________________ 226 2-1-2-3-11 (4 31). श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन दूसरे के शरीर को शीतल जल से, उष्ण जल से छींटे देती है, धोती हैं, जल से सींचन करती हैं और स्नान कराती हैं, प्रज्ञावान् साधु को इस प्रकार के उपाश्रय मे न ठहरना चाहिए और न कायोत्सर्गादि क्रियाएं करनी चाहिए। IV टीका-अनुवाद : सुगम है, किंतु जहां पडौसी लोग प्रतिदिन कलह (झगडे) करते हो, वहां स्वाध्यायादि न हो पाने के कारण से साधु ऐसे उपाश्रय में स्थानादि न करें... इसी प्रकार- तैल आदि से अभ्यंगन, कल्क आदि से उदवर्तन एवं जल आदि से प्रक्षालन (स्नान) आदि के विषय में भी सत्र क्रमांक-४२८-२९-30 का भावार्थ जानीयेगा... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्रों में यह बताया गया हैं कि- जिस वस्ती में स्त्रिएं परस्पर लड़ती-झगड़ती हों, मार-पीट करती हों, या एक दूसरी के शरीर पर तेल आदि स्निग्ध पदार्थों की मालिस करती हों, मैल उतारती हों, या परस्पर पानी उछालती हों, छींटे मारती हों या इसी तरह की अन्य क्रीड़ाएं करती हों तो मुनि को ऐसे स्थान में नहीं ठहरना चाहिए। ये चारों सूत्र स्त्रियों से सम्बन्धित हैं, अतः ऐसे स्थानों में साधुओं को ठहरने के लिए निषेध किया गया है, क्योंकि, इससे उनके मन में विकार जागृत हो सकता है। परन्तु, साध्विएं ऐसे स्थान में ठहर सकती हैं। यदि किसी वस्ती में उपरोक्त क्रियाएं पुरुष करते हों तो वहां साध्वियों को नहीं ठहरना चाहिए। छेद सूत्रों में भी बताया गया है कि जिस मकान में स्त्रिएं रहती हों उस मकान में साधु को तथा जिस मकान में पुरुष रहते हों उस मकान में साध्वियों को ठहरना नहीं कल्पता। ___ इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 11 // // 439 // से भिक्खू वा० से जं० इह खलु गाहावई वा, जाव कम्मकरीओ वा निगिणा ठिया, निगिणा उल्लीणा, मेहुणधम्म विण्णर्विति रहस्सियं वा मंतं मंतंति, नो पण्णस्स जाव नो ठाणं वा चेइज्जा // 431 / / II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० स: यत् इह खलु गृहपतिः वा, यावत् कर्मकरी वा नग्ना स्थिता, नग्ना उपलीना मैथुनधर्म विज्ञापयन्ति, रहस्यं वा मन्त्रं मन्त्रयन्ति, न प्रज्ञस्य यावत् न स्थानं वा, वेतयेत् // 431 //