंलिक्खं, नो पण्णस्स० // 432 //