________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-2-3-3-3 (501) 429 कूड़े-कर्कट के ढेर, खडे एवं फटी हुई जमीन पर भी न परठे। क्योंकि, वहां परठने से अनेक जीवों की हिंसा होने की संभावना है। इसके अतिरिक्त साधु को ऐसे स्थानों पर भी मल-मूत्र का त्याग नहीं करना चाहिए, जहां लोगों को फांसी दी जाती हो या अन्य तरह से वध किया जाता हो। क्योंकि, उनके मन में घृणा पैदा होने से संघर्ष हो सकता है। इस सूत्र से यह स्पष्ट होता है कि साधु सभ्यता एवं स्वच्छता का पूरा ख्याल रखते थे। गांव एवं शहर की स्वच्छता नष्ट न हो तथा साधु के प्रति किसी के मन में घृणा की भावना पैदा न हो इसका भी परठते समय ध्यान रखा जाता था। इससे यह सिद्ध होता है कि साधु अपने साधना के लिए किसी भी प्राणी का अहित नही करता। वह प्रत्येक प्राणी की रक्षा एवं समाधि करने का प्रयत्न करता है। मल-मूत्र के त्याग के सम्बन्ध में कुछ और आवश्यक बातें बताते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 3 // // 501 // से भि० सयपाययं वा परपाययं वा गहाय से तमायाए एगंतमवक्कमे अणावायंसि असंलोयंसि अप्पपाणंसि जाव मक्कडासंताणयंसि अहारामंसि वा उवस्सयंसि तओ संजयामेव उच्चारपासवणं वोसिरिज्जा, से तमायाए एगंतमवक्कमे अणाबाहंसि जाव संताणयंसि अहारामंसि वा झामथंडिल्लंसि वा अण्णयरंसि वा तह० थडिल्लंसि अचित्तंसि तओ संजयामेव उच्चारपासवणं वोसिरिज्जा, एयं खलु तस्स० सया जइज्जासि त्तिबेमि // 501 // II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा० स्वपात्रकं वा परपात्रकं वा गृहीत्वा, सः तमादाय एकान्तं अपक्रामेत् अनापाते असंलोके अल्पप्राणिनि यावत् मर्कटासन्तानके अध: आरामे वा उपाश्रये वा तत: संयतः एव उच्चारप्रश्रवणं व्युत्सृजेत्, स: तमादाय एकान्तमपक्रामेत् अनाबाधे यावत् असन्तानके अध: आरामे वा दग्धस्थण्डिले वा अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारे स्थण्डिले अचित्ते, ततः संयतः एव उच्चार-प्रश्रवणं व्युत्सृजेत्, एतत् खलु तस्य० सदा यतेत इति ब्रवीमि // 501 // III सूत्रार्थ : संयमशील साधु या साध्वी स्वपात्र अथवा परपात्र को लेकर बगीचे या उपाश्रय के एकान्त स्थान में जाए और जहां पर न कोई देखता हो और न कोई आता जाता हो तथा