________________ 430 2-2-3-3-3 (501) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन जहां पर द्वीन्द्रियादि जीव जन्तु एवं मकड़ी आदि के जाले भी न हों, ऐसी अचित्त भूमि पर बैठकर साधु उच्चार प्रश्रवण का परिष्ठापन करे, उसके पश्चात् वह उस पात्र को लेकर एकान्त स्थान में जाए जहां पर न कोई आता जाता हो और न कोई देखता हो, जहां पर किसी जीव की हिंसा न होती हो यावत् जल आदि न हो, उद्यान-बाग की अचित्त भूमि में अथवा अग्नि से दग्ध हुए स्थंडिल में, इसी प्रकार के अन्य अचित्त स्थंडिल में-जहां पर किसी भी जीव की विराधना न होती हो, साधु मल मूत्र का परित्याग करे। इस प्रकार साधु और साध्वी का समय आचार वर्णित हुआ है जो कि ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप अर्थों में और पांचों समितियों से युक्त है और साधु इन के पालन में सदैव प्रयत्नशील रहता है। इस प्रकार में कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. अपना या दूसरे साधु का समाधिस्थान स्वरुप पात्र लेकर .. ऐसी निर्जीव स्थंडिल भूमि में जावे कि- जहां कोई मनुष्य आवे नहि एवं देखे भी नही... ऐसी अनापात-असंलोक स्थंडिल भूमी में जाकर मल-मूत्र का विसर्जन याने त्याग करे... शेष सूत्र का अर्थ सुगम है... अतः पूर्ववत् जाने... इस प्रकार की आचरणा से ही साधु का सच्चा साधुपना . होता है... इति... ब्रवीमि... पूर्ववत्... V सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में बताया है कि साधु को एकान्त एवं निर्दोष और निर्वद्य भूमि पर मल मूत्र का त्याग करना चाहिए। जिस स्थान पर कोई व्यक्ति आता-जाता हो या देखता हो तो ऐसे स्थान पर मल-मूत्र नहीं करना चाहिए। क्योंकि, इससे साधु निस्संकोच भाव से मलमूत्र का त्याग नहीं कर सकेगा, उसको इस क्रिया में कुछ रुकावट पड़ेगी, जिससे कई तरह के रोग उत्पन्न हो सकते हैं। और देखने वाले व्यक्ति के मन में भी यह भाव उत्पन्न हो सकता है कि- यह साधु कितना असभ्य है कि लोगों के आवागमन के मार्ग में ही मलमूत्र का त्याग करने बैठ गया है। अतः साधु को सब तरह की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर एकान्त स्थान में ही मल-मूत्र का त्याग करना चाहिए। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें। // द्वितीयश्रुतस्कन्धे द्वितीयचूलिकायां तृतीयः सप्तैककः समाप्तः // 卐卐卐